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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा

नवरात्र आरंभ हो चुका है. देवी-माँ की मूर्तियाँ सजने लगी हैं. चारों तरफ भक्ति-भाव का बोलबाला है. दशहरे की उमंग अभी से दिखाई देने लगी है. नवरात्र और दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा-पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुतः दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है।

बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवशियों ने दूर्गा-पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नव कृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा-पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्ण देव द्वारा की गई दुर्गा-पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारांे ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 मंे प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारांे से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राह्मणांे ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा-पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।

बंगाल के साथ-साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी0एस0 पी0) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी मंे किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन-समान्य में व्यापक स्थान पा लिया। आज दुर्गा पूजा दुनिया के कई हिस्सों में आयोजित की जाती है। लंदन में प्रथम दुर्गा पूजा उत्सव 1963 में मना, जो अब एक बड़े समारोह में तब्दील हो चुका है।

-कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

महँगाई का हाल

मँहगी सब्जी, मँहगा आटा
भूल गए सब दाल
मँहगाई ने कर दिया
सबका हाल बेहाल।

दूध सस्ता, पानी मँहगा
पेप्सी-कोला का धमाल
रोटी छोड़ ब्रेड खाओ
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कमाल।

नेता-अफसर मौज उड़ाएं
चलें बगुले की चाल
गरीबी व भुखमरी बढ़े
ऐसा मँहगाई का जाल ।

संसद में होती खूब बहस
सेठ होते कमाकर लाल
नेता लोग खूब चिल्लायें
विपक्ष बनाए चुनावी ढाल।

जनता रोज पिस रही
धंस गए सबके गाल
मँहगाई का ऐसा कुचक्र
हो रहे सब हलाल।

- आकांक्षा यादव

सोमवार, 5 सितंबर 2011

शिक्षकों की भूमिका व कर्तव्यों पर पुनर्विचार

भारतीय संस्कृति का एक सूत्र वाक्य है-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।‘ अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने की इस प्रक्रिया में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। भारतीय परम्परा में शिक्षा को शरीर, मन और आत्मा के विकास द्वारा मुक्ति का साधन माना गया है। शिक्षा मानव को उस सोपान पर ले जाती है जहाँ वह अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परंपरा रहीे है।




गुरुब्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।

प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही माँग लिया था। श्री राम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र, तो श्री कृष्ण ने गुरू संदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसी की बदौलत समाज को आतातायियों से मुक्त भी किया। गुरूवर द्रोणाचार्य ने पांडव-पुत्रों विशेषकर अर्जुन को जो शिक्षा दी, उसी की बदौलत महाभारत में पांडव विजयी हुए। गुरूवर द्रोणाचार्य स्वयं कौरवों की तरफ से लड़े पर कौरवों को विजय नहीं दिला सके क्योंकि उन्होंने जो शिक्षा पांडवों को दी थी, वह उन पर भारी साबित हुई। गुरू के आश्रम से आरम्भ हुई कृष्ण-सुदामा की मित्रता उन मूल्यों की ही देन थी, जिसने उन्हें अमीरी-गरीबी की खाई मिटाकर एक ऐसे धरातल पर खड़ा किया जिसकी नजीर आज भी दी जाती है। विश्व-विजेता सिकंदर के गुरू अरस्तू को भला कौन भुला सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तो अपने पुत्र की शिक्षिका को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उसकी शिक्षा में उनका पद आड़े नहीं आना चाहिए। उन्होंने शिक्षिका से अपने पुत्र को सभी शिक्षाएं देने का अनुरोध किया जो उसे एक अच्छा व्यक्ति बनाने में सहायता करती हों।

वस्तुतः शिक्षक उस प्रकाश-स्तम्भ की भांति है, जो न सिर्फ लोगों को शिक्षा देता है बल्कि समाज में चरित्र और मूल्यों की भी स्थापना करता है। शिक्षा का रूप चाहे जो भी हो पर उसके सम्यक अनुपालन के लिए शिक्षक का होना निहायत जरूरी है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि चरित्र विकास, अनुशासन, संयम और तमाम सद्गुणों के साथ अपने को अप-टू-डेट रखने का माध्यम भी है। कहते हैं बच्चे की प्रथम शिक्षक माँ होती है, पर औपचारिक शिक्षा उसे शिक्षक के माध्यम से ही मिलती है। प्रदत शिक्षा का स्तर ही व्यक्ति को समाज में तदनुरूप स्थान और सम्मान दिलाता है। शिक्षा सिर्फ अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का पर्याय नहीं हो सकती बल्कि एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों का दिलो-दिमाग भी चुस्त-दुरुस्त बनाकर उसे वृहद आयाम देता है। शिक्षक का उद्देश्य पूरे समाज को शिक्षित करना है। शिक्षा एकांगी नहीं होती बल्कि व्यापक आयामों को समेटे होती है।

आजादी के बाद इस गुरू-शिष्य की दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डा0 राधाकृष्णन ने कहा कि- ”मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूँगा।” तब से लेकर हर 5 सितम्बर को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाया जाता है। डा0 राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने का हकदार वही है, जो लोगों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता हैै। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डा0 राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते थे। यह डा0 राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।

वर्तमान परिपे्रक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। यही नहीें तमाम शिक्षक अपनी नैतिक मर्यादायें तोड़कर छात्राओं के साथ अश्लील कार्यों में लिप्त पाये गये। आज न तो गुरू-शिष्य की परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।

आज शिक्षा को हर घर तक पहुँचाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जा रहे है, पर इसी के साथ शिक्षकों की मनःस्थिति के बारे में भी सोचने की जरूरत है। शिक्षकों को भी वह सम्मान मिलना चाहिए, जिसके वे हकदार हैं। शिक्षक, शिक्षा (ज्ञान) और विद्यार्थी के बीच एक सेतु का कार्य करता है और यदि यह सेतु ही कमजोर रहा तो समाज को खोखला होने में देरी नही लगेगी। देश का शायद ही ऐसा कोई प्रांत हो, जहाँ विद्यार्थियों के अनुपात में अध्यापकों की नियुक्ति हो, फिर शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधरे ? अभी भी देश में छात्र शिक्षक अनुपात 32: 1 है, जबकी 324 ऐसे जिले हैं जिनमें छात्र शिक्षक अनुपात 3: 1 से कम है। देश में नौ फीसदी स्कूल ऐसे हैं जिनमें केवल एक शिक्षक हैं तो 21 फीसदी ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है। मतगणना-जनगणना से लेकर अन्य तमाम कार्यों में शिक्षकों की ड्यूटी भी उन्हें मूल शिक्षण कार्य से विरत रखती है। ऐसे में जब शिक्षा की नींव ही कमजोर होगी, तो विद्यार्थियों का उन्नयन कैसे होगा, यह एक गंभीर समस्या है।

‘शिक्षक दिवस‘ एक अवसर प्रदान करता है जब हम समग्र रूप में शिक्षकों की भूमिका व कर्तव्यों पर पुनर्विचार कर सकें और बदलते प्रतिमानों के साथ उनकी भूमिका को और भी सशक्त रूप दे सकें।

(शिक्षक-दिवस पर आकाशवाणी, पोर्टब्लेयर द्वारा प्रस्तुत आकांक्षा यादव की वार्ता)

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

महिमा अपरम्पार है भगवान गणेश की

भारतीय संस्कृति में भगवान गणेश को आदि देवता माना गया है.उनका पूजन किए बगैर कोई कार्य प्रारम्भ नहीं होता।गणपति विघ्नहर्ता हैं, इसलिए नौटंकी से लेकर विवाह की एवं गृह प्रवेश जैसी समस्त विधियों के प्रारंभ में गणेश पूजन किया जाता है।
पत्र अथवा अन्य कुछ लिखते समय सर्वप्रथम॥ श्री गणेशाय नमः॥, ॥श्री सरस्वत्यै नमः॥, ॥श्री गुरुभ्यो नमः॥ ऐसा लिखने की प्राचीन पद्धति थी। ऐसा ही क्रम क्यों बना? किसी भी विषय का ज्ञान प्रथम बुद्धि द्वारा ही होता है व गणपति बुद्धि दाता हैं, इसलिए प्रथम '॥ श्री गणेशाय नमः ॥' लिखना चाहिए। विघ्न हरण करने वाले देवता के रूप में पूज्य गणेश जी सभी बाधाओं को दूर करने तथा मनोकामना को पूरा करने वाले देवता हैं। श्री गणेश निष्कपटता, विवेकशीलता, अबोधिता एवं निष्कलंकता प्रदान करने वाले देवता हैं। उनके ध्यानमात्र से व्यक्ति उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर होता है। जहाँ तक सामान्यजन का सवाल है, वह आज भी चरम आस्तिक भाव से 'ॐ गणानां त्वां गणपति गुं हवामहे' का पाठ करके सुरक्षा-समृद्धि का एक भाव पा लेता है, जो किसी भी देव की आराधना का शायद मूल कारण है।

गणपति विवेकशीलता के परिचायक है। गणपति का वर्ण लाल है; उनकी पूजा में लाल वस्त्र, लाल फूल व रक्तचंदन का प्रयोग किया जाता है। हाथी के कान हैं सूपा जैसे सूपा का धर्म है 'सार-सार को गहि लिए और थोथा देही उड़ाय' सूपा सिर्फ अनाज रखता है। हमें कान का कच्चा नहीं सच्चा होना चाहिए। कान से सुनें सभी की, लेकिन उतारें अंतर में सत्य को। आँखें सूक्ष्म हैं जो जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। नाक बड़ा यानि दुर्गन्ध (विपदा) को दूर से ही पहचान सकें। गणेशजी के दो दाँत हैं एक अखण्ड और दूसरा खण्डित। अखण्ड दांत श्रद्धा का प्रतीक है यानि श्रद्धा हमेशा बनाए रखना चाहिए। खण्डित दाँत है बुद्धि का प्रतीक इसका तात्पर्य एक बार बुद्धि भ्रमित हो, लेकिन श्रद्धा न डगमगाए। गणेश जी के आयुध औश्र प्रतीकों से अंकुश हैं, वह जो आनंद व विद्या की प्राप्ति में बाधक शक्तियों का नाश करता है। कमर से लिपटा नाग अर्थात विश्व कुंडलिनी और लिपटे हुए नाग का फन अर्थात जागृत कुंडलिनी. मूषक अर्थात्‌ रजोगुण, गणपति के नियंत्रण में है।

मोदक गणेश जो को बहुत प्रिय है, पर सांसारिक दुनिया से परे इसका भी आध्यात्मिक भाव है.'मोद' यानी आनंद व 'क' का अर्थ है छोटा-सा भाग। अतः मोदक यानी आनंद का छोटा-सा भाग। मोदक का आकार नारियल समान, यानी 'ख' नामक ब्रह्मरंध्र के खोल जैसा होता है। कुंडलिनी के 'ख' तक पहुँचने पर आनंद की अनुभूति होती है। हाथ में रखे मोदक का अर्थ है कि उस हाथ में आनंद प्रदान करने की शक्ति है। 'मोदक मान का प्रतीक है, इसलिए उसे ज्ञानमोदक भी कहते हैं। आरंभ में लगता है कि ज्ञान थोड़ा सा ही है (मोदक का ऊपरी भाग इसका प्रतीक है।), परंतु अभ्यास आरंभ करने पर समझ आता है कि ज्ञान अथाह है। (मोदक का निचला भाग इसका प्रतीक है।) जैसे मोदक मीठा होता। वैसे ही ज्ञान से प्राप्त आनंद भी।'

आजादी की लड़ाई के दौर में भी भगवान गणेश से प्राप्त अभय के वरदान से सज्जित होने की भावना ने समूचे स्वतंत्रता आंदोलन को एक नया आयाम दे दिया था। बाल गंगाधर तिलक ने स्वतंत्रता को राजनीतिक संदर्भों से उबारकर देश की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक-चेतना से जोड़ा था। सौ साल से भी अधिक काल से चली आ रही यह सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक चेतना की त्रिवेणी हर साल गणेशोत्सव के अवसर पर नए-नए रूपों में सामने आती है। लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की जो परंपरा शुरू की थी वह फल-फूल रही है।

गणेशोत्सव धर्म, जाति, वर्ग और भाषा से ऊपर उठकर सबका उत्सव बन गया है । गणपति बप्पा मोरया का स्वर जब गूँजता है तो उसमें हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों की सम्मिलित आस्था का वेग होता है । किसी गोविंदा और किसी सलमान के घर में गणपति की एक जैसी आरती का होना कुल मिलाकर उस एकात्मकता का ही परिचय देता है जो हमारे देश की एक विशिष्ट पहचान है। साल-दर-साल गणेशोत्सव पर इस विशिष्टता का रेखांकित होना अपने आप में एक आश्वस्ति है।

गणेशोत्सव के अवसर पर एक और महत्वपूर्ण तथ्य भी रेखांकित होना चाहिए- गणेश अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजगता एवं सक्रियता के देवता भी हैं । इसलिए जब हम गणपति की पूजा करते हैं तो इसका अर्थ स्वयं को उस चेतना से जोड़ना भी है जो जीवन को परिभाषित भी करती है और उसे अर्थवत्ता भी देती है। यह चेतना अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति जागरूकता देती है और अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रेरणा भी।