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बुधवार, 20 अगस्त 2025

भारत@79: अटूट शक्ति की ओर..... "79 वर्षों की यात्रा से विश्व-नेतृत्व की दहलीज़ तक — भारत का समय अब है।"

"उन्नासी वर्ष की यात्रा में भारत ने संघर्ष से सफलता, और सफलता से नेतृत्व की राह तय की है। आज हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र, उभरती अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक महाशक्ति के रूप में खड़े हैं। परंतु असली लक्ष्य अभी बाकी है — शिक्षा में नवाचार, आत्मनिर्भर कृषि-उद्योग, स्वदेशी रक्षा, स्वच्छ ऊर्जा और सामाजिक एकता के पाँच स्तंभ हमें विश्व नेतृत्व की ओर ले जाएंगे। यह समय उत्सव का भी है और संकल्प का भी, ताकि भारत न केवल अपने लिए, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए विकास और शांति का मार्गदर्शक बने।" 

उन्नासी वर्ष पहले, आधी रात के सन्नाटे में जब भारत ने स्वतंत्रता का पहला श्वास लिया, तो वह केवल एक राजनीतिक घटना नहीं थी। वह एक संपूर्ण सभ्यता के पुनर्जन्म का क्षण था। तिरंगा जब लाल किले की प्राचीर पर लहराया, तो हर गाँव, हर शहर, हर हृदय में आत्मसम्मान का एक दीप जल उठा। यह दीप केवल एक दिन के लिए नहीं था; इसे जलाए रखना हमारी पीढ़ियों की जिम्मेदारी बन गई।

आज हम उस गौरवशाली यात्रा के उन्नासी वर्ष पूरे कर चुके हैं। इस दौरान हमने अनगिनत उपलब्धियाँ हासिल कीं — वैज्ञानिक प्रगति, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और लोकतांत्रिक मजबूती। परंतु, क्या हम इस यात्रा को केवल अतीत की गौरवगाथा के रूप में देखेंगे, या इसे विश्व नेतृत्व की ठोस राह में बदलेंगे? भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पर असली चुनौती है — हमारा यह सामर्थ्य मानवता के हित में किस तरह दिशा पाए। विश्व-नेतृत्व की ओर बढ़ने के लिए हमें पाँच मूल स्तंभों पर ध्यान केंद्रित करना होगा: शिक्षा से नवाचार तक, आत्मनिर्भर कृषि-उद्योग, स्वदेशी रक्षा सामर्थ्य, स्वच्छ ऊर्जा नेतृत्व, और अटूट सामाजिक एकता।

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली ने साक्षरता के स्तर को बढ़ाया है, पर यह पर्याप्त नहीं है। हमें शिक्षा को सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई तक सीमित न रखकर ज्ञान, कौशल और शोध आधारित प्रणाली बनानी होगी। विद्यालय और विश्वविद्यालय शोध और नवाचार के केंद्र बनें। तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को मज़बूत किया जाए ताकि युवा केवल नौकरी खोजने वाले नहीं, बल्कि नौकरी पैदा करने वाले बनें। प्राथमिक स्तर से ही आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया जाए। यदि हम अपने युवाओं को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाएँ, तो यही पीढ़ी भारत को आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति बना सकती है।

भारत की रीढ़ उसकी कृषि है। परंतु, आधुनिक भारत में केवल पारंपरिक खेती से हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे नहीं बढ़ सकते। कृषि में वैज्ञानिक तकनीक, सिंचाई के आधुनिक साधन, और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना होगा। किसानों को उचित मूल्य और बाजार तक सीधी पहुँच मिलनी चाहिए। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और ग्रामीण आधारित लघु-उद्योगों को बढ़ावा देकर गाँव को ही उत्पादन और निर्यात का केंद्र बनाया जाए। जब कृषि और उद्योग साथ मिलकर आत्मनिर्भर बनेंगे, तो भारत की आर्थिक नींव अटूट हो जाएगी।

रक्षा केवल सीमाओं की सुरक्षा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और तकनीकी श्रेष्ठता का प्रतीक भी है। हमें विदेशी हथियारों के आयातक से स्वदेशी तकनीक के निर्यातक बनने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। रक्षा अनुसंधान संस्थानों और निजी उद्योगों में साझेदारी से अत्याधुनिक हथियार, ड्रोन, और साइबर सुरक्षा प्रणालियाँ विकसित की जाएँ। रक्षा उत्पादन में बढ़ी हुई आत्मनिर्भरता न केवल हमारी सुरक्षा को मजबूत करेगी, बल्कि रक्षा निर्यात से विदेशी मुद्रा भी लाएगी। भारत को केवल अपने लिए नहीं, बल्कि मित्र राष्ट्रों के लिए भी सुरक्षा समाधान का केंद्र बनना चाहिए।

21वीं सदी में ऊर्जा का भविष्य स्वच्छ और नवीकरणीय स्रोतों पर निर्भर है। सौर, पवन, और जैव ऊर्जा में अग्रणी बनकर भारत जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में उदाहरण पेश कर सकता है। गाँव-गाँव तक सौर पैनल और माइक्रोग्रिड तकनीक पहुँचाई जाए। स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में शोध और स्टार्टअप को सरकारी प्रोत्साहन मिले। इससे न केवल पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, बल्कि भारत ऊर्जा के क्षेत्र में एक वैश्विक नेता के रूप में उभरेगा।

आर्थिक और तकनीकी प्रगति तभी टिकाऊ है, जब समाज एकजुट हो। जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर बँटवारा हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। विविधता को केवल पाठ्यपुस्तक की पंक्तियों में नहीं, बल्कि व्यवहार और नीतियों में जीना होगा। हर नागरिक को समान अवसर और सम्मान मिले, यही लोकतंत्र का असली मापदंड है। भारत की सभ्यता ने सदियों से सहिष्णुता, करुणा और सहयोग की शिक्षा दी है। इन मूल्यों को नीतियों और कूटनीति का आधार बनाना होगा।

79 वर्षों की यात्रा ने हमें यह सिखाया है कि प्रगति कोई स्थायी मंज़िल नहीं, बल्कि निरंतर प्रयास का परिणाम है। अशोक चक्र के 24 आरे हमें यह याद दिलाते हैं कि राष्ट्र की गति कभी रुकनी नहीं चाहिए। आज का भारत मंगल और चंद्रमा को छू चुका है, वैश्विक खेलों और संस्कृति में अपनी पहचान बना चुका है, और तकनीक व विज्ञान में नई ऊँचाइयाँ छू रहा है। लेकिन इन उपलब्धियों को टिकाऊ और व्यापक बनाने के लिए दीर्घकालिक दृष्टि और अटूट इच्छाशक्ति चाहिए।

जब हम तिरंगे को लहराते हैं, तो केसरिया रंग हमें साहस का संदेश देता है — सही निर्णय लेने और कठिन सुधार लागू करने का साहस। सफ़ेद हमें सत्य और पारदर्शिता की याद दिलाता है, जो लोकतंत्र की आत्मा है। हरा हमें सतत विकास का आह्वान करता है, और अशोक चक्र हमें सतत गति का प्रतीक बनकर प्रेरित करता है।

यह उन्नासीवाँ स्वतंत्रता दिवस केवल उत्सव का दिन नहीं है। यह संकल्प का क्षण है कि भारत न केवल अपनी सीमाओं की रक्षा करेगा, बल्कि दुनिया को शांति, संतुलन और विकास का मार्ग दिखाएगा। यह समय है जब हम अपने अतीत से प्रेरणा लेकर, वर्तमान की चुनौतियों को स्वीकारते हुए, भविष्य को आकार दें। भारत का समय अब है — और हमें यह कदम दृढ़ता से उठाना होगा।

-डॉo सत्यवान सौरभ, 
(कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार)
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148, 01255281381

सोमवार, 14 अगस्त 2017

"स्वतंत्रता दिवस" एवं "श्रीकृष्ण जन्माष्टमी" की हार्दिक शुभकामनाएँ

केसरिया बल भरने वाला, सादा है सच्चाई,
हरा रंग है हरी हमारी, धरती की अँगड़ाई।
और कहता है यह चक्र हमारा कदम कभी न रुकेगा, 
हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा !!

.........स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !!
Happy Independence day.


देश की आजादी की एक और सालगिरह । स्वतंत्रता को आज व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरुरत है। स्वतंत्रता माने सिर्फ राजनैतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक, आध्यात्मिक, पारिवारिक और अन्तत: वैयक्तिक स्वतंत्रता भी है, जहाँ हर स्तर पर निर्णय-प्रक्रिया में हम भागीदार हो सकें और सकारात्मक रूप में देश और समाज के लिए कुछ कर सकें। स्वतंत्रता अपने आप में संपूर्ण है। इसका शाब्दिक विश्लेषण करें तो यह स्व का तंत्र है, अर्थात स्वयं को पा लेना ...इस स्वतंत्रता दिवस पर आत्मविश्लेषण करके देखने की जरुरत है कि क्या हम अपनी चेतना को पूर्ण रूप में पा चुके हैं और सच्चे अर्थों में वाकई स्वतंत्र हैं ..स्वतंत्रता दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं..!! 

(चित्र में : 
बेटी अपूर्वा तिरंगे के साथ, जिसे उसने अपनी दीदी अक्षिता के साथ मिलकर बनाया और कलर किया है)
श्रीकृष्ण सिर्फ एक भगवान या अवतार भर नहीं थे।  इन सबसे आगे वह एक ऐसे पथ-प्रदर्शक और मार्गदर्शक थे, जिनकी सार्थकता  हर युग में बनी रहेगी।  उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नहीं, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका गीता-ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। आज देश के युवाओं को श्रीकृष्ण के विराट चरित्र के बृहद अध्ययन की जरूरत है। राजनेताओं को उनकी विलक्षण राजनीति समझने की दरकार है और धर्म के प्रणेताओं, उपदेशकों को यह समझने की आवश्यकता है कि श्रीकृष्ण ने जीवन से भागने या पलायन करने या निषेध का संदेश कभी नहीं दिया।  श्रीकृष्ण ने कभी कोई निषेध नहीं किया। उन्होंने पूरे जीवन को समग्रता के साथ स्वीकारा है। यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण की स्तुति लगभग सारी दुनिया में किसी न किसी रूप में की जाती है। यहाँ तक कि वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्मनिरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं, वे भी निश्चित रूप से भगवदगीता से प्रभावित हैं।  श्रीकृष्ण द्वारा गीता में कहे गए उपदेशों का हर एक वाक्य हमें कर्म करने और जीने की कला सिखाता है। अब तो कॉरपोरेट जगत भी मैनेजमेंट के सिद्धांतों को गीता से जोड़कर प्रतिपादित कर रहा है।श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ !!



"स्वतंत्रता दिवस" एवं  "श्रीकृष्ण जन्माष्टमी" के शुभ पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ !!
Happy Independence day & Happy Krishna Janmashtami.

शनिवार, 23 जुलाई 2016

क्रन्तिकारी चन्द्रशेखर 'आजाद' और इलाहाबाद से जुड़ी उनकी यादें


भारत की फिजाओं को सदा याद रहूँगा 
आज़ाद था, आज़ाद हूँ, आज़ाद रहूँगा !


आज चन्द्रशेखर 'आजाद' (23 जुलाई, 1906 - 27 फरवरी, 1931) की आज 110 वीं जयंती है। ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यन्त सम्मानित और लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी रहे आज़ाद पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह सरीखे महान क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। इलाहाबाद में उनका अंतिम समय गुजरा और यहीं की मिट्टी में उन्होंने अंतिम साँस ली। आज भी कंपनी गार्डेन में लगी उनकी भव्य मूर्ति उनके जीवन को प्रतिबिंबित करती है। वाकई वो अंत तक आज़ाद ही रहे। 

चन्द्रशेखर 'आजाद' की जयंती पर शत-शत नमन !!


अमर शहीद चन्द्र शेखर आजाद की 27 फरवरी, 1931 की अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद में पुलिस से हुई मुठभेड़ में प्रयुक्त पिस्तौल जो तत्कालीन पुलिस अधीक्षक, इलाहाबाद सर जॉन नाट बावर के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। इसे इलाहाबाद संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। 

!! स्वतंत्रता संग्राम के क्रन्तिकारी नायक चन्द्रशेखर आज़ाद जी की 110वीं जयंती पर उन्हें शत-शत नमन !!


मंगलवार, 26 जनवरी 2016

गणतंत्र दिवस के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई


 जब हम तिरंगे के नीचे खड़े होते हैं
तो हमारे ऊपर बस एक झंडा नहीं होता,

हमारे ऊपर होते हैं 121 करोड़ धड़कते दिल,

और वो सारे चेहरे
जो कभी हमने देखे हैं,

हमारे ऊपर होते हैं
वो कुछ मुट्ठी भर लोग
जिनकी वजह से आज हम
आजाद हवा में सांस लेते है,

और कुछ सपने
कुछ हसरतें,
जो जनम लेती हैं
उसी तिरंगे तले

ये तीन रंग के कपड़े का बस एक टुकड़ा भर नहीं है
ये तिरंगा दरअसल एक ज़िंदा इतिहास है,

एक इतिहास
जो धड़कते दिलों के एहसासों से लिखा गया है।

तभी तो किसी ने बहुत खूबसूरती से लिखा है -

ज़माने भर में मिलते हैं आशिक कई,
मगर वतन से खूबसूरत कोई सनम नहीं होता !
नोटों में भी लिपट कर, सोने में सिमटकर मरे हैं कई,
मगर तिरंगे से खूबसूरत कोई कफ़न नहीं होता !!


67 वें गणतंत्र दिवस के पावन पर्व पर आप सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें !!
जय हिन्द ! जय भारत !!

- आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर 
Akanksha Yadav @ http://shabdshikhar.blogspot.in/

शनिवार, 15 अगस्त 2015

हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा


आजादी के पर्व का जश्न आते ही यह गीत अनायास ही होठों पर आ जाता है।  स्कूली दिनों से ही यह राष्ट्र भक्ति गीत सुनते, सुनाते और गुनगुनाते आ रहे हैं। यह तो नहीं पता कि यह खूबसूरत गीत किसने लिखा, पर जिन्होंने भी लिखा लाजवाब।  आज एक बार फिर से इस गीत को आप सभी के साथ शेयर करते हुए प्रसन्नता हो रही है। इसके रचयिता का नाम पता हो तो जरूर लिखियेगा !!

हिन्द देश का प्यारा झंडा ऊँचा सदा रहेगा
तूफान और बादलों से भी नहीं झुकेगा
नहीं झुकेगा, नहीं झुकेगा, झंडा नहीं झुकेगा
हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा !!

केसरिया बल भरने वाला सदा है सच्चाई
हरा रंग है हरी हमारी धरती है अँगड़ाई
कहता है यह चक्र हमारा कदम कभी नहीं रुकेगा
हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा !!

शान नहीं ये झंडा है ये अरमान हमारा
ये बल पौरुष है सदियों का ये बलिदान हमारा
आसमान में फहराए या सागर में लहराए
जहाँ-जहाँ ये झंडा जाए यह सन्देश सुनाए
है आज़ाद हिन्द ये दुनिया को आज़ाद करेगा
हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा !!

नहीं चाहते हम दुनिया को अपना दास बनाना
नहीं चाहते हम औरों के मुँह की रोटी खा जाना
सत्य न्याय के लिए हमारा लहू सदा बहेगा
हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा !!

हम कितने सुख सपने लेकर इसको फहराते हैं
इस झंडे पर मर मिटने की कसम सभी खाते हैं
हिन्द देश का यह झंडा घर-घर में लहराएगा
हिंद देश का प्यारा झंडा, ऊँचा सदा रहेगा !!

- आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर 






Sand artist Sudarsan Pattnaik creates a sand sculpture on Independence Day at Puri beach of Odisha on Thursday. (PTI Photo)

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से उठाई भारत में बेटियों की व्यथा

स्वतंत्रता दिवस पर  प्रधानमंत्री मोदी जी ने लालकिले से अपने भाषण में राजनैतिक कम, सामाजिक मुद्दों को ज्यादा तरजीह दी। समाज और परिवार पर  कटाक्ष करते हुए उन्होंने एक अहम  बात कही कि आखिर सवालों और बंदिशों के घेरे  में बेटियाँ ही क्यों, बेटे क्यों नहीं रखे जाते ? बेटा-बेटी  के प्रति समाज का  दोहरापन ही तमाम बुराईयों की जड़ है और जिसका प्रतिबिम्ब आज नारी से दुर्व्यवहार और रेप जैसी घटनाओं  में साफ दिख रहा है। आखिर बेटों से यह सवाल क्यों नहीं पूछे जाते कि उनके दोस्त कौन हैं, वे कहाँ जा रहे हैं, उनकी गतिविधियाँ क्या हैं जबकि बेटियों से ये सारे सवाल बार-बार पूछे जाते हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सारे फरमान भी बेटियों पर ही बंदिश लगाते हैं। रेप जैसी घटनाओं के लिए सिर्फ बेटों ही नहीं उनके माँ-बाप भी उतने ही जिम्मेदार हैं।  मोदी जी ने जोर देकर कहा कि बलात्कार की घटनाओं के बारे में सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है। माता-पिता बेटियों पर बंधन डालते हैं, लेकिन उन्हें बेटों से भी पूछना चाहिए, वे कहां जा रहे हैं, क्या करने जा रहे हैं ? कानून के साथ समाज को भी जिम्मेदार बनना होगा। 

भ्रूण हत्या पर मोदी जी ने बेहद तल्खी से कहा कि,  हमने हमारा लिंगानुपात देखा है...? समाज में यह असंतुलन कौन बना रहा है...? भगवान नहीं बना रहे...! मैं डॉक्टरों से अपील करता हूं कि वे अपनी तिजोरियां भरने के लिए किसी मां की कोख में पल रही बेटी को न मारें... बेटियों को मत मारो, यह 21वीं सदी के भारत के माथे पर कलंक है। 

मोदी जी ने कहा कि ऐसे परिवार देखे हैं, जहां बड़े मकानों में रहने वाले पांच-पांच बेटों के बावजूद बूढ़े मां-बाप वृद्धाश्रम में रहते हैं... और ऐसे भी परिवार हैं, जहां इकलौती बेटी ने माता-पिता की देखभाल करने के लिए शादी तक नहीं की... सो, एक बेटी पांच-पांच बेटों से भी ज़्यादा सेवा कर सकती है...

मोदी जी ने लाल किले से इस बात को उठाया है तो आवाज़ भी दूर तक जानी चाहिये। 

लाल किले की प्राचीर से जब तिरंगा बुलंदी से फहरा रहा था तो इसी के साथ लोगों की आशाएं भी जगीं। आने वाले दिनों में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया से आधी आबादी सकारात्मक और सख्त क़दमों की आशा तो कर ही सकती है, आखिर इसके बिना तो भारत को सुदृढ़, सशक्त और विकसित नहीं बनाया जा सकता  !!

सोमवार, 18 नवंबर 2013

व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द रानी लक्ष्मीबाई

बुंदेले हरबोलों  के मुँह हमने सुनी कहानी थी. 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी.

‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। कुल बाईस वर्ष से कुछ कम ही उम्र में रानी ने वीरगति पायी थी | इस अल्प जीवन में रानी का अदम्य साहस उन्हें भारतीयों के दिलों पर युगों के लिए अमर कर गया | यह सत्य है कि तत्कालीन रजवाडों ने उनका साथ नहीं दिया, पर उनके बिना भी उन्होंने अंग्रेजी तेवरों को चुनौती देते हुए कहा कि ‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।” रानी ने अपने अधिकार के लिए संघर्ष किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा हैं | तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा- ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।” 


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह दुर्लभ फोटो वर्ष 1850 में कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन ने खींचा था। इस फोटो को 19 अगस्त, 2009 को भोपाल में आयोजित विश्व फोटोग्राफी प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। यह चित्र अहमदाबाद के एक पुरातत्व महत्व की वस्तुओं के संग्रहकर्ता अमित अम्बालाल ने भेजा था। माना जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई का यही एकमात्र फोटोग्राफ उपलब्ध है.

रानी लक्ष्मीबाई को जयंती (19 नवम्बर) पर शत-शत नमन !! 


बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

मैं राजघाट से गाँधी की आत्मा बोल रहा हूँ ....




मैं राजघाट से गाँधी नहीं, 
उनकी आत्मा बोल रहा हूँ
मेरी समाधी पर वर्षो से शीश झुका रहे है
भारत के भ्रष्ट और बेईमान नेता और अपने 
काले कृत्यों में मुझे जोड़ दुःख पहुचाते हैं
जानते हुए भी की मैंने ऐसे भारत की
कभी परिकल्पना भी नहीं की थी.
आते है विश्व नेता भी जो मुझे
भारतियों से अधिक जानते है
जो सचमुच मुझसे स्नेह करते है
मेरे दर्शन को जानते है,
मुझसे प्रेरणा लेते है

क्या भारत में ऐसी कोई जगह है
जहाँ मेरी तस्वीर न छपी हो
और जहाँ मेरा निरादर न हो
यहाँ तक की सबसे अधिक काले धन की
मुद्रा पर भी मेरी ही तस्वीर छाप दी

मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ
न ही यह मेरा निवास स्थान है.
मैं एक विचारधारा हूँ जो असंख्य
लोगो के दिलो में बस्ती है
मैं प्रतिबिम्ब हूँ उन करोड़े देशवासियों का.
मेरी समाधी पर आ कर फूल
अर्पित करने वालो, कभी अपने अन्दर
झांक कर देखो, क्या कभी
तुमने उन आदर्शो को अपने जीवन
में जीने का प्रयास भी किया है, 
जिनके लिए लिए मैंने अपना
पूरा जीवन जी कर दिखलाया,
मेरा दर्शन समझने की कोशिश तो करो,
मैं भारत की आत्मा हूँ, मेरे दर्शन में ही
छिपा है भारत की समस्याओ का हल

यहाँ सत्यागढ़ के ढकोसले मत करो
दुःख होता है मेरी आत्मा को
मुझे किसी की गोली ने नहीं मारा
मारा है तो बेईमान भ्रष्ट राजनेताओ
नौकरशाहों और व्यव्सहियो ने

मेरी समाधी कोई पर्यटन स्थल नहीं
यहाँ आकर फूल मत अर्पण करो
यह भारत मेरे सपनो का भारत नहीं
अब यहाँ अहिंसा परमो धर्म नहीं
यहाँ तस्वीर मत खिचवाया करो
क्योंकि मैं तो कब का छोड़ चुका हूँ
इस राजघाट को, जन्म ले चुका हूँ
किसी और के रूप में
और तुम पूजे जा रहे हो ........

तुमने मेरे सपनो के भारत को
कुत्सित राजनेतिक चालों से 
बदल दिया है एक भ्रष्ट राष्ट्र में
अब तो मेरी तस्वीर भारतीय मुद्रा से हटा,
छाप दो उन चेहरों को जिन्होंने लूटा है
मेरे भारत की भोली भाली मासूम जनता हो
और मुझे चैन से बैठ कर पश्चाताप करने दो
की मैंने क्यों भारत को आज़ाद कराने की गलती की

विनोद पासी "हंसकमल"

( फेसबुक पर 'शब्द-शिखर' ग्रुप में विनोद पासी "हंसकमल"जी की प्रकाशित यह कविता साभार) 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

जय हो वीर जवानों की


वीर जवानों की जय हो
भारतमाता की जय हो

जो कि सत्य के लिए अड़े
जो कि न्याय के लिए लड़े
भारत माँ की रक्षा में
प्राणदान के लिए बढ़े।
सत्कर्मों का संचय हो
भारतमाता की जय हो।

सर्दी में जो पड़े रहे
मोर्चे पर जो अड़े रहे
नेफा में कश्मीर में
ले बन्दूकें खड़े रहे
पराधीनता का क्षय हो
भारतमाता की जय हो।

उनसे सबकी आजादी
उनसे सबकी खुशहाली
राणा शिवा सुभाष वे
युग उनसे गौरवशाली
परंपरा यह अक्षय हो
भारतमाता की जय हो।


-डॉ० राष्ट्रबंधु
संपादक-बाल साहित्य समीक्षा
रामकृष्ण नगर, कानपुर (यू. पी.)

सोमवार, 15 अगस्त 2011

क्या है आजादी का मतलब ??

आज स्वतंत्रता दिवस है. पर क्या वाकई हम इसका अर्थ समझते हैं या यह छलावा मात्र है. सवाल दृष्टिकोण का है. इसे समझने के लिए एक वाकये को उद्धृत करना चाहूँगीं-

देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-’’नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं।‘‘ नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-’’ माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और ’तू‘ कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है।‘‘ इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और आजादी के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया।

आजादी की यही विडंबना है कि हम नेहरू अर्थात आजादी व लोकतंत्र के पहरूए एवं बूढ़ी औरत अर्थात जनता दोनों में से किसी को भी गलत नहीं कह सकते। दोनों ही अपनी जगहों पर सही हैं, अन्तर मात्र दृष्टिकोण का है। गरीब व भूखे व्यक्ति हेतु आजादी और लोकतंत्र का वजूद रोटी के एक टुकड़े में छुपा हुआ है तो अमीर व्यक्ति हेतु आजादी और लोकतंत्र का वजूद अपनी शानो-शौकत, चुनावों में अपनी सीट सुनिश्चित करने और अंततः मंत्री या किसी अन्य प्रतिष्ठित संस्था की चेयरमैनशिप पाने में है। यह एक सच्चायी है कि दोनों ही अपनी वजूद को पाने हेतु कुछ भी कर सकते हैं। भूखा और बेरोजगार व्यक्ति रोटी न पाने पर चोरी की राह पकड़ सकता है या समाज के दुश्मनों की सोहबत में आकर आतंकवादी भी बन सकता है। इसी प्रकार अमीर व्यक्ति धन-बल और भुजबल का प्रयोग करके चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकता है। यह दोनों ही लोकतान्त्रिक आजादी के दो विपरीत लेकिन कटु सत्य हैं।


परन्तु इन दोनों कटु सत्यों के बीच आजादी कहाँ है, संभवतः यह आज भी एक अनुत्तरित प्रश्न है ?...फ़िलहाल आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !!

गुरुवार, 10 मार्च 2011

105 साल का हो गया सेलुलर जेल


यह तीर्थ महातीर्थों का है.
मत कहो इसे काला-पानी.
तुम सुनो, यहाँ की धरती के
कण-कण से गाथा बलिदानी (गणेश दामोदर सावरकर)

आजकल अंडमान-निकोबार दीप समूह में हूँ. वही अंडमान, जो काला पानी के लिए प्रसिद्द है. आप भी सोचते होंगे कि भला काला-पानी का क्या रहस्य है. तो आइये आज आपको उसी काला पानी की सैर कराते हैं-

भारत का सबसे बड़ा केंद्रशासित प्रदेश अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह सुंदरता का प्रतिमान है और सुंदर दृश्यावली के साथ सभी को आकर्षित करता है। बंगाल कि खाड़ी के मध्य प्रकृति के खूबसूरत आगोश में 8249 वर्ग कि0मी0 में विस्तृत 572 द्वीपों (अंडमान-550, निकोबार-22) के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भले ही मात्र 38 द्वीपों (अंडमान-28, निकोबार-10) पर जन-जीवन है, पर इसका यही अनछुआपन ही आज इसे 'प्रकृति के स्वर्ग' रूप में परिभाषित करता है। निकोबार द्वीप समूह के ग्रेट निकोबार द्वीप में ही भारत का सबसे दक्षिणी छोर 'इंदिरा प्वाइंट' भी अवस्थित है, जो कि इंडोनेशिया से लगभग 150 कि0मी0 दूर है। यहीं अंडमान में ही ऐतिहासिक सेलुलर जेल है. सेलुलर जेल का निर्माण कार्य 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ. सेलुलर जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं।

(इस दृश्य के माध्यम से इसे समझा जा सकता है) अंडमान को काला पानी कहा जाता रहा है तो इसके पीछे बंगाल की खाड़ी और जेल की ही भूमिका है. अंग्रेजों के दमन का यह एक काला अध्याय था, जिसके बारे में सोचकर अभी भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कहते हैं कि अंडमान का नाम हनुमान जी के नाम पर पड़ा. पहले भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई इधर से ही करने की सोची पर बाद में यह विचार त्याग दिया. अंडमान शब्द की उत्पत्ति मलय भाषा के 'हांदुमन' शब्द से हुई है जो भगवान हनुमान शब्द का ही परिवर्तित रुप है। निकोबार शब्द भी इसी भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ होता है नग्न लोगों की भूमि। (वीर सावरकर को इसी काल-कोठरी में बंदी रखा गया. यह काल-कोठरी सबसे किनारे और अन्य कोठरियों से ज्यादा सुरक्षित बने गई है. गौरतलब है कि सावरकर जी के एक भाई भी काला-पानी की यहाँ सजा काट रहे थे, पर तीन सालों तक उन्हें एक-दूसरे के बारे में पता तक नहीं चला. इससे समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने यहाँ क्रांतिकारियों को कितना एकाकी बनाकर रखा था.)

वीर सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों को यहीं सेलुलर जेल की काल-कोठरियों में कैद रखा गया और यातनाएं दी गईं. सेलुलर जेल अपनी शताब्दी मना चुका है पर इसके प्रांगन में रोज शाम को लाइट-साउंड प्रोग्राम उन दिनों की यादों को ताजा करता है, जब हमारे वीरों ने काला पानी की सजा काटते हुए भी देश-भक्ति का जज्बा नहीं छोड़ा. गन्दगी और सीलन के बीच समुद्री हवाएं और उस पर से अंग्रेजों के दनादन बरसते कोड़े मानव-शरीर को काट डालती थीं. पर इन सबके बीच से ही हमारी आजादी का जज्बा निकला. दूर दिल्ली या मेट्रो शहरों में वातानुकूलित कमरों में बैठकर हम आजादी के नाम पर कितने भी व्याख्यान दे डालें, पर बिना इस क्रांतिकारी धरती के दर्शन और यहाँ रहकर उन क्रांतिवीरों के दर्द को महसूस किये बिना हम आजादी का अर्थ नहीं समझ सकते.

सेलुलर जेल में अंग्रेजी शासन ने देशभक्त क्रांतिकारियों को प्रताड़ित करने का कोई उपाय न छोड़ा. यातना भरा काम और पूरा न करने पर कठोर दंड दिया जाता था. पशुतुल्य भोजन व्यवस्था, जंग या काई लगे टूटे-फूटे लोहे के बर्तनों में गन्दा भोजन, जिसमें कीड़े-मकोड़े होते, पीने के लिए बस दिन भर दो डिब्बा गन्दा पानी, पेशाब-शौच तक पर बंदिशें कि एक बर्तन से ज्यादा नहीं हो सकती. ऐसे में किन परिस्थितियों में इन देश-भक्त क्रांतिकारियों ने यातनाएं सहकर आजादी की अलख जगाई, वह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सेलुलर जेल में बंदियों को प्रतिदिन कोल्हू (घानी) में बैल की भाँति घूम-घूम कर 20 पौंड नारियल का तेल निकालना पड़ता था. इसके अलावा प्रतिदिन 30 पौंड नारियल की जटा कूटने का भी कार्य करना होता. काम पूरा न होने पर बेंतों की मार पड़ती और टाट का घुटन्ना और बनियान पहनने को दिए जाते, जिससे पूरा बदन रगड़ खाकर और भी चोटिल हो जाता. अंग्रेजों की जबरदस्ती नाराजगी पर नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते. जब भी किसी को फांसी दी जाती तो क्रांतिकारी बंदियों में दहशत पैदा करने के लिए तीसरी मंजिल पर बने गुम्बद से घंटा बजाया जाता, जिसकी आवाज़ 8 मील की परिधि तक सुनाई देती थी.
भय पैदा करने के लिए क्रांतिकारी बंदियों को फांसी के लिए ले जाते हुए व्यक्ति को और फांसी पर लटकते देखने के लिए विवश किया जाता था।वीर सावरकर को तो जान-बूझकर फांसी-घर के सामने वाले कमरे में ही रखा गया था.फांसी के बाद मृत शरीर को समुद्र में फेंक दिया जाता था.
अब आप समझ सकते हैं कि इस जगह को काला-पानी क्यों कहा जाता था. एक तरफ हमारे धर्म समुद्र पार यात्रा की मनाही करते थे, वहीँ यहाँ मुख्यभूमि से हजार से भी ज्यादा किलोमीटर दूर लाकर देशभक्तों को प्रताड़ित किया जाता था. आजादी का अर्थ सिर्फ अच्छा खाना, घूमना य मौज-मस्ती ही परिचायक नहीं है, बल्कि इसके लिए हमें उन मूल्यों की भी रक्षा करनी होगी जिसके लिए देशभक्तों ने अपनी कुर्बानियां दे दी !!
सेलुलर जेल की 105 वीं वर्षगाँठ पर उन सभी नाम-अनाम शहीदों और कैद में रहकर आजादी का बिगुल बजाने वालों को नमन !!

[ चित्रों में : कृष्ण कुमार, आकांक्षा एवं अक्षिता (पाखी) ]

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी (जन्मतिथि 19 नवम्बर पर विशेष)

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था।

क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।

1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हंे मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।

बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुतः 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पंेशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”

रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाॅंध घोडे़ पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहॅंुची, जहाॅं तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।....अन्ततः 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा- ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”

इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- ''खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।'' माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- ''चमक उठी सन् सत्तावन में/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलों के मुँह/हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो/झाँसी वाली रानी थी।''

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

महात्मा गाँधी


महात्मा गाँधी
सत्य और अहिंसा की मूर्ति
जिसके सत्याग्रह ने
साम्राज्यवाद को भी मात दी
जिसने भारत की मिट्टी से
एक तूफान पैदा किया
जिसने पददलितों और उपेक्षितों
की मूकता को आवाज दी
जो दुनिया की नजरों में
जीती-जागती किवदंती बना
आज उसी गाँधी को हमने
चौराहों, मूर्तियों, सेमिनारों और किताबों
तक समेट दिया
गोडसे ने तो सिर्फ
उनके भौतिक शरीर को मारा
पर हम रोज उनकी
आत्मा को कुचलते देखते हैं
खामोशी से।

(पतिदेव कृष्ण कुमार जी के काव्य-संकलन 'अभिलाषा' से साभार )

रविवार, 15 अगस्त 2010

क्या है आजादी का मतलब ??

आज स्वतंत्रता दिवस है. पर क्या वाकई हम इसका अर्थ समझते हैं या यह छलावा मात्र है. सवाल दृष्टिकोण का है. इसे समझने के लिए एक वाकये को उद्धृत करना चाहूँगीं-

देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-’’नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं।‘‘ नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-’’ माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और ’तू‘ कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है।‘‘ इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और आजादी के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया।

आजादी की यही विडंबना है कि हम नेहरू अर्थात आजादी व लोकतंत्र के पहरूए एवं बूढ़ी औरत अर्थात जनता दोनों में से किसी को भी गलत नहीं कह सकते। दोनों ही अपनी जगहों पर सही हैं, अन्तर मात्र दृष्टिकोण का है। गरीब व भूखे व्यक्ति हेतु आजादी और लोकतंत्र का वजूद रोटी के एक टुकड़े में छुपा हुआ है तो अमीर व्यक्ति हेतु आजादी और लोकतंत्र का वजूद अपनी शानो-शौकत, चुनावों में अपनी सीट सुनिश्चित करने और अंततः मंत्री या किसी अन्य प्रतिष्ठित संस्था की चेयरमैनशिप पाने में है। यह एक सच्चायी है कि दोनों ही अपनी वजूद को पाने हेतु कुछ भी कर सकते हैं। भूखा और बेरोजगार व्यक्ति रोटी न पाने पर चोरी की राह पकड़ सकता है या समाज के दुश्मनों की सोहबत में आकर आतंकवादी भी बन सकता है। इसी प्रकार अमीर व्यक्ति धन-बल और भुजबल का प्रयोग करके चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकता है। यह दोनों ही लोकतान्त्रिक आजादी के दो विपरीत लेकिन कटु सत्य हैं।


परन्तु इन दोनों कटु सत्यों के बीच आजादी कहाँ है, संभवतः यह आज भी एक अनुत्तरित प्रश्न है ?...फ़िलहाल आप सभी को 64 वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !!

सोमवार, 19 जुलाई 2010

1857 की क्रांति का प्रथम शहीद : मंगल पाण्डे

मंगल पांडे के नाम से भला कौन अपरिचित होगा. 1857 की क्रांति के उस प्रथम शहीद की आज जयंती है. 1857 की 150 वीं जयंती पर मैंने और कृष्ण कुमार जी ने एक पुस्तक सम्पादित की थी-क्रांति-यज्ञ (1857-1947 की गाथा). यह लेख उसी से साभार-

कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे (19 जुलाई 1827-8 अप्रैल 1857) की विद्रोह से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे को 1857 की क्रान्ति का पहला शहीद सिपाही माना जाता है।

29 मार्च 1857, दिन रविवार-उस दिन जनरल जान हियर्से अपने बँंगले में आरम्भ कर रहा था कि एक लेफ्टिनेन्ट बद्हवास सा दौड़ता हुआ आया और बोला कि देसी लाइन में दंगा हो गया। खून से रंगे अपने घायल लेफ्टिनेन्ट की हालत देखकर जनरल जान हियर्से अपने दोनों बेटों को लेकर 34वीं देसी पैदल सेना की रेजीमेन्ट के परेड ग्राउण्ड की ओर दौड़ा। उधर धोती-जैकेट पहने 34वीं देसी पैदल सेना का जवान मंगल पाण्डे नंगे पाँव ही एक भरी बन्दूक लेकर क्वाटर गार्ड के सामने बड़े ताव मे चहलकदमी कर रहा था और रह-रह कर अपने साथियों को ललकार रहा था-‘‘अरे! अब कब निकलोगे? तुम लोग अभी तक तैयार क्यों नहीं हो रहे हो? ये अंग्रेज हमारा धर्म भ्रष्ट कर देंगे। आओ, सब मेरे पीछे आओ। हम इन्हें अभी खत्म कर देते हैं।’’ लेकिन अफसोस किसी ने उसका साथ नहीं दिया। पर मंगल पाण्डे ने हार नहीं मानी और अकेले ही अंग्रेजी हुकूमत को ललकारता रहा। तभी अंगे्रज सार्जेंट मेजर जेम्स थार्नटन हृूासन ने मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। यह सुन मंगल पाण्डे का खून खौल उठा और उसकी बन्दूक गरज उठी। सार्जेंट मेजर ह्युसन वहीं लुढ़क गया। अपने साथी की यह स्थिति देख घोडे़ पर सवार लेफ्टिनेंट एडजुटेंट बेम्पडे हेनरी वाॅग मंगल पाण्डे की तरफ बढ़ता है, पर इससे पहले कि वह उसे काबू कर पाता, मंगल पाण्डे ने उस पर गोली चला दी। दुर्भाग्य से गोली घोड़े को लगी और वाॅग नीचे गिरते हुये फुर्ती से उठ खड़ा हुआ। अब दोनों आमने-सामने थे। इस बीच मंगल पाण्डे ने अपनी तलवार निकाल ली और पलक झपकते ही वाॅग के सीने और कन्धे को चीरते हुये निकल गई। तब तक जनरल जान हियर्से घोड़े पर सवार परेड ग्राउण्ड में पहुँचा और यह दृश्य देखकर भौंचक्का रह गया। जनरल हियर्से ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को हुक्म दिया कि मंगल पाण्डे को तुरन्त गिरफ्तार कर लो पर उसने ऐसा करने से मना कर दिया। तब जनरल हियर्से ने शेख पल्टू को मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। शेख पल्टू ने मंगल पाण्डे को पीछे से पकड़ लिया। स्थिति भयावह हो चली थी। मंगल पाण्डे ने गिरफ्तार होने से बेहतर मौत को गले लगाना उचित समझा और बन्दूक की नाली अपने सीने पर रख पैर के अंगूठे से फायर कर दिया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, सो मंगल पाण्डे सिर्फ घायल होकर ही रह गया। तुरन्त अंग्रेजी सेना ने उसे चारों तरफ से घेर कर बन्दी बना लिया और मंगल पाण्डे के कोर्ट मार्शल का आदेश हुआ। अंग्रेजी हुकूमत ने 6 अप्रैल को फैसला सुनाया कि मंगल पाण्डे को 18 अप्रैल को फांसी पर चढ़ा दिया जाये। पर बाद में यह तारीख 8 अप्रैल कर दी गयी, ताकि विद्रोह की आग अन्य रेजिमेण्टो में भी न फैल जाये। मंगल पाण्डे के प्रति लोगों में इतना सम्मान पैदा हो गया था कि बैरकपुर का कोई जल्लाद फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। नतीजन कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाकर मंगल पाण्डे को 8 अप्रैल, 1857 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। मंगल पाण्डे को फाँसी पर चढ़ाकर अंग्रेजी हुकूमत ने जिस विद्रोह की चिंगारी को खत्म करना चाहा, वह तो फैल ही चुकी थी और देखते ही देखते इसने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया।

14 मई 1857 को गर्वनर जनरल लार्ड वारेन हेस्टिंगस ने मंगल पाण्डे का फांसीनामा अपने आधिपत्य में ले लिया। 8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर, बंगाल में मंगल पाण्डे को प्राण दण्ड दिये जाने के ठीक सवा महीने बाद, जहाँ से उसे कलकत्ता के फोर्ट विलियम काॅलेज में स्थानान्तरित कर दिया गया था। सन् 1905 के बाद जब लार्ड कर्जन ने उड़ीसा, बंगाल, बिहार और मध्य प्रदेश की थल सेनाओं का मुख्यालय बनाया गया तो मंगल पाण्डे का फांसीनामा जबलपुर स्थानान्तरित कर दिया गया। जबलपुर के सेना आयुध कोर के संग्राहलय में मंगल पाण्डे का फांसीनामा आज भी सुरक्षित रखा है। इसका हिन्दी अनुवाद निम्नवत है-

जनरल आर्डर्स
बाय हिज एक्सीलेन्सी
द कमान्डर इन चीफ, हेड क्वार्टर्स, शिमला
18 अप्रैल 1857
गत 18 मार्च 1857, बुधवार को फोर्ट विलियम्स में सम्पन्न कोर्ट मार्शल के बाद कोर्ट मार्शल समिति 6 अप्रैल 1857, सोमवार के दिन बैरकपुर में पुनः इकट्ठा हुई तथा पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेंट नेटिव इनफेन्ट्री के 1446 नं. के सिपाही मंगल पाण्डे के खिलाफ लगाये गये निम्न आरोपों पर विचार किया।

आरोप (1) बगावतः- 29 मार्च 1857 के बैरकपुर में परेड मैदान पर अपनी रेजीमेन्ट की क्वार्टर गार्ड के समक्ष तलवार और राइफल से लैस होकर अपने साथियों को ऐसे शब्दो में ललकारा, जिससे वे उत्तेजित होकर उसका साथ दें तथा कानूनों का उल्लंघन करें।

आरोप (2) इसी अवसर पर पहला वार किया गया तथा हिंसा का सहारा लेते हुए अपने वरिष्ठ अधिकारियों, सार्जेन्ट-मेजर जेम्स थार्नटन ह्यूसन और लेफ्टिनेंट-एडजुटेंट बेम्पडे हेनरी वाॅग जो 34वीं रेजेमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के ही थे, पर अपनी राइफल से कई गोलियाँ दागीं तथा बाद में उल्लिखित लेफ्टिलेन्ट वाॅग और सार्जेंट मेजर ह्यूसन पर तलवार के कई वार किये।

निष्कर्षः- अदालत पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही नं0 1446, मंगल पाण्डे को उक्त आरोपों का दोषी पाती है।

सजाः- अदालत पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही नं0 1446, मंगल पाण्डे को मृत्युपर्यन्त फाँसी पर लटकाये रखने की सजा सुनाती है।

अनुमोदित एवं पुष्टिकृत
(हस्ताक्षरित) जे.बी.हरसे, मेजर जनरल कमांडिंग,
प्रेसीडेन्सी डिवीजन
बैरकपुर, 7 अप्रैल 1857

टिप्पणीः- पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही नं0 1446, मंगल पाण्डे को कल 8 अप्रैल को प्रातः साढ़े पाँच बजे ब्रिगेड परेड पर समूची फौजी टुकड़ी के समक्ष फाँसी पर लटकाया जायेगा।
(हस्ताक्षरित) जे.बी.हरसे, मेजर जनरल, कमांडिंग प्रेसीडेन्सी डिवीजन

इस आदेश को प्रत्येक फौजी टुकड़ी की परेड के दौरान और खास तौर से बंगाल आर्मी के हर हिन्दुस्तानी सिपाही को पढ़कर सुनाया जाये।

बाय आर्डर आफ हिज एक्सीलेन्सी
द कमांडर-इन-चीफ
सी.चेस्टर, कर्नल।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

'अमर उजाला' में आकांक्षा यादव का आलेख : वह तो झाँसी वाली रानी थी

19 नवम्बर 2008 को रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर मेरा  एक लेख अंतर्जाल पत्रिका "साहित्य शिल्पी" पर "खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी" शीर्षक से प्रकाशित हुआ-(http://www.sahityashilpi.com/2008/11/blog-post_19.html ) .  20 नवम्बर को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक 'अमर उजाला' ने अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में इस लेख को स्थान दिया..आभार !
 
 
 इस पर आज 21 नवम्बर को 'साहित्य शिल्पी' ने "अमर उजाला" में साहित्य शिल्पी (विशेष) शीर्षक से एक टिपण्णी प्रकाशित की- "हमारे लिये यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि साहित्य शिल्पी पर प्रकाशित माननीय आकांक्षा यादव जी के आलेख (खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी) को लोकप्रिय दैनिक समाचार-पत्र अमर-उजाला ने प्रकाशित कर हमारा मान बढ़ाया है। इसके लिये हम उनका शुक्रिया अदा करते हैं।" साथ ही आकांक्षा जी और उन जैसे अन्य सभी साहित्य-शिल्पियों के भी हम शुक्रगुज़ार हैं जो अपनी उच्चस्तरीय रचनायें हमें भेजकर साहित्य शिल्पी के स्तर को उत्तरोत्तर ऊँचा उठाने में हमारी मदद करते हैं. (http://www.sahityashilpi.com/2008/11/blog-post_2172.html)
 
ब्लागिंग-जगत में मैंने अभी कदम रखे हैं. प्रिंट मिडिया में अंतर्जाल पर प्रकाशित मेरी किसी रचना की यह प्रथम चर्चा है. आप सभी का प्रोत्साहन ही मेरी रचनाधर्मिता को शक्ति देता है. मेरी रचनाओं को सराहने के लिए सभी शुभेच्छुओं का आभार !!