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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन

प्यार क्या है ? यह एक बड़ा अजीब सा प्रश्न है। पिछले दिनों इमरोज जी का एक इण्टरव्यू पढ़ रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब वे अमृता प्रीतम के लिए कुछ करते थे तो किसी चीज़ की आशा नहीं रखते थे। ज़ाहिर है प्यार का यही रूप भी है, जिसमें व्यक्ति चीज़े आत्मिक ख़ुशी के लिए करता है न कि किसी अपेक्षा के लिए। पर क्या वाकई यह प्यार अभी ज़िंदा है? हम वाकई प्यार में कोई अपेक्षा नहीं रखते। यदि रखते हैं तो हम सिर्फ़ रिश्ते निभाते हैं, प्यार नहीं? क्या हम अपने पति, बच्चों, माँ-पिता, भाई-बहन, से कोई अपेक्षा नहीं रखते। सवाल बड़ा जटिल है पर प्यार का पैमाना क्या है? यदि किसी दिन पत्नी या प्रेमिका ने बड़े मन से खाना बनाया और पतिदेव या प्रेमी ने तारीफ़ के दो शब्द तक नहीं कहे, तो पत्नी का असहज हो जाना स्वाभाविक है। अर्थात् पत्नी/प्रेमिका अपेक्षा रखती है कि उसके अच्छे कार्यों की सराहना की जाय। यही बात पति या प्रेमी पर भी लागू होती है। वह चाहे मैनर हो या औपचारिकता, मुख से अनायास ही निकल पड़ता है- ’धन्यवाद या इसकी क्या ज़रूरत थी।’ यहाँ तक कि आपसी रिश्तों में भी ये चीज़ें जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं। जीवन की इस भागदौड़ में ये छोटे-छोटे शब्द एक आश्वस्ति सी देते हैं। पर सवाल अभी भी वहीं है कि क्या प्यार में अपेक्षायें नहीं होती हैं? सिर्फ़ दूसरे की ख़ुशी अर्थात् स्व का भाव मिटाकर चाहने की प्रवृत्ति ही प्यार कही जायेगी। यहाँ पर मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान के शब्द याद आते हैं- ‘‘जब पहली बार प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आँखें खोली थीं और अपनी जोशीली अँगुलियों से मेरी रूह को छुआ था, तब दिन सपनों की तरह और रातें विवाह के उत्सव की तरह बीतीं।”

भारतीय संस्कृति में तो इस प्यार के लिए एक पूरा मौसम ही है- वसंत। वसंत तो प्रकृति का यौवन है, उल्लास की ऋतु है। इसके आते ही फ़िज़ा में रूमानियत छाने लगती है। निराला जी कहते हैं-

सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।

वसंत के सौंदर्य में जो उल्लास मिलता है, फिर हर कोई चाहता है कि अपने प्यार के इज़हार के लिए उसे अगले वसंत का इंतज़ार न करना पड़े। भारतीय संस्कृति में ऋतुराज वसंत की अपनी महिमा है। प्यार के बहाने वसंत की महिमा साहित्य और लोक संस्कृति में भी छाई है। तभी तो ‘अज्ञेय‘ ऋतुराज का स्वागत करते नज़र आते हैं-

अरे ऋतुराज आ गया।
पूछते हैं मेघ, क्या वसंत आ गया?
हंस रहा समीर, वह छली भुला गया।
कितु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचती-
हमें कौन स्नेह स्पर्श कर जगा गया?
वही ऋतुराज आ गया।

प्रेम आरम्भ से ही आकर्षण का केंद्र बिंदु रहा है। कबीर ने तो यहाँ तक कह दिया कि-’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’ प्रेम को लेकर न जाने कितना कुछ कहा गया, रचा गया। यहाँ तक कि वैदिक ऋचायें भी इससे अछूती नहीं रहीं। वहाँ भी प्रेम की महिमा गाई गई है। अथर्ववेद के एक प्रेम गीत ‘प्रिया आ’ के हिन्दी में रूपांतरित सुमधुर बोल अनायास ही दिलोदिमाग़ को झंकृत करने लगते हैं-

मत दूर जा/लिपट मेरी देह से/
लता लतरती ज्यों पेड़ से/मेरे तन के तने पर /
तू आ टिक जा/अंक लगा मुझे/
कभी न दूर जा/पंछी के पंख कतर/
ज़मीं पर उतार लाते ज्यों/छेदन करता मैं तेरे दिल का/
प्रिया आ, मत दूर जा।/धरती और अंबर को /
सूरज ढक लेता ज्यों/तुझे अपनी बीज भूमि बना/
आच्छादित कर लूंगा तुरंत/प्रिया आ, मन में छा/
कभी न दूर जा/आ प्रिया!

प्रेम एक बेहद मासूम अभिव्यक्ति है। अर्थववेद में समाहित ये प्रेम गीत भला किसे न बांध पायेंगे। जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं, वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है? प्रेम सिर्फ़ दैहिक नहीं होता, तात्कालिक नहीं होता, उसमें एक समर्पण होता है। अथर्ववेद के ही एक अन्य गीत ‘तेरा अभिषेक करूँ मैं‘ में अतर्निहित भावाभिव्यक्तियों को देखें-

पृथ्वी के पयस से/अभिषेक करूँ/
औषध के रस से/करूँ अभिषेक/
धन-संतति से/सुख-सौभाग्य सभी/तुझ पर वार करूँ मैं।/
यह मैं हूँ/वह तुम/मैं साम/तुम ऋचा/मैं आकाश/तुम धरा/
हम दोनों मिल/सुख सौभाग्य से/संतति संग/जीवन बिताएँ।

वेदों की ऋचाओं से लेकर कबीर-बानी के तत्व को सहेजता यह प्रेम सिर्फ लौकिक नहीं अलौकिक और अप्रतिम भी है। इसकी मादकता में भी आत्म और परमात्म का ज्ञान है। तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- “वसंत का मादक काल उस रहस्यमय दिन की स्मृति लेकर आता है, जब महाकाल के अदृश्य इंगित पर सूर्य और धरती-एक ही महापिंड के दो रूप-उसी प्रकार वियुक्त हुए थे जिस प्रकार किसी दिन शिव और शक्ति अलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है।“ हमारे यहाँ तो प्रेम अध्यात्म से लेकर पोथियों तक पसरा पड़ा है। उसके लिए किसी साकार और निर्विकार का भेद नहीं बल्कि महसूस करने की जरूरत है। राधा-कृष्ण का प्रेम भी अपनी पराकाष्ठा था तो उसी कृष्ण के प्रेम में मीरा का जोगन हो जाना भी पराकाष्ठा को दर्शाता है। आख़िर इस प्रेम में देह कहाँ है ? खजुराहो और कोणार्क की भित्तिमूर्तियाँ तो देवी-देवताओं को भी अलंकृत करती हैं। फिर कबीर भला क्यों न कहें- ’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’

पर दुर्भाग्यवश आज की युवा पीढ़ी प्यार के लिए भी पाश्चात्य संस्कृति की ओर झाँकती है। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट के प्यार के किस्से सुनते-सुनते जो पीढ़ियाँ बड़ी हुईं, उनके अंदर प्रेम का अनछुआ अहसास कब घर कर गया पता ही नहीं चला। मन ही मन में किसी को चाहने और यादों में जिन्दगी गुज़ार देने का फ़लसफ़ा देखते ही देखते पुराना हो गया। फ़िल्मों और टी. वी. सीरियलों ने प्रेम को अभिव्यक्त करने के ऐसे-ऐसे तरीक़े बता दिए कि युवा पीढ़ी वाकई ‘मोबाइल’ हो गई, पत्रों की जगह ‘चैट’ ने ले ली और अब प्यार का इजहार ‘ट्वीट’ करके किया जाने लगा। प्रेम का रस उसे वेलेण्टाइन-दिवस में दिखता है, जो कि कुछ दिनों का ख़ुमार मात्र है । ऋतुराज वसंत और इसकी मादकता की महिमा वह तभी जानता है, जब वह ‘वेलेण्टाइन‘ के पंखों पर सवार होकर अपनी ख़ुमारी फैलाने लगे। दरअसल यही दुर्भाग्य है कि हम जब तक किसी चीज़ पर पश्चिमी सभ्यता का ओढ़ावा नहीं ओढ़ा लेते, उसे मानने को तैयार ही नहीं होते। ‘योग’ की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘योगा’ होकर आयातित हुआ। और यही बात इस प्रेम पर भी लागू हो रही है। काश कि वे बसंती बयार में मदमदाते इस प्यार को अंदर से महसूस करते-

शुभ हो वसंत तुम्हें
शुभ्र, परितृप्त, मंद मंद हिलकोरता
ऊपर से बहती है सूखी मंडराती हवा,
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फटे से हैं सीठे अधजगे होठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है। (विजयदेव नारायण साही)

फ़िलहाल वेलेण्टाइन-डे का ख़ुमार युवाओं के दिलोदिमाग़ पर चढ़कर बोल रहा है। जो प्रेम कभी भीनी ख़ुशबू बिखेरकर चला जाता था, वह जोड़ों को घर से भगाने लगा। कोई इसी दिन पण्डित से कहकर अपना विवाह-मुहूर्त निकलवाता है तो कोई इसे अपने जीवन का यादगार लम्हा बनाने का दूसरा बहाना ढूँढता है। एक तरफ़ नैतिकता की झंडाबरदार सेनायें वेलेण्टाइन-डे का विरोध करने और इसी बहाने चर्चा में आने का बेसब्री से इंतज़ार करती हैं-‘करेंगे डेटिंग तो करायेंगे वेडिंग।‘ यही नहीं इस सेना के लोग अपने साथ पण्डितों को लेकर भी चलते हैं, जिनके पास ‘मंगलसूत्र‘ और ‘हल्दी‘ होगी। अब वेलेण्टाइन डे के बहाने पण्डित जी की भी बल्ले-बल्ले है तो प्रेम की राह में ‘खाप पंचायतें’ भी अपना हुक्म चलाने लगीं। जब सबकी बल्ले-बल्ले हो तो भला बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कैसे पीछे रह सकती हैं। प्रेम कभी दो दिलों की धड़कन सुनता था, पर बाज़ारवाद की अंधी दौड़ ने इन दिलों में अहसास की बजाय गिफ्ट, ग्रीटिंग कार्ड, चाकलेट, फूलों का गुलदस्ता भर दिया और प्यार मासूमियत की जगह हैसियत मापने वाली वस्तु हो गई। ‘प्रेम‘ रूपी बाज़ार को भुनाने के लिए उन्होंने वेलेण्टाइन-डे को बकायदा कई दिनों तक चलने वाले ‘वेलेण्टाइन-उत्सव’ में तब्दील कर दिया है। यही नहीं, हर दिन को अलग-अलग नाम दिया है और लोगों की जेब के अनुरूप गिफ्ट भी तय कर दिये हैं। यह उत्सव फ्रैगरेंस डे, टैडीबियर डे, रोज स्माइल प्रपोज डे, ज्वैलरी डे, वेदर चॉकलेट डे, मेक ए फ्रेंड डे, स्लैप कार्ड प्रामिस डे, हग चॉकलेट किस डे, किस स्वीट हर्ट हग डे, लविंग हार्टस डे, वैलेण्टाइन डे, फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे के रूप में अनवरत चलता रहता है और हर दिन को कार्पोरेट जगत से लेकर मॉल कल्चर और होटलों की रंगीनी से लेकर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स और मीडिया की फ्लैश में चकाचौंध कर दिया जाता है और जब तक प्यार का ख़ुमार उतरता है, करोड़ों के वारे-न्यारे हो चुके होते हैं। टेक्नॉलाजी ने जहाँ प्यार की राहें आसान बनाई, वहीं इस प्रेम की आड़ में डेटिंग और लिव-इन-रिलेशनशिप इतने गड्डमगड्ड हो गए कि प्रेम का ’शरीर’ तो बचा पर उसका ’मन’ भटकने लगा। प्रेम के नाम पर बचा रह गया ‘देह विमर्श’ और फिर एक प्रकार का उबाउपन। काश वसंत के मौसम में प्रेम का वह अहसास लौट आता-

वसंत
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता सा
अनुभव से जानता हूँ
कि यह वसंत है (रघुवीर सहाय)

आकांक्षा यादव

(मेरा यह लेख 9 फरवरी, 2011 को सृजनगाथा पर प्रकाशित हुआ था.)

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

नारी सशक्तिकरण की पर्याय : फूलबासन यादव

कहते हैं प्रतिभा के लिए कोई उपमान नहीं होता. वह अपना आसरा खुद ही ढूंढ़ लेती है. ऐसे ही एक शख्शियत हैं- छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव जनपद के सुकुलदैहान गाँव की श्रीमती फूलबासन यादव, जिन्हें उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान दिए जाने की घोषणा की गई है। नारी सशक्तिकरण की साक्षात् उदाहरण फूलबासन यादव आज कईयों के लिए प्रेरणास्रोत बन चुकी हैं. उनके अन्दर व्याप्त संवेदना, जज्बा प्रतिदिन उन्हें आगे बढ़ने को न सिर्फ प्रेरित करता है, बल्कि कईयों को साथ लेकर आगे बढ़ने के लिए प्रवृत्त भी करता है.

राजनांदगांव जिले के एक छोटे से गांव सुकुलदैहान के गरीब परिवार की श्रीमती फूलबासन यादव राजनांदगांव ही नहीं वरन् छत्तीसगढ़ राय में महिला सशक्तिकरण की रोल मॉडल के रूप में जानी जाती है। राजनांदगांव जिले में महिलाओं को संगठित एवं जागरूक बनाने के साथ ही उन्हें सामाजिक एवं आर्थिक रूप से आगे बढ़ाने में भी श्रीमती फूलबासन यादव ने अग्रणी भूमिका निभाई है। माँ बम्लेश्वरी महिला स्व.सहायता समूह के बैनर तले जिले की लगभग डेढ़ लाख महिलाओं को संगठित एवं एकजुट करने में श्रीमती फूलबासन यादव ने सूत्रधार की भूमिका अदा की है। महिलाओं के सशक्तिकरण एवं उनके उत्थान के लिए उनके द्वारा किए गए सार्थक प्रयासों के चलते ही पूर्व में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा उन्हें वर्ष 2004-05 में मिनी माता अलंकरण से सम्मानित किया गया था। और अब श्रीमती फूलबासन यादव के महिला सशक्तिकरण एवं सामाजिक जागरूकता के कार्यों को देखते हुए भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किए जाने की घोषणा उनके कार्यों को और भी संबल देती है.

वर्ष 1971 में राजनांदगांव जिले के ग्राम छुरिया में श्री झडीराम यादव एवं श्रीमती सुमित्रा बाई कि पुत्री रूप में फूलबासन यादव का जन्म हुआ, तब किसने सोचा था कि एक दिन अपने नायब कार्यों से फूलबासन वाकई फूल की तरह अपनी सुगंध बिखेरंगीं. घर की पारिवारिक स्थिति आर्थिक रूप से कमजोर होने के बावजूद बड़ी मुश्किल से उन्होंने कक्षा 7वीं तक शिक्षा हासिल की। मात्र 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ग्राम सुकुलदैहान के चंदूलाल यादव से हुआ। भूमिहीन चंदूलाल यादव का मुख्य पेशा चरवाहा का है। गांव के लोगों के पशुओं की चरवाही और बकरीपालन उनके परिवार की जीविका का आज भी आधार है।वर्ष 2001 में तत्कालीन जिलाधिकारी दिनेश श्रीवास्तव की पहल पर राजनांदगांव जिले में महिलाओं को एकजुट करने एवं उन्हें जागरूक बनाने के उद्देश्य से गांव-गांव में मां बम्लेश्वरी स्व.-सहायता समूह का गठन प्रशासन द्वारा शुरू किया गया। 2001 में इस अभियान से प्रेरित एवं कलेक्टर श्री श्रीवास्तव के प्रोत्साहन पर श्रीमती फूलबासन यादव ने अपने गांव सुकुलदैहान में 10 गरीब महिलाओं को जोड़कर प्रज्ञा मां बम्लेश्वरी स्व-सहायता समूह का गठन किया। महिलाओं को आगे बढ़ाने एवं उनकी भलाई के लिए निरंतर जद्दोजहद करने वाली फूलबासन यादव ने इस अभियान में सच्चे मन से बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी सुनिश्चित की। अभियान के दौरान उन्हें गांव-गांव में जाकर महिलाओं को जागरूक और संगठित करने का मौका मिला। अपनी नेक नियति और हिम्मत की बदौलत श्रीमती यादव ने इस कार्य में जबरदस्त भूमिका अदा की। देखते ही देखते राजनांदगांव जिले में मात्र एक साल की अवधि में 10 हजार महिला स्व-सहायता समूह गठित हुए और इससे डेढ़ लाख महिलाएं जुड़ गई। श्रीमती यादव ने ग्रामीण महिलाओं के बीच सामाजिक चेतना जाग्रत कर उनके आर्थिक विकास के लिए पहल की और लगभग ग्रामीण महिलाओं को जोड़ते हुए मात्र दस हजार की लागत से मां बम्लेश्वरी जनहितकारी समिति बनाई. कम पढ़ी लिखी महिलाओं की मदद से जल्द ही समिति ने बम्लेश्वरी ब्रांड नाम से आम और नींबू के अचार तैयार किए और छत्तीसगढ़ के तीन सौ से अधिक स्कूलों में उन्हें बेचा जाने लगा जहां बच्चों को गर्मागर्म मध्यान्ह भोजन के साथ घर जैसा स्वादिष्ट अचार मिलने लगा. इसके अलावा उनकी संस्था अगरबत्ती, वाशिंग पावडर, मोमबत्ती, बड़ी-पापड़ आदि बना रही है जिससे दो लाख महिलाओं को स्वावलम्बन की राह मिली है. श्रीमती यादव के मुताबिक अचार बनाने के इस घरेलू उद्योग में लगभग सौ महिला सदस्यों को अतिरिक्त आमदनी का एक बेहतर जरिया मिला और दो से तीन हजार रूपये प्रतिमाह तक कमा रही हैं. समिति ने अब तक करीब दो लाख रूपए का अचार बेचा है. इन सबका नतीजा यह हुआ कि महिलाओं ने एक दूसरे की मदद का संकल्प लेने के साथ ही थोड़ी-थोड़ी बचत शुरू की। देखते ही देखते बचत की स्व-सहायता समूह की बचत राशि करोड़ों में पहुंच गई। इस बचत राशि से आपसी में लेने करने की वजह से सूदखोरों के चंगुल से छुटकारा मिला। बचत राशि से स्व-सहायता समूह ने सामाजिक सरोकार के भी कई अनुकरणीय कार्य शुरू कर दिए, जिसमें अनाथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, बेसहारा बच्चियों की शादी, गरीब परिवार के बच्चों का इलाज आदि शामिल है। श्रीमती यादव ने सूदखोरों के चंगुल में फंसी कई गरीब परिवारों की भूमि को भी समूह की मदद से वापस कराने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की।

श्रीमती फूलबासन यादव को 2004-05 में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मिनीमाता अलंकरण से विभूषित किया गया। 2004-05 में ही महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से बचत बैंक में खाते खोलने और बड़ी धनराशि बचत खाते में जमा कराने के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए श्रीमती फूलबासन बाई को नाबार्ड की ओर से राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। वर्ष 2006-07 में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया गया। 2008 में जमनालाल बजाज अवार्ड के साथ ही जी-अस्तित्व अवार्ड तथा 2010 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नई दिल्ली में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील के हाथों स्त्री शक्ति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। श्रीमती यादव को सद्गुरू ज्ञानानंद एवं अमोदिनी अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। उक्त पुरस्कार के तहत मिलने वाली राशि को उन्होंने महिलाओं एवं महिला समूहों को आगे बढ़ाने में लगा दिया है। श्रीमती यादव के परिवार का जीवन-यापन आज भी बकरीपालन व्यवसाय के जरिए हो रहा है।

श्रीमती यादव ने अपने 12 साल के सामाजिक जीवन में कई उल्लेखनीय कार्यों को महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से अंजाम दिया है। महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से गांव की नियमित रूप से साफ-सफाई, वृक्षारोपण, जलसंरक्षण के लिए सोख्ता गढ्ढा का निर्माण, सिलाई-कढ़ाई सेन्टर का संचालन, बाल भोज, रक्तदान, सूदखोरों के खिलाफ जन-जागरूकता का अभियान, शराबखोरी एवं शराब के अवैध विक्रय का विरोध, बाल विवाह एवं दहेज प्रथा के खिलाफ वातावरण का निर्माण, गरीब एवं अनाथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के साथ ही महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में भी श्रीमती यादव ने प्रमुख भूमिका अदा किया है।

महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सशक्त सूत्रधार के रूप में अपना स्थान बनाने वालीं श्रीमती फूलबासन यादव का पद्मश्री के लिए चयन तो पड़ाव मात्र है. इससे जहाँ फूलबासन यादव की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं, वहीँ सरकार को भी ऐसे लोगों की खोज में निरंतर लगे रहना चाहिए जो बिना किसी लाग-लपेट के दूर-दराज गांवों में रहकर समृद्धि के गीत लिख रहे हैं..!!

- आकांक्षा यादव