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रविवार, 26 जून 2011

स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें

मादक पदार्थों व नशीली वस्तुओं के निवारण हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 7 दिसंबर, 1987 को प्रस्ताव संख्या 42/112 पारित कर हर वर्ष 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस मानाने का निर्णय लिया. यह एक तरफ लोगों में चेतना फैलाता है, वहीँ नशे के लती लोगों के उपचार की दिशा में भी सोचता है.इस वर्ष का विषय है- ''स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें." आजकी पोस्ट इसी विषय पर-
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मादक पदार्थों के नशे की लत आज के युवाओं में तेजी से फ़ैल रही है. कई बार फैशन की खातिर दोस्तों के उकसावे पर लिए गए ये मादक पदार्थ अक्सर जानलेवा होते हैं. कुछ बच्चे तो फेविकोल, तरल इरेज़र, पेट्रोल कि गंध और स्वाद से आकर्षित होते हैं और कई बार कम उम्र के बच्चे आयोडेक्स, वोलिनी जैसी दवाओं को सूंघकर इसका आनंद उठाते हैं. कुछ मामलों में इन्हें ब्रेड पर लगाकर खाने के भी उदहारण देखे गए हैं. मजाक-मजाक और जिज्ञासावश किये गए ये प्रयोग कब कोरेक्स, कोदेन, ऐल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस जैसे दवाओं को भी घेरे में ले लेते हैं, पता ही नहीं चलता. फिर स्कूल-कालेजों य पास पड़ोस में गलत संगति के दोस्तों के साथ ही गुटखा, सिगरेट, शराब, गांजा, भांग, अफीम और धूम्रपान सहित चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक दवाओं के सेवन की ओर अपने आप कदम बढ़ जाते हैं. पहले उन्हें मादक पदार्थ फ्री में उपलब्ध कराकर इसका लती बनाया जाता है और फिर लती बनने पर वे इसके लिए चोरी से लेकर अपराध तक करने को तैयार हो जाते हैं.नशे के लिए उपयोग में लाई जानी वाली सुइयाँ HIV का कारण भी बनती हैं, जो अंतत: एड्स का रूप धारण कर लेती हैं. कई बार तो बच्चे घर के ही सदस्यों से नशे की आदत सीखते हैं. उन्हें लगता है कि जो बड़े कर रहे हैं, वह ठीक है और फिर वे भी घर में ही चोरी आरंभ कर देते हैं. चिकित्सकीय आधार पर देखें तो अफीम, हेरोइन, चरस, कोकीन, तथा स्मैक जैसे मादक पदार्थों से व्यक्ति वास्तव में अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है एवं पागल तथा सुप्तावस्था में हो जाता है। ये ऐसे उत्तेजना लाने वाले पदार्थ है जिनकी लत के प्रभाव में व्यक्ति अपराध तक कर बैठता है। मामला सिर्फ स्वास्थ्य से नहीं अपितु अपराध से भी जुड़ा हुआ है. कहा भी गया है कि जीवन अनमोल है। नशे के सेवन से यह अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में भारत हेरोइन का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है और ऐसा लगता है कि वह खुद भी अफीम पोस्त का उत्पादन करता है. गौरतलब है कि अफीम से ही हेरोइन बनती है. अपने देश के कुछ भागों में धड़ल्ले से अफीम की खेती की जाती है और पारंपरिक तौर पर इसके बीज 'पोस्तो' से सब्जी भी बने जाती है. पर जैसे-जैसे इसका उपयोग एक मादक पदार्थ के रूप में आरंभ हुआ, यह खतरनाक रूप अख्तियार करता गया. वर्ष 2001 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में भारतीय पुरुषों में अफीम सेवन की उच्च दर 12 से 60 साल की उम्र तक के लोगों में 0.7 प्रतिशत प्रति माह देखी गई. इसी प्रकार 2001 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार ही 12 से 60 वर्ष की पुरुष आबादी में भांग का सेवन करने वालों की दर महीने के हिसाब से तीन प्रतिशत मादक पदार्थ और अपराध मामलों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय [यूएनओडीसी] की रिपोर्ट के ही अनुसार भारत में जिस अफीम को हेरोइन में तब्दील नहीं किया जाता उसका दो तिहाई हिस्सा पांच देशों में इस्तेमाल होता है। ईरान 42 प्रतिशत, अफगानिस्तान सात प्रतिशत, पाकिस्तान सात प्रतिशत, भारत छह प्रतिशत और रूस में इसका पांच प्रतिशत इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2008 में 17 मीट्रिक टन हेरोइन की खपत की और वर्तमान में उसकी अफीम की खपत अनुमानत: 65 से 70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। कुल वैश्विक उपभोग का छह प्रतिशत भारत में होने का मतलब कि भारत में 1500 से 2000 हेक्टेयर में अफीम की अवैध खेती होती है, जो वाकई चिंताजनक है.

नशे से मुक्ति के लिए समय-समय पर सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं पहल करती रहती हैं. पर इसके लिए स्वयं व्यक्ति और परिवार जनों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. अभिभावकों को अक्सर सुझाव दिया जाता है कि वे अपने बच्चों पर नजर रखें और उनके नए मित्र दिखाई देने, क्षणिक उत्तेजना या चिडचिडापन होने, जेब खर्च बढने, देर रात्रि घर लौटने, थकावट, बेचैनी, अर्द्धनिद्राग्रस्त रहने, बोझिल पलकें, आँखों में चमक व चेहरे पर भावशून्यता, आँखों की लाली छिपाने के लिए बराबर धूप के चश्मे का प्रयोग करते रहने, उल्टियाँ होने, निरोधक शक्ति कम हो जाने के कारण अक्सर बीमार रहने, परिवार के सदस्यों से दूर-दूर रहने, भूख न लगने व वजन के निरंतर गिरने, नींद न आने, खांसी के दौरे पड़ने, अल्पकालीन स्मृति में ह्रास, त्वचा पर चकते पड़ जाने, उंगलियों के पोरों पर जले का निशान होने, बाँहों पर सुई के निशान दिखाई देने, ड्रग न मिलने पर आंखों-नाक से पानी बहने-शरीर में दर्द-खांसी-उल्टी व बेचैनी होने, व्यक्तिगत सफाई पर ध्यान न देने, बाल-कपड़े अस्त व्यस्त रहने, नाखून बढे रहने, शौचालय में देर तक रहने, घरेलू सामानों के एक-एक कर गायब होते जाने आदत के तौर पर झूठ बोलने, तर्क-वितर्क करने, रात में उठकर सिगरेट पीने, मिठाईयों के प्रति आकर्षण बढ जाने, शैक्षिक उपलब्धियों में लगातार गिरावट आते जाने, स्कूल कालेज में उपस्थिति कम होते जाने, प्रायः जल्दबाजी में घर से बाहर चले जाने एवं कपडों पर सिगरेट के जले छिद्र दिखाई देने जैसे लक्षणों के दिखने पर सतर्क हो जाएँ. यह बच्चों के मादक-पदार्थों का व्यसनी होने की निशानी है. यही नहीं यदि उनके व्यक्तिगत सामान में अचानक माचिस,मोमबत्ती,सिगरेट का तम्बाकू, 3 इंच लम्बी शीशे की ट्यूब,एल्मूनियम फॉयल, सिरिंज, हल्का भूरा सफेद पाउडर मिलता है तो निश्चित जान लें कि वह ड्रग्स का शिकार है और तत्काल इस सम्बन्ध में कदम उठाने की जरुरत है.

मादक पदार्थों और नशा के सम्बन्ध में जागरूकता के लिए तमाम दिवस, मसलन- 31 मई को अंतर्राष्ट्रीय धूम्रपान निषेध दिवस, 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस, गाँधी जयंती पर 2 से 8 अक्टूबर मद्यनिषेध सप्ताह और 18दिसम्बर को मद्य निषेध दिवस के रूप में हर साल मनाया जाता है. मादक पदार्थों का नशा सिर्फ स्वास्थ्य को ही नुकसान नहीं पहुँचाता बल्कि सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक- मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है. जरुरत इससे भागने की नहीं इसे समझने व इसके निवारण की है. मात्र दिवसों पर ही नहीं हर दिन इसके बारे में सोचने की जरुरत है अन्यथा देश की युवा पीढ़ी को यह दीमक की तरह खोखला कर देगा.

शुक्रवार, 24 जून 2011

भारत में एक द्वीप सिर्फ तोतों के लिए

अंडमान में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो प्राय: बहुत कम ही लोगों को पता होती हैं. इन्हीं में से एक है-पैरट-आइलैंड. पोर्टब्लेयर से बाराटांग की यात्रा में बहुत कुछ देखने को मिलता है. रास्ते में पाषाण कालीन सभ्यता में रह रहे तीर-धनुष से लैस जारवा आदिवासी, बाराटांग में कीचड़ के ज्वालामुखी, लाइम स्टोन केव. चारों तरफ घने वृक्षों से आच्छादित हरे-भरे जंगल और समुद्र की अठखेलियाँ. समुद्र का सीना चीरते हमारी स्टीमर-बोट शाम को साढ़े चार बजे आगे बढती है, साथ में मेरा परिवार और कुछेक स्टाफ के लोग.


मैन्ग्रोव-क्रीक के बीच से गुजरते हुए शाम की समुद्री हवाएँ ठण्ड का अहसास कराती हैं. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, आस-पास दसियों छोटे-छोटे द्वीप दिखने लगते हैं. मौसम सुहाना सा हो चला है. गंतव्य नजदीक है. आखिर हम पैरट-आइलैंड के करीब पहुँच ही जाते हैं. बोट को धीमे-धीमे वह किनारे लगाता है. उतरने की कोई जगह नहीं, बोट में बैठकर ही नजारा लेना है.



बिटिया पाखी चारों तरफ टक-टकी सी निगाह लगाए हुए है. बार-बार पूछती है कि तोते कब दिखेंगें. कानपुर में हमारे आवास-प्रांगन में एक विशाल वट वृक्ष था, शाम को उस पर अक्सर ढेर सारे तोते आते थे. तोतों की टें-टें सुनना मनोरंजक लगता था.



...चारों तरफ ठहरी हुई शांति, समुद्र भी मानो थक कर आराम कर रहो हो. एक-दो मछुहारे नाव के साथ मछली पकड़ते दिख जाते हैं. अचानक एक चीख सी पूरे माहौल का सन्नाटा तोड़ती है. हम चौंकते हैं कि क्या हुआ ? नाविक ने बताया कि जंगल में किसी ने हिरण का शिकार कर पकड़ लिया है. यद्यपि यहाँ हिरण को मारना जुर्म है, पर ये तथाकथित शिकारी जंगलों में कुत्तों के साथ जाते हैं और कुत्ते दौड़कर हिरण को पकड़ लेते हैं. अंडमान में अवैध रूप से हिरण के मांस की बिक्री कई बार सुनने को मिलती है. यह भी एक अजीब बात है की यहाँ के आदिवासी हिरणों को पवित्र आत्मा मानते हैं और उनका शिकार नहीं करते, पर बाहर से आकर बसे लोग हिरणों के शिकार में अवैध रूप से लिप्त हैं.



पैरट आईलैंड वास्तव में समुद्र के बीच मैंग्रोव की झाड़ियों पर अवस्थित है. यहाँ कोई जमीन नहीं, इसीलिए चाहकर भी बोट से नहीं उतर सकते. इन मैंग्रोव की झाड़ियों को तोतों ने कुतर-कुतर कर सम बना दिया है, ताकि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो. दूर से देखने पर यह हरे रंग का गलीचा लगता है. न तो एक पत्ती ऊपर, न एक पत्ती नीचे. वाकई, प्रकृति का अद्भुत नजारा.

...तभी एक तोते की टें-टें सुनाई दी. वह चारों तरफ एक चक्कर मरता है, फिर आवाज़ देता है-टें-टें. यह इशारा था सभी तोतों को बुलाने का. तभी दूसरी दिशा से आते दो तोते दिखाई दिए..टें-टें. फिर तो देखते ही देखते चारों तरफ से तोतों का झुण्ड दिखने लगा. बमुश्किल 15 मिनट के भीतर हजारों तोते आसमान में दिखने लगे. आसमान में कलाबाजियाँ करते, विभिन्न तरह की आकृति बनाते, एक झुण्ड से दुसरे झुण्ड में मिलते और फिर बड़ा झुण्ड बनाते तोते मानो अपनी एकता और कला का जीवंत प्रदर्शन कर रहे हों.

सबसे बड़ा अजूबा तो यह था कि कोई भी तोता मैंग्रोव पर नहीं बैठता, बस उसके चारों तरफ चक्कर लगाता और फिर आसमान में कलाबाजियाँ, मानो सब एक अनुशासन से बंधे हुए हों...और देखते ही देखते सारे तोते मैंग्रोव की झाड़ियों पर उतर गए. हरे रंग के मैंग्रोव पर हरे -हरे तोते, सब एकाकार से हो गए थे. चूँकि हमने उन्हें वहाँ उतरते देखा था, अत: उनकी उपस्थिति का भान हो रहा था. कोई सोच भी नहीं सकता कि मैंग्रोव की इन झाड़ियों पर हजारों तोते उपस्थित हैं. न जाने कितने द्वीपों से और दूर-दूर से ये तोते आते हैं और पूरी रात एक साथ बिताने के बाद फिर अगली सुबह मोती की तरह बिखरे द्वीपों की सैर पर निकल जाते हैं.

-कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 16 जून 2011

शब्दों की गति


कनाडा से प्रकाशित हिंदी-चेतना के जनवरी-मार्च , 2011 अंक में मेरी कविता 'शब्दों की गति' प्रकाशित हुई. इस कविता को साभार 'वेब दुनिया हिंदी' ने भी प्रकाशित किया है. आप भी पढ़ें-

कागज पर लिखे शब्द
कितने स्थिर से दिखते हैं
आड़ी-तिरछी लाइनों के बी‍च
सकुचाए-शर्माए से बैठे।

पर शब्द की नियति
स्थिरता में नहीं है
उसकी गति में है
और जीवंतता में है।

जीवंत होते शब्द
रचते हैं इक इतिहास
उनका भी और हमारा भी
आज का भी और कल का भी।

सभ्यता व संस्कृति की परछाइयों को
अपने में समेटते शब्द
सहते हैं क्रूर नियति को भी
खाक कर दिया जाता है उन्हें
यही प्रकृति की नियति।

कभी खत्म नहीं होते शब्द
खत्म होते हैं दस्तावेज
और उनकी सूखती स्याहियाँ
पर शब्द अभी-भी जीवंत खड़े हैं।

सोमवार, 13 जून 2011

कन्या-भ्रूण की हत्या कहाँ तक वैध ??

कन्याओं के प्रति विरक्ति सिर्फ भारत में हो, ऐसा नहीं है. यह रोग अन्य देशों में भी है. जो भारतीय अच्छी शिक्षा-दीक्षा पाकर विदेशों में बस गए, अभी भी अपनी रुढी मानसिकता से छुटकारा नहीं पा पा रहे हैं. तभी तो उनके लिए भी बेटा-बेटी का भेद बना हुआ है. गर्भ में बेटी के आते ही उसे ख़त्म कर देने में उनकी आत्मा कचोटती नहीं.


यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया द्वारा किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अमेरिका में भारतीय मूल की महिलाएं पुत्र की चाह में कन्या भ्रूण हत्या करा रही हैं। अध्ययन के मुताबिक महिलाएं कृत्रिम प्रजनन तकनीक इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) के दौरान सिर्फ नर भ्रूण को प्रत्यारोपित करा रही हैं। वह कन्या भ्रूण का गर्भपात करा देती हैं।

शोधकर्ताओं ने कैलिफोर्निया, न्यूजर्सी और न्यूयार्क में 65 आप्रवासी भारतीय महिलाओं का साक्षात्कार लिया, जिन्होंने सितंबर 2004 से दिसंबर 2009 के बीच लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रूण हत्याएं की। गौरतलब है कि भारत के विपरीत अमेरिका में लिंग निर्धारण वैध है। पर इस वैधता की आड में कन्या-भ्रूण की हत्या कहाँ तक वैध है, यह एक बड़ा सवाल जरुर है ??