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मंगलवार, 15 जुलाई 2025

'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' से परे सभी भारतीय भाषाओं की गरिमा स्थापित करने की जरूरत

स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ी विडंबना यह रही है कि जिस देश की आत्मा उसकी भाषाओं में बसती है, वहां भाषाओं को मात्र उत्सवों, प्रतियोगिताओं और स्मरण-दिवसों तक सीमित कर दिया गया है। जब हम कहते हैं कि “हिंदी के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले वरिष्ठ साथियों ने पहले ही एकजुटता दिखाई होती”, तो यह केवल किसी वर्ग पर आरोप नहीं, बल्कि भाषा आंदोलन की उस ऐतिहासिक विफलता की ओर संकेत है जिसने भारतीय भाषाओं को सत्ता की दहलीज तक पहुँचने से रोक दिया। यह बात असहनीय है कि स्वतंत्रता के 77-78 वर्ष बाद भी न्यायालयों में, विश्वविद्यालयों में, संसद और विधानसभा की कार्यवाही में, जनभाषाओं को सिर्फ ‘अनुवाद योग्य वस्तु’ मानकर दरकिनार किया जाता है। क्या यह केवल इसलिए है कि हमारे वरिष्ठ हिंदीसेवी वर्ग ने समय रहते ‘कार्यवाही’ की जगह ‘कविता-पाठ’ को चुन लिया? जनभाषाओं की वास्तविक मुक्ति का मार्ग केवल कार्यक्रमों, भाषणों और प्रदर्शनियों से नहीं, बल्कि जनचेतना के सघन संघर्षों से होकर ही निकलेगा।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमारे समाज के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग की भूमिका अक्सर दोहरी रही है। एक ओर ये लोग मंचों से भाषायी गौरव की बात करते हैं, तो दूसरी ओर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाकर ‘भविष्य सुरक्षित’ करते हैं। ये वही लोग हैं जो राजभाषा सम्मेलनों में तालियाँ बजाते हैं, हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं और सांस्कृतिक विभागों से बजट लेकर कवि-सम्मेलन और यात्राएँ करते हैं; परंतु जब बात न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता की आती है, तो मौन धारण कर लेते हैं। यह मौन केवल नैतिक अपराध नहीं है, यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक प्रकार का धोखा है। इस मौन की गूंज आज उस मुकदमेबाज़ किसान की निराश आँखों में सुनाई देती है, जो न्यायालय में अपने पक्ष की बात तक समझ नहीं पाता। यह स्थिति बदल सकती थी, यदि हमारे हिंदीप्रेमी बौद्धिक वर्ग ने समय रहते जनभाषा को केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार का विषय बनाया होता।


हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि भाषा केवल साहित्य या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती — वह सत्ता का उपकरण भी होती है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा और रोज़गार जैसी संस्थाओं में भाषा के माध्यम से ही सहभागिता और वंचना तय होती है। जिस समाज में न्याय अंग्रेज़ी में होता हो, शिक्षा भी अंग्रेज़ी की अनिवार्यता पर आधारित हो और सरकारी तंत्र अंग्रेज़ी माध्यम के ‘स्पेशलिस्ट्स’ को प्राथमिकता दे, वहाँ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मान मिलना केवल एक छलावा बनकर रह जाता है। और यह छलावा तब और गहरा हो जाता है जब हमारे ही कुछ वरिष्ठ लेखक, भाषाविद् और तथाकथित हिंदी समर्थक लोग इन प्रश्नों पर चुप्पी साध लेते हैं या उन्हें हाशिये पर डाल देते हैं। उनकी चुप्पी को ‘निष्क्रिय समर्थन’ कहा जा सकता है — उस व्यवस्था के लिए जो अंग्रेज़ी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भारतीय भाषाओं को सजावट की वस्तु की तरह बरतती है।

अब यह आवश्यक हो गया है कि हम केवल ‘हिंदी दिवस’ या ‘भाषा उत्सव’ मनाने की औपचारिकता से बाहर निकलें और जनभाषाओं के अधिकार के लिए एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करें। यह आंदोलन केवल हिंदी के लिए नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए होना चाहिए — मराठी, बंगला, कन्नड़, तमिल, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, संथाली, उड़िया, पंजाबी — क्योंकि ये सभी भाषाएँ इस देश की आत्मा हैं। आज जब न्यायालयों में मुकदमे सालों-साल खिंचते हैं और पीड़ित व्यक्ति को उसकी ही भाषा में निर्णय की प्रति नहीं मिलती, तो यह केवल भाषायी भेदभाव नहीं, बल्कि संवैधानिक विषमता है। जब तक हम संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 और 350A–350B के भाषायी प्रावधानों को व्यावहारिक रूप से लागू कराने की माँग नहीं करेंगे, तब तक किसी भी ‘राजभाषा पुरस्कार’ या ‘साहित्यिक सेमिनार’ का कोई मूल्य नहीं है।

जनभाषा आंदोलन का भविष्य उन युवाओं के हाथ में है जो भाषायी अन्याय को सिर्फ भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और संवैधानिक अधिकार का विषय मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम ‘हिंदी बनाम अंग्रेज़ी’ जैसी सतही बहसों से ऊपर उठें और इस प्रश्न पर बहस करें कि न्यायिक प्रक्रिया, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन और अन्य सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को कैसे पूर्ण सम्मान और व्यवहार में स्थान दिलाया जाए। इसके लिए नीतिगत दबाव, याचिकाएँ, भाषायी सर्वेक्षण, जनसभाएँ और सामाजिक अभियानों की ज़रूरत है — वही रूप जो ‘भूख के अधिकार’ या ‘सूचना के अधिकार’ के आंदोलनों ने अपनाया। यदि भाषा का प्रश्न भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ा है, तो उसका संघर्ष भी उतना ही व्यापक और जनाधारित होना चाहिए।

जनभाषाओं की उपेक्षा : संविधानिक संकल्प से सामाजिक विसंगति तक : स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय संविधान ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत बहुभाषिक देश है और सभी भाषाओं का समान आदर होगा। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई, पर साथ ही अनुच्छेद 348 में न्यायालयों और विधायिकाओं में अंग्रेज़ी के प्रयोग को तब तक जारी रखने की छूट भी दे दी गई जब तक संसद अन्यथा निर्णय न ले। यहीं से जनभाषाओं के अधिकारों के साथ वह ऐतिहासिक छल आरंभ हुआ, जो आज तक जारी है। उस समय यदि हमारे भाषा प्रेमी बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार और शिक्षाविद् मिलकर एक स्पष्ट, संगठित आवाज़ उठाते, तो शायद 1965 के बाद अंग्रेज़ी का यह स्थायी वर्चस्व न बनता। किंतु उस समय के अधिकांश प्रबुद्ध वर्गों ने व्यवस्था के साथ एक प्रकार का ‘समझौता’ कर लिया। उन्होंने भाषायी अधिकार को आत्मगौरव का विषय मानने के बजाय सांस्कृतिक उत्सव का रूप दे दिया — ‘हिंदी पखवाड़ा’, ‘भाषा सप्ताह’, ‘साहित्यिक आयोजन’ और ‘राजभाषा कार्यशालाएँ’। इन सब गतिविधियों में ‘दृश्य’ तो बना, पर ‘दिशा’ नहीं बनी।

न्यायालय में आज भी भारत की 95% जनता को न्याय उनकी अपनी भाषा में नहीं मिलता। यह स्थिति केवल बिहार, यूपी, या ओडिशा तक सीमित नहीं है — यह पूरे देश की विडंबना है। सुप्रीम कोर्ट और अधिकांश उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियाँ केवल अंग्रेज़ी में होती हैं और निचली अदालतों में भी यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा में बहस करता है, तो या तो उसकी बात को हल्के में लिया जाता है या उसे अनुवादक की मदद लेनी पड़ती है। सवाल यह है कि जब संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, तो भाषा के आधार पर यह असमानता क्यों? और यह भी उतना ही गंभीर प्रश्न है कि इन वर्षों में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए संघर्षरत माने जाने वाले संगठनों ने इस विषय पर संगठित राष्ट्रव्यापी आंदोलन क्यों नहीं चलाया? इसका उत्तर कहीं न कहीं इस तथ्य में छिपा है कि इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले अनेक व्यक्ति स्वयं भाषायी सुविधाओं के उपभोक्ता बनकर व्यवस्था में समाहित हो चुके थे।

इस द्वैध भूमिका ने भारतीय भाषाओं के आंदोलन को गंभीरता की जगह ‘प्रतीकात्मकता’ की ओर मोड़ दिया। हिंदी का नाम लेकर सरकारी विभागों में राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति, अनुवाद विभागों का विस्तार और सरकारी बजट से अनेक योजनाएँ तो चलाई गईं, परंतु इनका संबंध ज़मीनी जनभाषा चेतना से नहीं रहा। इससे भाषा आंदोलन एक प्रकार का 'नौकरशाही महोत्सव' बन गया — जिसमें कविताएं तो थीं, पर क्रांति नहीं; घोषणाएं तो थीं, पर संघर्ष नहीं; योजनाएं तो थीं, पर परिणाम नहीं। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि आम जनता के भीतर यह विश्वास ही नहीं बन पाया कि हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा में उसे न्याय, शिक्षा या प्रशासन जैसी सेवाएँ मिल सकती हैं।

अब जब भारतीय लोकतंत्र अपनी 78वीं वर्षगाँठ की ओर बढ़ रहा है, तो यह आत्मावलोकन का समय है — हमें स्वयं से पूछना होगा कि क्या हमने अपनी भाषाओं के साथ न्याय किया है? क्या हम उस किसान, उस महिला, उस वृद्ध व्यक्ति की पीड़ा को समझ पा रहे हैं जो अदालत के दरवाज़े पर खड़ा होकर उस भाषा में सुनवाई की अपेक्षा करता है, जो उसकी माँ की बोली है? क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि अमेरिका, फ्रांस, चीन या जापान में न्यायालय किसी विदेशी भाषा में काम करते हों और आम नागरिक कुछ समझ ही न पाए? यदि नहीं, तो भारत जैसे भाषिक लोकतंत्र में यह क्यों संभव है? जवाब स्पष्ट है — हमने भाषाओं को ‘संस्कृति’ का विषय तो बना लिया, पर ‘सत्ता’ का माध्यम नहीं बना पाए।

इस स्थिति को बदलना है तो अब केवल हिंदी के नाम पर कवि-सम्मेलनों से आगे बढ़ना होगा। अब आवश्यकता है एक संगठित, प्रभावशाली और राष्ट्रीय स्तर के भाषाई जन आंदोलन की — जो केवल नारे नहीं, नीतियाँ माँगे; केवल मंच नहीं, कानूनों में संशोधन माँगे। इस आंदोलन की मांग होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में हिंदी समेत सभी 8वीं अनुसूची की भाषाओं में कार्यवाही की अनुमति हो; कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ और प्रशासनिक परीक्षाओं की पढ़ाई और परीक्षा भारतीय भाषाओं में सुनिश्चित हो; और कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन और प्रशिक्षण पूरी तरह से मातृभाषा में कराया जाए।

जनभाषाओं में न्याय और शिक्षा - केवल भाषायी अधिकार नहीं, लोकतांत्रिक मर्यादा का प्रश्न : आज जब हम भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, तो यह भूलना नहीं चाहिए कि इन 77–78 वर्षों में एक बहुत बड़ा वर्ग भाषा के आधार पर लोकतंत्र के लाभों से वंचित रहा है। भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ के जिन उच्च आदर्शों की स्थापना की गई थी, वे तभी पूर्ण हो सकते हैं जब हर व्यक्ति को उसकी अपनी भाषा में राज्य की सभी सुविधाएँ — विशेषकर न्याय और शिक्षा — सहजता से उपलब्ध हों। किंतु जब तक व्यक्ति को अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तब तक वह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को व्यावहारिक रूप से प्राप्त नहीं कर सकता। न्याय केवल विधिक प्रक्रिया नहीं है, यह मनुष्य की गरिमा से जुड़ा हुआ एक अत्यंत संवेदनशील पक्ष है। और गरिमा तभी संभव है जब व्यक्ति अपनी बात को उस भाषा में कह सके जिसमें वह सोचता, समझता और दुख-सुख साझा करता है।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को न्यायिक व्यवस्था से काटकर हमने अंग्रेज़ी को एकाधिकार की तरह स्थापित कर दिया है। इसे और अधिक गंभीर इसीलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह व्यवस्था केवल औपनिवेशिक विरासत नहीं है — यह आज के स्वतंत्र भारत के भीतर पनपी असमानता की एक संरचना बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी देश के अधिकांश विधि विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और न्यायालयों में अधिकांश आदेश और निर्णय केवल अंग्रेज़ी में जारी होते हैं। परिणामस्वरूप, न्याय केवल उन लोगों की पहुँच में रह गया है जो अंग्रेज़ी में संवाद कर सकते हैं — बाकी जनता ‘सुनवाई’ तो कर लेती है, पर समझ नहीं पाती कि न्याय मिला है या नहीं। यह केवल भाषायी विफलता नहीं, यह संवैधानिक असमानता का सीधा उदाहरण है।

शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं को जिस प्रकार हाशिये पर डाल दिया गया है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि आत्मघाती भी है। भारतीय भाषाओं को केवल कक्षा 5 तक पढ़ाई के माध्यम तक सीमित रखने की नीतियाँ और आगे जाकर अंग्रेज़ी को अनिवार्य बनाना, एक प्रकार से बहुसंख्यक छात्र वर्ग को शिक्षा के मुख्यधारा से बाहर करने जैसा है। यह एक खुला तथ्य है कि भारत के गाँवों, कस्बों और मध्यमवर्गीय परिवारों में आज भी अधिकांश छात्र मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषाओं में ही सोचते-समझते हैं। ऐसे में अंग्रेज़ी माध्यम की बाध्यता उन्हें केवल भाषायी स्तर पर नहीं, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी हीनता का अनुभव कराती है। इससे उनकी आत्मविश्वास क्षमता, संप्रेषण कौशल और नवाचार की संभावना भी प्रभावित होती है।

इस स्थिति को जानबूझकर बनाये रखने की भूमिका में वे संस्थान और व्यक्तित्व भी रहे हैं जो 'हिंदी के हितैषी' कहलाते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेज़ी वर्चस्व को तोड़ने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते। यह वह वर्ग है जो मंच पर हिंदी के लिए भावुक हो उठता है, लेकिन प्रशासन, विधि, तकनीकी और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में मातृभाषा की मांग करने से कतराता है। वे भूल जाते हैं कि भाषा केवल साहित्य की वस्तु नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत है। भाषा यदि सत्ता और प्रशासन का माध्यम नहीं बनती, तो वह केवल भावनाओं का खेल बनकर रह जाती है। यही कारण है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ अपने देश में बहुसंख्यक होने के बावजूद शक्तिहीन बनी हुई हैं और एक विदेशी भाषा — अंग्रेज़ी — अब भी निर्णयकारी भूमिका में है।

अब जब देश में ‘डिजिटल इंडिया’, ‘विकसित भारत 2047’ और ‘ग्लोबल साउथ की अगुवाई’ जैसे लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे हैं, तो क्या यह उचित नहीं होगा कि इन सबके मूल में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा और प्राथमिकता दी जाए? क्या यह समय नहीं आ गया है कि हिंदी और अन्य जनभाषाओं को केवल भावनात्मक मुद्दा मानना बंद करके उन्हें संवैधानिक, सामाजिक और व्यावसायिक अधिकार का मुद्दा बनाया जाए? क्या अब भी हम केवल ‘हिंदी सप्ताह’, ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार’ और ‘साहित्यिक आयोजन’ तक सीमित रहेंगे या इन भाषाओं को वास्तविक ‘सत्ता की भाषा’ बनाएंगे?

यदि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है, तो हमें यह भी समझना होगा कि यह परिवर्तन ऊपर से नहीं आएगा। यह केवल जन-आंदोलन से ही संभव है — वह आंदोलन जो अदालतों से लेकर शिक्षा संस्थानों तक, संसद से लेकर नगर पंचायत तक, हर जगह ‘जनभाषाओं में संप्रेषण और निर्णय की अनिवार्यता’ की माँग उठाए। जब तक आम जनता, शिक्षक, छात्र, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार — सभी मिलकर भाषायी अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष नहीं करेंगे, तब तक केवल नारेबाज़ी और सांस्कृतिक आयोजन चलते रहेंगे — और भारत की भाषाएँ सत्ता से और भी दूर होती जाएँगी।

भाषा की लड़ाई बनाम सत्ता की चुप्पी - नई सदी में जनभाषा आंदोलन की अपरिहार्यता : वर्तमान समय में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम भाषा के प्रश्न को केवल सांस्कृतिक विमर्श तक सीमित न रखें, बल्कि उसे सीधे-सीधे सत्ता के समीकरणों से जोड़कर देखें। यह कोई संयोग नहीं है कि देश की लगभग 90% जनता हिंदी या किसी न किसी भारतीय भाषा में संवाद करती है, परंतु निर्णय लेने की संस्थाएँ — जैसे न्यायालय, संसद, उच्च शिक्षा परिषद, नियोजन आयोग, नीति आयोग — अब भी अपनी अधिकांश कार्यवाहियाँ अंग्रेज़ी में संचालित करती हैं। इस प्रकार यह व्यवस्था स्पष्ट रूप से एक भाषाई अभिजात वर्ग (linguistic elite) का निर्माण करती है, जिसमें अंग्रेज़ी जानने वाले अल्पसंख्यक को विशिष्ट सुविधा और प्रभाव प्राप्त होता है, जबकि शेष बहुसंख्यक जनसंख्या को ‘दूसरे दर्जे’ का नागरिक बनाकर रख दिया जाता है। यह विभाजन जितना भाषाई है, उतना ही वर्गीय और सामाजिक भी है और यही कारण है कि इसे केवल भाषाई नहीं, सामाजिक न्याय के आंदोलन की तरह देखे जाने की आवश्यकता है।

किसी भी लोकतंत्र की पहली शर्त यह होती है कि उसमें आम जनता को नीति निर्माण की प्रक्रियाओं में सहभागिता का अवसर मिले। किंतु जब राज्य की भाषाएं ही जनता की समझ से परे हो जाएँ, तो लोकतंत्र केवल कागज़ी बनकर रह जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे वरिष्ठ साहित्यकार, भाषा नीति निर्माता और ‘हिंदी के पुरोधा’ कहलाने वाले अनेक विशिष्टजन इस कटु सच्चाई से अनजान नहीं हैं। वे जानते हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक गहरे संकट से जूझ रही हैं — विशेषकर व्यवहारिक उपयोग और सम्मान की दृष्टि से — फिर भी उन्होंने या तो ‘सरकारी योजनाओं के तहत सीमित आलोचना’ को चुना है या फिर ‘अनुदान आधारित चुप्पी’ को। यह न केवल खेदजनक है, बल्कि भाषाई आंदोलन के लिए घातक भी है, क्योंकि यह वर्ग आम जनता के भीतर यह संदेश प्रसारित करता है कि भाषा केवल 'साहित्यिक सजावट' है, कोई बुनियादी अधिकार नहीं।

यह भी समझना आवश्यक है कि भाषायी अधिकारों की लड़ाई केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। भारत की तमाम भाषाएं — चाहे वे मराठी, बंगला, गुजराती हों या तमिल, तेलुगु, उड़िया, पंजाबी या असमिया — सबके सब एक जैसी पीड़ा से गुजर रही हैं। उन्हें भी उच्च न्यायालयों में न्याय नहीं मिलता; उन्हें भी मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में दरकिनार किया गया है; उन्हें भी विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में हाशिए पर रखा गया है। और यह सब तब हो रहा है जब भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ इतनी भाषाई विविधता के बावजूद संविधान में भाषाओं के संरक्षण की प्रतिज्ञा की गई है। सवाल यह है कि यदि संविधान भी भारतीय भाषाओं की रक्षा नहीं कर पा रहा और न ही 'हिंदी प्रेमी' कहलाने वाले विद्वानों की चेतना जाग पा रही, तो फिर उम्मीद किससे की जाए?

उत्तर एक ही है — जन से। अब यह लड़ाई केवल लेखकों, शिक्षकों या कानूनविदों की नहीं रह गई है; यह अब हर उस व्यक्ति की लड़ाई है जो अपने बच्चों को, अपने गांव को, अपने समाज को सशक्त बनते देखना चाहता है। यह लड़ाई हर उस छात्र की है जो अंग्रेज़ी न जानने के कारण मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पिछड़ जाता है; यह लड़ाई उस गरीब महिला की है जो न्यायालय में कुछ समझ नहीं पाती और सालों तक चक्कर काटती है; यह लड़ाई उस किसान की है जो सरकारी योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं उठा पाता क्योंकि आवेदन फार्म अंग्रेज़ी में होते हैं। और सबसे बड़ी बात — यह लड़ाई उस भारत की आत्मा की है, जो भाषाओं के माध्यम से सांस लेती है, विचार करती है और चेतना के विविध रंगों को जीती है।

अब यदि इस भाषाई अन्याय के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठती, तो यह चुप्पी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक भारी कीमत बनकर सामने आएगी। भाषा कोई ‘व्यक्तिगत रूचि’ नहीं होती — वह एक समाज का अस्तित्व, उसकी पहचान और उसकी शक्ति का मूल होती है। इसलिए जनभाषाओं को न्याय, शिक्षा और प्रशासन में स्थान दिलाने की माँग करना कोई कृपा नहीं, बल्कि भारत के प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक और नैतिक अधिकार है। और इस अधिकार की प्राप्ति अब केवल सरकारी नीतियों से नहीं, बल्कि सशक्त जनांदोलन से ही संभव है — एक ऐसा आंदोलन जो केवल हिंदी नहीं, बल्कि भारत की तमाम जनभाषाओं को साथ लेकर चले और जो कहे : "हमें अपनी भाषा में जीने, समझने, पढ़ने, लिखने और न्याय पाने का पूरा अधिकार है — और हम इसके लिए लड़ेंगे भी और जीतेंगे भी।"

जब भाषा अपमानित होती है, तो राष्ट्र का आत्मबल भी क्षीण होता है : अब वह समय नहीं रहा जब भाषाई मुद्दों को केवल 'संवेदनशील सांस्कृतिक प्रश्न' कहकर टाल दिया जाए। यह विषय अब सीधे-सीधे सत्ता, नीति, संविधान और सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है। भाषा की उपेक्षा केवल बोलियों या भाषियों की उपेक्षा नहीं होती — यह संपूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व, सामाजिक गतिशीलता और मानसिक स्वतंत्रता की हत्या होती है। जब एक राष्ट्र की बहुसंख्यक आबादी को उनकी अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तो उस राष्ट्र की लोकतांत्रिक संकल्पनाएँ खोखली सिद्ध होती हैं। और जब एक स्वतंत्र देश की न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र में विदेशी भाषा को 'योग्यता' और 'सक्षमता' का पर्याय बना दिया जाता है, तो वह व्यवस्था गहरे मानसिक उपनिवेशवाद की गिरफ़्त में जी रही होती है।

भारत जैसे देश में जहाँ प्रत्येक गली-मोहल्ले में एक नई बोली जन्म लेती है, वहाँ भाषाओं की गरिमा केवल साहित्यिक गौरव से नहीं, बल्कि व्यवहारिक और संस्थागत मान्यता से निर्धारित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के 78 वर्षों बाद भी हम केवल "हिंदी दिवस", "राजभाषा पुरस्कार", "साहित्यिक सेमिनार" जैसे आयोजनों तक सिमटे हुए हैं — जबकि आवश्यकता है कि हम माँग करें : सुप्रीम कोर्ट में हमारी भाषा में न्याय मिले; मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हमारी भाषा में हो; सरकारी कार्यालयों में हमारी भाषा में संप्रेषण अनिवार्य हो; प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारी भाषाओं को प्राथमिकता दी जाए; और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शोध और नवाचार की भाषा बनाया जाए।

यह भी अनिवार्य है कि इस भाषाई आंदोलन को केवल 'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' के संकुचित परिप्रेक्ष्य से बाहर लाया जाए। भारत की तमाम भाषाएँ — चाहे वे तमिल हों, मराठी हों, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, उड़िया, बांग्ला या कन्नड़ — सबकी स्थिति लगभग एक जैसी है। सबकी मातृभूमि पर अंग्रेज़ी का प्रशासनिक उपनिवेश आज भी छाया हुआ है। इसलिए यदि इस संघर्ष को वास्तव में सफल बनाना है, तो इसे ‘जनभाषाओं के लिए न्याय’ के नाम से एक साझा आंदोलन में परिवर्तित करना होगा — एक ऐसा आंदोलन जो न केवल सड़कों पर उतरे, बल्कि नीति-निर्माण में प्रभावशाली हस्तक्षेप करे; जो न केवल अदालतों में याचिकाएँ दायर करे, बल्कि जनसमूह को शिक्षित, संगठित और सशक्त करे; जो केवल लेखकों, पत्रकारों, या शिक्षकों तक सीमित न रहे, बल्कि ग्रामीण किसान, मजदूर, महिला समूह, छात्र संगठन, पंचायत प्रतिनिधि — हर वर्ग को जोड़कर एक भाषायी जनक्रांति का स्वरूप ले।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन को सबसे पहले उस मानसिकता से लड़ना होगा, जो यह मानती है कि अंग्रेज़ी के बिना ‘प्रगति’ संभव नहीं। हमें यह प्रमाणित करना होगा कि ज्ञान, विज्ञान, न्याय और प्रशासन — सब कुछ मातृभाषा में संभव है और यह न केवल संभव है, बल्कि समाज को न्यायसंगत और समावेशी बनाने का एकमात्र मार्ग भी यही है। इसके लिए 'हिंदी के नाम पर केवल कविता लिखने वाले' वरिष्ठों को अब मंच की चकाचौंध से बाहर आकर जन संघर्ष की धरती पर उतरना होगा। उन्हें अब यह समझना होगा कि कविताबाजी, कार्यक्रमबाजी और 'भाषा पर्यटन' से भाषा का सम्मान नहीं लौटाया जा सकता — इसके लिए एकजुटता, नीति-निर्माण में दबाव और राजनीतिक दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूरी है।

अंततः, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय भाषाओं में न्याय और शिक्षा की बहाली, केवल भाषाई सम्मान का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को पुनः प्रतिष्ठित करने का कार्य है। यह आंदोलन केवल व्याकरण और शब्दावली का आंदोलन नहीं, यह आत्मनिर्णय, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक समानता का संघर्ष है। अगर हम आज नहीं जागे, तो अगली पीढ़ियाँ हमें एक ऐसे वर्ग के रूप में याद करेंगी जिन्होंने भाषा के नाम पर केवल रोटियाँ सेंकीं, लेकिन न्याय और शिक्षा से वंचित समाज को चुपचाप स्वीकार किया। इसलिए अब समय है — संकल्प लेने का, संगठित होने का और जनभाषाओं को भारत की 'शासन भाषा' बनाने के यज्ञ में पूर्ण आहुति देने का।

क्योंकि जब तक हमारी भाषा अपमानित रहेगी, तब तक हमारी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। और जब हमारी भाषाएँ न्याय और नीति की भाषा बनेंगी, तभी भारत सच्चे अर्थों में गणराज्य कहलाएगा। अब नहीं, तो कभी नहीं...!!


पूनम चतुर्वेदी शुक्ला
संस्थापक-निदेशक, अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन एवं
न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन’
सेक्टर-एल, आशियाना, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) 

पत्र-पत्रिकाओं से दूर होता बचपन

 रविवार की सुबह थी। मन हुआ कि बेटा  गोद में आए और हम दोनों मिलकर अख़बार में से कोई रोचक कहानी पढ़ें — ताकि आधुनिक स्क्रीन युग में भी शब्दों की मिठास उसे मिल सके। परंतु खेदजनक आश्चर्य हुआ कि  प्रतिष्ठित अख़बारों में बच्चों के लिए एक भी कहानी, चित्रकथा, या बाल संवाद उपलब्ध नहीं था। इस पीड़ा से उपजा यह सवाल एक सामूहिक चिंतन की मांग करता है —“जब हम अपने अख़बारों में बच्चों के लिए छापते ही कुछ नहीं, तो हम उनसे पढ़ने की उम्मीद किस अधिकार से करते हैं?”

बाल मन: एक रिक्त पन्ना

हमारी शिक्षा व्यवस्था, अभिभावक वर्ग और समाज तीनों ही अक्सर एक स्वर में कहते हैं कि आज के बच्चे किताबें नहीं पढ़ते। वे मोबाइल, इंस्टाग्राम और गेमिंग की दुनिया में खो चुके हैं। पर कोई ये क्यों नहीं पूछता कि उन्हें क्या पढ़ने के लिए दे रहे हैं हम? अख़बार, जो एक समय में हर घर की सुबह का हिस्सा हुआ करता था — अब बच्चों के लिए पूरी तरह से एक “वयस्कों का युद्धक्षेत्र” बन चुका है, राजनीति के झगड़े, नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप, बलात्कार, हत्याएं, भ्रष्टाचार, क्रिकेट, फिल्में और योगा टिप्स। कहाँ हैं राजा की बात, हाथी की सवारी, विज्ञान की कल्पना, चाँद की कविता, और जीवन मूल्य सिखाती छोटी कहानियाँ?

जब बच्चे दिखते ही नहीं

आज के समाचार पत्रों में बच्चे सिर्फ दो तरह से “दिखते” हैं —
 जब कोई बच्चा यौन हिंसा या हत्या का शिकार होता है। या जब कोई बच्चा बोर्ड परीक्षा में 99.9% अंक लाकर मीडिया का ताज बन जाता है। क्या इतने सीमित संदर्भों में बच्चे होने का अनुभव समझा जा सकता है? अख़बारों ने बच्चों को समाज से अलग करके एक ऐसी चुप्पी में डाल दिया है, जहां उनका न तो रचनात्मक स्वर सुनाई देता है, न जिज्ञासु आंखें दिखाई देती हैं।


संपादकीय दूरदर्शिता की अनुपस्थिति

किसी भी अखबार का मुख्य उद्देश्य होता है –"समाज को जागरूक बनाना और उसकी सोच को दिशा देना।" तो फिर एक पूरे समाज की नींव यानी बच्चों के लिए कोई पन्ना क्यों नहीं? क्या आज का संपादक इतना व्यस्त हो गया है कि उसे यह भी याद नहीं कि उसकी जिम्मेदारी अगली पीढ़ी तक संस्कार और विचार की मशाल पहुँचाने की भी है? एक समय में "बाल-जगत", "बाल प्रभा", "बाल गोष्ठी", "बाल मेल" जैसे खंडों से अख़बार बच्चों को भी संवाद में शामिल करते थे। आज वे या तो बंद हो गए या ऑनलाइन लिंक की बेगानी भीड़ में खो गए।

विज्ञापन और बाजारवाद का हमला

बच्चे आज अख़बार के लिए 'ग्राहक' नहीं हैं। वे शैंपू या रेफ्रिजरेटर नहीं खरीदते। इसी कारण “बाजार” की भाषा में उनकी कोई 'विज्ञापन वैल्यू' नहीं है। और जहाँ विज्ञापन की भाषा नीति तय करने लगे, वहाँ बचपन बेमानी हो जाता है।
प्रत्येक अख़बार का लगभग 40% भाग विज्ञापनों से भरा रहता है — रियल एस्टेट, कपड़े, कोचिंग सेंटर, हॉस्पिटल, ब्रांडेड घड़ियाँ... कहीं भी यह नहीं दिखता कि कोई अख़बार यह पूछ रहा हो। "बच्चों को हम क्या पढ़ा रहे हैं?"

जब बाल साहित्य का विलोपन होता है

बाल साहित्य केवल मनोरंजन नहीं है —यह बच्चों को सोचने, सवाल करने, कल्पना करने और समाज से जुड़ने की प्राथमिक पाठशाला है। एक कहानी जिसमें एक पेड़ अपने फल देता है, एक चिड़िया घोंसला बनाती है, एक बच्चा अपने दोस्त के साथ पक्षियों को पानी पिलाता है —ये सब बच्चों को मानवता का बीज देते हैं। जब ये कहानियाँ हट जाती हैं, तो वहां केवल ड्रामा, सनसनी, और डाटा बचता है। और यही संवेदनहीनता आने वाली पीढ़ी में पनपती है।

क्या पढ़ाई और ज्ञान सिर्फ स्कूल का काम है?

हमारे समाज ने बच्चों के ज्ञान का ठेका सिर्फ स्कूलों को दे रखा है। अख़बार, जो कभी 'घर की पाठशाला' हुआ करता था, अब स्वयं को 'वयस्कों की गॉसिप' तक सीमित कर चुका है। क्या बच्चे समाचारों के योग्य नहीं? क्या विज्ञान, पर्यावरण, नैतिकता, और समाज की बातें उन्हें नहीं बताई जानी चाहिए?
यदि हम चाहते हैं कि बच्चे “समझदार नागरिक” बनें तो
हमें उन्हें शुरुआत से ही संवाद और सवालों से जोड़ना होगा — और अख़बार इसकी सशक्त जगह हो सकती है।

क्या किया जा सकता है?

साप्ताहिक 'बाल संस्करण' पुनः शुरू किए जाएं – हर रविवार या महीने में दो बार बच्चों के लिए विशेष खंड हो। बाल संवाद और चित्रकथाएँ हों – जिनमें नैतिक मूल्य, विज्ञान की जिज्ञासा और समाज का परिचय हो। बच्चों की रचनाएँ छापी जाएं – कविताएँ, चित्र, सवाल, विचार। बाल पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाए – विद्यालय स्तर पर बच्चों से लिखवाया जाए, जो छपे भी। प्रेरणादायक ‘बच्चों के नायक’ दिखाए जाएं – जो स्क्रीन के बाहर भी उपलब्ध हों।

बेटा उस दिन सुबह मुझसे बोला —
"माँ, क्या आपके अख़बार में बच्चों के लिए कुछ नहीं होता?"
मैं चुप रह गई। ये चुप्पी सिर्फ एक माँ की नहीं, एक पूरे समाज की चुप्पी है। और जब अख़बार समाज का दर्पण होते हैं, तो इस दर्पण में प्रज्ञान जैसे लाखों बच्चों की मासूम जिज्ञासा को जगह मिलनी ही चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि कल के भारत में पाठक, लेखक और संवेदनशील नागरिक जन्म लें —
तो आज के समाचार पत्रों में प्रज्ञान के लिए भी एक पन्ना आरक्षित करना होगा।



 -प्रियंका सौरभ, 

 रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

 


मंगलवार, 20 मई 2025

सिर्फ परीक्षा के मार्क्स नहीं, बच्चों की काबिलियत भी देखें

बच्चों की शिक्षा का विषय हमेशा से ही समाज का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। माता-पिता और शिक्षक, दोनों ही बच्चों की सफलता के लिए चिंतित रहते हैं, लेकिन कई बार यह चिंता एक दबाव का रूप ले लेती है। विशेष रूप से अंक या ग्रेड के मामले में, यह दबाव बच्चों की मानसिक सेहत पर गहरा असर डाल सकता है। 

अंक बनाम काबिलियत: एक बुनियादी भेद अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे हर विषय में उत्कृष्ट अंक प्राप्त करें। वे यह मानते हैं कि अच्छे अंक अच्छे भविष्य की गारंटी हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि अंक केवल एक व्यक्ति की किताबी जानकारी का प्रमाण होते हैं, न कि उसकी असल क्षमता का। उदाहरण के लिए, एक बच्चा जिसे कला, संगीत, खेल या तकनीकी कौशल में रुचि है, वह संभवतः गणित या विज्ञान में उतने अच्छे अंक न ला पाए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह कम लायक है। काबिलियत का अर्थ केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन में समस्याओं को हल करने की क्षमता, नई चीजें सीखने का जज़्बा और परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता है।

अंक प्रणाली का वास्तविक प्रभाव हमारे शिक्षा प्रणाली का ढांचा अभी भी पारंपरिक मानदंडों पर आधारित है, जहां अंकों को सफलता का एकमात्र पैमाना माना जाता है। इससे बच्चों में असुरक्षा और आत्म-संकोच की भावना विकसित होती है। कई बच्चे अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरे न उतर पाने के डर से मानसिक तनाव का सामना करते हैं। यह मानसिक दबाव उनकी आत्म-छवि और आत्मविश्वास को नुकसान पहुंचा सकता है। साथ ही, यह न केवल बच्चों की पढ़ाई पर बल्कि उनके सामाजिक संबंधों और मानसिक सेहत पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। बच्चों में आत्मनिर्भरता और आत्म-विश्वास की भावना तभी विकसित होती है जब उन्हें बिना भय और दबाव के सीखने का अवसर मिले।

कैसे अंक प्रणाली बच्चों की रचनात्मकता को दबाती है अंक प्रणाली न केवल मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि बच्चों की रचनात्मकता और खोज की क्षमता को भी सीमित करती है। वे अपनी मौलिक सोच और रचनात्मकता को छोड़कर केवल अंकों की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। यह समस्या केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्वभर में देखी जा रही है, जहां छात्रों को एक निर्धारित पाठ्यक्रम में ढालने का प्रयास किया जाता है, बिना उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा को पहचानने की कोशिश किए। इसके परिणामस्वरूप, कई बच्चे अपनी वास्तविक क्षमता और रुचियों को पहचानने में विफल रहते हैं, जो कि उनके जीवन में दीर्घकालिक असंतोष का कारण बन सकता है।

समाज का नज़रिया और दबाव समाज का नज़रिया भी इस समस्या का एक बड़ा कारण है। अक्सर माता-पिता अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों से करने लगते हैं। यह तुलना बच्चों में हीन भावना और जलन पैदा कर सकती है। साथ ही, यह उनके आत्मविश्वास को कमजोर कर देती है। बच्चों को यह महसूस होने लगता है कि उनकी पहचान केवल उनके अंकों से ही मापी जाती है, न कि उनके चरित्र, कौशल और मानवीय मूल्यों से। बच्चों का मानसिक विकास तभी संभव है जब उन्हें बिना किसी भय और दबाव के सीखने का अवसर मिले।

परिवर्तन की आवश्यकता हमें शिक्षा के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं, बल्कि एक समझदार, सशक्त और नैतिक नागरिक का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए हमें अंकों से परे जाकर बच्चों की असल काबिलियत को पहचानने और उसे प्रोत्साहित करने की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। हमें यह समझना होगा कि हर बच्चा अद्वितीय है और उसकी रुचियां, क्षमताएं और सपने भी अलग हैं।

बच्चों को समर्थन दें, दबाव नहीं माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को प्रेरित करें, न कि उन पर अनावश्यक दबाव डालें। हर बच्चा अनोखा होता है, उसकी सोच, रुचि और क्षमता भी अलग होती है। हमें चाहिए कि हम उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की आजादी दें, न कि केवल समाज के तय किए गए मापदंडों पर खरा उतरने का बोझ डालें। बच्चों के साथ संवाद करें, उनकी समस्याओं को समझें और उन्हें आत्मनिर्भर बनने का मौका दें। केवल अच्छे अंक लाने पर ही नहीं, बल्कि एक अच्छे इंसान बनने पर ध्यान केंद्रित करें। उन्हें जीवन के हर पहलू में सफलता पाने का आत्मविश्वास दें।

अंक जीवन का एक छोटा हिस्सा हैं, लेकिन असल काबिलियत और नैतिकता जीवन का असली मूल्य है। इसलिए हमें चाहिए कि हम बच्चों को केवल अच्छे अंक लाने के लिए नहीं, बल्कि एक अच्छे इंसान बनने के लिए प्रेरित करें। बच्चों की पहचान उनके अंकों से नहीं, बल्कि उनके विचारों, कर्मों और चरित्र से होनी चाहिए। बच्चों की असली पहचान उनके भीतर छुपी क्षमताओं, रचनात्मकता और आत्मनिर्भरता में होती है। यही वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। जीवन केवल अंकों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक व्यापक दृष्टिकोण और सकारात्मक सोच से भरा हुआ होना चाहिए।

अंक केवल एक व्यक्ति की किताबी जानकारी का प्रमाण होते हैं, न कि उसकी असल क्षमता का। असली काबिलियत जीवन की समस्याओं को हल करने, नई चीजें सीखने और परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता में होती है। हमें बच्चों को केवल अंकों की दौड़ में शामिल करने के बजाय उनकी व्यक्तिगत रुचियों, प्रतिभाओं और आत्मनिर्भरता को पहचानने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।


 -प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

गुरुवार, 13 मार्च 2025

होली के रंग : बदलते ज़माने की रंग बदलती होली

होली एक ऐसा त्यौहार है जिसे हर पृष्ठभूमि के लोग मनाते हैं, जिसमें दुश्मनी भुलाकर गले मिलते हैं। फिर भी, एकता और प्यार का यह त्यौहार बदल रहा है। फाल्गुन की खुशियाँ अब दूर की यादों की तरह लगती हैं। होली के रंग, कुछ सालों में फीके पड़ गए हैं। बड़े-बुजुर्ग इस बात पर अफ़सोस जताते हैं कि अब हंसी-मजाक, उत्साह और वह जीवंत भावना नहीं रही जो कभी इस उत्सव की पहचान हुआ करती थी। पानी की बौछारों की आवाज़ और होली की जीवंतता ने कुछ ही घंटों के उत्सव के बाद एक शांत ले ली है। "आओ राधे खेलें फाग, होली आई" के हर्षोल्लास और उत्सव के इर्द-गिर्द होने वाली मस्ती-मजाक की आवाज़ें समय के साथ दबती जा रही हैं।

फाल्गुन आते ही होली का उत्साह हवा में घुलने लगा। मंदिरों में फाग की ध्वनि गूंजने लगी और हर तरफ़ होली के लोकगीत सुनाई देने लगे। शाम होते ही ढप-चंग के साथ पारंपरिक नृत्यों ने होली के रंग चारों ओर बिखेर दिए। लोग ख़ुशी से एक-दूसरे पर पानी की छींटे मारते रहे और कोई कड़वाहट नहीं थी, बस ख़ुशी थी। होली की तैयारियाँ वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती थीं और समुदाय के आंगन और मंदिर चंग की थाप से जीवंत हो उठते थे। रात में चंग की थाप के साथ नृत्य ने सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। दूर से फाल्गुन गीत और रसिया गाने वाले लोग नृत्य में शामिल होकर तारों की छांव में होली का आनंद मनाते थे। हालांकि, जैसे-जैसे समय बदला है, रिश्तों की गर्माहट फीकी पड़ती नज़र आती है। आजकल होली की बधाई अक्सर मोबाइल या इंटरनेट के जरिए भेजे गए "हैप्पी होली" के साथ शुरू और ख़त्म होती है। पहले जैसा उत्साह और जश्न का माहौल अब नहीं रहा। पहले बच्चे हर मोहल्ले में होली के लिए समूह बनाकर होली का दान इकट्ठा करते थे और खुशी-खुशी किसी पर भी रंग फेंकते थे। यहाँ तक कि जब उन्हें चिढ़ाया या डांटा जाता था, तो वे हंसते थे। अब ऐसा लगता है कि लोग मौज-मस्ती करने के बजाय बहस करने में ज़्यादा रुचि रखते हैं।

पहले के समय में पड़ोसियों की बहू-बेटियों को परिवार की तरह माना जाता था। घर स्वादिष्ट व्यंजनों की ख़ुशबू से भर जाते थे और मेहमानों का खुले दिल से स्वागत किया जाता था। आज, समारोह ज्यादातर अपने घर तक ही सीमित रह गए हैं और समुदाय की भावना कम होती जा रही है। फ़ोन पर एक साधारण "होली मुबारक" ने पहले के दिल से जुड़े रिश्तों की जगह ले ली है, जिससे रिश्ते कम मधुर लगने लगे हैं। इस बदलाव के कारण परिवार अपनी बहू-बेटियों को दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने देने में हिचकिचाते हैं। पहले लड़कियाँ होली के दौरान ख़ुशी और हंसी-मजाक करती हुई खुली हवा में घूमती थीं, लेकिन अब अगर कोई लड़की किसी रिश्तेदार के घर ज़्यादा देर तक रुकती है, तो उसके परिवार में चिंता पैदा हो जाती है।

होली का त्यौहार खुशियों का मौसम हुआ करता था, जिसकी शुरुआत होली के पौधे लगाने से होती थी। छोटी-छोटी लड़कियाँ गाय के गोबर से वलुडिया बनाती थीं, खूबसूरत मालाएँ बनाती थीं, जिन पर आभूषण, नारियल, पायल और बिछिया होती थीं। दुख की बात है कि ये परंपराएँ अब ख़त्म हो गई हैं। पहले घर पर ही टेसू और पलाश के फूलों को पीसकर रंग बनाया जाता था और महिलाएँ होली के गीत गाती थीं। होली के दिन सभी लोग चंग की ताल पर नाचते हुए जश्न मनाते थे। बसंत पंचमी से ही फाग की धुनें गूंजने लगती थीं, लेकिन अब होली के गीत कुछ ही जगह सुनाई देते हैं। परंपरागत रूप से, विभिन्न समुदायों के लोग ढोलक और चंग की थाप के साथ होली खेलने के लिए एकत्रित होते थे। अब वह जीवंत भावना कहाँ चली गई है?

आज हम जो होली मनाते हैं, वह पहले की होली से काफ़ी अलग है। पहले, यह त्यौहार लोगों के बीच अपार ख़ुशी और एकता लेकर आता था। उस समय प्यार की सच्ची भावना होती थी और दुश्मनी कहीं नहीं दिखती थी। परिवार और दोस्त मिलकर रंगों और हंसी-मजाक के साथ जश्न मनाते थे।  जैसे-जैसे समय बदला है, रिश्तों की गर्माहट फीकी पड़ती नज़र आती है। आजकल होली की बधाई अक्सर मोबाइल या इंटरनेट के जरिए भेजे गए "हैप्पी होली" के साथ शुरू और ख़त्म होती है। पहले जैसा उत्साह और जश्न का माहौल अब नहीं रहा। पहले बच्चे हर मोहल्ले में होली के लिए समूह बनाकर होली का दान इकट्ठा करते थे और खुशी-खुशी किसी पर भी रंग फेंकते थे। यहाँ तक कि जब उन्हें चिढ़ाया या डांटा जाता था, तो वे हंसते थे। अब ऐसा लगता है कि लोग मौज-मस्ती करने के बजाय बहस करने में ज़्यादा रुचि रखते हैं।

आज, होली महज़ एक परंपरा की तरह लगती है। हाल के वर्षों में, सामाजिक गुस्सा और विभाजन इतना बढ़ गया है कि कई परिवार इस त्यौहार के दिन घर के अंदर ही रहना पसंद करते हैं। वैसे तो लोग सालों से होली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं, लेकिन इस त्यौहार का असली उद्देश्य भाईचारा बढ़ाना और नकारात्मकता को दूर करना है, जो अब कहीं खो गया है। समाज कई चुनौतियों का सामना कर रहा है और सामाजिक असमानता प्रेम, भाईचारे और मानवता के मूल्यों को ख़त्म कर रही है। एक समय था जब होली एक महत्त्वपूर्ण अवसर था, जब परिवार होलिका दहन देखने के लिए इकट्ठा होते थे और उसी दिन वे खुशी-खुशी एक-दूसरे पर रंग लगाते और अबीर फेंकते थे। समूह होली की खुशियाँ बाँटने के लिए एक-दूसरे के घर जाते और भांग की भावना में डूबे हुए फगुआ गीत गाते थे। अब, वास्तविकता यह है कि होली पर कुछ ही लोग घर से बाहर रहना पसंद करते हैं। हर महीने और हर मौसम में एक नया त्यौहार आता है, जो हमें उस ख़ुशी की याद दिलाता है जो वे ला सकते हैं। ये उत्सव हमें उत्साहित करते हैं, हमारे दिलों में उम्मीद जगाते हैं और अकेलेपन की भावनाओं को दूर करते हैं, भले ही कुछ पल के लिए ही क्यों न हो। हमें इस त्यौहारी भावना को संजोकर रखना चाहिए।

 -प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

विवाह के झूठे वादों से दुष्कर्म के बढ़ते मामले

हाल के वर्षों में बलात्कार के ऐसे मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिनमें अभियुक्त पर बलात्कार का आरोप लगाया जाता है। इन मामलों में, एक पुरुष जिसने एक महिला से शादी करने का वादा किया है, उसके साथ यौन क्रियाकलाप और शारीरिक अंतरंगता में शामिल होता है, लेकिन बाद में अपने वादे से मुकर जाता है। अक्सर यह भूलकर कि उनके बीच सहमति से सम्बंध थे, महिला जो इससे ग़लत महसूस करती है, पुरुष पर बलात्कार का आरोप लगाती है। अतुल गौतम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के परिणाम हाल ही में एक ऐसे व्यक्ति को जमानत दे दी गई, जिस पर विवाह की शपथ के बदले में अपने सहवास करने वाले साथी के साथ बलात्कार करने का आरोप था। महिलाओं की स्वायत्तता ऐसे न्यायालय के निर्णयों से प्रभावित होती है, जो लैंगिक रूढ़ियों को भी क़ायम रखते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की नई रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल झूठी शादी की शपथ की आड़ में कई हज़ार बलात्कार के मामले दर्ज किए जाते है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अतुल गौतम मामले में 2025 में दिए गए फैसले से यह सवाल उठता है कि न्यायिक व्याख्याएँ महिलाओं की स्वायत्तता और कानूनी सुरक्षा को कैसे प्रभावित करती हैं। बलात्कार और सेक्स के लिए सहमति देना स्पष्ट रूप से अलग-अलग हैं। इन स्थितियों में, न्यायालय को सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए कि क्या शिकायतकर्ता की पीड़िता से शादी करने की वास्तविक इच्छा थी या उसके कोई छिपे हुए उद्देश्य थे और उसने केवल अपनी वासना को शांत करने के लिए इस आशय का झूठा वादा किया था, क्योंकि बाद वाले को धोखा या छल माना जाता है। इसके अतिरिक्त, झूठा वादा न निभाने और उसे तोड़ देने में अंतर है। अभियुक्त द्वारा अभियोक्ता को यौन गतिविधि में शामिल होने के लिए लुभाने के इरादे के बिना किया गया वादा बलात्कार के रूप में मान्य नहीं होगा। अभियोक्ता अभियुक्त द्वारा बनाए गए झूठे प्रभाव के बजाय उसके प्रति अपने प्यार और जुनून के आधार पर अभियुक्त के साथ यौन सम्बंधों के लिए सहमति दे सकती है। वैकल्पिक रूप से, अप्रत्याशित या अनियंत्रित परिस्थितियों के कारण ऐसा करने का इरादा होने के बावजूद अभियुक्त उससे शादी करने में असमर्थ हो सकता है। इन स्थितियों को अलग तरीके से संभालने की आवश्यकता है। बलात्कार का मामला तभी स्पष्ट होता है जब शिकायतकर्ता का कोई दुर्भावनापूर्ण इरादा या गुप्त उद्देश्य हो।

अतुल गौतम बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करता है। यह फ़ैसला अपर्णा भट बनाम के विपरीत है। 2021 के मध्य प्रदेश राज्य के फैसले में आरोपी और पीड़ित को द्वितीयक आघात से बचने के लिए जमानत पर रहते हुए संवाद करने से मना किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया कि निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी के लिए, जमानत की आवश्यकताओं को आरोपी और उत्तरजीवी के बीच संचार के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए। यह विचार कि विवाह बलात्कार के लिए एक उपाय है न कि अपराध के लिए सजा, ऐसी जमानत आवश्यकताओं द्वारा पुष्ट होता है, जो सामाजिक समझौते को कानून के शासन से आगे रखता है। रामा शंकर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) में जमानत देते समय इसी तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया गया था, जिसने प्रतिवादी के खिलाफ अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर कर दिया। उत्तरजीवी को जमानत प्राप्त करने के लिए आरोपी द्वारा विवाह के लिए मजबूर किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप कानूनी व्यवस्था के भीतर निरंतर दुर्व्यवहार हो सकता है। अभिषेक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) ने न्याय की गारंटी देने के बजाय, अभियुक्त को विवाह के वादे के बदले में जमानत देकर एक दबावपूर्ण गतिशीलता बनाई। जो उत्तरजीवी को उचित पुनर्वास सहायता प्राप्त करने के बजाय अभियुक्त पर निर्भर रहने के लिए मजबूर करता है। किशोरों के निजता के अधिकार (2024) में न्यायालय द्वारा उत्तरजीवियों और बच्चों को आवास, शिक्षा और परामर्श प्रदान करने के राज्य के दायित्व पर प्रकाश डाला गया था। जमानत का उद्देश्य सामाजिक कर्तव्यों को लागू करना नहीं है, बल्कि मामला लंबित रहने तक अस्थायी स्वतंत्रता की गारंटी देना है।

महिलाओं की स्वायत्तता और "सम्मान" विचारधारा की निरंतरता इन न्यायिक निर्णयों से प्रभावित होती है, जो लैंगिक रूढ़ियों को भी मज़बूत करती है। ऐसे निर्णय बलात्कार को अपराध से कम और पवित्रता के नुक़सान को अधिक बनाते हैं, जो पितृसत्तात्मक धारणा को मज़बूत करते हैं कि एक महिला की गरिमा विवाह से जुड़ी होती है। न्यायालयों ने पिछले कई निर्णयों में एक पीड़ित के पुनर्वास को विवाह के बराबर माना है, बलात्कार को शारीरिक स्वायत्तता के उल्लंघन के रूप में स्वीकार करने में विफल रहे। न्यायालय महिलाओं की स्वायत्तता को कमजोर करते हुए अपराधियों के साथ विवाह करने के लिए पीड़ितों पर दबाव डालकर कानूनी संरक्षण के तहत दुर्व्यवहार और नियंत्रण को बढ़ावा देते हैं। विवाह को एक उपाय मानने वाली अदालतें पीड़ित की सहमति की कमी को नजरअंदाज करती हैं, जिसका अर्थ है कि जबरदस्ती को कानूनी रूप से उचित ठहराया जा सकता है। महिलाओं को लगातार आघात और सुरक्षा जोखिमों के बावजूद अक्सर अपने दुर्व्यवहार करने वालों के साथ "समझौता विवाह" में रहने के लिए मजबूर किया जाता है। अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करते हुए, जो महिलाओं की स्वायत्तता और गरिमा की रक्षा करता है, ऐसे निर्णय महिलाओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध सम्बंधों में मजबूर करके उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, जबरन विवाह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करते हैं, जिससे पीड़ितों को न्याय के बजाय अधिक शोषण का सामना करना पड़ता है।

ये निर्णय इस धारणा को बनाए रखते हैं कि विवाह यौन हिंसा को हल कर सकता है, इन घटनाओं को गंभीर अपराधों के बजाय नागरिक विवादों में बदल देता है। रूढ़िवादी ग्रामीण क्षेत्रों में पीड़ितों पर अक्सर अदालतों द्वारा आरोपी लोगों से विवाह करने का दबाव होता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सामाजिक दबाव से न्याय से समझौता न हो, अदालतों को स्थापित नियमों का पालन करना चाहिए जो विवाह को जमानत की शर्त बनाने से रोकते हैं। अपर्णा भट केस (2021) में, सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला किया कि जमानत की ऐसी आवश्यकताएँ जो पीड़ितों को रिश्तों में मजबूर करती हैं या लैंगिक रूढ़िवादिता को बनाए रखती हैं, उनसे बचना चाहिए। राज्य को पीड़ितों को आत्मनिर्भर बनने में मदद करने के लिए मौद्रिक सहायता, परामर्श, कानूनी सहायता और कौशल-निर्माण पाठ्यक्रम प्रदान करके कल्याण कार्यक्रमों में सुधार करना चाहिए। वन स्टॉप सेंटर योजना द्वारा एकीकृत सहायता सेवाएँ प्रदान की जाती हैं; हालाँकि, अधिकतम प्रभाव के लिए, इसमें सुधार और विस्तार की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि न्यायिक विवेक से पीड़ितों के अधिकारों को ख़तरा न हो, विधायी संशोधनों को विशेष रूप से विवाह की शर्त पर ज़मानत देने की प्रथा को रोकना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कानूनी व्याख्याएँ पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों के बजाय संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखें, न्यायाधीशों को लिंग-संवेदनशील प्रशिक्षण प्रदान करें। पीड़ितों के अधिकारों और लैंगिक न्याय को न्यायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए, जैसे कि राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी द्वारा संचालित पाठ्यक्रम।

त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए, त्वरित परीक्षण पीड़ितों को समझौते के लिए मजबूर करने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई की आवश्यकता को समाप्त कर देंगे। हालाँकि 2019 निर्भया फंड को फास्ट-ट्रैक कोर्ट के लिए अलग रखा गया था, लेकिन उनमें से कई अभी भी संसाधनों की कमी और प्रशासनिक रुकावटों के परिणामस्वरूप कम उपयोग किए जाते हैं। ऐसे न्यायिक निर्णयों से महिलाओं के अधिकारों को कमजोर करने और इस तरह पितृसत्तात्मक मानदंडों को मज़बूत करने का जोखिम है। रिश्ते की जटिलता और धोखाधड़ी के इरादे के बीच अंतर करने के लिए एक अच्छी तरह से कानूनी रणनीति की आवश्यकता होती है। कानूनी सुरक्षा को मज़बूत करके और लिंग-संवेदनशील न्यायिक प्रशिक्षण प्रदान करके न्याय किया जा सकता है, जो लैंगिक समानता के लिए भारत की प्रतिबद्धता के अनुरूप है।

  -प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

देश-विदेश में मोहब्बतों से पढ़े जाने वाले युगल साहित्यकार आकांक्षा एवं कृष्ण कुमार यादव पर 'सरस्वती सुमन' का शानदार संग्रहणीय विशेषांक

'सरस्वती सुमन' का दिसम्बर- 2024 में प्रकाशित "आकांक्षा-कृष्ण युगल अंक" देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यूँ तो देश में अनेक पत्रिकाएं विशेषांक प्रकाशित करती रहती हैं, लेकिन जिस खूबसूरत अंदाज़ से यह विशेषांक मंज़र ए आम पर आया है वो हर पाठक के दिलो-दिमाग में दस्तक देने के लिए काफी है। कवर पेज पर प्रकाशित युगल ख़ूबसूरत फोटो वाकई उम्दा है। इसमें प्रकाशित विभिन्न विधाओं की रचनाएं- कविताएं, लघुकथाएं, कहानियां, आलेख विशेषांक को एक नायाब दस्तावेज़ के रूप में परिवर्तित करते हैं। सामाजिक और समसामयिक विषयों को उठाते हुये जो आलेख लिखे गये हैं वो भविष्य में शोधकर्ताओं के लिए बेहद उपयोगी साबित होंगे।  


दुनिया का हर सच्चा और अच्छा साहित्यकार अपनी क़लम की नोक़ से  वक़्त के माथे पर सच्चाइयों के सितारे टांकता है जिसकी रौशनी सारी इंसानियत को रौशन करती रहती है। इस विशेषांक की सभी रचनाओं में बदलते हुये परिवेश में अपने आसपास घटित समाज की तल्ख़ियों को शब्दों की  जादूगरी किये बिना बहुत ही सादगी और सरलता से शब्दों में गूंथा गया है। साहित्यकार युगल दम्पति के दिल से जो बेबाक आवाज़ निकलती है वो समाज को झकझोर देने वाली है और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इंसानी ज़िंदगियों के मुख्तलिफ़ पहलुओं को अपने दामन में समेटकर जो रचनाधर्म कृष्ण कुमार यादव जी एवं आकांक्षा यादव जी द्वारा निभाया गया है वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। हर क़दम पर साहित्य साधना इनको नई ताक़त देती है।

भारत सरकार में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी रहते हुये कृष्ण कुमार जी द्वारा एवं उनकी जीवन संगिनी आकांक्षा जी द्वारा लगातार साहित्य के विभिन्न विषयों पर सफलतापूर्वक शानदार सारगर्भित सृजन करना इस युगल की अद्भुत साहित्य साधना को दर्शाता है और साहित्य के आसमान में रौशन सितारों की तरह नुमायां करता है। 


सरस्वती सुमन (Saraswati Suman Hindi Monthely Magazine) पत्रिका देश की उन अग्रणी पत्रिकाओं में से एक है जो किसी वाद से परे साहित्यिक निष्पक्षता के लिए जानी जाती है। सरस्वती सुमन के प्रधान संपादक डॉ. आनन्द सुमन सिंह जी को दिल से साधुवाद कि उन्होंने  देश-विदेश में मोहब्बतों से पढ़े जाने वाले युगल साहित्यकार आकांक्षा जी एवं कृष्ण कुमार यादव जी पर जो शानदार संग्रहणीय विशेषांक प्रकाशित किया है, वह देश से निकलने वाली तमाम हिन्दी पत्रिकाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत का काम करेगा।

(यूनुस अदीब)
(पूर्व संभागीय समन्वयक म.प्र. उर्दू अकादमी संस्कृति विभाग, संस्कृति परिषद भोपाल)
2898,  स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के सामने, गढ़ा बाज़ार, जबलपुर, मध्य प्रदेश-482003, मो.-9826647735

पत्रिका - सरस्वती सुमन/ मासिक हिंदी पत्रिका/ प्रधान सम्पादक-डॉ. आनंद सुमन सिंह/ सम्पादक-किशोर श्रीवास्तव/संपर्क -'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, आर्य नगर, देहरादून, उत्तराखंड -248001, मो.-7579029000, ई-मेल :saraswatisuman@rediffmail.com

 






बच्चों के साथ समय बिताना बेहद जरुरी...

बच्चों के साथ बात करना बहुत ज़रूरी है, साथ ही ज़रूरत पड़ने पर दयालु होना भी ज़रूरी है। जितना हो सके अपने बच्चे को अपने काम में शामिल करने की कोशिश करें। उन पर ध्यान दें और उनकी पसंदीदा गतिविधियों में शामिल हों; इससे आप दोनों के बीच नज़दीकियाँ बढ़ेंगी। बच्चे स्वाभाविक रूप से अपने माता-पिता का ध्यान और स्वीकृति चाहते हैं, इसलिए समझदार माता-पिता इसका इस्तेमाल अपने बच्चों को अलग-अलग तरीकों से सहयोग करने के लिए करते हैं। अनुशासन का मतलब है सिखाना और सीखना। अपने बच्चों को यह समझने में मदद करने के लिए कि उन्हें क्या जानना चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर उनके व्यवहार को सुधारने के लिए, आपको उनसे इस तरह बात करनी होगी कि वे आपका सम्मान करें और समझें।

बच्चों के साथ पर्याप्त समय न बिताना और उनकी बातों को अनदेखा करना उन्हें बहुत तनाव में डाल सकता है। उन पर चिल्लाना या बात करने से पहले उन्हें दोष देना उनके तनाव को बढ़ाता है और उन्हें अपने प्रियजनों से नाराज़ भी कर सकता है। उनके अच्छे और बुरे दोनों गुणों को अनदेखा करने से अवसाद की भावनाएँ पैदा हो सकती हैं। साथ ही, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ घूमने न देना या खराब ग्रेड के लिए शिक्षकों द्वारा आलोचना किए जाने से वे एक अंधकारमय जगह में चले जा सकते हैं। दुख की बात है कि कुछ बच्चे इन दबावों के कारण आत्महत्या करने के बारे में भी सोचते हैं। यह बात बच्चों के साथ हमारी चर्चाओं के दौरान सामने आई, जिन्होंने अपने माता-पिता से जुड़ी कई समस्याओं को साझा किया। हमने उनके परिवारों से भी बात की और पाया कि इनमें से कई बच्चे एकल-अभिभावक वाले घरों से आते हैं। बड़े परिवारों से ज़्यादा बच्चे नहीं थे, लेकिन जो थे, उनका संचार बेहतर था, खासकर दादा-दादी के साथ। माता-पिता अक्सर अपने बच्चों से सही व्यवहार की उम्मीद करते हैं, जिससे दबाव और भी बढ़ जाता है।

जबकि बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम को सीमित करना अच्छा है, माता-पिता को अपने फ़ोन के इस्तेमाल को नियंत्रित करने और अपने बच्चों के लिए भी समय निकालने की ज़रूरत है। यह परीक्षा अवधि के दौरान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। हमारी चर्चा के दौरान बच्चों ने अपने माता-पिता से जुड़े कई मुद्दों का उल्लेख किया। किसी बच्चे को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करना लंबे समय में उसके भावनात्मक, सामाजिक और सोचने के कौशल को प्रभावित कर सकता है। बच्चों को लग सकता है कि वे ज़्यादा मूल्यवान नहीं हैं या कोई उनसे प्यार नहीं करता, जिससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँच सकती है। नज़रअंदाज़ किए जाने से वे बेचैन और दुखी भी हो सकते हैं और कुछ मामलों में, यह गंभीर अवसाद का कारण भी बन सकता है। वे या तो खुद पर या उनकी देखभाल करने वाले लोगों पर गुस्सा हो सकते हैं और यह गुस्सा उनके गुस्से या आक्रामकता के रूप में सामने आ सकता है। बच्चों को अच्छी दोस्ती बनाने में मुश्किल हो सकती है क्योंकि वे संवाद करना या दूसरों के साथ घुलना-मिलना नहीं सीखते हैं।

 वे सामाजिक स्थितियों से दूर रहना शुरू कर सकते हैं, जिससे उन्हें और भी अकेलापन महसूस हो सकता है। कभी-कभी, वे सिर्फ़ ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ कर सकते हैं, भले ही वह नकारात्मक ही क्यों न हो। बच्चों को पर्याप्त ध्यान न देना उनके मस्तिष्क के विकास और स्कूल में उनके प्रदर्शन को भी नुकसान पहुँचा सकता है, क्योंकि वे सीखने के लिए प्रेरित या प्रोत्साहित महसूस नहीं कर सकते हैं। जब बच्चों को बातचीत करने का मौका नहीं मिलता है, तो यह उनके भाषा कौशल और समग्र सोचने की क्षमताओं को धीमा कर सकता है क्योंकि वे महत्वपूर्ण सीखने के क्षणों से चूक जाते हैं। वे असुरक्षित लगाव शैलियों के साथ समाप्त हो सकते हैं, जो वयस्कों के रूप में उनके भविष्य के रिश्तों और भावनात्मक कल्याण को प्रभावित कर सकता है। यह सब भावनात्मक उपेक्षा बाद में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की संभावना को बढ़ा सकती है। इसलिए, संक्षेप में, एक बच्चे की अनदेखी करने से बहुत सारी नकारात्मक भावनाएं, सामाजिक संघर्ष, व्यवहार संबंधी समस्याएं और सीखने की समस्याएं हो सकती हैं।

 देखभाल करने वालों के लिए बच्चों पर ध्यान देना, उन्हें स्वस्थ रूप से बड़ा होने के लिए आवश्यक समर्थन और संचार देना बहुत महत्वपूर्ण है। बात करना बहुत ज़रूरी है, साथ ही ज़रूरत पड़ने पर दयालु होना भी ज़रूरी है! जितना हो सके अपने बच्चे को अपने काम में शामिल करने की कोशिश करें। उन पर ध्यान दें और उनकी पसंदीदा गतिविधियों में शामिल हों; इससे आप दोनों के बीच नज़दीकियाँ बढ़ेंगी। बच्चे स्वाभाविक रूप से अपने माता-पिता का ध्यान और स्वीकृति चाहते हैं, इसलिए समझदार माता-पिता इसका इस्तेमाल अपने बच्चों को अलग-अलग तरीकों से सहयोग करने के लिए करते हैं। अनुशासन का मतलब है सिखाना और सीखना। अपने बच्चों को यह समझने में मदद करने के लिए कि उन्हें क्या जानना चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर उनके व्यवहार को सुधारने के लिए, आपको उनसे इस तरह बात करनी होगी कि वे आपका सम्मान करें और समझें। इस महत्वपूर्ण पेरेंटिंग कौशल पर कुछ बेहतरीन सुझावों के लिए, एडेल फ़ार्बर की किताब "हाउ टू टॉक सो किड्स विल लिसन एंड हाउ टू लिसन सो किड्स विल टॉक" देखें।

और याद रखें, किसी भी तरह की सज़ा जैसे मारना, शर्मिंदा करना, अलग-थलग करना, चिल्लाना या डांटना बिलकुल भी नहीं है। ये चीज़ें आपके बच्चे को नुकसान पहुँचा सकती हैं और उनकी आत्मा को चोट पहुँचा सकती हैं। अच्छे माता-पिता अपने बच्चों को शब्दों और तर्क की शक्ति के बारे में सिखाते हैं, जिससे उन्हें ज़िम्मेदार, दयालु व्यक्ति बनने में मदद मिलती है जो तर्कसंगत तरीके से व्यवहार करना जानते हैं। परिवार अपने बच्चों को जो सहायता प्रदान करते हैं, चाहे वह सही हो या गलत, कभी-कभी उन्हें सही रास्ते से भटका सकता है। बच्चों में सहनशीलता और आदर्शों के मूल्यों को स्थापित करना आवश्यक है। घर और स्कूल दोनों में उनके साथ खुले संवाद को प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, समय-समय पर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का आकलन करना महत्वपूर्ण है। बच्चों को सही रास्ते पर ले जाने वाला वातावरण बनाना महत्वपूर्ण है, और यह जिम्मेदारी माता-पिता और शिक्षकों से आगे बढ़कर समाज और सरकार को भी शामिल करती है।


 -प्रियंका सौरभ
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045
(मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप)

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

Special Issue of Hindi Magazine Saraswati Suman : संग्रहणीय है 'सरस्वती सुमन' का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक

प्रतिष्ठित हिंदी मासिक पत्रिका 'सरस्वती सुमन' का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक, दिसंबर-2024 (वर्ष 23, अंक 110) प्राप्त हुआ जो देहरादून, उत्तराखंड से प्रकाशित होती है। वर्तमान अंक का आकर्षण एक साहित्यकार दंपत्ति के रूप में स्थापित आकांक्षा यादव और कृष्ण कुमार यादव के साहित्य पर विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस पत्रिका के प्रधान संपादक डॉ. आनंद सुमन सिंह और संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव हैं। पत्रिका का कवर पेज साहित्य साधना में रत युगल जोड़ी के खूबसूरत छायाचित्र से बहुत कुछ कहता प्रतीत होता है। पत्रिका की अनुक्रमणिका पर दृष्टि डालने से यह बात और भी पुष्ट होती नजर आती है। साहित्य एवं संस्कृति का सारस्वत अभियान के तहत प्रकशित पत्रिका के इस अंक को कुल सात भागों में विभक्त करके कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव की साहित्यिक रचनाधर्मिता को समेटने की कोशिश की गई है। 

प्रथम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कविताएं, द्वितीय भाग में आकांक्षा यादव की कविताएं, तृतीय भाग में कृष्ण कुमार यादव की लघु कथाएं, चतुर्थ भाग में आकांक्षा यादव की लघु कथाएं, पंचम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कहानियाँ, षष्ठ भाग में आकांक्षा यादव के लेख और सप्तम भाग में कृष्ण कुमार यादव के लेख के साथ-साथ युगल आकांक्षा और कृष्ण कुमार यादव का परिचय व्यवस्थित तरीके से प्रकाशित किया गया है।


प्रथम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कविताएं जैसे - बदलती कविता, अंडमान के आदिवासी, सेलुलर जेल की आत्माएं, सभ्यताओं का संघर्ष, रिश्तों का अर्थशास्त्र, विज्ञापनों का गोरखधंधा, मांस का लोथड़ा, बिखरते शब्द, मां, बच्चे की निगाह, पॉलिश  ब्रेकिंग न्यूज़ आदि कविताएं पत्रिका के गौरव को बढ़ा रही हैं। द्वितीय भाग में आकांक्षा यादव की कविताएं जैसे- शब्दों की गति, हमारी बेटियां, नियति का प्रहार, वजूद, 21वीं सदी की बेटी,मैं अजन्मी, श्मशान, एहसास, सिमटता आदमी भी विशेष महत्व की कविताएं दिखतीं हैं। तृतीय भाग में कृष्ण कुमार यादव की लघु कथाएं जैसे - एन.जी.ओ, चिंता, व्यवहार, सर्कस, हिंदी सप्ताह, बेटा, एक राहगीर की मौत, खतरनाक, प्यार का अंजाम, रोशनी, दहेज, योग्यता, इन्वेस्टमेंट के साथ चतुर्थ भाग में आकांक्षा यादव की लघु कथाएं जैसे- अधूरी इच्छा, अरमान,बेटियाँ, चैट, अवार्ड का राज, काला आखर आदि प्रमुख आकर्षण हैं।

 
पंचम खंड में कृष्ण कुमार यादव की कहानियाँ  जैसे- आवरण, हकीकत, रिश्तों की नजाकत, शराफत इत्यदि प्रकाशित हैं। षष्ठ भाग में आकांक्षा यादव के लेख - लोक चेतना में स्वाधीनता की लय, भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा, समकालीन परिवेश में नारी विमर्श, मानव और पर्यावरण : सतत विकास और चुनौतियां प्रकाशित हैं। सप्तम खंड में कृष्ण कुमार यादव के लेख - शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत, भागो नहीं दुनिया को बदलो, राजनीति से दूर होता साहित्यिक व सांस्कृतिक विमर्श, कोई लौटा दे वो चिठ्ठियां प्रकाशित हैं।

कृष्ण कुमार यादव की कविताएं सीधे-सीधे जन मानस की आवाज बनी हुई दिखाई देती हैं। वही सुदूर अंडमान-निकोबार के आदिवासी भी उनकी लेखनी के माध्यम से आवाज पाते हैं। एक साहित्यकार की नजर में कृष्ण कुमार यादव सेलुलर जेल की आत्माओं को भी शब्द देते नजर आते हैं। कृष्ण कुमार यादव रिश्तों के अर्थशास्त्र को भी अपनी रचना में कम शब्दों में बेहतरीन तरीके से व्यक्त करते नजर आते हैं। आज का बाजार विज्ञापनों से भरा पड़ा है। ऐसे में उनकी 'विज्ञापनों का गोरखधंधा' कविता विज्ञापनों के खोखलेपन को उजागर करती नजर आती है। 'मांस का लोथड़ा' या 'बिखरते शब्द' पढ़ने से उनके अंदर की संवेदना और संस्कृति की झलक मिलती है। 'बिखरते शब्द' में वह लिखते हैं- "शब्द है तो सृजन है/साहित्य है संस्कृति है/पर लगता है/शब्द को लग गई किसी की बुरी नजर।" इसी तरह 'मां' कविता में कृष्ण कुमार यादव मां के जीवनी के हर पहलू को मां और बेटे के भावनात्मक जुड़ाव के माध्यम से शब्दों में पिरोते हैं। 'पालिश' कविता में उनके जो शब्द हैं वह जमीनी एहसास कराते हैं। कविता की शुरुआत ही एक बालक के जूता पॉलिश करने के शब्द से होती है। जिस शब्द से जूता पॉलिश करने वाला बच्चा जूता पॉलिश कराने वाले को स्नेह के साथ अपने पास बुलाता है-'साहब पॉलिश करा लो' इस एक लाइन में ही उनकी पूरी कविता का विमर्श सामने आ जाता है और उनकी रचना बाल विमर्श के नए अध्याय को खोलती है। 'ब्रेकिंग न्यूज़' कविता में वे आज की मीडिया पर करारा प्रहार करते नजर आते हैं।

आकांक्षा यादव की कविताएं संवेदना की धरातल पर तो लिखी ही गई हैं, साथ ही साथ वह नारी अस्मिता और सशक्तिकरण की बात को भी बहुत सलीके के साथ अपनी कविता में रखती नजर आती हैं। वह लिखती है - 'मुझे नहीं चाहिए/ प्यार भरी बातें/ चांद की चांदनी/ चांद से तोड़कर लाए हुए सितारे/ मुझे चाहिए बस अपना वजूद/ जहां किसी दहेज, बलात्कार,भ्रूण हत्या/का भय नहीं सताए मुझे।' अपनी कविताओं में वे स्त्री विमर्श को सशक्त करती नजर आती हैं।

 



कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव लगातार विभिन्न विधाओं में सक्रियता के साथ लिख रहे हैं और खूब प्रकाशित भी हो रहे हैं। इस युगल की कविताएं कम शब्दों में अपनी बात को व्यक्त करने में सक्षम हैं। दोनों अपने-अपने नजरिये से लघु कथाएं लिखते हैं। दोनों के कैनवास अलग-अलग हैं पर दोनों की दृष्टि लगभग समान है। कृष्ण कुमार यादव की कहानियों का कैनवास बड़ा है और उनकी कहानी एक से बढ़कर एक हैं। आकांक्षा यादव के लेख एक तरफ जहां स्त्री विमर्श के नए आयाम स्थापित करने की कोशिश करते हैं, वही भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा और प्रकृति व पर्यावरण भी उनके लिए पसंदीदा लेखन का विषय है। कृष्ण कुमार यादव का लेख 'भागो नहीं दुनिया को बदलो' राहुल सांकृत्यायन पर एक शोधपरक लेख है, जो कि उनके अपने ही जिले आज़मगढ़ के एक महँ दार्शनिक, यायावर रहे हैं। 'कोई लौटा दे वो चिट्ठियाँ' लेख में कृष्ण कुमार यादव ने बड़ी खूबसूरती से चिट्ठी-पत्री में छुपी भावनाओं और सोशल मीडिया के दौर में उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। लेख पढ़ने के दौरान व्यक्ति उन चिट्ठियों की दुनिया में खो जाता है जिनमें हम सभी के बचपन गुजरे हैं। पत्र लेखन साहित्य की भी एक विधा है और संयोगवश कृष्ण कुमार डाक सेवाओं और साहित्य दोनों से ही गहराई से जुड़े हुए हैं। 


निश्चितत: प्रतिष्ठित हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती सुमन का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक एक संग्रहणीय अंक है। इस तरह का दांपत्य अंक विरले ही देखने को मिलता है। साहित्य समाज का दर्पण है। इस दर्पण में पति-पत्नी के साहित्य को समाज के सामने लाकर 'सरस्वती सुमन' के संपादक ने एक नया विमर्श भी खोला है। साहित्य का अनुराग होने के कारण इस तरह का एक प्रयास हमने भी अपने साहित्य लेखन के दौरान 'सहचर मन' (काव्य संग्रह) 2010 में प्रकाशित कराया था, जिसमें आधी कविताएं मेरी और आधी कविताएं मेरे जीवन साथी प्रोफेसर अखिलेश चंद्र की हैं। इस तरह का प्रयास न केवल साहित्य में बल्कि दांपत्य जीवन में भी खूबसूरत स्थापना का स्वरूप रखते हैं ।

समीक्ष्य पत्रिका - सरस्वती सुमन/ मासिक हिंदी पत्रिका/ प्रधान सम्पादक -डॉ. आनंद सुमन सिंह/ सम्पादक - किशोर श्रीवास्तव/संपर्क -'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, आर्य नगर, देहरादून, उत्तराखंड-248001, मो.-7579029000, ई-मेल :saraswatisuman@rediffmail.com 


समीक्षक : प्रोफेसर (डॉ.) गीता सिंह, अध्यक्ष-स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, डी.ए.वी  पी.जी कॉलेज, आजमगढ़ (उ.प्र.), मो.-9532225244
प्रोफेसर (डॉ.) अखिलेश चन्द्र, शिक्षा संकाय, श्री गांधी पी.जी कॉलेज, मालटारी, आजमगढ़ (उ.प्र.), मो.-9415082614

Mahakumbh Prayagraj : भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को उजागर करता महाकुंभ

महाकुंभ विविध पृष्ठभूमि के लाखों व्यक्तियों को एकजुट करता है, सामाजिक सामंजस्य और सांस्कृतिक संपर्क के लिए एक स्थान स्थापित करता है। यह आयोजन पर्यटन, स्थानीय व्यवसायों के लिए समर्थन और रोजगार सर्जन के माध्यम से आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता है। आगामी 45-दिवसीय धार्मिक उत्सव 2012 के महाकुंभ की तुलना में तीन गुना बड़ा और अधिक महंगा होने का अनुमान है। हर दिन लाखों भक्तों के भाग लेने के साथ, महाकुंभ दुनिया भर में सबसे बड़ी सभाओं में से एक है, जो भारत के आध्यात्मिक महत्त्व का प्रतीक है। प्रयागराज, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियाँ मिलती हैं, का आध्यात्मिक महत्त्व बहुत अधिक है और इसे अक्सर भारतीय ग्रंथों में "सबसे प्रमुख तीर्थ स्थल" के रूप में वर्णित किया जाता है।

इस वर्ष, महाकुंभ मेला पौष पूर्णिमा की शुभ तिथि पर शुरू हुआ, जो 13 जनवरी, 2025 को हुआ और 26 फरवरी, 2025 तक चलेगा। इस वर्ष का महाकुंभ मेला विशेष रूप से विशेष है क्योंकि नक्षत्रों का संरेखण ऐसा कुछ है जो हर 144 वर्षों में केवल एक बार होता है। महाकुंभ मेला हिंदू धर्म में सबसे महत्त्वपूर्ण और पूजनीय धार्मिक समागमों में से एक है, जो हर बारह साल में चार पवित्र स्थलों पर होता है: प्रयागराज (जिसे पहले इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था) , हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। महाकुंभ मेला एक पवित्र तीर्थयात्रा है जो 12 वर्षों की अवधि में चार बार होती है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी शांतिपूर्ण सभा के रूप में मान्यता प्राप्त है।

अनगिनत तीर्थयात्री आध्यात्मिक मुक्ति और पापों की शुद्धि की तलाश में पवित्र नदियों में डुबकी लगाने के लिए इकट्ठा होते हैं। कुंभ मेले की मूल कथा पुराणों में पाई जाती है, जो प्राचीन मिथकों का संग्रह है। आम तौर पर यह माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके कुंभ को लालची राक्षसों से छीन लिया था, जिन्होंने इसे हड़पने का प्रयास किया था। कुंभ मेले की शुरुआत हज़ारों सालों से होती आ रही है, जिसका उल्लेख मौर्य और गुप्त दोनों युगों (4वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 6वीं शताब्दी ई.पू।) में मिलता है। इसे चोल, विजयनगर साम्राज्य, दिल्ली सल्तनत और सम्राट अकबर सहित मुगलों जैसे शाही परिवारों से संरक्षण प्राप्त हुआ। महाकुंभ मेले की शुरुआत 8वीं शताब्दी के विचारक आदि शंकराचार्य द्वारा दर्ज की गई थी। 19वीं शताब्दी में जेम्स प्रिंसेप जैसे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा दर्ज किए गए इस मेले का भारत की स्वतंत्रता के बाद महत्त्व बढ़ गया, यह एकता और सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। 2017 में, यूनेस्को ने इसे मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में स्वीकार किया, जो भारत की स्थायी परंपराओं को उजागर करता है।

यह त्यौहार बहुत आध्यात्मिक महत्त्व रखता है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं और रीति-रिवाजों में गहराई से समाया हुआ है। कुंभ मेले की उत्पत्ति समुद्र मंथन या समुद्र मंथन से जुड़ी है, जिसके दौरान देवताओं (देवों) और राक्षसों (असुरों) ने अमरता के अमृत को सुरक्षित करने के लिए मिलकर काम किया था। मिथक के अनुसार, इस मंथन के दौरान, अमृत से भरा एक घड़ा (कुंभ) सतह पर आया था। राक्षसों को इसे जब्त करने से रोकने के लिए, भगवान विष्णु ने मोहिनी के वेश में घड़ा लिया और भाग निकले। परिणामस्वरूप, अमृत की बूँदें चार स्थानों पर गिरीं: प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। तब से ये स्थान हिंदुओं के लिए पूजनीय तीर्थ स्थल बन गए हैं, माना जाता है कि त्यौहार के दौरान उनके जल में स्नान करने वालों को आध्यात्मिक लाभ मिलता है।

महाकुंभ मेले का प्राथमिक समारोह शाही स्नान है, जिसके दौरान लाखों भक्त महत्त्वपूर्ण समय पर पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह अभ्यास व्यक्तियों को उनके पापों से शुद्ध करता है और उन्हें पुनर्जन्म (संसार) के चक्र से मुक्त करता है, अंततः उन्हें मोक्ष या आध्यात्मिक मुक्ति की ओर ले जाता है। प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती का मिलन स्थल मोक्ष प्राप्ति के लिए विशेष रूप से प्रतिष्ठित है। अपने आध्यात्मिक महत्त्व के अलावा, महाकुंभ मेला एक जीवंत सांस्कृतिक उत्सव के रूप में कार्य करता है जो विभिन्न व्यक्तियों को एकजुट करता है। इसमें तपस्वी (साधु) , भक्त और दर्शक शामिल होते हैं जो उपवास, दान कार्य और सामूहिक प्रार्थना जैसे कई अनुष्ठानों में भाग लेते हैं। यह सभा प्रतिभागियों के बीच जाति और धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर एकजुटता की भावना को बढ़ावा देती है। यह त्यौहार पीढ़ियों से चली आ रही अपनी परंपराओं और प्रथाओं के माध्यम से भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी उजागर करता है।


महाकुंभ विविध पृष्ठभूमि के लाखों व्यक्तियों को एकजुट करता है, सामाजिक सामंजस्य और सांस्कृतिक संपर्क के लिए एक स्थान स्थापित करता है। यह आयोजन पर्यटन, स्थानीय व्यवसायों के लिए समर्थन और रोजगार सर्जन के माध्यम से आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता है। आगामी 45-दिवसीय धार्मिक उत्सव 2012 के महाकुंभ की तुलना में तीन गुना बड़ा और अधिक महंगा होने का अनुमान है। हर दिन लाखों भक्तों के भाग लेने के साथ, महाकुंभ दुनिया भर में सबसे बड़ी सभाओं में से एक है, जो भारत के आध्यात्मिक महत्त्व का प्रतीक है। प्रयागराज, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियाँ मिलती हैं, का आध्यात्मिक महत्त्व बहुत अधिक है और इसे अक्सर भारतीय ग्रंथों में "सबसे प्रमुख तीर्थ स्थल" के रूप में वर्णित किया जाता है।

महाकुंभ मेले में दुनिया भर से 400 मिलियन से अधिक आगंतुक आए। दक्षिण कोरियाई यू ट्यूबर्स और जापान, स्पेन, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के यात्रियों सहित अंतर्राष्ट्रीय तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की एक विस्तृत शृंखला इस आयोजन की भव्यता से मंत्रमुग्ध थी। संगम घाट पर, कई लोगों ने महाकुंभ के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व के बारे में जानने के लिए स्थानीय गाइडों से बातचीत की। आध्यात्मिकता और संस्कृति के इस 45-दिवसीय उत्सव ने दुनिया के सभी हिस्सों से लोगों को आस्था और आध्यात्मिकता पर केंद्रित अनुष्ठानों, प्रार्थनाओं और वार्तालापों में भाग लेने के लिए एक साथ लाया।

 - डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
 हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148,01255281381