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रविवार, 27 मई 2018

सीबीएसई (CBSE) बोर्ड के नतीज़ों में बेटियाँ अव्वल, पर कैरियर में क्यों नहीं ??

सीबीएसई (CBSE) बोर्ड के कक्षा 12 वीं के नतीज़ों में बेटियाँ फिर से अव्वल। यही साल क्यों, प्रायः हर साल इन रिजल्ट्स में बेटियाँ अव्वल रहती हैं। बेटियाँ लगातार छठवें साल अव्वल रहीं। 
लड़कियों ने इस बार भी लड़कों से बेहतर प्रदर्शन किया। इनका उत्तीर्ण प्रतिशत 88.31 वहीं लड़कों का उत्तीर्ण प्रतिशत 78.99 रहा। 
नोएडा के स्टेप बाई स्टेप स्कूल से मानविकी विषय की छात्रा मेघना श्रीवास्तव ने 99.8 प्रतिशत अंक हासिल कर टॉप किया है। उन्हें 500 अंकों में से 499 मिले हैं।  मेघना ने अंग्रेजी (कोर) में 99, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में 100-100 अंक हासिल किए हैं। गाजियाबाद की अनुष्का चंद्रा ने 500 में से 498 नंबर हासिल कर दूसरे नंबर पर बाज़ी मारी है। 

 कमाल की बात यह है कि तीसरे नम्बर पर 1 या 2 नहीं इस बार 7 बच्चे हैं, जिन्होंने 500 में से 497 नंबर प्राप्त किए।  इन सात में से पांच लड़कियां हैं।  इन सबके नाम हैं चाहत बोधराज, आस्था बंबा, तनुजा कपरी, सुप्रिया कौशिक और अनन्या सिंह, वहीं दो लड़कों के नाम हैं नकुल गुप्ता और क्षितिज आनंद। 

एक तरफ यह रिजल्ट देखकर बेहद ख़ुशी होती है।  "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" से लेकर बालिका-सशक्तिकरण जैसे तमाम दावों के बावजूद कक्षा 12 के बाद ये बेटियाँ कहाँ चली जाती हैं ? यह एक अजीब विडंबना है कि शैक्षणिक (Academics) में बहुत अच्छा परफार्म करने वाली ये बेटियाँ कैरियर बनाने में पीछे रह जाती हैं या कैरियर की ऊंचाइयों पर नहीं पहुँच पाती। मां-बाप के लिए उनके कैरियर से ज्यादा उनकी शादी अहम हो जाती है। 

आख़िर, इस समाज में रोज बेटियों को अपने अस्तित्व की दुहाई देनी पड़ती है। समाज के नजरिये में आज उस बदलाव की भी जरूरत है जहाँ ये बेटियाँ पढ़ाई पूरी होने के बाद अपना मनचाहा कैरियर बना सकें और वहाँ भी सर्वोच मुकाम हासिल कर सकें।

-आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर 

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

फेसबुक के CEO मार्क जुकरबर्ग बेटी के जन्म की ख़ुशी में दान करेंगे अपने 99% शेयर्स

बेटियाँ अपने यहाँ लक्ष्मी का रूप मानी जाती हैं।  अपने देश भारत में यह बात भले ही लोगों को किताबी लगती हो पर दुनिया की सबसे मशहूर  सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के को-फाउंडर और सीईओ मार्क जुकरबर्ग इसे पूरी तरह मानते और पालन करते हैं।  तभी तो अपनी बेटी मैक्स के जन्म लेने की खुशी में उन्होंने  बड़ी चैरिटी का एलान किया है । यानी फेसबुक में अपने और पत्नी प्रिसिला चान के नाम जितने शेयर हैं, उसका 99 फीसदी हिस्सा आने वाले वर्षों में वे डोनेट करेंगे।

जुकरबर्ग अपनी बेटी के लिए दुनिया को बेहतर जगह बनाने के मकसद से शेयर डोनेट करना चाहते हैं। इस चैरिटी का नाम होगा चान-जुकरबर्ग इनिशिएटिव। जुकरबर्ग ने यह एलान अपने फेसबुक पेज पर किया। इस मैसेज को अब तक 3.60 लाख से ज्यादा लाइक मिल चुके हैं। बता दें कि जुकरबर्ग ने पहले ही ‘गिविंग प्लेज’ साइन किया था। ‘गिविंग प्लेज’ यानी दुनिया के अमीर लोगों की वह प्रतिबद्धता जिसके तहत वे अपनी आधी से ज्यादा दौलत दान करेंगे।
वर्तमान में  फेसबुक की कुल पूंजी 303 अरब डॉलर यानी 19 लाख करोड़ रुपए है। इनमें से जुकरबर्ग के पास 54 फीसदी शेयर हैं। इन 54 फीसदी में से 99 फीसदी शेयर अर्थात 45 अरब डॉलर यानि 2.85 लाख करोड़ रूपये वे डोनेट करने वाले हैं। गौरतलब है कि यह रकम  नेपाल, अफगानिस्तान और साइप्रस जैसे देशों की जीडीपी का दोगुना है।  तीनों देशों की जीडीपी 20 अरब डॉलर के आसपास है। जुकरबर्ग अपने शेयरों का उतना हिस्सा डोनेट करेंगे, जितना दुनिया के 106 देशों की जीडीपी भी नहीं है। आईएमएफ वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के 106 देशों की जीडीपी 45 अरब डॉलर से कम है।

फेसबुक के मार्क जकरबर्ग अपनी इस अनूठी पहल से  दुनिया के सबसे कम उम्र के दानदाता बन गए हैं। वे मात्र 31 साल के हैं। उनसे पहले बर्कशायर हैथवे के वॉरेन बफेट ने 2006 में गेट्स फाउंडेशन को 31 अरब डॉलर का डोनेशन देने का फैसला किया था। तब बफेट 76 साल के थे। इसी प्रकार माइक्रोसॉफ्ट के को-फाउंडर बिल गेट्स ने 2000 में जब बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की शुरुआत की थी, तब उनकी उम्र 45 साल थी।



फेसबुक में ऐसा नियम है कि यहां काम करने वाला कोई भी अमेरिकी कर्मचारी मैटरनिटी और पैटरनिटी के लिए चार महीने का अवकाश ले सकता है। पत्नी प्रिसिला के गर्भवती होने के बाद जुकरबर्ग ने भी दो महीने की छुट्टी लेने का फैसला किया था। हालांकि, कंपनी के नियम के मुताबिक, वे चार महीने की छुट्टी भी ले सकते थे।

फ़िलहाल, अपनी बेटी के जन्म की जानकारी  जुकरबर्ग ने वाइफ प्रिसिला और बेटी मैक्स के साथ फेसबुक पर फोटो शेयर करके की। उन्होंने बेटी के नाम एक प्यारा सा पत्र भी लिखा। उसका हिंदी रूपांतरण कुछ यूँ होगा -


डियर मैक्स,
तुम्हारी मां और मेरे पास यह बताने के लिए लफ्ज नहीं हैं कि तुमने हमारे फ्यूचर के लिए कितनी उम्मीदें दे दी हैं। तुम्हारी नई जिंदगी वादों से भरी है। हमें उम्मीद है कि तुम खुश रहोगी, सेहतमंद रहोगी, ताकि दुनिया को पूरी तरह एक्सप्लोर कर सकोगी। तुमने हमें दुनिया को उम्मीद के साथ देखने की एक वजह दे दी है।

सभी पेरेंट्स की तरह हम भी चाहते हैं कि तुम हमसे ज्यादा बेहतर तरीके से जिंदगी बिताओ। सुर्खियां भले ही ये बताती हों कि क्या-कुछ गलत हो रहा है, लेकिन दुनिया बेहतर होती जा रही है। हेल्थ सुधर रही है। गरीबी कम हो रही है। नॉलेज बढ़ रहा है। लोग आपस में जुड़ रहे हैं। हर फील्ड में हो रही टेक्नोलॉजी की प्रोग्रेस यह बताती है कि तुम्हारी जिंदगी आज की हमारी जिंदगी से कहीं बेहतर होगी।

हम इसके लिए अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। और यह सिर्फ इसलिए नहीं होगा कि हम तुम्हें प्यार करते हैं, बल्कि यह इसलिए हाेगा, क्योंकि अगली जनरेशन के सभी बच्चों की मॉरल रिस्पॉन्सिबिलिटी हम पर है।

हम मानते हैं कि सभी की जिंदगी एक जैसी है। हमारी सोसाइटी की जिम्मेदारी है कि वह सिर्फ अभी जी रहे लोगों के लिए नहीं, बल्कि इस दुनिया में आने वाले लोगों की जिंदगी सुधारने के लिए इन्वेस्ट करे।
- मार्क
-आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर 
Akanksha Yadav@ http://shabdshikhar.blogspot.in/

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

हैप्पी बर्थ-डे टू यू


हमारी प्यारी बिटिया अपूर्वा 27 अक्टूबर को पूरे पाँच साल की हो जाएँगी।
 इनके हैप्पी बर्थ-डे पर आप सबका आशीष, स्नेह और प्यार तो मिलना ही चाहिये !!








शनिवार, 29 अगस्त 2015

रक्षाबंधन पर्व को नए परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत

रक्षाबंधन त्यौहार की परम्परा बहुत पुरानी है। भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। इसका आरम्भ पत्नी इन्द्राणी द्वारा पति इंद्र को रक्षा सूत्र बाँधने से हुआ। इस त्यौहार का दायरा काफी विस्तृत रहा है। आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। कृष्ण-द्रौपदी, हुमांयू-कर्मवती या सिकंदर-पोरस की कहानी तो सभी ने सुनी होगी, पर आजादी के आन्दोलन में भी कुछ ऐसे उद्धरण आए हैं, जहाँ राखी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबंधन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरंभ किया।

राखी का सर्वप्रथम उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है जिसके अनुसार असुरों के हाथ देवताओं की पराजय पश्चात अपनी रक्षा के निमित्त सभी देवता इंद्र के नेतृत्व में गुरू वृहस्पति के पास पहुँचे तो इन्द्र ने दुखी होकर कहा- ‘‘अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस नैराश्य भाव को सुनकर गुरू वृहस्पति के दिशा-निर्देश पर रक्षा-विधान हेतु इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र सहित समस्त देवताओं की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा और अंतत: इंद्र ने युद्ध में विजय पाई। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रक्षाबंधन की शुरुआत पत्नी द्वारा पति को राखी बाँधने से हुई। 

एक अन्य कथानुसार राजा बलि को दिये गये वचनानुसार भगवान विष्णु बैकुण्ठ छोड़कर बलि के राज्य की रक्षा के लिये चले गय। तब देवी लक्ष्मी ने ब्राह्मणी का रूप धर श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बलि की कलाई पर पवित्र धागा बाँधा और उसके लिए मंगलकामना की। इससे प्रभावित हो बलि ने देवी को अपनी बहन मानते हुए उसकी रक्षा की कसम खायी। तत्पश्चात देवी लक्ष्मी अपने असली रूप में प्रकट हो गयीं और उनके कहने से बलि ने भगवान विष्णु से बैकुण्ठ वापस लौटने की विनती की। 

त्रेता युग में रावण की बहन शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा नाक कटने के पश्चात रावण के पास पहुँची और रक्त से सनी साड़ी का एक छोर फाड़कर रावण की कलाई में बाँध दिया और कहा कि- ‘‘भैया! जब-जब तुम अपनी कलाई को देखोगे, तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटनेवालों से तुम बदला ले सकोगे।’’ 

इसी प्रकार महाभारत काल में भगवान कृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने व फिर खून की धारा फूट पड़ने पर द्रौपदी ने तत्काल अपनी कंचुकी का किनारा फाड़कर भगवान कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में दु:शासन द्वारा द्रौपदी-चीर-हरण के प्रयास को विफल कर उन्होंने इस रक्षा-सूत्र की लाज बचायी। द्वापर युग में ही एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि वह महाभारत के युद्ध में कैसे बचेंगे तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया- ‘‘राखी का धागा ही तुम्हारी रक्षा करेगा।’’

ऐतिहासिक युग में भी सिंकदर व पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर पर घातक प्रहार हेतु अपना हाथ उठाया तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया।

 मुगल काल के दौर में जब मुगल सम्राट हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर अपनी रक्षा का वचन लिया। हुमायूँ ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु गुजरात के बादशाह से भी युद्ध किया। इसी प्रकार न जाने कितनी मान्यतायें रक्षा बन्धन से जुड़ी हुयी हैं।

लोक परम्परा में रक्षाबन्धन के दिन परिवार के पुरोहित द्वारा राजाओं और अपने यजमानों के घर जाकर सभी सदस्यों की कलाई पर मौली बाँधकर तिलक लगाने की परम्परा रही है। पुरोहित द्वारा दरवाजों, खिड़कियों, तथा नये बर्तनों पर भी पवित्र धागा बाँधा जाता है और तिलक लगाया जाता है। यही नहीं बहन-भानजों द्वारा एवं गुरूओं द्वारा स्त्रियों को रक्षा सूत्र बाँधने की भी परम्परा रही है। 

राखी ने स्वतंत्रता-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। कई बहनों ने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधकर देश की लाज रखने का वचन लिया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन की शुरूआत लोगों द्वारा एक-दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधकर हुयी। 









आज रक्षाबंधन पर्व को नए परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। इसे भाई-बहन के संबंधों तक सीमित करके देखना और बहन को अशक्त मानते हुए भाई द्वारा रक्षा जैसी दकियानूसी बातों से जोड़ने का कोई औचित्य नहीं रहा। जो समाज बेटियों-बहनों को माँ की कोख में ही खत्म कर देता है, क्या वाकई वहाँ बहनों की रक्षा  का कोई अर्थ है ? आज जिस तरह से समाज में छेड़खानी और महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाएँ बढ़ रही हैं, वह यह सोचने पर विवश करती हैं कि क्या ऐसा करने वालों की अपनी बहनें नहीं हैं। रक्षाबंधन के दिन बहन की रक्षा का संकल्प उठाना और घर से बाहर निकलते ही बेटियों-बहनों को छेड़ना और उनके साथ बद्तमीजी करना .... यह दोहरापन रुकना चाहिए। अन्यथा हर बहन अपने भाई से यही कहेगी कि- "मुझ जैसा कोई रो रहा है।  क्योंकि, तुम जैसा कोई उसको छेड़ रहा है।  भैया ! क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि हर नारी सुरक्षित रहे।  क्या हर नारी को सम्मान दे सकते हो ताकि वो बिना भय के खुली हवा में साँस ले सके।  तभी सही अर्थों में राखी की शान बढ़ेगी।"  

(चित्र में :  बदलते दौर में राखी का त्यौहार- प्यारी बेटियाँ अक्षिता और अपूर्वा एक दूसरे को राखी बाँधकर रक्षाबंधन पर्व सेलिब्रेट करती हुई। बहनों अक्षिता (पाखी) और अपूर्वा की शानदार राखी)






शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से उठाई भारत में बेटियों की व्यथा

स्वतंत्रता दिवस पर  प्रधानमंत्री मोदी जी ने लालकिले से अपने भाषण में राजनैतिक कम, सामाजिक मुद्दों को ज्यादा तरजीह दी। समाज और परिवार पर  कटाक्ष करते हुए उन्होंने एक अहम  बात कही कि आखिर सवालों और बंदिशों के घेरे  में बेटियाँ ही क्यों, बेटे क्यों नहीं रखे जाते ? बेटा-बेटी  के प्रति समाज का  दोहरापन ही तमाम बुराईयों की जड़ है और जिसका प्रतिबिम्ब आज नारी से दुर्व्यवहार और रेप जैसी घटनाओं  में साफ दिख रहा है। आखिर बेटों से यह सवाल क्यों नहीं पूछे जाते कि उनके दोस्त कौन हैं, वे कहाँ जा रहे हैं, उनकी गतिविधियाँ क्या हैं जबकि बेटियों से ये सारे सवाल बार-बार पूछे जाते हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सारे फरमान भी बेटियों पर ही बंदिश लगाते हैं। रेप जैसी घटनाओं के लिए सिर्फ बेटों ही नहीं उनके माँ-बाप भी उतने ही जिम्मेदार हैं।  मोदी जी ने जोर देकर कहा कि बलात्कार की घटनाओं के बारे में सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है। माता-पिता बेटियों पर बंधन डालते हैं, लेकिन उन्हें बेटों से भी पूछना चाहिए, वे कहां जा रहे हैं, क्या करने जा रहे हैं ? कानून के साथ समाज को भी जिम्मेदार बनना होगा। 

भ्रूण हत्या पर मोदी जी ने बेहद तल्खी से कहा कि,  हमने हमारा लिंगानुपात देखा है...? समाज में यह असंतुलन कौन बना रहा है...? भगवान नहीं बना रहे...! मैं डॉक्टरों से अपील करता हूं कि वे अपनी तिजोरियां भरने के लिए किसी मां की कोख में पल रही बेटी को न मारें... बेटियों को मत मारो, यह 21वीं सदी के भारत के माथे पर कलंक है। 

मोदी जी ने कहा कि ऐसे परिवार देखे हैं, जहां बड़े मकानों में रहने वाले पांच-पांच बेटों के बावजूद बूढ़े मां-बाप वृद्धाश्रम में रहते हैं... और ऐसे भी परिवार हैं, जहां इकलौती बेटी ने माता-पिता की देखभाल करने के लिए शादी तक नहीं की... सो, एक बेटी पांच-पांच बेटों से भी ज़्यादा सेवा कर सकती है...

मोदी जी ने लाल किले से इस बात को उठाया है तो आवाज़ भी दूर तक जानी चाहिये। 

लाल किले की प्राचीर से जब तिरंगा बुलंदी से फहरा रहा था तो इसी के साथ लोगों की आशाएं भी जगीं। आने वाले दिनों में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया से आधी आबादी सकारात्मक और सख्त क़दमों की आशा तो कर ही सकती है, आखिर इसके बिना तो भारत को सुदृढ़, सशक्त और विकसित नहीं बनाया जा सकता  !!

रविवार, 22 सितंबर 2013

'इण्डिया टुडे' में बेटियों की मनोदशा पर तीन कविताएँ




बेटियाँ समाज की अमूल्य धरोहर हैं। इन्हें बचाकर-सहेजकर रखिये, नहीं तो सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।आज डाटर्स  डे है, यानि बेटियों का दिन। यह सितंबर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है। इस साल यह 22  सितम्बर को मनाया जा रहा है। गौरतलब है कि चाईल्‍ड राइट्स एंड यू (क्राई) और यूनिसेफ ने वर्ष 2007 के सितंबर माह के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर, 2007 को प्रथम बार 'डाटर्स-डे' मनाया था, तभी से इसे हर वर्ष मनाया जा रहा है।  इस पर एक व्यापक बहस हो सकती है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस दिन का महत्त्व क्या है, पर जिस तरह से अपने देश में लिंगानुपात कम है या भ्रूण हत्या जैसी बातें अभी भी सुनकर मन सिहर जाता है, उस परिप्रेक्ष्य में जरुर इस दिन का बहुत महत्त्व है। 


आज की बेटियाँ पहले जैसी नहीं रहीं। अब वो सवाल-जवाब करने लगी हैं। प्रतिरोध करने लगी हैं। संस्कारों को जीने के साथ-साथ अपनी नियति की बागडोर भी सँभालने लगी हैं। बेटियों से संबंधित मेरी तीन कविताएँ 'इण्डिया टुडे स्त्री' के मार्च 2010 में प्रकाशित हुई थीं।यह समाज में बेटियों की विभिन्न मनोदशाओं को दर्शाती हैं। आप भी पढ़िए -
21वीं सदी की बेटी

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

एक लड़की

न जाने कितनी बार

टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती

याचना की निगाहों से

एक बार तो हाँ कहकर देखो

कोई कोर कसर नहीं रखूँगी

तुम्‍हारी जिन्‍दगी संवारने में

पर सब बेकार.


कोई उसके रंग को निहारता

तो कोई लम्‍बाई मापता

कोई उसे चलकर दिखाने को कहता

कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता

उसकी आँखों में

जहाँ प्‍यार है, अनुराग है


लज्‍जा है, विश्‍वास है।


मैं अजन्मी

मैं अजन्मी
हूँ अंश तुम्हारा
फिर क्यों गैर बनाते हो
है मेरा क्या दोष
जो, ईश्वर की मर्जी झुठलाते हो

मै माँस-मज्जा का पिण्ड नहीं
दुर्गा, लक्ष्मी औ‘ भवानी हूँ
भावों के पुंज से रची
नित्य रचती सृजन कहानी हूँ

लड़की होना किसी पाप की
निशानी तो नहीं
फिर
मैं तो अभी अजन्मी हूँ
मत सहना मेरे लिए क्लेश
मत सहेजना मेरे लिए दहेज
मैं दिखा दूँगी
कि लड़कों से कमतर नहीं
माद्दा रखती हूँ
श्मशान घाट में भी अग्नि देने का

बस विनती मेरी है
मुझे दुनिया में आने तो दो !!!




बुधवार, 8 मई 2013

हमारी बेटियाँ



हमारी बेटियाँ 
घर को सहेजती-समेटती
एक-एक चीज का हिसाब रखतीं
मम्मी की दवा तो
पापा का आफिस
भैया का स्कूल
और न जाने क्या-क्या।

इन सबके बीच तलाशती
हैं अपना भी वजूद
बिखेरती हैं अपनी खुशबू
चहरदीवारियों से पार भी
पराये घर जाकर
बना लेती हैं उसे भी अपना
बिखेरती है खुशियाँ
किलकारियों की गूंज  की ।

हमारी  बेटियाँ 
सिर्फ बेटियाँ  नहीं होतीं
वो घर की लक्ष्मी
और आँगन की तुलसी हैं
मायके में आँचल का फूल
तो ससुराल में वटवृक्ष होती हैं 
हमारी बेटियाँ  ।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

मैं अजन्मी...


मेरी यह कविता 'इण्डिया टुडे' पत्रिका के परिशिष्ट 'इण्डिया टुडे स्त्री' (3 मार्च, 2010) में प्रकाशित हुई थी। आज 'राष्ट्रीय बालिका दिवस' (24 जनवरी) पर उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-

मैं अजन्मी
हूँ अंश तुम्हारा
फिर क्यों गैर बनाते हो
है मेरा क्या दोष
जो, ईश्वर की मर्जी झुठलाते हो

मै माँस-मज्जा का पिण्ड नहीं
दुर्गा, लक्ष्मी औ‘ भवानी हूँ
भावों के पुंज से रची
नित्य रचती सृजन कहानी हूँ

लड़की होना किसी पाप की
निशानी तो नहीं
फिर
मैं तो अभी अजन्मी हूँ
मत सहना मेरे लिए क्लेश
मत सहेजना मेरे लिए दहेज
मैं दिखा दूँगी
कि लड़कों से कमतर नहीं
माद्दा रखती हूँ
श्मशान घाट में भी अग्नि देने का

बस विनती मेरी है
मुझे दुनिया में आने तो दो !!!

शनिवार, 25 सितंबर 2010

21वीं सदी की बेटी

(यूँ ही डायरी में अपने मनोभावों को लिखना मेरा शगल रहा है। ऐसे ही किसी क्षण में इन मनोभावों ने कब कविता का रूप ले लिया, पता ही नहीं चला। पर यह शगल डायरी तक ही सीमित रहा, कभी इनके प्रकाशन की नहीं सोची। फिलहाल तो देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कविताएं प्रकाशित हो रही हैं, पर मेरी प्रथम कविता कादम्बिनी पत्रिका में ‘‘युवा बेटी‘‘ शीर्षक ‘नये पत्ते‘ स्तम्भ के अन्तर्गत दिसम्बर 2005 में प्रकाशित हुई थी। आज उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-)

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

-आकांक्षा यादव

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

21वीं सदी की बेटी

यूँ ही डायरी में अपने मनोभावों को लिखना मेरा शगल रहा है। ऐसे ही किसी क्षण में इन मनोभावों ने कब कविता का रूप ले लिया, पता ही नहीं चला। पर यह शगल डायरी तक ही सीमित रहा, कभी इनके प्रकाशन की नहीं सोची। फिलहाल तो देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कविताएं प्रकाशित हो रही हैं, पर मेरी प्रथम कविता कादम्बिनी पत्रिका में 'युवा बेटी' शीर्षक 'नये पत्ते' स्तम्भ के अन्तर्गत दिसम्बर 2005 में प्रकाशित हुई थी। आज उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ-
21वीं सदी की बेटी
जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

-आकांक्षा यादव-