आपका समर्थन, हमारी शक्ति

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

एलीनोर कैटन : सबसे युवा बुकर पुरस्कार विजेता

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती। यह बात न्यूजीलैंड की 28 वर्षीय लेखिका एलिनोर कैटन पर पूरी तरह लागू  होती है, जिन्होंने अपने उपन्यास 'द लूमिनरीज़' के लिए सबसे कम उम्र में मैन बुकर पुरस्कार जीतकर एक इतिहास रच दिया है।

एलिनोर कैटन को उनके उपन्यास द लुमिनरीज के लिए वर्ष 2013 का मैन बुकर पुरस्कार दिया गया है। कैटन बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की लेखिका हैं। कनाडा में जन्मी कैटन न्यूज़ीलैंड में पली-बढ़ी हैं और वे मैन बुकर पुरस्कार जीतने वाली न्यूज़ीलैंड की दूसरी लेखक हैं.

यही नहीं, एलिनोर कैटन के खाते में एक और भी उपलब्धि जुड़ गई है। दरअसल बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में कैटन का 832 पेज का उपन्यास ये पुरस्कार जीतने वाली सबसे लंबी कृति भी बन गया है। उन्होंने ये उपन्यास उन्नीसवीं सदी की सोने की खानों पर लिखा है। कैटन ने यह उपन्यास 25 साल की उम्र में लिखना शुरू किया था। गौरतलब है कि बुकर  पुरस्कार के साथ पचास हज़ार पाउंड की इनामी राशि भी दी जाती है.

बकौल जूरी के मुखिया रॉबर्ट मैकफार्लेन- ''द लुमिनरीज एक शानदार उपन्यास है, इसकी संरचना अद्भुत रूप से जटिल है, कथा शैली आपको बांधे रखती है और लालच और सोना का वर्णन जादुई है।'' रॉबर्ट मैकफ़ारलेन ने कहा, "यह एक चमकदार कार्य है जो लंबा हुए बिना विशाल काम है....आप इसे पढ़ना शुरू करते हैं और आपको लगने लगता है कि आप एक दैत्य की पकड़ में हैं. इसका हर हिस्सा पिछले हिस्से की तुलना में ठीक आधा लंबा है."

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

"लघुकथाओं की मल्लिका" एलीस मुनरो

महिलाएँ आज जीवन की हर ऊंचाई को छू रही है। दुनिया भर में महिलाएं अपनी श्रेष्ठता का परचम फहरा रही हैं। तभी तो  दुनिया भर के तमाम सम्मान नारी के आँचल में समाये हैं, इन्हीं में से नोबेल सम्मान भी है। अभी तक 44  महिलाओं को नोबेल पुरस्कार मिला है और उनमें से 13 साहित्य के क्षेत्र में। 

 इस बार वर्ष 2013 के साहित्य के प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार के लिए "लघुकथाओं की मल्लिका" के नाम से विख्यात कनाडा की लेखिका एलिस मुनरो को चुना गया है। मुनरो साहित्य का नोबेल जीतने वाली 13 वीं महिला हैं, जबकि किसी भी क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाली 44वीं महिला हैं। अनूठी कथाकार और मानवीय संवेदनाओं की मर्मज्ञ कलमकार एलीस मुनरो को यह पुरस्कार मानवीय परिस्थितियों की कमजोरियों पर आधारित लघु कथाओं  के लिए प्राप्त हुआ. वर्ष 1901 में शुरु हुए नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित होने वाली एलिस पहली कनाडाई नागरिक हैं. स्वीडिश अकादमी ने एलिस (82वर्ष) को समकालीन लघु कहानी का मास्टर बताकर सम्मानित किया. अकादमी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि छोटे शहरों के माहौल में होती है जहां सामाजिक स्वीकार्य अस्तित्व के लिए संघर्ष के कारण अक्सर रिश्तों में तनाव और नैतिक विवाद होता है.

कनाडा के विंघम में 10 जुलाई 1931 में जन्मी मुनरो ने 1950 में पत्रिकाओं में लिखना शरू किया था। साढ़े बारह लाख अमेरिकी डालर के पुरस्कार की घोषणा करते हुए स्वीडिश अकादमी ने मुनरो के लिए कहा, "कुछ आलोचक उन्हें कनाडाई चेखव भी मानते हैं।'' अंग्रेजी के अलावा मुनरो फ्रेंच, स्वीडिश, स्पेनिश और जर्मन में भी लिखती रही हैं। ग्लैमर और मीडिया से दूरी पसंद मुनरो ने 2009 में बताया था कि उनके दिल की बाईपास सर्जरी भी हुई है और वह कैंसर से भी पीडित रही हैं। लेकिन इस क्रांतिकारी लेखिका ने इन सब मुसीबतों का डट कर मुकाबला किया और आज भी अपने कलम की धार कुंद नहीं होने दी है। 

एलिस मुनरो यूँ ही इस मुकाम तक नहीं पहुंचीं बल्कि इसके पीछे एक लम्बी साहित्य यात्रा है। मुनरो का पहला कहानी संग्रह "डांस आफ हैप्पी शेड्स" 1968 मे प्रकाशित हुआ, जबकि उनका ताजा कहानी संग्रह "डीयर लाइफ" पिछले साल वर्ष 2012 में   प्रकाशित हुआ। उनके अन्य कहानी संग्रहों में लाइव्स आफ गल्र्स एंडवीमिन्स (1971) हू डू यू थिंक यू आर (1978), द मून्स आफ जुपिटर (1982), रनअवे (2004), द वियू फ्राम कैसल राक (2006) और टू मच हैप्पीनेस (2009) उल्लेखनीय हैं। उनके कहानी संग्रह हेटशिप, फ्रेंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरिज (2001) पर वर्ष 2006 में "अवे फ्राम हर" नाम से फिल्म भी बनी थी। एलिस मुनरो की कहानियां अक्सर छोटे शहरों के माहौल पर आधारित होती हैं, जहां अस्तित्व की सामाजिक स्वीकार्यता का संघर्ष तनावपूर्ण संबंधों और नैतिक उहापोह को जन्म देता है। ऎसी समस्याएं जो पीढियों के अतंर और महत्वाकांक्षा के टकराव से पैदा होती हैं। 

 वर्ष 2009 में मुनरो को प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार भी मिला था, जबकि तीन बार उन्हें कनाडा के "गवर्नर जनरल अवार्ड" से नवाजा गया है। यह भी अजीब इत्तफाक है कि  मुनरो स्वयं कहानीकार के बदले उपन्यासकार बनना चाहती थीं, पर भाग्य कि नियति उन्हें कहानीकार बना गया।  इसी साल जुलाई में न्यूयार्क टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, "अपनी पहली पांच किताबें लिखते समय मैं प्रार्थना कर रही थी कि काश मैं उपन्यास लिखती। मैं सोचती थी कि जब तक आप उपन्यास नहीं लिखते, लोग आपको लेखक के रूप में गंभीरता से नहीं लेते। यह सोच कर मैं काफी परेशान रहती थी, लेकिन अब कोई भी बात मुझे परेशान नहीं करती। मैं समझती हूं कि अब लोग लघुकथाओं को पहले के मुकाबले अधिक गंभीरता से लेते हैं।

एलिस मुनरो को 10 दिसंबर, 2013  को स्टाकहोम में एक औपचारिक समारोह में 12 . 4 लाख डालर की राशि और पुरस्कार दिया जायेगा. कनाडाई लेखिका एलिस मुनरो ने कहा कि वह यह जानकार काफी आश्चर्यचकित और प्रसन्न हैं कि उन्होंने साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता है.एलीस ने  कहा, हां मुझे पता था कि मैं दौड़ में हूं लेकिन मुझे नहीं पता था कि मैं जीतूंगी.   लेखिका ने कहा कि उनकी बेटी ने उन्हें जगाते हुए खबर दी कि स्वीडन की नोबेल समिति ने साहित्य पुरस्कार के लिए उन्हें चुना है.

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

पंखे झलते देश के नौनिहाल

सोचिए, गर्मी में आप बैठे हों, फैन और एसी नहीं। कितना अजीब सा लगता है। कभी राजा-महाराजा चला करते थे तो उनके साथ पंखे झलने वालियों का हुजूम भी चला करता था। राजे-महराजे तो चले गए, पर उन जैसे सामंती मानसिकता वाले अधिकारी अभी भी उनकी यादों को जिन्दा किये हुए हैं। हमारे यहाँ सरकारी स्कूलों में अक्सर ऐसा देखने को मिलता था कि गर्मियों में मास्टर जी आराम से बैठकर बच्चों से पंखे झलवा रहे होते। घर में कोई मेहमान आता और लाइट  नहीं रहती तो फिर पंखे झलने के लिए बच्चों की ही ड्यूटी लगती ....खैर ये सब बातें पुरानी हैं। अभी उत्तर प्रदेश के शामली में दौरे पर  गए एक प्रमुख सचिव और जिलाधिकारी को बच्चों  से पंखा झलवाना महंगा पड़ा। मीडिया ने उनकी विकास के दावों की हवा के बीच पंखे झलवाते आकर्षक फोटुयें उतारी।आनन-फानन में राज्य सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि अफसरों की सामंती मानसिकता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और ऐसे अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही भी की जाएगी। अफसरों का अंजाम क्या होगा, यह तो वक़्त बताएगा पर यह तो स्पष्ट है की अभी भी समाज में परम्पराओं और सामंती मानसिकता के नाम पर बहुत कुछ चल रहा है, जिसका संज्ञान लेने की जरुरत है ...!!  

पूरी खबर यहाँ पर देख-पढ़ सकते हैं-

अखिलेश यादव जहां सूबे में छात्रों को लेपटॉप, बेरोजगारों को भत्ता और कन्याओं को कन्या विधा धन बांट रहे हैं वहीं उनके अधिकारी कुछ ऐसा कर रहे हैं जिन्हें देखकर शायद वो भी शर्मशार हो जाए।

शामली के जिलाधिकारी प्रवीण कुमार, उनके ठीक बगल में बैठे हैं सुनील कुमार जो समाज-कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव है। इनके बगल में शामली की सीडीओ वी के सिंह बैठे हैं, इनका नाम है लोकेश कुमार जनाब शामली के सीएमओ हैं। दरअसल अखिलेश राज में अधिकारियों को जब गर्मी लगने लगती है तो वे ये भी भूल जाते हैं कि मासूम बच्चों से काम करवाना कितना बड़ा जुर्म है।

ये तस्वीरें उत्तरप्रदेश के शामली जनपद के लोहिया ग्राम हसनपुर की है और पंखों की हवा खा रहे ये हैं अखिलेश सरकार के अधिकारी जो पहुंचे हैं गांव में विकास कार्यों का निरीक्षण करने। पहले तो इन्होंने गांव के विकास कार्यों का निरीक्षण किया, फिर लोगों की समस्याओं को सुनने के लिए बैठे उनके बीच मुख्यालय से गांव पहुंचे तो भाग-दौड़ भी थोड़ी ज्यादा हो गई। गांव की गलियों से भी गुजरना पड़ा। इसी वजह से उन्हें बैठते ही तेज गर्मी लगी लेकिन शामियाने में एससी तो चल नहीं सकते थे लिहाजा उनके लिए हाथ के पंखे के इंतजाम किए गए और इसके लिए छोटे बच्चों की ड्यूटी लगाई गई। गर्मी से तर-ब-तर भूखे-प्यासे बच्चे उन्हें पंखे झलते रहे लेकिन अधिकारियों को इन बच्चों पर तनिक भी दया नहीं आई।

अब सवाल ये है कि सूबे के समाज कल्याण के प्रमुख सचिव साहब क्या इसी तरीके से सूबे की जनता का कल्याण करते हैं या फिर ये उनके कार्यो का नमूना भर है। अब देखना ये है अखिलेश यादव अपने इन वरिष्ठ अधिकारियों को बाल श्रम कराने के लिए क्या क्या कोई सजा भी देते हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार ने शामली में अधिकारियों की एक बैठक में बच्चों से कथित रूप से पंखे झलवाने की घटना पर गंभीरता से लेते हुए कहा है कि ‘सामंती’ मानसिकता वाले अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जायेगी.
शामली में अधिकारियों के पीछे खडे़ बच्चों को पंखा झलते दिखाये जाने की घटना पर प्रदेश के मंत्री राजेन्द्र चौधरी ने कहा, ‘मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बच्चों की भावनाओं के प्रति खासे संवेदनशील हैं. उन्हें इस घटना के बारे में बताया जायेगा और सरकार सामंती मानसिकता वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी.’

चौधरी ने कहा कि अधिकारियों की बैठक में बच्चों से पंखे झलवाना एक गंभीर घटना है. यह सरकारी सेवा नियमावली के खिलाफ तो है ही, अधिकारियों की सामंतवादी मानसिकता की भी परिचायक है.

गौरतलब है कि कुछ न्‍यूज चैनलों पर शामली में हुई समाज कल्याण विभाग की बैठक में प्रमुख सचिव सुनील कुमार, जिलाधिकारी तथा अन्य अधिकारियों की एक बैठक में बच्चों को उनके पीछे खडे़ होकर हाथ से पंखे झलते हुए दिखाया गया है.

Courtesy : http://aajtak.intoday.in/story/action-against-officers-who-made-children-fan-them-1-744729.html



रविवार, 13 अक्तूबर 2013

रावण अभी भी नहीं मरा है



खामोश है ये शहर
सन्नाटा पसरा पड़ा है
आंतक की फैलती विषबेल
रावण अडिग सा खड़ा है।

जलता है हर साल
फिर आकर खड़ा है
डरते हैं अब राम भी
रावण आंतक पर अड़ा है।

फिर खड़ा हो करेगा अट्ठाहस
हर साल होता जाता बड़ा है
कब तक चलेगी यह लीला
रावण अभी भी नहीं मरा है।


शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

नवरात्र पर 'मातृ शक्ति' की पूजा ...पर असली जीवन में ??

एक बार फिर से शारदीय नवरात्र का शुभारंभ। हर साल यह पर्व आता है। इन नौ दिनों में हम मातृ शक्ति की आराधना करते हैं  नवरात्र मातृ-शक्ति का प्रतीक है। आदिशक्ति को पूजने वाले भारत में नारी को शक्तिपुंज के रूप में माना जाता है। नारी सृजन की प्रतीक है. हमारे यहाँ साहित्य और कला में नारी के 'कोमल' रूप की कल्पना की गई है. कभी उसे 'कनक-कामिनी' तो कभी 'अबला' कहकर उसके रूपों को प्रकट किया गया है. पर आज की नारी इससे आगे है. वह न तो सिर्फ 'कनक-कामिनी' है और न ही 'अबला', इससे परे वह दुष्टों की संहारिणी भी बनकर उभरी है. यह अलग बात है कि समाज उसके इस रूप को नहीं पचा पता. वह उसे घर की छुई-मुई के रूप में ही देखना चाहता है. बेटियाँ कितनी भी प्रगति कर लें, पुरुषवादी समाज को संतोष नहीं होता. उसकी हर सफलता और ख़ुशी बेटों की सफलता और सम्मान पर ही टिकी होती है. तभी तो आज भी गर्भवती स्त्रियों को ' बेटा हो' का ही आशीर्वाद दिया जाता है. पता नहीं यह स्त्री-शक्ति के प्रति पुरुष-सत्तात्मक समाज का भय है या दकियानूसी सोच. 

नवरात्र पर देवियों की पूजा करने वाले समाज में यह अक्सर सुनने को मिलता है कि 'बेटा' न होने पर बहू की प्रताड़ना की गई. विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि बेटा-बेटी का पैदा होना पुरुष-शुक्राणु पर निर्भर करता है, न कि स्त्री के अन्दर कोई ऐसी शक्ति है जो बेटा या बेटी क़ी पैदाइश करती है. पर पुरुष-सत्तात्मक समाज अपनी कमजोरी छुपाने के लिए हमेशा सारा दोष स्त्रियों पर ही मढ़ देता है. ऐसे में सवाल उठाना वाजिब है क़ी आखिर आज भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से क्यों ग्रस्त है पुरुष मानसिकता ? कभी लड़कियों के जल्दी ब्याह क़ी बात, कभी उन्हें जींस-टॉप से दूर रहने क़ी सलाह, कभी रात्रि में बाहर न निकलने क़ी हिदायत, कभी सह-शिक्षा को दोष तो कभी मोबाईल या फेसबुक से दूर रहने क़ी सलाह....ऐसी एक नहीं हजार बिन-मांगी सलाहें हैं, जो समाज के आलमबरदार रोज सुनाते हैं. उन्हें दोष महिलाओं क़ी जीवन-शैली में दिखता है, वे यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि दोष समाज की मानसिकता में है.

'नवरात्र' के दौरान अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराने की परंपरा रही है. लोग उन्हें ढूढ़ने के लिए गलियों की खाक छानते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता है। आश्चर्य होता है कि यह वही समाज है जहाँ भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते है पर नवरात्र की बेला पर लोग नौ कन्याओं का पेट भरकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाय या कुछ और? आज बेटियां धरा से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में लोग नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं। यही नहीं लोग यह संवेदना भी जताने लगते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। आखिर यह दोहरापन किसके लिए ?

समाज बदल रहा है। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल के दिनों में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों है कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहाँ महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता? समाज इस शक्ति की आराधना तो करता है पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। ऐसे में नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन मात्र कराकर क्या सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई ....???


शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

'देवालय' बनाम 'शौचालय'

'देवालय' बनाम 'शौचालय' ....मुद्दा फिर चर्चा में है। कभी स्व. काशीराम, कभी जयराम रमेश और अब नरेन्द्र मोदी ....पर इसे मात्र मुद्दे और विचारों तक रखने की ही जरुरत नहीं है, इस पर ठोस पहल और कार्य की भी जरुरत है। आज भी भारत में तमाम महिलाएं  'शौचालय' के अभाव में अपने स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक अस्मिता तक के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। स्कूलों में 'शौचालय' के अभाव में बेटियों का स्कूल जाना तक दूभर हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो काफी बुरी स्थिति है। पहले घर और स्कूलों को इस लायक बनाएं कि महिलाएं वहाँ आराम से और इज्जत से रह सकें, फिर तो 'देवालय' बन ही जाएंगें। इसे सिर्फ राजनैतिक नहीं सामाजिक, शैक्षणिक, पारिवारिक  और आर्थिक रूप में भी देखने की जरुरत है !!

फ़िलहाल, राजनैतिक मुद्दा क्यों गरम है, इसे समझने के लिए पूरी रिपोर्ट पढ़ें, जो कि  साभार प्रकाशित है।

नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने नरेंद्र मोदी को उनके उस बयान पर आडे हाथों लिया है जिसमें उन्होंने देवालय से ज्यादा महत्व शौचालय को देने की बात कही थी। खुद भी ऎसा ही बयान दे चुके रमेश ने कहा कि मोदी ऎसे नेता हैं जो रोज नए रूप में सामने आते हैं। मोदी को यह बताना चाहिए कि क्या वह अयोध्या में महा शौचालय बनाने के कांशीराम के सुझाव से सहमत हैं। एक कार्यक्रम के दौरान टीवी पत्रकारों से बात करते हुए जयराम रमेश ने कहा, अब जब उन्होंने देवालय से पहले शौचालय की बात कह दी है तो उन्हें यह भी साफ करना चाहिए क्या वह अयोध्या में ब़डा सा शौचालय बनवाने के कांशीराम के सुझाव से भी सहमत हैं या नहीं। उन्होंने कहा, कांशीराम जी ने एक रैली में यह सुझाव दिया था।

उन्होंने कहा, अब मेरे बीजेपी के दोस्त क्या कहेंगे। मोदी के बयान पर वो क्या राय रखते हैं। जब मैंने कुछ ऎसा ही बयान दिया था तो विरोध हुआ। राजीव प्रताप रूडी और प्रकाश जावडेकर ने मुझपर धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया पर अब वे क्या कहेंगे। इनके अलावा कुछ संगठनों ने विरोध का बेहद ही खराब तरीका अपनाया और मेरे घर के सामने पेशाब की बोतल रख दी। मोदी पर निशाने साधते हुए उन्होंने कहा, चलो देर से ही सही पर मोदी को ज्ञान तो मिला पर उनकी ये बयानबाजी सिर्फ राजनीति के कारण है क्योकि गुजरात के सीएम पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। जयराम रमेश ने कहा कि खुद को हिंदुत्ववादी बताने वाले मोदी अब नए अवतार में सामने आए हैं। वह ऎसे नेता हैं जो रोज नए अवतार में सामने आते हैं। हमारे यहां दशावतार की बात कही जाती है, लेकिन उनके लिए यह शब्द कम पडेगा। वह शतावतार वाले नेता हैं। रमेश ने मोदी के शौचालय वाले बयान पर निशाना साधते हुए कहा कि 2011-12 में गुजरात सरकार ने दावा किया था कि ग्रामीण इलाकों में लगभग 82 फीसदी घरों में शौचालय हैं, पर सही आंकडा सिर्फ 34 फीसदी है। इससे विकास के दावे पूरी तरह से सामने आ जाते हैं।

गौरतलब है कि खुद जयराम रमेश ने कुछ दिन पहले ऎसा बयान दिया था कि गांव में मंदिर बनवाने से ज्यादा जरूरी है कि शौचालय की व्यवस्था करना। उनके उस बयान की काफी आलोचना हुई थी। उस बयान के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, मैंने देवालय का नाम नहीं लिया था। लेकिन उस बयान पर हंगामा मचाने वाले लोगों को अब मोदी के इस बयान पर अपना रूख साफ करना चाहिए। 

दिग्गी ने पूछा, भाजपा अब चुप क्यूं... 
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अखबार के एक पुराने लेख का उललेख किया जिसमें मोदी के हवाले से कहा गया था कि वो लोग जो शौचालय साफ करते हैं उन्हें ऎसा करने में आध्यात्मिक खुशी मिलती है जबकि केन्द्रीय मंत्री राजीव शुक्ला ने कहा कि "मोदी हिन्दू नेता नहीं" हैं लेकिन हिन्दुओं को भ्रमित करने व वोट इकटा करने के लिए उन्हें ऎसा पेश किया जा रहा है।

रमेश का भाजपा ने किया था विरोध...
शुक्ला ने कहा कि मोदी जो कुछ भी कहते हैं उस पर भाजपा चुप्पी मार जाती है और उन्हें समर्थन देना शुरू कर देती है। जयराम रमेश ने एक बार कहा था कि गावों में मंदिर से पहले शौचालय बनना चाहिए। तब भाजपा ने तत्काल रमेश की आलोचना की थी और मांग की कि उन्हें देश से माफी मागनी चाहिए। शुक्ला ने कहा,जब मोदी ने ऎसा कहा तो भाजपा अपना मुंह क्यों नहीं खोल रही है। मोदी कोई हिन्दू नेता नहीं हैं। उन्होंने हिन्दुओं के लिए कुछ किया भी नहीं है। उनकी राय भी पूरी तरह से अलग है। वोट हासिल करने के षडयंत्र के तहत लोगों को, हिन्दुओं को भ्रमित करने के लिए उन्हें इस तरह से पेश किया जा रहा है।

क्या मोदी ने शौचालय साफ किया...
मोदी के कटु आलोचक समझे जाने वाले कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि उन्होंने एक लेख देखा है जिसमें मोदी ने कहा था कि जो शौचालयों को साफ करते हैं उन्हें इसकी सफाई करने में आध्यात्मिक खुशी मिलती है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या उन्हें कभी इस तरह की खुशी का अनुभव हुआ था और शौचालय साफ किया था। 

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

मैं राजघाट से गाँधी की आत्मा बोल रहा हूँ ....




मैं राजघाट से गाँधी नहीं, 
उनकी आत्मा बोल रहा हूँ
मेरी समाधी पर वर्षो से शीश झुका रहे है
भारत के भ्रष्ट और बेईमान नेता और अपने 
काले कृत्यों में मुझे जोड़ दुःख पहुचाते हैं
जानते हुए भी की मैंने ऐसे भारत की
कभी परिकल्पना भी नहीं की थी.
आते है विश्व नेता भी जो मुझे
भारतियों से अधिक जानते है
जो सचमुच मुझसे स्नेह करते है
मेरे दर्शन को जानते है,
मुझसे प्रेरणा लेते है

क्या भारत में ऐसी कोई जगह है
जहाँ मेरी तस्वीर न छपी हो
और जहाँ मेरा निरादर न हो
यहाँ तक की सबसे अधिक काले धन की
मुद्रा पर भी मेरी ही तस्वीर छाप दी

मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ
न ही यह मेरा निवास स्थान है.
मैं एक विचारधारा हूँ जो असंख्य
लोगो के दिलो में बस्ती है
मैं प्रतिबिम्ब हूँ उन करोड़े देशवासियों का.
मेरी समाधी पर आ कर फूल
अर्पित करने वालो, कभी अपने अन्दर
झांक कर देखो, क्या कभी
तुमने उन आदर्शो को अपने जीवन
में जीने का प्रयास भी किया है, 
जिनके लिए लिए मैंने अपना
पूरा जीवन जी कर दिखलाया,
मेरा दर्शन समझने की कोशिश तो करो,
मैं भारत की आत्मा हूँ, मेरे दर्शन में ही
छिपा है भारत की समस्याओ का हल

यहाँ सत्यागढ़ के ढकोसले मत करो
दुःख होता है मेरी आत्मा को
मुझे किसी की गोली ने नहीं मारा
मारा है तो बेईमान भ्रष्ट राजनेताओ
नौकरशाहों और व्यव्सहियो ने

मेरी समाधी कोई पर्यटन स्थल नहीं
यहाँ आकर फूल मत अर्पण करो
यह भारत मेरे सपनो का भारत नहीं
अब यहाँ अहिंसा परमो धर्म नहीं
यहाँ तस्वीर मत खिचवाया करो
क्योंकि मैं तो कब का छोड़ चुका हूँ
इस राजघाट को, जन्म ले चुका हूँ
किसी और के रूप में
और तुम पूजे जा रहे हो ........

तुमने मेरे सपनो के भारत को
कुत्सित राजनेतिक चालों से 
बदल दिया है एक भ्रष्ट राष्ट्र में
अब तो मेरी तस्वीर भारतीय मुद्रा से हटा,
छाप दो उन चेहरों को जिन्होंने लूटा है
मेरे भारत की भोली भाली मासूम जनता हो
और मुझे चैन से बैठ कर पश्चाताप करने दो
की मैंने क्यों भारत को आज़ाद कराने की गलती की

विनोद पासी "हंसकमल"

( फेसबुक पर 'शब्द-शिखर' ग्रुप में विनोद पासी "हंसकमल"जी की प्रकाशित यह कविता साभार)