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बुधवार, 30 जून 2010

विलुप्त होने के कगार पर एक तिहाई वनस्पति-जीव

जैव विविधता पृथ्वी की सबसे बड़ी पूंजी है. पर जैसे-जैसे हम विकास और प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं, इस पर विपरीत असर पड़ रहा है. पर्यावरण का निरंतर क्षरण रोज की बात है पर अब तो दुनिया भर में पाए जाने वाले पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की करीब एक तिहाई प्रजातियां भी विलुप्त होने के कगार पर हैं । एक तरफ मानवीय जनसँख्या दिनों-ब-दिन बढती जा रही है, वहीँ मानव अन्य जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को नष्ट कर उनकी जगह भी पसरता जा रहा है. यदि जनसँख्या इसी तरह बढती रही तो 2050 तक विश्व जनसख्या नौ अरब के आंकड़े को पार कर जाएगी और फिर हमें रहने के लिए कम से कम पाँच ग्रहों को जरूरत पड़ेगी। वाकई यह एक विभीषिका ही साबित होगी. भारत, पाकिस्तान और दक्षिण पूर्व एशिया सहित तमाम देशों में में जीवों के प्राकृतिक ठिकानों को कृषि योग्य भूमि में तब्दील किया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ नित फैलता प्रदूषण और पाश्चात्य संस्कृति की ओर अग्रसर विकासशील देशों की वजह से भी वनस्पति और जीवों की सख्या घट रही है। विकास की ओर अग्रसर देशों की खाद्यान्न और माँस की बढ़ती जरूरतों की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र दिनों-ब-दिन गड़बडा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी ग्लोबल बायोडाइवर्सिटी आउटलुक के तीसरे संस्करण की रिपोर्ट पर गौर करें तो दुनिया में 21 प्रतिशत स्तनपायी जीव, 30 प्रतिशत उभयचर जीव; जैसे मेंढक और 35 प्रतिशत अकशेरूकी जीव ;बिना रीढ़ के हड्डी वाले जीव विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें मछलियां भी शामिल है। दक्षिण एशियाई नदियों में डाॅल्फिन की संख्या तो बहुत तेजी से घट रही है।इसमें दुनिया के 120 देशों के आँकड़े शामिल किए गए हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत, चीन और ब्राजील जैसे देशों की तेजी से बढ़ती आथिक विकास दर से विश्व की जैव विविधता को खतरा है। यही नहीं रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि पश्चिम देशों को विलुप्तप्राय जातियों के बारे में अधिक सोचने की जरूरत है।

वाकई, यदि हम इस ओर अभी से सचेत नहीं हुए तो पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के बाद मानव के अस्तित्व पर ही पहला खतरा पैदा होगा. प्रकृति में संतुलन बेहद जरुरी है, ऐसे में अन्य की कीमत पर मानवीय इच्छाओं का विस्तार सभ्यता को असमय काल-कवलित कर सकता है !!

रविवार, 27 जून 2010

दृष्टिहीन व बधिर महिला जिसने जज्बे से हासिल की बुलंदियाँ

हेलन कैलर का नाम हममें से बहुतों ने सुना होगा. अमेरिकी लेखिका, राजनीतिक कार्यकर्ता और प्रवक्ता हेलन कैलर पहली दृष्टिहीन व बधिर व्यक्ति थीं, जिन्होंने अपने बुलंद हौसलों से कला स्नातक की डिग्री हासिल की थी। हेलन के पिता सैन्य अधिकारी कैप्टन आर्थर एच. कैलर थे, जो मूल रूप से जर्मनी के थे. हेलन का जन्म 27 जून, 1880 को एक स्वस्थ शिशु के रूप में ही हुआ था, पर लगभग डेढ वर्ष आयु में उन्हें एक गंभीर बीमारी ने घेर लिया। यह मस्तिष्क ज्वर जैसी एक समस्या थी, जिसके कारण वह बधिर व अंधी हो गईं । सात वर्ष की उम्र तक वह इशारों से ही अपनी बात लोगों को समझाती थीं। 1886 में उनके माता-पिता उन्हें एक मशहूर विशेषज्ञ को दिखाने ले गए। विशेषज्ञ ने उन्हें एलेक्जेंडर ग्राहम बेल से मिलवाया, जो तब गूंगे-बहरे बच्चों के लिए काम कर रहे थे। अंतत: दक्षिणी बोस्टन स्थित पर्किस स्कूल ऑफ ब्लाइंड में हेलन को एक मार्गदर्शक मिलीं ऐनी, जिन्होंने 1887 से उनके घर पर उन्हें विधिवत शिक्षा दी। यह शिक्षण कार्यक्रम बेहद कारगर रहा।

कई वर्षो की मेहनत के बाद हेलन ब्रेललिपि में अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, ग्रीक और लैटिन जैसी भाषाओं में पारंगत हो गई। 1936 में ऐनी की मृत्यु के बाद हेलन और उनकी सेक्रेटरी थोंपसन ने दुनिया भर की यात्राएं कीं, ताकि दृष्टिहीनों की मदद हेतु आर्थिक कोष की स्थापना कर सकें। 1960 में थोंपसन की मृत्यु हो गई और एक नर्स विनी ने हेलन की देखभाल का जिम्मा लिया। वह अंतिम समय तक हेलन के साथ रहीं। हेलन ने मात्र 12 वर्ष की आयु में एक पुस्तक लिखी थी। 22 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द स्टोरी ऑफ माय लाइफ' लिखी। उन्होंने लगभग 12 किताबें लिखीं और जीवनपर्यत दृष्टिहीनों के लिए काम किया। सितंबर 1968 में उनकी मृत्यु हो गई। इससे पूर्व 1964 में उनके योगदान के लिए उन्हें स्वतंत्रता के लिए दिए जाने वाले राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया। हेलन कैलर आजीवन अपने जज्बे के दम पर कठिनाइयों को पर करती रहीं और अंतत: 1968 में अपने हौसलों के किस्से छोड़कर वे चिर विलीन हो गईं. आज उनकी जन्म-तिथि है, ऐसे में उनके जज्बे और हौसले का पुनीत स्मरण !!

शनिवार, 26 जून 2010

स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें

मादक पदार्थों व नशीली वस्तुओं के निवारण हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 7 दिसंबर, 1987 को प्रस्ताव संख्या 42/112 पारित कर हर वर्ष 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस मानाने का निर्णय लिया. यह एक तरफ लोगों में चेतना फैलाता है, वहीँ नशे के लती लोगों के उपचार की दिशा में भी सोचता है.इस वर्ष का विषय है- ''स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें." आजकी पोस्ट इसी विषय पर-
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मादक पदार्थों के नशे की लत आज के युवाओं में तेजी से फ़ैल रही है. कई बार फैशन की खातिर दोस्तों के उकसावे पर लिए गए ये मादक पदार्थ अक्सर जानलेवा होते हैं. कुछ बच्चे तो फेविकोल, तरल इरेज़र, पेट्रोल कि गंध और स्वाद से आकर्षित होते हैं और कई बार कम उम्र के बच्चे आयोडेक्स, वोलिनी जैसी दवाओं को सूंघकर इसका आनंद उठाते हैं. कुछ मामलों में इन्हें ब्रेड पर लगाकर खाने के भी उदहारण देखे गए हैं. मजाक-मजाक और जिज्ञासावश किये गए ये प्रयोग कब कोरेक्स, कोदेन, ऐल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस जैसे दवाओं को भी घेरे में ले लेते हैं, पता ही नहीं चलता. फिर स्कूल-कालेजों य पास पड़ोस में गलत संगति के दोस्तों के साथ ही गुटखा, सिगरेट, शराब, गांजा, भांग, अफीम और धूम्रपान सहित चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक दवाओं के सेवन की ओर अपने आप कदम बढ़ जाते हैं. पहले उन्हें मादक पदार्थ फ्री में उपलब्ध कराकर इसका लती बनाया जाता है और फिर लती बनने पर वे इसके लिए चोरी से लेकर अपराध तक करने को तैयार हो जाते हैं.नशे के लिए उपयोग में लाई जानी वाली सुइयाँ HIV का कारण भी बनती हैं, जो अंतत: एड्स का रूप धारण कर लेती हैं. कई बार तो बच्चे घर के ही सदस्यों से नशे की आदत सीखते हैं. उन्हें लगता है कि जो बड़े कर रहे हैं, वह ठीक है और फिर वे भी घर में ही चोरी आरंभ कर देते हैं. चिकित्सकीय आधार पर देखें तो अफीम, हेरोइन, चरस, कोकीन, तथा स्मैक जैसे मादक पदार्थों से व्यक्ति वास्तव में अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है एवं पागल तथा सुप्तावस्था में हो जाता है। ये ऐसे उत्तेजना लाने वाले पदार्थ है जिनकी लत के प्रभाव में व्यक्ति अपराध तक कर बैठता है। मामला सिर्फ स्वास्थ्य से नहीं अपितु अपराध से भी जुड़ा हुआ है. कहा भी गया है कि जीवन अनमोल है। नशे के सेवन से यह अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में भारत हेरोइन का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है और ऐसा लगता है कि वह खुद भी अफीम पोस्त का उत्पादन करता है. गौरतलब है कि अफीम से ही हेरोइन बनती है. अपने देश के कुछ भागों में धड़ल्ले से अफीम की खेती की जाती है और पारंपरिक तौर पर इसके बीज 'पोस्तो' से सब्जी भी बने जाती है. पर जैसे-जैसे इसका उपयोग एक मादक पदार्थ के रूप में आरंभ हुआ, यह खतरनाक रूप अख्तियार करता गया. वर्ष 2001 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में भारतीय पुरुषों में अफीम सेवन की उच्च दर 12 से 60 साल की उम्र तक के लोगों में 0.7 प्रतिशत प्रति माह देखी गई. इसी प्रकार 2001 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार ही 12 से 60 वर्ष की पुरुष आबादी में भांग का सेवन करने वालों की दर महीने के हिसाब से तीन प्रतिशत मादक पदार्थ और अपराध मामलों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय [यूएनओडीसी] की रिपोर्ट के ही अनुसार भारत में जिस अफीम को हेरोइन में तब्दील नहीं किया जाता उसका दो तिहाई हिस्सा पांच देशों में इस्तेमाल होता है। ईरान 42 प्रतिशत, अफगानिस्तान सात प्रतिशत, पाकिस्तान सात प्रतिशत, भारत छह प्रतिशत और रूस में इसका पांच प्रतिशत इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2008 में 17 मीट्रिक टन हेरोइन की खपत की और वर्तमान में उसकी अफीम की खपत अनुमानत: 65 से 70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। कुल वैश्विक उपभोग का छह प्रतिशत भारत में होने का मतलब कि भारत में 1500 से 2000 हेक्टेयर में अफीम की अवैध खेती होती है, जो वाकई चिंताजनक है.

नशे से मुक्ति के लिए समय-समय पर सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं पहल करती रहती हैं. पर इसके लिए स्वयं व्यक्ति और परिवार जनों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. अभिभावकों को अक्सर सुझाव दिया जाता है कि वे अपने बच्चों पर नजर रखें और उनके नए मित्र दिखाई देने, क्षणिक उत्तेजना या चिडचिडापन होने, जेब खर्च बढने, देर रात्रि घर लौटने, थकावट, बेचैनी, अर्द्धनिद्राग्रस्त रहने, बोझिल पलकें, आँखों में चमक व चेहरे पर भावशून्यता, आँखों की लाली छिपाने के लिए बराबर धूप के चश्मे का प्रयोग करते रहने, उल्टियाँ होने, निरोधक शक्ति कम हो जाने के कारण अक्सर बीमार रहने, परिवार के सदस्यों से दूर-दूर रहने, भूख न लगने व वजन के निरंतर गिरने, नींद न आने, खांसी के दौरे पड़ने, अल्पकालीन स्मृति में ह्रास, त्वचा पर चकते पड़ जाने, उंगलियों के पोरों पर जले का निशान होने, बाँहों पर सुई के निशान दिखाई देने, ड्रग न मिलने पर आंखों-नाक से पानी बहने-शरीर में दर्द-खांसी-उल्टी व बेचैनी होने, व्यक्तिगत सफाई पर ध्यान न देने, बाल-कपड़े अस्त व्यस्त रहने, नाखून बढे रहने, शौचालय में देर तक रहने, घरेलू सामानों के एक-एक कर गायब होते जाने आदत के तौर पर झूठ बोलने, तर्क-वितर्क करने, रात में उठकर सिगरेट पीने, मिठाईयों के प्रति आकर्षण बढ जाने, शैक्षिक उपलब्धियों में लगातार गिरावट आते जाने, स्कूल कालेज में उपस्थिति कम होते जाने, प्रायः जल्दबाजी में घर से बाहर चले जाने एवं कपडों पर सिगरेट के जले छिद्र दिखाई देने जैसे लक्षणों के दिखने पर सतर्क हो जाएँ. यह बच्चों के मादक-पदार्थों का व्यसनी होने की निशानी है. यही नहीं यदि उनके व्यक्तिगत सामान में अचानक माचिस,मोमबत्ती,सिगरेट का तम्बाकू, 3 इंच लम्बी शीशे की ट्यूब,एल्मूनियम फॉयल, सिरिंज, हल्का भूरा सफेद पाउडर मिलता है तो निश्चित जान लें कि वह ड्रग्स का शिकार है और तत्काल इस सम्बन्ध में कदम उठाने की जरुरत है.

मादक पदार्थों और नशा के सम्बन्ध में जागरूकता के लिए तमाम दिवस, मसलन- 31 मई को अंतर्राष्ट्रीय धूम्रपान निषेध दिवस, 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस, गाँधी जयंती पर 2 से 8 अक्टूबर मद्यनिषेध सप्ताह और 18दिसम्बर को मद्य निषेध दिवस के रूप में हर साल मनाया जाता है. मादक पदार्थों का नशा सिर्फ स्वास्थ्य को ही नुकसान नहीं पहुँचाता बल्कि सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक- मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है. जरुरत इससे भागने की नहीं इसे समझने व इसके निवारण की है. मात्र दिवसों पर ही नहीं हर दिन इसके बारे में सोचने की जरुरत है अन्यथा देश की युवा पीढ़ी को यह दीमक की तरह खोखला कर देगा.

गुरुवार, 24 जून 2010

मेघों को मनाने का अंदाज अपना-अपना

इसे पर्यावरण-प्रदूषण का प्रकोप कहें या पारिस्थितकीय असंतुलन। इस साल गर्मी ने हर व्यक्ति को रूला कर रख दिया। बारिश तो मानो पृथ्वी से रूठी हुई है। पृथ्वी पर चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई है। शिमला जैसी जिन जगहों को अनुकूल मौसम के लिए जाना जाता है, वहाँ भी इस बार गर्मी का प्रकोप दिखाई दे रहा है। ऐसे में रूठे बादलों को मनाने के लिए लोग तमाम परंपरागत नुस्खों को अपना रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि बरसात और देवताओं के राजा इंद्र इन तरकीबों से रीझ कर बादलों को भेज देते हैं और धरती हरियाली से लहलहा उठती है।

इनमें सबसे प्रचलित नुस्खा मेंढक-मेंढकी की शादी है। मानसून को रिझाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में चुनरी ओढ़ाकर बाकायदा रीति-रिवाज से मेंढक-मेंढकी की शादी की जाती है। इनमें मांग भरने से लेकर तमाम रिवाज आम शादियों की तरह होते हैं। एक अन्य प्रचलित नुस्खा महिलाओं द्वारा खेत में हल खींचकर जुताई करना है। कुछ अंचलों में तो महिलाए अर्धरात्रि को अर्धनग्न होकर हल खींचकर जुताई करतीं हैं। बच्चों के लिए यह अवसर काले मेघा को रिझाने का भी होता है और शरारतें करने का भी। वे नंगे बदन जमीन पर लोटते हैं और प्रतीकात्मक रूप से उन पर पानी डालकर बादलों को बुलाया जाता है। एक अन्य मजेदार परम्परा में गधों की शादी द्वारा इन्द्र देवता को रिझाया जाता है। इस अनोखी शादी में इंद्र देव को खास तौर पर निमंत्रण भेजा जाता है। मकसद साफ है इंद्र देव आएंगे तो साथ मानसून भी ले आएंगे। गधे और गधी को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और शादी के लिए बाकायदा मंडप सजाया जाता है, शादी खूब धूम-धाम से होती है। बरसात के अभाव में मनुष्य असमय दम तोड़ सकता है, इस बात से इन्द्र देवता को रूबरू कराने के लिए जीवित व्यक्ति की शव-यात्रा तक निकाली जाती है। इसमें बरसात के लिए एक जिंदा व्यक्ति को आसमान की तरफ हाथ जोड़े हुए अर्थी में लिटा दिया जाता है। तमाम प्रक्रिया ‘दाह संस्कार‘ की होती है। ऐसा करके इंद्र को यह जताने का प्रयास किया जाता है कि धरती पर सूखे से यह हाल हो रहा है, अब तो कृपा करो।

इन परम्पराओं से परे कुछेक परम्पराए वैज्ञानिक मान्यताओं पर भी खरी उतरती हैं। ऐसा माना जाता है कि पेड़-पौधे बरसात लाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसी के तहत पेड़ों का लगन कराया जाता है। कर्नाटक के एक गाँव में इंद्र देवता को मनाने के लिए एक अनोखी परंपरा है। यहां हाल ही में नीम के पौधे को दुल्हन बनाया गया और अश्वत्था पेड़ को दूल्हा। पूरी हिंदू रीति रिवाज से शादी संपन्न हुई जिसमें गाँव के सैकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया। नीम के पेड़ को बाकायदा मंगलसूत्र भी पहनाया गया। लोगों का मानना है कि अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की शादी का आयोजन करने से झमाझम पानी बरसता है।

अब इसे परम्पराओं का प्रभाव कहें या मानवीय बेबसी, पर अंततः बारिश होती है लेकिन हर साल यह मनुष्य व जीव-जन्तुओं के साथ पेड़-पौधों को भी तरसाती हैं। बेहतर होता यदि हम मात्र एक महीने सोचने की बजाय साल भर विचार करते कि किस तरह हमने प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है, उसके आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया है, तो निश्चिततः बारिश समय से होती और हमें व्यर्थ में परेशान नहीं होना पड़ता। अभी भी वक्त है, यदि हम चेत सके तो मानवता को बचाया जा सकता है अन्यथा हर वर्ष हम इसी प्रलाप में जीते रहेंगे कि अब तो धरती का अंत निकट है और कभी भी प्रलय हो सकती है।

सोमवार, 21 जून 2010

'पेड़ न्यूज' के चंगुल में पत्रकारिता

आजकल ‘पेड-न्यूज’ का मामला सुर्खियों में है। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, ‘पेड-न्यूज’ ने उसकी विश्वसनीयता को कटघरे में खड़ा कर दिया है। प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस तरह से लोगों की भूमिका को मोड़ देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है, ऐसे में उसकी स्वयं की भूमिका पर उठते प्रश्नचिन्ह महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मीडिया का काम समाज को जागरूक बनाना है, न कि अन्धविश्वासी. फिर चाहे वह धर्म का मामला हो या राजनीति का. पर मीडिया में जिस तरह कूप-मंडूक बातों के साथ-साथ आजकल पैसे लेकर न्यूज छापने/प्रसारित करने का चलन बढ़ रहा है, वह दुखद है. शब्दों की सत्ता जगजाहिर है. शब्द महज बोलने या लिखने मात्र को नहीं होते बल्कि उनसे हम अपनी प्राण-ऊर्जा ग्रहण करते हैं। शब्दों की अर्थवत्ता तभी प्रभावी होती है जब वे एक पवित्र एवं निष्कंप लौ की भाँति लोगों की रूह प्रज्वलित करते हैं, उसे नैतिक पाश में आबद्ध करते हैं। सत्ता के पायदानों, राजनेताओं और कार्पोरेट घरानों ने तो सदैव चालें चली हैं कि वे शब्दों पर निर्ममता से अपनी शर्तें थोप सकें और लेखक-पत्रकार को महज एक गुर्गा बना सकें जो कि उनकी भाषा बोले। उनकी कमियों को छुपाये और अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करे. देश के कोने-कोने से निकलने वाले तमाम लघु अखबार-पत्रिकाएं यदि विज्ञापनों के अभाव और पेट काटकर इस दारिद्रय में भी शब्द-गांडीव की तनी हुई प्रत्यंचा पर अपने अस्तित्व का उद्घोष करते हैं तो वह उनका आदर्श और जुनून ही है. पर इसके विपरीत बड़े घरानों से जुड़े अख़बार-पत्रिकाएँ तो 'पत्रकारिता' को अपने हितों की पूर्ति के साधन रूप में इस्तेमाल करती हैं.

‘पेड-न्यूज’ का मामला दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव में तेजी से उठा और इस पर एक समिति भी गठित हुई, जिसकी रिपोर्ट व सिफारिशें काफी प्रभावशाली बताई जा रही हैं।पर मीडिया तो पत्रकारों की बजाय कारपोरेट घरानों से संचालित होती है ऐसे में वे अपने हितों पर चोट कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। अतः इस समिति की रिपोर्ट व सिफारिशों को निष्प्रभावी बनाने का खेल आरंभ हो चुका है। पर समाज के इन तथाकथित कर्णधारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि रचनात्मक पत्रकारिता समाज के लिए काफी महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता स्वतः स्फूर्ति व स्वप्रेरित होकर निर्बाध रूप से चीज को देखने, विश्लेषण करने और उसके सकारात्मक पहलुओं को समाज के सामने रखने का साधन है, न कि पैसे कमाने का. यहाँ तक कि किसी भी परिस्थिति में मात्र सूचना देना ही पत्रकारिता नहीं है अपितु इसमें स्थितियों व घटनाओं का सापेक्ष विश्लेषण करके उसका सच समाज के सामने प्रस्तुत करना भी पत्रकारिता का दायित्व है.

आज का समाज घटना की छुपी हुई सच्चाई को खोलकर सार्वजनिक करने की उम्मीद पत्रकारों से ही करता है। इस कठिन दौर में भी यदि पत्रकांरिता की विश्वसनीयता बढ़ी है तो उसके पीछे लोगों का उनमें पनपता विश्वास है. गाँव का कम पढ़ा-लिखा मजदूर-किसान तक भी आसपास की घटी घटनाओं को मीडिया में पढ़ने के बाद ही प्रामाणिक मानता है। कहते हैं कि एक सजग पत्रकार की निगाहें समाज पर होती है तो पूरे समाज की निगाहें पत्रकार पर होती है। पर दुर्भाग्यवश अब पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है। सम्पादक खबरों की बजाय 'विज्ञापन' और 'पेड न्यूज' पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। यह दौर संक्रमण का है. हम उन पत्रकारों-लेखकों को नहीं भूल सकते जिन्होंने यातनाएं सहने के बाद भी सच का दमन नहीं छोड़ा और देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया. ऐसे में जरुरत है कि पत्रकारिता को समाज की उम्मीद पर खरा उतरते हुए विश्वसनीयता को बरकरार रखना होगा। पत्रकारिता सत्य, लोकहित में तथा न्याय संगत होनी चाहिए।

' दैनिक जागरण' में 'शब्द-शिखर' की चर्चा

'शब्द शिखर' पर 7 जून , 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'आंधी' से 'राजनीति' तक प्रखर महिलाएं को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के 'फिर से' कालम में 8 जून, 2010 को को स्थान दिया गया है. 'दैनिक जागरण' में पहली बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 22वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

शुक्रवार, 18 जून 2010

खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी (पुण्यतिथि 18 जून पर विशेष)

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था।

क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।

1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हंे मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।

बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुतः 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पंेशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”

रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाॅंध घोडे़ पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहॅंुची, जहाॅं तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।....अन्ततः 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा- ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- ''खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।'' माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- ''चमक उठी सन् सत्तावन में/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलों के मुँह/हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो/झाँसी वाली रानी थी।''

(चित्र में : झाँसी के किले में कड़क बिजली तोप पर सवार पुत्री अक्षिता 'पाखी')

मंगलवार, 15 जून 2010

क्रान्तिकारी परम्परा को सहेजता : शहीद उपवन

हमने-आपने कई तरह के पार्क देखे-सुने होंगे. पर शहीदों की यादों को सहेजता भारत का पहला पार्क कानपुर में है, जिसका नाम शहीद-उपवन है. क्रान्तिकारी परम्परा को सहेजने एवं सांस्कृतिक व ऐतिहासिक चेतना को जागृत करने के उद्देश्य से कानपुर की प्रसिद्ध संस्था ‘‘मानस संगम‘‘ के तत्वाधान में 18 अक्टूबर 1992 को नानाराव पार्क में ’शहीद उपवन‘ की स्थापना क्रान्तिकारी शिव वर्मा की अध्यक्षता में देश के 22 क्रान्तिकारियों के सान्निध्य में हुई थी। गौरतलब है कि नाना साहब, तात्या टोपे व अजीमुल्ला खां ने यहीं से सारे देश में क्रान्ति की अलख जगाई तो कालान्तर में भगत सिंह व ‘आजाद‘ जैसे तमाम क्रान्तिकारियों हेतु यह धरती प्रेरणा-बिन्दु बनी। इस उपवन में 51 शहीदों व क्रान्तिकारियों की मूर्तियों एवं शिलालेखों पर 50 युगान्तरकारी श्रेष्ठ गीतों, प्रतीकों तथा क्रान्तिकारी नारों को सविवरण स्थापित कर स्वाधीनता के इतिहास को अक्षुण्ण रखने का संकल्प लिया गया था, जिनमंे से 9 मूर्तियाँ और 30 शिलालेख वर्तमान में स्थापित किये जा चुके हैं। स्थापित मूर्तियों में तात्या टोपे, मंगल पाण्डेय, झलकारी बाई, अजीजन बाई, मैनावती, शालिगराम शुक्ल, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक व मणीन्द्र नाथ बनर्जी हैं।

शहीद उपवन इस बात को भी दर्शाता है कि स्वाधीनता आन्दोलन की लड़ाई सिर्फ तोप-बन्दूक की ही लड़ाई नहीं थी बल्कि कलम की शक्ति ने भी इस लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेज साहित्य व पत्रकारिता से इतने भयभीत थे कि उन्होंने इन पर तमाम प्रतिबन्ध लगाये। वैसे भी ‘पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है‘ (भगत सिंह)। यहाँ पर उन क्रान्ति गीतों को उकेरा गया है, जिनसे जनमानस में स्वाधीनता की भावना प्रबल हुयी। अजीमुल्लाह खान द्वारा रचित 1857 की क्रान्ति का महाप्रयाण गीत- हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा/यह है आजादी का झण्डा, इसे सलाम हमारा, यहाँ क्रान्तिकारी परम्परा को आगे बढ़ा रहा है तो इकबाल का मशहूर तराना-ए-हिंदी, जो कि ‘हमारा देश’ नाम से कानपुर से मुंशी दया नारायण निगम द्वारा प्रकाशित उर्दू अखबार ‘जमाना’ अखबार में 1904 में प्रकाशित हुआ- सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, भी इसी परम्परा को सहेजे हुए है। पं0 रामप्रसाद बिस्मिल का गीत- सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है, इस उपवन की गरिमा में चार चाँद लगाता है तो क्रान्तिकारियों द्वारा बारंबार गाया गया क्रान्ति गीत- जेल में चक्की घसीटूँ, भूख से हूँ मर रहा/उस समय भी कह रहा बेजार, वंदे मातरम्/मौत के मुँह पर खड़ा हूँ, कह रहा जल्लाद से/पिन्हा दे फांसी का ये गलहार, वंदे मातरम्, अभी भी भुजाओं को फड़काता है और क्रान्ति की ज्वाला जगाता है। अंग्रेजो के विरूद्ध कविता लिखने के कारण तीन वर्ष का करावास पाने वाले प्रथम कवि छैल बिहारी दीक्षित ‘कंटक‘ की उक्त कविता भी यहाँ अंकित है- माँ कर विदा आज जाने दे/रण चढ़ लौह चबाने दे/तेरा रूधिर गर्व से पीते/गोरों को भी वर्षों बीते/नाहक हमें रहे जो जीते/होने दे हुंकार हमारी/दुश्मन को दहलाने दे माँ। श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ द्वारा लिखित झण्डा गीत अभी भी देशभक्ति की भावना लहराता है।
इसके अलावा यहाँ कई अन्य सुप्रसिद्ध साहित्यकारों- माखनलाल चतुर्वेदी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, सुब्रह्मण्यम भारती, कुमार आशान, सुभद्रा कुमार चैहान की उन राष्ट्रभक्ति रचनाओं को स्थान दिया गया है, जो स्वाधीनता आन्दोलन और उसके बाद भी लोगों की जुबां पर गूँजते रहे। नाना साहब के विरूद्ध अंगेजो द्वारा जारी इश्तिहार, जिसमें उनके सर पर एक लाख रूपये का इनाम रखा गया था और कमल-चपाती जैसे प्रतीकों का अंकन शहीद उपवन की अनुपम छटा में चार चाँद लगाते हैं।

वस्तुतः शहीद उपवन का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दीर्घकालिक जीवंत इतिहास ही नहीं बल्कि उसके प्रेरक सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक तत्वों को भी आत्मसात् कर एक ऐसा अद्भुत संग्रहालय बनाना है जिससे आगामी पीढ़ियाँ राष्ट्रीय एकता एवं देशप्रेम की अनुभूतियों के मध्य इतिहास की गरिमा को सहेज सकें और उसे अपने दिलों में स्थान दे सकें। शहीद उपवन स्वाधीनता आन्दोलन की लोक स्मृति और प्रेरणादायी विरासत को जीवंत रखने का प्रयास है।

शनिवार, 12 जून 2010

दक्षिण से मुम्बई आने की राह दिखने वाली प्रथम अभिनेत्री पद्मिनी

राजकपूर की फिल्म 'जिस देश में गंगा बहती है' की कम्मो के सौंदर्य, लावण्य व कमनीयता का जादू इतना गहरा था कि कई प्रेमियों ने अपनी प्रेमिकाओं का नाम ही कम्मो रख दिया। कम्मो यानी हिन्दी फिल्मों की पहली पहली चर्चित दक्षिण भारतीय अभिनेत्री व मशहूर भरतनाट्यम नृत्यांगना. नृत्य की महान रोशनी (नृत्यापेरोली) के नाम से मशहूर पद्मिनी ने हिन्दी, तमिल, मलयालम, तेलुगू व कन्नड़ फिल्मों सहित कुल 250 फिल्मों में काम किया। वैजयन्ती माला, हेमामालिनी, रेखा, श्रीदेवी इत्यादि से बहुत पहले वह दक्षिण से हिन्दी फिल्मों में आयी थीं। जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर और आशिक फिल्मों में शोमैन राजकपूर के साथ उनके बेजोड़़ अभिनय ने लोगों को उनका दीवाना बना दिया।

12 जून 1932 को केरल के तिरूवन्तपुरम के पूजाप्परा में थंकअप्पन पिल्लई और सरस्वती अम्मा की दूसरी बेटी के रूप में जन्मी पद्मिनी ने 1949 में फिल्मी जगत में कदम रखा। बड़ी बहन ललिता व छोटी बहन रागिनी के साथ पद्मिनी 'त्रावणकोर सिस्टर्स' के नाम से मशहूर हुयीं। बचपन से ही नृत्यसाधना में रत पद्मिनी से प्रभावित होकर नर्तक उदयशंकर एवं निर्माता एन0 एस0 कृष्णन ने उन्हें 'कल्पना' फिल्म में लिया। उसके बाद मेरा नाम जोकर, जिस देश में गंगा बहती है और आशिक के अलावा उन्होंने वासना, औरत, काजल, अप्सरा, नन्हा फरिश्ता, चंदा और बिजली तथा मुजरिम जैसी हिन्दी फिल्मों में अपने अभिनय के जौहर दिखाए। देवानन्द की एक फिल्म में पद्मिनी व रागिनी दोनों बहनों ने एक साथ काम किया तो तमिल फिल्म थोथू ठोकी में तीनों बहनों ने यादगार अभिनय किया। पद्मिनी ने राजकपूर, एम0 जी रामचंद्रन, शिवाजी गणेशन, राजकुमार, प्रेम नासिर और देवानन्द जैसे मशहूर अभिनेताओं के साथ अपनी चर्चित जोड़ी बनाई।

जानी-मानी दक्षिण भारतीय अभिनेत्री शोभना, पद्मिनी की भतीजी थीं तो उनकी चचेरी बहनें सुकुमारी व अम्बिका भी दक्षिण भारतीय फिल्मों की बहुचर्चित अभिनेत्रियाँ रही हैं. पद्मिनी ने अभिनय के शीर्ष पर पहुँचकर के0 टी0 रामचंद्रन से शादी पश्चात फिल्मी ग्लैमर की दुनिया को अलविदा कह दिया और अमेरिका में बस गईं. अमेरिका में बसने के पश्चात भी उनकी रचनात्मकता अनवरत् बनी रही तथा उन्होंने अमेरिका में प्रख्यात पद्मिनी स्कूल आॅफ फाइन आर्टस खोला। आज हिन्दी फिल्मों में दक्षिण से आयी हुई कई अभिनेत्रियाँ अपना मुकाम बना चुकी हैं, पर दक्षिण से मुम्बई आने की राह सर्वप्रथम पद्मिनी ने ही दिखायी। पद्मिनी का करीब चार साल पहले 24 सितम्बर 2006 की रात्रि देहावसान हो गया। आज उनकी जन्म-तिथि है...पुनीत स्मरण !!

गुरुवार, 10 जून 2010

बचपन के करीब, प्रकृति के करीब

पं0 नेहरू से मिलने एक व्यक्ति आये। बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा-’’पंडित जी आप 70 साल के हो गये हैं लेकिन फिर भी हमेशा गुलाब की तरह तरोताजा दिखते हैं। जबकि मैं उम्र में आपसे छोटा होते हुए भी बूढ़ा दिखता हूँ।’’ इस पर हँसते हुए नेहरू जी ने कहा-’’इसके पीछे तीन कारण हैं।’’ उस व्यक्ति ने आश्चर्यमिश्रित उत्सुकता से पूछा, वह क्या ? नेहरू जी बोले-’’पहला कारण तो यह है कि मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, जिससे मुझे लगता है कि मैं भी उनके जैसा हूँ। दूसरा कि मैं प्रकृति प्रेमी हूँ और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरना, चाँद, सितारे सभी से मेरा एक अटूट रिश्ता है। मैं इनके साथ जीता हूँ और ये मुझे तरोताजा रखते हैं।’’ नेहरू जी ने तीसरा कारण दुनियादारी और उसमें अपने नजरिये को बताया-’’दरअसल अधिकतर लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसी के बारे में सोचकर अपना दिमाग खराब कर लेते हैं। पर इन सबसे मेरा नजरिया बिल्कुल अलग है और छोटी-छोटी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता।’’ इसके बाद नेहरू जी खुलकर बच्चों की तरह हँस पड़े।

सोचिये , क्या हम भी इस ओर प्रेरित हो सकते हैं- बचपन के करीब, प्रकृति के करीब और छोटी-छोटी बातों में उलझने की बजाय थोडा व्यापक सोच !!

सोमवार, 7 जून 2010

'आंधी' से 'राजनीति' तक प्रखर महिलाएं


आजकल 'राजनीति' फिल्म चर्चा में है. कहा जा रहा है कि यह सोनिया गाँधी कि जिंदगी से प्रेरित है. बहुत पहले एक फिल्म आई थी - आंधी. इसे इंदिरा गाँधी के साथ-साथ तारकेश्वरी सिन्हा से भी प्रेरित बताया गया था. आज जब राजनीति में महिलाओं की भूमिका से लेकर फिल्म 'राजनीति' तक चर्चा में है, तो तारकेश्वरी सिन्हा की याद आना स्वाभाविक भी है. इनके बिना भारत की संसदीय राजनीति में महिला-शक्ति के परचम लहराने का इतिहास अधूरा है। तारकेश्वरी सिन्हा के लिए महिला होने का मतलब सिर्फ घर-गृहस्थी से नहीं, बल्कि देश चलाने से भी था। यही वजह है कि आज भी राजनीति की बात होती है, तो इनका नाम बेहद अदब के साथ जेहन और जुबान तक आता है.

तारकेश्वरी सिन्हा पहली लोकसभा की सबसे युवा सांसद रहीं. मात्र 26 साल की उम्र में सांसद के तौर पर शपथ लेने वाली तारकेश्वरी सिन्हा नेहरू मंत्रिमंडल में उप-वित्त मंत्री भी रहीं। बहुत कम लोगों को पता होगा कि बिहार के बाढ़ संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ने वाली तारकेश्वरी सिन्हा एक कवियत्री और अच्छी लेखिका भी थीं। उन्होंने अपनी यादों को सहेजकर कई संस्मरण भी लिखे। इनमें 'संसद में नहीं हूं, झक मार रही हूं' काफी लोकप्रिय रहा। यह संस्मरण उन्होंने लोकसभा चुनाव हारने के बाद लिखा। जब उनकी उम्र की लड़कियां सजने-संवरने में वक्त गंवा रही थीं, तारकेश्वरी सिन्हा 1942 के आंदोलन में कूद पड़ीं। तब उनकी उम्र सिर्फ 19 साल थी। फिर तो अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कई आंदोलनों में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यही नहीं, तारकेश्वरी सिन्हा उन चंद लोगों में शामिल थीं, जिन्हें नालंदा में महात्मा गांधी की आगवानी करने का मौका मिला था।

कहते हैं कि तारकेश्वरी सिन्हा के घरवालों को उनकी राजनीति में बढ़ती दिलचस्पी पसंद नहीं थी और जब उन्होंने छपरा के एक जमींदार परिवार में शादी की, तो घरवालों को यह सोचकर सुकून मिला कि शादी के बाद तारकेश्वरी सिन्हा राजनीति से दूर हो जाएंगी, पर महत्वाकांक्षी तारकेश्वरी को राजनीति से अलगाव मंजूर नहीं था। फिर तो वह लगातार भारतीय राजनीति में आगे बढ़ती गई। दूसरे शब्दों में कहें तो युवा महिला शक्ति की अलख जगाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। इस बात की तस्दीक इससे भी हो जाती है कि मशहूर गीतकार गुलजार ने फिल्म 'आंधी' के मुख्य किरदार को इंदिरा गांधी के साथ-साथ तारकेश्वरी सिन्हा से भी प्रेरित बताया।

शनिवार, 5 जून 2010

प्रकृति की ओर एक कदम..

आज विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) है. क्या वाकई इस दिवस का कोई मतलब है. लम्बे-लम्बे भाषण-सेमिनार, कार्डबोर्ड पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम...क्या यही पर्यावरण दिवस है ? क्या इतने मात्र से पर्यावरण शुद्ध हो जायेगा. जब हम पर्यावरण की बात करते हें तो यह एक व्यापक शब्द है, जिसमें पेड़-पौधे, जल, नदियाँ, पहाड़ इत्यादि से लेकर हमारा समूचा परिवेश सम्मिलित है. हमारी हर गतिविधि इनसे प्रभावित होती है और इन्हें प्रभावित करती भी है. कभी लोग गर्मी में ठंडक के लिए पहाड़ों पर जाया करते थे, पर वहाँ भी लोगों ने पेड़ों को काटकर रिसोर्ट और होटल बनने आरंभ कर दिए. कोई यह क्यों नहीं सोचता कि लोग पहाड़ों पर वहाँ के मौसम, प्राकृतिक परिवेश कि खूबसूरती का आनंद लेना चाहते हैं, न की कंक्रीटों का. पर लगता है जब तक यह बात समझ में आयेगी तब तक काफी देर हो चुकेगी. ग्लोबल वार्मिंग अपना रंग दिखाने लगी है, लोग गर्मी में 45 पर तापमान के आने का रो रहे हैं, पर इसके लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहता. सारी जिम्मेदारी बस सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं की है. जब तक हम इस मानसिकता से नहीं उबरेंगे, तब तक पर्यावरण के नारों से कुछ नहीं होने वाला है. आइये आज कुछ ऐसा सोचते हैं, जो हम कर सकते हैं. जिसकी शुरुआत हम स्वयं से या अपनी मित्रमंडली से करा सकते हैं. हम क्यों सरकार का मुँह देखें. पृथ्वी हमारी है, पर्यावरण हमारा है तो फिर इसकी सुरक्षा भी तो हमारा कर्त्तव्य है. कुछ बातों पर गौर कीजिये, जिसे मैंने अपने परिवार और मित्र-जनों के साथ मिलकर करने की सोची है, आप भी इस ओर एक कदम बढ़ा सकते हैं-


*फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किये जाएँ.

* स्कूल में बच्चों को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जाय.

* जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगाकर उनका पोषण करें.

*री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोकें और टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग करें.

*पानी और बिजली का अपव्यय रोकें.

*फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करें. शानो-शौकत में बिजली की खपत को स्वत: रोकें.

*सूखे वृक्षों को भी तभी काटा जाय, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाय.

*अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जाएँ, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों. यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी.

(यह एक लम्बी सूची हो सकती है. आप भी इसमें अपने सुझाव दे सकते हैं.)

मंगलवार, 1 जून 2010

प्रति व्यक्ति आय 44345 रुपये...सोचिये जरा ??

केंद्र सरकार के एक साल पूरे हो गए. आज के दौर में यह अपने आप में उपलब्धि है. खैर उसके पीछे न जाने कितने समझौते और ब्लैकमेलिंग छिपी होती हैं, कोई न जाने. अँधेरी राह में एक जुगनू की चमक भी किसी को नव-जीवन दे जाती है. शायद अब मिली-जुली सरकारों का यही सच है.

जिस देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती हो. जहाँ रोज बीस रूपये पर जीने वालों कि आबादी अच्छी तादाद में हो वहाँ यह सुनना कितना कर्णप्रिय लगता है कि भारत में वर्ष 2009-10 में प्रति व्यक्ति आय 10.5 प्रतिशत बढ़कर 44345 रुपये पहुँच गई. पिछले वित्त वर्ष से करीब चार हजार ज्यादा. गौरतलब है कि प्रति व्यक्ति आय का अर्थ प्रत्येक भारतीय की आय से है। राष्ट्रीय आय को देश की 117 करोड़ लोगों की आबादी में समान रूप से बांटकर प्रति व्यक्ति आय निकाला जाता है। सोमवार को जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रति व्यक्ति केंद्रीय सांख्यिकी संगठन [सीएसओ] के अनुमान से थोड़ी ज्यादा है। सीएसओ ने अपने अग्रिम अनुमान में प्रति व्यक्ति आय 43749 रुपये रहने की गणना की थी। हालांकि अगर प्रति व्यक्ति आय की गणना 2004-05 के आधार पर की जाए तो बीते वित्त वर्ष में यह 5.6 प्रतिशत बढ़ी। वर्ष 2004-05 में कीमतों के आधार पर बीते वित्त वर्ष में प्रति व्यक्ति आय 33588 रुपये रही, जबकि इससे पूर्व वर्ष 2008-9 में यह 31821 रुपये थी। गौरतलब है कि वर्ष 2009-10 में अर्थव्यवस्था का आकार बढ़कर 6231171 करोड़ रुपये पर पहुंच गया जो इससे पूर्व वित्त वर्ष के 5574449 करोड़ रुपये के आकार की तुलना में 11.8 प्रतिशत अधिक है।

ये सब आंकड़े पढने जितने दिलचस्प लगते हैं, उनका सच उतना ही भद्दा होता है. बिजनेस मैन और नौकरी वालों को निकाल दीजिये तो शायद यह प्रति व्यक्ति आय हजार और सैकड़े में भी न बैठे. पर यही देश का दुर्भाग्य है आंकड़ों के इस खेल में हम अपनी तीन चौथाई जनता को भुलाये बैठे हैं. कृषि दिनों-ब-दिन घटे का सौदा होती जा रही है, किसान मौत को गले लगा रहे हैं, बिचौलियों की चाँदी है. मॉल संस्कृति ने तो रही-सही कसर ही पूरी कर दी. फिर एक बार अपनी अंतरात्मा पर हाथ रखकर पुच्चिये की क्या वाकई इस देश में प्रति व्यक्ति आय 10.5 प्रतिशत बढ़कर 44345 रुपये पहुँच गई है...सोचियेगा !!