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रविवार, 27 अप्रैल 2014

चिड़िया प्यासी





चिड़िया प्यासी 
रखिये पानी रोज 
छत-छज्जे पे। 

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

लोकतंत्र की जीवंतता का प्रतीक है 'मतदान'

'मतदान' लोकतंत्र की जीवंतता का प्रतीक है। इसके माध्यम से हम अपने जनप्रतिनिधियों को न सिर्फ चुनते और सचेत करते हैं, बल्कि नीति-निर्माण को भी प्रभावित करते हैं।  हमें संकल्प लेना होगा कि घर, चौपालों और सोशल मीडिया पर व्यवस्था को कोसने की बजाय हम बाहर निकलें और कतारबद्ध होकर अपने मत का प्रभावी इस्तेमाल करें। इस एक दिन की चूक हमें पूरे पाँच साल के लिए पंगु बना सकती है, इसलिए मतदान को उत्सवधर्मिता की तरह लेते हुए भारत के सुनहरे भविष्य के लिए हर व्यक्ति को मतदान सुनिश्चित करना चाहिए !!  


हर दाग ख़राब नहीं होता। अगर अंगुली में दाग लगने से अपने देश में एक अच्छी सरकार बनती है, तो दाग अच्छे ही कहे जाएंगे !! 


उँगली का सही इस्तेमाल इस देश का भविष्य तय करता है। सो; ऊँगली का इस्तेमाल कीजिये पर सोच-समझकर।


गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

क्या है मेरे नाम का ??


देह मेरी ,
हल्दी तुम्हारे नाम की ।

हथेली मेरी ,
मेहंदी तुम्हारे नाम की ।

सिर मेरा ,
चुनरी तुम्हारे नाम की ।

मांग मेरी ,
सिन्दूर तुम्हारे नाम का ।

माथा मेरा ,
बिंदिया तुम्हारे नाम की ।

नाक मेरी ,
नथनी तुम्हारे नाम की ।

गला मेरा ,
मंगलसूत्र तुम्हारे नाम का ।

कलाई मेरी ,
चूड़ियाँ तुम्हारे नाम की ।

पाँव मेरे ,
महावर तुम्हारे नाम की ।

उंगलियाँ मेरी ,
बिछुए तुम्हारे नाम के ।

बड़ों की चरण-वंदना
मै करूँ ,
और 'सदा-सुहागन' का आशीष
तुम्हारे नाम का ।

और तो और -
करवाचौथ/बड़मावस के व्रत भी
तुम्हारे नाम के ।

यहाँ तक कि
कोख मेरी/ खून मेरा/ दूध मेरा,
और बच्चा ?
बच्चा तुम्हारे नाम का ।

घर के दरवाज़े पर लगी
'नेम-प्लेट' तुम्हारे नाम की ।

और तो और -
मेरे अपने नाम के सम्मुख
लिखा गोत्र भी मेरा नहीं,
तुम्हारे नाम का ।

सब कुछ तो
तुम्हारे नाम का...

नम्रता से पूछती हूँ -

आखिर तुम्हारे पास...
क्या है मेरे नाम का?

(आज ही यह कविता मेल पर प्राप्त हुई।  रचनाकार का नाम नहीं पता, पर रचना अच्छी और जीवंत लगी, अत : शेयर कर रही हूँ।)

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

दिखायें मतदान का अधिकार


चुनाव की आ गई बहार
लोकतंत्र का  ये त्यौहार
नेता घूमें घर-घर गाँव
राजा और रंक एक समान।

मुद्दे अभी वही  हैं बारम्बार
गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार
महँगाई आसमान को छुये
अपराधी रोज रहे ललकार।

पाँच साल बाद आई यह बेला
घोषणाओं का फैला रेलम-रेला
जनता अब गई है जाग
नहीं चलेगा कोई खेला।

जाति-धर्म से ऊपर उठकर
दिखायें मतदान का अधिकार
लोकतंत्र के बनेँगेँ  पहरुए
जनता ने भरी है हुंकार। 



आकांक्षा यादव, (लेखिका और न्यू मीडिया एक्टिविस्ट)
सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.)- 211001