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सोमवार, 21 मार्च 2016

'दैनिक नवज्योति' हिन्दी समाचार पत्र (राजस्थान) का अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर शर्मनाक कारनामा

''नारी तू नारायणी'' सुनना अच्छा लगता है, पर जब इसकी आड़ में नारी की रचनाधर्मिता पर ही चोट की जाय, तो बड़ा अजीब लगता है।  राजस्थान से प्रकाशित ''दैनिक नवज्योति'' अख़बार ने 8 मार्च 2016 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हमारे एक आलेख ''बदलते दौर में महिला'' को भिन्न-भिन्न खण्डों में चोरी से कट-पेस्ट कर दूसरी महिलाओं  के नाम से प्रकाशित किया है। जिन महिलाओं  के नाम से इसे खण्डवार रूप में प्रकाशित किया गया है, उनके नाम हैं -शिवानी पुरोहित (कवयित्री व लेखिका), रुचिका शर्मा (व्याख्याता), संजू सोलंकी, अल्का बोहरा, इंजि मुक्ता चौधरी, कविता शर्मा (अध्यापिका), डा. मनोरमा उपाध्याय, प्राचार्य, महिला महाविद्यालय, शोभा सोनी (गृहिणी)। ''दैनिक नवज्योति'' समाचार पत्र के जोधपुर संस्करण में पृष्ठ संख्या 10 और 13 पर लेख के अधिकतर हिस्से को काट-छाँट कर इन महिलाओं के नाम से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर प्रकाशित किया गया है। यह आलेख इंटरनेट पर भी उपलब्ध है और शायद इसीलिए इसके संपादक या संबंधित पेज  के संयोजक ने मेहनत करने की बजाय इसे सीधे कट-पेस्ट कर दूसरों  के नाम से प्रकाशित कर दिया। वाह रे ''अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस'' मनाने का अखबारी और कागजी जज्बा।  

समाचार पत्र का इतिहास खंगाला तो पता चला कि राजस्थान के स्वाधीनता सेनानी कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी जी  द्वारा संस्थापित दैनिक नवज्योति जयपुर, जोधपुर, अजमेर और कोटा, राजस्थान से प्रकाशित होने वाला एक दैनिक हिन्दी समाचार पत्र है। इसका प्रथम संस्करण 1936  में प्रकाशित हुआ था। ...... पता नहीं अब यह दैनिक समाचार पत्र कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी जी की परम्परा को छोड़कर इस प्रकार की साहित्यिक और लेखकीय चौर्य वृत्ति को क्यों प्रवृत्त कर रहा है।  नाम तो नव ''ज्योति' पर दीपक तले अँधेरा वाली कहावत पूरी चरितार्थ कर रहा है। 


यह तो संयोग था कि एक साहित्यकार ने ही फोन द्वारा इस बात की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट किया ......पर वाकई ये शर्मनाक वाकया है। अपने पूरे लेख को यहाँ पोस्ट करने के साथ के साथ-साथ जिन अंशों को दैनिक नवज्योति ने दूसरी महिलाओं  के नाम से उद्धृत किया है, उन्हें बोल्ड भी कर रही हूँ ताकि प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम् की तर्ज पर आप लोग भी नीर-क्षीर अवलोकन कर सकें। 

(हमारे इस आलेख को आप यहाँ पढ़ सकते हैं -   बदलते दौर में महिला

(इस पोस्ट का मूल उद्देश्य इंटरनेट पर ब्लॉग, वेब पत्रिकाओं जैसे तमाम माध्यमों पर लिख रहे रचनाकारों को सतर्क करना है, जिनकी रचनाओं को कुछेक चौर्य प्रवृत्ति वाले लोग कट-पेस्ट करके अपने या दूसरों के नाम से प्रकाशित कर रहे हैं।)



भारतीय संस्कृति में नारी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वह शिव भी है और शक्ति भी, तभी तो भारतीय संस्कृति में सनातन काल से अर्धनारीश्वर की कल्पना सटीक बैठती है। इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्व का आकलन कम नहीं किया और जब भी ऐसा करने की कोशिश की तो समाज में कुरीतियाँ और कमजोरियांँ ही पनपीं। हमारे वेद और ग्रंथ नारी शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। विश्ववरा, अपाला, लोमशा, लोपामुद्रा तथा घोषा जैसी विदुषियों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना करके और मैत्रेयी, गार्गी, अदिति इत्यादि विदुषियों ने अपने ज्ञान से तब के तत्वज्ञानी पुरूषों को कायल बना रखा था। नारी को आरंभ से ही सृजन, सम्मान और शक्ति का प्रतीक माना गया है। शास्त्र से लेकर साहित्य तक नारी की महत्ता को स्वीकार किया गया है- “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता।“ 
सिंधु संस्कृति में भी मातृदेवी की पूजा का प्रचलन परिलक्षित होता है। नारी का कार्यक्षेत्र न केवल घर बल्कि सारा संसार है। प्रकृति ने वंश वृद्धि की जो जिम्मेदारी नारी को दे रखी है, वह न केवल एक दायित्व है अपितु एक चमत्कार और अलौकिक सुख भी। इन सबके बीच नारी आरंभ से ही अपनी भूमिकाओं के प्रति सचेत रही है।




नारी को आरंभ से ही कोमलता, भावकुता, क्षमाशीलता, सहनशीलता की प्रतिमूर्ति माना जाता रहा है पर यही नारी आवश्यकता पड़ने पर रणचंडी बनने से भी परहेज नहीं करती क्योंकि वह जानती है कि यह कोमल भाव मात्र उन्हें सहानुभूति और सम्मान की नजरों से देख सकता है, पर समानांतर खड़ा होने के लिए अपने को एक मजबूत, स्वावलंबी, अटल स्तंभ बनाना ही होगा। इतिहास गवाह है कि आजादी के दौर में तमाम महिलाओं ने स्वतंत्रता-आंदोलन में बढ़-चढकर हिस्सा लिया। एक तरफ इन्होंने स्त्री-चेतना को प्रज्वलित किया, वहीं आजादी के आंदोलन में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आगे बढ़ीं। कईयों ने तो अपनी जान भी गँवा दी, फिर भी महिलाओं के हौसले कम नहीं हुए। रानी चेनम्मा, रानी लक्ष्मीबाई, झलकारीबाई, बेगम हजरत महल, ऊदा देवी जैसी तमाम वीरांगनाओं का उदाहरण हमारे सामने है, पर जब आजादी का ज्वार तेजी से फैला तो तमाम महिलाएं इसमें शामिल होती गईं। इस क्रम में सरोजिनी नायडू, सावित्रीबाई फुले, स्वामी श्रद्धानन्द की पुत्री वेद कुमारी और आज्ञावती, नेली सेनगुप्त, नागा रानी गुइंदाल्यू, प्रीतीलता वाडेयर, कल्पनादत्त, शान्ति घोष, सुनीति चौधरी, बीना दास, सुहासिनी अली, रेणुसेन, दुर्गा देवी बोहरा, सुशीला दीदी, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, ऊषा मेहता, कस्तूरबा गाँधी, डॉ0 सुशील नैयर, विजयलक्ष्मी पण्डित, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, राजकुमारी अमृत कौर, इन्दिरा गाँधी, एनी बेसेंट, मैडम भीकाजी कामा, मारग्रेट नोबुल (भगिनी निवेदिता), मैडेलिन ‘मीरा बहन’ इत्यादि महिलाओं ने न सिर्फ आजादी बल्कि समानांतर रूप में नारी हकों की लड़ाई भी लड़ी। आखिर तभी तो महात्मा गाँधी ने कहा था कि-”भारत में ब्रिटिश राज मिनटों में समाप्त हो सकता है, बशर्ते भारत की महिलाएं ऐसा चाहें और इसकी आवश्यकता को समझें।“
आज नारी जीवन के हर क्षेत्र में कदम बढ़ा रही है। आज की नारी अपने कर्तव्यों को गृहकार्यों की इतिश्री ही नहीं समझती है, अपितु अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति भी सजग है। वह अब स्वयं के प्रति सचेत होते हुए अपने अधिकारों के प्रति आवाज उठाने का माद्दा रखती है। कोई सिर्फ यह कहकर उनके आत्मविश्वास को तनिक भी नहीं हिला सकता कि वह एक ‘नारी‘ है। शिक्षा के चलते नारी जागरूक हुई और इस जागरूकता ने नारी के कार्यक्षेत्र की सीमा को घर की चहरदीवारी से बाहर की दुनिया तक फैला दिया। शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के चलते आज नारी भी अपने कैरियर के प्रति संजीदा है। इससे जहाँ नारी अपने पैरों पर खड़ी हो सकी, वहीं आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उसे रचनात्मक कार्यों हेतु भी प्रेरित किया। आज जरूरत इस बात की भी है कि जी.डी.पी. में महिलाओं के कार्य की गणना हो और घरेलू कार्यों को हवा में न उड़ाया जाय। इस अवधारणा को बदलने की जरुरत है कि बच्चों का लालन-पोषण और गृहस्थी चलाना सिर्फ नारी का काम है। यह एक पारस्परिक जिम्मेदारी है, जिसे पति-पत्नी दोनों को उठाना चाहिए। इस बदलाव का कारण महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ पारिवारिक-सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं।

एक तरफ लड़कियाँ हाईस्कूल व इंटर की परीक्षाओं में बाजी मार रही हैं, वहीं तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित सिविल सेवाओं में भी उनका नाम हर साल बखूबी जगमगा रहा है।


अब जागरूक नारी समाज की अवहेलना करना आसान नहीं रहा। आज एक महिला घर में अकेले जितना कार्य करती है, उसका मोल कोई नहीं समझता। पुरुष इसे महिला की ड्यूटी मानकर निश्चिन्त हो जाता है। यह उस स्थिति में भी है जबकि महिला भी कमा रही होती है।




वक्त के साथ नारी का स्वभाव और चरित्र भी बदला है एवं अपने अधिकारों के प्रति वह बखूबी जागरूक हुई है। राजनीति, प्रशासन, समाज, उद्योग, व्यवसाय, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, फिल्म, संगीत, साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, वकालत, कला-संस्कृति, शिक्षा, आई॰ टी॰, खेल-कूद, सैन्य से लेकर अंतरिक्ष तक नारी ने छलांग लगाई है। नारी की नाजुक शारीरिक संरचना के कारण यह माना जाता रहा है कि वे सुरक्षा जैसे कार्यों का निर्वहन नहीं कर सकतीं। पर बदलते वक्त के साथ यह मिथक टूटा है। महिलाएं आज पुलिस, सेना, और अर्द्वसैनिक बलों में बेहतरीन तैनाती पा रही हैं। यही नहीं श्मशान में जाकर आग देने से लेकर महिलाएं वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं और विवाह के साथ-साथ शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मंुडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हैं। वस्तुतः समाज की यह पारंपरिक सोच कि महिलाओं के जीवन का अधिकांश हिस्सा घर-परिवार के मध्य व्यतीत हो जाता है और बाहरी जीवन से संतुलन बनाने में उन्हें समस्या आएगी, बेहद दकियानूसी लगती है। रुढ़ियों को धता बताकर महिलाएं जमीं से लेकर अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में नित नई नजीर स्थापित कर रही हैं। कल्पना चावला व सुनीता विलियम्स ने तो अंतरिक्ष तक की सैर की। पंचायतों में मिले आरक्षण का उपयोग करते हुए नारी जहाँ नए आयाम रच रही है, वहीं विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। आज देश की राष्ट्रपति, लोकसभा की अध्यक्ष, विपक्ष की नेता, सत्ताधारी कांग्रेस की अध्यक्ष, सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका में भारत की राजदूत से लेकर तीन राज्यों की मुख्यमंत्री रूप में महिला पदासीन हैं तो यह नारी सशक्तीकरण का ही उदाहरण है। 
महिलाओं को सम्पत्ति में बेटे के बराबर हक देने हेतु हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन, घरेलू महिला हिंसा अधिनियम, सार्वजनिक जगहों पर यौन उत्पीड़न के विरूद्ध नियम एवं लैंंगिक भेदभाव के विरूद्ध उठती आवाज नारी को मुखर कर रही है। दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, शराबखोरी, लिंग विभेद जैसी तमाम बुराईयों के विरुद्ध नारी आगे आ रही है और दहेज लोभियों को बैरंग लौटाने, और शराब के ठेकों को बंद कराने जैसी कदमों को प्रोत्साहित कर रही है। ये सभी घटनाएं अधिकारों से वंचित नारी की उद्धिग्नता को प्रतिबिंबित कर रही हैं। आज वह स्वयं को सामाजिक पटल पर दृढ़ता से स्थापित करने को व्याकुल है। 

शर्मायी-सकुचायी सी खड़ी महिला अब रुढ़िवादिता के बंधनों को तोड़कर अपने अस्तित्व का आभास कराना चाहती है। वर्तमान समय में नारी अपनी सम्पूर्णता को पाने की राह पर निरंतर बढ़ रही है, ताकि समाज के नारी विषयक अधूरे ज्ञान को अपने आत्मविश्वास की लौ से प्रकाशित कर सके।
नारी की जागरूकता ने नारी को अपनी अभिव्यक्तियों के विस्तार का सुनहरा मौका भी दिया है। साहित्य व लेखन के क्षेत्र में भी नारी का प्रभाव बढ़ा है। सरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता (1956) प्रथम महिला साहित्यकार अमृता प्रीतम, प्रथम भारतीय ज्ञानपीठ महिला विजेता (1976) आशापूर्णा देवी, इस्मत चुगतई, शिवानी, चंद्रकांता, कुर्रतुल हैदर, महाश्वेता देवी, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान, ममता कलिया, मृणाल पाण्डे, चित्रा मुदगल, कृष्णा सोबती, निर्मला जैन, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, राजी सेठ, पुष्पा भारती, नासिरा शर्मा, सूर्यबाला, सुनीता जैन, रमणिका गुप्ता, अलका सरावगी, मालती जोशी, डॉ० कृष्णा अग्निहोत्री, मेहरुन्निसा परवेज, ज्योत्सना मिलन, डॉ० सरोजनी प्रीतम, गगन गिल, सुषम बेदी, पद्मा सचदेव, क्षमा शर्मा, अनामिका, अरुधंती राय इत्यादि नामों की एक लंबी सूची है, जिन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं को ऊँचाईयों तक पहुँचाया। उनका साहित्य आधुनिक जीवन की जटिल परिस्थितियों को अपने में समेटे, समय के साथ परिवर्तित होते मानवीय सम्बन्धों का जीता-जागता दस्तावेज है। भारतीय समाज की सांस्कृतिक और दार्शनिक बुनियादों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करते हुये उन्होंने अपनी वैविध्यपूर्ण रचनाशीलता का एक ऐसा आकर्षक, भव्य और गम्भीर संसार निर्मित किया, जिसका चमत्कार सारे साहित्यिक जगत महसूस करता है।
साहित्य के माध्यम से नारी ने जहाँ पुराने समय से चली आ रही कु-प्रथाओं पर चोट किया, वहीं समाज को नए विचार भी दिए। अपनी विशिष्ट पहचान के साथ नारी साहित्यिक व सांस्कृतिक गरिमा को नई ऊँचाईयाँ दे रही है। उसके लिये चीजें जिस रूप में वाह्य स्तर पर दिखती हैं, सिर्फ वही सच नहीं होतीं बल्कि उनके पीछे छिपे तत्वों को भी वह बखूबी समझती है। साहित्य व लेखन के क्षेत्र में सत्य अब स्पष्ट रूप से सामने आ रहा है। समस्यायें नये रूप में सामने आ रही हैं और उन समस्याओं के समाधान में नारी साहित्यकार का दृष्टिकोण उन प्रताड़नाओं के यथार्थवादी चित्रांकन से भिन्न समाधान की दशाओं के निरूपण की मंजिल की ओर चल पड़ा है। जहाँ कुछ पुरुष साहित्यकारों ने नारी-लेखन के नाम पर उसे परिवार की चहरदीवारियों में समेट दिया या ‘देह‘ को सैंडविच की तरह इस्तेमाल किया, वहाँ ‘नारी विमर्श‘ ने नए अध्याय खोले हैं। अस्तित्ववादी विचारों की पोषक सीमोन डी बुआ ने ‘सेकेण्ड सेक्स’ में स्त्रियों के विरूद्ध होने वाले अत्याचारों और अन्यायों का विश्लेषण करते हुए लिखा था कि-“पुरूष ने स्वयं को विशुद्ध चित्त (ठमपदह.वित. पजेमस िरू स्वयं में सत्) के रूप में परिभाषित किया है और स्त्रियों की स्थिति का अवमूल्यन करते हुए उन्हें “अन्य” के रूप में परिभाषित किया है व इस प्रकार स्त्रियों को “वस्तु” रूप में निरूपित किया गया है।’’ ऐसे में स्त्री की यौनिकता पर चोट करने वालों को नारी साहित्यकारों ने करारा जवाब दिया है। वे नारी देह की बजाय उसके दिमाग पर जोर देती हैं। उनका मानना है कि दिमाग पर बात आते ही नारी पुरुष के समक्ष खड़ी दिखायी देती है, जो कि पुरुषों को बर्दाश्त नहीं। इसी कारण पुरुष नारी को सिर्फ देह तक सीमित रखकर उसे गुलाम बनाये रखना चाहता है। यहाँ पर अमृता प्रीतम की रचना ष्दिल्ली की गलियाँष् याद आती है, जब कामिनी नासिर की पेंटिग देखने जाती है तो कहती है-श्तुमने वूमेन विद फ्लॉवर, वूमेन विद ब्यूटी या वूमेन विद मिरर को तो बड़ी खूबसूरती से बनाया पर वूमेन विद माइंड बनाने से क्यों रह गए।श् निश्चिततः यह कथ्य पुरुष वर्ग की उस मानसिकता को दर्शाता है जो नारी को सिर्फ भावों का पुंज समझता है, एक समग्र व्यक्तित्व नहीं। नारी को ‘मर्दवादी यौनिकता’ से परे एक स्वतंत्र व समग्र व्यक्तित्व के रुप में देखने की जरुरत है। कभी रोती-बिलखती और परिस्थितियों से हर पल समझौता कर अपना ‘स्व‘ मिटाने को मजबूर नारी आज की कविता, कहानी, उपन्यासों में अपना ‘स्व‘ न सिर्फ तलाश रही हैं, बल्कि उसे ऊँचाईयों पर ले जाकर नए आयाम भी दे रही है। उसका लेखन परम्पराओं, विमर्शों, विविध रूचियों एवं विशद अध्ययन को लेकर अंततः संवेदनशील लेखन में बदल जाता है।
वर्तमान दौर में नारी का चेहरा बदला है। नारी पूज्या नहीं समानता के स्तर पर व्यवहार चाहती है। सदियों से समाज ने नारी को पूज्या बनाकर उसकी देह को आभूषणों से लाद कर एवं आदर्शों की परंपरागत घुट्टी पिलाकर उसके दिमाग को कुंद करने का कार्य किया, पर नारी आज कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, पी0टी0 उषा, किरण बेदी, कंचन चौधरी भट्टाचार्य, इंदिरा नूई, शिखा शर्मा, किरण मजूमदार शॉ, वंदना शिवा, चंदा कोचर, ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, फ्लाइंग ऑफिसर सुषमा मुखोपाध्याय, कैप्टन दुर्गा बैनर्जी, ले0 जनरल पुनीता अरोड़ा, सायना नेहवाल, संतोष यादव, निरुपमा राव, कृष्णा पूनिया, कुंजारानी देवी, इरोम शर्मिला, मेघा पाटेकर, अरुणा राय, जैसी शक्ति बनकर समाज को नई राह दिखा रही है और वैश्विक स्तर पर नाम रोशन कर रही हैं। नारी की शिक्षा-दीक्षा और व्यक्तित्व विकास के क्षितिज दिनों-ब-दिन खुलते जा रहे हैं, जिससे तमाम नए-नए क्षेत्रों का विस्तार हो रहा हैं। कभी अरस्तू ने कहा कि -“स्त्रियाँ कुछ निश्चित गुणों के अभाव के कारण स्त्रियाँ हैं” तो संत थॉमस ने स्त्रियों को “अपूर्ण पुरूष” की संज्ञा दी थी, पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ऐसे तमाम सतही सिद्वान्तों का कोई अर्थ नहीं रह गया एवं नारी अपनी जीवटता के दम पर स्वयं को विशुद्ध चित्त (ठमपदह.वित. पजेमस िरू स्वयं में सत् ) के रूप में देख रही है। नारी आज न सिर्फ सशक्त हो रही है, बल्कि लोगों को भी सशक्त बना रही है। इस बात को अंततः स्वीकार करने की जरुरत है कि नारी को बढ़ावा देकर न सिर्फ नारी समृद्ध होगी बल्कि अंततः परिवार, समाज और राष्ट्र भी सशक्त और समृद्ध बनेंगे। नारी उत्कर्ष आज सिर्फ एक जरूरत नहीं बल्कि विकास और प्रगति का अनिवार्य तत्व है।
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