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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

बरसाने की लट्ठमार होली

होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुक्ल नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है।
 
इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। सखागण मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं।
 
 बरसाने की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं।
 
इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आनन्द लेते हैं।
 
- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

बच्चों के उत्पात से उद्भव हुआ होलिकादहन का

होली व होलिका-दहन को लेकर तमाम मान्यताएं हैं. उनमें सबसे प्रचलित दैत्यराज हिरण्यकश्यप, उसके विष्णुभक्त बेटे प्रहलाद और उसकी बहन होलिका से जुडी हुई है.पर इससे परे भी एक मान्यता है.
 
भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सदी-गर्मी-बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंतत: भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी।
 
धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकड़ियाँ व घास-फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला-गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया।
 
ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप ‘धुलैंडी’ धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं।

-कृष्ण कुमार यादव

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में 'महिला-आरक्षण का झुनझुना' पोस्ट की चर्चा

'शब्द शिखर' और 'नारी' पर 24 फरवरी, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'फिर से महिला-आरक्षण का झुनझुना' को हिन्दी दैनिक पत्र 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग राग' में 25 फरवरी, 2010 को स्थान दिया गया है.'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में पहली बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 16वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

(चित्र साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

काला पानी में सरपट दौड़ेगी ट्रेन

अंडमान के लोगों के लिए यह भारत द्वारा किसी मैच के जीतने सरीखा था. कल शाम को पोर्टब्लेयर की सड़कों पर पटाखे फूट रहे थे, कारण जानना चाही तो पता चला कि रेल मंत्री ममता बनर्जी ने रेलवे बजट में अंडमान में भी ट्रेन चलाने की बात प्रस्तावित की है. यहाँ राजधानी पोर्टब्लेयर और नार्थ अंडमान के सबसे दूर अवस्थित कस्बे डिगलीपुर के मध्य ट्रेन सेवा आरंभ करने के प्रस्ताव की घोषणा की गई है.

कभी काला-पानी के लिए मशहूर अंडमान के लिए यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी रेल बजट में अंडमान के बारे में लोकसभा में जिक्र नहीं किया गया. यह पहली बार है कि रेल बजट में अंडमान का जिक्र है. फ़िलहाल यह प्रस्ताव है और इसे फलीभूत होने में समय भी लगेगा, पर भारत के सबसे बड़े सरकारी विभाग की इसी बहाने अंडमान में उपस्थिति भी दिखेगी. अन्यथा रेलवे के लिए अभी तक तो अंडमान काला-पानी से शापित ही नजर आता था.

इस ट्रेन सेवा से जहाँ पूरा अंडमान जुड़ जायेगा, वहीँ रोजगार की संभावनाएं भी बढ़ जायेंगीं. समय की बचत के अलावा किसानों को इसका सीधा लाभ मिलेगा और वे अपने उत्पादों को राजधानी पोर्टब्लेयर के बाजारों में आसानी से ला सकेंगें. इसके अभाव में यहाँ सब्जियां बहुत महगीं हैं, इससे उनकी कीमतें भी नियंत्रित हो जायेंगीं. चूँकि ममता बनर्जी पडोसी राज्य पश्चिम बंगाल की हैं, सो वे स्वयं अंडमान का दौरा आसानी से कर सकती हैं.

कभी काला-पानी के लिए कुख्यात अंडमान में ट्रेन सेवा मीडिया के लिए भी महत्वपूर्ण खबर बनी. तमाम राष्ट्रीय चैनल बाकायदा इसे हाईलाइट करके दिखा रहे थे. फ़िलहाल अंडमान के लोग खुश हैं और उनके साथ ही किसान, व्यवसायी, अधिकारी और पर्यटक भी खुश हैं...पर डर इस बात का भी है की यह सिर्फ घोषणा तक ही न रह जाय. अन्यथा रेलवे विभाग के लिए अंडमान काला-पानी ही बनकर रह जायेगा, जहाँ आज तक उन्होंने कदम ही नहीं रखा !!

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

फिर से महिला-आरक्षण का झुनझुना

एक बार फिर से महिला आरक्षण विधेयक को उसके मूल स्वरूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल को भेज दिया गया है। गाहे-बगाहे हर साल देश की आधी आबादी के साथ यह नौटंकी चलती है और नतीजा सिफ़र. इस देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष व मुख्यमंत्री पदों पर महिला आसीन हो चुकी हैं, पर एक अदद आरक्षण के लिए अभी भी महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक माहौल नहीं बन पाया है.

यद्यपि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में अपने अभिभाषण में कहा है कि सरकार महिला आरक्षण बिल को जल्दी से जल्दी संसद से पारित कराने के लिए प्रतिबद्ध है। पर दुर्भाग्यवश इस प्रतिबद्धता के पीछे कोई राजनैतिक इच्छा-शक्ति नहीं दिखती है.

महिला आरक्षण बिल वाकई एक मजाक बन चुका है, जिस पर हर साल हंगामा होता है. कोई तर्क देगा कि महिलाएं इतनी शक्तिवान हो चुकी हैं कि अब उन्हें आरक्षण की जरुरत नहीं, कोई पर- कटियों से डरता है, कोई आरक्षण में भी आरक्षण चाहता है, कोई इसे वैसाखी बताकर ख़ारिज करना चाहता है तो किसी की नज़र में यह नेताओं की घरवालियों व बहू-बेटियों को बढ़ाने की चाल है. बस इन्हीं सब के चलते राजनीतिक दलों में इस मसले पर आम राय नहीं बन पाने के कारण पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से यह बिल संसद की मंजूरी का इंतजार कर रहा है। पर कोई यह बता पाने की जुर्रत नहीं कर पाता है कि वास्तव में यह बिल मंजूर क्यों नहीं हो रहा है.

महिला-आरक्षण को एक ऐसा झुनझुना बना दिया गया है जिससे हर राजनैतिक दल व सत्ताधारी पार्टी खेलती जरुर है, पर उसे कोई सम्मानित स्थान नहीं देना चाहती. फ़िलहाल इंतजार इस बिल के पास होने का....!!!

-आकांक्षा यादव

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

जीवन एक पुष्प समान

यह जीवन एक पुष्प समान है. आप अपने हृदय के पटों को जितना खोलेंगें अर्थात अपनी विचारधारा को जितना विकसित करेंगें, वह समाज को उतना ज्यादा सुवासित करेगी !!

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

'शब्द-शिखर' के बहाने 'अमर उजाला' में अंडमान के आम

'शब्द शिखर' पर 18 फरवरी, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट अंडमान में आम की बहार को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 19 फरवरी, 2010 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में नौवीं बार 'शब्द-शिखर' की चर्चा हुई है. फ़िलहाल अंडमान आने के बाद पहली बार किसी पत्र-पत्रिका ने इस ब्लॉग की चर्चा की है, सुखद अनुभूति होती है. यहाँ पर अधिकतर पत्र-पत्रिकाएं नहीं मिलती हैं, पर स्नेही-जन फोन कर सूचनाएं जरुर देते रहते हैं...आप सभी का पुन: आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाओं की चर्चा अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

अंडमान में आम की बहार

आम का फल विश्वप्रसिद्ध स्वादिष्ट फल है। इसे फलों का राजा कहा गया हैं। वेदों में आम को विलास का प्रतीक कहा गया है। इसका रसदार फल विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है। कवि कालीदास ने इसकी प्रशंसा में गीत लिखे हैं। अलेक्‍सेंडर ने इसका स्‍वाद चखा है और साथ ही चीनी धर्म यात्री व्‍हेनसांग ने भी। मुग़ल सम्राट अकबर ने तो दरभंगा में आम के एक लाख पौधे लगाए और उस बाग़ को आज भी लाखी बाग़ के नाम से जाना जाता है। कालांतर में तमाम कविताओं में इसका ज़िक्र हुआ और कलाकारों ने बखूबी इसे अपने कैनवास पर उतारा। अपने देश में गर्मियों के आरंभ से ही आम पकने का इंतज़ार होने लगता है।

भारतीय प्रायद्वीप में आम की कृषि हजारों वर्षों से हो रही है। यह ४-५ ईसा पूर्व पूर्वी एशिया में पहुँचा। १० वीं शताब्दी तक यह पूर्वी अफ्रीका पहुँच चुका था। उसके बाद आम ब्राजील,वेस्टइंडीज और मैक्सिको पहुँचा क्योंकि वहाँ की जलवायु में यह अच्छी तरह उग सकता था। १४वीं शताब्दी में मुस्लिम यात्री इब्नबतूता ने इसकी सोमालिया में मिलने की पुष्टि की है। तमिलनाडु के कृष्णगिरि के आम बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं और दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।

जब हम लखनऊ में थे तो अक्सर आम के इस शौक में मलिहाबाद जाते थे. उत्तर भारत में गौरजीत, बाम्बेग्रीन, दशहरी, लंगड़ा, चौसा एवं लखनऊ सफेदा प्रजातियाँ तो खूब उगायी जाती हैं।देखा जाय तो आम की किस्मों में दशहरी, लंगड़ा, चौसा, फज़ली, बम्बई ग्रीन, बम्बई, अलफ़ॉन्ज़ो, बैंगन पल्ली, हिम सागर, केशर, किशन भोग, मलगोवा, नीलम, सुर्वन रेखा,वनराज, जरदालू प्रसिद्द हैं। अब तो तमाम नई किस्में- मल्लिका, आम्रपाली, रत्ना, अर्का अरुण, अर्मा पुनीत, अर्का अनमोल तथा दशहरी-51 इत्यादि भी दिखने लगी हैं.

आम को तो वैज्ञानिकों ने ब्रेस्ट कैंसर से बचाव में दूसरे फलों के मुकाबले भी ज्यादा फायदेमंद माना है। वस्तुत: आम में ब्लूबेरी (नीबदरी), अंगूर, अनार जैसे दूसरे फलों से कम एंटीऑक्सिडेंट होने के कारण यह शरीर में एंटी कैंसर एक्टिविटीज को बढाता है। इसलिए कैंसर से बचने के लिए आम को रेग्यूलर डाइट में शामिल करना फायदेमंद है।पर यहाँ चर्चा अंडमान के आमों की...!!

आम खाना किसे नहीं अच्छा लगता, और वो भी मौसम से पहले. फ़िलहाल यहाँ अंडमान में तो हमारे लिए यही स्थिति है. अपने उत्तर-प्रदेश में रहते तो आम के लिए जून-जुलाई का इंतजार करते, पर यहाँ तो अभी से फलों के राजा आम की बहार है. पेड़ों पर आम सिर्फ दिखने ही नहीं लगे हैं बल्कि अब तो पककर पीले और लाल भी हो रहे हैं.

जब हम यहाँ आये थे तो आम के पेड़ों में बौर देखकर बड़ा अपनापन सा लगा था. पहले दाल में आम डालकर इसका स्वाद लिया, अब पर अब तो इन रसीले पीले-पीले आमों को खाने का मजा ही दुगुना हो गया है. वही स्वाद, वही अंदाज़..अजी क्या कहने. यहाँ के लोग बताते हैं कि अंडमान में बारहों महीने आम की फसल होती है और हर तीन माह बाद आम के फल पेड़ों पर दिखने लगते हैं. काश ऐसा ही हो और हम मस्ती से आम खाएं. फ़िलहाल अगले एक-दो सालों तक तो आम के लिए गर्मियों का इंतजार नहीं करना पड़ेगा. वक़्त से पहले आम को प्राकृतिक रूप में खाने के इस उत्साह ने बैठे-बैठे ये पोस्ट भी लिखवा दी. आप भी अंडमान आयें तो छककर आम खाएं और उसके बाद तो नारियल का पानी पियें ही... !!

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

प्रकृति प्रेमियों का स्‍वर्ग : अंडमान-निकोबार

फ़िलहाल अंडमान-निकोबार में हूँ, सो यहाँ की बहुत सी चीजें समझने की कोशिश भी कर रही हूँ. अंडमान निकोबार द्वीप प्रकृति प्रेमियों का स्‍वर्ग और गार्डन ऑफ इडन कहा जाता है। यहां का स्‍वच्‍छ परिवेश, सड़कें, हरियाली और प्रदूषण रहित ताजी हवा सभी प्रकृति प्रेमियों को अपनी ओर अकार्षित करते हैं। यहाँ स्थित कुल 572 दीपों में मात्र 38 पर जन-जीवन है और उनमें भी बमुश्किल आप लगभग 15 दीपों की सैर कर सकते हैं.

8,249 वर्ग कि.मी. में फैले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को पारिस्थितिकी के अनुकूल पर्यटक क्षेत्र के रूप में मान्‍यता दी गई हैं। इन द्वीपों के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 7,171 वर्ग किलोमीटर भाग वनों से ढका हुआ है। इन द्वीपों पर लगभग सभी प्रकार के वन जैसे उष्‍णकटिबंधीय आर्द्र सदाबहार वन, उष्‍णकटिबंधीय अर्द्ध सदाबहार वन, आर्द्र पर्णपाती, गिरि शिखर पर होने वाले तथा तटवर्ती और दलदली बन पाए जाते हैं। अंडमान निकोबार में विभिन्‍न प्रकार की लकडियां पाई जाती हैं। सबसे बहुमूल्‍य लकडियां पाडोक तथा गरजन की हैं। ये निकोबार में नहीं मिलतीं। यहाँ उष्‍ण कटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन, रजताभ बालू-तट, मैन्‍ग्रोव की घुमावदार पंक्तियां, संकरी खाडियां, पादपों, प्राणियों, प्रवालों आदि की दुर्लभ जातियों से भरपूर समुद्री जीवन पर्यटकों के लिए स्‍वर्ग हैं। इन द्वीपों में 96 वन्‍यजीव अभयारण्‍य, नौ राष्‍ट्रीय पार्क तथा एक जैव संरक्षित क्षेत्र (बायोरिजर्व) हैं।

अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की 1912 किमी की लंबी तटरेखा पर मात्स्यिकी के विकास के लिए बहुत संभावना हैं। इसका 6 लाख वर्ग किमी का अनन्‍य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) है जो भारत के कुल अनन्‍य आर्थित क्षेत्र का 30 हैं। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के समुद्र में मछलियों की 1100 से अधिक जातियों की पहचान की गई है जिनमें से अभी लगभग 30 जातियों का ही वाणिज्यिक उपयोग किया जा रहा है। इस द्वीप के वनों में रहने वाले मूल अधिवासी अभी भी शिकार और मछली पकड़ने का कार्य करते हैं। इनकी चार नेग्रीटो जनजातियां हैं, जो हैं ग्रेट अंडमानी, ओंज, जरावा और सेंटीनेलेस जो द्वीप समूहों के अंडमान समूह में पाई जाती हैं तथा दो मंगोली जनजातियां अर्थात निकोबारी और शाम्‍पेन्‍स द्वीप के निकोबार समूह में पाई जाती हैं।

अंडमान द्वीप समूह की मुख्‍य खाद्य फसल धान है और निकोबार द्वीप समूह की मुख्‍य नकदी फ़सलें नारियल तथा सुपारी हैं। यहां के किसान पहाडी जमीन पर भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के फल, जैसे आम, सेपोटा, संतरा, केला, पपीता, अनन्‍नास और कंदमूल आदि उगाते हैं। यहां बहुफसल व्‍यवस्‍था के अंतर्गत मसाले, जैसे - मिर्च, लौंग, जायफल तथा दालचीनी आदि भी उगाए जाते हैं। इन द्वीपों में रबड, रेड आयल, ताड़ तथा काजू आदि भी थोडी-बहुत मात्रा में उगाए जाते हैं।

वाकई प्रकृति का सबसे अधिक कीमती उपहार माना जाने वाला अंडमान और निकोबार द्वीप जीवन भर याद रहने वाला अवकाश अनुभव है। तभी तो कीट्स ने यहाँ के लिए लिखा था कि-''यहाँ का संगमरमरी सफेद तट अपने किनारों पर पाम वृक्षों के साथ अचल खड़ा रहकर समुद्र की ताल पर नृत्‍य करता है। जनजातीय तबलों की ताल पर यहाँ की वीरानी और रंग- बिरंगी मछलियां साफ स्‍वच्‍छ चमकीले पानी में अपने रास्‍ते चलती हैं।''

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

इज़हार-ए-मोहब्बत में थप्पड़

वैलेंटाइन-डे बखूबी बीत गया, यदि आप ऐसा सोचते हैं तो ग़लतफ़हमी दूर कर लें. कल 14 फरवरी जहाँ प्रेम के इजहार का दिन था वहीं आज इसी कड़ी में 'स्लैप-डे' है अर्थात थप्पड़ और चांटे खाने का दिन. यह किसी सेना या बजरंगियों की तरफ से नहीं बल्कि प्रेमिकाओं कि तरफ से होगा. अब इस दिन कितनों को थप्पड़ पड़ते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा। कॉलेज और यूनिवर्सिटी के युवाओं के लिए तो यह दिन बड़ा दुखदायी होगा, सो कई लोगों ने पहले से ही बहाना करके छुट्टियाँ मार ली हैं. पर कुछ प्रेमियों ने हार नहीं मानी है, बल्कि वे गाते हुए बढ़ रहे हैं कि-'जब प्यार किया तो डरना क्या'. वस्तुत: यह प्यार के इजहार के बाद का दिन है, जब यह फैसला होगा कि प्रेमिका ने प्रेमी का प्यार कबूला है या नहीं. यदि ना तो फिर थप्पड़ खाने कि तैयारी और यही है आज का "स्लैप-डे".

..पर चिंता करने कि बात नहीं है, हो सकता है आज प्रेमियों को थप्पड़ मिले, पर उसके बाद प्रेमिका को लगे कि उसने थप्पड़ मरकर अच्छा नहीं किया तो 20 फरवरी का इंतजार कीजिये. इस दिन को किसी को याद करने के लिए ’मिसिंग डे’ मनाया जाता है। हो सकता है थप्पड़ मरने के बाद भी वो आपको मिस कर रही हो.

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

पहला प्यार (वेलेंटाइन दिवस पर)




पहली बार
इन आँखों ने महसूस किया
हसरत भरी निगाहों को

ऐसा लगा
जैसे किसी ने देखा हो
इस नाजुक दिल को
प्यार भरी आँखों से

न जाने कितनी
कोमल और अनकही भावनायें
उमड़ने लगीं दिल में

एक अनछुये अहसास के
आगोश में समाते हुए
महसूस किया प्यार को

कितना अनमोल था
वह अहसास
मेरा पहला प्यार !!

(जीवन साथी कृष्ण कुमार जी को समर्पित)

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

सेलुलर जेल में यातना के अमानवीय दृश्य

सेलुलर जेल में अंग्रेजी शासन ने देशभक्त क्रांतिकारियों को प्रताड़ित करने का कोई उपाय न छोड़ा. यातना भरा काम और पूरा न करने पर कठोर दंड दिया जाता था. पशुतुल्य भोजन व्यवस्था, जंग या काई लगे टूटे-फूटे लोहे के बर्तनों में गन्दा भोजन, जिसमें कीड़े-मकोड़े होते, पीने के लिए बस दिन भर दो डिब्बा गन्दा पानी, पेशाब-शौच तक पर बंदिशें कि एक बर्तन से ज्यादा नहीं हो सकती. ऐसे में किन परिस्थितियों में इन देश-भक्त क्रांतिकारियों ने यातनाएं सहकर आजादी की अलख जगाई, वह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
कोल्हू (घानी) जिससे सेलुलर जेल में बंदियों को प्रतिदिन बैल की भाँति घूम-घूम कर 20 पौंड नारियल का तेल निकलना पड़ता था.
इसके अलावा प्रतिदिन 30 पौंड नारियल की जटा कूटने का भी कार्य करना होता.

काम पूरा न होने पर बेंतों की मार पड़ती और टाट का घुटन्ना और बनियान पहनने को दिए जाते, जिससे पूरा बदन रगड़ खाकर और भी चोटिल हो जाता.

काम पूरा न होने पर या अंग्रेजों की जबरदस्ती नाराजगी पर नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते.

मूल स्थान जहाँ पर नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते.
फांसी से पहले अंतिम धार्मिक क्रिया का स्थान.

फांसी-घर का दृश्य. जब भी किसी को फांसी दी जाती तो क्रांतिकारी बंदियों में दहशत पैदा करने के लिए तीसरी मंजिल पर बने गुम्बद से घंटा बजाया जाता, जिसकी आवाज़ 8 मील की परिधि तक सुनाई देती थी. भय पैदा करने के लिए क्रांतिकारी बंदियों को फांसी के लिए ले जाते हुए व्यक्ति को और फांसी पर लटकते देखने के लिए विवश किया जाता था. वीर सावरकर को तो जान-बूझकर फांसी-घर के सामने वाले कमरे में ही रखा गया था.फांसी के बाद मृत शरीर को समुद्र में फेंक दिया जाता था.
किंवदन्ती है कि आज भी बलिदानियों की आत्माएं सेलुलर जेल में स्थित पीपल के पेड़ पर निवास करती हैं. पीपल के पेड़ के ठीक सामने ही यह लौ उनकी चिर स्मृति में प्रज्वलित है.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

क्रान्तिकारियों के बलिदान का साक्षी: सेल्युलर जेल

इन दिनों अंडमान-निकोबार दीप समूह में हूँ. हमारे गेस्ट-हाउस के बगल में ही ऐतिहासिक सेलुलर जेल है तो सामने बंगाल की खाड़ी अपनी लहरों से लोगों को आकर्षित करती है. अंडमान को काला पानी कहा जाता रहा है तो इसके पीछे इस खाड़ी और जेल की ही भूमिका है. अंग्रेजों के दमन का यह एक काला अध्याय था, जिसके बारे में सोचकर अभी भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कहते हैं कि अंडमान का नाम हनुमान जी के नाम पर पड़ा. पहले भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई इधर से ही करने की सोची पर बाद में यह विचार त्याग दिया. वीर सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों को इसी सेलुलर जेल की काल-कोठरियों में कैद रखा गया और यातनाएं दी गईं. सेलुलर जेल अपनी शताब्दी मना चुका है पर इसके प्रांगन में रोज शाम को लाइट-साउंड प्रोग्राम उन दिनों की यादों को ताजा करता है, जब हमारे वीरों ने काला पानी की सजा काटते हुए भी देश-भक्ति का जज्बा नहीं छोड़ा. गन्दगी और सीलन के बीच समुद्री हवाएं और उस पर से अंग्रेजों के दनादन बरसते कोड़े मानव-शरीर को काट डालती थीं. पर इन सबके बीच से ही हमारी आजादी का जज्बा निकला. दूर दिल्ली या मेट्रो शहरों में वातानुकूलित कमरों में बैठकर हम आजादी के नाम पर कितने भी व्याख्यान दे डालें, पर बिना इस क्रांतिकारी धरती के दर्शन और यहाँ रहकर उन क्रांतिवीरों के दर्द को महसूस किये बिना हम आजादी का अर्थ नहीं समझ सकते !!

(सेलुलर जेल का निर्माण कार्य 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ)




(सेलुलर जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं। इस दृश्य के माध्यम से इसे समझा जा सकता है)





(वीर सावरकर को इसी काल-कोठरी में बंदी रखा गया. यह काल-कोठरी सबसे किनारे और अन्य कोठरियों से ज्यादा सुरक्षित बने गई है. गौरतलब है कि सावरकर जी के एक भाई भी काला-पानी की यहाँ सजा काट रहे थे, पर तीन सालों तक उन्हें एक-दूसरे के बारे में पता तक नहीं चला. इससे समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने यहाँ क्रांतिकारियों को कितना एकाकी बनाकर रखा था.)









(शेष अगली पोस्ट में...अगली पोस्ट में काला-पानी की सजा पाए क्रांतिकारियों को यातना के दृश्य प्रस्तुत होंगें)

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

हौसलों की उड़ान (बाल-गीत)

 
चिडि़या को न छोटा समझो,
ऊँची उड़ान भरती है।
सुबह से लेकर शाम तक,
यहाँ-वहाँ पर फिरती है।

छोटे पंख हैं तो क्या हुआ,
हौसलों की उड़ान होती है।
नन्हे-नन्हे पंख पसारे,
हिम्मत नहीं वह खोती है।

आओ हम भी उड़ान भरें,
मेहनत सुबह और शाम करें ।
पूरे करें हम सपने सारे,
हो जाएंगे जग से न्यारे।

-आकांक्षा यादव-