सिंघम, मर्दानी, कटियामार.......आजकल पुलिस से लेकर बिजली अधिकारी तक इन फिल्मों से प्रेरणा ले रहे हैं। मंत्री से लेकर सीनियर आफिसर्स तक अपने अधीनस्थों को इन फिल्मों को देखने की सलाह दे रहे हैं। यहाँ तक कि कुछेक जगहों पर सरकारी खर्च पर इन फिल्मों को अधिकारियों-कर्मचारियों को दिखाने का प्रबन्ध भी किया गया।
कभी फिल्में समाज का आइना होती थीं। प्रशासन या समाज के वास्तविक चरित्र कहीं न कहीं इन फिल्मों में दिख जाते थे। पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब प्रशासन फिल्मों के नायक-नायिकाओं से प्रेरणा ले रहा है। क्या वास्तविक जीवन के पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों में ऐसा कोई नहीं हैं जो फिल्मी नायक-नायिकाओं की बजाय वास्तविक जीवन में प्रेरणा बन सके।
बेहतर तो यही होता कि फिल्मी परदे पर नायक-नायिकाओं को देखकर उत्साहित होने कीे बजाय हम अपने बीच में से वास्तविक नायक-नायिकाओं की पहचान करते व उन्हें पूरा समर्थन देते। पिक्चर हाल में फिल्में देखते समय साधारण मनुष्य भी अपने को इन नायक-नायिकाओं से एकाकर लेता है। परंतु बाहर कदम रखते ही सारे जज्बात हवा हो जाते हैं।
इस संबंध में ’मैरी काॅम’ जैसी फिल्म की सराहना होनी चाहिए जो कि वास्तविक जीवन की मुक्केबाज खिलाड़ी पर आधारित है, जिसने तमाम परंपरागत लकीरों को ठुकराकर नये आयाम रचे। काश प्रशासन मणिपुर में इस फिल्म को दिखाने की हिम्मत कर पाता !!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें