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गुरुवार, 25 जून 2009

सावन के बहाने कजरी के बोल

मौसम में फिलहाल बेहद गर्मी है। हर किसी को सावन की रिमझिम फुहारों का इन्तजार है। इसके साथ ही चारों तरफ उल्लास छा जाता है। जहाँ प्रकृति नित नये रंग बदलती है वहीं पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, धरा सभी की रंगत देखते ही बनती है। प्रकृति के साथ ही हर कोई झूम उठता है और गुनगुना उठता है-
रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।

कजरी के बोल भला किसे प्रिय नहीं होंगे। लोग भले ही गाँवों से नगरों की ओर प्रस्थान कर गये हों पर गाँव के बगीचे में पेंग मारकर झूले झूलती महिलाएं, छेड़छाड़ के बीच रिश्तों की मधुर खनक भला किसे आकर्षित न करती होगी। वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-
घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।

छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूँज उनके प्रीतम तक पहुँचे और शायद वे लौट आयें-
सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आये
रतिया देखी सवनवा ना।

यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं -
गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।

एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-
सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।

नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-
बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।

विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-
पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहेैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।

विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चैपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वन्दता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-
कइसे खेलन जइबू
सावन मंे कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।

बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-
हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।

सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु न तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों न हो-
चन्दा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।

विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-
पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी- हरी पतियां।

ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तोें को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है।
(पतिदेव कृष्ण कुमार यादव जी के सहयोग से)

सोमवार, 22 जून 2009

पंचतंत्र की कहानियों का उद्भव

पंचतंत्र की कहानियाँ तो सभी ने सुनी और पढ़ी होंगी। इससे जुड़ी तमाम कहानियाँ पशु, पक्षी, पेड़, प्रकृति तथा राजा-रानी को आधार बना कर रची गयी हैं। यह जानने की जिज्ञासा हर किसी के मन में अवश्य होगी कि आखिर इन पंचतंत्र की कहानियों की रचना कब, किसने और क्यों की? अब से लगभग 1800 वर्ष पूर्व हमारे देश में अमर शक्ति नामक यशस्वी राजा हुआ। इस राजा बहुशक्ति, उग्रशक्ति एवं मंदशक्ति नामक तीन पुत्र थे। तीनों बात-बात पर झगड़ते रहते थे। उनकी बुद्धिहीनता के कारण राजा बहुत ही चिन्तित रहता था। एक दिन उसने अपनी यह चिन्ता अपने दरबार में मौजूद सभासदों के समक्ष रखी और समस्या के निदान के लिए सभासदों से सुझाव मांगा। उसी दरबार में विष्णु दत्त शर्मा भी सभासद के रूप में मौजूद थे। उन्होंने राजा अमर शक्ति से निवेदन किया कि यदि उन्हें समय दिया जाए तो वे राजकाज की चिन्ता दूर करने के लिए अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं कौशल से राजा के तीनों पुत्रों में सुधार ला सकते हे। इसके लिए वे तीनों राजकुमारों को अपने सानिध्य में रखकर उनमें समझदारी विकसित करेंगे एवं उन्हें खुले वातावरण में रख कर छोटी-बड़ी अच्छाई-बुराई, नफा-नुकसान से उन्हें अवगत करा कर उनमें बुद्धि का विकास कर एक कुशाग्र एवं प्रबुद्ध राजकुमारों के गुण विकसित करने का पूरा प्रयत्न करेंगे।

राजा अमर शक्ति को विष्णुदत्त शर्मा का सुझाव बेहद पसंद आया। उन्होंने अपने तीनों पुत्रों को विष्णुदत्त शर्मा के सानिध्य में भेज दिया। विष्णु दत्त ने छोटी-छोटी किन्तु प्रभावकारी कथाएं बना-बना कर राजा के तीनों पुत्रों को सुनाना प्रारम्भ किया। उनकी प्रेरणादायक कहानियों का राजकुमारों पर ऐसा प्रभाव हुआ कि छह महीने के अंतराल में ही उनकी बुद्धिहीनता उड़न छू हो गयी और वे समझदार राजकुमारों की तरह परस्पर बर्ताव व व्यवहार करने लग गये। विष्णुदत्त शर्मा द्वारा राजकुमारों को सुधारने के लिए बना-बनाकर जो कहानियां सुनायी गयी थीं, वही पंचतंत्र की कहानियों के रूप में आगे चल कर प्रसिद्ध र्हुइं। आज भी ये कहानियाँ भारतीय समाज में बड़े चाव से सुनी और गुनी जाती हैं।

रविवार, 21 जून 2009

भारतीय पित्री-सत्तात्मक समाज में फादर्स-डे

आज फादर्स डे है. माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं. इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है. पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति प्रेम का इज़हार कई तरीकों से किया जाता है, पर बेटों-बेटियों द्वारा पिता के प्रति इज़हार का यह दिवस अनूठा है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि स्त्री-शक्ति का एहसास करने हेतु तमाम त्यौहार और दिन आरंभ हुए पर पित्र-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे की कल्पना अजीब जरुर लगती है.पाश्चात्य देशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ पर फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है. पर भारत में कही इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से छुटकारा तो नहीं चाहते हैं. इस पर भी विचार करने की जरुरत है. जरुरत फादर्स-डे की अच्छी बातों को अपनाने की है, न कि पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में उसे अपनाने की जरुरत है.

माना जाता है कि फादर्स डे सर्वप्रथम 19 जून 1910 को वाशिंगटन में मनाया गया। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। सोनेरा डोड जब नन्हीं सी थी, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में माँ की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे माँ का भी प्यार दिया। एक दिन यूँ ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? ....इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने फादर्स डे पर अपनी सहमति दी। फिर 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की।1972 में अमेरिका में फादर्स डे पर स्थायी अवकाश घोषित हुआ। फ़िलहाल पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है.भारत में भी धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है.इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य में भी.

गुरुवार, 18 जून 2009

खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी (18 जून बलिदान दिवस पर विशेष)

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था।

क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।

1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हंे मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।

बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुतः 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पेंशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”

रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाॅंध घोडे़ पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहुँची, जहाँ तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।....अन्ततः 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा - ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी। माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- चमक उठी सन् सत्तावन में/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलों के मुँह/हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो/झाँसी वाली रानी थी ।

मंगलवार, 16 जून 2009

ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड

कालेज लाइफ का नाम सुनते ही न जाने कितने सपने आँखों में तैर आते हैं। तमाम बंदिशों से परे वो उन्मुक्त सपने, उनको साकार करने की तमन्नायें, दोस्तों के बीच जुदा अंदाज, फैशन-ब्रांडिंग और लाइफ स्टाइल की बदलती परिभाषायें....और भी न जाने क्या-क्या। कालेज लाइफ में मन अनायास ही गुनगुना उठता है- आज मैं ऊपर, आसमां नीचे।

पर ऐसे माहौल में यदि शुरूआत ही बंदिशों से हो तो मन कसमसा उठता है। दिलोदिमाग में ख्याल उठने लगता है कि क्या जींस हमारी संस्कृति के विपरीत है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि मात्र जींस-टाप पहन लेने से वो प्रभावित होने लगती है? क्या जींस न पहनने भर से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं। दरअसल कानपुर के कई नामी-गिरामी कालेजों ने सत्र प्रारम्भ होने से पहले ही छात्राओं को उनके ड्रेस कोड के बारे में बकायदा प्रास्पेक्टस में ही फरमान जारी किया है कि वे जींस और टाप पहन कर कालेज न आयें। इसके पीछे निहितार्थ यह है कि अक्सर लड़कियाँ तंग कपड़ों में कालेज आती हैं और नतीजन ईव-टीजिंग को बढ़ावा मिलता है। स्पष्ट है कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। अतः यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को दरिंदों की निगाहों से बचाएं।

आज के आधुनिकतावादी एवं उपभोक्तावादी दौर में जहाँ हमारी चेतना को बाजार नियंत्रित कर रहा हो, वहाँ इस प्रकार की बंदिशें सलाह कम फरमान ज्यादा लगते हैं। समाज क्यों नहीं स्वीकारता कि किसी तरह के प्रतिबंध की बजाय बेहतर यह होगा कि अच्छे-बुरे का फैसला इन छात्राओं पर ही छोड़ा जाय और इन्हें सही-गलत की पहचान करना सिखाया जाय। दुर्भाग्य से कालेज लाइफ में प्रवेश के समय ही इन लड़कियों के दिलोदिमाग में उनके पहनावे को लेकर इतनी दहशत भर दी जा रही है कि वे पलटकर पूछती हैं-’’ड्रेस कोड उनके लिए ही क्यों ? लड़के और अध्यापक भी तो फैशनेबल कपड़ों में काॅलेज आते हैं, उन पर यह प्रतिबंध क्यों नहीं?‘‘ यही नहीं तमाम काॅलेजों ने तो टाइट फिटिंग वाले सलवार सूट एवं अध्यापिकाओं को स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। शायद यहीं कहीं लड़कियों-महिलाओं को अहसास कराया जाता है कि वे अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। देश में सत्ता शीर्ष पर भले ही एक महिला विराजमान हो, संसद की स्पीकर एक महिला हो, सरकार के नियंत्रण की चाबी एक महिला के हाथ में हो, यहाँ तक कि उ0 प्र0 में एक महिला मुख्यमंत्री है, पर इन सबसे बेपरवाह पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता।

सवाल अभी भी अपनी जगह है। क्या जींस-टाप ईव-टीजिंग का कारण हैं ? यदि ऐसा है तो माना जाना चाहिए कि पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। ग्रामीण अंचलों में छेड़खानी व बलात्कार की घटनाएं तो किसी पहनावे के कारण नहीं होतीं बल्कि अक्सर इनके पीछे पुरुषवादी एवं जातिवादी मानसिकता छुपी होती है। बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार भला किसे नहीं याद होगा ? हाल ही में दिल्ली की एक संस्था ’साक्षी’ ने जब ऐसे प्रकरणों की तह में जाने के लिए बलात्कार के दर्ज मुकदमों के पिछले 40 वर्षों का रिकार्ड खंगाला तो पाया कि बलात्कार से शिकार हुई 70 प्रतिशत महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनीं थीं।

स्पष्ट है कि मारल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा लड़कियों-महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि लड़कियां अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं। मानों लड़कियां सेक्स आब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टाप में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टाप में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है।

सोमवार, 15 जून 2009

अमर उजाला में 'शब्द-शिखर' ब्लॉग की चर्चा


''शब्द शिखर'' पर 13 जून 2009 को प्रस्तुत लेख ''सबसे बड़ा दान है देहदान, नेत्रदान'' को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 15 जून 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! ... आभार!!

शनिवार, 13 जून 2009

सबसे बड़ा दान है देहदान, नेत्रदान

दान से पुण्य कोई कार्य नहीं होता। दान जहाँ मनुष्य की उदारता का परिचायक है, वहीं यह दूसरों की आजीविका चलाने या किसी सामूहिक कार्य में संकल्पबद्ध होकर अपना योगदान देने की मानवीय प्रवृति को दर्शाता है। राजा हरिश्चन्द्र को उनकी दानवीरता के लिए ही जाना जाता है। महर्षि दधीचि जैसे ऋषिवर ने तो अपनी अस्थियाँ ही मानव के कल्याण हेतु दान कर दीं। महर्षि दधीचि ने मानवता को जो रास्ता दिखाया आज उस पर चलकर तमाम लोग समाज एवं मानव की सेवा में जुटे हुए हैं। देहदान के पवित्र संकल्प द्वारा दूसरों को जीवन देने का जज्बा विरले लोगों में ही देखने को मिलता है। चूँकि मनुष्य के देहान्त पश्चात की परिस्थितियां मानवीय हाथ में नहीं होती, अतः विभिन्न धर्मों में इसे अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया गया है। धर्मों की परिभाषा से परे एक मानव धर्म भी है जो सिखाता है कि जिन्दा होकर किसी व्यक्ति के काम आये तो उत्तम है और यदि मृत्यु के बाद भी आप किसी के काम आये तो अतिउत्तम है।

हाल ही में विष्णु प्रभाकर एवं प्रतीक मिश्र जैसे वरेण्य साहित्यकारों ने जिस प्रकार मृत्यु के बाद भी देहदान द्वारा लोगों को शिक्षित एवं जागरुक किया है, वह स्तुत्य है। वस्तुतः आज सबसे ज्यादा जरूरत युवा पीढ़ी को देहदान व नेत्रदान जैसे संकल्पबद्ध अभियान से जोड़ने की है। हिन्दुस्तान में मौजूद 1 करोड 20 लाख नेत्रहीनों को नेत्र ज्योति प्रदान करने एवं अन्धता निवारण के लिए नेत्रदान करना बहुत जरूरी है। इसी परम्परा में भारतवर्ष में तमाम लोग नेत्रदान-देहदान की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। मरने के बाद हाथी के दाँतों से कामोत्तेजक औषधियाँ एवं खिलौने, जानवरों की खाल से चमड़ा बनता है, उसी प्रकार से इन्सान भी मृत्यु के बाद 4 नेत्रहीनों को नेत्रज्योति, 14 लोगो को अस्थियाँ व हजारों मेडिकल छात्रों को चिकित्सा शिक्षा दे सकता है। दान की हुई आँखें तीन पीढ़ी तक काम आती हैं। किसी कवि ने कहा है-

हाथी के दाँत से खिलौने बने भाँति-भाँति
बकरी की खाल भी पानी भर लाई
मगर इंसान की खाल किसी काम न आई !!

शुक्रवार, 5 जून 2009

पृथ्वी हो रही विकल (विश्व पर्यावरण दिवस पर)















खत्म होती वृक्षों की दुनिया
पक्षी कहाँ पर वास करें
किससे अपना दुखड़ा रोयें
किससे वो सवाल करें

कंक्रीटों की इस दुनिया में
तपिश सहना भी हुआ मुश्किल
मानवता के अस्थि-पंजर टूटे
पृथ्वी नित् हो रही विकल

सिर्फ पर्यावरण के नारों से
धरती पर होता चहुँ ओर शोर
कैसे बचे धरती का जीवन
नहीं सोचता कोई इसकी ओर।