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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कत्थक नृत्य भगाए रोग (विश्व नृत्य दिवस पर)

शास्त्रीय नृत्य से आप सभी वाकिफ होंगे। इसके बारे में सुनते ही जेहन में कत्थक करती किसी नृत्यांगना की तस्वीर उभर आती है। लेकिन क्या आपको इस बात का इल्म है कि यह शास्त्रीय नृत्य मात्र एक कला नहीं बल्कि दवा भी है। इस बात पर अपनी सहमति की मोहर लगाती हैं राष्ट्रीय स्तर की शास्त्रीय नृत्यांगना मनीषा महेश यादव। मुम्बई विश्वविद्यालय से नृत्य में विशारद की डिग्री हासिल कर मनीषा ने कई मंचों पर शास्त्रीय नृत्य का प्रदर्शन किया। अपनी काबिलियत के चलते उन्हें फिल्म ’दिल क्या करे’ में कोरियोग्राफी करने का भी मौका मिला। मुम्बई में मनीषा हर प्रकार के लोक और शास्त्रीय नृत्य की शिक्षा भी देती हैं। मनीषा यादव की मानें तो म्यूजिक थेरेपी जहाँ मानसिक समस्याओं को दूर करने में सक्षम है वहीं शास्त्रीय नृत्य शारीरिक समस्याओं को।

राष्ट्रीय स्तर के श्रंृगारमणि पुरस्कार से नवाजी जा चुकी मनीषा की यह बात उन्हीं के एक किस्से से साबित हो जाती है। वह बताती हैं कि-'मेरी एक छात्रा को दमा की शिकायत थी। सभी डाॅक्टरों ने उसे ज्यादा थकावट लाने वाले काम करने से मना कर दिया था। लेकिन वह फिर भी मुझसे कत्थक सीखने आती थी। और यह सीखते-सीखते उसे इस समस्या से निजात मिल गई।’ दरअसल बात यह है कि दमा के मरीजों को लम्बी साँस लेने में परेशानी होती है। लेकिन कत्थक के हर स्टेप को लम्बी साँस लेकर ही पूरा किया जा सकता है। कत्थक सीखते समय दमा के मरीजों को शुरूआत में तो कुछ दिक्कतें आती हैं लेकिन जब उन्हें लम्बी साँस खींचने का अभ्यास हो जाता है तो उनकी साँस फूलने की शिकायत भी दूर हो जाती है।

दमा ही नहीं कत्थक से तीव्र स्मरण शक्ति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। बकौल मनीषा ’कत्थक की कुछ खास गिनतियाँ होती हैं जिन्हें याद रखना बेहद कठिन होता है। इसके लिए हम अपने छात्रों को कुछ विशेष तकनीकों से गिनतियाँ याद करवाते हैं।’ बस यही वे तकनीकें हैं जो कत्थक के स्टेप सीखने के साथ ही बच्चों को उनके किताबी पाठ याद करने में भी मददगार बन जाती हैं। वैसे अगर आपकी हड्डियाँ कमजोर हैं और इस वजह से आप कत्थक सीखने से हिचक रही हैं तो इस भ्रम को अपने मन से निकाल दीजिए। बकौल मनीषा कत्थक में वोंर्म-अप व्यायाम भी करवाए जाते हैं। जिससे हाथ-पाँव में लचीलापन आ जाता है। इन व्यायामों से हड्डियाँ भी मजबूत होती हैं।’

इन सबके अलावा कत्थक दिल के मरीजों के लिए भी एक सटीक दवा है। एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए मनीषा इस बात का पक्ष लेती हैं, ’मेरी डांस क्लास में एक 50 वर्ष की वृद्ध महिला कत्थक सीखने आती थीं। वह दिल की मरीज थीं। डाॅक्टरों के मुताबिक उनके शरीर में रक्त सही गति से नहीं दौड़ता था।’ लेकिन कत्थक सीखने के उनके शौक ने उनकी इस समस्या को जड़ से मिटा दिया। आज वह स्वस्थ जीवन बिता रही हैं।

तो वाकई आज की व्यस्त जिंदगी में यदि शास्त्रीय नृत्य कत्थक में स्वस्थ रहने का राज छुपा है, तो भारतीय नृत्य की इस अद्भुत धरोहर से नई पीढ़ी को परिचित कराने की जरुरत है जो पाश्चात्य संस्कृति में ही अपना भविष्य खोज रही है.

(आज विश्व नृत्य दिवस है. गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस की शुरुआत 29 अप्रैल 1982 से हुई। यूनेस्को के अंतरराष्ट्रीय थिएटर इंस्टिट्यूट की अंतरराष्ट्रीय डांस कमेटी ने 29 अप्रैल को नृत्य दिवस के रूप में स्थापित किया। एक महान रिफॉर्मर जीन जार्ज नावेरे के जन्म की स्मृति में यह दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को पूरे विश्व में मनाने का उद्देश्य जनसाधारण के बीच नृत्य की महत्ता का अलख जगाना है.शब्द-शिखर पर पहले कभी पोस्ट की गई इस पोस्ट को विश्व नृत्य दिवस के उपलक्ष्य में यहाँ लाई हूँ. विश्व नृत्य दिवस पर आप सभी को शुभकामनायें !!)

IIT और IIM में भी शिक्षक नहीं..

कहते हैं किसी भी राष्ट्र को उन्नति की तरफ ले जाने में शिक्षा का बहुत योगदान है. मानव-संसाधन के विकास में भी इसका अप्रतिम योगदान है. प्राथमिक शिक्षा की स्थिति हमारे यहाँ किसी से छुपी नहीं है, पर उच्च शिक्षा का हाल भी बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता. सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले संस्थान अक्सर किन्हीं-न-किन्हीं कारणों से चर्चा में रहते हैं, पर यह आश्चर्य की बात है कि IIT और IIM में भी इस समय क्रमश: 1346 और 95 शिक्षकों के पद रिक्त हैं. इसे क्या कहा जाय सरकार की अ-गंभीरता या लापरवाही. इन संस्थानों की तमाम नई शाखाएं सरकार खोलती है, पर उन्हें इक अदद अध्यापक तक मुहैया नहीं करा पाती है. आखिरकार इनमें पढ़ रहे विद्यार्थियों का भविष्य कहाँ जायेगा. मात्र फीस बढ़ने से समस्याए हल नहीं हो सकती, इसके लिए आधारभूत सुविधाओं के साथ-साथ शिक्षा का स्तर भी सुधारना होगा और उसके लिए शिक्षकों की जरुरत है. IIM और IIT जैसे संस्थानों में इतनी भारी संख्या में शिक्षकों का अभाव हमारी शिक्षा नीति की पोल खोलता है. सर्व शिक्षा अभियान, स्कूल चलो अभियान, मिड डे मील योजना जैसी योजनाओं का हश्र सब जानते हैं, पर सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली संस्थाओं का भी ऐसा बुरा हश्र, आश्चर्य भी होता है, क्षोभ भी !!

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

गुड़ियों का अदभुत संसार

गुड़िया भला किसे नहीं भाती. गुडिया को लेकर न जाने कितने गीत लिखे गए हैं. गुडिया के बिना बचपन अधूरा ही कहा जायेगा. खिलौने के रूप में प्रयुक्त गुड़िया लोगों को इतना भाने लगी कि इसके नाम पर बच्चों के नाम भी रखे जाने लगे. बचपन में अपने हाथों से बने गई गुड़िया किसे नहीं याद होगी. गुड्डे-गुड़िया का खेल और फिर उनकी शादी..न जाने क्या-क्या मनभावन चीजें इससे जुडी थीं. लोग मेले में जाते तो गुड़िया जरुर खरीदकर लाते. रोते बच्चों को भी हँसा देती है प्यारी सी गुड़िया. अब तो बाजार में तरह-तरह की गुड़िया उपलब्ध हैं. गुड़िया की बकायदा ब्रांडिंग कर मार्केटिंग भी की जा रही है.

सर्वप्रथम गुड़िया बनाने का श्रेय इजिप्ट यानी मिश्रवासियों को जाता है। इजिप्ट में लगभग 2000 साल पहले धनी परिवारों में गुड़िया होती थीं। इनका प्रयोग पूजा के लिए व कुछ अलग प्रकार की गुड़िया का प्रयोग बच्चे खेलने के लिए करते थे। पहले इस पर फ्लैट लकड़ी को पेंट करके, उस पर डिजाइन किया जाता था। बालों को वुडन बीड्स या मिट्टी से बनाया जाता था। ग्रीस और रोम के बच्चे बड़े होने पर लकड़ी से बनी अपनी गुड़िया देवी को चढ़ा देते थे। उस समय हड्डियों से भी गुड़िया बनाई जाती थीं। ये आज की तुलना में बहुत साधारण होती थीं। कुछ समय बाद वैक्स से भी गुड़िया बनाई जाने लगीं। इसके बाद गुड़िया को रंग-बिरंगी ड्रेसेस पहनाई जाने लगीं। यूरोप भी एक समय में डाॅल्स हब था। वहाँ बड़ी मात्रा में गुड़िया बनाई जाती थीं।

17वीं-18वीं शताब्दी में वैक्स और वुड की बनी गुड़िया बहुत प्रचलित थीं। धीरे-धीरे इनमें सुधार होता रहा। 1850 से 1930 के बीच इंग्लैंड में गुड़िया के बनाने में एक और परिवर्तन किया गया। इनके सिर को वैक्स या मिट्टी से बनाकर प्लास्टर से इसको मोल्ड किया गया। सबसे पहले एक बेबी के रूप में गुड़िया को बनाने का श्रेय इंग्लैंड को जाता है। 19वीं शताब्दी में इस गुड़िया को भी वैक्स से बनाया गया था। 1880 में फ्रांस की बेबे नाम की गुड़िया तो खूब प्रसिद्द हुई थी। यही वह सुन्दर गुड़िया थी जिसको 1850 में बेबी के रूप में सबसे पहले बनाया गया था। इससे पहले की लगभग सभी गुड़िया बड़े लोगों के रूप में बने जाती थीं। लेकिन ये सभी गुड़िया काफी मँहगी थीं। जर्मनी ने बच्चों में गुड़िया का बढ़ता क्रेज देखकर सस्ती गुड़िया बनाने की शुरुआत की थी। मँहगी होने की वजह से अधिकतर माँ अपने बच्चे को काटन या लिनन के कपड़े से गुड़िया बनाकर देती थीं। 1850 में अमेरिकन कंपनियों ने इस प्रकार की गुड़िया बड़ी मात्रा में बनानी शुरू कर दीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गुड़िया बनाने के लिए प्लास्टिक का प्रयोग शुरू किया गया. 1940 में कठोर प्लास्टिक की गुड़िया बनाई जाने लगीं। 1950 में रबड़, फोम आदि की गुड़िया भी बनाई जाने लगीं। इसके बाद तो गुड़िया को न जाने कितने रंग-रूप में ढाला गया. बार्बी गुड़िया के प्रति बच्चों का क्रेज जगजाहिर है. अब भिन्न-भिन्न प्रकार की और भिन्न-भिन्न दामों में गुड़िया बाजार में आ गई हैं. बस जरुरत है उन्हें खरीदने और फिर गुड़िया तो जीवन का अंग ही हो जाती है !!

कई लोग तो तरह-तरह की गुड़िया इकठ्ठा करने का भी शौक रखते हैं. गुड़िया के बकायदा संग्रहालय भी हैं. इनमें से एक शंकर अन्तर्राष्ट्रीय गुड़िया संग्रहालय नई दिल्ली में बहादुर शाह जफर मार्ग पर चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट के भवन में स्थित है। इस संग्रहालय की स्थापना मशहूर कार्टूनिस्ट के. शंकर पिल्लई ने की थी। विभिन्न परिधानों में सजी गुड़ियों का यह संग्रह विश्व के सबसे बड़े संग्रहों में से एक है। 1000 गुड़ियों से आरंभ इस संग्रहालय में वर्तमान में लगभग 85 देशों की करीब 6500 गुडि़यों का संग्रह देखा जा सकता है। यहाँ एक हिस्से में यूरोपियन देशों, इंग्लैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, राष्ट्र मंडल देशों की गुडि़याँ रखी गई हैं तो दूसरे भाग में एशियाई देशों, मध्यपूर्व, अफ्रीका और भारत की गुड़ियाँ प्रदर्शित की गई हैं। इन गुड़ियों को खूब सजाकर रखा गया है।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में शब्द-शिखर की चर्चा

'शब्द शिखर' पर 22 अप्रैल, 2010 को विश्व पृथ्वी दिवस के उपलक्ष्य में प्रस्तुत पोस्ट पृथ्वी दिवस पर भाये ई-पार्क को हिन्दी दैनिक पत्र 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग राग' में 23 अप्रैल, 2010 को स्थान दिया गया है.'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में दूसरी बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 17वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

(चित्र साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

पृथ्वी दिवस पर भाये ई-पार्क


आज विश्व पृथ्वी दिवस है. वैसे आजकल हर दिन का फैशन है, पर पृथ्वी दिवस की महत्ता इसलिए बढ़ जाती है कि यह पृथ्वी और पर्यावरण के बारे में लोगों को जागरूक करता है. यदि पृथ्वी ही नहीं रहेगी तो फिर जीवन का अस्तित्व ही नहीं रहेगा. हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सुरक्षा को ललकार किया गया कोई भी कार्य समूची मानवता को खतरे में डाल सकता है. सर्वप्रथम पृथ्वी दिवस का विचार अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में पर्यावरण शिक्षा के अभियान रूप में की गयी, पर धीरे-धीरे यह पूरे विश्व में प्रचारित हो गया. आज हम अपने आसपास प्रकृति को न सिर्फ नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि भावी पीढ़ियों से प्रकृति को दूर भी कर रहे हैं. ऐसे परिवेश में कल वास्तविक पार्क की बजाय हमें ई-पार्क देखने को मिले, तो कोई बड़ी बात नहीं. इक निगाह कृष्ण कुमार यादव जी की इस कविता पर भी दौड़ाइए और सोचिये-


बचपन में पढ़ते थे
ई फॉर एलीफैण्ट
अभी भी ई अक्षर देख
भारी-भरकम हाथी का शरीर
सामने घूम जाता है
पर अब तो ई
हर सवाल का जवाब बन गया है
ई-मेल, ई-शॉप, ई-गवर्नेंस
हर जगह ई का कमाल
एक दिन अखबार में पढ़ा
शहर में ई-पार्क की स्थापना
यानी प्रकृति भी ई के दायरे में
पहुँच ही गया एक दिन
ई-पार्क का नजारा लेने
कम्प्यूटर-स्क्रीन पर बैठे सज्जन ने
माउस क्लिक किया और
स्क्रीन पर तरह-तरह के देशी-विदेशी
पेड़-पौधे और फूल लहराने लगे
बैकग्राउण्ड में किसी फिल्म का संगीत
बज रहा था और
नीचे एक कंपनी का विज्ञापन
लहरा रहा था
अमुक कोड नंबर के फूल की खरीद हेतु
अमुक नम्बर डायल करें
वैलेण्टाइन डे के लिए
फूलों की खरीद पर
आकर्षक गिटों का नजारा भी था
पता ही नहीं चला
कब एक घंटा गुजर गया
ई-पार्क का मजा ले
ज्यों ही चलने को हुआ
उन जनाब ने एक कम्प्यूटराइज्ड रसीद
हाथ में थमा दी
आखिर मैंने पूछ ही लिया
भाई! न तो पार्क में मैने
परिवार के सदस्यों के साथ दौड़ लगायी
न ही अपने टॉमी कुत्ते को घुमाया
और न ही मेरी पत्नी ने पूजा की खातिर
कोई फूल या पत्ती तोड़ी
फिर काहे की रसीद ?
वो हँसते हुये बोला
साहब! यही तो ई-पार्क का कमाल है
न दौड़ने का झंझट
न कुत्ता सभालने का झंझट
और न ही पार्क के चौकीदार द्वारा
फूल पत्तियाँ तोड़ते हुए पकड़े जाने पर
सफाई देने का झंझट
यहाँ तो आप अच्छे-अच्छे
मनभावन फूलों व पेड़-पौधें का नजारा लीजिये
और आँखों को ताजगी देते हुये
आराम से घर लौट जाईये !!

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

गुणों की खान है नारियल

नारियल भला किसे नहीं भाता. फिर समुद्र के किनारे रहने वालों की तो बल्ले-बल्ले है. जब जी में आया नारियल का भोग लगा लिया.नारियल के कच्चे फल को डाभ कहते हैं जिसके अन्दर का पानी स्वास्थ्य और जायके की दृष्टि से अच्छा माना जाता है. किसी को नारियल का पानी अच्छा लगता है तो किसी को इसकी मलाई. यदि आपको इसकी मलाई अच्छी लगती है तो दुकानदार को विशेष रूप से बताना पड़ेगा कि मलाई वाला नारियल चाहिए. फिर नारियल के कवच का चम्मच और मजेदार मलाई. नारियल का गूदा, पानी और तेल इस्तेमाल में लाया जाता है। नारियल न सिर्फ खाने में स्वादिष्ट होता है, इसे बेहद पौष्टिक भी माना गया है। इसमें प्रचुर मात्रा में फाइबर, विटामिन और खनिज होता है। रसोई, स्वास्थ्य, खूबसूरती और धार्मिक चारों मामलों में इसका जवाब नहीं. बाहर से कड़ा पर अन्दर से मुलायम नारियल को यूँ ही श्रीफल नहीं कहा जाता है. नारियल को संस्कृत में नालिकेरः कहते हैं। "नल्यते केन वायुना ईर्यते इति नालिकेर:"। वर्णभ्रंश के कारण, सामान्य भाषा में यह नारिकेल तथा बाद में नारियल बन गया. आइये आज नारियल के पानी का मजा लेते हुए ये पोस्ट नारियल को ही समर्पित करते हैं और इसके भरपूर गुणों की चर्चा करते हैं.

-नारियल इंफ्लूएंजा, दाद, चेचक, हेपेटाइटिस सी, एड्स जैसे बीमारियों के लिए जिम्मेदार वायरस को खत्म कर देता है।
-नारियल उन बैक्टीरिया को भी खत्म करता है जो अल्सर, गले का संक्रमण, दांतों की बीमारी और निमोनिया पैदा करते हैं।
-नारियल शरीर को तुरंत ऊर्जा प्रदान करता है।
-नारियल इंसुलिन के स्राव को बेहतर करता है रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को संतुलित बनाए रखता है। यह डायबिटीज का खतरा भी घटाता है।
-नारियल के सेवन से शरीर द्वारा कैल्शियम और मैग्नीशियम के अवशोषण की प्रक्रिया बेहतर हो जाती है। यह हड्डियों और दांतों को भी मजबूत बनाता है।
-नारियल आस्टियोपोरोसिस [हड्डियों का कमजोर हो जाना] के खतरे से बचाता है।
-नारियल पाचन क्रिया को बेहतर बनाता है। -नारियल बवासीर में होने वाले दर्द को घटाने में कारगर है।
-नारियल ब्रेस्ट, कोलन [बड़ी आंत] और लिवर कैंसर के खतरे से बचाता है।
-नारियल दिल के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद है। यह कोलेस्ट्राल के अनुपात को सुधारता है और दिल की बीमारी के खतरे को कम करता है।
-नारियल पित्ताशय से संबंधित बीमारी के लक्षणों से छुटकारा दिलाने में मदद करता है।
-नारियल किडनी के स्टोन को गलाने में मदद करता है।
-नारियल में कैलोरी काफी मात्रा में पाई जाती हैं।
-नारियल मोटापे से बचाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक स्वस्थ वयस्क के भोजन में प्रतिदिन 15 मिग्रा जिंक होना जरूरी है जिससे मोटापे से बचा जा सके। ताजा नारियल में जिंक भरपूर मात्रा में होता है।
-नारियल सूर्य की पराबैगनी किरणों के दुष्प्रभाव से शरीर की रक्षा करता है।
-नारियल शरीर पर पड़ने वाली झुर्रियों और शिथिल पड़ती त्वचा के लिए उपयोगी होता है।
- नारियल से हैजे की उल्टियाँ भी बंद हो जाती हैं. हैजे में यदि उल्टियाँ बंद न हो पा रही हों तो रोगी को तुरंत नारियल पानी पिलाना चाहिए।-स्वस्थ सुंदर संतान प्राप्ति के लिए गर्भवती महिला को 3-4 टुकड़े नारियल प्रतिदिन चबा-चबाकर खाने चाहिए। इसके साथ एक चम्मच मक्खन, मिसरी तथा थोड़ी सी पिसी कालीमिर्च मिलाकर चाटें। बाद में थोड़ी सी सौंफ चबाएँ। इसके आधे घंटे बाद तक कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए। पुराने सूजाक और मूत्रकृच्छ में भी इससे आश्चर्यजनक लाभ होता है।
-नारियल का तेल किसी दवा से कम नहीं। स्वास्थ्य के लिहाज से इसे सबसे अच्छा तेल माना गया है।सूखे नारियल से तेल निकाला जाता है। इस तेल की मालिश त्वचा तथा बालों के लिए बहुत अच्छी होती है। नारियल तेल की मालिश से मस्तिष्क भी ठंडा रहता है। गर्मी में लगने वाले दस्तों में एक कप नारियल पानी में पिसा जीरा मिलाकर पिलाने से दस्तों में तुरंत आराम मिलता है।
-नारियल से बर्फी, लड्डू, केक इत्यादि तमाम मिठाइयों सहित जायकेदार चटनी भी बनती है.

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

..फिर से बचपन के ख्यालों में

कई बार हमें छोटी-छोटी बातें सुकून देती हैं. हम फिर से बचपन में लौटना चाहते हैं. पर क्या करें बड़े होने के आदी जो हो गए हैं. पर शरीर बड़ा होने से क्या हुआ, मन तो अभी भी मानो बचपन की दहलीज पर है. हम बातें जरुर बड़ी-बड़ी करते हैं, पर कई बार हमारी बातों में भी बचपना झलकता है. तो इंतजार किस बात का, आइये एक बार फिर से बचपन के ख्यालों में खो जाते हैं और महसूस करते हैं अपने उस बीते बचपन को...!!

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..और हाँ ऐसी ही खुशियों को सहेजने के लिए ब्लागोत्सव -2010 भी आरंभ हो चुका है, जरुर जाइएगा वहाँ पर. वहाँ पर कला दीर्घा में आज हमारी प्यारी बिटिया रानी अक्षिता(पाखी) की अभिव्यक्ति भी देखिएगा और अपनी टिप्पणियों से अवगत कराइयेगा !!

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

हिन्दू धर्म से विमुख डा0 अम्बेडकर (जयंती पर विशेष)

डा0 अम्बेडकर दूरदृष्टा और विचारों से क्रांतिकारी थे तथा सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पश्चात वे बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुए। एक ऐसा धर्म जो मानव को मानव के रूप में देखता था, किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित था न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अंधविश्वास पर। अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे।

1935 में नासिक जिले के भेवले में आयोजित महार सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने घोषणा कर दी थी कि- ‘‘आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं धर्म परिवर्तन करने जा रहा हूँ। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योंकि यह मेरे वश में नहीं था लेकिन मैं हिन्दू धर्म में मरना नहीं चाहता। इस धर्म से खराब दुनिया में कोई धर्म नहीं है इसलिए इसे त्याग दो। सभी धर्मों में लोग अच्छी तरह रहते हैं पर इस धर्म में अछूत समाज से बाहर हैं। स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने का एक रास्ता है धर्म परिवर्तन। यह सम्मेलन पूरे देश को बतायेगा कि महार जाति के लोग धर्म परिवर्तन के लिये तैयार हैं। महार को चाहिए कि हिन्दू त्यौहारों को मनाना बन्द करें, देवी देवताओं की पूजा बन्द करें, मंदिर में भी न जायें और जहाँ सम्मान न हो उस धर्म को सदा के लिए छोड़ दें।’’

अम्बेडकर की इस घोषणा पश्चात ईसाई मिशनरियों ने उन्हें अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश की और इस्लाम अपनाने के लिये भी उनके पास प्रस्ताव आये। कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिये उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था पर अम्बेडकर ने उसे वापस कर दिया।

वस्तुतः अम्बेडकर एक ऐसा धर्म चाहते थे, जिसकी जड़ें भारत में हों। अन्ततः 24 मई 1956 को बुद्ध की 2500 वीं जयन्ती पर अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने की घोषणा कर दी और अक्टूबर 1956 में दशहरा के दिन नागपुर में हजारों शिष्यों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे भगवान बुद्ध के एक उपदेश का हवाला भी दिया- ‘‘हे भिक्षुओं! आप लोग कई देशों और जातियों से आये हुए हैं। आपके देश-प्रदेश में अनेक नदियाँ बहती हैं और उनका पृथक अस्तित्व दिखाई देता है। जब ये सागर में मिलती हैं, तब अपने पृथक अस्तित्व को खो बैठती हैं और समुद्र में समा जाती हैं। बौद्ध संघ भी समुद्र की ही भांति है। इस संघ में सभी एक हैं और सभी बराबर हैं। समुद्र में गंगा या यमुना के मिल जाने पर उसके पानी को अलग पहचानना कठिन है। इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संघ में आने पर सभी एक हैं, सभी समान हैं।’’

बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ ही दिनों पश्चात 6 दिसम्बर 1956 को डा0 अम्बेडकर ने नश्वर शरीर को त्याग दिया पर ‘आत्मदीपोभव’ की तर्ज पर समाज के शोषित, दलित व अछूतों के लिये विचारों की एक पुंज छोड़ गए। उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था कि- ‘‘डा0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’

(कल 14 अप्रैल को डा0 अम्बेडकर जी की जयंती है..शत-शत नमन)

रविवार, 11 अप्रैल 2010

आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय रहीं कस्तूरबा गाँधी (जयंती पर)

कहते हैं हर पुरुष की सफलता के पीछे एक नारी का हाथ होता है. एक तरफ वह घर की जिम्मेदारियां उठाकर पुरुष को छोटी-छोटी बातों से सेफ करती है, वहीँ वह एक निष्पक्ष सलाहकार के साथ-साथ हर गतिविधि को संबल देती है. महात्मा गाँधी के नाम से भला कौन अपरिचित होगा. उनकी जयंती से लेकर पुण्यतिथि तक बड़े धूम धाम से मनाई जाती है, पर जिस महिला ने उन्हें जीवन भर संबल दिया, उन्हें कोई नहीं याद करता. तो आज बात करते हैं गाँधी जी की धर्म पत्नी कस्तूरबा गाँधी की, जिनकी आज जयंती है.

गुजरात में 11 अप्रैल, 1869 को जन्मीं कस्तूरबा का 14 साल की आयु में ही मोहनदास करमचंद गाँधी जी के साथ बाल विवाह हो गया था. वे आयु में गांधी जी से 6 मास बड़ी थीं. वास्तव में 7 साल की अवस्था में 6 साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई कर दी गई और 13 साल की आयु में उन दोनों का विवाह हो गया। जिस उम्र में बच्चे शरारतें करते और दूसरों पर निर्भर रहते हैं, उस उम्र में कस्तूरबा ने पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन आरंभ कर दिया. वह गाँधी जी के धार्मिक एवं देशसेवा के महाव्रतों में सदैव उनके साथ रहीं। यही उनके सारे जीवन का सार है। गाँधी जी के अनेक उपवासों में बा प्राय: उनके साथ रहीं और उनकी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती रहीं। आजादी की जंग में जब भी गाँधी जी गिरफ्तार हुए, सारा दारोमदार कस्तूरबा बा के कन्धों पर ही पड़ा. यदि इतने सब के बीच गाँधी जी स्वस्थ रहे और नियमित दिनचर्या का पालन करते रहे तो इसके पीछे कस्तूरबा बा थीं, जो उनकी हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखतीं और हर तकलीफ अपने ऊपर लेतीं. तभी तो गाँधी जी ने कस्तूरबा बा को अपनी माँ समान बताया था, जो उनका बच्चों जैसा ख्याल रखतीं.

विवाह के बाद कस्तूरबा और मोहनदास 1888 ई. तक लगभग साथ-साथ ही रहे किंतु गाँधी जी के इंग्लैंड प्रवास के बाद से लगभग अगले 12 वर्ष तक दोनों प्राय: अलग-अलग से रहे। इंग्लैंड प्रवास से लौटने के बाद शीघ्र ही गाँधी जी को अफ्रीका चला जाना पड़ा। जब 1896 में वे भारत आए तब कस्तूरबा बा को अपने साथ ले गए। तब से बा गाँधी जी के पद का अनुगमन करती रहीं। उन्होंने उनकी तरह ही अपने जीवन को सादा बना लिया था। 1904-1911 तक वह डरबन स्थित गाँधी जी के फिनिक्स आश्रम में काफी सक्रिय रहीं.

एक वाकया कस्तूरबा बा की जीवटता और संस्कारों का परिचायक है जब दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की दयनीय स्थिति के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया व 3 महीने कैद की सजा सुनाई गई. वस्तुत: दक्षिण अफ्रीका में 1913 में एक ऐसा कानून पास हुआ जिसके अनुसार ईसाई मत के अनुसार किए गए और विवाह विभाग के अधिकारी के यहाँ दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता अग्राह्य की गई थी। गाँधी जी ने इस कानून को रद कराने का बहुत प्रयास किया पर जब वे सफल न हुए तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निश्चय किया और उसमें सम्मिलित होने के लिये स्त्रियों का भी आह्वान किया। पर इस बात की चर्चा उन्होंने अन्य स्त्रियों से तो की किंतु बा से नहीं की। वे नहीं चाहते थे कि बा उनके कहने से सत्याग्रहियों में जायँ और फिर बाद में कठिनाइयों में पड़कर विषम परिस्थिति उपस्थित करें। जब कस्तूरबा बा ने देखा कि गाँधी जी ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो बड़ी दु:खी हुई और फिर स्वेच्छया सत्याग्रह में सम्मिलित हुई और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गर्इं। जेल में जो भोजन मिला वह अखाद्य था अत: उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया। किंतु जब उनके इस अनुरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो उन्होंने उपवास करना आरंभ कर दिया। अंतत: पाँचवें दिन अधिकारियों को झुकना पड़ा। किंतु जो फल दिए गए वह पूरे भोजन के लिये पर्याप्त न थे। अत: कस्तूरबा बा को तीन महीने जेल में आधे पेट भोजन पर रहना पड़ा। जब वे जेल से छूटीं तो उनका शरीर ढांचा मात्र रह गया था, पर उनके हौसले में कोई कमी नहीं थी.

भारत लौटने के बाद भी वे गाँधी जी के साथ काफी सक्रिय रहीं. चंपारन के सत्याग्रह के समय बा तिहरवा ग्राम में रहकर गाँवों में घूमती और दवा वितरण करती रहीं। उनके इस काम में निलहे गोरों को राजनीति की बू आई। उन्होंने बा की अनुपस्थिति में उनकी झोपड़ी जलवा दी। बा की उस झोपड़ी में बच्चे पढ़ते थे। अपनी यह पाठशाला एक दिन के लिए भी बंद करना उन्हें पसंद न था अत: उन्होंने सारी रात जागकर घास का एक दूसरा झोपड़ा खड़ा किया। इसी प्रकार खेड़ा सत्याग्रह के समय बा स्त्रियों में घूम घूमकर उन्हें उत्साहित करती रहीं।जब 1932 में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू ने यरवदा जेल में आमरण उपवास आरंभ किया उस समय बा साबरमती जेल में थीं। उस समय वे बहुत बेचैन हो उठीं और उन्हें तभी चैन मिला जब वे यरवदा जेल भेजी गर्इं।

गाँधी जी के अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन के दौरान 9 अगस्त, 1942 को गाँधी जी के गिरफ्तार हो जाने पर बा ने, शिवाजी पार्क (बंबई) में, जहाँ स्वयं गाँधी जी भाषण देने वाले थे, सभा में भाषण करने का निश्चय किया किंतु पार्क के द्वार पर ही अंग्रेजी सर्कार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. दो दिन बाद वे पूना के आगा खाँ महल में भेज दी गर्इं, जहाँ गाँधी जी पहले से गिरफ्तार कर भेजे चुके थे। उस समय वे अस्वस्थ थीं। 15 अगस्त को जब यकायक गाँधी जी के निजी सचिव महादेव देसाई ने महाप्रयाण किया तो वे बार बार यही कहती रहीं महादेव क्यों गया; मैं क्यों नहीं? बाद में महादेव देसाई का चितास्थान उनके लिए शंकर-महादेव का मंदिर सा बन गया। वे नित्य वहाँ जाती, समाधि की प्रदक्षिणा कर उसे नमस्कार करतीं। वे उसपर दीप भी जलवातीं। यह उनके लिए सिर्फ दिया नहीं था, बल्कि इसमें वह आने वाली आजादी की लौ भी देख रही थीं. कस्तूरबा बा की दिली तमन्ना देश को आजाद देखने की थी, पर उनका गिरफ्तारी के बाद उनका जो स्वास्थ्य बिगड़ा वह फिर अंतत: उन्हें मौत की तरफ ले गया और 22 फरवरी, 1944 को वे सदा के लिए सो गयीं.

दुर्भाग्यवश कस्तूरबा बा को आज कोई भी याद नहीं करता, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि वे गाँधी जी के पीछे खड़ी नहीं होती तो, आजादी हमसे दूर भी खिसक सकती थी. यदि गाँधी जी राष्ट्र-पिता हैं तो वाकई कस्तूरबा राष्ट्र-माता, जिन्होंने एक साथ अपने पति और देश दोनों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए इसी माटी में अपना नश्वर शरीर त्याग दिया. आज उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन !!

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

'शब्द-शिखर' के एक साथ दो शतक पूरे

आज कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं. इसी उधेड़बुन में डैश बोर्ड पर गई तो मुझे आश्चर्य मिश्रित हैरानी हुई कि शब्द-शिखर पर मैंने 120 पोस्ट का सफ़र पूरा कर लिया है. यह शतक कब बन गया, पता ही नहीं चला. इस बीच चिटठा जगत पर भी शब्द-शिखर का सक्रियता क्रमांक 97 पर पहुँच गया है...तो एक ख़ुशी अपने ब्लॉग पर शतक पोस्ट मारने की व दूसरी ख़ुशी अपने इस चिट्ठे के 100 सक्रिय ब्लॉगों में पहुँचने की.

यह आप लोगों का स्नेह ही है की हम यहाँ तक पहुँचे. आपकी टिप्पणियाँ हमें सदैव प्रेरित करती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शब्द-शिखर की चर्चा ने भी हमारी हौसला आफजाई की. तो आज की पोस्ट में इसे ही आप लोगों के साथ सेलिब्रेट करते हैं...दोनों ही मामला शतक से ही जुड़ा हुआ है, यानी शब्द-शिखर ने दो शतकों को छुआ है...एक शतक पार करने की और दूसरी शतक में स्थान पाने की.आप लोगों का स्नेह यूँ ही बना रहा तो "शब्द-शिखर" यूँ ही तरक्की के पायदान चढ़ता रहेगा. आप सभी के सहयोग के लिए आभार !!

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

बाल विवाह की भयंकरता समृद्ध राज्यों में भी

आजकल कलर्स चैनल पर चल रहा धारावाहिक 'बालिका वधू' काफी चर्चा में है. पश्चिम बंगाल में तो एक नाबालिग लड़की ने यह कहते हुए शादी से इंकार कर दिया कि बालिका वधु की आनंदी बाल विवाह का विरोध करती है। वस्तुत: बाल विवाह एक ऐसा मुद्दा है, जिसके प्रति हर कोई सचेत है. यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में दुनिया के 40 फीसदी बाल विवाह होते हैं । पिछले साल तो भारत और अफ्रीका समेत अन्य दक्षिण एशियाई देशों में बाल विवाह की समस्या को खत्म करने में विदेशी सहायता के लिए अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में एक विधेयक भी पेश किया गया था.वस्तुत: बाल विवाह एक तरह से मानवाधिकार उल्लंघन है. तमाम बालिका वधुएँ गरीबी में रहने, कम वजन के बच्चों को जन्म देने, उम्र से पूर्व प्रसवावस्था में मौत का शिकार होने इत्यादि दुर्गतियों का शिकार हो जाती हैं.

कहा जाता है जो समाज जितना शिक्षित और विकसित होगा, वहाँ इस तरह की घटनाएँ उतनी ही कम होंगीं. पर वास्तव में ऐसा नहीं है. गुजरात व आंध्र प्रदेश जैसे समृद्ध व शिक्षित राज्य बाल विवाह के मामले में देश में सबसे आगे हैं. कुल मामलों में 40 फीसदी मामले इन दोनों प्रदेशों में ही दर्ज हुए हैं. पूरे भारत में वर्ष 2008 में बाल विवाह के 104 मामले आये, जिनमें से 23 गुजरात के व 19 आंध्र प्रदेश के थे. फर्क बस इतना रहा कि 2007 में आंध्र 19 मामलों के साथ प्रथम व गुजरात 14 मामलों के साथ दूसरे नंबर पर था. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2008 में कर्णाटक में 9, बिहार में 8, पश्चिम बंगाल व पंजाब में 6-6, महाराष्ट्र व छत्तीसगढ़ में 5-5, केरल, तमिलनाडु व हरियाणा में 4-4, राजस्थान में 3, मध्य प्रदेश व हिमाचल प्रदेश में 2-2 एवं दिल्ली, गोवा, उड़ीसा व असम में 1-1 बाल विवाह के मामले दर्ज हुए. कभी बाल विवाह के मामले में राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और प0 बंगाल जैसे राज्य जाने जाते थे पर आज अपने को वायिब्रेंट व टेक्नोलाजी के अग्रदूत माने जाने वाले राज्यों में यदि इसकी दर बढ़ रही है तो यह चिंताजनक भी है और अफसोसजनक भी.आखिर यह जान बूझकर ऐसे जोड़ों को गर्त में धकेलना ही तो कहा जायेगा. वह भी तब जब भारत सरकार ने नेशनल प्लान फॉर चिल्ड्रेन 2005 में 2010 तक बाल विवाह को पूरी तरह ख़त्म करने का लक्ष्य रखा है ।

आज जहाँ हर कोई कैरियर बनाने में लगा है, वहाँ शादियाँ २५ के बाद ही हो रही हैं, पर यहाँ तो गुजरात व आंध्र जैसे सक्षम व समृद्ध राज्य 21 (लड़का) व 18 (लड़की) कि उम्र से भी पहले विवाह को नहीं रोक पा रहे हैं. ऐसी घटनाएँ एक बार फिर सिद्ध करती हैं कि शिक्षा व समृद्धि के बावजूद कुछ चीजें ऐसी हैं, जो मानवीय प्रवृत्तियों को निर्देशित करती हैं, अन्यथा बाल-विवाह के पक्ष में कोई तर्क देना तो मुश्किल ही होगा.

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

सुप्रीम कोर्ट में भी महिलाओं के लिए आरक्षण

लोकसभा-विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रयास बाद क्या न्यायपालिका में भी महिलाओं के लिए आरक्षण की जरुरत है. ऐसा तब सोचने की जरुरत पड़ती है, जब 29 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट में एक भी महिला जज नहीं दिखती है. अभी तक सुप्रीम कोर्ट में 03 ही महिला जज पहुँची हैं- फातिमा बीबी, सुजाता मनोहर और रुमा पाल. और मुख्य न्यायधीश बनने का सौभाग्य तो किसी को नहीं मिला है. क्या वाकई भारत में नारी इतनी पिछड़ी हैं. आज देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष से लेकर सबसे बड़ी प्रान्त की मुख्यमंत्री तक महिला हैं, फिर आजादी के 6 दशक बीत जाने के बाद भी कोई महिला सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायधीश पद पर क्यों नहीं पहुँची. अव्वल तो मात्र 03 महिलाएं ही यहाँ जज बनीं, यानि औसतन 20 साल में एक महिला. फिर न्यायपालिका में आरक्षण क्यों नहीं होना चाहिए?

सुनने में आ रहा है, जब पिछली बार एक महिला जज की वरिष्ठता की अनदेखी कर एक अन्य को प्रोन्नति देकर जज बनाया गया तो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी ने भी यह सलाह दी थी की किसी महिला को जज क्यों नहीं बनाया जा रहा है. ऐसे में यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. फ़िलहाल झारखण्ड उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायधीश ज्ञान सुधा मिश्रा जी सबसे वरिष्ठ हैं, और आशा की जानी चाहिए की शीघ्र ही उनके रूप में सुप्रीम कोर्ट को चौथी महिला जज मिलेगी. पर सवाल अभी भी वहीँ कायम है कि यह सब स्थिति देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट में भी महिलाओं को आरक्षण क्यों न दिया जाय ??