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सोमवार, 28 जुलाई 2025

साहित्य और लोक संस्कृति में सावन के रंग🌿🌦️

सावन केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भारतीय जीवन, साहित्य और संस्कृति में एक गहरी आत्मिक अनुभूति है। यह मौसम न केवल धरती को हरा करता है, बल्कि मन को भी तर करता है। लोकगीतों, झूले, तीज और कविता के माध्यम से सावन स्त्रियों की अभिव्यक्ति, प्रेम की प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा का स्वर बन जाता है।

साहित्यकारों ने इसे कभी श्रृंगार में, कभी विरह में, तो कभी प्रकृति के प्रतीक रूप में देखा है। लेकिन आज का आधुनिक मन सावन को केवल मौसम समझता है, महसूस नहीं करता। यह लेख सावन के सांस्कृतिक, साहित्यिक और भावनात्मक पक्षों को उजागर करते हुए हमें स्मरण कराता है कि भीगना केवल शरीर से नहीं, आत्मा से भी ज़रूरी है।

सावन हमें सिखाता है — प्रकृति से जुड़ो, भीतर झाँको, और संवेदना को जीयो।


सावन आ गया है। वर्षा ऋतु की पहली दस्तक के साथ ही जब बादल घिरते हैं और बूँदें धरती को चूमती हैं, तो केवल पेड़-पौधे ही नहीं, मनुष्य का अंतर्मन भी हरा होने लगता है। यह महीना केवल वर्षा का नहीं, स्मृति, संवेदना और सृजन का है। सावन जब आता है, तो कविता झरने लगती है, लोकगीत गूंजने लगते हैं, पायलें छनकने लगती हैं और रूठा प्रेम भी नमी में घुलकर लौट आता है।

🌿 सावन – एक ऋतु नहीं, एक मनःस्थिति है

भारतीय मानस में ऋतुएँ केवल मौसम नहीं, जीवन के प्रतीक रही हैं। वसंत प्रेम का, ग्रीष्म तपस्या का और सावन प्रतीक्षा का महीना बनकर आता है। सावन में अक्सर प्रेयसी अकेली होती है, प्रियतम किसी दूर देश गया होता है, और प्रतीक्षा के बीच में विरह का काव्य जन्म लेता है। इसलिए साहित्य में सावन का आगमन केवल प्राकृतिक नहीं, आत्मिक घटना है।

"नइहर से भैया बुलावा भेजवा दे", "कजरारे नयनवा काहे भर आईल", जैसे कजरी गीत सिर्फ आवाज नहीं, पीड़ा का पानी बनकर झरते हैं।

 


🌦️ लोक संस्कृति में सावन का रंग

सावन का महीना भारतीय लोक परंपरा का सबसे रंगीन अध्याय है। कहीं तीज मनाई जा रही होती है, कहीं झूले पड़ रहे होते हैं, कहीं मेंहदी लग रही होती है तो कहीं बहनों के लिए राखी के गीत तैयार हो रहे होते हैं। यह महीना नारी मन की सृजनात्मक उड़ान का समय होता है। दादी-नानी की कहानियाँ, माँ के गीत, और बेटियों की प्रतीक्षा – सब कुछ सावन की हवा में घुल जाता है।

हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में कजरी, झूला गीत, सावनी और हरियाली तीज लोककाव्य का रूप ले लेती हैं। ये गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, महिला सशक्तिकरण के सांस्कृतिक दस्तावेज हैं — जहाँ स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ, शिकायतें, प्रेम और विद्रोह तक गा डालती हैं।

☁️ साहित्य में सावन: बरसते बिम्ब और प्रतीक

साहित्यकारों ने सावन को केवल प्रकृति-चित्रण के लिए ही नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के प्रतिनिधि के रूप में देखा है।

महादेवी वर्मा के शब्दों में सावन अकेलेपन की पीड़ा है:
"नीर भरी दुख की बदली"।

मैथिलीशरण गुप्त ने सावन को श्रृंगार रस में देखा –
"चपला की चंचल किरणों से, छिटकी वर्षा की बूँदें"

गुलज़ार की कविता हो या नागार्जुन की भाषा, सावन हर किसी के लिए कुछ कहता है। किसी के लिए वो टूटे रिश्तों की याद है, किसी के लिए माँ की गोद में बिताया बचपन, और किसी के लिए प्रेम की भीगी पहली रात।

🌧️ भीतर की बारिश को समझना जरूरी है

आज जब हम एसी कमरों में बैठे, मोबाइल पर मौसम का अपडेट पढ़ते हैं, तब सावन की असली ख़ुशबू कहीं खो जाती है। हमने बारिश को केवल ट्रैफिक की समस्या बना दिया है। सावन अब इंस्टाग्राम स्टोरी बनकर रह गया है।
पर क्या हमने कभी भीतर की बारिश को महसूस किया है?

वह बारिश जो हमें धो देती है — अहंकार से, शुष्कता से, थकान से। सावन हमें फिर से नम करता है — हमें इंसान बनाता है। प्रकृति की गोद में लौटने का आमंत्रण है ये मौसम।

🪶 आज के कवियों के लिए सावन क्या है?

आज के कवियों को सावन का सिर्फ चित्रण नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके भीतर छिपी विसंगतियों को भी पकड़ना चाहिए। जब ग्रामीण भारत के खेतों में पानी नहीं और शहरों में जलभराव है, तब यह असमानता भी साहित्य का विषय बननी चाहिए।

कविता को झूले और कजरी के अलावा किसानों के अधूरे सपनों, बर्बाद फसलों, और जलवायु परिवर्तन के संकट को भी शब्द देना होगा।

🎭 सावन और रंगमंच: नाट्य का मौसम

सावन केवल काव्य का विषय नहीं, रंगमंच और लोकनाट्यों का भी प्रिय समय है। उत्तर भारत के कई हिस्सों में इस मौसम में झूला महोत्सव, सावनी गीत प्रतियोगिताएँ, लोकनाट्य और कविता गोष्ठियाँ आयोजित होती हैं।

यह मौसम कलाकारों के पुनर्जन्म जैसा होता है। उनके रंग, उनके स्वर और उनके मंच, सभी में नमी आ जाती है — जो सीधे दर्शक के हृदय तक पहुँचती है।

🧠 आधुनिक मन और सावन की चुनौती

आज का मानव सावन को देख तो रहा है, पर महसूस नहीं कर रहा। उसका मन इतनी सूचनाओं, मशीनों और तथ्यों में उलझ गया है कि वह बारिश को केवल मौसम विभाग के पूर्वानुमान के रूप में लेता है।

पर सावन को समझना है तो, खिड़की खोलनी होगी – मन की भी और कमरे की भी।
बूँदों को केवल त्वचा पर नहीं, आत्मा पर भी गिरने देना होगा।

🌱 प्रकृति का मौसमी संदेश

सावन हमें याद दिलाता है कि विकास और विनाश के बीच संतुलन जरूरी है।
बारिश से पहले आई भीषण गर्मी, जल संकट, जंगलों में आग — यह सब बताता है कि हमने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा है।
सावन की बारिश इस बिगाड़ को थोड़ी राहत देती है, पर चेतावनी भी देती है कि अगर हमने अब भी नहीं सुधारा, तो सावन केवल स्मृति बनकर रह जाएगा।

📜 समाप्ति की ओर एक सादगी भरा संदेश

सावन को आने दो।
उसे भीतर आने दो।
जब वह बूँद बनकर गिरे, तो केवल छतों पर नहीं, तुम्हारी कविता में भी गिरे।
जब वह झूला बनकर डोले, तो केवल पेड़ों पर नहीं, तुम्हारी कल्पना में भी डोले।

यह मौसम मन का है, बस उसे पहचानने की ज़रूरत है।
बचपन के वे झूले, माँ के लगाए मेंहदी के रंग, छत पर रखे बर्तन, और खेत में दौड़ता नंगाधड़ंग बच्चा — सब अब भी हमारे भीतर कहीं जिंदा हैं। उन्हें ज़रा सावन में बाहर आने दो।

🟠 निवेदन:
जब भी बादल घिरें, मोबाइल मत उठाना, खिड़की खोल लेना।
और मन करे तो एक पुराना गीत गा लेना –
"कभी तो मिलने आओ सावन के गीत गाने..."



✍️ डॉ सत्यवान सौरभ


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

साहित्यकार एवं ब्लॉगर आकांक्षा यादव ‘वृक्ष रत्न’ सम्मान से सम्मानित

स्वदेशी समाज सेवा समिति के 11वें स्थापना दिवस पर अग्रणी महिला ब्लॉगर, लेखिका एवं साहित्यकार आकांक्षा यादव को 'वृक्ष रत्न' सम्मान से अलंकृत किया गया। संस्था के कार्यकारी अध्यक्ष एवं उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, उत्तर प्रदेश के पूर्व सदस्य प्रो.अजब सिंह यादव और रुद्राक्ष मैन विवेक यादव के संयोजकत्व में फिरोजाबाद में आयोजित कार्यक्रम में उन्हें यह सम्मान पर्यावरण संबंधी लेखन और पर्यावरण संरक्षण व वृक्षारोपण को बढ़ावा देने के लिए दिया गया। कॉलेज में प्रवक्ता रहीं आकांक्षा यादव को इससे पूर्व भी देश के विभिन्न प्रांतों के अलावा जर्मनी, श्रीलंका, नेपाल तक में सम्मानित किया जा चुका है। आकांक्षा यादव वाराणसी परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल कृष्ण कुमार यादव की पत्नी हैं, जो स्वयं साहित्य और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में चर्चित नाम हैं।

गौरतलब है कि कालेज में प्रवक्ता रहीं आकांक्षा यादव फ़िलहाल साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। देश-विदेश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आकांक्षा यादव की आधी आबादी के सरोकार, चाँद पर पानी, क्रांति-यज्ञ: 1857-1947 की गाथा इत्यादि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। देश के साथ-साथ विदेशों में भी सम्मानित आकांक्षा यादव को उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा ’’अवध सम्मान’’, परिकल्पना समूह द्वारा ’’दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगर दम्पति’’ सम्मान, अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन, काठमांडू में ’’परिकल्पना ब्लाग विभूषण’’ सम्मान, अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन, श्री लंका में ’’परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान’’, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डॉक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ’’ डॉ. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान’’, ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘‘ व ’’भगवान बुद्ध राष्ट्रीय फेलोशिप अवार्ड’’, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’’भारती ज्योति’’, साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान  द्वारा ”हिंदी भाषा भूषण”,  निराला स्मृति संस्थान, रायबरेली द्वारा ‘‘मनोहरा देवी सम्मान‘‘, साहित्य भूषण सम्मान, भाषा भारती रत्न, राष्ट्रीय भाषा रत्न सम्मान, साहित्य गौरव सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु 50 से ज्यादा सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त हैं । जर्मनी के बॉन शहर में ग्लोबल मीडिया फोरम (2015) के दौरान 'पीपुल्स चॉइस अवॉर्ड' श्रेणी में  आकांक्षा यादव के ब्लॉग 'शब्द-शिखर'  को हिंदी के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में भी सम्मानित किया जा चुका है।

11 पत्रकारों, समाजसेवी, साहित्यकार, पर्यावरणविदों को किया गया सम्मानित 

संत जानू बाबा डिग्री कॉलेज, फिरोजाबाद  में आयोजित  कार्यक्रम में आकांक्षा यादव के अलावा  संत जयकृष्ण दास, राष्ट्रीय अध्यक्ष यमुना रक्षक दल वृंदावन, उमाशंकर यादव, संस्थापक अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल अहमदाबाद, डॉ आरएन सिंह, समाजसेवी फरीदाबाद, मुकेश नादान, संस्थापक प्रकृति फाउंडेशन मेरठ, ममता नोगरैया, अध्यक्षा महिला साहित्य मंच बदायूं, रमेश गोयल, राष्ट्रीय अध्यक्ष पर्यावरण प्रेरणा सिरसा, हरियाणा प्रताप सिंह पोखरियाल, पर्यावरण प्रेमी उत्तरकाशी उत्तराखंड, नंदकिशोर वर्मा, अध्यक्ष नीला जहान फाउंडेशन लखनऊ, प्रदीप सारंग, बाराबंकी, हरे कृष्ण शर्मा आजाद, अध्यक्ष वसुंधरा श्रृंगार युवा मंडल भिंड मध्यप्रदेश सहित कुल 11 लोगों को 'वृक्ष रत्न' से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी हरिदास,  मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार व लेखक डॉक्टर अरुण प्रकाश, संचालन डॉ मुकेश उपाध्याय और आभार ज्ञापन समिति के सचिव रुद्राक्ष मैन विवेक यादव ने किया।







मंगलवार, 5 जून 2018

विश्व पर्यावरण दिवस : एक पौधा ज़रूर लगाएं

विश्व पर्यावरण दिवस पर कोई बड़ा संकल्प भले न लें, पर एक पौधा ज़रूर लगाएं। ज़मीन में नहीं तो गमलों में ही सही..... और जो पहले लगाए थे, उनमें पानी भी दे आयें! 

यकीन मानिए, आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए कल ये ही छाँव देंगे। 
अधिकांश लोग सोशल मीडिया पर पेड़ लगाने में इतने व्यस्त रहेंगे कि धरा पर पेड़-पौधे लगाना भूल जाएंगे।
 बात अगर वैश्व‍िक संकट की हो तो भले ही किसी एक व्यक्त‍ि का निर्णय बहुत छोटा लगता है, लेकिन जब अरबों लोग एक ही मकसद से आगे बढ़ते हैं, तो बड़ा परिवर्तन आता है। आज 'विश्व पर्यावरण दिवस' है, आइए संकल्प करें एक वृक्ष लगाने का ......विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए आइए हम सभी संकल्प लेते है कि हम सब अपने परिवेश को कचरा मुक्त,प्लास्टिक मुक्त,गंदगी मुक्त कर साफ-स्वच्छ और हरा-भरा बनायेंगें। आज की हमारी छोटी कोशिश भी आने वाले कल को स्वर्णिम बना सकती है।

 सांसे हो रही हैं कम
आओ पेड़ लगाएँ हम

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गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे।
-निदा फाजली



गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

सूर्य उपासना और प्रकृति पूजा का महापर्व छठ पूजा : छठि मईया आई न दुअरिया

भारतीय संस्कृति में त्यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्रभर नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। माना जाता है कि अमावस्या के छठवें दिन ही अग्नि-सोम का समान भाव से मिलन हुआ तथा सूर्य की सातों प्रमुख किरणें संजीवनी वर्षाने लगी। इसी कारण इस दिन प्रातः आकाश में सूर्य रश्मियों से बनने वाली शक्ति प्रतिमा उपासना के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वस्तुतः शक्ति उपासना में षष्ठी कात्यायिनी का स्वरूप है जिसकी पूजा नवरात्रि के छठवें दिन होती है। छठ के पावन पर्व पर सौभाग्य, सुख-समृद्धि व पुत्रों की सलामती के लिए प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं। वैसे भी सूर्य समूचे सौर्यमण्डल के अधिष्ठाता हैं और पृथ्वी पर ऊर्जा व जीवन के स्रोत कहा जाता है कि सूर्य की साधना वाले इस पर्व में लोग अपनी चेतना को जागृत करते हैं और सूर्य से एकाकार होने की अनुभूति प्राप्त कर आनंदित होते है।

छठ पर्व के प्रारंभ के बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। मान्यता है कि इस पर्व का उद्भव द्वापर युग में हुआ था। भगवान कृष्ण की सलाह पर सर्वप्रथम कुन्ती ने अपने पुत्र पाण्डवों के लिए छठ पर्व पर व्रत लिया था, ताकि पाण्डवों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवाश कष्टमुक्त गुजरे। इस मान्यता को इस बात से भी बल मिलता है कि कुन्ती पुत्र कर्ण सूर्य का पुत्र था। इसी प्रकार जब पाण्डव जुए में अपना सब कुछ हार गए और विपत्ति में पड़ गये, तब द्रौपदी ने धौम्य ऋषि की सलाह पर छठ व्रत किया। इस व्रत से द्रौपदी की कामनाएं पूरी हुईं और पाण्डवों को उनका खोया राजपाट वापस मिला गया। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी सूर्य षष्ठी के दिन पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए सूर्य देवता की आराधना की थी, जिसके चलते उन्हें लव-कुश जैसे तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। माँ गायत्री का जन्म भी सूर्य षष्ठी को ही माना जाता है। यही नहीं इसी दिन महर्षि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र निकला था। एक अन्य मत के अनुसार छठ व्रत मूलतः नागकन्याओं से जुड़ा है। इसके अनुसार नागकन्याएं प्रतिवर्ष कश्यप ऋषि के आश्रम में कार्तिक षष्ठी को सूर्य देवता की पूजा करती थीं। संजोगवश एक बार च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या भी वहाँ पहुँच गई, जिनके पति अक्सर अस्वस्थ रहते थे। नागकन्याओं की सलाह पर सुकन्या ने छठ व्रत उठाया और इसके चलते च्यवन ऋषि का शरीर स्वस्थ और सुन्दर हो गया।

छठ से जुड़ी एक अन्य प्रचलित मान्यता कर्तिकेय के जन्म से संबंधित है। मान्यता है कि भगवान शिव हिमवान की छोटी कन्या उमा के साथ पाणिग्रहण के उपरान्त रति-क्रीड़ा में मग्न हो गये। क्रीड़ा-विहार में सौ दिव्य वर्ष बीत जाने पर भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। इतनी दीर्घावधि के पश्चात भगवान शिव के रूद्र तेज को सहन करेगा, इससे भयभीत होकर सभी देवगण उनकी प्रार्थना करने लगे- हे प्रभु।़ आप हम देवों पर कृपा करें और देवी उमा के साथ रति-क्रीड़ा से निवृत्त होकर तप में लीन हों । इस बीच निवृत क्रिया में सर्वोत्तम तेज स्खलित हो गया जिसे अग्नि ने अंगीकार किया। गंगा ने इस रूद्र तेज को हिमालय पर्वत के पाश्र्वभाग में स्थापित किया जो कान्तिवान बालक के रूप में प्रकट हुआ। इन्द्र, मरूत एवं समस्त देवताओं ने बालक को दूध पिलाने तथा लालन-पालन के लिए छह कृतिकाओं को नियुक्त किया। इन कृतिकाओं के कारण ही यह बालक कर्तिकेय के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये छह कृतिकाएं छठी मइया का प्रतीक मानी जाती हैं। तभी से महिलाएं तेजस्वी पुत्र और सुन्दर काया के लिए छठी मइया की पूजा करते हुए व्रत रखती हैं और पुरूष अरोग्यता और समृद्धि के लिए व्रत रखते हैं। बच्चों के जन्म की छठी रात को षष्ठी पूजन का विधान अभी समाज में है।

छठ पर्व की लोकप्रियता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि यह पूरे चार दिन तक जोश-खरोश के साथ निरंतर चलता है। पर्व के प्रारम्भिक चरण में प्रथम दिन व्रती स्नान कर के सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे ‘नहाय खाय‘ कहा जाता है। वस्तुतः यह व्रत की तैयारी के लिए शरीर और मन के शु़िद्धकरण की प्रक्रिया होती है। मान्यता है कि स्वच्छता का ख्याल न रखने से छठी मइया रूष्ठ हो जाती हैं-कोपि-कोपि बोलेंली छठिय मइया, सुना महादेव/मोरा घाटे दुबिया उपरिज गइले, मकड़ी बसेढ़ लेले/हंसि-हंसि बोलेलें महादेव, सुना ए छठिय मइया/हम राउर दुबिया छिलाई देबों। इसी प्रकार घाटो पर वेदियाँ बनाते हुए महिलाएं गाती हैं-एक कवन देव पोखरा खनावेलें, पटिया बन्हावेलें रे/एक कवन देवी छठी के बरत कइलीं, कइसे जल जगाइबि रे/ए घाट मोरे छेके घटवरवा, दुअरे पियदवा लोग रे/एक कोरा मोरा छेक ले गनपति, कइसे जलजगइबि/एक रूपया त देहु घटवरवां, भइया ढेबुआ पियदवा लोग रे। प्रथम दिन सुबह सूर्य को जल देने के बाद ही कुछ खाया जाता है। लौकी की सब्जी, अरवा चावल और चने की दाल पारम्परिक भोजन के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरे दिन छोटी छठ (खरना) या लोहण्डा व्रत होता है, जिसमें दिन भर निर्जला व्रत रखकर शाम को खीर रोटी और फल लिया जाता है। खीर नये चावल व नये गुड़ से बनायी जाती है, रोटी में शुद्ध देशी घी लगा होता है। इस दिन नमक का प्रयोग तक वर्जित होता है। व्रती नये वस्त्र धारण कर भोजन को केले के पत्ते पर रखकर पूजा करते हैं और फिर इसे खाकर ही व्रत खोलते हैं।

तीसरा दिन छठ पर्व में सबसे महत्वपूर्ण होता है। संध्या अघ्र्य में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर महिलाएँ घरों में ठेकुआ, पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की सजावट आदि में जुटते हैं। सूर्यास्त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा हो जाते हैं। छठ पूजा के पारम्परिक गीत गाए जाते हैं और बच्चे आतिशबाजी छुड़ाते हैं। सूर्यदेव जब अस्ताचल की ओर जाते हैं तो महिलायें आधी कमर तक पानी में खड़े होकर अघ्र्य देती हैं। अघ्र्य देने के लिए सिरकी के सूप या बाँस की डलिया में पकवान, मिठाइयाँ, मौसमी फल, कच्ची हल्दी, सिंघाड़ा, सूथनी, गन्ना, नारियल इत्यादि रखकर सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है और मन्नतें माँगी जाती हैं- बांस की बहंगिया लिये चले बलका बंसवा लचकत जाय/तोहरे शरणियां हे मोर बलकवा/हे दीनानाथ मोरे ललवा के द लंबी उमरिया। मन्नत पूरी होने पर कोसी भरना पड़ता है। जिसके लिए महिलाएँ घर आकर 5 अथवा 7 गन्ना खड़ा करके उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। निर्जला व्रत जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अन्तिम एवं चैथे दिन सूर्योदय अघ्र्य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन आरम्भ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही ‘केलवा के पात पर उगलन सूरजमल‘, ‘उगी न उदित उगी यही अंगना‘ एवं ‘प्रातः दर्शन दीहिं ये छठी मइया‘ जैसे भजन गीतों के बीच सूर्यदेव को पुत्र, पति या ब्राह्मण द्वारा व्रती महिलाओं के हाथ से गाय के कच्चे दूध से अध्र्य दिलाया जाता है और सूर्य देवता की बहन माता छठ को विदाई दी जाती है। माना जाता है कि छठ मईया दो दिन पहले मायके आई थीं, जिन्हें पूजन-अर्चन के बाद ‘मोरे अंगना फिर अहिया ये छठी मईया‘ की भावना के साथ ससुराल भेज दिया जाता है। इसके बाद छठ मईया चैत माह में फिर मायके लौटती हैं। छठ मईया को ससुराल भेजने के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं और प्रसाद लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं। व्रती की सेवा और व्रत की सामग्री का अपना अलग ही महत्व है। किसी गरीब को व्रत की सामग्री उपलब्ध कराने से व्रती के बराबर ही पुण्य मिलता है। इसी प्रकार यदि अपने घर के बगीचे में लगे फल को किसी व्रती को पूजा के लिए दिया जाता है, तो भी पुण्य मिलता है। यहाँ तक की व्रती की डलिया व्रत को वेदी तक पहुँचाकर, उसके कपड़े धुलकर भी पुण्य कमाया जाता है। व्रत रखने वाले घरों में माता की विदाई पर सफाई नहीं की जाती क्योंकि मान्यता है कि बेटी की विदाई या कथा आदि के बाद घरों में झाड़ू नहीं लगाई जाती।

मूलत: बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोकरंजकता और नगरीकरण के साथ गाँवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है- छठि मईया आई न दुअरिया। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती, न कोई मठ-मंदिर, न कोई अवतारी पुरूष और न ही कोई शास्त्रीय कर्मकाण्ड होता है। आडम्बरों से दूर प्रत्यक्षतः प्रकृति के अवलंब सूर्य देवता को समर्पित एवं पवित्रता, निष्ठा व अशीम श्रद्धा को सहेजे छठ पर्व मूलतः महिलाओं का माना जाता है, जिन्हें पारम्परिक शब्दावली में ‘परबैतिन‘ कहा जाता है। पर छठ व्रत स्त्री-पुरूष दोनों ही रख सकते हैं। इस पर्व पर जब सब महिलाएं इकट्ठा होती हैं तो बरबस ही ये गीत गूँज उठते हैं- केलवा जे फरला घवध से, तो ऊपर सुगा मड़राय/तीरवा जो मरबो धनुष से, सुगा गिरे मुरछाय।

भारतीय संस्कृति में समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादाद्म्य स्थापित करते हैं। जब छठ पर्व पर महिलाएँ गाती हैं- कौने कोखी लिहले जनम हे सूरज देव या मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया....... तो प्रकृति से लगाव खुलकर सामने आता है। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकडि़यों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।
सूर्य उपासना और प्रकृति पूजा के  महापर्व छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ। सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को संजोता यह पर्व वाकई अनुपम है !!
#ChhathPuja #AkankshaYadav #Akanksha #Article

-आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर 

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

हमारे घर आँगन आज सावन आया है...




चना ज़ोर गरम और पकौड़े  प्याज़ के ...
चार दिन मे सूखेंगे कपड़े ये आज के ...

आलस और खुमारी बिना किसी काज के ...
टर्राएँगे मेंढक फिर बिना किसी साज़ के ...

बिजली की कटौती का ये मौसम आया है ...
हमारे घर आँगन आज सावन आया है ...

भीगे बदन और गरम चाय की प्याली ...
धमकी सी गरजती बदली वो काली ...

नदियों सी उफनती मुहल्ले की नाली ...
नयी सी लगती वो खिड़की की जाली ...

छतरी और थैलियों का मौसम आया है ...
हमारे घर आँगन आज सावन आया है ...

निहत्थे से पौधों  पे बूँदो का वार ...
हफ्ते मे आएँगे अब दो-तीन इतवार ...

पानी के मोतियों से लदा वो मकड़ी का तार...
मिट्टी की खुश्बू से सौंधी वो फुहार ...

मोमबत्तियाँ जलाने का मौसम आया है...
हमारे घर आँगन आज सावन आया है ...!


सावन में पेड़ों पर पड़ने वाले झूले तो अब गुजरे ज़माने की बातें हो गई। नई पीढ़ी अब झूलों का आनंद या तो घर में लेती है या पार्कों में। 

(चित्र में : बिटिया अपूर्वा झूले का आनंद लेती हुई) 




रविवार, 20 मार्च 2016

''विश्व गौरेया दिवस' पर विशेष : लौट आओ नन्ही गौरेया


याद कीजियेअंतिम बार आपने गौरैया को अपने आंगन या आसपास कब चीं-चीं करते देखा था। कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी। सवाल जटिल हैपर जवाब तो देना ही पड़ेगा। गौरैया व तमाम पक्षी हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहे हैंलोकजीवन में इनसे जुड़ी कहानियां व गीत लोक साहित्य में देखने-सुनने को मिलते हैं। कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगंवार बना देते थे। नन्ही गौरैया के सानिध्य भर से बच्चों को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी, पर अब वही नन्ही गौरैया विलुप्त होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हमीं ही हैं। गौरैया का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और परिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है। बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरणरहन-सहन में बदलावमोबाइल टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशनहरियाली कम होने जैसे कई कारणों से गौरैया की संख्या कम होती जा रही है।
बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थीपर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं। नन्ही परी गौरैया अब कम ही नजर आती है। दिखे भी कैसेहमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया। हरियाली खत्म कर कंक्रीट के जंगल खड़े किएखेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर उसका कुदरती भोजन खत्म कर दिया और अब मोबाइल टावरों से उनकी जान लेने पर तुले हुए हैं। फिर क्यों गौरैया हमारे आंगन में फुदकेगीक्यों वह मां के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी?
कुछेक साल पहले तक गौरेया घर-परिवार का एक अहम हिस्सा होती थी। घर के आंगन में फुदकती गौरैयाउनके पीछे नन्हे-नन्हे कदमों से भागते बच्चे। अनाज साफ करती मां के पहलू में दुबक कर नन्हे परिंदों का दाना चुगना और और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना। ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गांवों में भी नहीं दिखाई देते।
भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है। फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से परिंदों की दुनिया ही उजड़ गई है। गौरैया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं। गौरैया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं। कीटनाशकों से कीड़ों के लार्वा मर जाते हैं। ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है। फिर गौरैया कहाँ से आयेगी ?
गौरैया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है। पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। गौरैया घर के झरोखों में भी घोंसले बना लेती है। अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरैया घोंसला कहां बनाए। मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगेंअनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस भी गौरैयों और अन्य परिंदों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। ऐसे में गौरैया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। इधर कुछ वर्षों से पक्षी वैज्ञानिकों एंव सरंक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरैया की तरफ़ गया। नतीजतन इसके अध्ययन व सरंक्षण की बात शुरू हुईजैसे की पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ। गौरैया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे हैं।

जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरैया का होना निहायत जरुरी है। हॉउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरैया परिवार की चिड़िया हैजो विश्व के अधिकांशत: भागों में पाई जाती है। इसके अलावा सोमालीसैक्सुएलस्पेनिशइटेलियनग्रेटपेगुडैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं। भारत में असम घाटीदक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है। गौरैया पूरे वर्ष प्रजनन करती हैविशेषत: अप्रैल से अगस्त तक। दो से पांच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है। नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं। अनाजबीजोंबैरीफलचैरी के अलावा बीटल्सकैटरपीलर्सदिपंखी कीटसाफ्लाइबग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं। गौरैया आठ से दस फीट की ऊंचाई परघरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झाड़ियों में अपना घोसला बनाती हैं।
गौरैया को बचाने के लिए भारत की 'नेचर्स फोरएवर सोसायटी ऑफ इंडियाऔर 'इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांसके साथ ही अन्य तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवसमनाने की घोषणा की और वर्ष 2010 में पहली बार 'विश्व गौरैया दिवसमनाया गया। इस दिन को गौरैया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया। इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किए। कम होती गौरैया की संख्या को देखते हुए अक्टूबर 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया। वहीं गौरैया के संरक्षण के लिए 'बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटीने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑन लाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है। कई एनजीओ गौरैया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैंताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढियाँ भी रूबरू हो सके। देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरैया बचाओ के अभियान के बारे जागरूकता फैलाने के लिए रेडियोसमाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है। कुछेक संस्थाएं गौरैया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं। इसके तहत हरे नारियल में छेद करअख़बार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चों को घोसला बनाने का हुनर सिखाया जा रहा है । ये घोसले पेड़ों के वी शेप वाली जगह पर गौरैया के लिए लगाए जा रहे हैं।
वाकई आज समय की जरुरत है कि गौरैया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर ही प्रयास करें। कुछेक पहलें गौरैया को फिर से वापस ला सकती हैं। मसलनघरों में कुछ ऐसे झरोखे रखेंजहां गौरैया घोंसले बना सकें। छत और आंगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखनेउन्हें आकर्षित करने हेतु आंगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परंपरा जैसे कदम भी इस नन्ही पक्षी को सलामत रख सकते हैं। इसके अलावा जिनके घरों में गौरैया ने अपने घोसलें बनाए हैंउन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है। फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहलें भी आवश्यक हैं।

गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं हैबल्कि हमारे परिवेशसाहित्यकलासंस्कृति से भी उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। आज भी बच्चों को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। साहित्यकला के कई पक्ष इस नन्ही गौरैया को सहेजते हैंउसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। गौरैया की कहानीबड़ों की जुबानी सुनते-सुनते आज उसे हमने विलुप्त पक्षियों में खड़ा कर दिया है। नई पीढ़ी गौरैया और उसकी चीं-चीं को इंटरनेट पर खंगालती नजर आती हैऐसा लगता है जैसे गौरैया रूठकर कहीं दूर चली गई हो। जरुरत है कि गौरैया को हम मनाएँउसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपनी जीवन-शैली में शामिल करेंताकि हमारे बच्चे उसके साथ किलकारी मार सकें और वह उनके साथ फुदक सके !!

आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर 
Akanksha Yadav @ http://shabdshikhar.blogspot.com/
(साभार : डेली न्यूज एक्टिविस्ट, लखनऊ, 19  मार्च 2016) 


(साभार : दैनिक युगपक्ष, बीकानेर, 20 मार्च 2016) 

बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

इको-फ्रेंडली दीपावली मनाएँ


त्यौहार हमारी सदाशयता, उत्सवधर्मिता और पर्यावरण के प्रति अनुराग के परिचायक होते हैं, पर वास्तव में इसका विपरीत हो रहा है।  दीपावली के इस पावन पर्व पर जरुरी है कि हम इको-फ्रेंडली दीपावली को तरजीह दें।  पारम्परिक सरसों के तेल की दीपमालायें न सिर्फ प्रकाश व उल्लास का प्रतीक होती हैं बल्कि उनकी टिमटिमाती रोशनी के मोह में घरों के आसपास के तमाम कीट-पतंगे भी मर जाते हैं, जिससे बीमारियों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा देशी घी और सरसों के तेल के दीपकों का जलाया जाना वातावरण के लिए वैसे ही उत्तम है जैसे जड़ी-बूटियां युक्त हवन सामग्री से किया गया हवन। ऐसे में सजावटी झालर, पटाखों  और कृत्रिम रोशनी की बजाय दीपों को महत्ता दिया जाना जरुरी है और हमें इसके लिए संकल्पबद्ध होना होगा।