अंग्रेज जाते-जाते 'बाँटो और राज करो' की नीति भारतीय भाषाओं पर भी लागू कर गए। तभी तो आजादी के छः दशकों के बाद भी हिंदी को अपना गौरव नहीं मिला। आज भी हिंदी का सबसे अधिक विरोध अपने देश भारत में ही होता है। आजादी के दौरान हिंदी का सबसे अधिक समर्थन गैर-हिंदी भाषियों मसलन-महात्मा गाँधी, डा. अम्बेडकर, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी और काका कालेलकर जैसे लोगों ने किया, पर दुर्भाग्य देखिये कि आजादी के बाद अ-हिन्दी राज्य अभी भी अपनी भाषाई लड़ाई हिंदी से ही मानते हैं और इन सबके बीच अंग्रेजी आराम से राज कर रही है। अंग्रेजी की 'बाँटो और राज करो' नीति ने कभी भी भारतीय भाषाओं को यह सोचने का मौका नहीं दिया कि, वे एक हैं और उन्हें मिलकर अंग्रेजी को बाहर करना है। संविधान में भी किन्तु-परन्तु के साथ अंग्रेजी को ही बढ़ावा दिया गया है। हम एक सम्प्रभु राष्ट्र होने का दावा करते हैं पर हमारा संविधान कहीं भी 'राष्ट्रभाषा' का जिक्र नहीं करता। यहाँ तक कि अब सी-सैट के बहाने देश के भावी प्रशासकों को भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं से दूर किया जा रहा है। साठ करोड़ लोगों की भाषा हिंदी अपने ही अस्तित्व के लिए अपनी सहोदर भारतीय भाषाओं से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है और सात समुद्र पार की भाषा अंग्रेजी 'बाँटो और राज करो' की नीति की अपनी सफलता को देखते हुए मन ही मन मुस्कुरा रही है !!
(विदेशों में भी पताका फहरा रही है हिंदी - कृष्ण कुमार यादव का डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 14 सितम्बर 2014(हिंदी दिवस) के अंक में प्रकाशित लेख)
(विदेशों में भी हिंदी की पताका - कृष्ण कुमार यादव का जनसंदेश टाइम्स, 14 सितम्बर 2014 (हिंदी दिवस) के अंक में प्रकाशित लेख)
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