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रविवार, 14 सितंबर 2014

भारतीय भाषाओं से ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है 'हिन्दी'

अंग्रेज जाते-जाते 'बाँटो और राज करो' की नीति  भारतीय भाषाओं पर भी लागू कर गए।  तभी तो आजादी के छः दशकों के बाद भी हिंदी को अपना गौरव नहीं मिला। आज भी हिंदी का सबसे अधिक विरोध अपने देश भारत में ही होता है। आजादी के दौरान हिंदी का सबसे अधिक समर्थन गैर-हिंदी भाषियों मसलन-महात्मा गाँधी, डा. अम्बेडकर, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी और काका कालेलकर जैसे लोगों ने किया, पर दुर्भाग्य देखिये कि आजादी के बाद अ-हिन्दी राज्य अभी भी अपनी भाषाई लड़ाई हिंदी से  ही मानते हैं और इन सबके बीच अंग्रेजी आराम से राज कर रही है। अंग्रेजी की 'बाँटो और राज करो' नीति  ने कभी भी भारतीय भाषाओं  को यह सोचने का मौका नहीं दिया कि, वे एक हैं और उन्हें मिलकर अंग्रेजी को बाहर करना है।  संविधान में भी किन्तु-परन्तु के साथ अंग्रेजी को ही बढ़ावा दिया गया है।  हम एक सम्प्रभु राष्ट्र होने का दावा करते हैं पर हमारा संविधान कहीं भी 'राष्ट्रभाषा' का जिक्र नहीं करता। यहाँ तक कि अब सी-सैट के बहाने देश के भावी प्रशासकों को भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं से दूर किया जा रहा है। साठ करोड़ लोगों की भाषा हिंदी अपने ही अस्तित्व के लिए अपनी सहोदर भारतीय भाषाओं से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है और सात समुद्र पार की भाषा अंग्रेजी 'बाँटो और राज करो' की नीति की अपनी सफलता को देखते हुए मन ही मन मुस्कुरा रही है !! 




(विदेशों में भी पताका फहरा रही है हिंदी - कृष्ण कुमार यादव का डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 14 सितम्बर 2014(हिंदी दिवस)  के अंक में प्रकाशित लेख)

(विदेशों में भी हिंदी की पताका  - कृष्ण कुमार यादव का जनसंदेश टाइम्स, 14 सितम्बर 2014 (हिंदी दिवस) के अंक में प्रकाशित लेख)



बुधवार, 10 सितंबर 2014

क्या अब फ़िल्मी नायक-नायिकाओं से प्रेरणा लेंगे पुलिस अधिकारी

सिंघम, मर्दानी, कटियामार.......आजकल पुलिस से लेकर बिजली अधिकारी तक इन फिल्मों से प्रेरणा ले रहे हैं।  मंत्री से लेकर सीनियर आफिसर्स तक अपने अधीनस्थों को इन फिल्मों को देखने की सलाह दे रहे हैं।  यहाँ तक कि कुछेक जगहों पर सरकारी खर्च पर इन फिल्मों  को अधिकारियों-कर्मचारियों को दिखाने का प्रबन्ध भी किया गया। 

कभी फिल्में समाज का आइना होती थीं। प्रशासन या समाज के वास्तविक चरित्र कहीं न कहीं इन फिल्मों में दिख जाते थे। पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब प्रशासन  फिल्मों के नायक-नायिकाओं से प्रेरणा ले रहा है। क्या वास्तविक जीवन के पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों में ऐसा कोई नहीं हैं जो फिल्मी नायक-नायिकाओं की बजाय वास्तविक जीवन में प्रेरणा बन सके।

 बेहतर तो यही होता कि फिल्मी परदे पर नायक-नायिकाओं को देखकर उत्साहित होने कीे बजाय हम अपने बीच में से वास्तविक नायक-नायिकाओं की पहचान करते व उन्हें पूरा समर्थन देते। पिक्चर हाल में फिल्में देखते समय साधारण मनुष्य भी अपने को इन नायक-नायिकाओं से एकाकर लेता है। परंतु बाहर कदम रखते ही सारे जज्बात हवा हो जाते हैं।

 इस संबंध में ’मैरी काॅम’ जैसी फिल्म की सराहना होनी चाहिए जो कि वास्तविक जीवन की मुक्केबाज खिलाड़ी पर आधारित है, जिसने तमाम परंपरागत लकीरों को ठुकराकर नये आयाम रचे। काश प्रशासन मणिपुर में इस फिल्म को दिखाने की हिम्मत कर पाता !!