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सोमवार, 31 मई 2010

सभ्यताओं को लीलने को तैयार 'तम्बाकू' की विषबेल


आज विश्व तम्बाकू निषेध दिवस है. मई माह की भी अपनी महिमा है. मजदूर दिवस से आरंभ होकर यह तम्बाकू निषेध दिवस पर ख़त्म हो जाता है. दुनिया के 170 राष्ट्रों ने व्यापक तम्बाकू नियंत्रण संधि पर हस्ताक्षर तो किये हैं पर वास्तव में इस सम्बन्ध में कोई ठोस पहल नहीं की जाती है. इसके पीछे राजस्व नुकसान से लेकर कार्पोरेट जगत के निहित तत्व तक शामिल हैं, जिनकी सरकारों में जबरदस्त घुसपैठ होती है. ऐसे में तम्बाकू के धुँए का यह जहर धीरे-धीरे सुरसा के मुँह की तरह पूरी दुनिया को निगलने पर आमदा है. 450 ग्राम तम्बाकू में निकोटीन की मात्रा लगभग 22.8 ग्राम होती है। इसकी 6 ग्राम मात्रा से एक कुत्ता 3 मिनट में मर जाता है। तम्बाकू के प्रयोग से अनेक दंत रोग, मंदाग्नि रोग हो जाता है। आंखों की ज्योति कम हो सकती है तो दुष्प्रभाव रूप में व्यक्ति बहरा व अन्धा तक हो जाता है। तम्बाकू के निकोटीन से ब्लड प्रेशर बढ़ता है, रक्त संचार मंद पड़ जाता है।फेफड़ों की टीबी तो इसका सीधा प्रभाव देखा जा सकता है. यही नहीं तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति नपुंसक भी हो सकता है। कहना गलत न होगा कि तम्बाकू का नियमित सेवन धीरे-धीरे व्यक्ति को मृत्यु के करीब ला देता है और वह असमय ही काल-कवलित हो जाता है.

अकेले भारत में हर साल लगभद आठ लाख मौतें तम्बाकू से होने वाली बीमारियों के कारण होती हैं.आज बच्चे-बूढ़े-जवान से लेकर पुरुष-नारी तक सभी वर्गों में तम्बाकू की लत देखी जा सकती है. कभी फैशन में तो,कभी नशे के चस्के में और कई बार थकान मिटाने या गम भुलाने की आड़ में भी इसे लिया जा रहा है. घर में बड़ों द्वारा लिए जा रहा तम्बाकू कब छोटों के पास पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता. दुर्भाग्यवश भारत में धर्म की आड में भी तम्बाकू का स्वाद लेने वालों की कमी नहीं है. गौरतलब है कि आयुर्वेद के चरक तथा सुश्रुत जैसे हजारों वर्ष पूर्व रचे गए ग्रन्थों में धूम्रपान का विधान है। वैसे, वहाँ पर उसका वर्णन औषधि के रूप में हुआ है, जैसे कहा गया है कि आम के सूखे पत्ते को चिलम जैसी किसी उपकरण में रखकर धुआं खींचने से गले के रोगों में आराम होता है। दमा तथा श्वास संबंधी रोगों में वासा (अडूसा) के सूखे पत्तों को चिलम में रखकर पीना एक प्रभावशाली उपाय माना गया है। आज भी ऐसे लोग मिल जायेंगे जो तम्बाकू को दवा बताते हैं. पवित्र तीर्थस्थलों पर धूनी पर बैठकर सुलफा, गांजा अथवा तम्बाकू के दम लगाने वालों तथाकथित बाबाओं की तो पूरी फ़ौज ही भरी पड़ी है. सरकारी दफ्तरों में तम्बाकू या धूम्रपान का सेवन करते पकड़े गए तमाम लोगों ने इसे अपने पक्ष में उपयोग किया है. पर ऐसे लोग उस पक्ष को भूल जाते हैं, जहाँ स्कन्दपुराण में कहा गया है कि-"स्वधर्म का आचरण करके जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह धूम्रपान से नष्ट हो जाता है। इस कारण समस्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि को इसका सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।''

इधर हाल के वर्षों में जिस तरह से इसने तेजी से महिलाओं को चंगुल में लेना आरंभ किया है, वह पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक बन चुका है. अधिकतर महिलाओं का यह नशा उनकी अगली पीढ़ी में भी जा रहा है क्योंकि मात्रीत्व की स्थिति में इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ना तय है. अब तो महिलाओं के लिए बाकायदा अलग से तम्बाकू उत्पाद भी बनने लगे हैं. स्कूल जाते लड़के-लड़कियां कम उम्र में ही इनका लुत्फ़ उठाने लगे हैं. उस पर से विज्ञापनों की चकाचौंध भी उन्हें इसका स्वाद लेने की तरफ अग्रसर करती है. फिल्मों-धारावाहिकों में जिस धड़ल्ले से नायक-नायिकाएं तम्बाकू वाले सिगरेट या सिगार को स्टाइल में पीते नजर आते हैं, वह नवयुवकों-नवयुवतियों पर गहरा असर डालता है. ऐसे में यह पता होते हुए भी कि यह स्वस्थ्य के अनुकूल नहीं है, यह स्टेट्स सिम्बल या फैशन का प्रतीक बन जाता है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद घाटे की भरपाई और बदलते मूल्यों के चक्कर में पहली बार व्यावसायिक कंपनियों ने तम्बाकू उत्पादों की बिक्री के लिए महिलाओं का इस्तेमाल करना आरंभ किया. लारीवार्ड कंपनी ने पहल करते हुए पहली बार तम्बाकू उत्पादों के विज्ञापन हेतु सर्वप्रथम 1919 में महिलाओं के चित्रों का उपयोग किया। इसके अगले साल ही सिगरेट को नारी- स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया। 1927 के दौर में तो बाकायदा मार्लबोरो ब्रांड में सिगरेट को फैशन व दुबलेपन से जोड़ कर पेश किया गया. इसी के साथ ही कई नामी-गिरामी कंपनियों ने तमाम अभिनेत्रियों को तम्बाकू उत्पादों के कैम्पेन से जोड़ना आरंभ किया। बाद के वर्षों में जैसे -जैसे नारी-स्वातंत्र्य के नारे बुलंद होते गए, स्लिम होने को फैशन-स्टेटमेंट माना जाने लगा, इन कंपनियों ने भी इसे भुनाना आरंभ कर दिया. फिलिप मौरिस कंपनी ने 60 के दशक में बाकायदा वर्जिनिया स्लिम्स नाम से मार्केटिंग अभियान आरंभ किया,जिसकी पंच लाइन थी -'यू हैव कम ए लांग वे बेबी.' इसके बाद तो लगभग हर कंपनी ही तम्बाकू उत्पादों के प्रचार के लिए नारी माडलों व फ़िल्मी नायिकाओं का इस्तेमाल कर रही है.


ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस वर्ष तम्बाकू निषेध दिवस पर महिलाओं पर फोकस किया जाना महत्वपूर्ण व प्रासंगिक भी है. गौरतलब है कि भारत कि कुल जितनी आबादी है, लगभग उतने ही लोग दुनिया में धुम्रपान करने वाले भी हैं, अर्थात 1 अरब से ज्यादा. इस 1 अरब में धूम्रपान करने वाली करीब 20 फीसदी महिलाएं भी शामिल हैं. आज महिलाओं में धूम्रपान का यह शौक भारत में भी बखूबी देखने को मिलता है. यह अक्सर या तो हाई सोसाईटी में या समाज के निचले तबके में बखूबी देखने को मिलता है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत में करीब 1.4 फीसदी महिलायें धूम्रपान और करीब 8.4 फीसदी महिलायें खाने योग्य तम्बाकू का सेवन करती है। ऐसे में तम्बाकू सेवन से उनमें तमाम रोग व विकार उत्पन्न होते हैं. इनमें श्वांस सम्बन्धी बीमारी, फेफड़े का कैंसर, दिल का दौरा, निमोनिया, माहवारी सम्बंधित समस्याएं एवं प्रजनन विकार जैसी बीमारियाँ शामिल हैं. यही नहीं तम्बाकू का नियमित सेवन करने वाली महिलाओं में अक्सर पूर्व-प्रसव भी देखा गया हाई तथा पैदा होने वाले बच्चे औसत वजन से लगभग 400-500 ग्राम कम के पैदा होते हैं. इसके साथ ही तम्बाकू सेवन करने वाली महिलाओं में गर्भपात की दर भी सामान्य महिलाओं की तुलना में 95 फीसदी ज्यादा होती है।

वाकई आज जरुरत है कि इस ओर गंभीर पहल की जाय. इन्हीं सबके चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन अब तम्बाकू-उत्पादों का भ्रामक बाजारीकरण, जिसमें परोक्ष-अपरोक्ष रूप में तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रायोजित किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध लगाना भी शामिल है, के बारे में भी सोच रहा है. जानकर आश्चर्य होगा कि तम्बाकू कंपनियाँ हर साल विज्ञापन पर करीब दस अरब रूपये खर्च करतीं हैं. पर बेहतर होगा कि सरकारों और संगठनों की बजाय इस सम्बन्ध में अपने घर और उससे पहले खुद से शुरुआत की जाय ताकि तम्बाकू की यह विषबेल समय से पहले ही सभ्यताओं को न लील ले. क्योंकि Active रूप में जहाँ यह खुद के लिए घातक है, वही Passive रूप में हमारे परिवेश, परिवार, समाज और अंतत: पूरी सभ्यता को लीलने के लिए तैयार बैठी है !!

शुक्रवार, 28 मई 2010

मँहगाई

मँहगी सब्जी, मँहगा आटा
भूल गए सब दाल
मँहगाई ने कर दिया
सबका हाल बेहाल।

दूध सस्ता, पानी मँहगा
पेप्सी-कोला का धमाल
रोटी छोड़ ब्रेड खाओ
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कमाल।

नेता-अफसर मौज उड़ाएं
चलें बगुले की चाल
गरीबी व भुखमरी बढ़े
ऐसा मँहगाई का जाल ।

संसद में होती खूब बहस
सेठ होते कमाकर लाल
नेता लोग खूब चिल्लायें
विपक्ष बनाए चुनावी ढाल।

जनता रोज पिस रही
धंस गए सबके गाल
मँहगाई का ऐसा कुचक्र
हो रहे सब हलाल !!

(इसे वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में भी पढ़ें )

बुधवार, 26 मई 2010

तूफान का नाम 'लैला' ही क्यों

आजकल तूफानों के नाम बड़ी चर्चा में हैं. कभी कटरीना तो कभी लैला, समझ में ही नहीं आता कि ऐसे नाम क्यों रखे जाते हैं. मसलन, आंध्र प्रदेश के तटीय हिस्सों में तबाही मचाने वाले तूफान का नाम लैला है, जिसका मतलब फारसी में होता है स्याह बालों वाली सुंदरी या रात । वस्तुत: इन नामकरण की भी दिलचस्प दास्ताँ है. तूफानों का नाम रखने की परंपरा 20 वीं सदी के आरंभ से चल रही है जब एक आस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ ने उन राजनीतिज्ञों के नाम पर बडे़ तूफानों का नाम रखे, जिन्हें वह पसंद नहीं करता था। अमेरिकी मौसम विभाग ने 1953 से तूफानों का नाम रखने शुरु किए। भारतीय उपमहाद्वीप में यह चलन वर्ष 2004 से आरंभ हुआ। वस्तुत : नाम रखे जाने से मौसम विशेषज्ञों की एक ही समय में किसी बेसिन पर एक से अधिक तूफानों के सक्रिय होने पर भ्रम की स्थिति भी दूर हो गई। हर साल विनाशकारी तूफानों के नाम बदल दिए जाते है और पुराने नामों की जगह नए रखे जाते हैं। इससे किसी गड़बड़ी य भ्रम की सम्भावना नहीं रह जाती.

विश्व मौसम संगठन विभिन्न देशों के मौसम विभागों को तूफानों का नाम रखने की जिम्मेदारी सौंपता है, ताकि तूफानों की आसानी से पहचान की जा सके. इसी क्रम में मौसम वैज्ञानिकों ने आसानी से पहचान करने और तूफान के तंत्र का विश्लेषण करने के लिए उनके नाम रखने की परंपरा शुरु की । अब तूफानों के नाम विश्व मौसम संगठन द्वारा तैयार प्रक्रिया के अनुसार रखे जाते हैं । बंगाल की खाडी़ और अरब सागर के उपर बनने वाले तूफानों के नाम वर्ष 2004 से रखे जा रहे हैं. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) क्षेत्रीय विशेषीकृत मौसम केद्र होने की वजह से भारत के अलावा सात अन्य देशों बंगलादेश, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, थाईलैंड एवं श्रीलंका को मौसम संबंधी परामर्श जारी करता है। आईएमडी ने इन देशों से भी तूफानों के लिए नाम सुझाने को कहा। इन देशों ने अंग्रेजी वर्णमाला के क्रम के अनुसार नामों की सूची दी है । पूर्वानुमान और चेतावनी जारी करने की खातिर विशिष्ट पहचान देने के उद्धेश्य से अब तक कुल 64 नाम सुझाए गए हैं, जिनमें से अब तक 22 का उपयोग किया जा चुका है । चक्र के अनुसार इस वर्तमान तूफान के लिए 'लैला' नाम पाकिस्तान ने सुझाया था । अगले तूफान का नाम 'बांदू' होगा जिसका सुझाव श्रीलंका ने दिया है। मुख्य उत्तरी हिंद महासागर में उष्ण कटिबंधीय मौसम मई से नवंबर तक रहता है और इस मौसम का पहला तूफान नरगिस था ।
 
-आकांक्षा यादव

सोमवार, 24 मई 2010

प्रगतिशील सोच के अन्तर्विरोधों के बीच कविता

कविता आत्मा का मौलिक व विशिष्ट संगीत है, जो मानव में संस्कार रोपती हैै। एक ऐसा संस्कार जो सभी को प्रदत्त है पर जरूरत है उसके खोजे जाने, महसूस करने और गढ़ने की। यही कारण है कि सम्वेदनाओं का प्रस्फुटन होते ही कविता स्वतः फूट पड़ती है। जब मानव हृदय में विचार कौंधते हैं तो सृजन की सतत् प्रक्र्र्र्र्र्र्र्रिया स्वतः आरंभ हो जाती है। अमूर्त विचार वक्त की लय के साथ धीरे धीरे रागात्मक शब्दों में ढलने लगते हैं। इसी के साथ कवि और उसके शब्द दोनांे निखरते चले जाते है,ं ठीक वैसे ही जैसे एक प्रसूता नारी। एक असहनीय पीड़ा के बाद मातृत्व की जो चरमानन्द अनुभूति होती है, वैसी ही आनंदानुभूूति कवि को काव्य-सृजन के पश्चात होती है।


कविता मात्र यथार्थ का अर्थगर्भित रूपक नहीं है वरन् वस्तुगत सच्चाईयों का अन्तर्संबंध भी है। कविता अपने भीतर एक और बड़ी लेकिन समानांतर दुनिया को समाये हुये है। कविता के शब्द मात्र शब्द भर नहीं हैं वरन् मनुष्य के अतीत, वर्तमान व भविष्य की अनेक आकांक्षाओं को अपने में समेटे हुऐ हैं। कविता सामाजिक व सांस्कृतिक जड़ता से लड़ने की शक्ति देती है। यही कारण है कि कविता के लिए विचारों की स्वतंत्रता और उन्मुक्त अभिव्यक्ति आवश्यक है। वस्तुतः कविता का मुख्य धर्म ही मानवीय परिस्थितियों, उसके परिवेश, उसके सरोकारोें और सुख-दुख से जुड़ाव है। ऐसे में कविता की बनावट और मिजाज लोकतांत्रिक है। वह अपनी बात कहती है पर दूसरों को उसे मानने के लिए बाध्य नहीं करती। दूसरे शब्दों में कहें तो कविता मांग और आपूर्ति के सांस्कृतिक दायित्व के विपरीत अपने होने में ही अपनी सार्थकता समझती है।


कविता सिर्फ कवि की नहीं होती बल्कि पाठकों और श्रोताओं की भी होती है। वह चरमानंद की ऐसी सहज अनुभूति है जो जीवन के दुर्गम रास्तों पर भी साथ नहीं छोड़ती। आधुनिक परिवेश में प्रगतिशील सोच के अन्तर्विरोधों के बीच कविता निरा कला कर्म या बौद्विक कवायद भर नहीं है वरन् इसमें स्वाभाविक प्रेरणाओं के साथ अपेक्षित वैविध्य और विस्तार भी है। आपाधापी भरी इस जिन्दगी में कविता सृजन पथ पर आक्सीजन का कार्य करती है। तभी तो कवि सामान्य सी दिखने वाली वस्तुओं को कवि-कौशल से कविता में रूपान्तरित कर लोगों को चकित कर देता है और लोग बार-बार उसे नई अर्थ छवियों से उद्घाटित करते रहते हैं। कविता नव निर्माण और विध्वंस दोनों को प्रतिबिंबित करती है। कविता है तभी तो शब्दों का लावण्य है, अर्थ की चमक है, प्रकृति का साहचर्य है, प्रेम की पृष्ठभूमि में सम्बन्धों की उष्मा है। कविता चीजेां को देखने की दृष्टि भी है और बोध भी।

आज की कविता रचनाकार के साथ-साथ पाठक और श्रेाताओं को भी अभिव्यक्त करने में सहायता देने वाली है। पाठक और श्रोता ही किसी कविता और उसके कृतिकार की असली कसौटी हैं। जो कविता पाठकों और श्रोताओं से सीधा सम्वाद नहीं स्थापित कर पाती, मात्र बौद्धिक आधार पर टिकी होती है उसका कोई अर्थ नहीं। आलोचकों की मानें तो कवि अपनी आवाज के परदे के पीछे कुछ इस तरह छुप जाता है कि लगे, वह सबकी नहीं भी, तो कईयों की आवाज के परदों के पीछे से तो बोलता सुनाई ही पड़ता है। ऐसे में कवि सम्मेलनों की महत्ता और भी बढ़ जाती है क्योंकि इसमें कवि और श्रोता एक दूसरे से सीधे रूबरू होते हैं।

कविता लिखने की बजाय कहना सदैव से ज्यादा जटिल रहा है। कविता स्वतःसुखाय तो लिखी जा सकती है पर श्रोताओं के बीच प्रस्तुत करने हेतु कविता में सम्प्रेषणीयता के साथ-साथ सौन्दर्यानुभूति का होना अति आवश्यक है। इसके अभाव में शब्द अपना अर्थ खो बैठते हैं। छन्दमुक्त कविता के नाम पर कवि सम्मेलनों में आज कविता की अपनी रीझ-बूझ की बजाय दुरूहता ज्यादा हावी है और यही कारण है कि श्रोतागण इन कवि सम्मेलनों की तरफ आकर्षित नहीं होते। हाल के दिनो में कविता के शास्त्रीय उपमानों की बजाय यदि हास्य-व्यंग्य आधारित कविताओं की बहुलता कवि सम्मेलनों में बढ़ी है तो इसका एक प्रमुख कारण कविताओं की अनचाही दुरूहता ही है।

विचारधारा से कविता अछूती नहीं रही है। समाज में व्याप्त विभिन्न विचारधाराओं के अनुयायी अपने दृष्टिकोण से काव्य सृजन करते रहे हैं। इसके बावजूद कविता हवा में नहीं होती बल्कि वह अपनी स्वायत्त गरिमा के प्रति एवं लोक की अनुगूँज के प्रति सदैव सचेत रहती है। जीवन की तमाम हलचलंे कविता में प्रतिबिम्बित होती हैं। कविता सपनों को जीवन्त रखती है और भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करती है। वैचारिकता के साथ-साथ कविता का एक भावनात्मक पहलू भी होता है, जो उसको पाठकों और श्रोताओं से जोड़ता है। कवि सम्मेलनों में इन दिनों ऐसी कविताओं की बहार है, जिनमें सिर्फ सपाट बयानबाजी होती है। कवि सम्मेलनों से लोगांे को जोड़ने हेतु जरूरी है कि कविता में अनुभूति और संवेदना का भी मिश्रण हो, इसके अभाव में ये मात्र औपचारिकता बनकर रह जाते हैं।


एक समय था जब कवि सम्मेलन नवागन्तुकों को प्रोत्साहित करने के सबसे सशक्त माध्यम माने जाते थे और इनके माध्यम से अग्रज और परवर्ती पीढ़ियों के मध्य सृजनधर्मी संवाद का माहौल कायम होता था। आज के तमाम प्रतिष्ठित कवियों का रास्ता कवि सम्मेलनों से होकर ही गुजरा है पर दुर्भाग्यवश आज वे ही इससे कन्नी काटने लगे हैं। नतीजन, इन मंचों पर जो सार्थक बहस होनी चाहिए, उससे नई पीढ़ी अछूती रह जाती है। वय के अनुसार अग्रज व परवर्ती पीढ़ी के कवियों में द्वन्द भी उभरता है, क्योंकि दोनांे के समयकाल और मनःस्थिति में काफी अन्तर होता है। ऐसे में पुराने कवि नये कवियों पर प्रश्नचिन्ह भी लगाते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि हर कवि का अपना स्वर है और हर स्वर की अपनी मादकता। अतः ऐसा कोई नियम न बनाया जाय जिससे कि सभी कवि एक ही सुर में गाने लगें।

आमजन में कविता के प्रति क्रेज बढ़ाने में कवि सम्मेलनों की अहम् भूमिका रही है। एक दौर था जब कविता के रसिये रात-रात भर जगकर कविताओं का मजा लूटते थे और कवि भी श्रोताओं की दाद पाकर प्रफुल्लित होते थे तथा एक के बाद एक अनूठी प्रस्तुतियांँ करते थे। वक्त के साथ कवि सम्मेलनों पर व्यवसायिकता हावी होने लगी और भागदौड़ भरी इस जिन्दगी़ में लोगों के पास भी कवि सम्मेलनों में जाने की फुर्सत नहीं रही। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले कवि और कवि सम्मेलनों में उपस्थिति दर्ज कराने वाले कवियों में अन्तर किया जाने लगा। अर्थ प्रधान युग में कवि हेतु श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट और वाह-वाह नहीं बल्कि पधारने हेतु प्राप्त गिफ्ट और धनराशि महत्वपूर्ण हो गई तो श्रोताओं हेतु कविता की गम्भीरता नहीं बल्कि उसकी सहजता व सम्प्रेषणीयता महत्वपूर्ण हो गई। कवि और श्रोता का सम्बन्ध उपभोक्तावादी दौर में कहीं-न-कहीं ग्राहकोन्मुख हो गया। श्रोता यदि अपने व्यस्त रूटीन में से समय निकालकर कविता सुनने जाता है तो उसका उद्देश्य ज्ञानार्जन नहीं बल्कि मनोरंजन है। एक ऐसा मनोरंजन, जिसके लिए उसे अपने दिलो-दिमाग पर ज्यादा जोर देने की जरूरत नहीं पड़े। ऐसे में कवियों को भी श्रोताओं की भावनाओं का ख्याल रखते हुए हल्की-फुल्की कवितायें सुनानी पड़ती हैं। कवि सम्मेलनों का स्वर्णिम अतीत, उनकी महत्ता, कवियों की प्रसिद्धि और कविता के शास्त्रीय उपमान धरे के धरे रह गये हैं, बस रह गया है तो क्षणिक मनोरंजन।

शुक्रवार, 21 मई 2010

ब्लागिंग का 'जलजला'...जरा सोचिये !!

आजकल ब्लागिंग में भी टी.आर.पी. के चक्कर में सबसे बड़ा कौन की होड़ लगी/ लगाई हुई है. लोग रात को टी. वी. देखते हैं और अल-सुबह ही लैपटाप पर बैठकर रातों-रात चर्चा में आने का बहाना ढूंढने लगते हैं. वैसे भी इस देश में लोगों को बांटना हो तो पुरस्कार और सम्मान के जलजले बड़े काम आते हैं. अंग्रेजों ने भी यही किया- फूट डालो और राज करो. कुछ लोगों को बड़ी-बड़ी पदवी दे दी और वे अपने को बड़ा मानकर अपने ही भारतीय बंधुओं पर जुल्म करने लगे. हमारे देश में न जाने कुकुरमुत्तों की तरह कितनी संस्थाएं हैं जो 100/- के मनीआर्डर पर आपको प्रेमचंद से लेकर निराला तक के नाम पर सम्मानित कर डालते हैं. जब उनसे पूछिये तो टका सा जवाब कि पद्मश्री भी तो थोक में दिए जाते हैं और उसके लिए भी तो सिफारिश की जरुरत होती है. हिंदी अकादमी दिल्ली का जलजला अभी गुजरे हुए ज्यादा दिन नहीं हुआ, हर कोई दूसरे का ही चेहरा देख रहा था कि बडके लोग सम्मान लेने पहुंचें तो हम भी पहुंचें. कुछ लोग तो पहुंचे भी नहीं और आफिस में मंगाकर सम्मान ले लिया. इसे कहता हैं दो-धारी तलवार. दुर्भाग्य से यही विडम्बना आजकल ब्लागिंग में भी दिख रही है.

कभी निजी डायरी के रूप में आरंभ हुआ ब्लॉग अपने 10 साल पूरे कर चुका है, इस पर जश्न मानना चाहिए. पर यहाँ तो कीचड़ उछालने की परंपरा आरंभ हो गई है. आप कुछ विवादित लिखिए टिप्पणियों की बहार आ जाती है, फिर ब्लॉगवाणी और चिटठा जगत जैसे एग्रीगेटर में आपका ब्लॉग बुलंदियां छूने लगता है. हर कोई मानो यहाँ रचनात्मकता के लिए नहीं बल्कि चर्चा पाने के लिए आया है. कहावत है न- "बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ". रोज अख़बारों में छाये रहने वाले एक नेता जी को जब एक पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया तो उन्हें कुछ भी न सूझा की, चर्चा में कैसे रहा जाय. किसी ने बताया अमिताभ बच्चन जी को देखिये. अब वो नहीं उनका ब्लॉग बोलता है. नेता जी ठहरे अमिताभ जी के करीबी, सो लगे हाथ इस विचार को झपट लिया. अब उनकी बातों की चर्चा होने लगी है. एक दैनिक अख़बार ने तो मानो ठेका उठाया है कि हिंदी के 13, 000 ब्लागर्स में से मात्र उन नेता जी के ब्लॉग को ही तवज्जो देनी है, पता नहीं यह कैसी डील है. ऐसी प्रवृत्तियों के दम पर तो ब्लॉग जगत में आने वाले अच्छे लोगों का अकाल हो जायेगा.

कई लोग ऐसे हैं जो अच्छा लिखते हैं, पर संपादकों की गुटबंदी के चलते उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नहीं हो पातीं तो वे ब्लागिंग में अच्छा जौहर दिखा रहे हैं और उनकी रचनाएँ स्तरीय व सराही भी गई हैं. पर यदि ब्लागिंग में भी इसीतरह राजनीति घुसने लगी, मान-सम्मान और पुरस्कारों के नाम पर पैसे बिखरने लगे तो फिर वही बात कि- एक मछली ही सारे तालाब को गन्दा करती है, वाली बात चरितार्थ हो जाएगी. जरुरत समझने कि है ब्लागिंग से प्रिंट-मीडिया तक को खतरा महसूस होने लगा है. आज 13, 000 हिंदी ब्लॉग हैं कल 13 लाख होंगे. फिर उनकी शक्ति को कौन रोक सकेगा. आपको मेरी बात मजाक लग सकती है, पर एक ट्विटर ने मंत्री के इस्तीफे से लेकर न जाने क्या-क्या गुल खिलाये, जगजाहिर है. ...अब भी बहुत देर नहीं हुई है, वक़्त पर हम ब्लागर्स संभल गए तो शुभ सन्देश ही जायेगा !!

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अभी 'सर्वश्रेष्ठ ब्लागर कौन' की लड़ाई ख़त्म ही नहीं हुई कि अब एक जलजला प्रकट हो गए हैं. देखिये उन्होंने क्या घोषणा की है-

कौन है श्रेष्ठ ब्लागरिन
पुरूषों की कैटेगिरी में श्रेष्ठ ब्लागर का चयन हो चुका है। हालांकि अनूप शुक्ला पैनल यह मानने को तैयार ही नहीं था कि उनका सुपड़ा साफ हो चुका है लेकिन फिर भी देशभर के ब्लागरों ने एकमत से जिसे श्रेष्ठ ब्लागर घोषित किया है वह है- समीरलाल समीर। चुनाव अधिकारी थे ज्ञानदत्त पांडे। श्री पांडे पर काफी गंभीर आरोप लगे फलस्वरूप वे समीरलाल समीर को प्रमाण पत्र दिए बगैर अज्ञातवाश में चले गए हैं। अब श्रेष्ठ ब्लागरिन का चुनाव होना है। आपको पांच विकल्प दिए जा रहे हैं। कृपया अपनी पसन्द के हिसाब से इनका चयन करें। महिला वोटरों को सबसे पहले वोट डालने का अवसर मिलेगा। पुरूष वोटर भी अपने कीमती मत का उपयोग कर सकेंगे.
1-फिरदौस
2- रचना
3 वंदना
4. संगीता पुरी
5.अल्पना वर्मा
6 शैल मंजूषा

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महिलाओं में श्रेष्ठ ब्लागर कौन- जीतिए 21 हजार के इनाम
पोस्ट लिखने वाले को भी मिलेगी 11 हजार की नगद राशि
आप सबने श्रेष्ठ महिला ब्लागर कौन है, जैसे विषय को लेकर गंभीरता दिखाई है. उसका शुक्रिया. आप सबको जलजला की तरफ से एक फिर आदाब. नमस्कार.
मैं अपने बारे में बता दूं कि मैं कुमार जलजला के नाम से लिखता-पढ़ता हूं. खुदा की इनायत है कि शायरी का शौक है. यह प्रतियोगिता इसलिए नहीं रखी जा रही है कि किसी की अवमानना हो. इसका मुख्य लक्ष्य ही यही है कि किसी भी श्रेष्ठ ब्लागर का चयन उसकी रचना के आधार पर ही हो. पुऱूषों की कैटेगिरी में यह चयन हो चुका है. आप सबने मिलकर समीरलाल समीर को श्रेष्ठ पुरूष ब्लागर घोषित कर दिया है. अब महिला ब्लागरों की बारी है. यदि आपको यह प्रतियोगिता ठीक नहीं लगती है तो किसी भी क्षण इसे बंद किया जा सकता है. और यदि आपमें से कुछ लोग इसमें रूचि दिखाते हैं तो यह प्रतियोगिता प्रारंभ रहेगी.
सुश्री शैल मंजूषा अदा जी ने इस प्रतियोगिता को लेकर एक पोस्ट लगाई है. उन्होंने कुछ नाम भी सुझाए हैं। वयोवृद्ध अवस्था की वजह से उन्होंने अपने आपको प्रतियोगिता से दूर रखना भी चाहा है. उनके आग्रह को मानते हुए सभी नाम शामिल कर लिए हैं। जो नाम शामिल किए गए हैं उनकी सूची नीचे दी गई है.
आपको सिर्फ इतना करना है कि अपने-अपने ब्लाग पर निम्नलिखित महिला ब्लागरों किसी एक पोस्ट पर लगभग ढाई सौ शब्दों में अपने विचार प्रकट करने हैं। रचना के गुण क्या है। रचना क्यों अच्छी लगी और उसकी शैली-कसावट कैसी है जैसा उल्लेख करें तो सोने में सुहागा.
नियम व शर्ते-
1 प्रतियोगिता में किसी भी महिला ब्लागर की कविता-कहानी, लेख, गीत, गजल पर संक्षिप्त विचार प्रकट किए जा सकते हैं
2- कोई भी विचार किसी की अवमानना के नजरिए से लिखा जाएगा तो उसे प्रतियोगिता में शामिल नहीं किया जाएगा
3- प्रतियोगिता में पुरूष एवं महिला ब्लागर सामान रूप से हिस्सा ले सकते हैं
4-किस महिला ब्लागर ने श्रेष्ठ लेखन किया है इसका आंकलन करने के लिए ब्लागरों की एक कमेटी का गठन किया जा चुका है. नियमों व शर्तों के कारण नाम फिलहाल गोपनीय रखा गया है.
5-जिस ब्लागर पर अच्छी पोस्ट लिखी जाएगी, पोस्ट लिखने वाले को 11 हजार रूपए का नगद इनाम दिया जाएगा
6-निर्णायकों की राय व पोस्ट लेखकों की राय को महत्व देने के बाद श्रेष्ठ महिला ब्लागर को 21 हजार का नगद इनाम व शाल श्रीफल दिया जाएगा.
7-निर्णायकों का निर्णय अंतिम होगा.
8-किसी भी विवाद की दशा में न्याय क्षेत्र कानपुर होगा.
9- सर्वश्रेष्ठ महिला ब्लागर एवं पोस्ट लेखक को आयोजित समारोह में भाग लेने के लिए आने-जाने का मार्ग व्यय भी दिया जाएगा.
10-पोस्ट लेखकों को अपनी पोस्ट के ऊपर- मेरी नजर में सर्वश्रेष्ठ ब्लागर अनिवार्य रूप से लिखना होगा
ब्लागरों की सुविधा के लिए जिन महिला ब्लागरों का नाम शामिल किया गया है उनके नाम इस प्रकार है-
1-फिरदौस 2- रचना 3-वंदना 4-संगीता पुरी 5-अल्पना वर्मा- 6 –सुजाता चोखेर 7- पूर्णिमा बर्मन 8-कविता वाचक्वनी 9-रशिम प्रभा 10- घुघूती बासूती 11-कंचनबाला 12-शेफाली पांडेय 13- रंजना भाटिया 14 श्रद्धा जैन 15- रंजना 16- लावण्यम 17- पारूल 18- निर्मला कपिला 19 शोभना चौरे 20- सीमा गुप्ता 21-वाणी गीत 21- संगीता स्वरूप 22-शिखाजी 23 –रशिम रविजा 24- पारूल पुखराज 25- अर्चना 26- डिम्पल मल्होत्रा, 27-अजीत गुप्ता 28-श्रीमती कुमार.
तो फिर देर किस बात की. प्रतियोगिता में हिस्सेदारी दर्ज कीजिए और बता दीजिए नारी किसी से कम नहीं है। प्रतियोगिता में भाग लेने की अंतिम तारीख 30 मई तय की गई है.
और हां निर्णायकों की घोषणा आयोजन के एक दिन पहले कर दी जाएगी.
इसी दिन कुमार जलजला का नया ब्लाग भी प्रकट होगा. भाले की नोंक पर.
आप सबको शुभकामनाएं.
आशा है आप सब विषय को सकारात्मक रूप देते हुए अपनी ऊर्जा सही दिशा में लगाएंगे.
सबका हमदर्द
कुमार जलजला
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अब देखिये अनामिका की सदायें ब्लॉग और यथार्थ ब्लॉग
पर एक अपील- महिला ब्लॉगर्स का सन्देश जलजला जी के नाम
मुझे ख़ुशी हो रही है की बहुत सी हमारी ब्लॉगर मित्र इस राजनैतिक कृत्य की भत्सर्ना कर रही हैं. एक जगह ही तो ऐसी बचती है जहाँ हम अपने एहसासों को बांटते हैं. यहाँ हम छोटे बड़े का फर्क ना कर के निर्विघ्न, बिना लिंग भेद के सब के साथ भाई चारे से पेश आये...यहाँ भी अगर यही सब होगा तो इंसान खुद को कहीं आज़ाद महसूस नहीं कर पायेगा..इसलिए सब से सविनय निवेदन है की जो मेरी बात के समर्थक हैं वो इस कृत्य के विरोध में टिपण्णी अवश्य दे.

कोई मिस्टर जलजला एकाध दिन से स्वयम्भू चुनावाधिकारी बनकर.श्रेष्ठ महिला ब्लोगर के लिए, कुछ महिलाओं के नाम प्रस्तावित कर रहें हैं. (उनके द्वारा दिया गया शब्द, उच्चारित करना भी हमें स्वीकार्य नहीं है) पर ये मिस्टर जलजला एक बरसाती बुलबुला से ज्यादा कुछ नहीं हैं, पर हैं तो कोई छद्मनाम धारी ब्लोगर ही ,जिन्हें हम बताना चाहते हैं कि हम इस तरह के किसी चुनाव की सम्भावना से ही इनकार करते हैं.

ब्लॉग जगत में सबने इसलिए कदम रखा था कि न यहाँ किसी की स्वीकृति की जरूरत है और न प्रशंसा की. सब कुछ बड़े चैन से चल रहा था कि अचानक खतरे की घंटी बजी कि अब इसमें भी दीवारें खड़ी होने वाली हैं. जैसे प्रदेशों को बांटकर दो खण्ड किए जा रहें हैं, हम सबको श्रेष्ट और कमतर की श्रेणी में रखा जाने वाला है. यहाँ तो अनुभूति, संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति से अपना घर सजाये हुए हैं . किसी का बहुत अच्छा लेकिन किसी का कम, फिर भी हमारा घर हैं न. अब तीसरा आकर कहे कि नहीं तुम नहीं वो श्रेष्ठ है तो यहाँ पूछा किसने है और निर्णय कौन मांग रहा है?
हम सब कल भी एक दूसरे के लिए सम्मान रखते थे और आज भी रखते हैं ..

अब ये गन्दी चुनाव की राजनीति ने भावों और विचारों पर भी डाका डालने की सोची है. हमसे पूछा भी नहीं और नामांकन भी हो गया. अरे प्रत्याशी के लिए हम तैयार हैं या नहीं, इस चुनाव में हमें भाग लेना भी या नहीं , इससे हम सहमत भी हैं या नहीं बस फरमान जारी हो गया. ब्लॉग अपने सम्प्रेषण का माध्यम है,इसमें कोई प्रतिस्पर्धा कैसी? अरे कहीं तो ऐसा होना चाहिए जहाँ कोई प्रतियोगिता न हो, जहाँ स्तरीय और सामान्य, बड़े और छोटों के बीच दीवार खड़ी न करें. इस लेखन और ब्लॉग को इस चुनावी राजनीति से दूर ही रहने दें तो बेहतर होगा. हम खुश हैं और हमारे जैसे बहुत से लोग अपने लेखन से खुश हैं, सभी तो महादेवी, महाश्वेता देवी, शिवानी और अमृता प्रीतम तो नहीं हो सकतीं . इसलिए सब अपने अपने जगह सम्मान के योग्य हैं. हमें किसी नेता या नेतृत्व की जरूरत नहीं है.

इस विषय पर किसी तरह की चर्चा ही निरर्थक है.फिर भी हम इन मिस्टर जलजला कुमार से जिनका असली नाम पता नहीं क्या है, निवेदन करते हैं कि हमारा अमूल्य समय नष्ट करने की कोशिश ना करें.आपकी तरह ना हमारा दिमाग खाली है जो,शैतान का घर बने,ना अथाह समय, जिसे हम इन फ़िज़ूल बातों में नष्ट करें...हमलोग रचनात्मक लेखन में संलग्न रहने के आदी हैं. अब आपकी इस तरह की टिप्पणी जहाँ भी देखी जाएगी..डिलीट कर दी जाएगी.
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लो आ गया जलजला (भाग एक)वे ब्लागर जो मुझे टिप्पणी के तौर पर जगह दे रहे हैं उनका आभार. जो यह मानते हैं कि वे मुफ्त में मुझे प्रचार क्यों दें उनका भी आभार. भला एक बेनामी को प्रचार का कितना फायदा मिलेगा यह समझ से परे हैं.
मैंने अपने कमेंट का शीर्षक –लो आ गया जलजला रखा है। इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि मैं किसी एकता को खंडित करने का प्रयास कर रहा हूं। मेरा ऐसा ध्येय न पहले था न भविष्य में कभी रहेगा.
ब्लाग जगत में पिछले कुछ दिनों से जो कुछ घट रहा है क्या उसके बाद आप सबको नहीं लगता है कि यह सब कुछ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं होने की वजह से हुआ है. आप अपने घर में बच्चों से तो यह जरूर कहेंगे कि बेटा अब की बार इस परीक्षा में यह नबंर लाना है उस परीक्षा को तुम्हे क्लीयर करना ही है लेकिन जब खुद की परीक्षा का सवाल आया तो सारे के सारे लोग फोन के जरिए एकजुट हो गए और पिल पड़े जलजला को पिलपिला बताने के लिए. बावजूद इसके जलजला को दुख नहीं है क्योंकि जलजला जानता है कि उसने अपने जीवन में कभी भी किसी स्त्री का दिल नहीं दुखाया है। जलजला स्त्री विरोधी नहीं है। अब यह मत कहने लग जाइएगा कि पुरस्कार की राशि को रखकर स्त्री जाति का अपमान किया गया है। कोई ज्ञानू बाबू किसी सक्रिय आदमी को नीचा दिखाकर आत्म उन्नति के मार्ग पर निकल जाता है तब आप लोग को बुरा नहीं लगता.आप लोग तब सिर्फ पोस्ट लिखते हैं और उसे यह नहीं बताते कि हम कानून के जानकार ब्लागरों के द्वारा उसे नोटिस भिजवा रहे हैं। क्या इसे आप अच्छा मानते हैं। यदि मैंने यह सोचा कि क्यों न एक प्रतिस्पर्धा से यह बात साबित की जाए कि महिला ब्लागरों में कौन सर्वश्रेष्ठ है तो क्या गलत किया है। क्या किसी को शालश्रीफल और नगद राशि के साथ प्रमाण देकर सम्मानित करना अपराध है।
यदि सम्मान करना अपराध है तो मैं यह अपराध बार-बार करना चाहूंगा.
ब्लागजगत को लोग सम्मान लेने के पक्षधर नहीं है तो देश में साहित्य, खेल से जुड़ी अनेक विभूतियां है उन्हें सम्मानित करके मुझे खुशी होगी क्योंकि-
दुनिया का कोई भी कानून यह नहीं कहता है कि आप लोगों का सम्मान न करें।
दुनिया का कानून यह भी नहीं कहता है कि आप अपना उपनाम लिखकर अच्छा लिख-पढ़ नहीं सकते हैं. आप लोग विद्धान लोग है मुंशी प्रेमचंद भी कभी नवाबराय के नाम से लिखते थे. देश में अब भी कई लेखक ऐसे हैं जिनका साहित्य़िक नाम कुछ और ही है। भला मैं बेनामी कैसे हो गया।
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लो आ गया जलजला (भाग-दो)
आप सब लोगों से मैंने पहले ही निवेदन किया था कि यदि प्रतियोगिता को अच्छा प्रतिसाद मिला तो ठीक वरना प्रतियोगिता का विचार स्थगित किया जाएगा. यहां तो आज की तमाम एक जैसी संचालित पोस्टें देखकर तो लग रहा है कि शायद भाव को ठीक ढंग से समझा ही नहीं गया है. भला बताइए मेरी अपील में मैंने किस जगह पर अभद्र शब्दों का इस्तेमाल किया है.
बल्कि आप सबमें से कुछ की पोस्ट देखकर और उसमे आई टिप्पणी को देखकर तो मुझे लग रहा है कि आपने मेरे सम्मान के भाव को चकनाचूर बनाने का काम कर डाला है। किसी ने मेरा नाम जलजला देखकर यह सोच लिया कि मैं किस कौन का हूं। क्या दूसरी कौन का आदमी-आदमी नहीं होता है। बड़ी गंगा-जमुना तहजीब की बात करते हैं, एक आदमी यदि दाढ़ी रख लेता है तो आपकी नजर में काफिर हो जाता है क्या। जलजला नाम रखने से कोई ........ हो जाता है क्या। और हो भी जाता है तो क्या बुरा हो जाता है क्या। क्या जलजला एक देशद्रोही का नाम है क्या। क्या जलजला एक नक्सली है। एक महोदय तो लिखते हैं कि जलजला को जला डालो। एक लिखते हैं मैं पहले राहुल-वाहुल के नाम से लिखता था.. मैं फिरकापरस्त हूं। क्या जलजला जैसा नाम एक कौम विशेष का आदमी ही रख सकता है। यदि ऊर्दू हिन्दी की बहन है तो क्या एक बहन किसी हिन्दू आदमी को राखी नहीं बांध सकती.
फिर भी शैल मंजूषा अदा ने ललकारते हुए कहा है कि मैं जो कोई भी हूं सामने आ जाऊं। मैं कब कहा था कि मै सामने नहीं आना चाहता। (वैसे मैंने यहां देखा है कि जब मैं अपने असली नाम से लिखता हूं तो एक से बढ़कर एक सलाह देने वाले सामने आ जाते हैं, सब यही कहते हैं भाईजान आपसे यह उम्मीद नहीं थी, आप सबसे अलग है आप पचड़े में न पढ़े. अब अदाजी को ही लीजिए न पचड़े में न पड़ने की सलाह देते हुए ही उन्होंने ज्ञानू बाबू से लेकर अब तक कम से कम चार पोस्ट लिख डाली है)
जरा मेरी पूर्व में दिए गए कथन को याद करिए मैंने उसमे साफ कहा है कि 30 मई को स्पर्धा समाप्त होगी उस दिन जलजला का ब्लाग भी प्रकट होगा। ब्लाग का शुभारंभ भी मैं सम्मान की पोस्ट वाली खबर से ही करना चाहता था, लेकिन अब लगता है कि शायद ऐसा नहीं होगा. एक ब्लागर की मौत हो चुकी है समझ लीजिएगा.
अदाजी के लिए सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैं इंसान हूं.. बुरा इंसान नहीं हूं। (अदाजी मैंने तो पहले सिर्फ पांच नाम ही जोड़े थे लेकिन आपने ही आग्रह किया कि कुछ और नामों को शामिल कर लूं.. भला बताइए आपके आग्रह को मानकर मैंने कोई अपराध किया है क्या)
आप सभी बुद्धिमान है, विवेक रखते हैं जरा सोचिए देश की सबसे बड़ी साहित्यिक पत्रिका हंस और कथा देश कहानी प्रतियोगिताओं का आयोजन क्यों करती है। क्या इन प्रतियोगिताओं से कहानीकार छोटे-बड़े हो जाते हैं। क्या इंडियन आइडल की प्रतिस्पर्धा के चलते आशा भोंसले और उदित नारायण हनुमान जी के मंदिर के सामने ..काम देदे बाबा.. चिल्लाने लगे हैं।
दुनिया में किसी भी प्रतिस्पर्धा से प्रतिभाशाली लोग छोटे-बड़े नहीं होते वरन् वे अपने आपको आजमाते हैं और जब तक जिन्दगी है आजमाइश तो चलती रहनी है. कभी खुद से कभी दूसरों से. जो आजमाइश को अच्छा मानते है वह अपने आपको दूसरों से अच्छा खाना पकाकर भी आजमाते है और जिसे लगता है कि जैसा है वैसा ही ठीक है तो फिर क्या कहा जा सकता है.
कमेंट को सफाई न समझे. आपको मेरे प्रयास से दुख पहुंचा हो तो क्षमा चाहता हूं (ख्वाबों-ख्यालों वाली क्षमा नहीं)
आपकी एकता को मेरा सलाम
आपके जज्बे को मेरा नमन
मगर आपकी लेखनी को मेरा आहावान
एक पोस्ट इस शीर्षक पर भी जरूर लिखइगा
हम सबने जलजला को मिलकर मार डाला है.. महिला मोर्चा जिन्दाबाद
कानून के जानकारों द्वारा भेजे गई नोटिस की प्रतीक्षा करूंगा
आपका हमदर्द
कुमार जलजला
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अब आप खुद सोचिये कि ब्लागिंग किस दिशा में जा रही है. ऐसे जलजले आते रहेंगे, पर सवाल अभी भी वहीँ कायम है क्या कुछ लोगों का नाम उछालकर ' फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई जा रही है. वैसे भी देश में मानसून का आगमन होने वाला है, पर उससे पहले ही तूफान और चक्रवात दिखने लगे हैं. नामों पर मत जाइये कोई लैला है तो कोई कटरीना. सभी लोग अपने-अपने छाते संभाल लीजिये और ऐसे जलजलों से बचिए जो आपको गर्त में ले जा सकते हैं !!

गुरुवार, 20 मई 2010

नेताजी का अरमान

नेता-अभिनेता दोनों
हो गए एक समान
मंचों पर बैठकर गायें
एक दूजे का गान।

चिकनी चुपडी़ बातें करें
खूब करें अपना बखान
जनता का धन खूब लूटें
गायें मेरा भारत महान।

मँहगाई, बेरोजगारी खूब फैले
नेताजी सोते चद्दर तान
खुद खाएं मुर्ग मुसल्लम
जनता भुखमरी से परेशान।

कभी आंतक, कभी नक्सलवाद
ये लेते सबकी जान
नेताजी बस भाषण देते
शहीद होते जाबांज जवान।

चुनाव आया तो लंबे भाषण
खडे़ हो गए सबके कान
वायदों की पोटली से
जनता हो रही हैरान ।

संसद में पहुँच नेताजी
बघारते अपना ज्ञान
अगला चुनाव कैसे जीतें
बस यही रहता अरमान ।

(वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में भी पढ़ें)

बुधवार, 19 मई 2010

'आज की जनधारा' में 'शब्द-शिखर' की चर्चा

'शब्द शिखर' पर 15 मई , 2010 को प्रस्तुत पोस्ट शेर नहीं शेरनियों का राज को रायपुर से प्रकाशित हिंदी पत्र 'आज की जनधारा' के साप्ताहिक स्तंभ 'ब्लॉग कोना' में 16 मई को स्थान दिया गया है.'आज की जनधारा' में पहली बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 20वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

(चित्र साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

मंगलवार, 18 मई 2010

नारी न भाये

कन्या पूजन करते हैं सब
पर कन्या ही न भाये
जन्में कन्या कहीं किसी के
तो सब शोक मनायें ।

कन्या हुई तो दहेज की चिंता
पहले दिन से ही डराये
हो गई शादी अगर तो
दहेज के लिए फिर जलाये ।

नारी के बढ़ते कदम
किसी को भी न भायें
घर बाहर सब जगह
विरूद्ध बात बनायें ।

नारी से सब डरते हैं
पर पीछे-पीछे मरते हैं
संसद में कर हंगामा
परकटी, सीटीमार कहते हैं ।

अब भैया तुम्हीं बताओ
नारी कहाँ पर जाये
नारी के बिना ये दुनिया
क्या एक कदम चल पाये।

( इसे वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में भी पढ़िए)

शनिवार, 15 मई 2010

शेर नहीं शेरनियों का राज

अपने देश में तेजी से बहुत सारे जीव-जंतुओं की संख्या कम होती जा रही है. पता नहीं आगामी पीढ़ियों को ये देखने को भी मिलें या नहीं. लगता है कि वे उन्हें सिर्फ पुस्तकों में पढ़ेंगें तथा खिलौने के रूप में खेलेंगें. 2008 में हुई गणना के अनुसार देश में 359 शेर, 1411 बाघ, 2,358 गैंडे और 27,694 हाथी हैं. इसके बाद तो आज 2010 तक इनकी संख्या और भी कम हो गई होगी. इस साल अब तक 05 बाघों की मौत हो चुकी है. यह बड़ी चिंता का विषय है कि यदि इसी तरह ये ख़त्म होते रहे तो लोग इन्हें कैसे देख पायेंगें और प्राकृतिक असंतुलन का क्या होगा. डायनासोर जैसे जानवरों का उदाहरण हमारे सामने है.

फ़िलहाल इन सबके बीच एक अच्छी खबर सामने आई है कि 1600 वर्ग किमी में फैले गुजरात के प्रसिद्ध गिर नेशनल पार्क में एशियाई मूल के शेरों की सख्या बढ़कर 411 हो गई है। गत पाँच वषों में इन शेरों की संख्या में 52 का इजाफा हुआ है। वाकई यह गिर के वन में शेरों के संरक्षण तथा संवर्द्धन के उपायों का बेहतर नतीजा है. यदि पूरे देश में लोग इसी तरह जागरूक हो जाएँ तो फिर क्या कहने. एक तरफ इससे पर्यटकों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, वहीँ राजस्व में भी वृद्धि होगी. गिरवन में हर साल डेढ़ से दो लाख पर्यटक घूमने आते है जिससे डेढ़ करोड़ रूपये से अधिक की आय प्राप्त होती है।

गुजरात सरकार की ओर से कराई गई शेरों की गणना के अनुसार, 5 साल पहले गिर में शेरों की सख्या 359 थी जो अब बढ़कर 411 हो गई है। इनमें नर शेर की संख्या 97 और मादा शेर की संख्या 162 है। इसके अलावा एक वर्ष की उम्र वाले सिंह के बच्चों की सख्या 77 है जबकि एक से तीन वर्ष के शेरों की संख्या 75 है। शेरों कि संख्या में बढ़ोत्तरी के अलावा एक रोचक पहलू यह भी है कि गिर में अब जंगल के राजा शेर के बजाए शेरनियों का राज चलता है। जंगल में शेरों की सख्या जहाँ 97 है वहीं शेरनियों की संख्या 162 है। ऐसे में कई बार शेरनियाँ बच्चों के मामले में शेरों की बात नहीं मानती हैं, संख्या अधिक होने के कारण कई बार शेरनियाँ झुण्ड में आकर शेरों को खदेड़ भी देती हैं।

अब आशा की जानी चाहिए कि शेरों के साथ-साथ तेजी से ख़त्म होते बाघों के दिन भी बहुरेंगे और न सिर्फ आगामी पीढ़ियाँ उन्हें देख सकेंगीं, बल्कि प्राकृतिक असंतुलन का प्रकोप भी ख़त्म होगा !!

शुक्रवार, 14 मई 2010

अंडमान-निकोबार ब्लॉगर्स एसोसिएशन

आजकल एसोसिएशन की बड़ी माँग है. जिसे देखो वही एसोसिएशन बनाकर पदाधिकारी बना जा रहा है. अपने देश में तो इतने राजनैतिक दल हैं कि चुनाव आयोग को भी कहना पड़ता है कि कई तो मात्र कागज पर खानापूर्ति के लिए हैं. कुछ सक्रिय राजनैतिक दल तो ऐसे भी हैं कि उनके सारे महत्वपूर्ण पदाधिकारी घर के ही सदस्य हैं. फिर भी वे मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री की दौड़ में हैं. देश-विदेश में तमाम राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-भाषाई-प्रांतीय-बुद्धिजीवी से लेकर हर वर्ग के अपने संगठन या एसोसिएशन हैं. सरकारी नौकरी वालों के संगठन हैं तो फिर निजी कंपनी वाले पीछे कैसे रहें. और जब सभी के संगठन हैं तो बेरोजगारों के भी होंगे. जाति-धर्म-व्यवसाय-लिंग हर किसी के संगठन हैं और उनके बकायदा पदाधिकारी हैं. कई बार सोचती हूँ कि यदि इन सबकी गिनती की जाय तो वाकई तारे गिनने वाली ही बात होगी.

खैर, अब संगठन और एसोसिएशन ब्लॉग जगत में भी अपने पाँव पसार रहा है. जिस वर्चुअल दुनिया में माना जाता है कि कोई दूरी या भेदभाव नहीं होता वहाँ भी विभिन्न प्रमुख स्थानों या जातियों के ब्लोगर्स अपना एसोसिएशन बनाने लग गए हैं. सो, इस भेड़चाल में हमारे भी दिमाग में विचार आया कि भारत के इस दक्षिणतम क्षोर पर अवस्थित अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भी ब्लोगर्स को क्यों न इकठ्ठा किया जाय. पहले अपना ख्याल राजधानी पोर्टब्लेयर तक सीमित रखा तो जोड़-घटाकर मात्र 06 ब्लोगर्स दिखे. संख्या कम लगी तो पूरे अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को कवर करने की सोची तो वहाँ भी मामला कुछ खास नहीं जमा.

पूरे द्वीप समूह में सर्च किया तो मात्र 08 ब्लॉगर्स दिखे. इनमें से 03 हमारे ही परिवार के हैं- पतिदेव कृष्ण कुमार यादव, पुत्री अक्षिता और स्वयं मैं. शेष 05 ब्लॉगर्स-जन में से संतोष दयारकर (पोर्टब्लेयर, अपने पर्यटन व्यवसाय के लिए मात्र एक पोस्ट), साईं संदीप(पोर्टब्लेयर, मात्र प्रोफाइल उपलब्ध), अकबर (पोर्टब्लेयर, पर्यटन के लिए दो ब्लॉग, जिनमें कुल जमा मात्र दो पोस्ट), आर. आर. मायाबंदर (मायाबंदर, अंडमान-निकोबार प्रशासन के लोअर ग्रेड क्लर्क्स के लिए ब्लॉग), राघवेन्द्र (हैदराबाद, अपनी कोचिंग के प्रचार के लिए एक पोस्ट) हैं. यानी कुल मिलाकर इन 05 ब्लॉगर्स के ब्लॉग पर जो भी एक-दो पोस्ट हैं, वे आंग्लभाषा में हैं और व्यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए हैं.

खैर अब अंडमान-निकोबार ब्लॉगर्स एसोसिएशन का गठन हम तीन लोगों से ही होना है. ज्यादा मुश्किल कार्य भी नहीं है, घर की बात घर में. एक संरक्षक, एक अध्यक्ष, एक सचिव....हो गया अंडमान-निकोबार ब्लॉगर्स एसोसिएशन का गठन. जब तमाम राजनैतिक दलों के पदाधिकारी एक ही घर से हो सकते हैं तो इस एसोसिएशन में क्यों नहीं हो सकते. हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है....है न मजेदार बात. जहाँ भी बैठ गए एसोसिएशन अपने आप प्रभावी हो गया.

खैर,गंभीर होने की जरुरत नहीं है और डरने की भी जरुरत नहीं है. और न ही हमें किसी एसोसिएशन की जरुरत है...इस सबका उद्देश्य मात्र अंडमान-निकोबार में ब्लागिंग की स्थिति से रु-ब-रु करना था. अंडमान-निकोबार में हमारी कोशिश है कि जब तक हैं, कुछ रचनात्मक कार्य करें. यहाँ के अख़बारों में ब्लॉग और उसकी प्रक्रिया पर आधारित लेख भी दिए हैं, जो प्रकाशित हो रहे हैं. अब देखिये कितने लोगों को रचनात्मक व सक्रिय ब्लागिंग की तरफ प्रवृत्त कर पाते हैं.

गुरुवार, 13 मई 2010

ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड

अपनी नजाकत और नफासत के लिए मशहूर लखनऊ में पिछले दिनों एक बात हुई. इससे पहले कि बात दूर तलक तक जाती, उसे संभल लिया गया पर इस बात ने एक बार फिर से समाज के सामने तमाम सवाल खड़े कर दिए.जिलाधिकारी, लखनऊ ने राजधानी के छात्र-छात्राओं को स्कूल/कालेज यूनीफार्मा में सार्वजनिक स्थानों यथा-सिनेमा घर, मॉल, पार्क, रेस्टोरेन्ट, होटलों में स्कूल/कालेज टाइम में स्कूली ड्रेस में जाने से प्रतिबन्धित कर दिया और यह भी कहा कि स्कूली ड्रेस में इन स्थानों पर पाये जाने पर छात्र-छात्राओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी। उनका कहना था कि छात्र छात्राएं स्कूल यूनिफार्म में स्कूल-कॉलेज छोड़कर घूमते पाए जाते हैं, जिससे अभद्रता छेड़खानी, अपराधी और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। यानी फिर से वही सवाल- ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड.

स्कूल- कालेज का नाम सुनते ही न जाने कितने सपने आँखों में तैर आते हैं। संस्कारों के साथ-साथ ये स्कूल-कालेज हमें बदलते वक़्त के साथ चलने के लिए भी तैयार करते हैं. ऐसे में घर की चाहरदिवारियों से परे वो उन्मुक्त सपने, उनको साकार करने की तमन्नायें, दोस्तों के बीच जुदा अंदाज, फैशन-ब्रांडिंग और लाइफ स्टाइल की बदलती परिभाषायें....और भी न जाने क्या-क्या। मन अनायास ही गुनगुना उठता है- आज मैं ऊपर, आसमां नीचे। अपने स्कूली दिनों से जुड़ी न जाने कितनी यादों को हम चिरंतन सहेज कर रखते हैं.

पर ऐसे माहौल में यदि शुरूआत ही बंदिशों से हो तो मन कसमसा उठता है। कभी जींस पर प्रतिबन्ध तो कभी मॉल व थियेटर में स्कूली ड्रेस में घुमने पर प्रतिबन्ध. दिलोदिमाग में ख्याल उठने लगता है कि क्या यह सब हमारी संस्कृति के विपरीत है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि वह ऐसी चीजों से प्रभावित होने लगती है? फिर तालिबानी हुक्म और इनमें अंतर क्या ? पहले लोग कहेंगें कि स्कूली यूनिफ़ॉर्म में न जाओ, फिर कहेंगे कि जींस में न जाओ... क्या इन सब फतवों से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं। पिछले साल तो कानपुर के कई नामी-गिरामी कालेजों ने सत्र प्रारम्भ होने से पहले ही छात्राओं को उनके ड्रेस कोड के बारे में बकायदा प्रास्पेक्टस में ही फरमान जारी कर दिया कि वे जींस और टाप पहन कर कालेज न आयें। इसके पीछे निहितार्थ यह है कि अक्सर लड़कियाँ तंग कपड़ों में कालेज आती हैं और नतीजन ईव-टीजिंग को बढ़ावा मिलता है। स्पष्ट है कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। अतः यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को दरिंदों की निगाहों से बचाएं। इस साल इसी क्रम में लखनऊ के जिलाधिकारी ने तो बाकायदा लड़कियों को स्कूल के दौरान स्कूली ड्रेस में इधर-उधर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. यदि इसका उद्देश्य यह होता कि इससे अनुशासनहीनता पर रोक लगाई जा सकेगी तो ठीक था, पर इसका मंतव्य तो इव-टीजिंग पर रोक लगाना था. क्या राजधानी लखनऊ की कानून-व्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी है कि लडकियाँ घरों में कैद हो जाएँ. अपनी कमी छुपाने के लिए ऐसे फरमानों को जारी कर प्रशासन अपनी कमियों से मुँह नहीं मोड़ सकता.

आज के आधुनिकतावादी एवं उपभोक्तावादी दौर में जहाँ हमारी चेतना को बाजार नियंत्रित कर रहा हो, वहाँ इस प्रकार की बंदिशें सलाह कम फरमान ज्यादा लगते हैं। समाज क्यों नहीं स्वीकारता कि किसी तरह के प्रतिबंध की बजाय बेहतर यह होगा कि अच्छे-बुरे का फैसला इन छात्राओं पर ही छोड़ा जाय और इन्हें सही-गलत की पहचान करना सिखाया जाय। दुर्भाग्य से स्कूल-कालेज लाइफ में प्रवेश के समय ही इन लड़कियों के दिलोदिमाग में उनके पहनावे को लेकर इतनी दहशत भर दी जा रही है कि वे पलटकर पूछती हैं-’’ड्रेस कोड उनके लिए ही क्यों ? अभी ज्यादा दिन नहीं बीते होंगे जब मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में एक स्कूल शिक्षक ने ड्रेस की नाप लेने के बहाने बच्चियों के कपड़े उतरवा लिए थे. फिर भी सारा दोष लड़कियों पर ही क्यों. यही नहीं तमाम काॅलेजों ने तो टाइट फिटिंग वाले सलवार सूट एवं अध्यापिकाओं को स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। शायद यहीं कहीं लड़कियों-महिलाओं को अहसास कराया जाता है कि वे अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। देश में सत्ता शीर्ष पर भले ही एक महिला विराजमान हो, संसद की स्पीकर एक महिला हो, सरकार के नियंत्रण की चाबी एक महिला के हाथ में हो, यहाँ तक कि उ0 प्र0 में एक महिला मुख्यमंत्री है, पर इन सबसे बेपरवाह पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता।

सवाल अभी भी अपनी जगह है। क्या लड़कियों का पहनावा ईव-टीजिंग का कारण हैं ? यदि ऐसा है तो माना जाना चाहिए कि पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। ग्रामीण अंचलों में छेड़खानी व बलात्कार की घटनाएं तो किसी पहनावे के कारण नहीं होतीं बल्कि अक्सर इनके पीछे पुरुषवादी एवं जातिवादी मानसिकता छुपी होती है। बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार भला किसे नहीं याद होगा ? हाल ही में दिल्ली की एक संस्था ’साक्षी’ ने जब ऐसे प्रकरणों की तह में जाने के लिए बलात्कार के दर्ज मुकदमों के पिछले 40 वर्षों का रिकार्ड खंगाला तो पाया कि बलात्कार से शिकार हुई 70 प्रतिशत महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनीं थीं।

स्पष्ट है कि मारल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा लड़कियों-महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि लड़कियां अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं। मानों लड़कियां सेक्स आब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टाप य स्कूली स्कर्ट में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टाप य स्कूली स्कर्ट में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती जी ने लखनऊ के जिलाधिकारी के इस फरमान को अगले दिन ही भले रद्द कर दिया हो, पर सवाल अभी भी वहीँ मुँह बाये खड़े है !!

बुधवार, 12 मई 2010

जनगणना में आपका नाम छूटा तो नहीं...

आजकल जनगणना अभियान जोरों पर है. चूँकि इस बार नेशनल पापुलेशन रजिस्टर भी बनाया जा रहा है और इसका काफी महत्त्व है. ऐसे में हर किसी को सुनाश्चित करना चाहिए आपका नाम जनगणना में न छूटे. फिर भी अगर आपका नाम छूट जाता है तो तुरंत अधिकारियों को फोन कीजिए या ई-मेल कीजिए और जनगणना के लिए कर्मचारी आप तक पहुँच जाएंगे। जनगणना प्रक्रिया में 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 1.2 अरब लोगों को शामिल किया जाना है।

भारत के जनगणना आयुक्त के कार्यालय ने नागरिकों के लिए टाॅल-फ्री हेल्पलाइन नंबर 1800110111 शुरू किया है जो काॅल सेंटर में सूचित कर सकते हैं कि क्या जनगणना अधिकारियों ने उनकी गिनती नहीं की है। इसके बाद काॅल सेंटर जिम्मेदार अधिकारी को सूचना देगा जो अपने इलाके के जनगणनाकार को प्राथमिकता के आधार पर संबंधित नागरिकों के यहाँ जाने को कहेंगे। यही नहीं हाईटेक होते इस दौर में ई-मेल rgoffice.rgi@nic.in पर भी जनगणना अधिकारियों को सूचित कर सकते हैं कि आपकी गिनती नहीं हुई है।

मंगलवार, 11 मई 2010

11 मई : एक अरबवीं बच्ची की 'आस्था' पर चोट

वर्ष 2011 की जनगणना इस समय जोर-शोर से चल रही है। इसे व्यापक और लोकप्रिय बनाने एवं लोगों से जोड़ने हेतु तमाम उपायों का सहारा लिया जा रहा है। माना जा रहा है कि इस जनगणना पर जितनी राशि और मानवीय संसाधन झोंके गए हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। यह जनगणना सिर्फ मानव जाति की गणना नहीं करती बल्कि मानव के समृद्ध होते परिवेश एवं भौतिक संसाधनों को भी कवर करती है। भारत दुनिया के उन देशों में से है, जहाँ सर्वाधिक तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ रही है। फिलहाल चीन के बाद हम दुनिया में दूसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र हैं। यह जनसंख्या ही भारत को दुनिया के सबसे बड़े बाजार के रूप में भी प्रतिष्ठित करती है। यही कारण है कि इससे जुड़े मुद्दे भी खूब ध्यान आकर्षित करते हैं।

याद कीजिए भारत में एक अरबवीं बच्ची के जन्म को। राजधानी दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में 11 मई 2000 की सुबह 5 बजकर 5 मिनट पर इस बच्ची के जन्म से उत्साहित देश के नीति-नियंताओं ने वायदों और घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। इनमें देश की तत्कालीन स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री श्रीमती सुमित्रा महाजन, दिल्ली के सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्मा के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के वरिष्ठ अधिकारीगण तक शामिल थे। इनमें बच्ची की मुफ्त शिक्षा, मुफ्त रेल यात्रा, मुफ्त मेडिकल सेवा से लेकर बच्ची के पिता को सरकारी नौकरी तक के वायदे शामिल थे। पर वक्त के साथ ही जैसे खिलौने टूट जाते है, एक अरबवीं बच्ची के प्रति किए गए सभी वायदे टूट गए। माता-पिता ने समझा था कि बिटिया अपने साथ सौभाग्य लेकर आई है, तभी तो इतने लोग उसे देखने व उसके लिए कुछ करने को लालायित हैं। शायद इसीलिए उसका नाम भी आस्था रखा। पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की इस एक अरबवीं बच्ची आस्था की किलकारियों को न जाने किसकी नजर गई कि आज 10 साल की हो जाने के बावजूद उसे कुछ नहीं मिला, सिवाय संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा वायदानुसार दी गई दो लाख रूपये की रकम।

वाकई यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे नीति-नियंता बड़े-बड़े वायदे और घोषणाएं तो करते हैं, पर उन पर कभी अमल नहीं करते। 'आस्था' तो एक उदाहरण मात्र है जो आज दिल्ली के नजफगढ़ के हीरा पार्क स्थित अपने पैतृक आवास में माता-पिता और बड़े भाई के साथ रहती है। दुर्भाग्यवश इस गली में पानी व सीवर लाइन सहित तमाम सुविधाओं का अभाव है। इन सबके बीच माता-पिता इस गरीबी में कुछ पैसे जुटाकर खरीदी गई सेकण्ड हैण्ड साईकिल ही आस्था की खुशियों का संबल है। उसके माता-पिता भी उस दिन को एक दु:स्वप्न मानकर भूल जाना चाहते हैं, जब इस एक अरबवीं बच्ची के जन्म के साथ ही नेताओं-अधिकारियों-मीडिया की चकाचैंध के बीच दुनिया ने आस्था को सर आखों पर बिठा लिया था। आज 11 मई 2010 को आस्था पूरे 10 साल की हो जाएगी, पर उसकी सुध लेने की शायद ही किसी को फुर्सत हो !!

रविवार, 9 मई 2010

मदर्स डे पर : माँ की याद में


आज सुबह कुछ पहले ही नींद खुल गई. मन किया कि बाहर जाकर बैठूं. अभी सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिए थे पर ढेर सारी चिड़िया कलरव कर रही थीं. मौसम में हलकी सी ठण्ड थी, शायद रात में बारिश हुई थी. अचानक दिमाग में ख्याल आया कि हम लोग भी घर से कितने दूर हैं. एक ऐसी जगह जहाँ सारे रिश्ते बेगाने हैं. एक-दो साल बाद हम लोग भी यहाँ से चले जायेंगे. इन सबके बीच घर की याद आई तो मम्मी का चेहरा आँखों के सामने घूम गया. कभी सोचा भी ना था की मम्मी से एक दिन इतने दूर जायेंगे, पर दुनिया का रिवाज है. शादी के बाद सबको अपनी नई दुनिया में जाना होता है, बस रह जाती हैं यादें. पर यादें जीवन भर नहीं छूटतीं , हमें अपने आगोश में लिए रहती हैं. ..पर आज पता नहीं क्यों सुबह-सुबह मम्मी की खूब याद आ रही थी. सोचा कि फोन करूँ तो याद आया कि वहाँ तो अभी सभी लोग सो रहे होंगे. सामने नजर दौडाई तो पतिदेव कृष्ण कुमार जी का काव्य-संग्रह 'अभिलाषा' दिखी. पहला पन्ना पलटते ही 'माँ' कविता पर निगाहें ठहर गईं. एक बार नहीं कई बार पढ़ा. वाकई यह कविता दिल के बहुत करीब लगी. अंतर्मन के मनोभावों को बखूबी संजोया गया है इस अनुपम कविता में. सौभाग्यवश आज मई माह का दूसरा रविवार है और इसे दुनिया में मदर्स डे के रूप में मनाया जाता है. तो आज इस विशिष्ट दिवस पर माँ को समर्पित यही कविता आप लोगों के साथ शेयर कर रही हूँ-



मेरा प्यारा सा बच्चा
गोद में भर लेती है बच्चे को
चेहरे पर नजर न लगे
माथे पर काजल का टीका लगाती है
कोई बुरी आत्मा न छू सके
बाँहों में ताबीज बाँध देती है।

बच्चा स्कूल जाने लगा है
सुबह से ही माँ जुट जाती है
चैके-बर्तन में
कहीं बेटा भूखा न चला जाये।
लड़कर आता है पड़ोसियों के बच्चों से
माँ के आँचल में छुप जाता है
अब उसे कुछ नहीं हो सकता।

बच्चा बड़ा होता जाता है
माँ मन्नतें माँगती है
देवी-देवताओं से
बेटे के सुनहरे भविष्य की खातिर
बेटा कामयाबी पाता है
माँ भर लेती है उसे बाँहों में
अब बेटा नजरों से दूर हो जायेगा।

फिर एक दिन आता है
शहनाईयाँ गूँज उठती हैं
माँ के कदम आज जमीं पर नहीं
कभी इधर दौड़ती है, कभी उधर
बहू के कदमों का इंतजार है उसे
आशीर्वाद देती है दोनों को
एक नई जिन्दगी की शुरूआत के लिए।

माँ सिखाती है बहू को
परिवार की परम्परायें व संस्कार
बेटे का हाथ बहू के हाथों में रख
बोलती है
बहुत नाजों से पाला है इसे
अब तुम्हें ही देखना है।

माँ की खुशी भरी आँखों से
आँसू की एक गरम बूँद
गिरती है बहू की हथेली पर।

गुरुवार, 6 मई 2010

आलू के पराठे को तरस गए...

पिछले 15 दिनों तक अंडमान में आलू की किल्लत बनी रही. रोज न्यूज चैनलों पर हम देखते रहे कि देश के विभिन्न भागों में आलू सड़ रहे हैं, पर यहाँ अंडमान में सड़ना छोडिये, देखने को तरस गए. जेब में पैसे होकर भी क्या करेंगे, जब चीज मयस्सर ही न हो. आलू के अभाव में सब्जियों को लेकर रोज नए प्रयोग किये. दो-चार दिन तक तो आलू के बिना सब्जियाँ चल जाती हैं, पर उसके बाद कब तक पनीर, राजमा, छोले, सोयाबीन या भिन्डी, मटर, लौकी इत्यादि खाते रहेंगें. आलू की बजाय मटर के बने समोसे कई दिन तक स्वाद नहीं बना पते. आखिरकार आलू न चाहते हुए भी हमारे स्वाद का अभिन्न अंग बन चुका है. इसे तभी तो सब्जियों का राजा भी कहा जाता है.

खैर इसी बहाने पहली बार आलू की महिमा भी पता चली. कभी सोचा भी न था की आलू के बिना जीवन कैसा होगा क्योंकि आलू को तो सर्वत्र व्याप्त माना जाता है. घर में कुछ भी न हो तो आलू जरुर होता है. अधिकतर सब्जियाँ आलू के बिना सूनी हैं और फिर आलू के समोसे, आलू के भरते (चोखा) और आलू के पराठों के बिना तो स्वाद ही नहीं आता. पिछले 15 दिनों से अंडमान के लोग आलू के लिए तरस गए थे. रोज सुनाई देता कि मेन लैंड से जलयान द्वारा आलू चल चुका है, बस यहाँ पहुँचने भर की देरी है. सब्जियाँ और फल वैसे भी अंडमान में महँगे हैं. यहाँ के समुद्री खरे पानी द्वारा उनकी पैदाइश संभव भी नहीं. कई बार आश्चर्य होता है कि हर तरफ पानी ही पानी, पर वह किस काम का. न आप उसे पी सकते हैं, न उससे सिंचाई कर सकते हैं, न बिजली बना सकते हैं...!

फ़िलहाल, आज सुबह आलू महाराज के दर्शन हुए तो पहले तो उन्हें जी भरकर निहारा कि महाराज कहाँ चले गए थे. फिर सुबह नाश्ते में आलू के पराठे...शायद ही इतना स्वादिष्ट व चटपटा कभी लगा हो. वाकई जब चीजें हमें आसानी से मिलती हैं तो हमें उनकी महत्ता समझ में नहीं आती. जब हम लोग पढने जाते थे और किसी दिन सुबह कोई सब्जी घर में नहीं होती तो आलू की भुजिया या आलू के पराठों से उम्दा कुछ भी नहीं हो सकता था. ..पर यहाँ अंडमान में 20 रूपये किलो आलू भी अब सस्ता लगने लगा है.सब समय व जगह का फेर है !!

मंगलवार, 4 मई 2010

60 साल में मात्र 4 महिला जज ??

...चार साल के लम्बे इंतजार के बाद आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को एक अदद महिला न्यायधीश मिल ही गई. सुनकर बड़ा ताज्जुब लगता है कि इस देश कि आधी आबादी महिलाओं की है, पर देश की सबसे बड़ी न्यायपालिका में उनका प्रतिनिधित्व ही नहीं है. एक तरफ हम महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता की बात करते हैं, वहीँ उन्हें निर्णय प्रक्रिया में भागीदार ही नहीं बनाना चाहते. ऐसे में यदि लोकसभा-विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रयास बाद न्यायपालिका में भी महिलाओं के लिए आरक्षण की बात उठे तो हर्ज़ क्या है. ऐसा तब सोचने की जरुरत पड़ती है, जब आजादी के 6 दशक बीत जाने के बाद भी अभी तक सुप्रीम कोर्ट में मात्र 04 ही महिला जज पहुँची हैं- न्यायधीश फातिमा बीबी, न्यायधीश सुजाता मनोहर, न्यायधीश रुमा पाल और हाल ही में नियुक्त न्यायधीश ज्ञान सुधा मिश्र। किसी महिला को मुख्य न्यायधीश बनने का सौभाग्य तो अब तक नहीं मिला है।

आज देश की राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री सभी पदों पर महिलाएं पहुँच चुकी हैं, फिर आजादी के 6 दशक बीत जाने के बाद भी कोई महिला सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायधीश पद पर क्यों नहीं पहुँची। अव्वल तो मात्र 04 महिलाएं ही यहाँ जज बनीं, यानी औसतन 15 साल में एक महिला। सुप्रीम कोर्ट में महिला जज के रूप में न्यायधीश ज्ञान सुधा मिश्र की नियुक्ति न्यायधीश रुमा पाल के सेवानिवृत्ति होने के चार साल बाद हुई है और इसके लिए भी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी को सलाह देनी पड़ी कि सुप्रीम कोर्ट में किसी महिला को जज क्यों नहीं बनाया जा रहा है। महिला सशक्तिकरण और नारी विमर्श के नारों और चिंतन के बीच यह बड़ा विचारणीय प्रश्न बनकर खड़ा हो गया है !!

शनिवार, 1 मई 2010

'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में 'शब्द-शिखर' की चर्चा


'शब्द शिखर' पर 29 अप्रैल, 2010 को विश्व नृत्यदिवस के उपलक्ष्य में प्रस्तुत पोस्ट कत्थक नृत्य भगाए रोग को हिन्दी दैनिक पत्र 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' के साप्ताहिक स्तंभ 'ब्लॉग गुरु' और IIT और IIM में भी शिक्षक नहीं को नियमित स्तम्भ 'ब्लॉग राग' में में 30 अप्रैल, 2010 को स्थान दिया गया है.'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में चौथी बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 19वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

(चित्र साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)