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रविवार, 30 सितंबर 2012

आकांक्षा यादव को 'हिंदी भाषा-भूषण' की मानद उपाधि

युवा कवयित्री, ब्लागर एवं साहित्यकार सुश्री आकांक्षा यादव को हिन्दी साहित्य में प्रखर रचनात्मकता एवं अनुपम कृतित्व के लिए देश-विदेश में प्रतिष्ठित साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक प्रतिष्ठान 'साहित्य-मंडल', श्रीनाथद्वारा ( राजस्थान) द्वारा एक विशिष्ट हिंदी-सेवी के रूप में हिंदी दिवस (14 सितम्बर, 2012 ) पर आयोजित दो दिवसीय सम्मलेन में "हिंदी भाषा-भूषण" की मानद उपाधि से अलंकृत किया गया| उनकी अनुपस्थिति में यह सम्मान उनके पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव ने ग्रहण किया, जिन्हें कि इसी समारोह में ग्यारह हज़ार रूपये के ’’श्रीमती सरस्वती सिंहजी सम्मान-2012’’ से सम्मानित किया गया।
 
 
गौरतलब है कि सुश्री आकांक्षा यादव की आरंभिक रचनाएँ दैनिक जागरण और कादम्बिनी में प्रकाशित हुई और फिलहाल वे देश की शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं. नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली सुश्री आकांक्षा यादव के लेख, कवितायेँ और लघुकथाएं जहाँ तमाम संकलनोंध्पुस्तकों की शोभा बढ़ा रहे हैं, वहीँ आपकी तमाम रचनाएँ आकाशवाणी से भी तरंगित हुई हैं. पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अंतर्जाल पर भी सक्रिय सुश्री आकांक्षा यादव की रचनाएँ इंटरनेट पर तमाम वेब/ई-पत्रिकाओं और ब्लॉगों पर भी पढ़ी-देखी जा सकती हैं. आपकी तमाम रचनाओं के लिंक विकिपीडिया पर भी दिए गए हैं. शब्द-शिखर, सप्तरंगी-प्रेम, बाल-दुनिया और उत्सव के रंग ब्लॉग आप द्वारा संचालित/ ध्सम्पादित हैं. बाल-गीत संग्रह 'चाँद पर पानी' की रचनाकार एवं ‘क्रांति-यज्ञ: 1857-1947 की गाथा‘ पुस्तक का संपादन करने वाली सुश्री आकांक्षा के व्यक्तित्व-कृतित्व पर वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु जी ने ‘‘बाल साहित्य समीक्षा‘‘ पत्रिका का एक अंक भी विशेषांक रुप में प्रकाशित किया है। 
 
सुश्री आकांक्षा यादव को इससे पूर्व भी विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।एक रचनाकार के रूप में बात करें तो सुश्री आकांक्षा यादव ने बहुत ही खुले नजरिये से संवेदना के मानवीय धरातल पर जाकर अपनी रचनाओं का विस्तार किया है। बिना लाग लपेट के सुलभ भाव भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें यही आपकी लेखनी की शक्ति है। उनकी रचनाओं में जहाँ जीवंतता है, वहीं उसे सामाजिक संस्कार भी दिया है।
 
प्रस्तुति - रत्नेश कुमार मौर्या, संयोजक : शब्द-साहित्य, इलाहाबाद.

बुधवार, 5 सितंबर 2012

गुरु-शिष्य की बदलती परंपरा

भारतीय संस्कृति का एक सूत्र वाक्य है-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।‘ अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने की इस प्रक्रिया में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। भारतीय परम्परा में शिक्षा को शरीर, मन और आत्मा के विकास द्वारा मुक्ति का साधन माना गया है। शिक्षा मानव को उस सोपान पर ले जाती है जहाँ वह अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परंपरा रही है।

गुरुब्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।


प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही माँग लिया था। श्री राम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र, तो श्री कृष्ण ने गुरू संदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसी की बदौलत समाज को आतातायियों से मुक्त भी किया। गुरूवर द्रोणाचार्य ने पांडव-पुत्रों विशेषकर अर्जुन को जो शिक्षा दी, उसी की बदौलत महाभारत में पांडव विजयी हुए। गुरूवर द्रोणाचार्य स्वयं कौरवों की तरफ से लड़े पर कौरवों को विजय नहीं दिला सके क्योंकि उन्होंने जो शिक्षा पांडवों को दी थी, वह उन पर भारी साबित हुई। गुरू के आश्रम से आरम्भ हुई कृष्ण-सुदामा की मित्रता उन मूल्यों की ही देन थी, जिसने उन्हें अमीरी-गरीबी की खाई मिटाकर एक ऐसे धरातल पर खड़ा किया जिसकी नजीर आज भी दी जाती है। विश्व-विजेता सिकंदर के गुरू अरस्तू को भला कौन भुला सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तो अपने पुत्र की शिक्षिका को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उसकी शिक्षा में उनका पद आड़े नहीं आना चाहिए। उन्होंने शिक्षिका से अपने पुत्र को सभी शिक्षाएं देने का अनुरोध किया जो उसे एक अच्छा व्यक्ति बनाने में सहायता करती हों।

वस्तुतः शिक्षक उस प्रकाश-स्तम्भ की भांति है, जो न सिर्फ लोगों को शिक्षा देता है बल्कि समाज में चरित्र और मूल्यों की भी स्थापना करता है। शिक्षा का रूप चाहे जो भी हो पर उसके सम्यक अनुपालन के लिए शिक्षक का होना निहायत जरूरी है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि चरित्र विकास, अनुशासन, संयम और तमाम सद्गुणों के साथ अपने को अप-टू-डेट रखने का माध्यम भी है। कहते हैं बच्चे की प्रथम शिक्षक माँ होती है, पर औपचारिक शिक्षा उसे शिक्षक के माध्यम से ही मिलती है। प्रदत शिक्षा का स्तर ही व्यक्ति को समाज में तदनुरूप स्थान और सम्मान दिलाता है। शिक्षा सिर्फ अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का पर्याय नहीं हो सकती बल्कि एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों का दिलो-दिमाग भी चुस्त-दुरुस्त बनाकर उसे वृहद आयाम देता है। शिक्षक का उद्देश्य पूरे समाज को शिक्षित करना है। शिक्षा एकांगी नहीं होती बल्कि व्यापक आयामों को समेटे होती है।

आजादी के बाद इस गुरू-शिष्य की दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डा0 राधाकृष्णन ने कहा कि- ”मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूँगा।” तब से लेकर हर 5 सितम्बर को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाया जाता है। डा0 राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने का हकदार वही है, जो लोगों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता हैै। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डा. राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते थे। यह डा0 राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।

वर्तमान परिपे्रक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। यही नहीं तमाम शिक्षक अपनी नैतिक मर्यादायें तोड़कर छात्राओं के साथ अश्लील कार्यों में लिप्त पाये गये। आज न तो गुरू-शिष्य की परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।

आज शिक्षा को हर घर तक पहुँचाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जा रहे है, पर इसी के साथ शिक्षकों की मनःस्थिति के बारे में भी सोचने की जरूरत है। शिक्षकों को भी वह सम्मान मिलना चाहिए, जिसके वे हकदार हैं। शिक्षक, शिक्षा (ज्ञान) और विद्यार्थी के बीच एक सेतु का कार्य करता है और यदि यह सेतु ही कमजोर रहा तो समाज को खोखला होने में देरी नही लगेगी। देश का शायद ही ऐसा कोई प्रांत हो, जहाँ विद्यार्थियों के अनुपात में अध्यापकों की नियुक्ति हो, फिर शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधरे ? अभी भी देश में छात्र शिक्षक अनुपात 32: 1 है, जबकी 324 ऐसे जिले हैं जिनमें छात्र शिक्षक अनुपात 3:1 से कम है। देश में नौ फीसदी स्कूल ऐसे हैं जिनमें केवल एक शिक्षक हैं तो 21 फीसदी ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है। मतगणना-जनगणना से लेकर अन्य तमाम कार्यों में शिक्षकों की ड्यूटी भी उन्हें मूल शिक्षण कार्य से विरत रखती है। ऐसे में जब शिक्षा की नींव ही कमजोर होगी, तो विद्यार्थियों का उन्नयन कैसे होगा, यह एक गंभीर समस्या है।

‘शिक्षक दिवस‘ एक अवसर प्रदान करता है जब हम समग्र रूप में शिक्षकों की भूमिका व कर्तव्यों पर पुनर्विचार कर सकें और बदलते प्रतिमानों के साथ उनकी भूमिका को और भी सशक्त रूप दे सकें।

(डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 5 सितम्बर 2012 में प्रकाशित मेरा आलेख)

- आकांक्षा यादव