शुक्रवार, 19 मार्च 2010

हिन्दी की तलाश जारी है...

एक तरफ हिंदी को बढ़ावा देने की लम्बी-लम्बी बातें, उस पर से भारत सरकार के बजट में हिंदी के मद में जबरदस्त कटौती. केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में हिन्दी के लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपये दिये गये थे।

लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई. अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है. हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है. इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाज़ी चलती है. और यदि यह बाज़ी हाथ न लगे तो श्लीलता-अश्लीलता का दौर आरंभ हो जाता है. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब का बाज़ार ऐसे लोगों ने ही बढाया. आजकल तो जमाना बस चर्चा में रहने का है, बदनाम हुए तो क्या हुआ-नाम तो हुआ.

साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है. साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय. कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है. हर कोई अपने को प्रेमचंद, निराला की विरासत का संवाहक मन बैठा है, पर फुसफुसे बम से ज्यादा दम किसी में नहीं. तथाकथित बड़े साहित्यकार एक-दूसरे की आलोचना करके एक-दूसरे को चर्चा में लाते रहते हैं. दिखावा तो ऐसा होता है मानो वैचारिक बहस चल रही हो, पर उछाड़ -पछाड़ से ज्यादा यह कुछ नहीं होना. दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं.

हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं.अभी एक मित्र ने बताया कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित करवाने के लिए किस तरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार साहित्यकार से पैरवी कराई. पिछले दिनों कहीं पढ़ा था कि हिंदी के एक ठेकेदार दावा करते हैं कि वह कोई भी सम्मान आपकी झोली में डाल सकते हैं, बशर्ते पूरी पुरस्कार राशि आप उन्हें ससम्मान सौंप दे. बढ़िया है, किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!

-आकांक्षा यादव

18 टिप्‍पणियां:

  1. आज हिंदी अपने ही घर में बेगानी होगयी है .....भारत देश के लिए बड़े शर्म की बात है कि अपनी ही मात्र भाषा के दयनी स्थिति हो गयी है .......बहुत बढ़िया मुददा आपने उठाया ....बहुत बहुत शुक्रिया .

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  2. लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं, जिम्मेदार कोन है?? हमीं खूद हमे हमेशा इन गोरो की जुटन ही अच्छी लगती है

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  3. लगभग सात दशक से यही क्रम अनवरत चल रहा है!

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  4. किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !! ...
    सहमत ...

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  5. हिंदी की दुर्दशा पर सटीक व्यंग्य.

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  6. हिंदी की दुर्दशा पर सटीक व्यंग्य.

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  7. karara nyngy hai par kya un logo tak ye bat pahunch payegi ?aur pahoonch bhi gyi to unhe kya fark padta hai unki baithak me ak srkarisamman jud jayega |

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  8. घर की मुर्गी दाल बराबर....
    बहुत तकलीफ होती है....

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  9. हिन्दी के प्रति आपकी चिन्ता और विचारो से सहमत

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  10. बेनामी20 मार्च, 2010

    आकांक्षा जी, आपने तो बड़के लोगों की मटियामेट कर दी. खैर इसी योग्य हैं भी वे लोग.

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  11. क्या करें सभी को हिंदी की खानी है. सही कहें तो ये मठैत और सरकारें एक दिन हिंदी को ही खा जायेंगें.

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  12. बेबाक लिखा, पर सच लिखा. इस ओर सभी को सोचने की जरुरत है.

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  13. आप सभी की टिप्पणियां प्रोत्साहन का कार्य करती हैं. इन्हें बनाये रखें..टिप्पणियों के लिए आभारी हूँ.

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  14. बेहतरीन प्रस्तुति. इधर एक और रोचक चीज उभरकर सामने आई है, कुछ लोग हिंदी को नागरी की बजाय रोमन लिपि में लिखने की मांग करने लगे हैं..आगे-आगे देखिये होता क्या है.

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