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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

भारत में नव वर्ष के विभिन्न रूप

नव वर्ष धीरे-धीरे अपने मुकाम की ओर बढ़ रहा है. इसी के साथ उल्लास का पर्व भी आरंभ होता जाता है. कोई डांस-पार्टी इंजॉय करता है तो कोई दिन-दुखियों के साथ नव वर्ष सेलिब्रेट करता है. नव वर्ष के उद्भव की भी अपनी रोचक कहानी है. मानव इतिहास की सबसे पुरानी पर्व परम्पराओं में से एक नववर्ष है। नववर्ष के आरम्भ का स्वागत करने की मानव प्रवृत्ति उस आनन्द की अनुभूति से जुड़ी हुई है जो बारिश की पहली फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागतार्थ पक्षी के प्रथम गान पर या फिर हिम शैल से जन्मी नन्हीं जलधारा की संगीत तरंगों से प्रस्फुटित होती है।

इतिहास के गर्त में झांकें तो प्राचीन बेबिलोनियन लोग अनुमानतः 4000 वर्ष पूर्व से ही नववर्ष मनाते रहे हैं। लेकिन उस समय नववर्ष का ये त्यौहार 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी । रोम के तानाशाह जूलियस सीज़र ने ईसा पूर्व 45वें साल में जब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नववर्ष का उत्सव मनाया गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल, यानि, ईसापूर्व 46 इस्वी को 445 दिनों का करना पड़ा था।

आज विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ नववर्ष अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे । इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है। यह दिन ग्रेगेरियन कैलेंडर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता है। इसी तरह इस्लामिक कैलेंडर का नया साल मुहर्रम होता है। इस्लामी कैलेंडर एक पूर्णतया चन्द्र आधारित कैलेंडर है जिसके कारण इसके बारह मासों का चक्र 33 वर्षों में सौर कैलेंडर को एक बार घूम लेता है । इसके कारण नव वर्ष प्रचलित ग्रेगरी कैलेंडर में अलग-अलग महीनों में पड़ता है। चीनी कैलेंडर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है । यह प्रायः 21 जनवरी से 21 फरवरी के बीच पड़ता है।

***भारत में नव वर्ष के विभिन्न रूप***

भारत के भी विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है । प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है । पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगु नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग+आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह 19 मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ी नव वर्ष दीपावली के दिन होता है। गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है।भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं.इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत है। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था। विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। इस दिन गुड़ी पड़वा और उगादी के रूप में भारत के विभिन्न हिस्सों में नववर्ष मनाया जाता है। वस्तुत: भारत में नववर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है।
 
-आकांक्षा यादव

रविवार, 27 दिसंबर 2009

इन्दिरा गाँधी की तमन्ना थी कि उनको बेटी मिले

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चाहत थी कि उनकी एक पुत्री भी हो। ज्योति बसु को जवाहर लाल नेहरू ट्रस्ट से अभिभाषण के एवज में एक लाख सुपए सम्मान राशि और अन्य खर्च के लिए 1998 में प्रदान किए गए थे। ऐसे ही कुछ अनछुए पहलुओं का खुलासा पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह की हाल ही में प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक 'योवर्स सिंसीयरली' में किया गया है। पुस्तक में नटवर सिंह के कई नामी हस्तियों के साथ पत्र व्यवहार संकलित हैं। इनमें इंदिरा गांधी, पीएन हक्सर, एचवाई शारदा प्रसाद, विजय लक्ष्मी पंडित, राजीव गाँधी, ईएम फोस्टर, एम गोर्डीमेर और मुल्कराज आनंद के साथ उनके पत्राचार के विवरण शामिल हैं।

पुस्तक में नटवर सिंह ने कई महत्वपूर्ण और अनछुई जानकारियों का खुलासा किया है। जैसे कि एक पत्र में इंदिरा गांधी ने उन्हें लिख था कि 'चीन क्या सोचता या कहता है, यह महत्वपूर्ण नही है, महत्वपूर्ण यह है कि क्या करता है ? इस दृष्टि से वह उम्मीद के अनुरूप अभी भी है।

1975 में गुजरात विधानसभा भंग करने की मांग पर पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की मांग से क्षुब्ध होकर इंदिरा गाँधी ने नटवर सिंह को कए पत्र लिखा था। उस समय वे लंदन में वे उप उच्चायुक्त थे। इस पत्र में लिखा था, 'हमने मोरारजी की मांग अंशत: मान ली है.. कि कितनी मूर्खतापूर्ण बात थी इस तरह का अनशन और हमें उनकी मांग मानना.. तब भी हम काफी कठिन स्थिति में थे। मोरारजी के देहान्त के बाद के परिदृश्य के बारे में सोचकर चिंतित थे। मैं इस बात से काफी स्तब्ध थी कि कुछ (विपक्षी दल) लोगों के दावे के अनुसार उनके देहान्त के बाद विपक्ष की एकता की राह साफ हो जाएगी।'

आंध्र प्रदेश में तेलंगाना की मांग के चन्द्रशेखर राव के हाल के अनशन के अवसर पर इंदिरा गांध के पत्र का स्मरण होता है। पत्राचार में इंदिरा गांधी के मजाकिया व्यक्तित्व की झलक जनवरी, 1970 में उनके पत्र से मिलती है जब नटवर सिंह रीढ़ की हड्डी में स्लिप डिस्क से परेशान थे। इंदिरा गाँधी ने उन्हें लिखा था कि केपीएस मेनन जब ऐसी ही स्थिति में थे तो अजन्ता की गुफा के चित्रों की मुद्रा में वे कैसे कलात्मक ढंग से खड़े होते थे। नटवर सिंह की पुत्री हुई तो उन्हें बधाई देते हुए इंदिरा गाँधी ने पत्र में लिखा था कि उनकी तमन्ना थी कि उन्हें भी एक लड़की होती। भाकपा नेता हीरेन मुखर्जी का एक पत्र इस संकलन में है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि क्या यह सच है ज्योति बसु ने जवाहरलाल नेहरू ट्रस्ट से लेक्चर देने के लिए एक लाख रुपए और अन्य खर्च लिए थे।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' की चर्चा


'शब्द शिखर' पर 23 दिसंबर 2009 को प्रस्तुत पोस्ट हफ्ते भर बंद रहेंगीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 24 दिसंबर 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में आठवीं बार 'शब्द-शिखर' की चर्चा हुई है...आभार!

इससे पहले इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाओं की चर्चा अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, गजरौला टाईम्स, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार!

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

हफ्ते भर बंद रहेंगीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ

सुनने में अजीब लगता है पर यह सच है. खर्चो में कटौती की योजना के तहत तमाम कम्पनियाँ एक सप्ताह के लिए अपने दफ्तर बंद कर रही है। इस दौरान इन कार्यालयों में सिर्फ अनिवार्य काम होगा। वस्तुत: बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अब मंदी के दौर में खर्चों में कटौती के नए उपाय तलाश रही हैं और इसी क्रम में ये कदम उठाये जा रहे हैं. वित्तीय वर्ष का अंत भी मार्च में हो जायेगा, उससे पहले इन नामचीन कंपनियों को अपने को लाभ में दिखने के लिए तमाम पापड़ बेलने पड़ रहे हैं.

इंटरनेट कंपनी याहू के दुनियाभर के कार्यालय क्रिसमस से नव-वर्ष के प्रथम दिन (25 दिसंबर से 1 जनवरी) तक अर्थात एक सप्ताह के लिए बंद रहेंगे। याहू के अलावा एडोब तथा एप्पल जैसी कंपनियों ने भी छुट्टियों के दौरान अपने दफ्तर बंद रखने की घोषणा की है। एडोब और एप्पल के कार्यालय भी 24 दिसंबर से 1जनवरी तक बंद रहेंगे। याहू पूर्व में भी अपने अमेरिकी कर्मचारियों से एक सप्ताह का अवकाश लेने को कह चुकी है पर कंपनी द्वारा दफ्तर बंद रखने का अनिवार्य कदम पहली बार उठाया जा रहा है। इस कदम से कोई गलत सन्देश न जाये, इसके लिए ये आधुनिक कम्पनियाँ, परंपरागत तर्कों का सहारा ले रही हैं. कहा जा रहा है कि परंपरागत रूप से कारोबार की दृष्टि से ठंडे सप्ताह के दौरान दफ्तर बंद रखने से कर्मचारियों को फिर तरोताजा होने का मौका मिलता है और साथ ही इससे कंपनी की परिचालन लागत में कमी आती है। फ़िलहाल याहू के अमेरिकी कर्मचारी इस दौरान अवकाश ले सकते हैं या बिना वेतन की छुट्टियां ले सकते हैं। वहीं अमेरिका के बाहर के कर्मचारियों को इस दौरान स्थानीय कानून के अनुसार भुगतान किया जाएगा। गौरतलब है कि खर्चो में कटौती के उपायों के तहत याहू पहले ही 700 कर्मचारियों की छंटनी कर चुकी है।....अब देखते जाइये, आगे-आगे होता क्या है. फ़िलहाल हम निश्चिन्त हो सकते हैं, सरकारी मुलाजिम जो ठहरे और वो भी भारत में. चिंता तो वो करें जो बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करते हैं और बड़े-बड़े पैकेज उठाते हैं...पर सरकारी नौकरी में जो निश्चिन्तता है, वो बड़ी कंपनियों में नहीं. हमेशा सर पर तलवार लटकी रहती है कि कब बाज़ार के भाव गिरे और इसी के साथ बड़े-बड़े पैकेज भी औंधे मुँह गिरे. इसे कहते हैं नाम बड़े-दर्शन छोटे.

फ़िलहाल क्रिसमस और नव-वर्ष को सेलिब्रेट करने की तैयारियाँ कीजिये !!!

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

एक आरती के क्रांतिकारी रचयिता...ओम् जग जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे

ओम् जग जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करें....पूजा-आराधना किसी भी देवता की की जा रही हो, ओम जय जगदीश हरे आरती हर अवसर पर गाई जाती है। करीब डेढ़ सौ वर्ष में मंत्र और शास्त्र की तरह लोकप्रिय हो गई इस भावपूर्ण गीत आरती के रचयिता पंडित श्रद्धाराम शर्मा के बारे में कम लोगों को ही पता है। पं0 श्रद्धाराम शर्मा का जन्म 1838 में पंजाब के लुधियाना के पास फुल्लौर में हुआ थां. पिता जयदयालु अच्छे ज्योतिषी और धार्मिक प्रवृत्ति के थे. ऐसे में बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। पंडित श्रद्धाराम शर्मा हिंदी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिंदी के माध्यम से इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। उन्होंने अपने साहित्य और व्याख्यानों से सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ जबर्दस्त माहौल बनाया।

आज जिस पंजाब में सबसे ज्यादा कन्याओं की भ्रूण-हत्या होती है उसका अहसास पंडित श्रद्धाराम ने सौ साल पहले ही कर लिया था और इस विषय पर उन्होंने ‘भाग्यवती‘ उपन्यास लिखकर समाज को चेता दिया था।32 वर्ष की उम्र में पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने 1870 में ''ओम जय जगदीश'' आरती की रचना की। पं0 श्रद्धाराम की विद्वता और भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। यही नहीं धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उद्धरण देते हुए उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई।

भारतीय सन्दर्भ में महाभारत का उल्लेख करते हुए वे ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे। पंडित श्रद्धाराम शर्मा की गतिविधियों से तंग आकर 1865 में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही। पं0 श्रद्धाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में ‘सिखों दे राज दी विथिया‘ और पंजाबी बातचीत जैसी किताबें लिखकर मानों क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही किताब से वे पंजाबी साहित्य में प्रतिष्ठित हो गए। इस पुस्तक में सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सारगर्भित ढंग से बताया गया था। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।एक ईसाई पादरी फादर न्यूअन जो पं0 श्रद्धाराम के विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को कुछ ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पंडित श्रद्धाराम ने पादरी के कहने पर बाइबिल के कुछ अंशों का गुरूमुखी में अनुवाद भी किया था। पं0 श्रद्धाराम का निधन 1881 में लाहौर में हुआ था। आज हर घर में "जय जगदीश हरे" आरती गई जाती है, यहाँ तक की युवा भी बड़ी तल्लीनता से इसे गाती है, पर अधिकतर को इसके रचयिता का नाम तक पता नहीं.

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

पाँच वर्षों का यह सुखद सफर !!


28 नवम्बर, 2009 को हमारे वैवाहिक जीवन की पाँचवी वर्षगाँठ थी. हम दोनों उस दिन दो भिन्न जगहों पर थे और नेट से भी दूर थे. पर इस सुखद पल की यादों को सँजोने हेतु पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव जी ने अपने ब्लॉग "शब्द सृजन की ओर" पर कुछ शब्द लिखे हैं, उन्हें यहाँ साधिकार (साभार नहीं) प्रस्तुत कर रही हूँ-



28 नवम्बर का दिन हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है. इस वर्ष इस तिथि को सबसे महत्वपूर्ण बात रही कि हमारी शादी के पाँच साल पूरे हो गए। 28 नवम्बर, 2004 (रविवार) को मैं और आकांक्षा जीवन के इस अनमोल पवित्र बंधन में बंधे थे. वक़्त कितनी तेजी से करवटें बदलता रहा, पता ही नहीं चला. सरकारी भाषा में कहें तो एक पंचवर्षीय योजना मानो पूरी हो गई. सुख-दुःख के बीच सफलता के तमाम आयाम हमने छुए. कभी जिंदगी सरपट दौड़ती तो कई बार ब्रेक लग जाता. पिछले साल का हादसा अभी भी नहीं भूलता. जब शादी की सालगिरह के अगले दिन ही मेरा एक एक्सिडेंट हुआ और बाएं हाथ
का आपरेशन करना पड़ा. एक सप्ताह के लिए मैं हॉस्पिटल में भी रहा. इस बार भी शादी की सालगिरह पर हम साथ नहीं थे, मैं ट्रेनिंग के सिलसिले में बाहर था....पता नहीं यह कैसा संयोग है, पर पाँच साल के इस सफ़र में सालगिरह का दिन हमारे लिए बहुत अजीब रहा. दो बार ट्रेनिंग, एक बार बॉस के साथ एक मीटिंग में काफी रात हो जाना, एक बार सालगिरह के अगले दिन एक्सिडेंट....कुल मिला-जुलाकर अब तक एक ही सालगिरह हम लोग कायदे से उसी दिन सेलिब्रेट कर पाए हैं. हमेशा अपनी सालगिरह सेलिब्रेट करने के लिए हमें किसी अगली तिथि का चुनाव करना पड़ता है, पर वह दिन सिर्फ हमारा होता है. कई बार हम लोग मजाक में कहते भी हैं की विभाग वालों ने हमारी सालगिरह की तारीख नोट कर रखी है, कोई भी ट्रेनिंग और महत्वपूर्ण मीटिंग इसी दिन होगी.


ऐसा ही अजीब संयोग हमारी शादी के बारे में भी है. मैं जहाँ भी पोस्टिंग पर जाता, वहाँ आकांक्षा जी के भ्राता श्री लोगों की भी पोस्टिंग होती. जब मैं पोस्टल स्टाफ कालेज, गाज़ियाबाद में ट्रेनिंग कर रहा था तो इनके बड़े भ्राता श्री नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी में थे, पहली पोस्टिंग पर सूरत गया तो इनके भ्राता श्री गुजरात कैडर के IAS अधिकारी थे, वहां से ट्रांसफर होकर लखनऊ में असिस्टेंट पोस्टमास्टर जनरल बना तो इनके एक भ्राता श्री वहां पुलिस उपाधीक्षक थे.....फिर ये रिश्ता होने से कौन रोक सकता था. खैर हम लोगों की शादी 28 नवम्बर, 2004 को धूमधाम के साथ सारनाथ-बनारस में हुई, एक साथ भगवान शंकर जी और भगवान बुद्ध जी का आशीर्वाद मिला। कानपुर में पोस्टिंग के दौरान वर्ष 2006 में प्यारी बिटिया अक्षिता का जन्म हुआ.

एक-दूसरे के साथ बिताये गए ये पाँच साल सिर्फ इसलिए नहीं महत्वपूर्ण हैं कि हमने पति-पत्नी का सम्बन्ध निभाया, बल्कि इसलिए भी कि हमने एक-दूसरे को समझा, सराहा और संबल दिया. अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रशासनिक व्यस्तताओं के बीच कैसे समय निकल लेते हैं तो इसके पीछे आकांक्षा जी का ही हाथ है. यदि उन्होंने मेरी रचनात्मकता को सपोर्ट नहीं किया होता तो मैं आज एक अदद सिविल सर्वेंट मात्र होता, लेखक-कवि-साहित्यकार के तमगे मेरे साथ नहीं लगे रहते. यह हमारा सौभाग्य है कि हम दोनों साहित्य प्रेमी हैं और कई सामान रुचियों के कारण कई मुद्दों पर खुला संवाद भी कर लेते हैं।

शादी की सालगिरह पर तमाम मित्रजनों-सम्बन्धियों की शुभकामनायें तमाम माध्यमों से प्राप्त हुई...आप सभी का आभार. हिंदी ब्लॉगरों के जन्मदिन ब्लॉग पर भी इस दिन शुभकामनायें दी गईं, आभारी हैं हम दोनों। आप सभी का स्नेह बना रहे ....!!

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

'बाल साहित्य समीक्षा' का आकांक्षा यादव विशेषांक

बच्चों के समग्र विकास में बाल साहित्य की सदैव से प्रमुख भूमिका रही है। बाल साहित्य बच्चों से सीधा संवाद स्थापित करने की विधा है। बाल साहित्य बच्चों की एक भरी-पूरी, जीती-जागती दुनिया की समर्थ प्रस्तुति और बालमन की सूक्ष्म संवेदना की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि बाल साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण व विषय की गम्भीरता के साथ-साथ रोचकता व मनोरंजकता का भी ध्यान रखना होता है। समकालीन बाल साहित्य केवल बच्चों पर ही केन्द्रित नहीं है अपितु उनकी सोच में आये परिवर्तन को भी बखूबी रेखाकित करता है। सोहन लाल द्विवेदी जी ने अपनी कविता ‘बड़ों का संग’ में बाल प्रवृत्ति पर लिखा है कि-''खेलोगे तुम अगर फूल से तो सुगंध फैलाओगे।/खेलोगे तुम अगर धूल से तो गन्दे हो जाओगे/कौवे से यदि साथ करोगे, तो बोलोगे कडुए बोल/कोयल से यदि साथ करोगे, तो दोगे तुम मिश्री घोल/जैसा भी रंग रंगना चाहो, घोलो वैसा ही ले रंग/अगर बडे़ तुम बनना चाहो, तो फिर रहो बड़ों के संग।''

आकांक्षा जी बाल साहित्य में भी उतनी ही सक्रिय हैं, जितनी अन्य विधाओं में। बाल साहित्य बच्चों को उनके परिवेश, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, संस्कारों, जीवन मूल्य, आचार-विचार और व्यवहार के प्रति सतत् चेतन बनाने में अपनी भूमिका निभाता आया है। बाल साहित्यकार के रूप में आकांक्षा जी की दृष्टि कितनी व्यापक है, इसका अंदाजा उनकी कविताओं में देखने को मिलता है। इसी के मद्देनजर कानपुर से डा0 राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित-प्रकाशित ’बाल साहित्य समीक्षा’ ने नवम्बर 2009 अंक आकांक्षा यादव जी पर विशेषांक रूप में केन्द्रित किया है। 30 पृष्ठों की बाल साहित्य को समर्पित इस मासिक पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर बाल साहित्य की आशा को दृष्टांकित करता आकांक्षा यादव जी का सुन्दर चित्र सुशोभित है। इस विशेषांक में आकांक्षा जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर कुल 9 रचनाएं संकलित हैं।

’’सांस्कृतिक टाइम्स’’ की विद्वान सम्पादिका निशा वर्मा ने ’’संवेदना के धरातल पर विस्तृत होती रचनाधर्मिता’’ के तहत आकांक्षा जी के जीवन और उनकी रचनाधर्मिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है तो उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुडे दुर्गाचरण मिश्र ने आकांक्षा जी के जीवन को काव्य पंक्तियों में बखूबी गूंथा है। प्रसि़द्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु जी ने आकांक्षा जी के बाल रचना संसार को शब्दों में भरा है तो बाल-मन को विस्तार देती आकांक्षा यादव की कविताओं पर चर्चित समालोचक गोवर्धन यादव जी ने भी कलम चलाई है। डा0 कामना सिंह, आकांक्षा यादव की बाल कविताओं में जीवन-निर्माण का संदेश देखती हैं तो कविवर जवाहर लाल ’जलज’ उनकी कविताओं में प्रेरक तत्वों को परिलक्षित करते हैं।

वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा0 शकुन्तला कालरा, आकांक्षा जी की रचनाओं में बच्चों और उनके आस-पास की भाव सम्पदा को चित्रित करती हैं, वहीं चर्चित साहित्यकार प्रो0 उषा यादव भी आकांक्षा यादव के उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य के लिए अशेष शुभकामनाएं देती हैं। राष्ट्भाषा प्रचार समिति-उ0प्र0 के संयोजक डा0 बद्री नारायण तिवारी, आकांक्षा यादव के बाल साहित्य पर चर्चा के साथ दूर-दर्शनी संस्कृति से परे बाल साहित्य को समृद्ध करने पर जोर देते हैं, जो कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बेहद प्रासंगिक भी है। साहित्य साधना में सक्रिय सर्जिका आकांक्षा यादव के बहुआयामी व्यक्तित्व को युवा लेखिका डा0 सुनीता यदुवंशी बखूबी रेखांकित करती हैं। बचपन और बचपन की मनोदशा पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत आकांक्षा जी का आलेख ’’खो रहा है बचपन’’ बेहद प्रभावी व समयानुकूल है।

आकांक्षा जी बाल साहित्य में नवोदित रचनाकार हैं, पर उनका सशक्त लेखन भविष्य के प्रति आश्वस्त करता हैं। तभी तो अपने संपादकीय में डा0 राष्ट्रबन्धु लिखते हैं-’’बाल साहित्य की आशा के रूप में आकांक्षा यादव का स्वागत कीजिए, उन जैसी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का रास्ता दीजिए। फूलों की यही नियति है।’’ निश्चिततः ’बाल साहित्य समीक्षा’ द्वारा आकांक्षा यादव पर जारी यह विशेषांक बेहतरीन रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक साथ स्थापित व नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहन देना डाॅ0 राष्ट्रबन्धु जी का विलक्षण गुण हैं और इसके लिए डा0 राष्ट्रबन्धु जी साधुवाद के पात्र हैं।

समीक्ष्य पत्रिका-बाल साहित्य समीक्षा (मा0) सम्पादक-डा0 राष्ट्रबन्धु,, मूल्य 15 रू0, पता-109/309, रामकृष्ण नगर, कानपुर-208012
समीक्षक- जवाहर लाल ‘जलज‘, ‘जलज निकुंज‘ शंकर नगर, बांदा (उ0प्र0)

सोमवार, 16 नवंबर 2009

राजस्थान पत्रिका में 'शब्द-शिखर' की चर्चा


''शब्द शिखर'' पर 7 नवम्बर 2009 को प्रस्तुत बाल-कविता 'करें सबका सम्मान' को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'राजस्थान पत्रिका', जयपुर संस्करण के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग चंक' में 13 नवम्बर 2009 को स्थान दिया गया है. यह जानकारी 'प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा' द्वारा प्राप्त हुई. इससे पहले इस ब्लॉग पर व अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित आकांक्षा यादव की रचनाओं की चर्चा अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, गजरौला टाईम्स, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार!

रविवार, 15 नवंबर 2009

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा


''शब्द शिखर'' पर 13 नवम्बर 2009 को बाल दिवस पर प्रस्तुत विशेष लेख "खो रहा है बचपन" को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने "बच्चे कुम्ह्लायेंगें, तो राष्ट्र क्या खिलेगा" शीर्षक से 14 नवम्बर 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में सातवीं बार शब्द-शिखर की चर्चा हुई है...आभार!

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

खो रहा है बचपन (बाल-दिवस पर विशेष)

पं0 नेहरू से मिलने एक व्यक्ति आये। बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा-’’पंडित जी आप 70 साल के हो गये हैं लेकिन फिर भी हमेशा गुलाब की तरह तरोताजा दिखते हैं। जबकि मैं उम्र में आपसे छोटा होते हुए भी बूढ़ा दिखता हूँ।’’ इस पर हँसते हुए नेहरू जी ने कहा-’’इसके पीछे तीन कारण हैं।’’ उस व्यक्ति ने आश्चर्यमिश्रित उत्सुकता से पूछा, वह क्या ? नेहरू जी बोले-’’पहला कारण तो यह है कि मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, जिससे मुझे लगता है कि मैं भी उनके जैसा हूँ। दूसरा कि मैं प्रकृति प्रेमी हूँ और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरना, चाँद, सितारे सभी से मेरा एक अटूट रिश्ता है। मैं इनके साथ जीता हूँ और ये मुझे तरोताजा रखते हैं।’’ नेहरू जी ने तीसरा कारण दुनियादारी और उसमें अपने नजरिये को बताया-’’दरअसल अधिकतर लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसी के बारे में सोचकर अपना दिमाग खराब कर लेते हैं। पर इन सबसे मेरा नजरिया बिल्कुल अलग है और छोटी-छोटी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता।’’ इसके बाद नेहरू जी खुलकर बच्चों की तरह हँस पड़े। यहाँ बचपन की महत्ता को दर्शाती किसी गीतकार द्वारा लिखी गई पंक्तियाँ याद आती हैं -

ये दौलत भी ले लो
ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वे कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।

बचपन एक ऐसी अवस्था होती है, जहाँ जाति-धर्म-क्षेत्र कोई मायने नहीं रखते। बच्चे ही राष्ट्र की आत्मा हैं और इन्हीं पर अतीत को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी भी है। बच्चों में ही राष्ट्र का वर्तमान रूख करवटंे लेता है तो इन्हीं में भविष्य के अदृश्य बीज बोकर राष्ट्र को पल्लवित-पुष्पित किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश अपने देश में इन्हीं बच्चों के शोषण की घटनाएं नित्य-प्रतिदिन की बात हो गयी हंै और इसे हम नंगी आंखों से देखते हुए भी झुठलाना चाहते हैं- फिर चाहे वह निठारी कांड हो, स्कूलांे में अध्यापकांे द्वारा बच्चों को मारना-पीटना हो, बच्चियों का यौन शोषण हो या अनुसूचित जाति व जनजाति से जुड़े बच्चों का स्कूल में जातिगत शोषण हो। हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से नई दिल्ली में आयोजित प्रतियोगिता के दौरान कई बच्चों ने बच्चों को पकड़ने वाले दैत्य, बच्चे खाने वाली चुड़ैल और बच्चे चुराने वाली औरत इत्यादि को अपने कार्टून एवं पेन्ंिटंग्स का आधार बनाया। यह दर्शाता है कि बच्चों के मनोमस्तिष्क पर किस प्रकार उनके साथ हुये दुव्र्यवहार दर्ज हैं, और उन्हें भय में खौफनाक यादों के साथ जीने को मजबूर कर रहे हैं।

यहाँ सवाल सिर्फ बाहरी व्यक्तियों द्वारा बच्चों के शोषण का नहीं है बल्कि घरेलू रिश्तेदारों द्वारा भी बच्चों का खुलेआम शोषण किया जाता है। हाल ही में केन्द्र सरकार की ओर से बाल शोषण पर कराये गये प्रथम राष्ट्रीय अध्ययन पर गौर करें तो 53.22 प्रतिशत बच्चों को एक या उससे ज्यादा बार यौन शोषण का शिकार होना पड़ा, जिनमें 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियाँ हैं। 22 प्रतिशत बच्चों ने अपने साथ गम्भीर किस्म और 51 प्रतिशत ने दूसरे तरह के यौन शोषण की बात स्वीकारी तो 6 प्रतिशत को जबरदस्ती यौनाचार के लिये मारा-पीटा भी गया। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि यौन शोषण करने वालों में 50 प्रतिशत नजदीकी रिश्तेदार या मित्र थे। शारीरिक शोषण के अलावा मानसिक व उपेक्षापूर्ण शोषण के तथ्य भी अध्ययन के दौरान उभरकर आये। हर दूसरे बच्चे ने मानसिक शोषण की बात स्वीकारी, जहाँ 83 प्रतिशत जिम्मेदार माँ-बाप ही होते हैं। निश्चिततः यह स्थिति भयावह है। एक सभ्य समाज में बच्चों के साथ इस प्रकार की स्थिति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।

बालश्रम की बात करें तो आधिकारिक आंँकड़ों के मुताबिक भारत में फिलहाल लगभग 5 करोड़ बाल श्रमिक हैं। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक होने पर चिन्ता व्यक्त की है। ऐसे बच्चे कहीं बाल-वेश्यावृत्ति में झांेके गये हैं या खतरनाक उद्योगों या सड़क के किनारे किसी ढाबेे में जूठे बर्तन धो रहे होते हैं या धार्मिक स्थलों व चैराहों पर भीख माँगते नजर आते हैंेे अथवा साहब लोगों के घरों में दासता का जीवन जी रहे होते हैं। सरकार ने सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा बच्चों को घरेलू बाल मजदूर के रूप में काम पर लगाने के विरुद्ध एक निषेधाज्ञा भी जारी की पर दुर्भाग्य से सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, नेतागण व बुद्धिजीवी समाज के लोग ही इन कानूनों का मखौल उड़ा रहे हैं। अकेले वर्ष 2006 में देश भर में करीब 26 लाख बच्चे घरों या अन्य व्यवसायिक केन्द्रों में बतौर नौकर काम कर रहे थे। गौरतलब है कि अधिकतर स्वयंसेवी संस्थायें या पुलिस खतरनाक उद्योगों में कार्य कर रहे बच्चों को मुक्त तो करा लेती हैं पर उसके बाद उनकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं। नतीजन, ऐसे बच्चे किसी रोजगार या उचित पुनर्वास के अभाव में पुनः उसी दलदल में या अपराधियों की शरण में जाने को मजबूर होते हैं।

ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिये संविधान में विशिष्ट उपबन्ध नहीं हंै। संविधान के अनुच्छेद 15(3) में बालकों के लिये विशेष उपबन्ध करने हेतु सरकार को शक्तियाँ प्रदत्त की गयी हंै। अनुच्छेद 23 बालकों के दुव्र्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध करता है। इसके तहत सरकार का कर्तव्य केवल बन्धुआ मजदूरों को मुक्त करना ही नहीं वरन् उनके पुनर्वास की उचित व्यवस्था भी करना है। अनुच्छेद 24 चैदह वर्ष से कम उम्र के बालकों के कारखानों या किसी परिसंकटमय नियोजन में लगाने का प्रतिषेध करता है। यही नहीं नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद 39 में स्पष्ट उल्लिखित है कि बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर उन्हें ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों। इसी प्रकार बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दी जायें और बालकों की शोषण से तथा नैतिक व आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाय। संविधान का अनुच्छेद 45 आरम्भिक शिशुत्व देखरेख तथा 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये शिक्षा हेतु उपबन्ध करता है। इसी प्रकार मूल कर्तव्यों में अनुच्छेद 51(क) में 86वें संशोधन द्वारा वर्ष 2002 में नया खंड (ट) अंतःस्थापित करते हुये कहा गया कि जो माता-पिता या संरक्षक हैं, 6 से 14 वर्ष के मध्य आयु के अपने बच्चों या, यथा - स्थाति अपने पाल्य को शिक्षा का अवसर प्रदान करें। संविधान के इन उपबन्धों एवं बच्चों के समग्र विकास को वांछित गति प्रदान करने के लिये 1985 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन महिला और बाल विकास विभाग गठित किया गया। बच्चों के अधिकारों और समाज के प्रति उनके कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए 9 फरवरी 2004 को ‘राष्ट्रीय बाल घोषणा पत्र’ को राजपत्र में अधिसूचित किया गया, जिसका उद्देश्य बच्चों को जीवन जीने, स्वास्थय देखभाल, पोषाहार, जीवन स्तर, शिक्षा और शोषण से मुक्ति के अधिकार सुनिश्चित कराना है। यह घोषणापत्र बच्चों के अधिकारों के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय समझौते (1989) के अनुरूप है, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं। यही नहीं हर वर्ष 14 नवम्बर को नेहरू जयन्ती को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मुसीबत में फँसे बच्चों हेतु चाइल्ड हेल्प लाइन-1908 की शुरुआत की गई है। 18 वर्ष तक के जरुरत मन्द बच्चे या फिर उनके शुभ चिन्तक इस हेल्प लाइन पर फोन करके मुसीबत में फंसे बच्चों को तुरन्त मदद दिला सकते हैं। यह हेल्प लाइन उन बच्चों की भी मदद करती है जो बालश्रम के शिकार हैं। हाल ही में भारत सरकार द्वारा 23 फरवरी 2007 को ‘बाल आयोग’ का गठन भी किया गया है। बाल आयोग बनाने के पीछे बच्चों को आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, उत्पीड़न, घरेलू हिंसा अश्लील साहित्य व वेश्यावृत्ति, एड्स, हिंसा, अवैध व्यापार व प्राकृतिक विपदा से बचाने जैसे उद्देश्य निहित हैं। बाल आयोग, बाल अधिकारों से जुड़े किसी भी मामले की जाँच कर सकता है और ऐसे मामलों में उचित कार्यवाही करने हेतु राज्य सरकार या पुलिस को निर्देश दे सकता है। इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो कहीं न कहीं इसके लिये समाज भी दोषी है। कोई भी कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर सकता, वह मात्र एक राह दिखाता है। जरूरत है कि बच्चों को पूरा पारिवारिक-सामाजिक-नैतिक समर्थन दिया जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने में अपना योगदान कर सकें।

कई देशों में तो बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सर्वप्रथम नार्वे ने 1981 में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की नियुक्ति की। कालान्तर में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन 1993, स्पेन (1996), फिनलैण्ड इत्यादि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की। लोकपाल का कर्तव्य है कि बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना तथा उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्श में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं एवं जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं। यही नहीं वे बच्चों और युवाओं के साथ निरन्तर सम्वाद कायम रखते हैं, ताकि उनके दृष्टिकोण और विचारों को समझा जा सके। बच्चों के प्रति बढ़ते दुव्र्यवहार एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की माँग की जा रही है।पर मूल प्रश्न यह है कि इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। कोई भी कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर सकता, वह तो मात्र एक राह दिखाता है। जरूरत है कि बच्चों को पूरा पारिवारिक-सामाजिक-नैतिक समर्थन दिया जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने में अपना योगदान कर सकें।

आज जरूरत है कि बालश्रम और बाल उत्पीड़न की स्थिति से राष्ट्र को उबारा जाये। ये बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नेतृत्वकर्ता हैं। उन अभिभावकों को जो कि तात्कालिक लालच में आकर अपने बच्चों को बालश्रम में झोंक देते हैं, भी इस सम्बन्ध में समझदारी का निर्वाह करना पड़ेगा कि बच्चों को शिक्षा रूपी उनके मूलाधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। गैर सरकारी संगठनों और सरकारी मशीनरी को भी मात्र कागजी खानापूर्ति या मीडिया की निगाह में आने के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहिये वल्कि उनका उद्देश्य इनकी वास्तविक स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना होना चाहिये। आज यह सोचने की जरूरत है कि जिन बच्चों पर देश के भविष्य की नींव टिकी हुई है, उनकी नींव खुद ही कमजोर हो तो वे भला राष्ट्र का बोझ क्या उठायेंगे। अतः बाल अधिकारों के प्रति सजगता एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र की प्रथम आवश्यकता है।
 

रविवार, 8 नवंबर 2009

करें सबका सम्मान (बाल-कविता)

हम मानवता के पुजारी
कभी न हम हिम्मत हारें
आगे ही नित् बढ़ते जायें
अपने प्राण देशहित वारें।

हरदम रखें हौसला बुलंद
देश की हम बनें तकदीर
हमको कोई कम न समझे
बदल सकते हम तस्वीर।

नफरत और द्वेष मिटाकर
प्रेम-सौहार्द्र का करें मान
ऊँच-नीच का भेद मिटाकर
करें हम सबका सम्मान।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

चाँद पे निकला पानी

(आज सुबह के समय घर के सामने लॉन में बैठी थी कि हमारी बिटिया अक्षिता ने कुछ तुकबंदी आरंभ कर दी. जब शब्दों पर गौर किया तो वह चाँद पे निकला पानी को लेकर अपनी धुन में गाए जा रही थी. बस बैठे-बैठे हमने भी अक्षिता के शब्दों को सहेज दिया और इस रूप में यह बाल-गीत प्रस्तुत है-)::)

नानी सुनाए कहानी,
कितनी अद्भुत बानी।
लेकर बैठी तकली,
चाँद पे बुढ़िया रानी।

चाँद पे निकला पानी,
सुनकर हुई हैरानी।
बड़ी होकर जाऊँगी,
चाँद पे पीने पानी।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

प्रकृति और मानव के बीच तादात्म्य स्थापित करता छठ-पर्व

भारतीय संस्कृति में त्यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्रभर नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। माना जाता है कि अमावस्या के छठवें दिन ही अग्नि-सोम का समान भाव से मिलन हुआ तथा सूर्य की सातों प्रमुख किरणें संजीवनी वर्षाने लगी। इसी कारण इस दिन प्रातः आकाश में सूर्य रश्मियों से बनने वाली शक्ति प्रतिमा उपासना के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वस्तुतः शक्ति उपासना में षष्ठी कात्यायिनी का स्वरूप है जिसकी पूजा नवरात्रि के छठवें दिन होती है। छठ के पावन पर्व पर सौभाग्य, सुख-समृद्धि व पुत्रों की सलामती के लिए प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं। वैसे भी सूर्य समूचे सौर्यमण्डल के अधिष्ठाता हैं और पृथ्वी पर ऊर्जा व जीवन के स्रोत कहा जाता है कि सूर्य की साधना वाले इस पर्व में लोग अपनी चेतना को जागृत करते हैं और सूर्य से एकाकार होने की अनुभूति प्राप्त कर आनंदित होते है।

भारतीय संस्कृति मंे समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादाद्म्य स्थापित करते हैं। जब छठ पर्व पर महिलाएँ गाती हैं- कौने कोखी लिहले जनम हे सूरज देव या मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया....... तो प्रकृति से लगाव खुलकर सामने आता है। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकड़ियों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीवाली में क्यों होती है लक्ष्मी-गणेश की पूजा

दीपावली को दीपों का पर्व कहा जाता है और इस दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि दीपावली मूलतः यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग-बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै।

ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यह महत्वपूर्ण है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में जहाँ देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

प्रसन्नता भरे रंगों की अभिव्यक्ति है रंगोली

रंगोली किसे नहीं भाती। भारतीय संस्कृति में शुभ कार्यों एवं रंगोली का अनन्य संबंध है। होली हो या दीवाली, रंगोली के बिना अधूरी ही मानी जाती है.रंगोली एक संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ है ’रंगों के द्वारा अभिव्यक्ति।’ रंगों से सजी रंगोली वास्तव में प्रसन्नता की भी अभिव्यक्ति है। उत्सवों के दौरान फर्श पर कच्चे रंगों से बनाई जाने वाली रंगोली एक हिंदू लोककला है। इसका जिक्र पुराणों में भी मिलता है। प्राचीन भारत में इसे मुख्य द्वार पर अतिथियों के स्वागत हेतु बनाया जाता था। यह ‘अतिथि देवो भव‘ की परंपरा का निर्वाह करता है। आज विभिन्न त्यौहारों-उत्सवों पर रंगोली बनाना भी इसी परंपरा से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसी दौरान लोग एक-दूसरे के घर अतिथि के रूप में उपहार इत्यादि लेकर शुभकामनाएं अर्पित करने पहुँचते हैं।

किंवदंतियों के अनुसार रंगोली का उद्भव भगवान ब्रह्मा के एक वचन से जोड़ा जाता है। इसके अनुसार एक राज्य के प्रमुख पुरोहित के पुत्र की मृत्यु से दुखी राजा व प्रजा ने भगवान ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे उसे जीवित कर दें। भगवान ब्रह्मा ने कहा कि यदि फर्श पर कच्चे रंगों से मुख्य पुरोहित के पुत्र की आकृति बनायी जायेगी तो वह उसमें प्राण डाल देंगे और ऐसा ही हुआ। इस मान्यता के अनुसार तब से ही आटे, चावल, प्राकृतिक रंगों एवं फूलों की पंखुड़ियों के द्वारा भगवान ब्रह्मा को धन्यवाद स्वरूप रंगोली बनाने की परंपरा आरम्भ हो गयी।

रंगोली की परंपरा का आरम्भ मूलतः महाराष्ट्र से माना जाता है। फिलहाल यह अनुपम परंपरा पूरे देश में प्रचालित हो चुकी है। दक्षिण भारत में रंगोली को कोलम, उत्तर भारत में चैर पूरना, राजस्थान में मांडणा, बिहार में अरिपन अथवा अइपन एवं पश्चिम बंगाल व उड़ीसा में अल्पना के रूप में जाना जाता है। रंगोली बनाने में पिसे हुए सूखे प्राकृतिक कच्चे रंगों को आटे में मिलाकर फर्श में सुन्दर आकृतियाँ बनायी जाती हैं। रंगोली बनाने में मूलतः अंगूठे और उंगली की चुटकी का इस्तेमाल किया जाता है परन्तु उपभोक्तावाद के इस दौर में रंगोली बनाने के लिए अब विशिष्ट किस्म के रोलर भी बाजार में उपलब्ध हैं।
 
...तो आप भी इस दीवाली पर रंगोली बनाइये और आतिशबाजी के रंगों के साथ इस रंग का भी आनंद उठाइए !!
 
-आकांक्षा यादव

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

‘इंगेजमेंट रिंग‘ की जगह ‘इंगेजमेंट बैण्ड‘

पिछले दिनों एक पारिवारिक मित्र के यहाँ होने जा रहे इंगेजमेंट हेतु उनके साथ रिंग खरीदने गई तो पता चला कि यह चलन तो अब पुराना हो चला है। अब दौर है इंगेजमेंट बैण्ड का। जब इस संबंध में ज्वैलर से बात की तो कई बातें सामने आईं, जिन्हें इस पोस्ट के माध्यम से शेयर कर रही हूँ।

सगाई की अंगूठी हर कोई सहेज कर रखता है। आखिर इससे एक अनूठे बंधन की शुरूआत जो होती है। वक्त के साथ अब इंगेजमेंट रिंग की जगह इंगेजमेंट बैण्ड सगाई की शान बना हुआ है। सोबर और स्मार्ट लुक की वजह से युवाओं के बीच ये बैण्ड काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि इनका लुक आम अंगूठियों की तरह तड़क-भड़क वाला नहीं होता है। हालांकि अभी भी तमाम युवा इंगेजमेंट बैण्ड में पीले सोने का बेस ही पसंद कर रहे हैं पर तमाम लोगों को व्हाइट गोल्ड का बेस भा रहा है। इंगेजमेंट बैण्ड में सबसे बेहतरीन लुक प्लैटिनम का आता है। लेकिन यह हर किसी के खर्च के अंतर्गत आता भी नहीं। व्हाइट गोल्ड से बने इंगेजमेंट बैण्ड थोड़ा सस्ते में ही मिल जाते हैं। रीमिक्स के इस दौर में पीले सोने के साथ व्हाइट गोल्ड, व्हाइट गोल्ड पर रोडियम पालिश और व्हाइट गोल्ड के साथ कापर गोल्ड का मिश्रण भी फैशन में है। इनमें डायमण्ड का इस्तेमाल भी काफी पसंद किया जा रहा है। खूबसूरत आकार में दिखने वाले इन इंगेजमेंट बैण्ड में ऊपर से चैड़े और नीचे से पतले आकार वाले ‘ब्राड-टु-नैरो‘ और ‘नैरो-टु-ब्राड‘ बैण्ड का खूब चलन है।‘ लोरल पैटर्न वाले पतले बैण्ड भी लोगों की पसंद है। इनके निचले हिस्से में सोने का जालीदार फ्लोरल वर्क होता है और ऊपर डायमण्ड का जड़ाऊ लोरल पैटर्न मौजूद होता है। ये आम आदमी के लिए 7,000 रूपये से लेकर रईसो के लिए 40 लाख रूपए तक के मूल्य में आते हैं।

तो उन महानुभावों के लिए खुशखबरी है जो इंगेजमेंट रिंग की जगह कुछ नया प्रयोग देखना चाहते हैं और अपने को फैशन की इस रीमिक्स दुनिया के साथ कदमताल करते देखना चाहते हैं।

--आकांक्षा यादव

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

प्रेम : एक अनसुलझा रहस्य

प्यार क्या है। यह एक बड़ा अजीब सा प्रश्न है। पिछले दिनों इमरोज जी का एक इण्टरव्यू पढ़ रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब वे अमृता प्रीतम के लिए कुछ करते थे तो किसी चीज की आशा नहीं रखते थे। जाहिर है प्यार का यही रूप भी है, जिसमें व्यक्ति चीजें आत्मिक खुशी के लिए करता है न कि किसी अपेक्षा के लिए।
 
पर क्या वाकई यह प्यार अभी जिन्दा है ? हम वाकई प्यार में कोई अपेक्षा नहीं रखते। यदि रखते हैं तो हम सिर्फ रिश्ते निभाते हैं, प्यार नहीं? क्या हम अपने पति, बच्चों, माँ-पिता, भाई-बहन, से कोई अपेक्षा नहीं रखते।
 
...सवाल बड़ा जटिल है पर प्यार का पैमाना क्या है? यदि किसी दिन पत्नी या प्रेमिका  ने बड़े मन से खाना बनाया और पतिदेव या प्रेमी ने तारीफ के दो शब्द तक नहीं कहे, तो पत्नी का असहज हो जाना स्वाभाविक है। अर्थात् पत्नी/प्रेमिका अपेक्षा रखती है कि उसके अच्छे कार्यों को रिकगनाइज किया जाय। यही बात पति या प्रेमी पर भी लागू होती है। वह चाहे मैनर हो या औपचारिकता हमारे मुख से अनायास ही निकल पड़ता है- थैंक्यू या इसकी क्या जरूरत थी। यहाँ तक की आपसी रिश्तों में भी ये चीजें जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं। जीवन की इस भागदौड़ में ये छोटे-छोटे शब्द एक आश्वस्ति सी देते हैं।
 
...पर अभी भी मैं कन्फ्यूज हूँ कि क्या प्यार में अपेक्षायें नहीं होती हैं? सिर्फ दूसरे की खुशी अर्थात् स्व का भाव मिटाकर चाहने की प्रवृत्ति ही प्यार कही जायेगी।
 
...अभी भी मेरे लिए प्रेम एक अनसुलझा रहस्य है।
 
-आकांक्षा यादव

सोमवार, 28 सितंबर 2009

सिर्फ रावण का पुतला जलाने से क्या होगा ??

....विजयदशमी पर एक सवाल बार-बार मेरे जेहन में आता है कि हम हर साल रावण को जलाते हैं, पर अगले साल वह सज-धज के साथ अपनी कद-काठी और बढ़ाकर हमारे बीच कैसे आ जाता है. कहीं हम मात्र पुतलों को ही जलाकर तो इतिश्री नहीं कर ले रहे हैं. जरुरत है कि हम पुतले को नहीं बल्कि समाज से अन्याय, अंहकार, विषमता, भ्रष्टाचार को मिटायें. हम रोज देखते हैं कि रावण के पुतले का कद बड़ा करने की होड़ बढ़ रही है, पर राम की सुधि कोई क्यों नहीं लेता ? दुर्भाग्यवश हमने राम को मात्र प्रतीक और रावण को असलियत में धारण कर लिया है. समाज को सही दिशा देने हेतु इस प्रपंच से निकलने की जरुरत है.सीता को रावण ने भी छला और अग्नि परीक्षा में खरी उतरने के बाद भी श्रीराम ने उन्हें गर्भवती स्थिति में जंगल में छुड़वा दिया. कोई उस सीता को क्यों नहीं पूछता ?....आज भी समाज की यही नियति है. ईमानदार राम दर-दर भटक रहा है, चरित्रवान सीता रोज अपने चरित्र को बचाने के लिए जूझ रही है. और इन सबके बीच हर साल रावण अट्ठाहस लगता है. एक दिन प्रतीकात्मक रूप से जलकर हर दिन लोगों को जलाने के लिए खड़ा हो जाता है और सच्चाई जानते हुए भी हम सब मौन रहकर उत्सव देखते हैं या देखने का अभिनय करते हैं ....!!!

शनिवार, 26 सितंबर 2009

भ्रूण हत्या बनाम नौ कन्याओं को भोजन ??


नवरात्र मातृ-शक्ति का प्रतीक है। एक तरफ इससे जुड़ी तमाम धार्मिक मान्यतायें हैं, वहीं अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराकर इसे व्यवहारिक रूप भी दिया जाता है। लोग नौ कन्याओं को ढूढ़ने के लिए गलियों की खाक छान मारते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता है। आश्चर्य होता है कि यह वही समाज है जहाँ भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते है पर नवरात्र की बेला पर लोग नौ कन्याओं का पेट भरकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाय या कुछ और? आज बेटियां धरा से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में लोग नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं। यही नहीं लोग यह संवेदना भी जताने लगते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। आखिर यह दोहरापन किसके लिए ??

समाज बदल रहा है। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल ही में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों है कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहां महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता? समाज इस शक्ति की आराधना तो करता है पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। ऐसे में नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन मात्र कराकर क्या सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई ....???

-आकांक्षा यादव

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

कहाँ गया फाउण्टेन पेन

पिछले दिनों आलमारी में रखा पुराना सामान उलट-पुलट रही थी कि नजर एक फाउण्टेन पेन पर पड़ी। वही फाउण्टेन पेन जो कभी अच्छी व स्टाइलिश राइटिंग का मानदण्ड थी। अब हम लोग भले ही डाॅट पेन या जेल पेन से लिखने लगे हों पर स्कूली दिनों में फाउण्टेन पेन ही हमारी राइटिंग की शान थी। परीक्षा में पेपर देते समय यदि पेपर या कापी में इंक गिर जाती थी तो मानते थे कि पेपर अच्छा होगा। होली का त्यौहार आते ही फाउण्टेन पेन का महत्व और भी बढ़ जाता था। एक-दूसरे की शर्ट पर इंक छिड़ककर होली मनाने का आनन्द ही कुछ और था। तब बाजार में उत्पादों की इतनी भरमार नहीं थी। जीनियस, किंगसन और इण्टर कम्पनी के पेन सर्वाधिक लोकप्रिय थे। जीनियस पेन का प्रयोग करने वाला इसके नाम के अनुरूप खुद को क्लास में सबसे जीनियस समझता था।

बीतते वक्त के साथ फाउण्टेन पेन अतीत की चीज बन गये पर अभी भी सरकारी सेवा से रिटायर्ड बुजुर्ग या बुजुर्ग बिजनेसमैन इसके प्रति काफी क्रेज रखते हैं। हमारे एक रिश्तेदार तो अपने पुराने फाउण्टेन पेन की निब के लिए पूरे शहर की दुकानें छान मारते हैं। आज मार्केट में चाइनीज फाउण्टेन पेन से लेकर महगे सिलवर और गोल्ड प्लेटेड फाउण्टेन पेन तक उपलब्ध हैं पर न तो उनकी डिमाण्ड रही और न ही वो क्रेज रहा। याद आती है स्कूल के दिनों में सुनी वो बात कि जब जज कोई कठोर फैसला लिखते तो फाउण्टेन पेन की निब तोड़ देते थे...पर अब तो सब किस्सों में ही रह गया।

-आकांक्षा यादव

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

रक्तदान के सम्बन्ध में जागरूक करने की जरुरत

क्या आपने कभी रक्तदान किया है ? यह सवाल अक्सर लोग पूछते हैं। रक्तदान वास्तव में किसी को जीवन दान ही है। आधा लीटर रक्त तीन लोगों का जीवन बचा सकता है और एक यूनिट ब्लड में 450 मि0ली0 रक्त होता है। जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व में प्रतिवर्ष 8 करोड़ यूनिट से ज्यादा रक्त, रक्तदान से जमा होता है। इसमें विकासशील देशों का योगदान 38 प्रतिशत होता है, जबकि यहाँ दुनिया कि 82 प्रतिशत आबादी रहती है.पर दुर्भाग्यवश अपना भारत इसमें काफी पिछड़ा हुआ है या यूँ कहें कि लोग जागरूक नहीं हैं। हर वर्ष भारत को 90 लाख यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है, पर जमा मात्र 60 लाख यूनिट की हो पाता है। राज्यवार गौर करें तो सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला राज्य उ0प्र0 स्वैच्छिक रक्तदान के मामले में पिछडे़ राज्यों में शामिल है, जहाँ मात्र 16 प्रतिशत लोग स्वैच्छिक रक्तदान में रूचि दिखाते हैं।

मेघालय में 10, मणिपुर में 10.08, उ0प्र0 में 16 व पंजाब 19.04 प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान के साथ निचले पायदान पर तो पश्चिम बंगाल (87.6), त्रिपुरा (84), तमिलनाडु (83), महाराष्ट्र (78), चण्डीगढ़ (75) की गिनती बेहतर राज्यों में की जाती है। 2433 ब्लड बैंक भी हमारी जरूरत को नहीं पूरा कर पाते। नतीजन कहीं नकली खून का कारोबार बढ़ रहा है तो कहीं रक्तदान के नाम पर गोरखध्ंधा चल रहा है।

जरूरत है इस संबंध में लोगों को जागरूक करने की और स्वयं पहल करने की ताकि स्वैच्छिक रक्तदान की प्रक्रिया को बढ़ाया जा सके और रक्त के अभाव में किसी को जीवन का दामन न छोड़ना पड़े। याद आती हैं कवि दिनेश रघुवंशी की कुछ पंक्तियाँ-

मैं हूँ इंसान और इंसानियत का मान करता हूँ,
किसी की टूटती सांसों में हो फिर से नया जीवन
मैं बस यह जानकर अक्सर 'लहू' का दान करता हूँ !!
 
-आकांक्षा यादव

शनिवार, 19 सितंबर 2009

नवरात्र की मंगलकामनाएं


सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके !
शरण्ये त्रयम्बकं गौरि नारायणि नमस्तुते !!

शुभ नवरात्रे...नवरात्रि की मंगलकामनाएं.

रविवार, 6 सितंबर 2009

गुरु-शिष्य की बदलती परम्परा (शिक्षक दिवस पर विशेष)

 
                                                  गुरूब्र्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः
                                                गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः

 
भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परम्परा रही है। प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।

आजादी के बाद गुरू-शिष्य की इस दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डा0 राधाकृष्णन ने कहा कि-‘‘मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा।‘‘ तब से लेकर हर 5 सितम्बर को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाया जाता है। डाॅ0 राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने के हकदार वही हैं, जो लोगों से अधिक बुद्विमान व अधिक विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डा0 राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते हैं। यह राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। यही नहीं तमाम शिक्षक अपनी नैतिक मर्यादायें तोड़कर छात्राओं के साथ अश्लील कार्यों में लिप्त पाये गये। आज न तो गुरू-शिष्य की वह परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।

-आकांक्षा यादव

बुधवार, 2 सितंबर 2009

यह है झाँसी की रानी का असली फोटो

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह दुर्लभ फोटो 159 साल पहले अर्थात वर्ष 1850 में कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन ने खींचा था। इस फोटो को पिछले माह 19 अगस्त, 2009 को भोपाल में आयोजित विश्व फोटोग्राफी प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। यह चित्र अहमदाबाद के एक पुरातत्व महत्व की वस्तुओं के संग्रहकर्ता अमित अम्बालाल ने भेजा था। माना जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई का यही एकमात्र फोटोग्राफ उपलब्ध है !!

फ़िलहाल लखनऊ/कानपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय सहारा अख़बार ने इस चित्र को रानी लक्ष्मीबाई के चित्र रूप में दिखाया है.

शनिवार, 29 अगस्त 2009

दस साल का हुआ ब्लॉग

ब्लागिंग का आकर्षण दिनो-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। जहाँ वेबसाइट में सामान्यतया एकतरफा सम्प्रेषण होता है, वहीं ब्लाग में यह लेखकीय-पाठकीय दोनों स्तर पर होता है। ब्लाग सिर्फ जानकारी देने का साधन नहीं बल्कि संवाद का भी सशक्त माध्यम है। ब्लागिंग को कुछ लोग खुले संवाद का तरीका मानते हैं तो कुछेक लोग इसे निजी डायरी मात्र। ब्लाग को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है-‘‘एक इंटरनेट वेबसाइट जिसमें किसी की लचीली अभिव्यक्ति का चयन संकलित होता है और जो हमेशा अपडेट होती रहती है।‘‘

वर्ष 1999 में आरम्भ हुआ ब्लाग वर्ष 2009 में 10 साल का सफर पूरा कर चुका है। गौरतलब है कि पीटर मर्होत्ज ने 1999 में ‘वी ब्लाग‘ नाम की निजी वेबसाइट आरम्भ की थी, जिसमें से कालान्तर में ‘वी‘ शब्द हटकर मात्र ‘ब्लाग‘ रह गया। 1999 में अमेरिका में सैनफ्रांसिस्को में इण्टरनेट में ऐसी अनुपम व्यवस्था का इजाद किया गया, जिसमें कई लोग अपनी अभिव्यक्तियां न सिर्फ लिख सकें बल्कि उन्हें नियमित रूप से अपडेट भी कर सकें। यद्यपि कुछ लोग ब्लाग का आरम्भ 1994 से मानते हैं जब एक युवा अमेरिकी ने अपनी अभिव्यक्तियाँ नियमित रूप से अपनी वेबसाइट में लिखना आरम्भ किया तो कुछ लोग इसका श्रेय 1997 में जान बारजन द्वारा आरम्भ की गई वेबलाग यानी इण्टरनेट डायरी को भी देते हैं। पर अधिकतर लोग ब्लाग का आरम्भ 1999 ही मानते हैं। ब्लाग की शुरूआत में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन ब्लाग इतनी बड़ी व्यवस्था बन जायेगा कि दुनिया की नामचीन हस्तियां भी अपनी दिल की बात इसके माध्यम से ही कहने लगेंगी। आज पूरी दुनिया में 13.3 करोड़ से ज्यादा ब्लागर्स हैं तो भारत में लगभग 32 लाख लोग ब्लागिंग से जुड़े हुए हैं।

ब्लागिंग का क्रेज पूरे विश्व में छाया हुआ है। अमेरिका में सवा तीन करोड़ से ज्यादा लोग नियमित ब्लागिंग से जुडे़ हुए हैं, जो कि वहां के मतदाताओं का कुल 20 फीसदी हैं। इसकी महत्ता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2008 में सम्पन्न अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान इस हेतु 1494 नये ब्लाग आरम्भ किये गये। तमाम देशों के प्रमुख ब्लागिंग के माध्यम से लोगों से रूबरू होते रहते हैं। इनमें फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी और उनकी पत्नी कार्ला ब्रूनी से लेकर ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद तक शामिल हैं। भारत में राजनेताओं में लालू प्रसाद यादव, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तो फिल्म इण्डस्ट्री में अभिताभ बच्चन, शाहरूख खान, आमिर खान, मनोज बाजपेई, प्रकाश झा इत्यादि के ब्लाग मशहूर हैं। साहित्य से जुड़ी तमाम हस्तियां-उदय प्रकाश, गिरिराज किशोर, विष्णु नागर अपने ब्लाग के माध्यम से पाठकों से रूबरू हो रहे हैं। सेलिबे्रटी के लिए ब्लाग तो बड़ी काम की चीज है। परम्परागत मीडिया उनकी बातों को नमक-मिर्च लगाकर पेश करता रहा है, पर ब्लागिंग के माध्यम से वे अपनी वास्तुस्थिति से लोगों को अवगत करा सकते हैं।
आज ब्लाग परम्परागत मीडिया का एक विकल्प बन चुका है। ब्लाग सिर्फ राजनैतिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-कला-सामाजिक गतिविधियों के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि, तमाम कारपोरेट ग्रुप इसके माध्यम से अपने उत्पादों के संबंध में सर्वे भी करा रहे हैं। वास्तव में देखा जाय तो ब्लाग एक प्रकार की समालोचना है, जहाँ पाठक आपके गुण-दोष दोनों को अभिव्यक्त करते हैं।
 
-आकांक्षा यादव

बुधवार, 26 अगस्त 2009

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा


''शब्द शिखर'' पर 25 अगस्त 2009 को प्रस्तुत लेख 511 साल का टूथब्रश को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 26 अगस्त 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में छठवीं बार शब्द-शिखर की चर्चा हुई है...आभार!

यही नहीं रेडियोवाणी वाले रेडियो जाकी युनुस जी ने लिखा है कि इस लेख का उपयोग विविध भारती के "यूथ एक्‍सप्रेस" कार्यक्रम में रविवार (30 अगस्त, 2009)शाम चार बजे "शब्द-शिखर" ब्‍लॉग के जिक्र के सा‍थ कर रहे हैं....उनका भी आभार. आप भी युनुस जी के साथ इसका लुत्फ़ उठायें !!

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

511 साल का टूथब्रश

टूथब्रश मानव की दिनचर्या का अहम् हिस्सा है। बिना इसके तो दिन की शुरूआत भी नहीं होती। एक सर्वे की माने तो एक व्यक्ति पूरे जीवन में 38 दिन मात्र टूथब्रश करने में खर्च कर देता है। टूथब्रश को लेकर तमाम बातें कही जाती हैं। मसलन, 9 साल तक के बच्चों को कम से कम दो मिनट एवं उससे बड़े लोगों को 3-5 मिनट तक दांतों को ब्रश करना चाहिए। टूथब्रश को दांतों पर बहुत दबाकर नहीं इस्तेमाल करना चाहिए, बल्कि इसका शार्ट वाइब्रेटरी और सर्कुलर मूवमेन्ट होना चाहिए। टूथब्रश को ट्वायलेट सीट से करीब 6 फीट दूर रखना चाहिए ताकि ट्वायलेट फ्लश करने के पश्चात हवा में घुलने वाले तत्वों से टूथब्रश को संक्रमित होने से बचाया जा सके।

सभ्यता के विकास के साथ ही मानव ने दांतों को साफ करने के लिए तमाम तरीके इजाद किये। दांतों को साफ करने का प्रथम प्रमाण 3500 ईसा पूर्व बेबीलोन में मिलता है, जहां इसके लिए लोग च्विइंगस्टिक इस्तेमाल थे। ग्रीक और रोमन काल में टूथपिक नुमा चीज को चबाकर दांत साफ किये जाने के प्रमाण मिले हैं। कालांतर में सुगंधित और औषधीय पेड़ों की पतली टहनियों को दातुन रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। भारतीय गांवों में आज भी नीम व बबूल की दातून बहुतायत में इस्तेमाल होती है।

टूथब्रश का सफरनामा भी बड़ा रोमांचक है। सर्वप्रथम 1498 में चीन के राजा ने पहले टूथब्रश का निर्माण कराया था। यह टूथब्रश पतली हड्डी के एक सिरे पर सुअर का बाल लगाकर बनाया गया था। 16वीं शताब्दी के अंत तक इसी प्रकार के टूथब्रश इस्तेमाल होते रहे और यह मात्र राजा-महाराजा और धनी लोगों द्वारा ही इस्तेमाल होता था। 17वीं सदी में चीन यात्रा पर गये यूरोप के कुछ यात्रियों ने इस टूथब्रश को देखा और थोड़े फेरबदल के साथ इसे निर्मित कर इस्तेमाल में लाने लगे। इसी दौरान यूरोप में एक खास किस्म के कपड़े के टुकड़े से दांत साफ करने का चलन भी चला। सभ्यता के विकास के साथ ही जानवर के बालों से बने टूथब्रश में लगातार परिवर्तन होते रहे। 1780 में इंग्लैंड में विलियम एडीस ने बड़े स्तर पर टूथब्रश का निर्माण आरम्भ किया और इसी के साथ पश्चिमी देशों में इसका चलन बढ़ने लगा। वर्ष 1850 में अमेरिकी नागरिक एचएन वर्ड्सवर्थ ने टूथब्रश के डिजाइन का पेटेन्ट कराया और 1885 में अमेरिका में व्यवसायिक स्तर पर इसका उत्पादन आरम्भ हो गया।

जानवर के बाल की बजाय टूथब्रश में नायलाॅन ब्रिसिल का इस्तेमाल पहली बार 24 फरवरी 1938 को ड्यूपांट लेबोरेटरी ने किया और इसे नाम दिया- डाक्टर वेस्ट्स मिरैकल टूथब्रश। 1939 में स्विटजरलैंड में पहले इलेक्ट्रिक टूथब्रश का निर्माण हुआ पर इसका व्यावसायिक निर्माण 1960 में अमरीका में ‘ब्राक्सोडेन्ट‘ नाम से आरम्भ हुआ। 1961 में बाजार में रिचार्जेबल कार्डलेस टूथब्रश आये। 1987 में अमेरिकी बाजारों में रोटेटरी एक्शन इलेक्ट्रिक टूथब्रश की धूम रही। इस ब्रश की विशिष्टता यह है कि इसे दांतों पर घिसना-रगड़ना नहीं पड़ता बस दांतों पर स्पर्श करा कर बटन दबाना होता है और ब्रश खुद ही घूम-घूम कर दांतों को साफ कर देता है।

फिलहाल 1498 में इजाद हुआ टूथब्रश वर्ष 2009 में 511 साल का हो चुका है और वक्त के साथ इसकी संरचना में अनेक परिवर्तन आये तथा लगातार इसकी संरचना के साथ अभी भी नये प्रयोग हो रहे हैं। आज यह मानव के जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है और हममें से हर किसी की सुबह इसके बिना अधूरी होती है।

रविवार, 23 अगस्त 2009

|| ॐ गं गणपतये नमो नमः ||



|| ॐ गं गणपतये नमो नमः |||| श्री सिद्धिविनायक नमो नमः || || अष्टविनायक नमो नमः |||| वक्रतुंडाय नमो नमः ||

शनिवार, 15 अगस्त 2009

लोक चेतना में स्वाधीनता की लय

स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आजादी का अर्थ सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं अपितु यह एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का हित व उसकी परम्परायें छुपी हुई हैं। कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत राष्ट्र को भी पराधीनता के दौर से गुजरना पड़ा। पर पराधीनता का यह जाल लम्बे समय तक हमें बाँध नहीं पाया और राष्ट्रभक्तों की बदौलत हम पुनः स्वतंत्र हो गये। स्वतंत्रता रूपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यँू ही नहीं प्राप्त हुई वरन् इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल-बाल-पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इन्कलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ी और अन्ततः 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया।

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। लोकलय की आत्मा में मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूँ व्यक्त किया गया है- जब सत्तावनि के रारि भइलि/ बीरन के बीर पुकार भइल/बलिया का मंगल पाण्डे के/ बलिवेदी से ललकार भइल/मंगल मस्ती में चूर चलल/ पहिला बागी मसहूर चलल/गोरनि का पलटनि का आगे/ बलिया के बाँका सूर चलल।

1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरुष नायकों ने भाग लिया, महिलायें भी उनसे पीछे न रहीं। लखनऊ में बेगम हजरत महल तो झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की अगुवाई की। बेगम हजरत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया- मजा हजरत ने नहीं पाई/ केसर बाग लगाई/कलकत्ते से चला फिरंगी/ तंबू कनात लगाई/पार उतरि लखनऊ का/ आयो डेरा दिहिस लगाई/आसपास लखनऊ का घेरा/सड़कन तोप धराई। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान उनकी वीरता का बखान करती ह,ैं पर उनसे पहले ही बुंदेलखण्ड की वादियों में दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।

बंगाल विभाजन के दौरान 1905 में स्वदेशी-बहिष्कार-प्रतिरोध का नारा खूब चला। अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाना और उनका बहिष्कार करना देश भक्ति का शगल बन गया था, फिर चाहे अंग्रेजी कपड़ों में ब्याह रचाने आये बाराती ही हों- फिर जाहु-फिरि जाहु घर का समधिया हो/मोर धिया रहिहैं कुंआरि/ बसन उतारि सब फेंकहु विदेशिया हो/ मोर पूत रहिहैं उघार/ बसन सुदेसिया मंगाई पहिरबा हो/तब होइहै धिया के बियाह। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता। सुभद्राकुमारी चैहान ने ‘जलियावाले बाग में वसंत’ नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर/कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर/आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं/अपने प्रिय-परिवार देश से भिन्न हुए हैं/कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना/करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना/तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर/शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर/यह सब करना, किन्तु बहुत धीरे-से आना/यह है शोक-स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।

कोई भी क्रान्ति बिना खून के पूरी नहीं होती, चाहे कितने ही बड़े दावे किये जायें। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक ऐसा भी दौर आया जब कुछ नौजवानों ने अंग्रेजी हुकूमत की चूल हिला दी, नतीजन अंग्रेजी सरकार उन्हें जेल में डालने के लिये तड़प उठी। उस समय अंग्रेजी सैनिकों की पदचाप सुनते ही बहनें चैकन्नी हो जाती थीं। तभी तो सुभद्राकुमारी चैहान ने ‘बिदा’ में लिखा कि- गिरतार होने वाले हैं/आता है वारंट अभी/धक्-सा हुआ हृदय, मैं सहमी/हुए विकल आशंक सभी/मैं पुलकित हो उठी! यहाँ भी/आज गिरतारी होगी/फिर जी धड़का, क्या भैया की /सचमुच तैयारी होगी। आजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की दिली तमन्ना होती थी कि उसका भी पति इस दीवानगी में शामिल हो। तभी तो पत्नी पति के लिए गाती है- जागा बलम् गाँधी टोपी वाले आई गइलैं..../राजगुरू सुखदेव भगत सिंह हो/तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गइलै।

सरदार भगत सिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन के अगुवा थे, जिन्होंने हँसते-हँसते फासी के फन्दों को चूम लिया था। एक लोकगायक भगत सिंह के इस तरह जाने को बर्दाश्त नहीं कर पाता और गाता है- एक-एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है/तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है/मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा/अपनी-अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा/मैं उनसे अपना वीर भगत सिंह मांँग लाऊँगा। इसी प्रकार चन्द्रशेखर आजाद की शहादत पर उन्हें याद करते हुए एक अंगिका लोकगीत में कहा गया- हौ आजाद त्वौं अपनौ प्राणे कऽ /आहुति दै के मातृभूमि कै आजाद करैलहों/तोरो कुर्बानी हम्मै जिनगी भर नैऽ भुलैबे/देश तोरो रिनी रहेते। सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया कि- ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हंे आजादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठेे- हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी/कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा/ हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होेंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर में गाते- अपने हाथे चरखा चलउबै/हमार कोऊ का करिहैं/गाँधी बाबा से लगन लगउबै/हमार कोई का करिहैं। 1942 में जब गाँधी जी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का आह्वान किया तो ऐसा लगा कि 1857 की क्रान्ति फिर से जिन्दा हो गयी हो। क्या बूढ़े, क्या नवयुवक, क्या पुरुष, क्या महिला, क्या किसान, क्या जवान...... सभी एक स्वर में गाँधी जी के पीछे हो लिये। ऐसा लगा कि अब तो अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना ही होगा। गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने इस ज्वार को महसूस किया और इस जन क्रान्ति को शब्दों से यूँ सँवारा- बीसवीं सदी के आते ही, फिर उमड़ा जोश जवानों में/हड़कम्प मच गया नए सिरे से, फिर शोषक शैतानों में/सौ बरस भी नहीं बीते थे सन् बयालीस पावन आया/लोगों ने समझा नया जन्म लेकर सन् सत्तावन आया/आजादी की मच गई धूम फिर शोर हुआ आजादी का/फिर जाग उठा यह सुप्त देश चालीस कोटि आबादी का।

भारत माता की गुलामी की बेड़ियाँ काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस के साथ कि आने वाली पीढ़ियाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढ़ियाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं। कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते- शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले/वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा/कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे/जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा।

देश आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय की बेला में विजय का आभास हो रहा था। फिर कवि लोकमन को कैसे समझाता। आखिर उसके मन की तरंगें भी तो लोक से ही संचालित होती हैं। कवि सुमित्रानन्दन पंत इस सुखद अनुभूति को यूँ सँजोते हैं-चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण/आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन/नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण/तरुण-अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन/सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन/आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन/शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण/मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण! देश आजाद हो गया, पर अंग्रेज इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर गये। एक तरफ आजादी की उमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं का डर......गिरिजाकुमार माथुर ‘पन्द्रह अगस्त’ की बेला पर उल्लास भी व्यक्त करते हैं और सचेत भी करते हैं-आज जीत की रात, पहरुए, सावधान रहना/खुले देश के द्वार, अचल दीपक समान रहना/ऊँची हुई मशाल हमारी, आगे कठिन डगर है/शत्रु हट गया, लेकिन उसकी छायाओं का डर है/शोषण से मृत है समाज, कमजोर हमारा घर है/किन्तु आ रही नई जिंदगी, यह विश्वास अमर है।

स्वतंत्रता की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है बल्कि एक दास्तान है कि क्यों हम बेड़ियों में जकड़े, किस प्रकार की यातनायें हमने सहीं और शहीदों की किन कुर्बानियों के साथ हम आजाद हुये। यह ऐतिहासिक घटनाक्रम की मात्र एक शोभा यात्रा नहीं अपितु भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष, राजनैतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरूद्ध लोक चेतना का प्रबुद्ध अभियान एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष की दास्तान है। जरूरत है हम अपनी कमजोरियों का विश्लेषण करें, तद्नुसार उनसे लड़ने की चुनौतियाँ स्वीकारें और नए परिवेश में नए जोश के साथ आजादी के नये अर्थों के साथ एक सुखी व समृद्ध भारत का निर्माण करें।
 
(यह एक सुखद संयोग है कि 14 अगस्त की रात्रि 12 बजे भगवान श्री कृष्ण का जन्म होगा एवं इसी के साथ हमारे स्वतंत्रता दिवस का भी अभ्युदय होगा....बधाइयाँ !!)
 
-आकांक्षा यादव

बुधवार, 12 अगस्त 2009

वन्देमातरम और मुस्लिम समाज

पिछले दिनों मुस्लिमों द्वारा वन्देमातरम् न गाने के दारूउलम के फतवे पर निगाह गई तो उसी के साथ ऐसे लोगों पर भी समाज में निगाह गई जो इस वन्देमातरम् को धर्म से परे देखते और सोचते हैं। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने तो ऐसे फतवों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यहाँ तक कह दिया कि वन्देमातरम् गीत गाने से अगर इस्लाम खतरे में पड़ सकता है तो इसका मतलब हुआ कि इस्लाम बहुत कमजोर मजहब है। प्रसिद्ध शायर अंसार कंबरी तो अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं-मस्जिद में पुजारी हो और मंदिर में नमाजी/हो किस तरह यह फेरबदल, सोच रहा हूँ। ए.आर. रहमान तक ने वन्देमातरम् गीत गाकर देश की शान में इजाफा किया है। ऐसे में स्वयं मुस्लिम बुद्धिजीवी ही ऐसे फतवे की व्यवहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता ए.जेड. कलीम जायसी कहते है कि इस्लाम में सिर्फ अल्लाह की इबादत का हुक्म है, मगर यह भी कहा गया है कि माँ के पैरों के नीचे जन्नत होती है। चूंकि कुरान में मातृभूमि को माँ के तुल्य कहा गया है, इसलिये हम उसकी महानता को नकार नहीं सकते और न ही उसके प्रति मोहब्बत में कमी कर सकते हैं। भारत हमारा मादरेवतन है, इसलिये हर मुसलमान को इसका पूरा सम्मान करना चाहिये।


वन्देमातरम् से एक संदर्भ याद आया। हाल ही में मेरे पति एवं युवा प्रशासक-साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार यादव के जीवन पर जारी पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर‘‘ के पद्मश्री गिरिराज किशोर द्वारा लोकार्पण अवसर पर छः सगी मुस्लिम बहनों ने वंदेमातरम्, सरफरोशी की तमन्ना जैसे राष्ट्रभक्ति गीतों का शमां बाँध दिया। कानपुर की इन छः सगी मुस्लिम बहनों ने वन्देमातरम् एवं तमाम राष्ट्रभक्ति गीतों द्वारा क्रान्ति की इस ज्वाला को सदैव प्रज्जवलित किये रहने की कसम उठाई है। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, बन्धुत्व एवं सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव से ओत-प्रोत ये लड़कियाँ तमाम कार्यक्रमों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती हैं। वह 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर नानाराव पार्क में शहीदों की याद में दीप प्रज्जवलित कर वंदेमातरम् का उद्घोष हो, गणेश शंकर विद्यार्थी व अब्दुल हमीद खांन की जयंती हो, वीरांगना लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस हो, माधवराव सिन्धिया मेमोरियल अवार्ड समारोह हो या राष्ट्रीय एकता से जुड़ा अन्य कोई अनुष्ठान हो। इनके नाम नाज मदनी, मुमताज अनवरी, फिरोज अनवरी, अफरोज अनवरी, मैहरोज अनवरी व शैहरोज अनवरी हैं। इनमें से तीन बहनें- नाज मदनी, मुमताज अनवरी व फिरोज अनवरी वकालत पेशे से जुड़ी हैं। एडवोकेट पिता गजनफरी अली सैफी की ये बेटियाँ अपने इस कार्य को खुदा की इबादत के रूप में ही देखती हैं। 17 सितम्बर 2006 को कानपुर बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित हिन्दी सप्ताह समारोह में प्रथम बार वंदेमातरम का उद्घोष करने वाली इन बहनों ने 24 दिसम्बर 2006 को मानस संगम के समारोह में पं0 बद्री नारायण तिवारी की प्रेरणा से पहली बार भव्य रूप में वंदेमातरम गायन प्रस्तुत कर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। मानस संगम के कार्यक्रम में जहाँ तमाम राजनेता, अधिकारीगण, न्यायाधीश, साहित्यकार, कलाकार उपस्थित होते हैं, वहीं तमाम विदेशी विद्वान भी इस गरिमामयी कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

तिरंगे कपड़ों में लिपटी ये बहनें जब ओज के साथ एक स्वर में राष्ट्रभक्ति गीतों की स्वर लहरियाँ बिखेरती हैं, तो लोग सम्मान में स्वतः अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं। श्रीप्रकाश जायसवाल, डा0 गिरिजा व्यास, रेणुका चैधरी, राजबब्बर जैसे नेताओं के अलावा इन बहनों ने राहुल गाँधी के समक्ष भी वंदेमातरम् गायन कर प्रशंसा बटोरी। 13 जनवरी 2007 को जब एक कार्यक्रम में इन बहनों ने राष्ट्रभक्ति गीतों की फिजा बिखेरी तो राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा डाॅ0 गिरिजा व्यास ने भारत की इन बेटियों को गले लगा लिया। 25 नवम्बर 2007 को कानुपर में आयोजित राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में इन्हें ‘‘संस्कृति गौरव‘‘ सम्मान से विभूषित किया गया। 19 अक्टूबर 2008 को ‘‘सामाजिक समरसता महासंगमन‘‘ में कांग्रेस के महासचिव एवं यूथ आईकान राहुल गाँधी के समक्ष जब इन बहनों ने अपनी अनुपम प्रस्तुति दी तो वे भी इनकी प्रशंसा करने से अपने को रोक न सके। वन्देमातरम् जैसे गीत का उद्घोष कुछ लोग भले ही इस्लाम धर्म के सिद्वान्तों के विपरीत बतायें पर इन बहनों का कहना है कि हमारा उद्देश्य भारत की एकता, अखण्डता एवं सामाजिक सद्भाव की परम्परा को कायम रखने का संदेश देना है। वे बेबाकी के साथ कहती हैं कि देश को आजादी दिलाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम क्रान्तिकारियों ने एक स्वर में वंदेमातरम् का उद्घोष कर अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया तो हम भला इन गीतों द्वारा उस सूत्र को जोड़ने का प्रयास क्यों नहीं कर सकते हैं। राष्ट्रीय एकता एवं समरसता की भावना से परिपूर्ण ये बहनें वंदेमातरम् एवं अन्य राष्ट्रभक्ति गीतों द्वारा लोगों को एक सूत्र में जोड़ने की जो कोशिश कर रही हैं, वह प्रशंसनीय व अतुलनीय है। क्या ऐसे मुद्दों को फतवों से जोड़ना उचित है, आप भी सोचें-विचारें !!
 
(चित्र में- लोकार्पण अवसर पर श्री कृष्ण कुमार यादव जी  के साथ अनवरी बहनें, वन्देमातरम का गान करती अनवरी बहनें)
 
-आकांक्षा यादव

रविवार, 9 अगस्त 2009

ब्लॉगों की अलबेली दुनिया

ब्लागिंग का आकर्षण दिनो-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। जहाँ वेबसाइट में सामान्यतया एकतरफा सम्प्रेषण होता है, वहीं ब्लाग में यह लेखकीय-पाठकीय दोनों स्तर पर होता है। आपने कोई नई पोस्ट लिखी नही कि आपकी भावनाओं से सहमति-असहमति जताने वाले एवं प्रोत्साहन देने वाले लोग टिप्पणियाने लगते हैं। कुछ ब्लागर तो अपनी इसी अदा के लिए मशहूर हैं, जैसे उड़न तश्तरी वाले समीरलाल जी. ब्लागिंग के क्षेत्र में इधर एक चीज तेजी से गौर कर रही हूँ कि लोग एक की बजाय तमाम सामूहिक ब्लागों से जुड़ रहे हैं और अपनी अभिव्यक्ति को विस्तार दे रहे हैं। जहां कुछेक सामूहिक ब्लागों पर एक ही दिन में इतनी सामग्री आ रही है कि उसमें सार्थकता का अभाव दिखता है तो कुछेक सामूहिक ब्लागों पर महीने भर में मुश्किल से एकाध पोस्ट दिखाई देती है। कुछेक ब्लाग तो वास्तव में अभिव्यक्ति एवं रचनाधर्मिता के सामूहिक पर्याय हैं-रचनाकार, साहित्य शिल्पी, हिन्दयुग्म, चोखेरबाली, नारी, युवा, माँ,मोहल्ला, इत्यादि

मुझे सबसे ज्यादा ताज्जुब होता है, ऐसे ब्लागर्स पर जिनके प्रोफाइल पर जाइये तो ढेर सारे यू.आर.एल. वेब एड्रेस रजिस्टर्ड मिलते हैं। यद्यपि इन पर कोई पोस्ट नही होती, पर लोगों ने मानो इनका पेटेंट कराके रखा हो, कि कब जरूरत आ पड़े. किसी ने अपनी जाति के नाम पर तो किसी ने बच्चों के नाम पर तो किसी ने साहित्य का आभास देने वाले शब्दों के नाम पर ये अघोषित पेटेंट करा रखे हैं। वस्तुतः ब्लागिंग को मात्रा की बजाय व्यापक विमर्श के आधार पर देखा जाना चाहिए। सिर्फ अपने नाम पर तमाम ब्लाग एड्रेस पंजीकृत कर प्रोफाइल की शोभा बढ़ाने से कुछ नहीं होता। खैर इन मुद्दों पर हर ब्लागर की अपनी विचारधारा है, आप मुझसे सहमत-असहमत हो सकते हैं।

ब्लागिंग को कुछ लोग खुले संवाद का तरीका मानते हैं तो कुछेक लोग इसे निजी डायरी मात्र। ऐसे में कुछेक ब्लागरों ने मात्र आमंत्रित लोगों के लिए ही अपने विचार खोल रखे हैं। ब्लागिंग का दायरा परदे की ओट से भी बाहर निकल रहा है। कामकाजी महिलाओं के साथ-साथ गृहिणियां भी इसमें खूब हाथ अजमा रही हैं। जब मम्मी-पापा ब्लागिंग कर रहे हों तो बच्चे भला कैसे पीछे रहें। अब देखिये न पाखी की दुनिया, आदित्य इत्यादि। आई0टी0 वालों की तो छोड़िए, यहाँ प्राइमरी का मास्टर और डाकिया बाबू भी ब्लागिंग कर रहे हैं। जातियां भी ब्लॉग पर पाँव पसर रही हैं, देखें-यदुकुल,सरयूपारीण.

ब्लागिंग का नशा राजनीति-साहित्य-फिल्म इण्डस्ट्री-क्रिकेट से जुडे़ लोगों पर भी सवार है। लालू प्रसाद यादव, लाल कृष्ण आडवाणी, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खांन, आमिर खान, मनोज वाजपेई, प्रकाश झा, हरभजन सिंह से लेकर उदय प्रकाश, विष्णु नागर, गिरिराज किशोर तक इसकी एक लम्बी सूची है। युवा ब्लाग ने तो बकायदा ऐसे ब्लागर्स की सूची ही साइड में दे रखी है। इन सेलिबे्रटी ब्लागर्स में भी कुछ गम्भीर रूप में तेा कुछ लोग मात्र लोकप्रियता हासिल करने एवं अपने प्रशंसकों से जुड़े रहने के लिए ब्लागिंग कर रहे हैं। टी.वी. के चेहरे-पुण्य प्रसून वाजपेई, रवीश कुमार इत्यादि भी ब्लागिंग में सक्रिय हैं। प्रशासन के साथ-साथ साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले प्रशासनिक अधिकारी भी ब्लागिंग में जौहर दिखा रहे हैं। इनमे विभूति नारायण राय, कृष्ण कुमार यादव, कमलेश भट्ट कमल, जैसे नाम चर्चा में लिये जा सकते हैं।

ब्लागिंग का एक बहुत बड़ा फायदा प्रिंट मीडिया को हुआ है। अब उन्हें किसी के पत्रों एवं विचारों की दरकार महसूस नहीं होती। ब्लाग के माध्यम से वे पाठकों को समसामयिक एवं चर्चित विषयों पर जानकारी परोस रहे हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाएं तो कट-पेस्ट तकनीक का उपयोग भी बखूबी कर रही हैं फिलहाल, इस मुद्दे पर तो सभी ब्लागर सहमत होंगे कि प्रिंट मीडिया ब्लागरों की महत्ता को समझने लगा है और ब्लागों की चर्चा प्रिंट मीडिया में जमकर होने लगी है। अमर उजाला, हिन्दुस्तान, आई नेक्स्ट, राष्ट्रीय सहारा, दस्तक, हरिभूमि, गजरौला टाइम्स, आज समाज जैसे अखबारों ने नियमित रूप से ब्लागों की चर्चा आरम्भ कर दी है। इसी क्रम में प्रिंट मीडिया पर ब्लाग चर्चा नाम से एक ब्लाग ने इन सब को सहेजना भी आरंभ कर दिया है। हर पत्र-पत्रिका हमारी निगाहों से गुजर तो नहीं सकती पर इस ब्लाग के चलते इतनी आसानी अवश्य हो गई है कि बैठे-बैठे पता लग जाता है कि अपने ब्लाग और अन्य ब्लागों की चर्चा कहां-कहां हो रही है। चिट्ठाजगत पर धडाधड छप रहे चिट्ठों की खोज-खबर है.

सबसे खुशी की बात तो यह है कि ब्लागरों के सुख-दुःख को बांटने वाले ब्लाग भी अस्तित्व में आ चुके हैं। अभी पिछले दिनों मेंरे जन्मदिन पर जब हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन पर चर्चा हुई तो अच्छा लगा कि कोई ऐसा भी ब्लाग है।

तो आप भी ब्लागिंग के इस फलते-फूलते परिवार में शामिल हों और इसका लुत्फ उठाएं।

-आकांक्षा यादव

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

हैप्पी बर्थडे टू यू का सफर

30 जुलाई को मेरा जन्मदिन था। हर बार की तरह लोगों ने गाया कि-‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘। कई बार उत्सुकता होती है कि आखिर ये प्यारी सी पैरोडी आरम्भ कहां से हुई। आखिरकार इस बार हमने इसका राज ढूंढ ही लिया। वस्तुतः ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘ की मधुर धुन ‘गुड मार्निंग टू आल‘ गीत से ली गयी है, जिसे दो अमेरिकन बहनों पैटी हिल तथा माइल्ड्रेड हिल ने 1993 में बनाया था। ये दोनों बहनें किंडर गार्टन स्कूल की शिक्षिकाएं थीं। इन्होंने ‘गुड मार्निंग टू आल‘ गीत की यह धुन इसलिए बनायी ताकि बच्चों को इसे गाने में आसानी हो और मजा आये। फिलहाल दुनिया भर में इस गीत का 18 भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इस गाने की धुन और बोल पहली बार 1912 में लिखित रूप से प्रकाश में आये। इस गाने पर सुम्मी कंपनी चैपल ने इस कंपनी को 15 अमेरिकी मिलियन डाॅलर में खरीद लिया। उस वक्त इस धुन की कीमत करीब 5 अमेरिकी मिलियन डालर थी। गीत की सबसे प्रसिद्ध व भव्य प्रस्तुति मई 1962 में विख्यात हालीवुड अभिनेत्री मारिलियन मोनरोर्ड ने अमेरिकी राष्ट्रपति जान एफ केनेडी को समर्पित की थी। इस गीत को 8 मार्च 1969 को अपालो 9 दल के सदस्यों ने भी गया था। हजारों की संख्या में लोगों ने पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के 81वें जन्मदिवस पर 16 अप्रैल 2008 को इसे व्हाइट हाउस में पेश किया था। 27 जून 2007 को लंदन के हाइड पार्क में सैकड़ों लोगों ने नेल्सन मंडेला के 90वें जन्मदिवस पर भी इसे गाया गया था। अब भी ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘ गीत प्रतिवर्ष 2 मिलियन डालर की कमाई कर रहा है। गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड के मुताबिक ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘ अंग्रेजी भाषा का सबसे परिचित गीत है।... तो आप भी गाइये- ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

अटूट विश्वास का बन्धन है राखी

भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी अटूट विश्वास के बन्धन की अभिव्यक्ति है। रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर सिर्फ रक्षा का वचन ही नहीं दिया जाता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए यह पर्व हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख त्यौहार है, जिस दिन बहनें अपनी रक्षा के लिए भाईयों की कलाई में राखी बाँधती हंै। गीता में कहा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है, तब ज्योर्तिलिंगम भगवान शिव प्रजापति ब्रह्मा द्वारा धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं, जिन्हें बहनें मंगलकामना करते हुए भाइयों को बाँधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए दुख और पीड़ा से निजात दिलाते हैं।

पहले रक्षाबन्धन पर्व सिर्फ बहन-भाई के रिश्तों तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जा सकता था। लोक परम्परा में रक्षाबन्धन के दिन परिवार के पुरोहित द्वारा राजाओं और अपने यजमानों के घर जाकर सभी सदस्यों की कलाई पर मौली बाँधकर तिलक लगाने की परम्परा रही है। पुरोहित द्वारा दरवाजों, खिड़कियों, तथा नये बर्तनों पर भी पवित्र धागा बाँधा जाता है और तिलक लगाया जाता है। यही नहीं बहन-भानजों द्वारा एवं गुरूओं द्वारा शिष्यों को रक्षा सूत्र बाँधने की भी परम्परा रही है। इतिहास गवाह है कि सिंकदर और पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर पर घातक प्रहार हेतु अपना हाथ उठाया तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया। राखी ने स्वतंत्रता-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। कई बहनों ने अपने भाईयों की कलाई पर राखी बाँधकर देश की लाज रखने का वचन लिया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन की शुरूआत लोगों द्वारा एक-दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधकर हुयी।

रक्षाबन्धन का उल्लेख पुराणों में मिलता है जिसके अनुसार असुरों के हाथ देवताओं की पराजय पश्चात अपनी रक्षा के निमित्त सभी देवता इंद्र के नेतृत्व में गुरू वृहस्पति के पास पहुँचे तो इन्द्र ने दुखी होकर कहा- ‘‘अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस नैराश्य भाव को सुनकर गुरू वृहस्पति के दिशा-निर्देश पर रक्षा-विधान हेतु इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र सहित समस्त देवताओं की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा और अंततः इंद्र ने युद्ध में विजय पाई। एक अन्य मान्यतानुसार राजा बालि को दिये गये वचनानुसार भगवान विष्णु बैकुण्ठ छोड़कर बालि के राज्य की रक्षा के लिये चले गये। तब लक्ष्मी जी ने ब्राह्मणी का रूप धारण कर श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बालि की कलाई पर पवित्र धागा बाँधा और उसके लिए मंगलकामना की। इससे प्रभावित हो राजा बालि ने लक्ष्मी जी को अपनी बहन मानते हुए उसकी रक्षा की कसम खायी। तत्पश्चात देवी लक्ष्मी अपने असली रूप में प्रकट हो गयीं और उनके कहने से बालि ने भगवान इन्द्र से बैकुण्ठ वापस लौटने की विनती की। महाभारत काल में भगवान कृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने व फिर खून की धारा फूट पड़ने पर द्रौपदी ने तत्काल अपनी कंचुकी का किनारा फाड़कर भगवान कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में दुःशासन द्वारा द्रौपदी-हरण के प्रयास को विफल कर उन्होंने इस रक्षा-सूत्र की लाज बचायी। इसी प्रकार जब मुगल समा्रट हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर अपनी रक्षा का वचन लिया। हुमायँू ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख़्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु गुजरात के बादशाह से भी युद्ध किया। ऐसे ही न जाने कितने विश्वास के धागों से जुड़ा हुआ है राखी का पर्व।

देश के विभिन्न अंचलों में राखी पर्व को भाई-बहन के त्यौहार के अलावा भी भिन्न-भिन्न तरीकों से मनाया जाता है। मुम्बई के कई समुद्री इलाकों में इसे नारियल-पूर्णिमा या कोकोनट-फुलमून के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन विशेष रूप से समुद्र देवता पर नारियल चढ़ाकर उपासना की जाती है और नारियल की तीन आँखों को शिव के तीन नेत्रों की उपमा दी जाती है। बुन्देलखण्ड में राखी को कजरी-पूर्णिमा या कजरी-नवमी भी कहा जाता है। इस दिन कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है। उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में राखी-पर्व पर बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि इस युद्ध में आज तक कोई भी गम्भीर रूप से घायल नहीं हुआ और न ही किसी की मृत्यु हुई। इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा सर्वाधिक भाग्यवान माना जाता है एवं युद्ध समाप्ति पश्चात पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर आर्शीवाद देते हैं। इसके बाद युद्ध बन्द हो जाता है और योद्धाओं का मिलन समारोह होता है।

कोस-कोस पर बदले भाषा, कोस-कोस पर बदले बोली-वाले भारतीय समाज में रक्षाबन्धन सिर्फ भाई-बहन के रिश्तों तक ही सीमित नहीं वरन् हर रिश्ते की बुनियाद है। यहाँ त्यौहार सिर्फ एक अनुष्ठान मात्र नहीं, वरन् इनके साथ सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास भी जुड़ा होता है। रक्षाबन्धन हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तों का अंग है। आज जरुरत है कि आडम्बरता की बजाय इस त्यौहार के पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।
पतिदेव कृष्ण कुमार जी के सहयोग से