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मंगलवार, 15 जुलाई 2025

'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' से परे सभी भारतीय भाषाओं की गरिमा स्थापित करने की जरूरत

स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ी विडंबना यह रही है कि जिस देश की आत्मा उसकी भाषाओं में बसती है, वहां भाषाओं को मात्र उत्सवों, प्रतियोगिताओं और स्मरण-दिवसों तक सीमित कर दिया गया है। जब हम कहते हैं कि “हिंदी के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले वरिष्ठ साथियों ने पहले ही एकजुटता दिखाई होती”, तो यह केवल किसी वर्ग पर आरोप नहीं, बल्कि भाषा आंदोलन की उस ऐतिहासिक विफलता की ओर संकेत है जिसने भारतीय भाषाओं को सत्ता की दहलीज तक पहुँचने से रोक दिया। यह बात असहनीय है कि स्वतंत्रता के 77-78 वर्ष बाद भी न्यायालयों में, विश्वविद्यालयों में, संसद और विधानसभा की कार्यवाही में, जनभाषाओं को सिर्फ ‘अनुवाद योग्य वस्तु’ मानकर दरकिनार किया जाता है। क्या यह केवल इसलिए है कि हमारे वरिष्ठ हिंदीसेवी वर्ग ने समय रहते ‘कार्यवाही’ की जगह ‘कविता-पाठ’ को चुन लिया? जनभाषाओं की वास्तविक मुक्ति का मार्ग केवल कार्यक्रमों, भाषणों और प्रदर्शनियों से नहीं, बल्कि जनचेतना के सघन संघर्षों से होकर ही निकलेगा।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमारे समाज के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग की भूमिका अक्सर दोहरी रही है। एक ओर ये लोग मंचों से भाषायी गौरव की बात करते हैं, तो दूसरी ओर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाकर ‘भविष्य सुरक्षित’ करते हैं। ये वही लोग हैं जो राजभाषा सम्मेलनों में तालियाँ बजाते हैं, हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं और सांस्कृतिक विभागों से बजट लेकर कवि-सम्मेलन और यात्राएँ करते हैं; परंतु जब बात न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता की आती है, तो मौन धारण कर लेते हैं। यह मौन केवल नैतिक अपराध नहीं है, यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक प्रकार का धोखा है। इस मौन की गूंज आज उस मुकदमेबाज़ किसान की निराश आँखों में सुनाई देती है, जो न्यायालय में अपने पक्ष की बात तक समझ नहीं पाता। यह स्थिति बदल सकती थी, यदि हमारे हिंदीप्रेमी बौद्धिक वर्ग ने समय रहते जनभाषा को केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार का विषय बनाया होता।


हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि भाषा केवल साहित्य या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती — वह सत्ता का उपकरण भी होती है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा और रोज़गार जैसी संस्थाओं में भाषा के माध्यम से ही सहभागिता और वंचना तय होती है। जिस समाज में न्याय अंग्रेज़ी में होता हो, शिक्षा भी अंग्रेज़ी की अनिवार्यता पर आधारित हो और सरकारी तंत्र अंग्रेज़ी माध्यम के ‘स्पेशलिस्ट्स’ को प्राथमिकता दे, वहाँ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मान मिलना केवल एक छलावा बनकर रह जाता है। और यह छलावा तब और गहरा हो जाता है जब हमारे ही कुछ वरिष्ठ लेखक, भाषाविद् और तथाकथित हिंदी समर्थक लोग इन प्रश्नों पर चुप्पी साध लेते हैं या उन्हें हाशिये पर डाल देते हैं। उनकी चुप्पी को ‘निष्क्रिय समर्थन’ कहा जा सकता है — उस व्यवस्था के लिए जो अंग्रेज़ी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भारतीय भाषाओं को सजावट की वस्तु की तरह बरतती है।

अब यह आवश्यक हो गया है कि हम केवल ‘हिंदी दिवस’ या ‘भाषा उत्सव’ मनाने की औपचारिकता से बाहर निकलें और जनभाषाओं के अधिकार के लिए एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करें। यह आंदोलन केवल हिंदी के लिए नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए होना चाहिए — मराठी, बंगला, कन्नड़, तमिल, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, संथाली, उड़िया, पंजाबी — क्योंकि ये सभी भाषाएँ इस देश की आत्मा हैं। आज जब न्यायालयों में मुकदमे सालों-साल खिंचते हैं और पीड़ित व्यक्ति को उसकी ही भाषा में निर्णय की प्रति नहीं मिलती, तो यह केवल भाषायी भेदभाव नहीं, बल्कि संवैधानिक विषमता है। जब तक हम संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 और 350A–350B के भाषायी प्रावधानों को व्यावहारिक रूप से लागू कराने की माँग नहीं करेंगे, तब तक किसी भी ‘राजभाषा पुरस्कार’ या ‘साहित्यिक सेमिनार’ का कोई मूल्य नहीं है।

जनभाषा आंदोलन का भविष्य उन युवाओं के हाथ में है जो भाषायी अन्याय को सिर्फ भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और संवैधानिक अधिकार का विषय मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम ‘हिंदी बनाम अंग्रेज़ी’ जैसी सतही बहसों से ऊपर उठें और इस प्रश्न पर बहस करें कि न्यायिक प्रक्रिया, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन और अन्य सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को कैसे पूर्ण सम्मान और व्यवहार में स्थान दिलाया जाए। इसके लिए नीतिगत दबाव, याचिकाएँ, भाषायी सर्वेक्षण, जनसभाएँ और सामाजिक अभियानों की ज़रूरत है — वही रूप जो ‘भूख के अधिकार’ या ‘सूचना के अधिकार’ के आंदोलनों ने अपनाया। यदि भाषा का प्रश्न भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ा है, तो उसका संघर्ष भी उतना ही व्यापक और जनाधारित होना चाहिए।

जनभाषाओं की उपेक्षा : संविधानिक संकल्प से सामाजिक विसंगति तक : स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय संविधान ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत बहुभाषिक देश है और सभी भाषाओं का समान आदर होगा। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई, पर साथ ही अनुच्छेद 348 में न्यायालयों और विधायिकाओं में अंग्रेज़ी के प्रयोग को तब तक जारी रखने की छूट भी दे दी गई जब तक संसद अन्यथा निर्णय न ले। यहीं से जनभाषाओं के अधिकारों के साथ वह ऐतिहासिक छल आरंभ हुआ, जो आज तक जारी है। उस समय यदि हमारे भाषा प्रेमी बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार और शिक्षाविद् मिलकर एक स्पष्ट, संगठित आवाज़ उठाते, तो शायद 1965 के बाद अंग्रेज़ी का यह स्थायी वर्चस्व न बनता। किंतु उस समय के अधिकांश प्रबुद्ध वर्गों ने व्यवस्था के साथ एक प्रकार का ‘समझौता’ कर लिया। उन्होंने भाषायी अधिकार को आत्मगौरव का विषय मानने के बजाय सांस्कृतिक उत्सव का रूप दे दिया — ‘हिंदी पखवाड़ा’, ‘भाषा सप्ताह’, ‘साहित्यिक आयोजन’ और ‘राजभाषा कार्यशालाएँ’। इन सब गतिविधियों में ‘दृश्य’ तो बना, पर ‘दिशा’ नहीं बनी।

न्यायालय में आज भी भारत की 95% जनता को न्याय उनकी अपनी भाषा में नहीं मिलता। यह स्थिति केवल बिहार, यूपी, या ओडिशा तक सीमित नहीं है — यह पूरे देश की विडंबना है। सुप्रीम कोर्ट और अधिकांश उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियाँ केवल अंग्रेज़ी में होती हैं और निचली अदालतों में भी यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा में बहस करता है, तो या तो उसकी बात को हल्के में लिया जाता है या उसे अनुवादक की मदद लेनी पड़ती है। सवाल यह है कि जब संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, तो भाषा के आधार पर यह असमानता क्यों? और यह भी उतना ही गंभीर प्रश्न है कि इन वर्षों में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए संघर्षरत माने जाने वाले संगठनों ने इस विषय पर संगठित राष्ट्रव्यापी आंदोलन क्यों नहीं चलाया? इसका उत्तर कहीं न कहीं इस तथ्य में छिपा है कि इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले अनेक व्यक्ति स्वयं भाषायी सुविधाओं के उपभोक्ता बनकर व्यवस्था में समाहित हो चुके थे।

इस द्वैध भूमिका ने भारतीय भाषाओं के आंदोलन को गंभीरता की जगह ‘प्रतीकात्मकता’ की ओर मोड़ दिया। हिंदी का नाम लेकर सरकारी विभागों में राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति, अनुवाद विभागों का विस्तार और सरकारी बजट से अनेक योजनाएँ तो चलाई गईं, परंतु इनका संबंध ज़मीनी जनभाषा चेतना से नहीं रहा। इससे भाषा आंदोलन एक प्रकार का 'नौकरशाही महोत्सव' बन गया — जिसमें कविताएं तो थीं, पर क्रांति नहीं; घोषणाएं तो थीं, पर संघर्ष नहीं; योजनाएं तो थीं, पर परिणाम नहीं। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि आम जनता के भीतर यह विश्वास ही नहीं बन पाया कि हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा में उसे न्याय, शिक्षा या प्रशासन जैसी सेवाएँ मिल सकती हैं।

अब जब भारतीय लोकतंत्र अपनी 78वीं वर्षगाँठ की ओर बढ़ रहा है, तो यह आत्मावलोकन का समय है — हमें स्वयं से पूछना होगा कि क्या हमने अपनी भाषाओं के साथ न्याय किया है? क्या हम उस किसान, उस महिला, उस वृद्ध व्यक्ति की पीड़ा को समझ पा रहे हैं जो अदालत के दरवाज़े पर खड़ा होकर उस भाषा में सुनवाई की अपेक्षा करता है, जो उसकी माँ की बोली है? क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि अमेरिका, फ्रांस, चीन या जापान में न्यायालय किसी विदेशी भाषा में काम करते हों और आम नागरिक कुछ समझ ही न पाए? यदि नहीं, तो भारत जैसे भाषिक लोकतंत्र में यह क्यों संभव है? जवाब स्पष्ट है — हमने भाषाओं को ‘संस्कृति’ का विषय तो बना लिया, पर ‘सत्ता’ का माध्यम नहीं बना पाए।

इस स्थिति को बदलना है तो अब केवल हिंदी के नाम पर कवि-सम्मेलनों से आगे बढ़ना होगा। अब आवश्यकता है एक संगठित, प्रभावशाली और राष्ट्रीय स्तर के भाषाई जन आंदोलन की — जो केवल नारे नहीं, नीतियाँ माँगे; केवल मंच नहीं, कानूनों में संशोधन माँगे। इस आंदोलन की मांग होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में हिंदी समेत सभी 8वीं अनुसूची की भाषाओं में कार्यवाही की अनुमति हो; कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ और प्रशासनिक परीक्षाओं की पढ़ाई और परीक्षा भारतीय भाषाओं में सुनिश्चित हो; और कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन और प्रशिक्षण पूरी तरह से मातृभाषा में कराया जाए।

जनभाषाओं में न्याय और शिक्षा - केवल भाषायी अधिकार नहीं, लोकतांत्रिक मर्यादा का प्रश्न : आज जब हम भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, तो यह भूलना नहीं चाहिए कि इन 77–78 वर्षों में एक बहुत बड़ा वर्ग भाषा के आधार पर लोकतंत्र के लाभों से वंचित रहा है। भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ के जिन उच्च आदर्शों की स्थापना की गई थी, वे तभी पूर्ण हो सकते हैं जब हर व्यक्ति को उसकी अपनी भाषा में राज्य की सभी सुविधाएँ — विशेषकर न्याय और शिक्षा — सहजता से उपलब्ध हों। किंतु जब तक व्यक्ति को अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तब तक वह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को व्यावहारिक रूप से प्राप्त नहीं कर सकता। न्याय केवल विधिक प्रक्रिया नहीं है, यह मनुष्य की गरिमा से जुड़ा हुआ एक अत्यंत संवेदनशील पक्ष है। और गरिमा तभी संभव है जब व्यक्ति अपनी बात को उस भाषा में कह सके जिसमें वह सोचता, समझता और दुख-सुख साझा करता है।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को न्यायिक व्यवस्था से काटकर हमने अंग्रेज़ी को एकाधिकार की तरह स्थापित कर दिया है। इसे और अधिक गंभीर इसीलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह व्यवस्था केवल औपनिवेशिक विरासत नहीं है — यह आज के स्वतंत्र भारत के भीतर पनपी असमानता की एक संरचना बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी देश के अधिकांश विधि विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और न्यायालयों में अधिकांश आदेश और निर्णय केवल अंग्रेज़ी में जारी होते हैं। परिणामस्वरूप, न्याय केवल उन लोगों की पहुँच में रह गया है जो अंग्रेज़ी में संवाद कर सकते हैं — बाकी जनता ‘सुनवाई’ तो कर लेती है, पर समझ नहीं पाती कि न्याय मिला है या नहीं। यह केवल भाषायी विफलता नहीं, यह संवैधानिक असमानता का सीधा उदाहरण है।

शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं को जिस प्रकार हाशिये पर डाल दिया गया है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि आत्मघाती भी है। भारतीय भाषाओं को केवल कक्षा 5 तक पढ़ाई के माध्यम तक सीमित रखने की नीतियाँ और आगे जाकर अंग्रेज़ी को अनिवार्य बनाना, एक प्रकार से बहुसंख्यक छात्र वर्ग को शिक्षा के मुख्यधारा से बाहर करने जैसा है। यह एक खुला तथ्य है कि भारत के गाँवों, कस्बों और मध्यमवर्गीय परिवारों में आज भी अधिकांश छात्र मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषाओं में ही सोचते-समझते हैं। ऐसे में अंग्रेज़ी माध्यम की बाध्यता उन्हें केवल भाषायी स्तर पर नहीं, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी हीनता का अनुभव कराती है। इससे उनकी आत्मविश्वास क्षमता, संप्रेषण कौशल और नवाचार की संभावना भी प्रभावित होती है।

इस स्थिति को जानबूझकर बनाये रखने की भूमिका में वे संस्थान और व्यक्तित्व भी रहे हैं जो 'हिंदी के हितैषी' कहलाते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेज़ी वर्चस्व को तोड़ने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते। यह वह वर्ग है जो मंच पर हिंदी के लिए भावुक हो उठता है, लेकिन प्रशासन, विधि, तकनीकी और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में मातृभाषा की मांग करने से कतराता है। वे भूल जाते हैं कि भाषा केवल साहित्य की वस्तु नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत है। भाषा यदि सत्ता और प्रशासन का माध्यम नहीं बनती, तो वह केवल भावनाओं का खेल बनकर रह जाती है। यही कारण है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ अपने देश में बहुसंख्यक होने के बावजूद शक्तिहीन बनी हुई हैं और एक विदेशी भाषा — अंग्रेज़ी — अब भी निर्णयकारी भूमिका में है।

अब जब देश में ‘डिजिटल इंडिया’, ‘विकसित भारत 2047’ और ‘ग्लोबल साउथ की अगुवाई’ जैसे लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे हैं, तो क्या यह उचित नहीं होगा कि इन सबके मूल में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा और प्राथमिकता दी जाए? क्या यह समय नहीं आ गया है कि हिंदी और अन्य जनभाषाओं को केवल भावनात्मक मुद्दा मानना बंद करके उन्हें संवैधानिक, सामाजिक और व्यावसायिक अधिकार का मुद्दा बनाया जाए? क्या अब भी हम केवल ‘हिंदी सप्ताह’, ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार’ और ‘साहित्यिक आयोजन’ तक सीमित रहेंगे या इन भाषाओं को वास्तविक ‘सत्ता की भाषा’ बनाएंगे?

यदि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है, तो हमें यह भी समझना होगा कि यह परिवर्तन ऊपर से नहीं आएगा। यह केवल जन-आंदोलन से ही संभव है — वह आंदोलन जो अदालतों से लेकर शिक्षा संस्थानों तक, संसद से लेकर नगर पंचायत तक, हर जगह ‘जनभाषाओं में संप्रेषण और निर्णय की अनिवार्यता’ की माँग उठाए। जब तक आम जनता, शिक्षक, छात्र, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार — सभी मिलकर भाषायी अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष नहीं करेंगे, तब तक केवल नारेबाज़ी और सांस्कृतिक आयोजन चलते रहेंगे — और भारत की भाषाएँ सत्ता से और भी दूर होती जाएँगी।

भाषा की लड़ाई बनाम सत्ता की चुप्पी - नई सदी में जनभाषा आंदोलन की अपरिहार्यता : वर्तमान समय में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम भाषा के प्रश्न को केवल सांस्कृतिक विमर्श तक सीमित न रखें, बल्कि उसे सीधे-सीधे सत्ता के समीकरणों से जोड़कर देखें। यह कोई संयोग नहीं है कि देश की लगभग 90% जनता हिंदी या किसी न किसी भारतीय भाषा में संवाद करती है, परंतु निर्णय लेने की संस्थाएँ — जैसे न्यायालय, संसद, उच्च शिक्षा परिषद, नियोजन आयोग, नीति आयोग — अब भी अपनी अधिकांश कार्यवाहियाँ अंग्रेज़ी में संचालित करती हैं। इस प्रकार यह व्यवस्था स्पष्ट रूप से एक भाषाई अभिजात वर्ग (linguistic elite) का निर्माण करती है, जिसमें अंग्रेज़ी जानने वाले अल्पसंख्यक को विशिष्ट सुविधा और प्रभाव प्राप्त होता है, जबकि शेष बहुसंख्यक जनसंख्या को ‘दूसरे दर्जे’ का नागरिक बनाकर रख दिया जाता है। यह विभाजन जितना भाषाई है, उतना ही वर्गीय और सामाजिक भी है और यही कारण है कि इसे केवल भाषाई नहीं, सामाजिक न्याय के आंदोलन की तरह देखे जाने की आवश्यकता है।

किसी भी लोकतंत्र की पहली शर्त यह होती है कि उसमें आम जनता को नीति निर्माण की प्रक्रियाओं में सहभागिता का अवसर मिले। किंतु जब राज्य की भाषाएं ही जनता की समझ से परे हो जाएँ, तो लोकतंत्र केवल कागज़ी बनकर रह जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे वरिष्ठ साहित्यकार, भाषा नीति निर्माता और ‘हिंदी के पुरोधा’ कहलाने वाले अनेक विशिष्टजन इस कटु सच्चाई से अनजान नहीं हैं। वे जानते हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक गहरे संकट से जूझ रही हैं — विशेषकर व्यवहारिक उपयोग और सम्मान की दृष्टि से — फिर भी उन्होंने या तो ‘सरकारी योजनाओं के तहत सीमित आलोचना’ को चुना है या फिर ‘अनुदान आधारित चुप्पी’ को। यह न केवल खेदजनक है, बल्कि भाषाई आंदोलन के लिए घातक भी है, क्योंकि यह वर्ग आम जनता के भीतर यह संदेश प्रसारित करता है कि भाषा केवल 'साहित्यिक सजावट' है, कोई बुनियादी अधिकार नहीं।

यह भी समझना आवश्यक है कि भाषायी अधिकारों की लड़ाई केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। भारत की तमाम भाषाएं — चाहे वे मराठी, बंगला, गुजराती हों या तमिल, तेलुगु, उड़िया, पंजाबी या असमिया — सबके सब एक जैसी पीड़ा से गुजर रही हैं। उन्हें भी उच्च न्यायालयों में न्याय नहीं मिलता; उन्हें भी मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में दरकिनार किया गया है; उन्हें भी विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में हाशिए पर रखा गया है। और यह सब तब हो रहा है जब भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ इतनी भाषाई विविधता के बावजूद संविधान में भाषाओं के संरक्षण की प्रतिज्ञा की गई है। सवाल यह है कि यदि संविधान भी भारतीय भाषाओं की रक्षा नहीं कर पा रहा और न ही 'हिंदी प्रेमी' कहलाने वाले विद्वानों की चेतना जाग पा रही, तो फिर उम्मीद किससे की जाए?

उत्तर एक ही है — जन से। अब यह लड़ाई केवल लेखकों, शिक्षकों या कानूनविदों की नहीं रह गई है; यह अब हर उस व्यक्ति की लड़ाई है जो अपने बच्चों को, अपने गांव को, अपने समाज को सशक्त बनते देखना चाहता है। यह लड़ाई हर उस छात्र की है जो अंग्रेज़ी न जानने के कारण मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पिछड़ जाता है; यह लड़ाई उस गरीब महिला की है जो न्यायालय में कुछ समझ नहीं पाती और सालों तक चक्कर काटती है; यह लड़ाई उस किसान की है जो सरकारी योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं उठा पाता क्योंकि आवेदन फार्म अंग्रेज़ी में होते हैं। और सबसे बड़ी बात — यह लड़ाई उस भारत की आत्मा की है, जो भाषाओं के माध्यम से सांस लेती है, विचार करती है और चेतना के विविध रंगों को जीती है।

अब यदि इस भाषाई अन्याय के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठती, तो यह चुप्पी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक भारी कीमत बनकर सामने आएगी। भाषा कोई ‘व्यक्तिगत रूचि’ नहीं होती — वह एक समाज का अस्तित्व, उसकी पहचान और उसकी शक्ति का मूल होती है। इसलिए जनभाषाओं को न्याय, शिक्षा और प्रशासन में स्थान दिलाने की माँग करना कोई कृपा नहीं, बल्कि भारत के प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक और नैतिक अधिकार है। और इस अधिकार की प्राप्ति अब केवल सरकारी नीतियों से नहीं, बल्कि सशक्त जनांदोलन से ही संभव है — एक ऐसा आंदोलन जो केवल हिंदी नहीं, बल्कि भारत की तमाम जनभाषाओं को साथ लेकर चले और जो कहे : "हमें अपनी भाषा में जीने, समझने, पढ़ने, लिखने और न्याय पाने का पूरा अधिकार है — और हम इसके लिए लड़ेंगे भी और जीतेंगे भी।"

जब भाषा अपमानित होती है, तो राष्ट्र का आत्मबल भी क्षीण होता है : अब वह समय नहीं रहा जब भाषाई मुद्दों को केवल 'संवेदनशील सांस्कृतिक प्रश्न' कहकर टाल दिया जाए। यह विषय अब सीधे-सीधे सत्ता, नीति, संविधान और सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है। भाषा की उपेक्षा केवल बोलियों या भाषियों की उपेक्षा नहीं होती — यह संपूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व, सामाजिक गतिशीलता और मानसिक स्वतंत्रता की हत्या होती है। जब एक राष्ट्र की बहुसंख्यक आबादी को उनकी अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तो उस राष्ट्र की लोकतांत्रिक संकल्पनाएँ खोखली सिद्ध होती हैं। और जब एक स्वतंत्र देश की न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र में विदेशी भाषा को 'योग्यता' और 'सक्षमता' का पर्याय बना दिया जाता है, तो वह व्यवस्था गहरे मानसिक उपनिवेशवाद की गिरफ़्त में जी रही होती है।

भारत जैसे देश में जहाँ प्रत्येक गली-मोहल्ले में एक नई बोली जन्म लेती है, वहाँ भाषाओं की गरिमा केवल साहित्यिक गौरव से नहीं, बल्कि व्यवहारिक और संस्थागत मान्यता से निर्धारित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के 78 वर्षों बाद भी हम केवल "हिंदी दिवस", "राजभाषा पुरस्कार", "साहित्यिक सेमिनार" जैसे आयोजनों तक सिमटे हुए हैं — जबकि आवश्यकता है कि हम माँग करें : सुप्रीम कोर्ट में हमारी भाषा में न्याय मिले; मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हमारी भाषा में हो; सरकारी कार्यालयों में हमारी भाषा में संप्रेषण अनिवार्य हो; प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारी भाषाओं को प्राथमिकता दी जाए; और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शोध और नवाचार की भाषा बनाया जाए।

यह भी अनिवार्य है कि इस भाषाई आंदोलन को केवल 'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' के संकुचित परिप्रेक्ष्य से बाहर लाया जाए। भारत की तमाम भाषाएँ — चाहे वे तमिल हों, मराठी हों, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, उड़िया, बांग्ला या कन्नड़ — सबकी स्थिति लगभग एक जैसी है। सबकी मातृभूमि पर अंग्रेज़ी का प्रशासनिक उपनिवेश आज भी छाया हुआ है। इसलिए यदि इस संघर्ष को वास्तव में सफल बनाना है, तो इसे ‘जनभाषाओं के लिए न्याय’ के नाम से एक साझा आंदोलन में परिवर्तित करना होगा — एक ऐसा आंदोलन जो न केवल सड़कों पर उतरे, बल्कि नीति-निर्माण में प्रभावशाली हस्तक्षेप करे; जो न केवल अदालतों में याचिकाएँ दायर करे, बल्कि जनसमूह को शिक्षित, संगठित और सशक्त करे; जो केवल लेखकों, पत्रकारों, या शिक्षकों तक सीमित न रहे, बल्कि ग्रामीण किसान, मजदूर, महिला समूह, छात्र संगठन, पंचायत प्रतिनिधि — हर वर्ग को जोड़कर एक भाषायी जनक्रांति का स्वरूप ले।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन को सबसे पहले उस मानसिकता से लड़ना होगा, जो यह मानती है कि अंग्रेज़ी के बिना ‘प्रगति’ संभव नहीं। हमें यह प्रमाणित करना होगा कि ज्ञान, विज्ञान, न्याय और प्रशासन — सब कुछ मातृभाषा में संभव है और यह न केवल संभव है, बल्कि समाज को न्यायसंगत और समावेशी बनाने का एकमात्र मार्ग भी यही है। इसके लिए 'हिंदी के नाम पर केवल कविता लिखने वाले' वरिष्ठों को अब मंच की चकाचौंध से बाहर आकर जन संघर्ष की धरती पर उतरना होगा। उन्हें अब यह समझना होगा कि कविताबाजी, कार्यक्रमबाजी और 'भाषा पर्यटन' से भाषा का सम्मान नहीं लौटाया जा सकता — इसके लिए एकजुटता, नीति-निर्माण में दबाव और राजनीतिक दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूरी है।

अंततः, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय भाषाओं में न्याय और शिक्षा की बहाली, केवल भाषाई सम्मान का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को पुनः प्रतिष्ठित करने का कार्य है। यह आंदोलन केवल व्याकरण और शब्दावली का आंदोलन नहीं, यह आत्मनिर्णय, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक समानता का संघर्ष है। अगर हम आज नहीं जागे, तो अगली पीढ़ियाँ हमें एक ऐसे वर्ग के रूप में याद करेंगी जिन्होंने भाषा के नाम पर केवल रोटियाँ सेंकीं, लेकिन न्याय और शिक्षा से वंचित समाज को चुपचाप स्वीकार किया। इसलिए अब समय है — संकल्प लेने का, संगठित होने का और जनभाषाओं को भारत की 'शासन भाषा' बनाने के यज्ञ में पूर्ण आहुति देने का।

क्योंकि जब तक हमारी भाषा अपमानित रहेगी, तब तक हमारी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। और जब हमारी भाषाएँ न्याय और नीति की भाषा बनेंगी, तभी भारत सच्चे अर्थों में गणराज्य कहलाएगा। अब नहीं, तो कभी नहीं...!!


पूनम चतुर्वेदी शुक्ला
संस्थापक-निदेशक, अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन एवं
न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन’
सेक्टर-एल, आशियाना, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) 

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

Special Issue of Hindi Magazine Saraswati Suman : संग्रहणीय है 'सरस्वती सुमन' का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक

प्रतिष्ठित हिंदी मासिक पत्रिका 'सरस्वती सुमन' का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक, दिसंबर-2024 (वर्ष 23, अंक 110) प्राप्त हुआ जो देहरादून, उत्तराखंड से प्रकाशित होती है। वर्तमान अंक का आकर्षण एक साहित्यकार दंपत्ति के रूप में स्थापित आकांक्षा यादव और कृष्ण कुमार यादव के साहित्य पर विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस पत्रिका के प्रधान संपादक डॉ. आनंद सुमन सिंह और संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव हैं। पत्रिका का कवर पेज साहित्य साधना में रत युगल जोड़ी के खूबसूरत छायाचित्र से बहुत कुछ कहता प्रतीत होता है। पत्रिका की अनुक्रमणिका पर दृष्टि डालने से यह बात और भी पुष्ट होती नजर आती है। साहित्य एवं संस्कृति का सारस्वत अभियान के तहत प्रकशित पत्रिका के इस अंक को कुल सात भागों में विभक्त करके कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव की साहित्यिक रचनाधर्मिता को समेटने की कोशिश की गई है। 

प्रथम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कविताएं, द्वितीय भाग में आकांक्षा यादव की कविताएं, तृतीय भाग में कृष्ण कुमार यादव की लघु कथाएं, चतुर्थ भाग में आकांक्षा यादव की लघु कथाएं, पंचम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कहानियाँ, षष्ठ भाग में आकांक्षा यादव के लेख और सप्तम भाग में कृष्ण कुमार यादव के लेख के साथ-साथ युगल आकांक्षा और कृष्ण कुमार यादव का परिचय व्यवस्थित तरीके से प्रकाशित किया गया है।


प्रथम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कविताएं जैसे - बदलती कविता, अंडमान के आदिवासी, सेलुलर जेल की आत्माएं, सभ्यताओं का संघर्ष, रिश्तों का अर्थशास्त्र, विज्ञापनों का गोरखधंधा, मांस का लोथड़ा, बिखरते शब्द, मां, बच्चे की निगाह, पॉलिश  ब्रेकिंग न्यूज़ आदि कविताएं पत्रिका के गौरव को बढ़ा रही हैं। द्वितीय भाग में आकांक्षा यादव की कविताएं जैसे- शब्दों की गति, हमारी बेटियां, नियति का प्रहार, वजूद, 21वीं सदी की बेटी,मैं अजन्मी, श्मशान, एहसास, सिमटता आदमी भी विशेष महत्व की कविताएं दिखतीं हैं। तृतीय भाग में कृष्ण कुमार यादव की लघु कथाएं जैसे - एन.जी.ओ, चिंता, व्यवहार, सर्कस, हिंदी सप्ताह, बेटा, एक राहगीर की मौत, खतरनाक, प्यार का अंजाम, रोशनी, दहेज, योग्यता, इन्वेस्टमेंट के साथ चतुर्थ भाग में आकांक्षा यादव की लघु कथाएं जैसे- अधूरी इच्छा, अरमान,बेटियाँ, चैट, अवार्ड का राज, काला आखर आदि प्रमुख आकर्षण हैं।

 
पंचम खंड में कृष्ण कुमार यादव की कहानियाँ  जैसे- आवरण, हकीकत, रिश्तों की नजाकत, शराफत इत्यदि प्रकाशित हैं। षष्ठ भाग में आकांक्षा यादव के लेख - लोक चेतना में स्वाधीनता की लय, भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा, समकालीन परिवेश में नारी विमर्श, मानव और पर्यावरण : सतत विकास और चुनौतियां प्रकाशित हैं। सप्तम खंड में कृष्ण कुमार यादव के लेख - शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत, भागो नहीं दुनिया को बदलो, राजनीति से दूर होता साहित्यिक व सांस्कृतिक विमर्श, कोई लौटा दे वो चिठ्ठियां प्रकाशित हैं।

कृष्ण कुमार यादव की कविताएं सीधे-सीधे जन मानस की आवाज बनी हुई दिखाई देती हैं। वही सुदूर अंडमान-निकोबार के आदिवासी भी उनकी लेखनी के माध्यम से आवाज पाते हैं। एक साहित्यकार की नजर में कृष्ण कुमार यादव सेलुलर जेल की आत्माओं को भी शब्द देते नजर आते हैं। कृष्ण कुमार यादव रिश्तों के अर्थशास्त्र को भी अपनी रचना में कम शब्दों में बेहतरीन तरीके से व्यक्त करते नजर आते हैं। आज का बाजार विज्ञापनों से भरा पड़ा है। ऐसे में उनकी 'विज्ञापनों का गोरखधंधा' कविता विज्ञापनों के खोखलेपन को उजागर करती नजर आती है। 'मांस का लोथड़ा' या 'बिखरते शब्द' पढ़ने से उनके अंदर की संवेदना और संस्कृति की झलक मिलती है। 'बिखरते शब्द' में वह लिखते हैं- "शब्द है तो सृजन है/साहित्य है संस्कृति है/पर लगता है/शब्द को लग गई किसी की बुरी नजर।" इसी तरह 'मां' कविता में कृष्ण कुमार यादव मां के जीवनी के हर पहलू को मां और बेटे के भावनात्मक जुड़ाव के माध्यम से शब्दों में पिरोते हैं। 'पालिश' कविता में उनके जो शब्द हैं वह जमीनी एहसास कराते हैं। कविता की शुरुआत ही एक बालक के जूता पॉलिश करने के शब्द से होती है। जिस शब्द से जूता पॉलिश करने वाला बच्चा जूता पॉलिश कराने वाले को स्नेह के साथ अपने पास बुलाता है-'साहब पॉलिश करा लो' इस एक लाइन में ही उनकी पूरी कविता का विमर्श सामने आ जाता है और उनकी रचना बाल विमर्श के नए अध्याय को खोलती है। 'ब्रेकिंग न्यूज़' कविता में वे आज की मीडिया पर करारा प्रहार करते नजर आते हैं।

आकांक्षा यादव की कविताएं संवेदना की धरातल पर तो लिखी ही गई हैं, साथ ही साथ वह नारी अस्मिता और सशक्तिकरण की बात को भी बहुत सलीके के साथ अपनी कविता में रखती नजर आती हैं। वह लिखती है - 'मुझे नहीं चाहिए/ प्यार भरी बातें/ चांद की चांदनी/ चांद से तोड़कर लाए हुए सितारे/ मुझे चाहिए बस अपना वजूद/ जहां किसी दहेज, बलात्कार,भ्रूण हत्या/का भय नहीं सताए मुझे।' अपनी कविताओं में वे स्त्री विमर्श को सशक्त करती नजर आती हैं।

 



कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव लगातार विभिन्न विधाओं में सक्रियता के साथ लिख रहे हैं और खूब प्रकाशित भी हो रहे हैं। इस युगल की कविताएं कम शब्दों में अपनी बात को व्यक्त करने में सक्षम हैं। दोनों अपने-अपने नजरिये से लघु कथाएं लिखते हैं। दोनों के कैनवास अलग-अलग हैं पर दोनों की दृष्टि लगभग समान है। कृष्ण कुमार यादव की कहानियों का कैनवास बड़ा है और उनकी कहानी एक से बढ़कर एक हैं। आकांक्षा यादव के लेख एक तरफ जहां स्त्री विमर्श के नए आयाम स्थापित करने की कोशिश करते हैं, वही भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा और प्रकृति व पर्यावरण भी उनके लिए पसंदीदा लेखन का विषय है। कृष्ण कुमार यादव का लेख 'भागो नहीं दुनिया को बदलो' राहुल सांकृत्यायन पर एक शोधपरक लेख है, जो कि उनके अपने ही जिले आज़मगढ़ के एक महँ दार्शनिक, यायावर रहे हैं। 'कोई लौटा दे वो चिट्ठियाँ' लेख में कृष्ण कुमार यादव ने बड़ी खूबसूरती से चिट्ठी-पत्री में छुपी भावनाओं और सोशल मीडिया के दौर में उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। लेख पढ़ने के दौरान व्यक्ति उन चिट्ठियों की दुनिया में खो जाता है जिनमें हम सभी के बचपन गुजरे हैं। पत्र लेखन साहित्य की भी एक विधा है और संयोगवश कृष्ण कुमार डाक सेवाओं और साहित्य दोनों से ही गहराई से जुड़े हुए हैं। 


निश्चितत: प्रतिष्ठित हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती सुमन का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक एक संग्रहणीय अंक है। इस तरह का दांपत्य अंक विरले ही देखने को मिलता है। साहित्य समाज का दर्पण है। इस दर्पण में पति-पत्नी के साहित्य को समाज के सामने लाकर 'सरस्वती सुमन' के संपादक ने एक नया विमर्श भी खोला है। साहित्य का अनुराग होने के कारण इस तरह का एक प्रयास हमने भी अपने साहित्य लेखन के दौरान 'सहचर मन' (काव्य संग्रह) 2010 में प्रकाशित कराया था, जिसमें आधी कविताएं मेरी और आधी कविताएं मेरे जीवन साथी प्रोफेसर अखिलेश चंद्र की हैं। इस तरह का प्रयास न केवल साहित्य में बल्कि दांपत्य जीवन में भी खूबसूरत स्थापना का स्वरूप रखते हैं ।

समीक्ष्य पत्रिका - सरस्वती सुमन/ मासिक हिंदी पत्रिका/ प्रधान सम्पादक -डॉ. आनंद सुमन सिंह/ सम्पादक - किशोर श्रीवास्तव/संपर्क -'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, आर्य नगर, देहरादून, उत्तराखंड-248001, मो.-7579029000, ई-मेल :saraswatisuman@rediffmail.com 


समीक्षक : प्रोफेसर (डॉ.) गीता सिंह, अध्यक्ष-स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, डी.ए.वी  पी.जी कॉलेज, आजमगढ़ (उ.प्र.), मो.-9532225244
प्रोफेसर (डॉ.) अखिलेश चन्द्र, शिक्षा संकाय, श्री गांधी पी.जी कॉलेज, मालटारी, आजमगढ़ (उ.प्र.), मो.-9415082614

सोमवार, 17 जनवरी 2022

विश्व हिंदी दिवस : तीन पीढ़ियों संग हिंदी के विकास में जुटा एक परिवार

हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करने और हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करने हेतु प्रति वर्ष 'विश्व हिन्दी दिवस' 10 जनवरी को मनाया जाता है। हिंदी को लेकर तमाम संस्थाएँ, सरकारी विभाग व विद्वान अपने स्तर पर कार्य कर रहे हैं। इन सबके बीच उत्तर प्रदेश में वाराणसी परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव का अनूठा परिवार ऐसा भी है, जिसकी तीन पीढ़ियाँ हिंदी की अभिवृद्धि के लिए  न सिर्फ प्रयासरत हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी कई देशों में सम्मानित हैं।

वाराणसी परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव के परिवार में उनके पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव के साथ-साथ पत्नी सुश्री आकांक्षा यादव और दोनों बेटियाँ अक्षिता व अपूर्वा भी हिंदी को अपने लेखन से लगातार नए आयाम दे रही हैं। देश-दुनिया की तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ श्री कृष्ण कुमार यादव की 7 और पत्नी आकांक्षा की 3 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में इस परिवार का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अग्रणी है।

'दशक के श्रेष्ठ ब्लॉगर दम्पति' सम्मान से विभूषित यादव दम्पति को नेपाल, भूटान और श्रीलंका में आयोजित 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन' में 'परिकल्पना ब्लॉगिंग सार्क शिखर सम्मान' सहित अन्य सम्मानों से नवाजा जा चुका है। जर्मनी के बॉन शहर में ग्लोबल मीडिया फोरम (2015) के दौरान 'पीपुल्स चॉइस अवॉर्ड' श्रेणी में सुश्री आकांक्षा यादव के ब्लॉग 'शब्द-शिखर' को हिंदी के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में भी सम्मानित किया जा चुका है।

सनबीम स्कूल, वरुणा, वाराणसी में अध्ययनरत इनकी दोनों बेटियाँ अक्षिता (पाखी) और अपूर्वा भी इसी राह पर चलते हुए अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई के बावजूद हिंदी में सृजनरत हैं। अपने ब्लॉग 'पाखी की दुनिया' हेतु अक्षिता को भारत सरकार द्वारा सबसे कम उम्र में 'राष्ट्रीय बाल पुरस्कार' से सम्मानित किया जा चुका है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन, श्रीलंका (2015) में भी अक्षिता को “परिकल्पना कनिष्ठ सार्क ब्लॉगर सम्मान” से सम्मानित किया गया। अपूर्वा ने भी कोरोना महामारी के दौर में अपनी कविताओं से लोगों को सचेत किया।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव का कहना है कि, सृजन एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिंदी दुनिया की अग्रणी भाषाओं में से एक है। डिजिटल क्रान्ति के इस युग में हिन्दी में विश्व भाषा बनने की क्षमता है। वहीं, सुश्री आकांक्षा यादव का मानना है कि हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम होने के साथ-साथ भारत की भावनात्मक एकता को मजबूत करने का सशक्त माध्यम है। आप विश्व में कहीं भी हिन्दी बोलेगें तो आप एक भारतीय के रूप में ही पहचाने जायेंगे।  









Live Vns : विश्व हिंदी दिवस : तीन पीढ़ियों से हिंदी के विकास में लगा है पोस्टमास्टर जनरल कृष्ण कुमार यादव का परिवार

पत्रिका : विश्व हिंदी दिवस : तीन पीढ़ियों संग हिंदी के विकास में जुटा है पोस्टमास्टर जनरल का परिवार

हिंदुस्तान : आदर्श हिंदी सेवक है पोस्टमास्टर जनरल का परिवार

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

समाज के निर्माण में भाषा और साहित्य की भूमिका


'समाज के निर्माण में भाषा और साहित्य की भूमिका' जगजाहिर है। इस विषय को लेकर तमाम पुस्तकें लिखी/सम्पादित की गई हैं। हाल ही में इस विषय पर एक पुस्तक डॉ. गीता सिंह (रीडर एवं अध्यक्ष, स्नाकोत्तर हिंदी विभाग, दयानंद स्नाकोत्तर महाविद्यालय, आज़मगढ़) के सम्पादन में युगांतर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुई है। साहित्य में चल रहे विमर्श, संक्रमण और सौंदर्यकामी सभी प्रक्रियाओं को समेटती यह पुस्तक हिंदी साहित्य के बहाने तमाम छुए-अनछुए पहलुओं को समेटती है। 225 पृष्ठों की इस पुस्तक में विभिन्न लेखकों के 61 लेख शामिल किये गए हैं। सौभाग्यवश, इसमें "बदलते परिवेश में बाल साहित्य" शीर्षक से कृष्ण कुमार यादव जी का  और "भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता ख़तरा" शीर्षक से हमारा भी लेख शामिल है। साधुवाद और हार्दिक आभार !!

पुस्तक : समाज के निर्माण में भाषा और साहित्य की भूमिका
संपादक :डॉ. गीता सिंह (रीडर एवं अध्यक्ष, स्नाकोत्तर हिंदी विभाग, दयानंद स्नाकोत्तर महाविद्यालय, आज़मगढ़) 
प्रकाशक : युगांतर प्रकाशन, दिल्ली 
पृष्ठ -225,  प्रथम संस्करण - 2015 

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

समकालीन महिला साहित्यकार


महिलाओं की रचनाधर्मिता को लेकर आजकल तमाम पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं।  इन्हीं में से एक है - 'समकालीन महिला साहित्यकार'।  निरुपमा प्रकाशन, (506/13 शास्त्री नगर, मेरठ, उत्तर प्रदेश) द्वारा रश्मि अग्रवाल के संपादन में प्रकाशित इस पुस्तक (ISBN -978-93-81050-46-0) में 12 महिला साहित्यकारों की कविताओं को सपरिचय स्थान दिया गया है।  इन महिला साहित्यकारों में आकांक्षा यादव, सुशीला गोयल, रश्मि अग्रवाल, सुमन अग्रवाल, कामिनी वशिष्ठ, करुणा दिनेश, अंजू जैन प्राची, पूनम अग्रवाल, शुभम त्यागी, शुभा द्धिवेदी, गरिमा शर्मा और शिक्षा यादव के नाम शामिल हैं। मुकेश नादान  ने बड़ी ही खूबसूरती से इस 128 पृष्ठीय पुस्तक को प्रकाशित किया है।

पुस्तक : समकालीन महिला साहित्यकार (ISBN -978-93-81050-46-0)
संपादक :रश्मि अग्रवाल
प्रकाशक : निरुपमा प्रकाशन, 506/13 शास्त्री नगर, मेरठ, उत्तर प्रदेश
पृष्ठ -128   मूल्य -240 रूपये  प्रथम संस्करण - 2015


रविवार, 6 सितंबर 2015

पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार हिंदी में एमफिल की डिग्री

हिंदी के चाहने वाले सिर्फ भारत  ही नहीं बल्कि दुनिया भर में हैं। कभी भारत से अलग होकर पाकिस्तान बना, पर हिंदी की जड़ें वहाँ भी मौजूद हैं।   पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार एक विश्वविद्यालय ने हिंदी में एमफिल की डिग्री प्रदान की है। सेना की ओर से संचालित नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ मॉडर्न लैंग्वेजेज (एनयूएमएल) यह डिग्री प्रदान करने वाला पाकिस्तान का पहला विश्वविद्यालय बन गया है।

देश में हिदी में एमफिल की डिग्री हासिल करने वाली पहली छात्रा होने का ख़िताब एनयूएमएल की छात्रा शाहीन जफर को मिला। डॉन न्यूज की खबर के अनुसार “स्वतंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में नारी चित्रण (1947-2000)” विषयक यह शोध उन्होंने प्रोफेसर इफ्तिखार हुसैन की देखरेख में किया है।

उच्च शिक्षा आयोग ने इसे अपनी मंजूरी दी थी। विश्वविद्यालय के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान में हिदी विशेषज्ञों की कमी होने के कारण भारत के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दो विशेषज्ञों ने जफर के शोध का मूल्यांकन किया।

बुधवार, 2 सितंबर 2015

विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन

विश्व हिंदी सम्मेलन की चर्चा जोरों पर है। मध्य प्रदेश की राजधानी  भोपाल में 10 से 12 सितंबर तक आयोजित होने जा रहे 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारत और 27 अन्य देशों से लगभग 2,000 प्रतिनिधियों के हिस्सा लेने की संभावना है। सम्मेलन का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे, जिसका विषय ‘हिंदी जगत : विस्तार एवं संभावनाएं’ होगा। हिंदी फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन भी 12 सितंबर को सम्मेलन के समापन समारोह में हिस्सा लेंगे। समापन समारोह की अध्यक्षता केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह करेंगे। पूर्व में इस तरह के आयोजन साहित्य या हिंदी साहित्य पर केंद्रित रहे हैं, जबकि इस बार  यह हिंदी भाषा पर केंद्रित होगा।


विश्व हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी का सबसे भव्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन है, जिसमें विश्व भर से हिन्दी भाषा के विद्वान, साहित्यविद्, प्रखर पत्रकार, भाषा शास्त्री, विषय विशेषज्ञ तथा हिन्दी को चाहने वाले जुटते हैं। यह सम्मेलन अब प्रत्येक चौथे वर्ष आयोजित किया जाता है। वैश्विक स्तर पर भारत की इस प्रमुख भाषा के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने, हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को मजबूत करने, लेखक-पाठक का रिश्ता प्रगाढ़ करने व जीवन के विवि‍ध क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 1975 से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला आरंभ हुई।

इस सम्मेलन में  1,270 प्रतिनिधियों ने भागीदारी के लिए पंजीकरण करा लिया है। सम्मेलन भोपाल के लाल परेड मैदान में आयोजित होगा। सम्मेलन में 464 विद्यार्थी, 450 आमंत्रित अतिथि, और 250 विशेष आमंत्रित अतिथि होंगे, जिनमें सरकारी प्रतिनिधि भी शामिल होंगे।

विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान  भारत के 20 हिंदी विद्वानों, और दूसरे देशों के कई हिंदी विद्वानों को सम्मानित किया जाएगा। इनमें भारतीय मूल के हिंदी विद्वान भी शामिल होंगे। एक विशेष समिति ने नामों को मंजूरी दी है। गौरतलब है कि जोहांसबर्ग में हुए पिछले सम्मेलन में लगभग 500-600 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था, लेकिन इस बार 2,000 से अधिक प्रतिनिधि भाग लेंगे।


सम्मेलन के आयोजकों की मानें तो उद्घाटन और समापन समारोह में 5,000 लोगों की उपस्थिति का अनुमान है। सम्मेलन में 12 विषय, 28 सत्र होंगे। चार प्रमुख विषयों में शामिल होंगे -‘विदेश नीति में हिंदी’, जिसकी अध्यक्षता विदेश मंत्री सुषमा स्वराज करेंगी, ‘प्रशासन में हिंदी का उपयोग’ विषय की अध्यक्षता मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान करेंगे, ‘विज्ञान में हिंदी का उपयोग’ विषय की अध्यक्षता केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन करेंगे और ‘सूचना एवं प्रौद्योगिकी में हिंदी का उपयोग’ विषय की अध्यक्षता केंद्रीय संचार व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद करेंगे। अन्य विषयों में एक गिरमिटिया पर, और दूसरा बाल साहित्य पर होगा। तीन दिवसीय इस आयोजन में मध्य प्रदेश सरकार भी भागीदार है और इस दौरान साहित्य चर्चा के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे।

ज्ञातव्य है कि पिछला विश्व हिंदी सम्मेलन सितंबर 22 से 24 सितंबर 2012 तक दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में हुआ था। पहला विश्व हिंदी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से 1975 में नागपुर में हुआ था। तब से लेकर अब तक आठ विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं- मॉरीशस, नई दिल्ली, मॉरीशस, त्रिनिडाड व टोबेगो, लंदन, सूरीनाम और न्यूयार्क में। यह आयोजन दो बार पोर्ट लुईस (मॉरीशस) में, दो बार भारत में हो चुका है, जिसमें से तीसरा सम्मेलन अक्टूबर 1983 में नई दिल्ली में हुआ था। इसके अलावा पोर्ट ऑफ स्पेन (त्रिनिदाद एवं टोबैगो), लंदन (ब्रिटेन), पारामारिबो (सूरीनाम) और न्यूयार्क (अमेरिका) में विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित हो चुका है।



10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने हेतु सभी प्रतिभागियों के लिए पंजीकरण अनिवार्य है और यह केवल ऑनलाइन प्रक्रिया के माध्यम से ही है। ऑनलाइन पंजीकरण की अंतिम तिथि शुक्रवार, 21 अगस्त, 2015 है (सामान्य प्रतिभागियों के लिए)। प्रतिभागियों को अपना ब्यौरा ऑनलाइन भरना है और www.vishwahindisammelan.gov.in पर लॉग इन करके अपने फोटोग्राफ तथा हस्ताक्षर भी अपलोड करने हैं। पंजीकरण शुल्क का भुगतान या तो ऑनलाइन एस बी आई गेटवे भुगतान सुविधा के माध्यम से क्रेडिट/डेबिट कार्ड द्वारा अथवा इंटरनेट बैंकिंग के माध्यम से किया जा सकता है। विभिन्न श्रेणियों के प्रतिभागियों के लिए पंजीकरण शुल्क निम्नानुसार है जो वापस नहीं किया जायेगा। 

क. सामान्य प्रतिभागी 

i. भारतीयों के लिए 5,000 रुपये
ii. विदेशियों के लिए 100 अमरीकी डॉलर

ख. विश्वविद्यालय के छात्र 
i. भारतीयों के लिए 1,000 रुपये
ii. विदेशियों के लिए 25 अमरीकी डॉलर

ग. आमंत्रित अतिथि/वक्ता/सरकारी प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के लिए पंजीकरण निःशुल्क है; हालांकि आमंत्रित अतिथि/वक्ता/सरकारी प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के लिए भी ऑनलाइन पंजीकरण कराना अनिवार्य है।


रविवार, 14 सितंबर 2014

भारतीय भाषाओं से ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है 'हिन्दी'

अंग्रेज जाते-जाते 'बाँटो और राज करो' की नीति  भारतीय भाषाओं पर भी लागू कर गए।  तभी तो आजादी के छः दशकों के बाद भी हिंदी को अपना गौरव नहीं मिला। आज भी हिंदी का सबसे अधिक विरोध अपने देश भारत में ही होता है। आजादी के दौरान हिंदी का सबसे अधिक समर्थन गैर-हिंदी भाषियों मसलन-महात्मा गाँधी, डा. अम्बेडकर, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी और काका कालेलकर जैसे लोगों ने किया, पर दुर्भाग्य देखिये कि आजादी के बाद अ-हिन्दी राज्य अभी भी अपनी भाषाई लड़ाई हिंदी से  ही मानते हैं और इन सबके बीच अंग्रेजी आराम से राज कर रही है। अंग्रेजी की 'बाँटो और राज करो' नीति  ने कभी भी भारतीय भाषाओं  को यह सोचने का मौका नहीं दिया कि, वे एक हैं और उन्हें मिलकर अंग्रेजी को बाहर करना है।  संविधान में भी किन्तु-परन्तु के साथ अंग्रेजी को ही बढ़ावा दिया गया है।  हम एक सम्प्रभु राष्ट्र होने का दावा करते हैं पर हमारा संविधान कहीं भी 'राष्ट्रभाषा' का जिक्र नहीं करता। यहाँ तक कि अब सी-सैट के बहाने देश के भावी प्रशासकों को भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं से दूर किया जा रहा है। साठ करोड़ लोगों की भाषा हिंदी अपने ही अस्तित्व के लिए अपनी सहोदर भारतीय भाषाओं से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है और सात समुद्र पार की भाषा अंग्रेजी 'बाँटो और राज करो' की नीति की अपनी सफलता को देखते हुए मन ही मन मुस्कुरा रही है !! 




(विदेशों में भी पताका फहरा रही है हिंदी - कृष्ण कुमार यादव का डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 14 सितम्बर 2014(हिंदी दिवस)  के अंक में प्रकाशित लेख)

(विदेशों में भी हिंदी की पताका  - कृष्ण कुमार यादव का जनसंदेश टाइम्स, 14 सितम्बर 2014 (हिंदी दिवस) के अंक में प्रकाशित लेख)



मंगलवार, 14 सितंबर 2010

भारत वर्ष की शान है हिन्दी


हम लोगों की जान है हिन्दी,
भारत वर्ष की शान है हिन्दी।
प्रगति-पथ पर बढ़ती जाती,
कितनी बेमिसाल है हिन्दी।

सुन्दर शब्दों की खान है हिन्दी,
अस्मिता की पहचान है हिन्दी।
अंग्रेजी की अंधभक्ति छोड़ें,
जन्मभूमि का सम्मान है हिन्दी।

सब भाषाओं की जान है हिन्दी,
जन-जन की जुबान है हिन्दी।
देशभक्ति का करे संचार,
भूत, भविष्य, वर्तमान है हिन्दी।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

हिन्दी की तलाश जारी है...

आजकल तो हिंदी की ही चर्चा है, आखिर पखवाड़ों का दौर जो है. एक तरफ हिंदी को बढ़ावा देने की लम्बी-लम्बी बातें, उस पर से भारत सरकार के बजट में हिंदी के मद में जबरदस्त कटौती. केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में हिन्दी के लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपये दिये गये थे।

लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई. अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है. हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है. इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाज़ी चलती है. और यदि यह बाज़ी हाथ न लगे तो श्लीलता-अश्लीलता का दौर आरंभ हो जाता है. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब का बाज़ार ऐसे लोगों ने ही बढाया. आजकल तो जमाना बस चर्चा में रहने का है, बदनाम हुए तो क्या हुआ-नाम तो हुआ. अभी हिंदी अकादमी, दिल्ली की चर्चा ख़त्म ही नहीं हुई थी कि भारतीय ज्ञानपीठ ने बेवफाई के नाम पर अपना रंग फिर से दिखा दिया.

साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है. साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय. कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है. हर कोई अपने को प्रेमचंद, निराला की विरासत का संवाहक मन बैठा है, पर फुसफुसे बम से ज्यादा दम किसी में नहीं. तथाकथित बड़े साहित्यकार एक-दूसरे की आलोचना करके एक-दूसरे को चर्चा में लाते रहते हैं. दिखावा तो ऐसा होता है मानो वैचारिक बहस चल रही हो, पर उछाड़ -पछाड़ से ज्यादा यह कुछ नहीं होना. दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं.

हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं. अभी नया ज्ञानोदय और विभूति नारायण राय वाले मामले में यह बखूबी देखने को मिला. कुछ दिनों पहले ही एक मित्र ने बताया कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित करवाने के लिए किस तरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार साहित्यकार से पैरवी कराई. पिछले दिनों कहीं पढ़ा था कि हिंदी के एक ठेकेदार दावा करते हैं कि वह कोई भी सम्मान आपकी झोली में डाल सकते हैं, बशर्ते पूरी पुरस्कार राशि आप उन्हें ससम्मान सौंप दे. बढ़िया है, किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!
Akanksha Yadav आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर : http://shabdshikhar.blogspot.com/

बुधवार, 8 सितंबर 2010

हिंदी के नाम पर तमाशा...


हिंदी पखवाड़े की धूम आरंभ हो चुकी है. 1 सितम्बर से सभी सरकारी दफ्तरों में हिन्दी पखवाड़ा मनाया जा रहा है, तो कुछ में यह 14 सितम्बर से आरंभ होगा. यानी पूरा महीना ही हिंदी के नाम पर चाँदी. कुछ लोग तो तैयार बैठे रहते हैं कि कब किसी सरकारी प्रतिष्ठान से बुलावा आए और वहाँ अपना हिंदी-ज्ञान बघारने के लिए पहुँच जाएँ. बड़े-बड़े बैनर, शानदार बुके, शाल और उपहार, मौका मिला तो रचनाओं के पाठ और कवि सम्मेलनों के लिए अलग से चेक का इंतजाम. फिर बढ़िया नाश्ता तो मिलना तय है. कई बार तो देखकर हंसी आती है कि यह हिंदी को बढ़ावा देने के लिए हो रहा है या सरकारी अधिकारी/ बाबुओं और हिंदी के नाम पर व्यवसाय करने वालों को बढ़ावा दिया जा रहा है. यही हाल हिंदी किताबों की खरीद का भी है. सरकारी खरीद के चक्कर में प्रकाशक भी हिंदी किताबों के दाम औने-पौने बढ़ाये जा रहे हैं, आखिर कमीशन भी तो देना है. फिर हम हिंदी में पाठकों का रोना रोयेंगें या फिर हिंदी साहित्य की स्तरीयता पर प्रश्नचिंह लगायेंगें. दुर्भाग्यवश हिंदी के नाम पर तमाम उत्सव, पखवाड़े, दिवस और समितियाँ कार्य कर रही हैं, पर हिंदी का वास्तविक भला कोई नहीं कर रहा है. सभी लोग सिर्फ अपना भला कर रहे हैं. कृष्ण कुमार जी की पंक्तियाँ गौरतलब हैं-

सरकारी बाबू ने कुल खर्च की फाइल
धीरे-धीरे अधिकारी तक बढ़ायी
अधिकारी महोदय ने ज्यों ही
अंग्रेजी में अनुमोदन लिखा
बाबू ने धीमे से टोका
अधिकारी महोदय ने नजरें उठायीं
और झल्लाकर बोले
तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा
कि हिन्दी पखवाड़ा बीत चुका है .


..या फिर चन्द्रभाल सुकुमार जी के इस दोहे पर गौर करें-

अंग्रेज़ी हँसने लगी, सुन हिन्दी का हाल,
कैसे बहन समेट लूँ, इतनी जल्दी जाल .

Akanksha Yadav आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर : http://shabdshikhar.blogspot.com/