अपनी नजाकत और नफासत के लिए मशहूर लखनऊ में पिछले दिनों एक बात हुई. इससे पहले कि बात दूर तलक तक जाती, उसे संभल लिया गया पर इस बात ने एक बार फिर से समाज के सामने तमाम सवाल खड़े कर दिए.जिलाधिकारी, लखनऊ ने राजधानी के छात्र-छात्राओं को स्कूल/कालेज यूनीफार्मा में सार्वजनिक स्थानों यथा-सिनेमा घर, मॉल, पार्क, रेस्टोरेन्ट, होटलों में स्कूल/कालेज टाइम में स्कूली ड्रेस में जाने से प्रतिबन्धित कर दिया और यह भी कहा कि स्कूली ड्रेस में इन स्थानों पर पाये जाने पर छात्र-छात्राओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी। उनका कहना था कि छात्र छात्राएं स्कूल यूनिफार्म में स्कूल-कॉलेज छोड़कर घूमते पाए जाते हैं, जिससे अभद्रता छेड़खानी, अपराधी और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। यानी फिर से वही सवाल- ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड.
स्कूल- कालेज का नाम सुनते ही न जाने कितने सपने आँखों में तैर आते हैं। संस्कारों के साथ-साथ ये स्कूल-कालेज हमें बदलते वक़्त के साथ चलने के लिए भी तैयार करते हैं. ऐसे में घर की चाहरदिवारियों से परे वो उन्मुक्त सपने, उनको साकार करने की तमन्नायें, दोस्तों के बीच जुदा अंदाज, फैशन-ब्रांडिंग और लाइफ स्टाइल की बदलती परिभाषायें....और भी न जाने क्या-क्या। मन अनायास ही गुनगुना उठता है- आज मैं ऊपर, आसमां नीचे। अपने स्कूली दिनों से जुड़ी न जाने कितनी यादों को हम चिरंतन सहेज कर रखते हैं.
पर ऐसे माहौल में यदि शुरूआत ही बंदिशों से हो तो मन कसमसा उठता है। कभी जींस पर प्रतिबन्ध तो कभी मॉल व थियेटर में स्कूली ड्रेस में घुमने पर प्रतिबन्ध. दिलोदिमाग में ख्याल उठने लगता है कि क्या यह सब हमारी संस्कृति के विपरीत है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि वह ऐसी चीजों से प्रभावित होने लगती है? फिर तालिबानी हुक्म और इनमें अंतर क्या ? पहले लोग कहेंगें कि स्कूली यूनिफ़ॉर्म में न जाओ, फिर कहेंगे कि जींस में न जाओ... क्या इन सब फतवों से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं। पिछले साल तो कानपुर के कई नामी-गिरामी कालेजों ने सत्र प्रारम्भ होने से पहले ही छात्राओं को उनके ड्रेस कोड के बारे में बकायदा प्रास्पेक्टस में ही फरमान जारी कर दिया कि वे जींस और टाप पहन कर कालेज न आयें। इसके पीछे निहितार्थ यह है कि अक्सर लड़कियाँ तंग कपड़ों में कालेज आती हैं और नतीजन ईव-टीजिंग को बढ़ावा मिलता है। स्पष्ट है कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। अतः यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को दरिंदों की निगाहों से बचाएं। इस साल इसी क्रम में लखनऊ के जिलाधिकारी ने तो बाकायदा लड़कियों को स्कूल के दौरान स्कूली ड्रेस में इधर-उधर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. यदि इसका उद्देश्य यह होता कि इससे अनुशासनहीनता पर रोक लगाई जा सकेगी तो ठीक था, पर इसका मंतव्य तो इव-टीजिंग पर रोक लगाना था. क्या राजधानी लखनऊ की कानून-व्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी है कि लडकियाँ घरों में कैद हो जाएँ. अपनी कमी छुपाने के लिए ऐसे फरमानों को जारी कर प्रशासन अपनी कमियों से मुँह नहीं मोड़ सकता.
आज के आधुनिकतावादी एवं उपभोक्तावादी दौर में जहाँ हमारी चेतना को बाजार नियंत्रित कर रहा हो, वहाँ इस प्रकार की बंदिशें सलाह कम फरमान ज्यादा लगते हैं। समाज क्यों नहीं स्वीकारता कि किसी तरह के प्रतिबंध की बजाय बेहतर यह होगा कि अच्छे-बुरे का फैसला इन छात्राओं पर ही छोड़ा जाय और इन्हें सही-गलत की पहचान करना सिखाया जाय। दुर्भाग्य से स्कूल-कालेज लाइफ में प्रवेश के समय ही इन लड़कियों के दिलोदिमाग में उनके पहनावे को लेकर इतनी दहशत भर दी जा रही है कि वे पलटकर पूछती हैं-’’ड्रेस कोड उनके लिए ही क्यों ? अभी ज्यादा दिन नहीं बीते होंगे जब मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में एक स्कूल शिक्षक ने ड्रेस की नाप लेने के बहाने बच्चियों के कपड़े उतरवा लिए थे. फिर भी सारा दोष लड़कियों पर ही क्यों. यही नहीं तमाम काॅलेजों ने तो टाइट फिटिंग वाले सलवार सूट एवं अध्यापिकाओं को स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। शायद यहीं कहीं लड़कियों-महिलाओं को अहसास कराया जाता है कि वे अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। देश में सत्ता शीर्ष पर भले ही एक महिला विराजमान हो, संसद की स्पीकर एक महिला हो, सरकार के नियंत्रण की चाबी एक महिला के हाथ में हो, यहाँ तक कि उ0 प्र0 में एक महिला मुख्यमंत्री है, पर इन सबसे बेपरवाह पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता।
सवाल अभी भी अपनी जगह है। क्या लड़कियों का पहनावा ईव-टीजिंग का कारण हैं ? यदि ऐसा है तो माना जाना चाहिए कि पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। ग्रामीण अंचलों में छेड़खानी व बलात्कार की घटनाएं तो किसी पहनावे के कारण नहीं होतीं बल्कि अक्सर इनके पीछे पुरुषवादी एवं जातिवादी मानसिकता छुपी होती है। बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार भला किसे नहीं याद होगा ? हाल ही में दिल्ली की एक संस्था ’साक्षी’ ने जब ऐसे प्रकरणों की तह में जाने के लिए बलात्कार के दर्ज मुकदमों के पिछले 40 वर्षों का रिकार्ड खंगाला तो पाया कि बलात्कार से शिकार हुई 70 प्रतिशत महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनीं थीं।
स्पष्ट है कि मारल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा लड़कियों-महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि लड़कियां अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं। मानों लड़कियां सेक्स आब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टाप य स्कूली स्कर्ट में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टाप य स्कूली स्कर्ट में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती जी ने लखनऊ के जिलाधिकारी के इस फरमान को अगले दिन ही भले रद्द कर दिया हो, पर सवाल अभी भी वहीँ मुँह बाये खड़े है !!
34 टिप्पणियां:
बहुत खूब, लाजबाब !
सटीक और सार्थक लेख...चिन्ता जायज़ है..
sach kaha apne ,savaal wahi bana hua hai ,,,,vicharneey post.
VIKAS PANDEY
www.vicharokadarpan.blogspot.com
aap ne bahut hi acha lekh likha hai pahle to thanks ki aapki bitiya sachi me bahut bahut payari hai..vo ham logo ke dilo me bas gayi hai..use Ashu unckle ki tarph se bahut bahut payar..
aap dress code ki baat ker rahi hai per mai aap se hi nahi sabhi se puchta hu kisi ne boys ke liye koi dress code ku nahi banaya hai ?prob dress code me nahi hai prob hai hamare visson me ki ham kisi ko kis angle se dekhte hai...bas isse jayada mai aapse kuch nahi kah sakta..
सही कहा आपने , हमें अपने खयालात और नजरिया बदलना होगा , तभी इन घटनाओं पर रोक हो सकती है . इन दिनों हम कुछ ज्यादा intolerent होते जा रहे है , हरियाणा खाप पंचायत का फरमान हो या देवबंद के ओउरतो के बिरुद्ध का फतवा . हर जगह जमीन छोटी होती जा रहा है
http://qsba.blogspot.com/
http://madhavrai.blogspot.com/
सही कहा आपने , हमें अपने खयालात और नजरिया बदलना होगा , तभी इन घटनाओं पर रोक हो सकती है . इन दिनों हम कुछ ज्यादा intolerent होते जा रहे है , हरियाणा खाप पंचायत का फरमान हो या देवबंद के ओउरतो के बिरुद्ध का फतवा . हर जगह जमीन छोटी होती जा रहा है
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होता ये है कि किसी भी बात को गलत तरीके से देखा और समझाया जाता है. ड्रेस के मामले में प्रशासन से ज्यादा अभिभावकों को सतर्क रहना चाहिए....उन्हें खुद देखना चाहिए कि उनके बच्चों - लड़का या लड़की - ने क्या पहना है.............
बाकी सब पोलिटिक्स का मामला है आकांक्षा जी......
क्या कहें....................दुखती नब्ज़ है..... यही आधुनिकता है....
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जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
अपने खयालात और नजरिया बदलना होगा
sahi aalekh
आकांक्षा जी, आपने बहुत सही लिखा कि स्कूल-कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। दरअसल यह समस्या किसी एक शहर या कॉलेज की नहीं है, हर कहीं दोष लड़कियों को ही दिया जाता है. पित्रसत्तात्मक समाज अपने दोषों की तरफ नहीं देखता....एक सही विषय पर आपने बहस आरंभ की है...बधाई.
बेहद प्रभावशाली व सामयिक लेख है, छेडछाड-छींटाकशी-अपराध की घटनाओं के पीछे पहनावे को दोष देना उचित नहीं है. वह भी एक जिलाधिकारी द्वारा, जो कि इन सबको रोकने के लिए जिम्मेदार है.
...पर यहाँ पर यह भी जोड़ना उचित होगा कि पहनावे में फूहडपन व अश्लीलता का समावेश नहीं होना चाहिए. वैसे भी स्कूली ड्रेस में कोई फूहड़पन नहीं होता है. पर कानपुर कि घटना पर यह बात जरुर लागू होती है.
@ Ashish (Ashu),
आपकी बात में दम है. पर यह आदेश किसी सामाजिक संगठन द्वारा नहीं बल्कि एक प्रतिष्ठित कुर्सी पर बैठे व्यक्ति द्वारा किया गया है. जिसके ऊपर पूरे जनपद की जिम्मेदारी है, यदि वही ऐसा सोचें तो दोष किसका. इसे चाहें दृष्टि दोष कहें, या विजन का अभाव.....
@ Ashish,
Thanks for the love for Pakhi. I have seen ur comments on her blog and orkut...Great !!
@ डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर,
सेंगर जी, पर स्कूली ड्रेस में क्या दोष है ??
दुर्भाग्यपूर्ण हैं .हम कट्टरपंथियों के समाज में रह रहें हैं, पर जब जिलाधीश ही बच्चे-बछियों के मामले में इतने उग्र हो जाएँ तो क्या होगा. अभी तो यह शुरुआत है, जाने आने वाले दिनों में क्या होगा? मन कड़वाहट से भर जाता है यह सब देख सुनकर.
चलिए मायावती जी को बात समझ में आई और उन्होंने जिलाधिकारी के आदेश को निरस्त कर दिया.
आपके विचारों से सहमत हूँ.
ये सब अपनी फ़्रसटेशन निकालने के तरीके है.बीमार दिमाग के.उन्हें अहमियत ही मत दीजिये.
जिलाधीश महोदय से पूछा जाना चहिये कि उन्हें हर ड्रेस में सेक्स आब्जेक्ट ही क्यों दिखता है. यदि ड्रेस का ही सवाल है तो पुलिस-सेना में भी महिलाएं ड्रेस कोड फलो करती हैं, तो क्या इन जगहों पर उनके साथ छेड़खानी होती है, वह उनकी ड्रेस के चलते होती है. लगता है मायावती के राज में DM साहब अभी से सठिया गए हैं.
इस विषय पर अख़बारों में पढ़ा था. यहाँ पर इस मुद्दे पर बेबाकी से व्यक्त आपकी सारगर्भित पोस्ट देखकर अच्छा लगा. आपके विचारों से सहमत हूँ.
काफी सही मुद्दा है सकारत्मक सोच.
बहुत ही सुलझा हुआ लिखा है.
अच्छा लगा...
बेहतरीन चर्चा...आवश्यकता इस बात की है कि समाज व शासन अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लोगों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें।
जब राजधानी का यह हाल है तो दूर-दराज की बात क्या होगी. बात को रद्द कर देने से मानसिकता तो नहीं बदल जाती है..शानदार पोस्ट की बधाई आकांक्षा जी.
क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि वह ऐसी चीजों से प्रभावित होने लगती है? फिर तालिबानी हुक्म और इनमें अंतर क्या ? पहले लोग कहेंगें कि स्कूली यूनिफ़ॉर्म में न जाओ, फिर कहेंगे कि जींस में न जाओ... क्या इन सब फतवों से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं।...Bahut sahi wa sarthak sawal.
Eve-teasing & Dress-code is matter of open discussion now.
वैसे "ड्रेस कोड" से ज्यादा जरूरी "ड्रेस सेंस" जरूरी है. अगर शालीन तरीके से आपने सलवार सूट या साड़ी नहीं पहनी है तो वो भी अश्लील लग सकती है. जरुरत नजरिया बदलने की है. विकृत व्यक्ति को हर कुछ विकृत ही दिखेगा....इस उम्दा पोस्ट व चल रही चर्चा के लिए साधुवाद.
आकांक्षा जी, देखती रहिये.. पाबंदियाँ बढ़ेंगी ही घटेंगी नहीं। जरा कुछ पाबंदियाँ, कायदे कानून पुरुष पर थोपने का साहस तो कोई दिखाए। यह तो शुक्र है मायावती ने एक नारी होने के नाते इस सर्कुलर को ही निरस्त कर दिया..बधाई.
Saartha lekh...
Bahut shubhkamnayen
पोस्ट पढ़कर और चित्र देखकर मन प्रसन्न हो गया!
I hope men will change their mentality some day.We women need their love, affection, respect and care. We want to grow in a congenial atmosphere.
" maati (women ) kahe kumhaar (men ) se,
Tu kyun raude moye.
Ek din aisa aayega, main raudungi toye."
Nice post !
Regards,
Divya
एक सार्थक मुद्दे पर सार्थक बहस..स्वागत है !!
आप बहुत सँजीदगी से विषय का चयन करती हैँ।बधाई!
अच्छा लिखा है आपनें.
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