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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

इंस्टाग्राम पर आपत्तिजनक कंटेंट नहीं देख सकेंगे किशोर

डिजिटल युग में सोशल मीडिया आज जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। बच्चा हो या बड़ा, सबकी दिनचर्या का एक अहम समय इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब और अन्य प्लेटफॉर्म्स पर बीतता है। लेकिन जैसे-जैसे इस आभासी दुनिया की चमक बढ़ी है, वैसे-वैसे इससे जुड़े खतरे भी गहराते गए हैं। सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं किशोर, जिनकी सोच, मनोवृत्ति और व्यवहार अभी विकसित हो ही रहे हैं। सोशल मीडिया की चकाचौंध में खोए किशोरों के लिए यह प्लेटफॉर्म कभी-कभी सीख का माध्यम तो बनता है, परंतु कई बार यह मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक असंतुलन का कारण भी बन जाता है। इन्हीं चिंताओं को देखते हुए इंस्टाग्राम की मूल कंपनी मेटा ने एक बड़ा कदम उठाया है। कंपनी ने घोषणा की है कि अब 18 वर्ष से कम आयु के किशोर अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर आपत्तिजनक या अनुचित कंटेंट नहीं देख पाएंगे।

यह फैसला केवल तकनीकी नहीं बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। किशोरावस्था वह समय है जब व्यक्ति का मन सबसे संवेदनशील होता है। इस उम्र में जो कुछ देखा, सुना और महसूस किया जाता है, वही आने वाले जीवन की दिशा तय करता है। सोशल मीडिया पर हिंसक, यौन संकेतक या अवसादपूर्ण सामग्री तक आसान पहुँच बच्चों को अनजाने में ऐसे रास्ते पर ले जाती है जहाँ से लौटना कठिन हो जाता है। आत्महत्या की प्रवृत्ति, अवसाद, असुरक्षा और आत्मसम्मान की कमी जैसी मानसिक समस्याएँ सोशल मीडिया की असंयमित दुनिया से गहराई तक जुड़ी हुई हैं। ऐसे में मेटा का यह निर्णय निश्चय ही एक जिम्मेदार पहल है।

मेटा ने यह नीति ऐसे समय में बनाई है जब दुनिया भर में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर बहस चल रही है। कई देशों की संसदों और अदालतों में सोशल मीडिया कंपनियों से यह पूछा गया कि वे नाबालिगों की मानसिक सुरक्षा के लिए क्या कदम उठा रही हैं। इंस्टाग्राम पर किशोरों की ऑनलाइन सुरक्षा को लेकर कंपनी पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। अमेरिकी कांग्रेस से लेकर ब्रिटिश संसदीय समितियों तक में यह मुद्दा गूंज चुका है। मेटा के पूर्व कर्मचारियों ने भी यह खुलासा किया था कि इंस्टाग्राम का एल्गोरिद्म किशोरों को अधिक समय तक प्लेटफॉर्म से जोड़ने के लिए जानबूझकर ऐसे कंटेंट सुझाता है जो मानसिक रूप से अस्थिर कर सकता है। आलोचनाओं के बाद कंपनी ने ‘पैरेंटल सुपरविजन टूल्स’ शुरू किए थे, लेकिन वे सीमित थे। अब कंपनी ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए “PG-13 आधारित कंटेंट फ़िल्टरिंग सिस्टम” लागू करने का निर्णय लिया है।

इस नई व्यवस्था के तहत माता-पिता को यह अधिकार होगा कि वे अपने बच्चों की गतिविधियों पर निगरानी रख सकें। 18 वर्ष से कम आयु के यूजर्स को इंस्टाग्राम पर वह सामग्री स्वतः ही नहीं दिखाई देगी जो हिंसक, यौन या आत्मघाती प्रवृत्ति वाली हो। यह प्रणाली फ़िल्टर के माध्यम से काम करेगी जो हॉलीवुड फिल्मों की PG-13 रेटिंग प्रणाली की तरह होगी। जैसे किसी फिल्म को यह रेटिंग तब दी जाती है जब वह 13 वर्ष से ऊपर के बच्चों के लिए उपयुक्त मानी जाती है, वैसे ही अब इंस्टाग्राम पर भी कंटेंट की उपयुक्तता उसी मानक से तय की जाएगी। कंपनी का दावा है कि यह फीचर पहले अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में लागू होगा और वर्ष के अंत तक भारत सहित दुनिया भर में लागू कर दिया जाएगा।

यह कदम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत सोशल मीडिया यूजर्स के मामले में दुनिया के शीर्ष देशों में है। लाखों किशोर रोजाना इंस्टाग्राम पर सक्रिय हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे सेल्फी पोस्ट करने, रील्स बनाने और लाइक्स पाने की दौड़ में इतने उलझ गए हैं कि वास्तविक जीवन की संवेदनाएं और प्राथमिकताएं पीछे छूटती जा रही हैं। किशोरों का आत्ममूल्य अब इस बात से तय होने लगा है कि उन्हें कितने फॉलोअर्स मिले, कितने लोगों ने उनकी पोस्ट को पसंद किया। यह सामाजिक स्वीकृति का नया और खतरनाक रूप है। जब किसी पोस्ट पर अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिलती, तो किशोर आत्मग्लानि और अवसाद में डूबने लगते हैं। कई बार इसी निराशा में वे आत्मघाती कदम तक उठा लेते हैं। ऐसे में अगर इंस्टाग्राम किशोरों को आपत्तिजनक सामग्री से दूर रख सके तो यह उनके मानसिक संतुलन और भावनात्मक विकास के लिए अत्यंत लाभकारी होगा।

माता-पिता भी इस कदम से राहत महसूस करेंगे। अब उन्हें यह डर नहीं रहेगा कि उनका बच्चा गलती से किसी गलत दिशा में जा रहा है या अश्लील सामग्री के प्रभाव में आ रहा है। “सीमित कंटेंट सेटिंग्स” के ज़रिए वे यह तय कर पाएंगे कि उनके बच्चे को क्या दिखना चाहिए और क्या नहीं। इससे पारिवारिक संवाद भी बेहतर होगा क्योंकि अभिभावक अब निगरानी के साथ-साथ मार्गदर्शन की भूमिका निभा सकेंगे। बच्चों को भी यह एहसास होगा कि सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी से इस्तेमाल करने का प्लेटफॉर्म है।

फिर भी यह नीति तभी सफल होगी जब तकनीकी सुरक्षा के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता भी बढ़े। केवल फिल्टर लगाने से समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं होगी। बच्चे हमेशा तकनीक से एक कदम आगे रहते हैं। वे प्रतिबंधों को पार करने के तरीके खोज लेते हैं। इसलिए आवश्यक है कि स्कूलों, परिवारों और समाज में डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया जाए। बच्चों को यह समझाया जाए कि क्या सही है, क्या गलत है और क्यों कुछ चीज़ें सीमित की जा रही हैं। जब तक उन्हें कारणों की समझ नहीं होगी, वे प्रतिबंधों को नियंत्रण नहीं बल्कि विरोध के रूप में देखेंगे।

यह भी विचारणीय है कि “आपत्तिजनक सामग्री” की परिभाषा हर समाज और संस्कृति में अलग-अलग हो सकती है। जो एक देश में अनुचित माना जाता है, वह दूसरे में सामान्य हो सकता है। इसलिए वैश्विक स्तर पर लागू होने वाले ऐसे नियमों के लिए सांस्कृतिक विविधता और स्थानीय भावनाओं का ध्यान रखना आवश्यक है। मेटा को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके एल्गोरिद्म स्थानीय भाषाओं और समाज की संवेदनशीलता को समझ सकें। भारत जैसे बहुभाषी देश में यह एक बड़ी चुनौती होगी।

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि सोशल मीडिया कंपनियों की प्राथमिकता प्रायः मुनाफा होती है, न कि नैतिकता। अधिक यूजर्स का मतलब अधिक विज्ञापन और अधिक राजस्व। ऐसे में किशोरों को प्लेटफॉर्म से दूर रखना या उनके कंटेंट को सीमित करना कंपनी के आर्थिक हितों के विपरीत जा सकता है। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि मेटा इस नई नीति को कितनी गंभीरता से लागू करता है। यदि यह केवल दिखावटी कदम साबित हुआ तो इसका उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।

सोशल मीडिया के नियमन की यह वैश्विक पहल सरकारों के लिए भी एक संकेत है। डिजिटल दुनिया इतनी प्रभावशाली हो चुकी है कि अब केवल नैतिक अपीलों से काम नहीं चलेगा। जैसे फिल्मों, विज्ञापनों और टीवी कार्यक्रमों पर सेंसरशिप की एक व्यवस्था होती है, वैसे ही सोशल मीडिया के लिए भी संतुलित और स्वतंत्र निगरानी संस्थान आवश्यक हैं। सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कंपनियां केवल नीतियां घोषित न करें बल्कि उनके पालन के लिए पारदर्शी तंत्र भी बनाएं। अभिभावकों को भी सशक्त किया जाए कि वे अपने बच्चों की डिजिटल आदतों पर नज़र रख सकें।

किशोरों को यह समझाने की ज़रूरत है कि इंस्टाग्राम पर लाइक्स या फॉलोअर्स से उनकी असली पहचान तय नहीं होती। आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और सामाजिक सहयोग ही जीवन के सच्चे मूल्य हैं। डिजिटल दुनिया असली दुनिया का विकल्प नहीं हो सकती। अगर बच्चे यह समझ जाएँ कि सोशल मीडिया एक साधन है, साध्य नहीं, तो उसकी सकारात्मक क्षमता अपार है।

मेटा का यह निर्णय केवल तकनीकी सुधार नहीं बल्कि एक मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की ओर संकेत करता है। आज जब दुनिया के कई हिस्सों में किशोर आत्महत्या, साइबर बुलिंग और ऑनलाइन शोषण के शिकार हो रहे हैं, तब ऐसी पहलें उम्मीद की किरण बनती हैं। लेकिन इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि सोशल मीडिया कंपनियाँ पारदर्शिता बरतें। माता-पिता को नियमित रिपोर्ट्स मिलें, बच्चे स्वयं अपने डिजिटल व्यवहार का मूल्यांकन करें और शिक्षण संस्थान इस विषय को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं।

कई अध्ययनों में यह साबित हुआ है कि सोशल मीडिया की अधिकता से किशोरों में चिंता, नींद की कमी और आत्मसंतुष्टि में गिरावट आती है। लगातार दूसरों से तुलना करने की प्रवृत्ति उन्हें हीनभावना की ओर धकेल देती है। “परफेक्ट बॉडी”, “ग्लैमरस लाइफस्टाइल” और “फिल्टर की दुनिया” में वे असलियत से कटते चले जाते हैं। मेटा यदि अपने नए सिस्टम के ज़रिए इन खतरों को कम कर सके तो यह समाज के लिए बड़ी उपलब्धि होगी।

हालाँकि, इसे केवल किशोरों तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। वयस्कों के लिए भी सोशल मीडिया पर नियंत्रण आवश्यक है। फेक न्यूज़, घृणास्पद भाषण और गलत सूचनाएँ अब लोकतंत्र के लिए चुनौती बन चुकी हैं। इसलिए इस दिशा में मेटा की पहल अन्य प्लेटफॉर्म्स के लिए भी मिसाल बन सकती है।

अंततः कहा जा सकता है कि यह निर्णय किशोरों की सुरक्षा, मानसिक स्वास्थ्य और नैतिक विकास के लिए अत्यंत सराहनीय कदम है। तकनीक तभी सार्थक होती है जब वह मानवता की भलाई के लिए काम करे। मेटा का यह कदम इसी भावना का विस्तार है। आने वाले समय में यदि यह नीति पूरी गंभीरता और पारदर्शिता से लागू होती है, तो यह न केवल किशोरों बल्कि समाज के हर वर्ग के लिए एक स्वस्थ डिजिटल संस्कृति की दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन साबित होगी।

 ✍️ डॉ सत्यवान सौरभ


 

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

छठ मइया व भगवान सूर्य की स्तुति का महापर्व "छठ पूजा"

 ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजो राशे जगत्पते, 
अनुकंपयेमां भक्त्या, गृहाणार्घय दिवाकर:।


छठ पूजा सिर्फ एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि पर्यावरण के साथ सद्भाव में रहने का एक अनूठा उदाहरण है। यह हमें याद दिलाता है कि प्रकृति का सम्मान करके ही हम एक स्वस्थ और समृद्ध जीवन जी सकते हैं, साथ ही यह हमें मातृ शक्ति के त्याग, समर्पण और प्रेम के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है। भोर की शीतल किरणों संग जब श्रद्धालु माताएँ और बहनें आस्था के सागर में खड़ी होती हैं, तो लगता है मानो पूरी प्रकृति भी उनके संकल्प में सहभागी हो गई हो। छठ मइया के इस पावन पर्व पर हर अर्घ्य, हर दीपक, और हर व्रती की भक्ति, सूर्य भगवान तक पहुँचकर सबके जीवन में नई ऊर्जा और प्रकाश भर देती है।


उदयमान सूर्य को नमन करने वाले संपूर्ण धरा में भारत ही एकमात्र देश है जहाँ अस्तांचलगामी भगवान् भास्कर को भी पूर्ण कृतज्ञतापूर्वक अर्घ्य समर्पित करने की परंपरा है। जीवन भर दिन भर अपने तेज़ से सम्पूर्ण पृथ्वी को दीप्त करने के पश्चात् जब भगवान भास्कर निस्तेज होकर पश्चिम दिशा की ओर प्रवर्तित होते हैं, तब उन्हें प्रकृति तत्वों सहित प्रणाम करना हमारे संस्कारों में निहित कृतज्ञता के अनुपम दर्शन का साक्षात् उदाहरण है। 

दुनिया कहती है - जिसका उदय होता है, उसका अस्त होना तय है।
पर छठ महापर्व सिखाता है कि प्रकृति के सान्निध्य में, आस्था, परिवार और एकता जब साथ हों,
तो अस्त होता सूरज भी केवल उदय की तैयारी करता है।
छठ महापर्व हमें याद दिलाता है कि हर अंत एक नई शुरुआत का संकेत है - 
जब डूबते सूरज को भी श्रद्धा से नमन किया जाए,
तो जीवन की हर कठिनाई भी नई रोशनी का मार्ग बना देती है।
यह पर्व केवल उपवास नहीं,
बल्कि संयम, समर्पण और सकारात्मकता की वह शक्ति है
जो हमें सिखाती है - 
कि जिसका “अस्त” होता है, उसका “उदय” होना निश्चित है। 

एक ऐसी पूजा
जिसमें कोई पुजारी नहीं होता
जिसमें देवता प्रत्यक्ष हैं
जिसमें डूबते सूर्य को भी पूजते हैं
जिसमें व्रती जाति समुदाय से परे होता है
जिसमें लोकगीत गाये जाते हैं
पकवान घर में ही बनाये जाते हैं
जिसमें घाट पर कोई ऊँच-नीच नहीं है
जिसका प्रसाद अमीर-गरीब सब श्रद्धा से ग्रहण करते हैं
ऐसे सामाजिक सौहार्द, सद्भाव, शांति-समृद्धि और सादगी का महापर्व है ये छठ। 

 "संपूर्ण धरा के शक्ति पुंज एवं जीवन आधार भगवान भास्कर को नमन, सूर्य देव से प्रार्थना है वो हम सब को अपनी तरह गतिमान रखे, अपनी लालिमा और ऊर्जा से हमें सिंचित करते रहे, धरती मां के परिक्रमा एवं हमारी माताओं के त्याग और व्रत का फल इस प्रकार हमें प्राप्त हो कि धरती मां के साथ - साथ हमारी माताओं को कोई कष्ट ना हो, वो हर प्रकार से स्वस्थ वा प्रसन्न रहें। सायंकालीन जलाराधना में प्रविष्ट होकर अस्तसन्न भगवान् भास्कर से कल्याण-कामना में सहभागी समस्त व्रतियों का सौभाग्य अक्षुण्ण रहे,अनुष्ठान का फल समस्त प्रियजन और इष्टमित्रों तक अभिलषित रूप में पहुँचे। छठ मइया व भगवान् सूर्य की स्तुति के महापर्व "छठ पूजा" की हार्दिक शुभकामनाएं। लोक आस्था, आत्मिक शुद्धि व प्रकृति के साथ जुड़ाव के इस महापर्व पर माता छठी सभी को पारिवारिक सुख समृद्धि, यश वैभव व दीर्घायु प्रदान करें। छठी मैया के साथ - साथ विश्व के संपूर्ण मातृ शक्ति को नमन!"

 - आकांक्षा यादव-
 

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

राजा हरिश्चंद्र की विवाह स्थली : 'हरिश्चंद्र चोरी' शामलाजी, गुजरात

राजा हरिश्चन्द्र  के बारे में हम सभी ने स्कूल के दिनों में खूब पढ़ा है। राजा हरिश्चन्द्र की कहानी सत्य, निष्ठा और धर्म के पालन पर आधारित है। अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र को महर्षि विश्वामित्र ने स्वप्न में राज्य दान करने की प्रतिज्ञा पूरी करवाने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद, उन्होंने अपने परिवार के साथ राज्य छोड़ दिया और जब उन्हें विश्वामित्र ने दक्षिणा के रूप में सोने के सिक्के माँगे तो वे उस दक्षिणा को चुकाने के लिए अपना राज्य, पत्नी और पुत्र सब कुछ बेच देते हैं। राजा हरिश्चन्द्र को श्मशान में कर वसूलने का काम मिलता है और वहाँ वे अपने पुत्र रोहिताश्व की मृत्यु होने पर भी रानी तारामती से कर मांगते हैं। उनकी इस परीक्षा में सफल होने के बाद, भगवान और विश्वामित्र प्रसन्न होकर उन्हें उनका राज्य और परिवार वापस कर देते हैं।  

पिछले दिनों गुजरात स्थित शामला जी सपरिवार जाना हुआ तो स्थानीय लोगों ने बताया कि 'हरिश्चंद्र चोरी' अवश्य जाइएगा। फिर क्या था, हम सभी वहां पहुँच गए।  प्रकृति की खूबसूरती के बीच शाम को यहाँ का दृश्य देखते ही बनता है। आँखों के सामने राजा हरिश्चंद्र और रानी तारामती की कहानी चलचित्र की तरह घूम गई।पुरातत्व विभाग, गुजरात ने इसे बखूबी सहेज कर रखा है। बचपन के वे दिन याद आ गए जब हम बाइस्कोप में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी चलचित्र रूप में देखा करते थे। इसी बहाने बच्चों को भी उन पौराणिक और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों/घटनाओं से रूबरू कराने का सुअवसर मिलता है। 



बहुत ही कम लोगों को पता है कि गुजरात और राजस्थान सीमा पर स्थित शामलाजी में एक ऐसी जगह 'हरिश्चंद्र चोरी' है, जहाँ राजा हरिश्चंद्र का रानी तारामती से विवाह हुआ था – और वो जगह आज भी मौजूद है! गुजराती भाषा में ‘चोरी’ का अर्थ विवाह मंडप होता है, जहाँ दंपत्ति विवाह के समय पवित्र अग्नि के चारों ओर फेरे लगाते हैं। 

 






  
 



यहाँ स्थित उत्कृष्ट 10वीं शताब्दी का तोरण गुजरात का सबसे प्राचीन तोरण माना जाता है। यह मंदिर भी उसी काल का है और यह विश्वास किया जाता है कि यहीं पर पौराणिक राजा हरिश्चंद्र का विवाह हुआ था। मंदिर के गर्भगृह के द्वार को बेल-बूटों, कमलपत्रों और एक ऐसी पवित्र लता से सजाया गया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह मनोकामनाएँ पूरी करती है। द्वार के आधार पर बनी दो स्त्री मूर्तियाँ गंगा और यमुना नदियों का प्रतीक हैं।

  

(Harishchandra Chori, Shamlaji (Associated with legend): The exquisite 10th century torana here is the oldest in Gujarat. The temple, attributed to the same period, is named in the belief that the legendary king Harishchandra was married here.The sanctum doorway is adorned with bands comprising a creeper, lotus leaves and the vine which is supposed to grant wishes. The two female figures at its base represent Ganga and Yamuna. 'Chori' in Gujarati means the marriage pavilion where a couple goes around the ritual fire during the wedding ceremony.)
 


बुधवार, 20 अगस्त 2025

भारत@79: अटूट शक्ति की ओर..... "79 वर्षों की यात्रा से विश्व-नेतृत्व की दहलीज़ तक — भारत का समय अब है।"

"उन्नासी वर्ष की यात्रा में भारत ने संघर्ष से सफलता, और सफलता से नेतृत्व की राह तय की है। आज हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र, उभरती अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक महाशक्ति के रूप में खड़े हैं। परंतु असली लक्ष्य अभी बाकी है — शिक्षा में नवाचार, आत्मनिर्भर कृषि-उद्योग, स्वदेशी रक्षा, स्वच्छ ऊर्जा और सामाजिक एकता के पाँच स्तंभ हमें विश्व नेतृत्व की ओर ले जाएंगे। यह समय उत्सव का भी है और संकल्प का भी, ताकि भारत न केवल अपने लिए, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए विकास और शांति का मार्गदर्शक बने।" 

उन्नासी वर्ष पहले, आधी रात के सन्नाटे में जब भारत ने स्वतंत्रता का पहला श्वास लिया, तो वह केवल एक राजनीतिक घटना नहीं थी। वह एक संपूर्ण सभ्यता के पुनर्जन्म का क्षण था। तिरंगा जब लाल किले की प्राचीर पर लहराया, तो हर गाँव, हर शहर, हर हृदय में आत्मसम्मान का एक दीप जल उठा। यह दीप केवल एक दिन के लिए नहीं था; इसे जलाए रखना हमारी पीढ़ियों की जिम्मेदारी बन गई।

आज हम उस गौरवशाली यात्रा के उन्नासी वर्ष पूरे कर चुके हैं। इस दौरान हमने अनगिनत उपलब्धियाँ हासिल कीं — वैज्ञानिक प्रगति, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और लोकतांत्रिक मजबूती। परंतु, क्या हम इस यात्रा को केवल अतीत की गौरवगाथा के रूप में देखेंगे, या इसे विश्व नेतृत्व की ठोस राह में बदलेंगे? भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पर असली चुनौती है — हमारा यह सामर्थ्य मानवता के हित में किस तरह दिशा पाए। विश्व-नेतृत्व की ओर बढ़ने के लिए हमें पाँच मूल स्तंभों पर ध्यान केंद्रित करना होगा: शिक्षा से नवाचार तक, आत्मनिर्भर कृषि-उद्योग, स्वदेशी रक्षा सामर्थ्य, स्वच्छ ऊर्जा नेतृत्व, और अटूट सामाजिक एकता।

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली ने साक्षरता के स्तर को बढ़ाया है, पर यह पर्याप्त नहीं है। हमें शिक्षा को सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई तक सीमित न रखकर ज्ञान, कौशल और शोध आधारित प्रणाली बनानी होगी। विद्यालय और विश्वविद्यालय शोध और नवाचार के केंद्र बनें। तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को मज़बूत किया जाए ताकि युवा केवल नौकरी खोजने वाले नहीं, बल्कि नौकरी पैदा करने वाले बनें। प्राथमिक स्तर से ही आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया जाए। यदि हम अपने युवाओं को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाएँ, तो यही पीढ़ी भारत को आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति बना सकती है।

भारत की रीढ़ उसकी कृषि है। परंतु, आधुनिक भारत में केवल पारंपरिक खेती से हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे नहीं बढ़ सकते। कृषि में वैज्ञानिक तकनीक, सिंचाई के आधुनिक साधन, और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना होगा। किसानों को उचित मूल्य और बाजार तक सीधी पहुँच मिलनी चाहिए। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और ग्रामीण आधारित लघु-उद्योगों को बढ़ावा देकर गाँव को ही उत्पादन और निर्यात का केंद्र बनाया जाए। जब कृषि और उद्योग साथ मिलकर आत्मनिर्भर बनेंगे, तो भारत की आर्थिक नींव अटूट हो जाएगी।

रक्षा केवल सीमाओं की सुरक्षा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और तकनीकी श्रेष्ठता का प्रतीक भी है। हमें विदेशी हथियारों के आयातक से स्वदेशी तकनीक के निर्यातक बनने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। रक्षा अनुसंधान संस्थानों और निजी उद्योगों में साझेदारी से अत्याधुनिक हथियार, ड्रोन, और साइबर सुरक्षा प्रणालियाँ विकसित की जाएँ। रक्षा उत्पादन में बढ़ी हुई आत्मनिर्भरता न केवल हमारी सुरक्षा को मजबूत करेगी, बल्कि रक्षा निर्यात से विदेशी मुद्रा भी लाएगी। भारत को केवल अपने लिए नहीं, बल्कि मित्र राष्ट्रों के लिए भी सुरक्षा समाधान का केंद्र बनना चाहिए।

21वीं सदी में ऊर्जा का भविष्य स्वच्छ और नवीकरणीय स्रोतों पर निर्भर है। सौर, पवन, और जैव ऊर्जा में अग्रणी बनकर भारत जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में उदाहरण पेश कर सकता है। गाँव-गाँव तक सौर पैनल और माइक्रोग्रिड तकनीक पहुँचाई जाए। स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में शोध और स्टार्टअप को सरकारी प्रोत्साहन मिले। इससे न केवल पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, बल्कि भारत ऊर्जा के क्षेत्र में एक वैश्विक नेता के रूप में उभरेगा।

आर्थिक और तकनीकी प्रगति तभी टिकाऊ है, जब समाज एकजुट हो। जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर बँटवारा हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। विविधता को केवल पाठ्यपुस्तक की पंक्तियों में नहीं, बल्कि व्यवहार और नीतियों में जीना होगा। हर नागरिक को समान अवसर और सम्मान मिले, यही लोकतंत्र का असली मापदंड है। भारत की सभ्यता ने सदियों से सहिष्णुता, करुणा और सहयोग की शिक्षा दी है। इन मूल्यों को नीतियों और कूटनीति का आधार बनाना होगा।

79 वर्षों की यात्रा ने हमें यह सिखाया है कि प्रगति कोई स्थायी मंज़िल नहीं, बल्कि निरंतर प्रयास का परिणाम है। अशोक चक्र के 24 आरे हमें यह याद दिलाते हैं कि राष्ट्र की गति कभी रुकनी नहीं चाहिए। आज का भारत मंगल और चंद्रमा को छू चुका है, वैश्विक खेलों और संस्कृति में अपनी पहचान बना चुका है, और तकनीक व विज्ञान में नई ऊँचाइयाँ छू रहा है। लेकिन इन उपलब्धियों को टिकाऊ और व्यापक बनाने के लिए दीर्घकालिक दृष्टि और अटूट इच्छाशक्ति चाहिए।

जब हम तिरंगे को लहराते हैं, तो केसरिया रंग हमें साहस का संदेश देता है — सही निर्णय लेने और कठिन सुधार लागू करने का साहस। सफ़ेद हमें सत्य और पारदर्शिता की याद दिलाता है, जो लोकतंत्र की आत्मा है। हरा हमें सतत विकास का आह्वान करता है, और अशोक चक्र हमें सतत गति का प्रतीक बनकर प्रेरित करता है।

यह उन्नासीवाँ स्वतंत्रता दिवस केवल उत्सव का दिन नहीं है। यह संकल्प का क्षण है कि भारत न केवल अपनी सीमाओं की रक्षा करेगा, बल्कि दुनिया को शांति, संतुलन और विकास का मार्ग दिखाएगा। यह समय है जब हम अपने अतीत से प्रेरणा लेकर, वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकारते हुए, भविष्य को आकार दें। भारत का समय अब है — और हमें यह कदम दृढ़ता से उठाना होगा।

-डॉo सत्यवान सौरभ, 
(कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार)
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148, 01255281381

सोमवार, 28 जुलाई 2025

साहित्य और लोक संस्कृति में सावन के रंग🌿🌦️

सावन केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भारतीय जीवन, साहित्य और संस्कृति में एक गहरी आत्मिक अनुभूति है। यह मौसम न केवल धरती को हरा करता है, बल्कि मन को भी तर करता है। लोकगीतों, झूले, तीज और कविता के माध्यम से सावन स्त्रियों की अभिव्यक्ति, प्रेम की प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा का स्वर बन जाता है।

साहित्यकारों ने इसे कभी श्रृंगार में, कभी विरह में, तो कभी प्रकृति के प्रतीक रूप में देखा है। लेकिन आज का आधुनिक मन सावन को केवल मौसम समझता है, महसूस नहीं करता। यह लेख सावन के सांस्कृतिक, साहित्यिक और भावनात्मक पक्षों को उजागर करते हुए हमें स्मरण कराता है कि भीगना केवल शरीर से नहीं, आत्मा से भी ज़रूरी है।

सावन हमें सिखाता है — प्रकृति से जुड़ो, भीतर झाँको, और संवेदना को जीयो।


सावन आ गया है। वर्षा ऋतु की पहली दस्तक के साथ ही जब बादल घिरते हैं और बूँदें धरती को चूमती हैं, तो केवल पेड़-पौधे ही नहीं, मनुष्य का अंतर्मन भी हरा होने लगता है। यह महीना केवल वर्षा का नहीं, स्मृति, संवेदना और सृजन का है। सावन जब आता है, तो कविता झरने लगती है, लोकगीत गूंजने लगते हैं, पायलें छनकने लगती हैं और रूठा प्रेम भी नमी में घुलकर लौट आता है।

🌿 सावन – एक ऋतु नहीं, एक मनःस्थिति है

भारतीय मानस में ऋतुएँ केवल मौसम नहीं, जीवन के प्रतीक रही हैं। वसंत प्रेम का, ग्रीष्म तपस्या का और सावन प्रतीक्षा का महीना बनकर आता है। सावन में अक्सर प्रेयसी अकेली होती है, प्रियतम किसी दूर देश गया होता है, और प्रतीक्षा के बीच में विरह का काव्य जन्म लेता है। इसलिए साहित्य में सावन का आगमन केवल प्राकृतिक नहीं, आत्मिक घटना है।

"नइहर से भैया बुलावा भेजवा दे", "कजरारे नयनवा काहे भर आईल", जैसे कजरी गीत सिर्फ आवाज नहीं, पीड़ा का पानी बनकर झरते हैं।

 


🌦️ लोक संस्कृति में सावन का रंग

सावन का महीना भारतीय लोक परंपरा का सबसे रंगीन अध्याय है। कहीं तीज मनाई जा रही होती है, कहीं झूले पड़ रहे होते हैं, कहीं मेंहदी लग रही होती है तो कहीं बहनों के लिए राखी के गीत तैयार हो रहे होते हैं। यह महीना नारी मन की सृजनात्मक उड़ान का समय होता है। दादी-नानी की कहानियाँ, माँ के गीत, और बेटियों की प्रतीक्षा – सब कुछ सावन की हवा में घुल जाता है।

हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में कजरी, झूला गीत, सावनी और हरियाली तीज लोककाव्य का रूप ले लेती हैं। ये गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, महिला सशक्तिकरण के सांस्कृतिक दस्तावेज हैं — जहाँ स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ, शिकायतें, प्रेम और विद्रोह तक गा डालती हैं।

☁️ साहित्य में सावन: बरसते बिम्ब और प्रतीक

साहित्यकारों ने सावन को केवल प्रकृति-चित्रण के लिए ही नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के प्रतिनिधि के रूप में देखा है।

महादेवी वर्मा के शब्दों में सावन अकेलेपन की पीड़ा है:
"नीर भरी दुख की बदली"।

मैथिलीशरण गुप्त ने सावन को श्रृंगार रस में देखा –
"चपला की चंचल किरणों से, छिटकी वर्षा की बूँदें"

गुलज़ार की कविता हो या नागार्जुन की भाषा, सावन हर किसी के लिए कुछ कहता है। किसी के लिए वो टूटे रिश्तों की याद है, किसी के लिए माँ की गोद में बिताया बचपन, और किसी के लिए प्रेम की भीगी पहली रात।

🌧️ भीतर की बारिश को समझना जरूरी है

आज जब हम एसी कमरों में बैठे, मोबाइल पर मौसम का अपडेट पढ़ते हैं, तब सावन की असली ख़ुशबू कहीं खो जाती है। हमने बारिश को केवल ट्रैफिक की समस्या बना दिया है। सावन अब इंस्टाग्राम स्टोरी बनकर रह गया है।
पर क्या हमने कभी भीतर की बारिश को महसूस किया है?

वह बारिश जो हमें धो देती है — अहंकार से, शुष्कता से, थकान से। सावन हमें फिर से नम करता है — हमें इंसान बनाता है। प्रकृति की गोद में लौटने का आमंत्रण है ये मौसम।

🪶 आज के कवियों के लिए सावन क्या है?

आज के कवियों को सावन का सिर्फ चित्रण नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके भीतर छिपी विसंगतियों को भी पकड़ना चाहिए। जब ग्रामीण भारत के खेतों में पानी नहीं और शहरों में जलभराव है, तब यह असमानता भी साहित्य का विषय बननी चाहिए।

कविता को झूले और कजरी के अलावा किसानों के अधूरे सपनों, बर्बाद फसलों, और जलवायु परिवर्तन के संकट को भी शब्द देना होगा।

🎭 सावन और रंगमंच: नाट्य का मौसम

सावन केवल काव्य का विषय नहीं, रंगमंच और लोकनाट्यों का भी प्रिय समय है। उत्तर भारत के कई हिस्सों में इस मौसम में झूला महोत्सव, सावनी गीत प्रतियोगिताएँ, लोकनाट्य और कविता गोष्ठियाँ आयोजित होती हैं।

यह मौसम कलाकारों के पुनर्जन्म जैसा होता है। उनके रंग, उनके स्वर और उनके मंच, सभी में नमी आ जाती है — जो सीधे दर्शक के हृदय तक पहुँचती है।

🧠 आधुनिक मन और सावन की चुनौती

आज का मानव सावन को देख तो रहा है, पर महसूस नहीं कर रहा। उसका मन इतनी सूचनाओं, मशीनों और तथ्यों में उलझ गया है कि वह बारिश को केवल मौसम विभाग के पूर्वानुमान के रूप में लेता है।

पर सावन को समझना है तो, खिड़की खोलनी होगी – मन की भी और कमरे की भी।
बूँदों को केवल त्वचा पर नहीं, आत्मा पर भी गिरने देना होगा।

🌱 प्रकृति का मौसमी संदेश

सावन हमें याद दिलाता है कि विकास और विनाश के बीच संतुलन जरूरी है।
बारिश से पहले आई भीषण गर्मी, जल संकट, जंगलों में आग — यह सब बताता है कि हमने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा है।
सावन की बारिश इस बिगाड़ को थोड़ी राहत देती है, पर चेतावनी भी देती है कि अगर हमने अब भी नहीं सुधारा, तो सावन केवल स्मृति बनकर रह जाएगा।

📜 समाप्ति की ओर एक सादगी भरा संदेश

सावन को आने दो।
उसे भीतर आने दो।
जब वह बूँद बनकर गिरे, तो केवल छतों पर नहीं, तुम्हारी कविता में भी गिरे।
जब वह झूला बनकर डोले, तो केवल पेड़ों पर नहीं, तुम्हारी कल्पना में भी डोले।

यह मौसम मन का है, बस उसे पहचानने की ज़रूरत है।
बचपन के वे झूले, माँ के लगाए मेंहदी के रंग, छत पर रखे बर्तन, और खेत में दौड़ता नंगाधड़ंग बच्चा — सब अब भी हमारे भीतर कहीं जिंदा हैं। उन्हें ज़रा सावन में बाहर आने दो।

🟠 निवेदन:
जब भी बादल घिरें, मोबाइल मत उठाना, खिड़की खोल लेना।
और मन करे तो एक पुराना गीत गा लेना –
"कभी तो मिलने आओ सावन के गीत गाने..."



✍️ डॉ सत्यवान सौरभ


मंगलवार, 15 जुलाई 2025

'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' से परे सभी भारतीय भाषाओं की गरिमा स्थापित करने की जरूरत

स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ी विडंबना यह रही है कि जिस देश की आत्मा उसकी भाषाओं में बसती है, वहां भाषाओं को मात्र उत्सवों, प्रतियोगिताओं और स्मरण-दिवसों तक सीमित कर दिया गया है। जब हम कहते हैं कि “हिंदी के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले वरिष्ठ साथियों ने पहले ही एकजुटता दिखाई होती”, तो यह केवल किसी वर्ग पर आरोप नहीं, बल्कि भाषा आंदोलन की उस ऐतिहासिक विफलता की ओर संकेत है जिसने भारतीय भाषाओं को सत्ता की दहलीज तक पहुँचने से रोक दिया। यह बात असहनीय है कि स्वतंत्रता के 77-78 वर्ष बाद भी न्यायालयों में, विश्वविद्यालयों में, संसद और विधानसभा की कार्यवाही में, जनभाषाओं को सिर्फ ‘अनुवाद योग्य वस्तु’ मानकर दरकिनार किया जाता है। क्या यह केवल इसलिए है कि हमारे वरिष्ठ हिंदीसेवी वर्ग ने समय रहते ‘कार्यवाही’ की जगह ‘कविता-पाठ’ को चुन लिया? जनभाषाओं की वास्तविक मुक्ति का मार्ग केवल कार्यक्रमों, भाषणों और प्रदर्शनियों से नहीं, बल्कि जनचेतना के सघन संघर्षों से होकर ही निकलेगा।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमारे समाज के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग की भूमिका अक्सर दोहरी रही है। एक ओर ये लोग मंचों से भाषायी गौरव की बात करते हैं, तो दूसरी ओर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाकर ‘भविष्य सुरक्षित’ करते हैं। ये वही लोग हैं जो राजभाषा सम्मेलनों में तालियाँ बजाते हैं, हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं और सांस्कृतिक विभागों से बजट लेकर कवि-सम्मेलन और यात्राएँ करते हैं; परंतु जब बात न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता की आती है, तो मौन धारण कर लेते हैं। यह मौन केवल नैतिक अपराध नहीं है, यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक प्रकार का धोखा है। इस मौन की गूंज आज उस मुकदमेबाज़ किसान की निराश आँखों में सुनाई देती है, जो न्यायालय में अपने पक्ष की बात तक समझ नहीं पाता। यह स्थिति बदल सकती थी, यदि हमारे हिंदीप्रेमी बौद्धिक वर्ग ने समय रहते जनभाषा को केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार का विषय बनाया होता।


हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि भाषा केवल साहित्य या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती — वह सत्ता का उपकरण भी होती है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा और रोज़गार जैसी संस्थाओं में भाषा के माध्यम से ही सहभागिता और वंचना तय होती है। जिस समाज में न्याय अंग्रेज़ी में होता हो, शिक्षा भी अंग्रेज़ी की अनिवार्यता पर आधारित हो और सरकारी तंत्र अंग्रेज़ी माध्यम के ‘स्पेशलिस्ट्स’ को प्राथमिकता दे, वहाँ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मान मिलना केवल एक छलावा बनकर रह जाता है। और यह छलावा तब और गहरा हो जाता है जब हमारे ही कुछ वरिष्ठ लेखक, भाषाविद् और तथाकथित हिंदी समर्थक लोग इन प्रश्नों पर चुप्पी साध लेते हैं या उन्हें हाशिये पर डाल देते हैं। उनकी चुप्पी को ‘निष्क्रिय समर्थन’ कहा जा सकता है — उस व्यवस्था के लिए जो अंग्रेज़ी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भारतीय भाषाओं को सजावट की वस्तु की तरह बरतती है।

अब यह आवश्यक हो गया है कि हम केवल ‘हिंदी दिवस’ या ‘भाषा उत्सव’ मनाने की औपचारिकता से बाहर निकलें और जनभाषाओं के अधिकार के लिए एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करें। यह आंदोलन केवल हिंदी के लिए नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए होना चाहिए — मराठी, बंगला, कन्नड़, तमिल, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, संथाली, उड़िया, पंजाबी — क्योंकि ये सभी भाषाएँ इस देश की आत्मा हैं। आज जब न्यायालयों में मुकदमे सालों-साल खिंचते हैं और पीड़ित व्यक्ति को उसकी ही भाषा में निर्णय की प्रति नहीं मिलती, तो यह केवल भाषायी भेदभाव नहीं, बल्कि संवैधानिक विषमता है। जब तक हम संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 और 350A–350B के भाषायी प्रावधानों को व्यावहारिक रूप से लागू कराने की माँग नहीं करेंगे, तब तक किसी भी ‘राजभाषा पुरस्कार’ या ‘साहित्यिक सेमिनार’ का कोई मूल्य नहीं है।

जनभाषा आंदोलन का भविष्य उन युवाओं के हाथ में है जो भाषायी अन्याय को सिर्फ भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और संवैधानिक अधिकार का विषय मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम ‘हिंदी बनाम अंग्रेज़ी’ जैसी सतही बहसों से ऊपर उठें और इस प्रश्न पर बहस करें कि न्यायिक प्रक्रिया, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन और अन्य सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को कैसे पूर्ण सम्मान और व्यवहार में स्थान दिलाया जाए। इसके लिए नीतिगत दबाव, याचिकाएँ, भाषायी सर्वेक्षण, जनसभाएँ और सामाजिक अभियानों की ज़रूरत है — वही रूप जो ‘भूख के अधिकार’ या ‘सूचना के अधिकार’ के आंदोलनों ने अपनाया। यदि भाषा का प्रश्न भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ा है, तो उसका संघर्ष भी उतना ही व्यापक और जनाधारित होना चाहिए।

जनभाषाओं की उपेक्षा : संविधानिक संकल्प से सामाजिक विसंगति तक : स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय संविधान ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत बहुभाषिक देश है और सभी भाषाओं का समान आदर होगा। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई, पर साथ ही अनुच्छेद 348 में न्यायालयों और विधायिकाओं में अंग्रेज़ी के प्रयोग को तब तक जारी रखने की छूट भी दे दी गई जब तक संसद अन्यथा निर्णय न ले। यहीं से जनभाषाओं के अधिकारों के साथ वह ऐतिहासिक छल आरंभ हुआ, जो आज तक जारी है। उस समय यदि हमारे भाषा प्रेमी बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार और शिक्षाविद् मिलकर एक स्पष्ट, संगठित आवाज़ उठाते, तो शायद 1965 के बाद अंग्रेज़ी का यह स्थायी वर्चस्व न बनता। किंतु उस समय के अधिकांश प्रबुद्ध वर्गों ने व्यवस्था के साथ एक प्रकार का ‘समझौता’ कर लिया। उन्होंने भाषायी अधिकार को आत्मगौरव का विषय मानने के बजाय सांस्कृतिक उत्सव का रूप दे दिया — ‘हिंदी पखवाड़ा’, ‘भाषा सप्ताह’, ‘साहित्यिक आयोजन’ और ‘राजभाषा कार्यशालाएँ’। इन सब गतिविधियों में ‘दृश्य’ तो बना, पर ‘दिशा’ नहीं बनी।

न्यायालय में आज भी भारत की 95% जनता को न्याय उनकी अपनी भाषा में नहीं मिलता। यह स्थिति केवल बिहार, यूपी, या ओडिशा तक सीमित नहीं है — यह पूरे देश की विडंबना है। सुप्रीम कोर्ट और अधिकांश उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियाँ केवल अंग्रेज़ी में होती हैं और निचली अदालतों में भी यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा में बहस करता है, तो या तो उसकी बात को हल्के में लिया जाता है या उसे अनुवादक की मदद लेनी पड़ती है। सवाल यह है कि जब संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, तो भाषा के आधार पर यह असमानता क्यों? और यह भी उतना ही गंभीर प्रश्न है कि इन वर्षों में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए संघर्षरत माने जाने वाले संगठनों ने इस विषय पर संगठित राष्ट्रव्यापी आंदोलन क्यों नहीं चलाया? इसका उत्तर कहीं न कहीं इस तथ्य में छिपा है कि इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले अनेक व्यक्ति स्वयं भाषायी सुविधाओं के उपभोक्ता बनकर व्यवस्था में समाहित हो चुके थे।

इस द्वैध भूमिका ने भारतीय भाषाओं के आंदोलन को गंभीरता की जगह ‘प्रतीकात्मकता’ की ओर मोड़ दिया। हिंदी का नाम लेकर सरकारी विभागों में राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति, अनुवाद विभागों का विस्तार और सरकारी बजट से अनेक योजनाएँ तो चलाई गईं, परंतु इनका संबंध ज़मीनी जनभाषा चेतना से नहीं रहा। इससे भाषा आंदोलन एक प्रकार का 'नौकरशाही महोत्सव' बन गया — जिसमें कविताएं तो थीं, पर क्रांति नहीं; घोषणाएं तो थीं, पर संघर्ष नहीं; योजनाएं तो थीं, पर परिणाम नहीं। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि आम जनता के भीतर यह विश्वास ही नहीं बन पाया कि हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा में उसे न्याय, शिक्षा या प्रशासन जैसी सेवाएँ मिल सकती हैं।

अब जब भारतीय लोकतंत्र अपनी 78वीं वर्षगाँठ की ओर बढ़ रहा है, तो यह आत्मावलोकन का समय है — हमें स्वयं से पूछना होगा कि क्या हमने अपनी भाषाओं के साथ न्याय किया है? क्या हम उस किसान, उस महिला, उस वृद्ध व्यक्ति की पीड़ा को समझ पा रहे हैं जो अदालत के दरवाज़े पर खड़ा होकर उस भाषा में सुनवाई की अपेक्षा करता है, जो उसकी माँ की बोली है? क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि अमेरिका, फ्रांस, चीन या जापान में न्यायालय किसी विदेशी भाषा में काम करते हों और आम नागरिक कुछ समझ ही न पाए? यदि नहीं, तो भारत जैसे भाषिक लोकतंत्र में यह क्यों संभव है? जवाब स्पष्ट है — हमने भाषाओं को ‘संस्कृति’ का विषय तो बना लिया, पर ‘सत्ता’ का माध्यम नहीं बना पाए।

इस स्थिति को बदलना है तो अब केवल हिंदी के नाम पर कवि-सम्मेलनों से आगे बढ़ना होगा। अब आवश्यकता है एक संगठित, प्रभावशाली और राष्ट्रीय स्तर के भाषाई जन आंदोलन की — जो केवल नारे नहीं, नीतियाँ माँगे; केवल मंच नहीं, कानूनों में संशोधन माँगे। इस आंदोलन की मांग होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में हिंदी समेत सभी 8वीं अनुसूची की भाषाओं में कार्यवाही की अनुमति हो; कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ और प्रशासनिक परीक्षाओं की पढ़ाई और परीक्षा भारतीय भाषाओं में सुनिश्चित हो; और कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन और प्रशिक्षण पूरी तरह से मातृभाषा में कराया जाए।

जनभाषाओं में न्याय और शिक्षा - केवल भाषायी अधिकार नहीं, लोकतांत्रिक मर्यादा का प्रश्न : आज जब हम भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, तो यह भूलना नहीं चाहिए कि इन 77–78 वर्षों में एक बहुत बड़ा वर्ग भाषा के आधार पर लोकतंत्र के लाभों से वंचित रहा है। भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ के जिन उच्च आदर्शों की स्थापना की गई थी, वे तभी पूर्ण हो सकते हैं जब हर व्यक्ति को उसकी अपनी भाषा में राज्य की सभी सुविधाएँ — विशेषकर न्याय और शिक्षा — सहजता से उपलब्ध हों। किंतु जब तक व्यक्ति को अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तब तक वह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को व्यावहारिक रूप से प्राप्त नहीं कर सकता। न्याय केवल विधिक प्रक्रिया नहीं है, यह मनुष्य की गरिमा से जुड़ा हुआ एक अत्यंत संवेदनशील पक्ष है। और गरिमा तभी संभव है जब व्यक्ति अपनी बात को उस भाषा में कह सके जिसमें वह सोचता, समझता और दुख-सुख साझा करता है।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को न्यायिक व्यवस्था से काटकर हमने अंग्रेज़ी को एकाधिकार की तरह स्थापित कर दिया है। इसे और अधिक गंभीर इसीलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह व्यवस्था केवल औपनिवेशिक विरासत नहीं है — यह आज के स्वतंत्र भारत के भीतर पनपी असमानता की एक संरचना बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी देश के अधिकांश विधि विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और न्यायालयों में अधिकांश आदेश और निर्णय केवल अंग्रेज़ी में जारी होते हैं। परिणामस्वरूप, न्याय केवल उन लोगों की पहुँच में रह गया है जो अंग्रेज़ी में संवाद कर सकते हैं — बाकी जनता ‘सुनवाई’ तो कर लेती है, पर समझ नहीं पाती कि न्याय मिला है या नहीं। यह केवल भाषायी विफलता नहीं, यह संवैधानिक असमानता का सीधा उदाहरण है।

शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं को जिस प्रकार हाशिये पर डाल दिया गया है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि आत्मघाती भी है। भारतीय भाषाओं को केवल कक्षा 5 तक पढ़ाई के माध्यम तक सीमित रखने की नीतियाँ और आगे जाकर अंग्रेज़ी को अनिवार्य बनाना, एक प्रकार से बहुसंख्यक छात्र वर्ग को शिक्षा के मुख्यधारा से बाहर करने जैसा है। यह एक खुला तथ्य है कि भारत के गाँवों, कस्बों और मध्यमवर्गीय परिवारों में आज भी अधिकांश छात्र मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषाओं में ही सोचते-समझते हैं। ऐसे में अंग्रेज़ी माध्यम की बाध्यता उन्हें केवल भाषायी स्तर पर नहीं, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी हीनता का अनुभव कराती है। इससे उनकी आत्मविश्वास क्षमता, संप्रेषण कौशल और नवाचार की संभावना भी प्रभावित होती है।

इस स्थिति को जानबूझकर बनाये रखने की भूमिका में वे संस्थान और व्यक्तित्व भी रहे हैं जो 'हिंदी के हितैषी' कहलाते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेज़ी वर्चस्व को तोड़ने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते। यह वह वर्ग है जो मंच पर हिंदी के लिए भावुक हो उठता है, लेकिन प्रशासन, विधि, तकनीकी और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में मातृभाषा की मांग करने से कतराता है। वे भूल जाते हैं कि भाषा केवल साहित्य की वस्तु नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत है। भाषा यदि सत्ता और प्रशासन का माध्यम नहीं बनती, तो वह केवल भावनाओं का खेल बनकर रह जाती है। यही कारण है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ अपने देश में बहुसंख्यक होने के बावजूद शक्तिहीन बनी हुई हैं और एक विदेशी भाषा — अंग्रेज़ी — अब भी निर्णयकारी भूमिका में है।

अब जब देश में ‘डिजिटल इंडिया’, ‘विकसित भारत 2047’ और ‘ग्लोबल साउथ की अगुवाई’ जैसे लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे हैं, तो क्या यह उचित नहीं होगा कि इन सबके मूल में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा और प्राथमिकता दी जाए? क्या यह समय नहीं आ गया है कि हिंदी और अन्य जनभाषाओं को केवल भावनात्मक मुद्दा मानना बंद करके उन्हें संवैधानिक, सामाजिक और व्यावसायिक अधिकार का मुद्दा बनाया जाए? क्या अब भी हम केवल ‘हिंदी सप्ताह’, ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार’ और ‘साहित्यिक आयोजन’ तक सीमित रहेंगे या इन भाषाओं को वास्तविक ‘सत्ता की भाषा’ बनाएंगे?

यदि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है, तो हमें यह भी समझना होगा कि यह परिवर्तन ऊपर से नहीं आएगा। यह केवल जन-आंदोलन से ही संभव है — वह आंदोलन जो अदालतों से लेकर शिक्षा संस्थानों तक, संसद से लेकर नगर पंचायत तक, हर जगह ‘जनभाषाओं में संप्रेषण और निर्णय की अनिवार्यता’ की माँग उठाए। जब तक आम जनता, शिक्षक, छात्र, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार — सभी मिलकर भाषायी अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष नहीं करेंगे, तब तक केवल नारेबाज़ी और सांस्कृतिक आयोजन चलते रहेंगे — और भारत की भाषाएँ सत्ता से और भी दूर होती जाएँगी।

भाषा की लड़ाई बनाम सत्ता की चुप्पी - नई सदी में जनभाषा आंदोलन की अपरिहार्यता : वर्तमान समय में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम भाषा के प्रश्न को केवल सांस्कृतिक विमर्श तक सीमित न रखें, बल्कि उसे सीधे-सीधे सत्ता के समीकरणों से जोड़कर देखें। यह कोई संयोग नहीं है कि देश की लगभग 90% जनता हिंदी या किसी न किसी भारतीय भाषा में संवाद करती है, परंतु निर्णय लेने की संस्थाएँ — जैसे न्यायालय, संसद, उच्च शिक्षा परिषद, नियोजन आयोग, नीति आयोग — अब भी अपनी अधिकांश कार्यवाहियाँ अंग्रेज़ी में संचालित करती हैं। इस प्रकार यह व्यवस्था स्पष्ट रूप से एक भाषाई अभिजात वर्ग (linguistic elite) का निर्माण करती है, जिसमें अंग्रेज़ी जानने वाले अल्पसंख्यक को विशिष्ट सुविधा और प्रभाव प्राप्त होता है, जबकि शेष बहुसंख्यक जनसंख्या को ‘दूसरे दर्जे’ का नागरिक बनाकर रख दिया जाता है। यह विभाजन जितना भाषाई है, उतना ही वर्गीय और सामाजिक भी है और यही कारण है कि इसे केवल भाषाई नहीं, सामाजिक न्याय के आंदोलन की तरह देखे जाने की आवश्यकता है।

किसी भी लोकतंत्र की पहली शर्त यह होती है कि उसमें आम जनता को नीति निर्माण की प्रक्रियाओं में सहभागिता का अवसर मिले। किंतु जब राज्य की भाषाएं ही जनता की समझ से परे हो जाएँ, तो लोकतंत्र केवल कागज़ी बनकर रह जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे वरिष्ठ साहित्यकार, भाषा नीति निर्माता और ‘हिंदी के पुरोधा’ कहलाने वाले अनेक विशिष्टजन इस कटु सच्चाई से अनजान नहीं हैं। वे जानते हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक गहरे संकट से जूझ रही हैं — विशेषकर व्यवहारिक उपयोग और सम्मान की दृष्टि से — फिर भी उन्होंने या तो ‘सरकारी योजनाओं के तहत सीमित आलोचना’ को चुना है या फिर ‘अनुदान आधारित चुप्पी’ को। यह न केवल खेदजनक है, बल्कि भाषाई आंदोलन के लिए घातक भी है, क्योंकि यह वर्ग आम जनता के भीतर यह संदेश प्रसारित करता है कि भाषा केवल 'साहित्यिक सजावट' है, कोई बुनियादी अधिकार नहीं।

यह भी समझना आवश्यक है कि भाषायी अधिकारों की लड़ाई केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। भारत की तमाम भाषाएं — चाहे वे मराठी, बंगला, गुजराती हों या तमिल, तेलुगु, उड़िया, पंजाबी या असमिया — सबके सब एक जैसी पीड़ा से गुजर रही हैं। उन्हें भी उच्च न्यायालयों में न्याय नहीं मिलता; उन्हें भी मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में दरकिनार किया गया है; उन्हें भी विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में हाशिए पर रखा गया है। और यह सब तब हो रहा है जब भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ इतनी भाषाई विविधता के बावजूद संविधान में भाषाओं के संरक्षण की प्रतिज्ञा की गई है। सवाल यह है कि यदि संविधान भी भारतीय भाषाओं की रक्षा नहीं कर पा रहा और न ही 'हिंदी प्रेमी' कहलाने वाले विद्वानों की चेतना जाग पा रही, तो फिर उम्मीद किससे की जाए?

उत्तर एक ही है — जन से। अब यह लड़ाई केवल लेखकों, शिक्षकों या कानूनविदों की नहीं रह गई है; यह अब हर उस व्यक्ति की लड़ाई है जो अपने बच्चों को, अपने गांव को, अपने समाज को सशक्त बनते देखना चाहता है। यह लड़ाई हर उस छात्र की है जो अंग्रेज़ी न जानने के कारण मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पिछड़ जाता है; यह लड़ाई उस गरीब महिला की है जो न्यायालय में कुछ समझ नहीं पाती और सालों तक चक्कर काटती है; यह लड़ाई उस किसान की है जो सरकारी योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं उठा पाता क्योंकि आवेदन फार्म अंग्रेज़ी में होते हैं। और सबसे बड़ी बात — यह लड़ाई उस भारत की आत्मा की है, जो भाषाओं के माध्यम से सांस लेती है, विचार करती है और चेतना के विविध रंगों को जीती है।

अब यदि इस भाषाई अन्याय के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठती, तो यह चुप्पी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक भारी कीमत बनकर सामने आएगी। भाषा कोई ‘व्यक्तिगत रूचि’ नहीं होती — वह एक समाज का अस्तित्व, उसकी पहचान और उसकी शक्ति का मूल होती है। इसलिए जनभाषाओं को न्याय, शिक्षा और प्रशासन में स्थान दिलाने की माँग करना कोई कृपा नहीं, बल्कि भारत के प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक और नैतिक अधिकार है। और इस अधिकार की प्राप्ति अब केवल सरकारी नीतियों से नहीं, बल्कि सशक्त जनांदोलन से ही संभव है — एक ऐसा आंदोलन जो केवल हिंदी नहीं, बल्कि भारत की तमाम जनभाषाओं को साथ लेकर चले और जो कहे : "हमें अपनी भाषा में जीने, समझने, पढ़ने, लिखने और न्याय पाने का पूरा अधिकार है — और हम इसके लिए लड़ेंगे भी और जीतेंगे भी।"

जब भाषा अपमानित होती है, तो राष्ट्र का आत्मबल भी क्षीण होता है : अब वह समय नहीं रहा जब भाषाई मुद्दों को केवल 'संवेदनशील सांस्कृतिक प्रश्न' कहकर टाल दिया जाए। यह विषय अब सीधे-सीधे सत्ता, नीति, संविधान और सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है। भाषा की उपेक्षा केवल बोलियों या भाषियों की उपेक्षा नहीं होती — यह संपूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व, सामाजिक गतिशीलता और मानसिक स्वतंत्रता की हत्या होती है। जब एक राष्ट्र की बहुसंख्यक आबादी को उनकी अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तो उस राष्ट्र की लोकतांत्रिक संकल्पनाएँ खोखली सिद्ध होती हैं। और जब एक स्वतंत्र देश की न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र में विदेशी भाषा को 'योग्यता' और 'सक्षमता' का पर्याय बना दिया जाता है, तो वह व्यवस्था गहरे मानसिक उपनिवेशवाद की गिरफ़्त में जी रही होती है।

भारत जैसे देश में जहाँ प्रत्येक गली-मोहल्ले में एक नई बोली जन्म लेती है, वहाँ भाषाओं की गरिमा केवल साहित्यिक गौरव से नहीं, बल्कि व्यवहारिक और संस्थागत मान्यता से निर्धारित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के 78 वर्षों बाद भी हम केवल "हिंदी दिवस", "राजभाषा पुरस्कार", "साहित्यिक सेमिनार" जैसे आयोजनों तक सिमटे हुए हैं — जबकि आवश्यकता है कि हम माँग करें : सुप्रीम कोर्ट में हमारी भाषा में न्याय मिले; मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हमारी भाषा में हो; सरकारी कार्यालयों में हमारी भाषा में संप्रेषण अनिवार्य हो; प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारी भाषाओं को प्राथमिकता दी जाए; और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शोध और नवाचार की भाषा बनाया जाए।

यह भी अनिवार्य है कि इस भाषाई आंदोलन को केवल 'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' के संकुचित परिप्रेक्ष्य से बाहर लाया जाए। भारत की तमाम भाषाएँ — चाहे वे तमिल हों, मराठी हों, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, उड़िया, बांग्ला या कन्नड़ — सबकी स्थिति लगभग एक जैसी है। सबकी मातृभूमि पर अंग्रेज़ी का प्रशासनिक उपनिवेश आज भी छाया हुआ है। इसलिए यदि इस संघर्ष को वास्तव में सफल बनाना है, तो इसे ‘जनभाषाओं के लिए न्याय’ के नाम से एक साझा आंदोलन में परिवर्तित करना होगा — एक ऐसा आंदोलन जो न केवल सड़कों पर उतरे, बल्कि नीति-निर्माण में प्रभावशाली हस्तक्षेप करे; जो न केवल अदालतों में याचिकाएँ दायर करे, बल्कि जनसमूह को शिक्षित, संगठित और सशक्त करे; जो केवल लेखकों, पत्रकारों, या शिक्षकों तक सीमित न रहे, बल्कि ग्रामीण किसान, मजदूर, महिला समूह, छात्र संगठन, पंचायत प्रतिनिधि — हर वर्ग को जोड़कर एक भाषायी जनक्रांति का स्वरूप ले।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन को सबसे पहले उस मानसिकता से लड़ना होगा, जो यह मानती है कि अंग्रेज़ी के बिना ‘प्रगति’ संभव नहीं। हमें यह प्रमाणित करना होगा कि ज्ञान, विज्ञान, न्याय और प्रशासन — सब कुछ मातृभाषा में संभव है और यह न केवल संभव है, बल्कि समाज को न्यायसंगत और समावेशी बनाने का एकमात्र मार्ग भी यही है। इसके लिए 'हिंदी के नाम पर केवल कविता लिखने वाले' वरिष्ठों को अब मंच की चकाचौंध से बाहर आकर जन संघर्ष की धरती पर उतरना होगा। उन्हें अब यह समझना होगा कि कविताबाजी, कार्यक्रमबाजी और 'भाषा पर्यटन' से भाषा का सम्मान नहीं लौटाया जा सकता — इसके लिए एकजुटता, नीति-निर्माण में दबाव और राजनीतिक दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूरी है।

अंततः, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय भाषाओं में न्याय और शिक्षा की बहाली, केवल भाषाई सम्मान का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को पुनः प्रतिष्ठित करने का कार्य है। यह आंदोलन केवल व्याकरण और शब्दावली का आंदोलन नहीं, यह आत्मनिर्णय, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक समानता का संघर्ष है। अगर हम आज नहीं जागे, तो अगली पीढ़ियाँ हमें एक ऐसे वर्ग के रूप में याद करेंगी जिन्होंने भाषा के नाम पर केवल रोटियाँ सेंकीं, लेकिन न्याय और शिक्षा से वंचित समाज को चुपचाप स्वीकार किया। इसलिए अब समय है — संकल्प लेने का, संगठित होने का और जनभाषाओं को भारत की 'शासन भाषा' बनाने के यज्ञ में पूर्ण आहुति देने का।

क्योंकि जब तक हमारी भाषा अपमानित रहेगी, तब तक हमारी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। और जब हमारी भाषाएँ न्याय और नीति की भाषा बनेंगी, तभी भारत सच्चे अर्थों में गणराज्य कहलाएगा। अब नहीं, तो कभी नहीं...!!


पूनम चतुर्वेदी शुक्ला
संस्थापक-निदेशक, अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन एवं
न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन’
सेक्टर-एल, आशियाना, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) 

पत्र-पत्रिकाओं से दूर होता बचपन

 रविवार की सुबह थी। मन हुआ कि बेटा  गोद में आए और हम दोनों मिलकर अख़बार में से कोई रोचक कहानी पढ़ें — ताकि आधुनिक स्क्रीन युग में भी शब्दों की मिठास उसे मिल सके। परंतु खेदजनक आश्चर्य हुआ कि  प्रतिष्ठित अख़बारों में बच्चों के लिए एक भी कहानी, चित्रकथा, या बाल संवाद उपलब्ध नहीं था। इस पीड़ा से उपजा यह सवाल एक सामूहिक चिंतन की मांग करता है —“जब हम अपने अख़बारों में बच्चों के लिए छापते ही कुछ नहीं, तो हम उनसे पढ़ने की उम्मीद किस अधिकार से करते हैं?”

बाल मन: एक रिक्त पन्ना

हमारी शिक्षा व्यवस्था, अभिभावक वर्ग और समाज तीनों ही अक्सर एक स्वर में कहते हैं कि आज के बच्चे किताबें नहीं पढ़ते। वे मोबाइल, इंस्टाग्राम और गेमिंग की दुनिया में खो चुके हैं। पर कोई ये क्यों नहीं पूछता कि उन्हें क्या पढ़ने के लिए दे रहे हैं हम? अख़बार, जो एक समय में हर घर की सुबह का हिस्सा हुआ करता था — अब बच्चों के लिए पूरी तरह से एक “वयस्कों का युद्धक्षेत्र” बन चुका है, राजनीति के झगड़े, नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप, बलात्कार, हत्याएं, भ्रष्टाचार, क्रिकेट, फिल्में और योगा टिप्स। कहाँ हैं राजा की बात, हाथी की सवारी, विज्ञान की कल्पना, चाँद की कविता, और जीवन मूल्य सिखाती छोटी कहानियाँ?

जब बच्चे दिखते ही नहीं

आज के समाचार पत्रों में बच्चे सिर्फ दो तरह से “दिखते” हैं —
 जब कोई बच्चा यौन हिंसा या हत्या का शिकार होता है। या जब कोई बच्चा बोर्ड परीक्षा में 99.9% अंक लाकर मीडिया का ताज बन जाता है। क्या इतने सीमित संदर्भों में बच्चे होने का अनुभव समझा जा सकता है? अख़बारों ने बच्चों को समाज से अलग करके एक ऐसी चुप्पी में डाल दिया है, जहां उनका न तो रचनात्मक स्वर सुनाई देता है, न जिज्ञासु आंखें दिखाई देती हैं।


संपादकीय दूरदर्शिता की अनुपस्थिति

किसी भी अखबार का मुख्य उद्देश्य होता है –"समाज को जागरूक बनाना और उसकी सोच को दिशा देना।" तो फिर एक पूरे समाज की नींव यानी बच्चों के लिए कोई पन्ना क्यों नहीं? क्या आज का संपादक इतना व्यस्त हो गया है कि उसे यह भी याद नहीं कि उसकी जिम्मेदारी अगली पीढ़ी तक संस्कार और विचार की मशाल पहुँचाने की भी है? एक समय में "बाल-जगत", "बाल प्रभा", "बाल गोष्ठी", "बाल मेल" जैसे खंडों से अख़बार बच्चों को भी संवाद में शामिल करते थे। आज वे या तो बंद हो गए या ऑनलाइन लिंक की बेगानी भीड़ में खो गए।

विज्ञापन और बाजारवाद का हमला

बच्चे आज अख़बार के लिए 'ग्राहक' नहीं हैं। वे शैंपू या रेफ्रिजरेटर नहीं खरीदते। इसी कारण “बाजार” की भाषा में उनकी कोई 'विज्ञापन वैल्यू' नहीं है। और जहाँ विज्ञापन की भाषा नीति तय करने लगे, वहाँ बचपन बेमानी हो जाता है।
प्रत्येक अख़बार का लगभग 40% भाग विज्ञापनों से भरा रहता है — रियल एस्टेट, कपड़े, कोचिंग सेंटर, हॉस्पिटल, ब्रांडेड घड़ियाँ... कहीं भी यह नहीं दिखता कि कोई अख़बार यह पूछ रहा हो। "बच्चों को हम क्या पढ़ा रहे हैं?"

जब बाल साहित्य का विलोपन होता है

बाल साहित्य केवल मनोरंजन नहीं है —यह बच्चों को सोचने, सवाल करने, कल्पना करने और समाज से जुड़ने की प्राथमिक पाठशाला है। एक कहानी जिसमें एक पेड़ अपने फल देता है, एक चिड़िया घोंसला बनाती है, एक बच्चा अपने दोस्त के साथ पक्षियों को पानी पिलाता है —ये सब बच्चों को मानवता का बीज देते हैं। जब ये कहानियाँ हट जाती हैं, तो वहां केवल ड्रामा, सनसनी, और डाटा बचता है। और यही संवेदनहीनता आने वाली पीढ़ी में पनपती है।

क्या पढ़ाई और ज्ञान सिर्फ स्कूल का काम है?

हमारे समाज ने बच्चों के ज्ञान का ठेका सिर्फ स्कूलों को दे रखा है। अख़बार, जो कभी 'घर की पाठशाला' हुआ करता था, अब स्वयं को 'वयस्कों की गॉसिप' तक सीमित कर चुका है। क्या बच्चे समाचारों के योग्य नहीं? क्या विज्ञान, पर्यावरण, नैतिकता, और समाज की बातें उन्हें नहीं बताई जानी चाहिए?
यदि हम चाहते हैं कि बच्चे “समझदार नागरिक” बनें तो
हमें उन्हें शुरुआत से ही संवाद और सवालों से जोड़ना होगा — और अख़बार इसकी सशक्त जगह हो सकती है।

क्या किया जा सकता है?

साप्ताहिक 'बाल संस्करण' पुनः शुरू किए जाएं – हर रविवार या महीने में दो बार बच्चों के लिए विशेष खंड हो। बाल संवाद और चित्रकथाएँ हों – जिनमें नैतिक मूल्य, विज्ञान की जिज्ञासा और समाज का परिचय हो। बच्चों की रचनाएँ छापी जाएं – कविताएँ, चित्र, सवाल, विचार। बाल पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाए – विद्यालय स्तर पर बच्चों से लिखवाया जाए, जो छपे भी। प्रेरणादायक ‘बच्चों के नायक’ दिखाए जाएं – जो स्क्रीन के बाहर भी उपलब्ध हों।

बेटा उस दिन सुबह मुझसे बोला —
"माँ, क्या आपके अख़बार में बच्चों के लिए कुछ नहीं होता?"
मैं चुप रह गई। ये चुप्पी सिर्फ एक माँ की नहीं, एक पूरे समाज की चुप्पी है। और जब अख़बार समाज का दर्पण होते हैं, तो इस दर्पण में प्रज्ञान जैसे लाखों बच्चों की मासूम जिज्ञासा को जगह मिलनी ही चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि कल के भारत में पाठक, लेखक और संवेदनशील नागरिक जन्म लें —
तो आज के समाचार पत्रों में प्रज्ञान के लिए भी एक पन्ना आरक्षित करना होगा।



 -प्रियंका सौरभ, 

 रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

 


मंगलवार, 20 मई 2025

सिर्फ परीक्षा के मार्क्स नहीं, बच्चों की काबिलियत भी देखें

बच्चों की शिक्षा का विषय हमेशा से ही समाज का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। माता-पिता और शिक्षक, दोनों ही बच्चों की सफलता के लिए चिंतित रहते हैं, लेकिन कई बार यह चिंता एक दबाव का रूप ले लेती है। विशेष रूप से अंक या ग्रेड के मामले में, यह दबाव बच्चों की मानसिक सेहत पर गहरा असर डाल सकता है। 

अंक बनाम काबिलियत: एक बुनियादी भेद अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे हर विषय में उत्कृष्ट अंक प्राप्त करें। वे यह मानते हैं कि अच्छे अंक अच्छे भविष्य की गारंटी हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि अंक केवल एक व्यक्ति की किताबी जानकारी का प्रमाण होते हैं, न कि उसकी असल क्षमता का। उदाहरण के लिए, एक बच्चा जिसे कला, संगीत, खेल या तकनीकी कौशल में रुचि है, वह संभवतः गणित या विज्ञान में उतने अच्छे अंक न ला पाए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह कम लायक है। काबिलियत का अर्थ केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन में समस्याओं को हल करने की क्षमता, नई चीजें सीखने का जज़्बा और परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता है।

अंक प्रणाली का वास्तविक प्रभाव हमारे शिक्षा प्रणाली का ढांचा अभी भी पारंपरिक मानदंडों पर आधारित है, जहां अंकों को सफलता का एकमात्र पैमाना माना जाता है। इससे बच्चों में असुरक्षा और आत्म-संकोच की भावना विकसित होती है। कई बच्चे अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरे न उतर पाने के डर से मानसिक तनाव का सामना करते हैं। यह मानसिक दबाव उनकी आत्म-छवि और आत्मविश्वास को नुकसान पहुंचा सकता है। साथ ही, यह न केवल बच्चों की पढ़ाई पर बल्कि उनके सामाजिक संबंधों और मानसिक सेहत पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। बच्चों में आत्मनिर्भरता और आत्म-विश्वास की भावना तभी विकसित होती है जब उन्हें बिना भय और दबाव के सीखने का अवसर मिले।

कैसे अंक प्रणाली बच्चों की रचनात्मकता को दबाती है अंक प्रणाली न केवल मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि बच्चों की रचनात्मकता और खोज की क्षमता को भी सीमित करती है। वे अपनी मौलिक सोच और रचनात्मकता को छोड़कर केवल अंकों की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। यह समस्या केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्वभर में देखी जा रही है, जहां छात्रों को एक निर्धारित पाठ्यक्रम में ढालने का प्रयास किया जाता है, बिना उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा को पहचानने की कोशिश किए। इसके परिणामस्वरूप, कई बच्चे अपनी वास्तविक क्षमता और रुचियों को पहचानने में विफल रहते हैं, जो कि उनके जीवन में दीर्घकालिक असंतोष का कारण बन सकता है।

समाज का नज़रिया और दबाव समाज का नज़रिया भी इस समस्या का एक बड़ा कारण है। अक्सर माता-पिता अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों से करने लगते हैं। यह तुलना बच्चों में हीन भावना और जलन पैदा कर सकती है। साथ ही, यह उनके आत्मविश्वास को कमजोर कर देती है। बच्चों को यह महसूस होने लगता है कि उनकी पहचान केवल उनके अंकों से ही मापी जाती है, न कि उनके चरित्र, कौशल और मानवीय मूल्यों से। बच्चों का मानसिक विकास तभी संभव है जब उन्हें बिना किसी भय और दबाव के सीखने का अवसर मिले।

परिवर्तन की आवश्यकता हमें शिक्षा के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं, बल्कि एक समझदार, सशक्त और नैतिक नागरिक का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए हमें अंकों से परे जाकर बच्चों की असल काबिलियत को पहचानने और उसे प्रोत्साहित करने की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। हमें यह समझना होगा कि हर बच्चा अद्वितीय है और उसकी रुचियां, क्षमताएं और सपने भी अलग हैं।

बच्चों को समर्थन दें, दबाव नहीं माता-पिता का कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को प्रेरित करें, न कि उन पर अनावश्यक दबाव डालें। हर बच्चा अनोखा होता है, उसकी सोच, रुचि और क्षमता भी अलग होती है। हमें चाहिए कि हम उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की आजादी दें, न कि केवल समाज के तय किए गए मापदंडों पर खरा उतरने का बोझ डालें। बच्चों के साथ संवाद करें, उनकी समस्याओं को समझें और उन्हें आत्मनिर्भर बनने का मौका दें। केवल अच्छे अंक लाने पर ही नहीं, बल्कि एक अच्छे इंसान बनने पर ध्यान केंद्रित करें। उन्हें जीवन के हर पहलू में सफलता पाने का आत्मविश्वास दें।

अंक जीवन का एक छोटा हिस्सा हैं, लेकिन असल काबिलियत और नैतिकता जीवन का असली मूल्य है। इसलिए हमें चाहिए कि हम बच्चों को केवल अच्छे अंक लाने के लिए नहीं, बल्कि एक अच्छे इंसान बनने के लिए प्रेरित करें। बच्चों की पहचान उनके अंकों से नहीं, बल्कि उनके विचारों, कर्मों और चरित्र से होनी चाहिए। बच्चों की असली पहचान उनके भीतर छुपी क्षमताओं, रचनात्मकता और आत्मनिर्भरता में होती है। यही वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। जीवन केवल अंकों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक व्यापक दृष्टिकोण और सकारात्मक सोच से भरा हुआ होना चाहिए।

अंक केवल एक व्यक्ति की किताबी जानकारी का प्रमाण होते हैं, न कि उसकी असल क्षमता का। असली काबिलियत जीवन की समस्याओं को हल करने, नई चीजें सीखने और परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता में होती है। हमें बच्चों को केवल अंकों की दौड़ में शामिल करने के बजाय उनकी व्यक्तिगत रुचियों, प्रतिभाओं और आत्मनिर्भरता को पहचानने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।


 -प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

गुरुवार, 13 मार्च 2025

होली के रंग : बदलते ज़माने की रंग बदलती होली

होली एक ऐसा त्यौहार है जिसे हर पृष्ठभूमि के लोग मनाते हैं, जिसमें दुश्मनी भुलाकर गले मिलते हैं। फिर भी, एकता और प्यार का यह त्यौहार बदल रहा है। फाल्गुन की खुशियाँ अब दूर की यादों की तरह लगती हैं। होली के रंग, कुछ सालों में फीके पड़ गए हैं। बड़े-बुजुर्ग इस बात पर अफ़सोस जताते हैं कि अब हंसी-मजाक, उत्साह और वह जीवंत भावना नहीं रही जो कभी इस उत्सव की पहचान हुआ करती थी। पानी की बौछारों की आवाज़ और होली की जीवंतता ने कुछ ही घंटों के उत्सव के बाद एक शांत ले ली है। "आओ राधे खेलें फाग, होली आई" के हर्षोल्लास और उत्सव के इर्द-गिर्द होने वाली मस्ती-मजाक की आवाज़ें समय के साथ दबती जा रही हैं।

फाल्गुन आते ही होली का उत्साह हवा में घुलने लगा। मंदिरों में फाग की ध्वनि गूंजने लगी और हर तरफ़ होली के लोकगीत सुनाई देने लगे। शाम होते ही ढप-चंग के साथ पारंपरिक नृत्यों ने होली के रंग चारों ओर बिखेर दिए। लोग ख़ुशी से एक-दूसरे पर पानी की छींटे मारते रहे और कोई कड़वाहट नहीं थी, बस ख़ुशी थी। होली की तैयारियाँ वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती थीं और समुदाय के आंगन और मंदिर चंग की थाप से जीवंत हो उठते थे। रात में चंग की थाप के साथ नृत्य ने सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। दूर से फाल्गुन गीत और रसिया गाने वाले लोग नृत्य में शामिल होकर तारों की छांव में होली का आनंद मनाते थे। हालांकि, जैसे-जैसे समय बदला है, रिश्तों की गर्माहट फीकी पड़ती नज़र आती है। आजकल होली की बधाई अक्सर मोबाइल या इंटरनेट के जरिए भेजे गए "हैप्पी होली" के साथ शुरू और ख़त्म होती है। पहले जैसा उत्साह और जश्न का माहौल अब नहीं रहा। पहले बच्चे हर मोहल्ले में होली के लिए समूह बनाकर होली का दान इकट्ठा करते थे और खुशी-खुशी किसी पर भी रंग फेंकते थे। यहाँ तक कि जब उन्हें चिढ़ाया या डांटा जाता था, तो वे हंसते थे। अब ऐसा लगता है कि लोग मौज-मस्ती करने के बजाय बहस करने में ज़्यादा रुचि रखते हैं।

पहले के समय में पड़ोसियों की बहू-बेटियों को परिवार की तरह माना जाता था। घर स्वादिष्ट व्यंजनों की ख़ुशबू से भर जाते थे और मेहमानों का खुले दिल से स्वागत किया जाता था। आज, समारोह ज्यादातर अपने घर तक ही सीमित रह गए हैं और समुदाय की भावना कम होती जा रही है। फ़ोन पर एक साधारण "होली मुबारक" ने पहले के दिल से जुड़े रिश्तों की जगह ले ली है, जिससे रिश्ते कम मधुर लगने लगे हैं। इस बदलाव के कारण परिवार अपनी बहू-बेटियों को दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने देने में हिचकिचाते हैं। पहले लड़कियाँ होली के दौरान ख़ुशी और हंसी-मजाक करती हुई खुली हवा में घूमती थीं, लेकिन अब अगर कोई लड़की किसी रिश्तेदार के घर ज़्यादा देर तक रुकती है, तो उसके परिवार में चिंता पैदा हो जाती है।

होली का त्यौहार खुशियों का मौसम हुआ करता था, जिसकी शुरुआत होली के पौधे लगाने से होती थी। छोटी-छोटी लड़कियाँ गाय के गोबर से वलुडिया बनाती थीं, खूबसूरत मालाएँ बनाती थीं, जिन पर आभूषण, नारियल, पायल और बिछिया होती थीं। दुख की बात है कि ये परंपराएँ अब ख़त्म हो गई हैं। पहले घर पर ही टेसू और पलाश के फूलों को पीसकर रंग बनाया जाता था और महिलाएँ होली के गीत गाती थीं। होली के दिन सभी लोग चंग की ताल पर नाचते हुए जश्न मनाते थे। बसंत पंचमी से ही फाग की धुनें गूंजने लगती थीं, लेकिन अब होली के गीत कुछ ही जगह सुनाई देते हैं। परंपरागत रूप से, विभिन्न समुदायों के लोग ढोलक और चंग की थाप के साथ होली खेलने के लिए एकत्रित होते थे। अब वह जीवंत भावना कहाँ चली गई है?

आज हम जो होली मनाते हैं, वह पहले की होली से काफ़ी अलग है। पहले, यह त्यौहार लोगों के बीच अपार ख़ुशी और एकता लेकर आता था। उस समय प्यार की सच्ची भावना होती थी और दुश्मनी कहीं नहीं दिखती थी। परिवार और दोस्त मिलकर रंगों और हंसी-मजाक के साथ जश्न मनाते थे।  जैसे-जैसे समय बदला है, रिश्तों की गर्माहट फीकी पड़ती नज़र आती है। आजकल होली की बधाई अक्सर मोबाइल या इंटरनेट के जरिए भेजे गए "हैप्पी होली" के साथ शुरू और ख़त्म होती है। पहले जैसा उत्साह और जश्न का माहौल अब नहीं रहा। पहले बच्चे हर मोहल्ले में होली के लिए समूह बनाकर होली का दान इकट्ठा करते थे और खुशी-खुशी किसी पर भी रंग फेंकते थे। यहाँ तक कि जब उन्हें चिढ़ाया या डांटा जाता था, तो वे हंसते थे। अब ऐसा लगता है कि लोग मौज-मस्ती करने के बजाय बहस करने में ज़्यादा रुचि रखते हैं।

आज, होली महज़ एक परंपरा की तरह लगती है। हाल के वर्षों में, सामाजिक गुस्सा और विभाजन इतना बढ़ गया है कि कई परिवार इस त्यौहार के दिन घर के अंदर ही रहना पसंद करते हैं। वैसे तो लोग सालों से होली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं, लेकिन इस त्यौहार का असली उद्देश्य भाईचारा बढ़ाना और नकारात्मकता को दूर करना है, जो अब कहीं खो गया है। समाज कई चुनौतियों का सामना कर रहा है और सामाजिक असमानता प्रेम, भाईचारे और मानवता के मूल्यों को ख़त्म कर रही है। एक समय था जब होली एक महत्त्वपूर्ण अवसर था, जब परिवार होलिका दहन देखने के लिए इकट्ठा होते थे और उसी दिन वे खुशी-खुशी एक-दूसरे पर रंग लगाते और अबीर फेंकते थे। समूह होली की खुशियाँ बाँटने के लिए एक-दूसरे के घर जाते और भांग की भावना में डूबे हुए फगुआ गीत गाते थे। अब, वास्तविकता यह है कि होली पर कुछ ही लोग घर से बाहर रहना पसंद करते हैं। हर महीने और हर मौसम में एक नया त्यौहार आता है, जो हमें उस ख़ुशी की याद दिलाता है जो वे ला सकते हैं। ये उत्सव हमें उत्साहित करते हैं, हमारे दिलों में उम्मीद जगाते हैं और अकेलेपन की भावनाओं को दूर करते हैं, भले ही कुछ पल के लिए ही क्यों न हो। हमें इस त्यौहारी भावना को संजोकर रखना चाहिए।

 -प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045