गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

21वीं सदी की बेटी

यूँ ही डायरी में अपने मनोभावों को लिखना मेरा शगल रहा है। ऐसे ही किसी क्षण में इन मनोभावों ने कब कविता का रूप ले लिया, पता ही नहीं चला। पर यह शगल डायरी तक ही सीमित रहा, कभी इनके प्रकाशन की नहीं सोची। फिलहाल तो देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कविताएं प्रकाशित हो रही हैं, पर मेरी प्रथम कविता कादम्बिनी पत्रिका में 'युवा बेटी' शीर्षक 'नये पत्ते' स्तम्भ के अन्तर्गत दिसम्बर 2005 में प्रकाशित हुई थी। आज उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-
21वीं सदी की बेटी
जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

-आकांक्षा यादव-

26 टिप्‍पणियां:

  1. पर उन्हें क्या पता
    ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
    जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
    अपने आँसुओं को
    चुपचाप पीना नहीं जानती है
    ........Bade uttam bhav hain.21th century ki ladki badal rahi hai.Is kavita hetu badhai !!

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  2. इक्कीसवीं सदी की बेटी की आवाज बुलंद करती एक भावपूर्ण कविता. इस भावपूर्ण कविता हेतु आकांक्षा जी को बधाई.

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  3. जाग उठी है अब नारी
    हक़ भी अब वो ले ही लेगी
    तुम सब बस यूँ ही देखो
    अपनी किस्मत खुद ही खोलेगी.
    वाकई एक बेहतरीन कविता. जज्बा है समाज की रुढियों को तोड़ने का.

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  4. बेनामी08 दिसंबर, 2008

    BADE KARINE SE APNE NARI KI AWAJ BULAND KI HAI..CONGTS.

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  5. बड़ी बेहतरीन कविता और उसकी खूबसूरत प्रस्तुति...बधाई.

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  6. नमस्कार, आपकी कविताएं पहले भी पढ चुका हूँ, अब और अधिक रुचि से पढ सकूंगा,yehsilsila.blogspot.com पर आपकी प्रतिक्रिया चाहूंगा, 'परिकथा' मे कुछ रेखांकन हैं, जून - वागर्थ में कुछ कवितएं।

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  7. 21vi sadi ki beti...
    mahilaon ki badalati tasvir aur chhavi ko rekhankit karati hai.
    anya kavitayen bhi achchhi hai.

    rachanadharmita ke pravah aur gati ko tej karen.
    thanks
    birendra yadav
    patna
    09304170154

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  8. प्राचीनता और नवीनता का सुंदर चित्रण

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  9. ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
    जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
    अपने आँसुओं को
    चुपचाप पीना नहीं जानती है
    सहज भाषा..सार्थक बात...सुन्दर प्रस्तुति.

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  10. इक्कीसवीं सदी की बेटी पर आपने बहुत अच्छा लिखा है. इजाजत दें तो इसे मैं आपने ब्लॉग युवा पर साभार प्रकाशित करना चाहूँगा.

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  11. @ अमित जी, धन्यवाद. यदि आपको इतनी अच्छी लगी तो अवश्य कर सकते हैं.

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  12. Celebrate Chocolate-Pizza day today and enjoy urself with a lot of fun with tadka of beautiful poems.

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  13. बहुत भावपूर्ण रचना है अच्छा लगा पढ़कर।

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  14. बेनामी26 दिसंबर, 2008

    वह उतनी ही सचेत है
    अपने अधिकारों को लेकर
    जानती है
    स्वयं अपनी राह बनाना

    बदलते परिवेश के साथ बदलता हमारा समाज और सबसे ऊपर हमारे समाज का आधार नारी का मुखर होना ये एक सुभ संकेत है स्वच्छ और स्वस्थ्य समाज के लिए.
    बढिया भाव उकेरे हैं,
    बधाई

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  15. बेनामी28 दिसंबर, 2008

    ....और लो हम भी आ गए नए साल की सौगातें लेकर...खूब लिखो-खूब पढो मेरे मित्रों !!

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  16. NAYE SAL KA KUCHH ALAD ANDAJ MEN SWAGAT KAREN,KUCHH NAYA SANKALP UTHAYEN !!!

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  17. aapne is kavita ke jariye stri-man ki baat bahut hi sahaj aur prabhavit dhang se rakhi hai ..

    bahut bhaavpoorn kavita

    bahut badhai .

    kabhi mere blog par aayienga , meri kavitayen ,aapke sneh ke liye intjaar kar rahi hai .

    vijay

    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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  18. वह उतनी ही सचेत है
    अपने अधिकारों को लेकर
    जानती है
    स्वयं अपनी राह बनाना
    और उस पर चलने के
    मानदण्ड निर्धारित करना।
    Nayi pedhi ki bhawanao ko uchit shabd diya hai aapne, Leken kartavyo ki gathari ko ek kinare rakhkar aage badh jana ek safal aur sukhmay jivan dega hi, sandeh hai isme. Ath kartavya aur adhikar dono me balanec banakar chalna hi shreyakar hoga.

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  19. वह उतनी ही सचेत है
    अपने अधिकारों को लेकर
    जानती है
    स्वयं अपनी राह बनाना
    और उस पर चलने के
    मानदण्ड निर्धारित करना।

    बहुत अच्छा लगा पढ़ कर
    बधाई ...

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  20. ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
    जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
    अपने आँसुओं को
    चुपचाप पीना नहीं जानती है
    .....Aj ki nari ko sahi likha apne.

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  21. पर उन्हें क्या पता
    ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
    जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
    अपने आँसुओं को
    चुपचाप पीना नहीं जानती है

    समय के अन्तर को आपने बखूबी अपनी इस कविता में प्रस्तुत किया है
    http://manoria.blogspot.com
    http://kundkundkahan.blogspot.com

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