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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

बेटी अपूर्वा (तान्या) एक साल की


वक़्त की चाल भी कितनी तेज है. समय का पता ही नहीं चलता. देखते-देखते एक साल बीत गए और हमारी छोटी बेटी अपूर्वा(तान्या) एक साल की हो गई. जन्म हुआ बनारस में, परवरिश पोर्टब्लेयर में और अपने पहले जन्म-दिन पर हवाई जहाज से कोलकात्ता से लखनऊ..यानी जन्मदिन भी हवाई जहाज में ही मनेगा और फिर शाम को लखनऊ में डिनर !!


...बेटी अपूर्वा को आपके शुभाशीर्वाद और स्नेह की भी आकांक्षा !!

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

दीवाली पर लक्ष्मी-गणेश की पूजा क्यों ??


दीपावली को दीपों का पर्व कहा जाता है और इस दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि दीपावली मूलतः यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग-बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै।

ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यह महत्वपूर्ण है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में जहाँ देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।


सभी ब्लागर्स को दीप-पर्व पर अनंत शुभकामनाएं. आप सब ऐसे ही ब्लागिंग में नित रचनात्मक दीये जलाते रहें !!

-आकांक्षा यादव

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

'शब्द शिखर' पर विराजने की 'आकांक्षा' : जनसंदेश टाइम्स में चर्चा


('शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा डा. जाकिर अली रजनीश जी ने जनसंदेश टाइम्स में अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'ब्लॉग वाणी' के तहत 'शब्द शिखर पर विराजने की आकांक्षा' शीर्षक के तहत 12 अक्टूबर 2011 को विस्तारपूर्वक की है.रजनीश जी को धन्यवाद. बेहद खूबसूरती से उन्होंने इसे प्रस्तुत किया है.इसे आप भी पढ़ सकते हैं)
धरती पर पाए जाने वाले सभी जीवों में मनुष्‍य ही वह प्राणी है, जिसके पास सोच-विचार करने और उसे अभिव्‍यक्‍त करने की शक्ति पाई जाती है। यही कारण है कि विचारशील व्‍यक्ति सिर्फ अपनी क्षुधापूर्ति पर ध्‍यान नहीं देता, वह अपनी रोजी-रोटी के साथ-साथ समाज के बारे में भी चिंतन करता है। विद्वानों ने इस वैचारिक प्रस्‍फुटन को स्‍वत: स्‍फूर्त माना है। लेकिन इसके साथ ही साथ यह भी तय है कि परिस्थितियाँ और माहौल भी इस भाव के प्रकटीकरण में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही
कारण है कि जबसे वैचारिक आदान-प्रदान के रूप में ब्‍लॉग का माध्‍यम सामने आया है, ऐसे विचारकों की संख्‍या में अ‍भूतपूर्व वृद्धि हुई है। इस वृद्धि को अगर वैचारिक विस्‍फोट का नाम दिया जाए, तो शायद अतिश्‍योक्ति नहीं होगी। कारण जहाँ इस माध्‍यम ने लेखकों की एक ऐसी जमात को सामने लाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है, जो किसी संकोच की वजह से कभी अपनी रचनाओं को लोगों के सामने नहीं ला सके, वहीं इसने उन रचनाकारों की झिझक को भी तोड़ने में सफलता अर्जित की है, जो बार-बार के रचना-प्रेषण और सम्‍पादकीय दया दृष्टि को लेकर सहज नहीं रह पाते थे।

रचनाकारों की इन दो श्रेणियों के के अतिरिक्‍त ब्‍लॉग जगत में लेखकों की एक तीसरी श्रेणी भी सक्रिय है, जो ब्‍लॉग जगत से इतर भी अपनी लेखनी के लिए जानी जाती है और ब्‍लॉग जगत में भी अपनी अपनी साहित्यिक प्रतिभा के कारण पहचानी जाती है। आकाँक्षा यादव इसी श्रेणी की एक प्रतिभा सम्‍पन्‍न रचनाकार हैं। वे जिस तरह देश-विदेश की सभी चर्चित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, उसी तरह से ब्‍लॉग जगत में भी अपनी सक्रियता के नए आयाम स्‍थापित करती नजर आती हैं। उनके इस वैचारिक और साहित्यिक चिंतन को उनके ब्‍लॉग ‘शब्द-शिखर’ (http://shabdshikhar.blogspot.com) पर सहज रूप में देखा-परखा जा सकता है।

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में जन्‍मीं आकाँक्षा वर्तमान में पोर्टब्‍लेयर शहर में अवस्थित हैं। पेशे से वे कॉलेज में प्रवक्‍ता हैं, पर मुख्‍य रूप से वे एक रचनाधर्मी के रूप में जानी जाती हैं और अपनी रचनाओं में जीवंतता के साथ-साथ सामाजिक संस्कार के रंग भरने के लिए पहचानी जाती हैं। उनका मानना है कि लेखनी में बिना लाग-लपेट के सुलभ भाव-भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य भी उभरने चाहिए। यही उसकी सार्थकता है। यही कारण है कि उनकी लेखनी किसी एक क्षेत्र अथवा सीमा में बंध कर नहीं रहती। वे मानव-मात्र को छूने वाले सभी सहज विषयों पर चिंतन करती पाई जाती हैं और शायद यही कारण है कि वे अपनी इस साहित्यिक सक्रियता के लिए दजर्नाधिक साहित्यिक संस्‍थाओं से पुरस्‍कृत एवं सम्‍मानित होने का गौरव भी प्राप्‍त कर चुकी हैं।

आकाँक्षा एक आधुनिक युग की महिला हैं। वे महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिये जाने की पक्षधर हैं और लड़कियों पर पक्षपात के कारण लगाए जाने वाली मानसिकता की सख्‍त आलोचक भी हैं। यही कारण है कि वे ईव-टीजिंग जैसे ज्‍वलंत विषय पर लड़कियों पर सारा दोष मढ़ने की मानसिकता को साहस के साथ बेपर्दा करती हैं और स्‍वस्‍थ समाज के लिए स्‍वस्‍थ मानसिकता की आवश्‍यकता पर बल देती हैं। वे एक ओर जहाँ समाज के विभिन्‍न वर्गों में पाई जाने वाले विकृतियों को अपनी रचनाओं में उकेरती हैं, वहीं ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की सीमा को तोड़ती हुई शिक्षक वर्ग की कमजोरियों को भी समान रूप से प्रदर्शित करने में झिझक महसूस नहीं करती हैं। उनका मानना है कि यदि शिक्षक अपनी भूमिका व कर्तव्यों पर पुनर्विचार कर सकें तो शायद वे बदलते प्रतिमानों के साथ अपनी भूमिका को ज्‍यादा सशक्त बना सकेंगे।

आकाँक्षा समाज में सिर्फ बुरा देखने वाली कोई अतिरेकी आलोचक नहीं हैं। वे लोक की परम्‍परा से निकली हुई एक ऐसी पारखी हैं, जो अपने चारों ओर पसरी जिंदगी में शुभ और सार्थक चीजों को बढ़ावा देना भी अपना फर्ज समझती हैं। यही कारण है कि चाहे हमारी संस्‍कृति में व्‍याप्‍त मानवीय मूल्‍य हों, अथवा हमारे समाज में चारों ओर फैले प्रेरक एवं सकारात्‍मक पहलू, वे एक जौहरी की तरह कदम-कदम पर उनकी पहचान करती चलती हैं और अपनी लेखनी के द्वारा उन्‍हें बड़ी कुशलता से अपने ब्‍लॉग पर परोसती जाती हैं। उनकी यह सजग दृष्टि जहाँ उनकी साँस्‍कृतिक समझ को व्‍याख्‍यायित करती है, वहीं उनके ब्‍लॉग में विविधता का ऐसा रंग भरती है, जो पाठकों को सहज रूप से आकर्षित करता है।

कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा, संस्‍मरण जैसी विधाओं में अपने के सहज महसूस करने वाली आकाँक्षा वास्‍तव एक बहुआयामी रचनाकार हैं। एक ओर जहाँ वे आधुनिक युग की नारियों को समय की विद्रूपताओं के साथ चलने की राह दिखाती हैं, वहीं वे बाल साहित्‍य की सार्थक रचनाओं का प्रणयन कर बच्‍चों की भी सच्‍ची दोस्‍त बन जाती हैं। उनकी लेखनी की यह विविधता ‘शब्‍द-शिखर’ को पठनीय बनाती है और ब्‍लॉग जगत की भीड़ में उन्‍हें एक खास पहचान दिलाती है।


डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
(इसे Hindi BLogs in Media और 'मेरी दुनिया मेरे सपने' पर भी देखें)
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इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 28वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

2009 ईसा पूर्व में लिखा गया दुनिया का पहला पत्र

हममें से हर किसी ने अपने जीवन में किसी न किसी रूप में पत्र लिखा होगा। पत्रों का अपना एक भरा-पूरा संसार है। दुनिया की तमाम मशहूर शख्सियतों ने पत्र लिखे हैं- फिर चाहे वह नेपोलियन हों, अब्राहम लिंकन, क्रामवेल, बिस्मार्क या बर्नाड शा हों। महात्मा गाँधी तो रोज पत्र लिखा करते थे. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को आज भी रोज 4000 से ज्यादा पत्र प्राप्त होते हैं.आज ये पत्र एक धरोहर बन चुके हैं।

ऐसे में यह जानना अचरज भरा लगेगा कि दुनिया का सबसे पुराना पत्र बेबीलोन के खंडहरों से मिला था, जो कि मूलत: एक प्रेम-पत्र था. बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा-

''मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।''

यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिखा गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और आज हम वर्ष 2011 में जी रहे हैं. ...तो आइये पत्रों के इस सफर का स्वागत करते हैं और अपने किसी को एक खूबसूरत पत्र लिखते हैं !!

- कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

अन्याय पर न्याय की विजय का प्रतीक है दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है।

कृष्ण कुमार यादव

आप सभी को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!