गुरुवार, 25 जून 2009

सावन के बहाने कजरी के बोल

मौसम में फिलहाल बेहद गर्मी है। हर किसी को सावन की रिमझिम फुहारों का इन्तजार है। इसके साथ ही चारों तरफ उल्लास छा जाता है। जहाँ प्रकृति नित नये रंग बदलती है वहीं पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, धरा सभी की रंगत देखते ही बनती है। प्रकृति के साथ ही हर कोई झूम उठता है और गुनगुना उठता है-
रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।

कजरी के बोल भला किसे प्रिय नहीं होंगे। लोग भले ही गाँवों से नगरों की ओर प्रस्थान कर गये हों पर गाँव के बगीचे में पेंग मारकर झूले झूलती महिलाएं, छेड़छाड़ के बीच रिश्तों की मधुर खनक भला किसे आकर्षित न करती होगी। वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-
घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।

छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूँज उनके प्रीतम तक पहुँचे और शायद वे लौट आयें-
सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आये
रतिया देखी सवनवा ना।

यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं -
गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।

एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-
सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।

नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-
बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।

विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-
पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहेैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।

विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चैपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वन्दता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-
कइसे खेलन जइबू
सावन मंे कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।

बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-
हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।

सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु न तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों न हो-
चन्दा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।

विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-
पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी- हरी पतियां।

ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तोें को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है।
(पतिदेव कृष्ण कुमार यादव जी के सहयोग से)

37 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत आपने शब्दों की बौछार से ही सावन आने का अहसास करा दिया,
    मन को शीतल करती आपकी कजरी से युक्त कविता प्यारा भाव जगा दिया,

    आपकी लेखनी सावन के बदल सी छाई.
    और आपको तहे दिल से बधाई,

    जवाब देंहटाएं
  2. कजरी पर बहुत सारगर्भित जानकारी दी है आपने....बीच बीच में दिए कजरी के बोल सोने पर सुहागा हैं...वाह...बहुत आनंद आया पढ़ कर.
    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  3. adbhut rachana jisame saawan aaneke pahale hi uphaar mil gaee ................atisundar

    जवाब देंहटाएं
  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  5. पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
    रंग रहे कपूरी पिया ना
    जबसे साड़ी ना लिअईबा
    तबसे जेवना ना बनईबे
    तोरे जेवना पे लगिहे मजूरी पिया
    रंग रहे कपूरी पिया ना।
    .....गाँव में महिलाओं के मुख से कई बार सुना है,पर पहली बार पूर्ण रूप में पढ़ रहा हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  6. कजरी पर बड़ी मनभावन प्रस्तुति.

    जवाब देंहटाएं
  7. एक विलुप्त होती संस्कृति को आपने सहेजा...अच्छा लगा.

    जवाब देंहटाएं
  8. सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-
    घरवा में से निकले ननद-भउजईया
    जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।
    _________________________________
    आपने तो बीते दिनों में लौटा दिया. नगरों में कजरी तो नहीं सुनाई देती पर गाँवों में सावन अभी भी कजरी के बिना अधूरा है...आपने जिन मधुर कजरी के बोलों को यहाँ प्रस्तुत किया है, उसके लिए आपकी जितनी भी बड़ाई की जाय कम होगी.

    जवाब देंहटाएं
  9. कजरी के बारे में सुना तो था, पर पहली बार कजरी के बोलों का आनंद ले रही हूँ. काश कि इन्हें सुनने का आनंद ले सकती....!!!

    जवाब देंहटाएं
  10. आकंक्षा जी,

    अपने गाँव-घर की याद ताजा करा दी। बहुत ही अच्छी पोस्ट।

    श्री कृष्ण कुमार यादव जी को मेरा नमस्कार कहियेगा। हालांकि कोई वजह नही होने के बावजूद और हिन्दी साहित्य मंच पर उन्हें नियमित पढने के बाद भी यह पहला ही संपर्क होगा।

    बहुत रसभरी / रोचक पोस्ट।
    बधाई।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  12. युवा पीढी तो अब कजरी के बारे में शायद ही सुन पाती हो.उम्दा प्रयास कि आपने कजरी के बोलों से रूबरू कराया.

    जवाब देंहटाएं
  13. बेनामी25 जून, 2009

    जब भी अपने ननिहाल जाता हूँ, मामियों के साथ कजरी का आनंद अवश्य लेता हूँ. इस साल तो अभी तक बरसात भी नहीं हुई, देखिये क्या होता है.

    जवाब देंहटाएं
  14. बेनामी25 जून, 2009

    कजरी के बारे में पहली बार विस्तृत जानकारी..आभार.

    जवाब देंहटाएं
  15. कजरी के बहाने अपने बारिश से पहले ही उसका अहसास करा दिया.

    जवाब देंहटाएं
  16. kajri ke bare me jankari achi lagi.
    lok geeto kebina lok snskrti ke bjna ham adhure hai bhle hi shhro me bas gye ho par jinhone gav me thoda bhi jeevan bitaya hai unka mn hmesha tista hai .
    ghir ghir aaye bdririya ho rama
    kaise mai khelu "kajriya "ho rama
    kaise mai khelu kajriya ...

    '

    जवाब देंहटाएं
  17. आपके लेख ने घर पहुंचा दिया…

    यह शोधपरक लेख संभाल कर रखने योग्य है

    जवाब देंहटाएं
  18. आपके लेख ने घर पहुंचा दिया…

    यह शोधपरक लेख संभाल कर रखने योग्य है

    जवाब देंहटाएं
  19. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  20. वाह मजा आ गया, ओर हमे वो दिन याद दिला दिये, जब आम के पेडो पर , ओर तालाब के किनारे बडॆ से बरगद के पेड पर बहुत बडा झुला डाल के झुला करते थे, ओर बरसात मै खुब भीगना... क्या दिन.
    ओर आज आप ने कजरी फ़िर से याद दिला दी.
    ्बहुत सुंदर,
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  21. हे भाई इतनी गर्मी में तो ज़रा भी कजरी का जिक्र नहीं मन भा रहा -हाँ पोस्ट बुकमार्क कर रहा हूँ पानी की फुहार पड़ते ही पंढून्गा और टिप्पणी करूंगा तब तक इसे अंतरिम टिप्पणी समझी जाय !

    जवाब देंहटाएं
  22. यही है असली लोक और उसका जीवट।
    लोक अपने मूल्यों को अपनी ज़िंदगी में ही ढूंढ़ता है, और उन्हें कठोर व्यवहारिकता की सान पर रगडता-पौंछता है, उन्हें तौलता है।

    "लोकायत" मूल्यों और दर्शन को लोक ने ही परवान चढाया और लाख कोशिशों के बावज़ूद बचाए रखा।

    लोक की ओर इस यात्रा को जारी रखें, रास्ते यहीं से निकलते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  23. पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
    जायके साइकील से ना
    पिया मेंहदी लिअहिया
    छोटकी ननदी से पिसईहा
    अपने हाथ से लगाय दा
    कांटा-कील से
    जायके साइकील से।
    ..................
    धोतिया लइदे बलम कलकतिया
    जिसमें हरी- हरी पतियां।


    jo dil se doob ke likhta hai vahi sachmuch pathak ko duba sakta hai.rachna apne aap mein manmohak hai. dil se badhaai.

    जवाब देंहटाएं
  24. कजरी के लिए बहाने की शायद जरूरत नहीं, यह तो स्वयं में अति शशक्त है.............

    जानकारी भरे लेख पर बधाई.

    चन्द्र मोहन गुप्त

    जवाब देंहटाएं
  25. आप का प्रोफाइल देख 'सच्ची में, कसम से' हड़क गए। बाप रे इत्ती बड़ी प्रोफाइल !

    इस पोस्ट ने सचमुच अभिभूत कर दिया। ब्लॉग पर एक दम्पति का इतना सुन्दर प्रयास पहली बार देख रहा हूँ। ढेर सारी शुभकामनाएं।

    यहाँ आता रहूँगा। एक बात और ! अगर कोई संगीत जानने वाला शख्स पता हो तो इन गीतों के धुनों को भी सरगम भी सुरक्षित करवा दीजिए । समय आने वाला है जब इन्हें जानने वाले नहीं होंगें।

    जवाब देंहटाएं
  26. बेनामी25 जून, 2009

    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  27. बहुत ही सराहनीय प्रयास है यह आपका. अफ़सोस की बात है कि जिन क्षेत्रों का जिक्र आपने सावन और कजरी के बहाने किया है, वहीँ अब ये सिर्फ यादों में बसे ही नजर आते हैं.. इस तरह के प्रयास ही इन्हें संरक्षित रखने में सहायक हो सकेंगे. आभार.

    जवाब देंहटाएं
  28. gajab ka sanyog........
    aapka lekh pad raha hun aour bahar barish ho rahi hai...

    जवाब देंहटाएं
  29. कजरी पर यह पोस्ट और आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....

    जवाब देंहटाएं
  30. मुझे पढ़कर बहुत अच्छा लगा

    जवाब देंहटाएं
  31. वाह! आपने तो कजरी का पूरा संकलन ही पेश कर दिया है.

    जवाब देंहटाएं
  32. bahut hi accha laga aapki ye sundar abhivyakti padkar.....

    जवाब देंहटाएं
  33. आकंक्षा जी,

    अपने गाँव-घर की याद ताजा करा दी। बहुत ही अच्छी पोस्ट।

    जवाब देंहटाएं