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बुधवार, 31 मार्च 2010

भूकम्प का पहला अनुभव

भूकम्प का नाम सुना था और खूब पढ़ा भी था, पर कल पहली बार महसूस किया. अंडमान में कल रात्रि 10:27 बजे करीब डेढ़ मिनट भूकंप के झटके महसूस हुए. इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर पोर्टब्लेयर में 6.3 और मायाबंदर में 6.9 आंकी गई. जब भूकंप आया तो उस समय अधिकतर भाग में बिजली नहीं थी और लोग सोने की तैयारी में थे. अचानक हमें महसूस हुआ की बेड, ए. सी. और खिड़कियाँ जोर-जोर से हिल रही हैं, चूँकि ईधर भूत-प्रेत की बातें उतनी प्रचलित नहीं हैं, सो उधर ध्यान ही नहीं गया. फिर लगा कि घर की पेंटिंग हो रही है और पीछे मजदूर सीढ़ी लगाकर छोड़ गए हैं. उसे ही कोई हिला रहा है. उस समय बिटिया पाखी बिस्तर पर खूब कूद रही थीं, सो एक बार यह भी दिमाग में आया कि बेड इसी के चलते हिल रहा है. अगले ही क्षण जब दिमाग में आया कि यह भूकम्प हो सकता है तो हम सब बेड पर एकदम बीचों-बीच में इस तरह बैठ गए कि कोई चीज गिरे भी तो हम लोगों के ऊपर न गिरे. लगभग डेढ़ मिनट तक हम लोग भूकम्प के हिचकोले खाते रहे. शरीर के रोंगटे खड़े हो गए थे. फिर शांत हुआ तो अन्य लोगों से फोन करके कन्फर्म किया कि वाकई ये भूकम्प ही था. क्योंकि यह हम लोगों का पहला भूकम्प-अनुभव था. फ़िलहाल बात आई और गई हो गई और हम लोग सो गए.

रात को साढ़े ग्यारह-बारह के बीच हम लोगों के लैंड-लाइन और मोबाईल फोन बजने आरंभ हुए तो झटके में उठे कि क्या मुसीबत आ गई. पता चला टी.वी. पर न्यूज रोल हो रहा है कि पोर्टब्लेयर में भूकम्प के झटके, जिसकी तीव्रता लगभग 8 है. जिसने भी देखा, वो फोन करके कुशल-क्षेम पूछने लगा. लगभग आधे घंटे यह सिलसिला चला. अभी तक हम जितना नहीं डरे थे, उससे ज्यादा अब डर गए कि पढ़ा था कि वो भूकम्प जिसकी तीव्रता लगभग 8 है, वह खतरनाक होता है. हँसी भी आ रही थी कि हम लोगों ने भूकम्प को कितना नार्मल लिया. हम लोग 5 का अनुमान लगा रहे थे. खैर आज सुबह यहाँ के अख़बारों से भूकम्प की वास्तविक तीव्रता का अहसास हुआ. कई बार मीडिया भी चीजों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है की लोग डर ही जाएँ. खैर यहाँ तो इस तरह की घटनाएँ होती रहती हैं, पर पहले भूकम्प का अनुभव अभी तक दिलो-दिमाग में कंपित हो रहा है.

रविवार, 28 मार्च 2010

मम्मी मेरी सबसे प्यारी (बाल-गीत)


मम्मी मेरी सबसे प्यारी,
मैं मम्मी की राजदुलारी।
मम्मी प्यार खूब जताती,
अच्छी-अच्छी चीजें लाती।

करती जब मैं खूब धमाल,
तब मम्मी खींचे मेरे कान।
मम्मी से हो जाती गुस्सा,
पहुँच जाती पापा के पास।

पीछे-पीछे तब मम्मी आती,
चाॅकलेट देकर मुझे मनाती।
थपकी देकर लोरी सुनाती,
मम्मी की गोद में मैं सो जाती।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

हैप्पी बर्थडे टू पाखी

आज 25 मार्च को हमारी बिटिया रानी अक्षिता (पाखी) का जन्म-दिन है. आज पाखी 4 साल की हो जाएँगी. पिछला जन्म-दिन कानपुर में तो इस बार अंडमान में. नौ दिन के नवरात्र-व्रत पश्चात् आज ही मेरा फलाहार-व्रत भी टूट रहा है. सो पाखी का जन्म-दिन जी भर कर इंजॉय करेंगे और हैप्पी बर्थडे टू यू पाखी भी गायेंगे.

इस बार की पोस्ट हैप्पी बर्थडे टू यू को लेकर. कई बार उत्सुकता होती है कि आखिर ये प्यारी सी पैरोडी आरम्भ कहां से हुई। आखिरकार हमने इसका राज ढूंढ ही लिया। वस्तुतः ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘ की मधुर धुन ‘गुड मार्निंग टू आॅल‘ गीत से ली गयी है, जिसे दो अमेरिकन बहनों पैटी हिल तथा माइल्ड्रेड हिल ने 1993 में बनाया था। ये दोनों बहनें किंडर गार्टन स्कूल की शिक्षिकाएं थीं। इन्होंने ‘गुड मार्निंग टू आॅल‘ गीत की यह धुन इसलिए बनायी ताकि बच्चों को इसे गाने में आसानी हो और मजा आये। फिलहाल दुनिया भर में इस गीत का 18 भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इस गाने की धुन और बोल पहली बार 1912 में लिखित रूप से प्रकाश में आये। इस गाने पर सुम्मी कंपनी चैपल ने इस कंपनी को 15 अमेरिकी मिलियन डाॅलर में खरीद लिया। उस वक्त इस धुन की कीमत करीब 5 अमेरिकी मिलियन डालर थी। गीत की सबसे प्रसिद्ध व भव्य प्रस्तुति मई 1962 में विख्यात हाॅलीवुड अभिनेत्री मारिलियन मोनरोर्ड ने अमेरिकी राष्ट्रपति जान एफ केनेडी को समर्पित की थी। इस गीत को 8 मार्च 1969 को अपालो 9 दल के सदस्यों ने भी गया था। हजारों की संख्या में लोगों ने पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के 81वें जन्मदिवस पर 16 अप्रैल 2008 को इसे व्हाइट हाउस में पेश किया था। 27 जून 2007 को लंदन के हाइड पार्क में सैकड़ों लोगों ने नेल्सन मंडेला के 90वें जन्मदिवस पर भी इसे गाया गया था। अब भी ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘ गीत प्रतिवर्ष 2 मिलियन डाॅलर की कमाई कर रहा है। गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड के मुताबिक ‘हैप्पी बर्थडे टू यू‘ अंग्रेजी भाषा का सबसे परिचित गीत है।... तो आप भी गाइये- ‘हैप्पी बर्थडे टू पाखी‘।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

गोरों के जाने के बाद भी देश में लूट और स्वार्थ का राज- भगत सिंह

आज 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की पुण्य तिथि है। 23 मार्च 1931 को इन क्रांतिकारियों को आजादी कि कीमत के रूप में फाँसी के फँदे पर लटका दिया गया. भगत सिंह की उम्र तो उस समय तो बहुत कम थी, पर इसके बावजूद उनके विचार बहुत परिपक्व थे. भगत सिंह ने क्रांति के बारे में फैली गलत फहमियों को दूर करते हुए लिखा कि-"क्रांति के लिए रक्त संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही इसमें प्रति हिंसा का कोई स्थान है। यह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब है कि अन्याय और शोषण पर टिकी व्यवस्था बदलनी चाहिए। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार तो विचारों की धार पर तेज होती है।" क्रांतिकारी के गुणों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा है कि किसी क्रांतिवीर के दो अनिवार्य गुण स्वतंत्र विचार और आलोचना हैं। जो आदमी प्रगति के लिए संघर्ष करता है, उसे पुराने विश्वास की एक-एक बात की आलोचना करनी होगी। उस पर अविश्वास करना होगा और उसे चुनौती देनी होगी। इसी प्रकार विभिन्न धर्मों के बीच सांप्रदायिक हिंसा पर चिंता जताते हुए उन्होंने लिखा कि-"धार्मिक अंधविश्वास तथा कट्टरपंथ हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। हमें इनसे हर हाल में छुटकारा पाना चाहिए। जो चीज स्वतंत्र विचारों को सहन नहीं कर सकती, उसे नष्ट हो जाना चाहिए। हमें ऐसी बहुत सी चीजों पर जीत पानी है।" लोगों को आपस में लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है। भलाई इसी में है कि लोग धर्म, रंग और नस्ल जैसे भेदभाव को मिटाकर एकजुट हों।उन्होंने लिखा है कि भारत के लोगों को इतिहास से सीख लेनी चाहिए। रेड कार्ड (परिचय पत्र) तथा बास्तिल (फ्रांस की कुख्यात जेल), जहां राजनैतिक कैदियों को रखा जाता था भी फ्रांस की क्रांति को कुचलने में सफल नहीं हो पाए, तो भला अंग्रेज क्या कुचल पाएंगे. तभी तो उन्होंने लिखा कि-‘तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक है मेरी भी मर्जी वही जो मेरे सैयाद की है.

स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश की आजादी पर छाए अनिश्चितता के बादलों के बीच शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने भविष्य की घटनाओं को पहले से ही भांप लिया था और कह दिया था कि उनकी फांसी के 15 साल बाद अंग्रेज देश छोड़कर चले जाएंगे। लेकिन भगत सिंह ने यह भी कहा था कि गोरों के जाने के बाद भी देश में लूट और स्वार्थ का राज होगा। शहीद-ए-आजम की यह बात बिल्कुल सही साबित हुई। 23 मार्च 1931 को उन्हें फांसी लगी जिसके 15 साल बाद 1946 में ब्रितानिया हुकूमत ने भारत से बोरिया बिस्तर समेटने का मन बना लिया। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। पर आजादी के बाद देश में लूट और स्वार्थ के राज की जो बात भगत सिंह ने कही, उसे हम रोज अपनी आँखों के सामने महसूस करते हैं. देश आजाद हो गया, पर हम आज तक इस आजादी की कीमत नहीं समझ पाए. हमसे बाद में आजाद हुए देश आज तरक्की के कितने पायदान चढ़ चुके हैं, पर हम अभी भी उतनी तेजी से प्रगति नहीं कर पाए. ऐसे में भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता आज और भी बढ़ जाती है. मात्र रैली निकालने और फूल चढाने से श्रद्धांजलि नहीं अर्पित होती, बल्कि इसके लिए हमें विचारों में भी परिवर्तन की आवश्यकता है. अन्यथा हर साल बलिदान दिवस आयेगा और अन्य दिनों की तरह बीत जायेगा !!
 
-आकांक्षा यादव

सोमवार, 22 मार्च 2010

'पानी' को 'काला-पानी' होने से बचाएं

अंडमान में आजकल पानी की किल्लत जोरों पर है. चारों तरफ पानी ही पानी, पर पीने को एक बूंद नहीं, यह कहावत यहाँ भली-भांति चरितार्थ होती है. सुनामी के बाद यहाँ मौसम पहले जैसा नहीं रहा, अभी से जबरदस्त गर्मी का असर दिखने लगा है. जहाँ बारिश आम बात होती थी, वहीँ अब तक हमने यहाँ मात्र एक दिन पाँच मिनट की बारिश के दर्शन किये. हर साल मई में बारिश आरंभ हो जाती है, पर इस साल लगता है वो भी जून-जुलाई तक जाएगी. तीन दिन में एक बार पानी की आपूर्ति होती है, सो पानी की महत्ता समझ में आने लगी है. बूंद-बूंद इकटठा कर रखने लगे हैं. पानी के महत्व का अहसास प्यास लगने पर ही होता है। पानी का कोई विकल्प नहीं है। इसकी एक-एक बूंद अमृत है। ऐसी में आज 'विश्व जल दिवस'(22 मार्च) की प्रासंगिकता स्वमेव समझ में आती है. इस बार विश्व जल दिवस की विषय-वस्तु भी पेय जल की गुणवत्ता है.

गौरतलब है कि वर्ष 1992 में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में स्वच्छ पानी के लिए एक अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने की बात कही गयी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 22 मार्च 1993 को पहला जल दिवस मनाने की घोषणा की, तभी से यह हर वर्ष मनाया जाता है.

आंकड़ों पर गौर करें तो संयुक्त राष्ट्र के अनुसार हर साल हम 1500 घन किमी पानी बर्बाद कर देते है. आज भी हर दिन दुनिया भर के पानी में 20 लाख टन सीवेज, औद्योगिक और कृषि कचरा डाला जाता है. यही कारण है कि दुनिया भर में 2.5 अरब लोग पर्याप्त सफाई के बिना रह रहे हैं. अभी भी इस सभ्य-सुसंस्कृत समाज में दुनिया की आबादी का 18 फीसदी या 1.2 अरब लोगों को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है. इन सबका बेहद बुरा असर पूरी मानव जाती पर पद रहा है. जानकर आश्चर्य होगा कि युद्ध सहित सभी तरह की हिंसाओं से मरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा लोग हर साल असुरक्षित पानी पीने से मर जाते हैं. 70 देशों के 14 करोड़ लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को विवश हैं . दुनिया में सालाना होने वाली कुल मौतों में से 3.1 फीसदी पर्याप्त जल साफ-सफाई न होने से होती हैं. असुरक्षित पानी से हर साल डायरिया के चार अरब मामलों में 22 लाख मौतें होती है। भारत में बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण यह बीमारी है। हर साल करीब पांच लाख बच्चे इसका शिकार बनते हैं. जरा सोचिये पानी और साफ-सफाई के अभाव में अफ्रीका को होने वाला आर्थिक नुकसान 28.5 अरब डालर या सकल घरेलू उत्पाद का पांच फीसदी है. भूजल पर आश्रित दुनिया में 24 फीसदी स्तनधारियों और 12 फीसदी पक्षी प्रजातियों की विलुप्ति का खतरा है, जबकि एक तिहाई उभयचरों पर भी यह खतरा बरकरार है.

जल-प्रदूषण और जल कि कमी को दूर करने के लिए आज पूरी दुनिया में यत्न हो रहे है।पेय जल और इसकी साफ-सफाई पर किए जाने वाले निवेश की रिटर्न दर काफी ऊंची है। हर एक रुपये निवेश पर 3 रुपये से 34 रुपये आर्थिक विकास रिटर्न का अनुमान लगाया जाता है. इन परिस्थितियों में विश्व में पानी की गुणवत्ता बनाए रखना मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अति अवश्यकहो गया है। पानी की गुणवत्ता की जिम्मेदारी सरकारों और समुदायों के साथ हमारी निजी तौर पर भी है. लोगों को जल की गुणवत्ता और सेहत के बीच रिश्ते पर जागरूक कर जल की गुणवत्ता सुधारने के लिए हम भी पहल कर सकते हैं। खेती के लिए भूमि कटाव नियंत्रण और पोषक तत्व प्रबंधन योजनाओं वाली तकनीक का प्रयोग करने के साथ-साथ विषैले रसायनों का कम से कम प्रयोग होना चाहिए. यही नहीं शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर हिस्सों में पक्के फर्श होने से पानी जमीन के अंदर न जाकर किसी जल स्त्रोत की तरफ बह जाता है। रास्ते में यह अपने साथ हमारे द्वारा बिखेरे खतरनाक रसायनों, तेल, ग्रीस, कीटनाशकों एवं उर्वरकों जैसे कई प्रदूषक तत्वों को ले जाकर पूरे जलस्त्रोत को प्रदूषित कर देता है। इसलिए इन रसायनों से जलस्त्रोतों को बचाने के लिए पक्के फर्श के विकल्पों का चुनाव करें। संभव हो तो छिद्रित फर्श बनाए जा सकते हैं। स्थानीय पौधे भी लगाए जा सकते हैं.

वाकई जल ही जीवन है. अगर अमृत कहीं है, तो यही है। अत: पेय जल की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए हम-आप अपने स्तर पर भी पहल कर सकते हैं। इसी में हमारा-आपका और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित है. तो इस विश्व जल दिवस से ही ये शुरुआत क्यों न की जाय अन्यथा काला-पानी की कहानी फिर से चरितार्थ हो जाएगी, जहाँ सब ओर पानी तो दिखता है, पर पीने को लोग तरसते हैं !!
 
-आकांक्षा यादव

शनिवार, 20 मार्च 2010

कंक्रीटों के शहर में गौरैया (विश्व गौरैया दिवस पर)

गौरैया भला किसे नहीं भाती. कहते हैं कि लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर सबेर गौरैया के जोड़े वहाँ रहने पहुँच ही जाते हैं। पर यही गौरैया अब खतरे में है. पिछले कई सालों से इसके विलुप्त होने की बात कही जा रही है. कंक्रीटों के शहर में गौरैया कहाँ घर बनाये, उस पर से मोबाइल टावरों से निकले वाली तंरगों को भी गौरैयों के लिए हानिकारक माना जा रहा है। हम जिस मोबाइल पर गौरैया की चूं-चूं कलर ट्यून के रूप में सेट करते हैं, उसी मोबाइल की तंरगें इसकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ता है. यही नहीं आज की पीढ़ी भी गौरैया को नेट पर ही खंगाल रही है. उसके पास गौरैयाके पीछे दौड़ने के लिए समय भी नहीं है, फिर गौरैया कहाँ जाये..किससे अपना दुखड़ा रोये..यदि इसे आज नहीं सोचा गया तो कल गौरैया वाकई सिर्फ गीतों-किताबों और इन्टरनेट पर ही मिलेगी. इसी चिंता के मद्देनजर इस वर्ष से दुनिया भर में प्रति वर्ष 20 मार्च को ''विश्व गौरैया दिवस'' मनाने का निर्णय लिया गया है. देर से ही सही पर इस ओर कुछ ठोस कदम उठाने की जरुरत है, तभी यह दिवस सार्थक हो सकेगा. इस अवसर पर अपने पतिदेव कृष्ण कुमार यादव जी की एक कविता उनके ब्लॉग शब्द सृजन की ओर से साभार-

चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।

वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे।

बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।

बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।

आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी?

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

हिन्दी की तलाश जारी है...

एक तरफ हिंदी को बढ़ावा देने की लम्बी-लम्बी बातें, उस पर से भारत सरकार के बजट में हिंदी के मद में जबरदस्त कटौती. केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में हिन्दी के लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपये दिये गये थे।

लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई. अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है. हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है. इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाज़ी चलती है. और यदि यह बाज़ी हाथ न लगे तो श्लीलता-अश्लीलता का दौर आरंभ हो जाता है. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब का बाज़ार ऐसे लोगों ने ही बढाया. आजकल तो जमाना बस चर्चा में रहने का है, बदनाम हुए तो क्या हुआ-नाम तो हुआ.

साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है. साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय. कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है. हर कोई अपने को प्रेमचंद, निराला की विरासत का संवाहक मन बैठा है, पर फुसफुसे बम से ज्यादा दम किसी में नहीं. तथाकथित बड़े साहित्यकार एक-दूसरे की आलोचना करके एक-दूसरे को चर्चा में लाते रहते हैं. दिखावा तो ऐसा होता है मानो वैचारिक बहस चल रही हो, पर उछाड़ -पछाड़ से ज्यादा यह कुछ नहीं होना. दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं.

हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं.अभी एक मित्र ने बताया कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित करवाने के लिए किस तरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार साहित्यकार से पैरवी कराई. पिछले दिनों कहीं पढ़ा था कि हिंदी के एक ठेकेदार दावा करते हैं कि वह कोई भी सम्मान आपकी झोली में डाल सकते हैं, बशर्ते पूरी पुरस्कार राशि आप उन्हें ससम्मान सौंप दे. बढ़िया है, किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!

-आकांक्षा यादव

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नव संवत्सर से जुडी हैं कई महत्वपूर्ण घटनाएँ

भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत में नव वर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है। असम में नववर्ष बीहू के रुप में मनाया जाता है, केरल में पूरम विशु के रुप में, तमिलनाडु में पुत्थंाडु के रुप में, आन्ध्र प्रदेश में उगादी के रुप में, महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा के रुप में तो बांग्ला नववर्ष का शुभारंभ वैशाख की प्रथम तिथि से होता है।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ लगभग सभी जगह नववर्ष मार्च या अप्रैल माह अर्थात चैत्र या बैसाख के महीनों में मनाये जाते हैं। पंजाब में नव वर्ष बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगू नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग$आदि का अपभ्रंश) के रूप मंे मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रुप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेण्डर नवरेह 19 मार्च को आरम्भ होता है। महाराष्ट्र में गुडी पड़वा के रुप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुडी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरुविजा नव वर्ष के रुप में मनाया जाता है। मारवाड़ी और गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है, जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है। वस्तुतः भारत वर्ष में वर्षा ऋतु की समाप्ति पर जब मेघमालाओं की विदाई होती है और तालाब व नदियाँ जल से लबालब भर उठते हैं तब ग्रामीणों और किसानों में उम्मीद और उल्लास तरंगित हो उठता है। फिर सारा देश उत्सवों की फुलवारी पर नववर्ष की बाट देखता है। इसके अलावा भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं, इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था।

भारतीय नव वर्ष नव संवत्सर का आरंभ आज हो रहा है. ऐसी मान्यता है कि जगत की सृष्टि की घड़ी (समय) यही है। इस दिन भगवान ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना हुई तथा युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारंभ हुआ।

‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि।
शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति।।‘

अर्थात ब्रह्मा पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के प्रथम दिन, प्रथम सूर्योदय होने पर की। इस तथ्य की पुष्टि सुप्रसिद्ध भास्कराचार्य रचित ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ से भी होती है, जिसके श्लोक में उल्लेख है कि लंका नगर में सूर्योदय के क्षण के साथ ही, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस से मास, वर्ष तथा युग आरंभ हुए। अतः नव वर्ष का प्रारंभ इसी दिन से होता है, और इस समय से ही नए विक्रम संवत्सर का भी आरंभ होता है, जब सूर्य भूमध्य रेखा को पार कर उत्तरायण होते हैं। इस समय से ऋतु परिवर्तन होनी शुरू हो जाती है। वातावरण समशीतोष्ण होने लगता है। ठंडक के कारण जो जड़-चेतन सभी सुप्तावस्था में पड़े होते हैं, वे सब जाग उठते हैं, गतिमान हो जाते हैं। पत्तियों, पुष्पों को नई ऊर्जा मिलती है। समस्त पेड़-पौधे, पल्लव रंग-विरंगे फूलों के साथ खिल उठते हैं। ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर कहते हैं। इस वर्ष नया विक्रम संवत 2067, मार्च 16, 2010 को प्रारंभ हो रहा है।

संवत्सर, सृष्टि के प्रारंभ होने के दिवस के अतिरिक्त, अन्य पावन तिथियों, गौरवपूर्ण राष्ट्रीय, सांस्कृतिक घटनाओं के साथ भी जुड़ा है। रामचन्द्र का राज्यारोहण, धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म, आर्य समाज की स्थापना तथा चैत्र नवरात्र का प्रारंभ आदि जयंतियां इस दिन से संलग्न हैं। इसी दिन से मां दुर्गा की उपासना, आराधना, पूजा भी प्रारंभ होती है। यह वह दिन है, जब भगवान राम ने रावण को संहार कर, जन-जन की दैहिक-दैविक-भौतिक, सभी प्रकार के तापों से मुक्त कर, आदर्श रामराज्य की स्थापना की। सम्राट विक्रमादित्य ने अपने अभूतपूर्व पराक्रम द्वारा शकों को पराजित कर, उन्हें भगाया, और इस दिन उनका गौरवशाली राज्याभिषेक किया गया।

आप सभी को भारतीय नववर्ष विक्रमी सम्वत 2067 और चैत्री नवरात्रारंभ पर हार्दिक शुभकामनायें. आप सभी के लिए यह नववर्ष अत्यन्त सुखद हो, शुभ हो, मंगलकारी व कल्याणकारी हो, नित नूतन उँचाइयों की ओर ले जाने वाला हो !!

-आकांक्षा यादव

रविवार, 14 मार्च 2010

सम्पूर्ण आहार के रूप में केला

नवरात्र का त्यौहार मंगलवार से आरंभ हो रहा है. विशेषकर नारियों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण समय होता है. घर-आफिस की जिम्मेदारियों के साथ व्रत-पालन वाकई एक दुष्कर कार्य होता है. पर व्रत कोई भी हो, फलों का अपना महत्त्व है. फलों में भी केला का विशेष महत्त्व है. केले की महिमा सा भला कौन अपरिचित होगा.केला विश्व का सबसे अहम फल माना जाता है। यह हर जगह आसानी से उपलब्ध रहता है। यहाँ अंडमान में तो केला बहुतायत में आसानी से मिलने वाला फल है.विश्व में प्रति एकड़ सबसे अधिक फल देने वाली केले की फसल रहती है। इसे एक संपूर्ण आहार माना जाता है.अगर आप दुबले हैं और मोटा होना चाहते हैं तो प्रतिदिन रोज जमकर केले खांए। इसमें प्रचुर मात्रा में फैट मिलता है। केले में शरीर को लाभ पहुंचाने के और भी कई गुण हैं इसमें प्रोटीन 13 प्रतिशत, चर्बी 2 प्रतिशत, खनिज पदार्थ 7 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 36.4 प्रतिशत, कैल्शियम 1 प्रतिशत, फासफोरस 5 प्रतिशत, लोहा 4 प्रतिशत पाया जाता है।

सर्वप्रथम केले का पौधा दक्षिण-पूर्व एशिया और इंडोनेशिया के जंगलों से मिला था और संभवतः पपुआ न्यूगिनी में इन्हें सबसे पहले उपजाया गया था. 16वीं शताब्दी में स्पेन के लोग इसे अमेरिका ले गए वहां इसकी खूब खेती की जाने लगी। अब इसकी खेती अमेरिका, मलाया, ब्राजील, कोलंबिया, थाईलैण्ड, इंडोचीन और भारत में होती है।

केला जहां एक संपूर्ण आहार है वहीं इसके औषधीय गुण भी कम नहीं हैं। केला स्वादिष्ट, शीतल तथा स्वास्थ्यवर्धक फल है। एक सौ ग्राम केले से अनुमानतः 153 कैलोरी शक्ति मिलती है। आयुर्वेद में बताया गया है कि पका केला ठंडा, रूचिकर, पुष्टिकारक, शरीर पर मांस बढ़ाने वाला, रक्त-विहार नाशक, पथरी, रक्तपित्त दूर करने वाला प्रदर तथा नेत्ररोग मिटाने वाला होता है। केला कच्चे और पके दोनों तरह से इस्तेमाल में आता है। मंदाग्नि, गुर्दे के रोगों ग्रंथि रोग, गठिया आदि रोगों के लिए लाभकारी साबित होता है। अम्लहीन होने के कारैष्टिक अल्सर के रागियों को सरलता से पच जाता है। केला आंत की कमियों को समूल समाप्त करता हे। दस्त और पेचिश में पके हुए केले का प्रयोग बहुत गुणकारी है। मधुमेह के रोगियों के लिए भी केला हानिकारक नहीं होता है। कमजोर पाचन शक्ति वाले मरीज के लिए केला वरदान है। वजन बढ़ाने के इच्छुक लोगों के लिए केला सर्वोत्तम भोजन है। केला खूब पका हुआ ही खाना चाहिए। कच्चे केले में 20-25% स्टार्च मिलता है, जो आसानी से सुपाच्य शर्करा में बदलता है। कच्चे केले को तलकर भी खाया जात है और इससे स्वादिष्ट मिठाइयां भी बनती हैं। दक्षिण भारत में कच्चे केले के टुकड़े काटकर सुखकर पीसकर पाउडर बना लेते हैं। केले का यह पाउडर दूध के साथ देने से बच्चों के विकास में सहायक रहता है।

केले में लोहा होने के कारण यह एनीमिया के रोगी में खून की वृद्धि करता है। अगर किसी को खाज व गंजापन की बराबर शिकायत है तो केले के गूदे में नीबू का रस मिलाकर लगाने से लाभ होता है। दस्तों की स्थिति अधिक बनने पर दही के साथ पका केला खाना लाभदायक है। केला पेट के लिए इतना अधिक लाभदायक साबित हुआ है कि आंत के रोगों को बिना आपरेशन ठीक कर सकता है। पेचिश में केले को दही में मथ कर थोड़ा सा जीरा व काला नमक मिलाकर खाना उचित रहता है। कुत्ते के काटने की जगह पर केले के बीच को पीसकर लगाने से लाभ रहता है। केले के सेवन से आंतों में विजातीय द्रव्यों की सड़न क्रिया नहीं होती है। जलने पर केले के पत्तों का रस लगाने से फफोले नहीं पड़ते। केला खने से बच्चों व कमजोर व्यक्तियों की पाचन शक्ति ठीक रहती है। भूख ज्यादा लगती है। केला उच्च रक्त चाप को रोकने में सार्थक और हृदय रोगों में उपयोगी है। अपच में केले की सब्जी बनाकर खाएं। केले में पेक्टिन नामक पदार्थ होता है, जो मल को मुलायम और साफ करके पेट से बाहर निकालने में सहायक हैं। एक केला, एक कप नारियल का पानी व एक चम्मच शहद मिलाकर सेवन करने से पीलिया, टायफाइड, खसरा में लाभप्रद रहता है। केले में सिरोटीन नामक क्षरीय रसायन मिलता है जोकि खून की क्षरीयता को बढ़ाता है तथा अमाशय की अम्लता को कम करता है।
 
-आकांक्षा यादव

बुधवार, 10 मार्च 2010

धर्म का लबादा ओढ़े ये मानवता के भक्षक

 
कानपुर भले ही छूट गया हो, पर अभी भी वहाँ की ख़बरें देख-पढ़ लेती हूँ. चार साल से ज्यादा का रिश्ता इतनी जल्दी छोड़ भी तो नहीं पाती. कानपुर भले ही कभी उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी रहा हो, पर आज का कानपुर अपराध के लिए कुख्यात है, वो भी मूलत: महिलाओं के सम्बन्ध में. यहाँ पोर्टब्लेयर में जब लोगों को बेरोकटोक भारी गहने पहने देखती हूँ तो कानपुर का वो मंजर याद आता है जहाँ रोज गले से चेन की छिनैती, महिलाओं से छेड़-छाड़ आम बात है. कभी गौर करें तो कानपुर से सबसे ज्यादा अख़बार प्रकाशित होते हैं और स्थानीय ख़बरों में ऐसी ही समाचारों की भरमार रहती है.

अभी एक खबर पर निगाह गई कि कानपुर में लड्डू खिलाने के बहाने घर से ले जाकर एक पुजारी के बेटे ने सात साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म किया और बाद में उसकी गला दबाकर हत्या कर दी। पुजारी का यह बेटा कुछ दिनों से पिता के बीमार होने के कारण पूजा-पाठ का काम खुद ही कर रहा था। और इसी दौरान उसने यह कु-कृत्य किया.
 
पता नहीं ऐसे लोग किस विकृत मानसिकता में पले-बढे होते हैं, जो कभी ढोंगी बाबा का रूप धारण करते हैं तो कभी पुजारी का. उन्होंने आवरण कितना भी बढ़िया ओढ़ रखा हो, पर मानसिकता कुत्सित ही होती है. मंदिर में बैठे पुजारी से लेकर बड़े-बड़े धर्माचार्य तक सब लम्बे-लम्बे उपदेश देते हैं, पर खुद के ऊपर इनका कोई संयम नहीं होता. ऐसे लोग समाज के नाम पर कोढ़ ही कहे जायेंगें. सात साल की बच्ची से बलात्कार..सोचकर ही दिल दहल जाता है.
 
अभी कुछ दिनों पहले कोलकाता एयरपोर्ट पर थी, तो पता चला कि 7-8 साल की बच्ची के साथ वहाँ के एक स्टाफ ने छेड़खानी की, जिसके चलते वहाँ सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई है. अपने चारों तरफ देखें तो ऐसी घटनाएँ रोज घटती हैं, जिनसे मानवता शर्मसार होती है. पर धर्म के पहरुये ही जब मानवता के भक्षक बन जाएँ तो क्या कहा जाय...?
 
-आकांक्षा यादव

सोमवार, 8 मार्च 2010

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस का शतक

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरूआत 1900 के आरंभ में हुई थी। वर्ष 1908 में न्यूयार्क की एक कपड़ा मिल में काम करने वाली करीब 15 हजार महिलाओं ने काम के घंटे कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट का अधिकार देने के लिए प्रदर्शन किया था। इसी क्रम में 1909 में अमेरिका की ही सोशलिस्ट पार्टी ने पहली बार ''नेशनल वुमन-डे'' मनाया था।

वर्ष 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस मनाने का फैसला किया गया और 1911 में पहली बार 19 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। इसे सशक्तिकरण का रूप देने हेतु ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में लाखों महिलाओं ने रैलियों में हिस्सा लिया.

बाद में वर्ष 1913 में महिला दिवस की तारीख 8 मार्च कर दी गई। तब से हर 8 मार्च को विश्व भर में महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है.

***अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनायें ***

रविवार, 7 मार्च 2010

नारी को निर्णय की शक्ति दें (महिला-दिवस पर विशेष)

महिला-दिवस सुनकर बड़ा अजीब लगता है. क्या हर दिन सिर्फ पुरुषों का है, महिलाओं का नहीं ? पर हर दिन कुछ कहता है, सो इस महिला दिवस के मानाने की भी अपनी कहानी है. कभी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई से आरंभ हुआ यह दिवस बहुत दूर तक चला आया है, पर इक सवाल सदैव उठता है कि क्या महिलाएं आज हर क्षेत्र में बखूबी निर्णय ले रही हैं.
 
मात्र कुर्सियों पर नारी को बिठाने से काम नहीं चलने वाला, उन्हें शक्ति व अधिकार चाहिए ताकि वे स्व-विवेक से निर्णय ले सकें. आज नारी राजनीति, प्रशासन, समाज, संगीत, खेल-कूद, फिल्म, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, अन्तरिक्ष सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रही है, यहाँ तक कि आज महिला आर्मी, एयर फोर्स, पुलिस, आईटी, इंजीनियरिंग, चिकित्सा जैसे क्षेत्र में नित नई नजीर स्थापित कर रही हैं। यही नहीं शमशान में जाकर आग देने से लेकर पुरोहिती जैसे क्षेत्रों में भी महिलाएं आगे आ रही हैं. रुढियों को धता बताकर महिलाएं हर क्षेत्र में परचम फैलाना चाहती हैं.

पर इन सबके बावजूद आज भी समाज में बेटी के पैदा होने पर नाक-भौंह सिकोड़ी जाती है, कुछ ही माता-पिता अब बेटे-बेटियों में कोई फर्क नहीं समझते हैं...आखिर क्यों ? क्या सिर्फ उसे यह अहसास करने के लिए कि वह नारी है. वही नारी जिसे अबला से लेकर ताड़ना का अधिकारी तक बताया गया है. सीता के सतीत्व को चुनौती दी गई, द्रौपदी की इज्जत को सरेआम तार-तार किया गया तो आधुनिक समाज में ऐसी घटनाएँ रोज घटित होती हैं. तो क्या बेटी के रूप में जन्म लेना ही अपराध है. मुझे लगता है कि जब तक समाज इस दोगले चरित्र से ऊपर नहीं उठेगा, तब तक नारी की स्वतंत्रता अधूरी है.
 
सही मायने में महिला दिवस की सार्थकता तभी पूरी होगी जब महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, वैचारिक रूप से संपूर्ण आज़ादी मिलेगी, जहाँ उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा, जहाँ कन्या भ्रूण हत्या नहीं की जाएगी, जहाँ बलात्कार नहीं किया जाएगा, जहाँ दहेज के लोभ में नारी को सरेआम जिन्दा नहीं जलाया जाएगा, जहाँ उसे बेचा नहीं जाएगा। समाज के हर महत्वपूर्ण फैसलों में उनके नज़रिए को समझा जाएगा और क्रियान्वित भी किया जायेगा. समय गवाह है कि एक महिला के लोकसभा स्पीकर बनाने पर ही लोकसभा भवन में महिलाओं के लिए पृथक प्रसाधन कक्ष बन पाया. इससे बड़ा उदारहण क्या हो सकता है. जरुरत समाज में वह जज्बा पैदा करने का है जहाँ सिर उठा कर हर महिला अपने महिला होने पर गर्व करे, न कि पश्चाताप कि काश मैं लड़का के रूप में पैदा होती !!
 
!!! अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के 100 वर्ष पूरे होने पर शुभकामनायें !!!
 
-आकांक्षा यादव

शनिवार, 6 मार्च 2010

ये हाईप्रोफाइल युवतियां ??

कई बार कुछ ख़बरें मन को झकझोरती हैं, ग्लानि पैदा करती हैं. ऐसी ही इक खबर पर नज़र गई कि सैक्स रैकेट के आरोप में ढोंगी बाबा राजीव रंजन द्विवेदी के साथ पकड़ी गई छह हाईप्रोफाइल युवतियों को लेकर दुनिया चाहे कुछ भी सोच रही हो, लेकिन उनको इसका मलाल नहीं है। किसी तरह पैसा कमाना और मौजमस्ती ही उनका लक्ष्य है। इसके लिए ही वह इस धंधे में हैं। मामले के जांच अधिकारी द्वारा युवतियों से पूछे गए सवालों के जवाब से इसकी पुष्टि हुई।

पुलिस के मुताबिक ये युवतियां काफी अच्छे घराने की हैं। इनमें एक पश्चिम बंगाल, एक पंजाब, एक अंबाला व तीन दिल्ली की है। चार लड़कियां एयर होस्टेस हैं। इनमें एक की तनख्वाह एक लाख 30 हजार रुपये मासिक है। वह दिल्ली के पॉश इलाके में 25 हजार रुपये किराये पर घर लेकर रहती है। सभी युवतियां फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है। पुलिस को दिए बयान में युवतियों ने बताया है कि अपनी मर्जी से वह इस धंधे में आई है। पूछताछ में इन युवतियों में गजब का आत्मविश्वास दिखाई दिया। कुछ युवतियों ने बड़ी बेबाकी से बताया कि वह बचपन से शराब पीती है। पुलिस के सवालों से तंग आकर युवतियों ने कहा-'यह बताइए कि हमें जमानत कब मिलेगी।'

गुरुवार, 4 मार्च 2010

बोआ सीनियर के निधन के साथ 65,000 साल पुरानी भाषा विलुप्त

सुनकर अजीब लगता है, पर यह सच है. हाल ही में अंडमान निकोबार द्वीप समूह की तकरीबन 65000 साल से बोली जाने वाली एक आदिवासी भाषा हमेशा के लिए विलुप्त हो गई । वस्तुत: कुछ दिन पहले अंडमान में रहने वाले बो कबीले की आखिरी सदस्य 85 वर्षीय बोआ सीनियर के निधन के साथ ही इस आदिवासी समुदाय द्वारा बोली जाने वाली बो भाषा भी लुप्त हो गई। ग्रेट अंडमान में कुल 10 मूल आदिवासी समुदायों में से एक बो समुदाय की इस अंतिम सदस्य ने 2004 की विनाशकारी सुनामी में अपने घर-बार को खो दिया था और सरकार द्वारा बनाए गए कांक्रीट के शेल्टर में स्ट्रैट द्वीप पर गुजर-बसर कर रही थी। 'बो' भाषा के बारे में भाषाई विशेषज्ञों का मानना है कि यह भाषा अंडमान में प्री-नियोलोथिक समय से इस समुदाय द्वारा उपयोग में लाई जा रही थी।

अंडमान में रहने वाले आदिवासियों को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है-द ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग और सेंटिनीलीस। लगभग 10 भाषाई समूहों में बँटे ग्रेट अंडमान के मूल निवासियों की जनसंख्या 1858 में द्वीप पर ब्रिटिश कॉलोनी बनने तक 5500 से भी ज्यादा थी, पर इनमें से बहुत से मारे गए या 'बाहरी' दुनिया के लोगों द्वारा लाई गई संक्रमित बीमारियों का शिकार बन गए। वर्तमान में ग्रेटर अंडमान में केवल 52 मूल निवासी लोग बचे हैं, जिनके भविष्य पर भी अब संशय बना है। दरअसल, ये भाषाएँ शहरीकरण के चलते दूर-दराज के इलाकों में अंग्रेजी और हिंदी के बढ़ते प्रभाव के कारण हाशिए पर जा रही हैं।

गौरतलब है कि कुछ ही दिन पहले संयुक्त राष्ट्र की पहली ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स इंडीजीनस पीपुल्स’ रिपोर्ट में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि दुनियाभर में छह से सात हजार तक भाषाएँ बोली जाती हैं, इनमें से बहुत सी भाषाओं पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से अधिकतर भाषाएँ बहुत कम लोग बोलते हैं, जबकि बहुत थोड़ी सी भाषाएँ बहुत सारे लोगों द्वारा बोली जाती हैं। सभी मौजूदा भाषाओं में से लगभग 90 फीसदी अगले 100 सालों में लुप्त हो सकती हैं, क्योंकि दुनिया की लगभग 97 फीसदी आबादी इनमें से सिर्फ चार फीसदी भाषाएँ बोलती हैं। यूनेस्को द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक ठेठ आदिवासी भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा बढ़ता ही जा रहा है और इन्हें बचाने की आपात स्तर पर कोशिशें करना होंगी।

वस्तुत: यह सिर्फ किसी भाषा के खत्म होने का ही सवाल नहीं है, बल्कि इसी के साथ उस समुदाय के नष्ट होने का अहसास भी होता है। इस तरफ सभी देशों को ध्यान देने की जरुरत है, अन्यथा हम अपनी विरसत को यूँ ही खोते रहेंगे !!

-आकांक्षा यादव

मंगलवार, 2 मार्च 2010

जहां मुट्ठी में

अक्सर हम लोग चर्चा में कहते हैं कि इस दुनिया में कुछ भी मुश्किल नहीं है. यदि व्यक्ति चाहे तो धरती क्या असमान भी मुट्ठी में समां सकता है. भले ही यह बात प्रतीकात्मक हो, पर इस चित्र को देखकर तो यही लगता है मानो जहां मुट्ठी में समा गया हो !!

सोमवार, 1 मार्च 2010

होली पर्व की शुभकामनायें


रंग-बिरंगी होली आई !
खुशियों का खजाना लाई !!

*** होली पर्व की ढेरों शुभकामनायें. सभी द्वेष भूलकर आज के दिन हम सभी एक हों ***

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

बरसाने की लट्ठमार होली

होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुक्ल नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है।
 
इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। सखागण मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं।
 
 बरसाने की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं।
 
इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आनन्द लेते हैं।
 
- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

बच्चों के उत्पात से उद्भव हुआ होलिकादहन का

होली व होलिका-दहन को लेकर तमाम मान्यताएं हैं. उनमें सबसे प्रचलित दैत्यराज हिरण्यकश्यप, उसके विष्णुभक्त बेटे प्रहलाद और उसकी बहन होलिका से जुडी हुई है.पर इससे परे भी एक मान्यता है.
 
भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सदी-गर्मी-बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंतत: भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी।
 
धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकड़ियाँ व घास-फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला-गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया।
 
ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप ‘धुलैंडी’ धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं।

-कृष्ण कुमार यादव

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में 'महिला-आरक्षण का झुनझुना' पोस्ट की चर्चा

'शब्द शिखर' और 'नारी' पर 24 फरवरी, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'फिर से महिला-आरक्षण का झुनझुना' को हिन्दी दैनिक पत्र 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग राग' में 25 फरवरी, 2010 को स्थान दिया गया है.'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में पहली बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 16वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

(चित्र साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

काला पानी में सरपट दौड़ेगी ट्रेन

अंडमान के लोगों के लिए यह भारत द्वारा किसी मैच के जीतने सरीखा था. कल शाम को पोर्टब्लेयर की सड़कों पर पटाखे फूट रहे थे, कारण जानना चाही तो पता चला कि रेल मंत्री ममता बनर्जी ने रेलवे बजट में अंडमान में भी ट्रेन चलाने की बात प्रस्तावित की है. यहाँ राजधानी पोर्टब्लेयर और नार्थ अंडमान के सबसे दूर अवस्थित कस्बे डिगलीपुर के मध्य ट्रेन सेवा आरंभ करने के प्रस्ताव की घोषणा की गई है.

कभी काला-पानी के लिए मशहूर अंडमान के लिए यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी रेल बजट में अंडमान के बारे में लोकसभा में जिक्र नहीं किया गया. यह पहली बार है कि रेल बजट में अंडमान का जिक्र है. फ़िलहाल यह प्रस्ताव है और इसे फलीभूत होने में समय भी लगेगा, पर भारत के सबसे बड़े सरकारी विभाग की इसी बहाने अंडमान में उपस्थिति भी दिखेगी. अन्यथा रेलवे के लिए अभी तक तो अंडमान काला-पानी से शापित ही नजर आता था.

इस ट्रेन सेवा से जहाँ पूरा अंडमान जुड़ जायेगा, वहीँ रोजगार की संभावनाएं भी बढ़ जायेंगीं. समय की बचत के अलावा किसानों को इसका सीधा लाभ मिलेगा और वे अपने उत्पादों को राजधानी पोर्टब्लेयर के बाजारों में आसानी से ला सकेंगें. इसके अभाव में यहाँ सब्जियां बहुत महगीं हैं, इससे उनकी कीमतें भी नियंत्रित हो जायेंगीं. चूँकि ममता बनर्जी पडोसी राज्य पश्चिम बंगाल की हैं, सो वे स्वयं अंडमान का दौरा आसानी से कर सकती हैं.

कभी काला-पानी के लिए कुख्यात अंडमान में ट्रेन सेवा मीडिया के लिए भी महत्वपूर्ण खबर बनी. तमाम राष्ट्रीय चैनल बाकायदा इसे हाईलाइट करके दिखा रहे थे. फ़िलहाल अंडमान के लोग खुश हैं और उनके साथ ही किसान, व्यवसायी, अधिकारी और पर्यटक भी खुश हैं...पर डर इस बात का भी है की यह सिर्फ घोषणा तक ही न रह जाय. अन्यथा रेलवे विभाग के लिए अंडमान काला-पानी ही बनकर रह जायेगा, जहाँ आज तक उन्होंने कदम ही नहीं रखा !!

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

फिर से महिला-आरक्षण का झुनझुना

एक बार फिर से महिला आरक्षण विधेयक को उसके मूल स्वरूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल को भेज दिया गया है। गाहे-बगाहे हर साल देश की आधी आबादी के साथ यह नौटंकी चलती है और नतीजा सिफ़र. इस देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष व मुख्यमंत्री पदों पर महिला आसीन हो चुकी हैं, पर एक अदद आरक्षण के लिए अभी भी महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक माहौल नहीं बन पाया है.

यद्यपि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में अपने अभिभाषण में कहा है कि सरकार महिला आरक्षण बिल को जल्दी से जल्दी संसद से पारित कराने के लिए प्रतिबद्ध है। पर दुर्भाग्यवश इस प्रतिबद्धता के पीछे कोई राजनैतिक इच्छा-शक्ति नहीं दिखती है.

महिला आरक्षण बिल वाकई एक मजाक बन चुका है, जिस पर हर साल हंगामा होता है. कोई तर्क देगा कि महिलाएं इतनी शक्तिवान हो चुकी हैं कि अब उन्हें आरक्षण की जरुरत नहीं, कोई पर- कटियों से डरता है, कोई आरक्षण में भी आरक्षण चाहता है, कोई इसे वैसाखी बताकर ख़ारिज करना चाहता है तो किसी की नज़र में यह नेताओं की घरवालियों व बहू-बेटियों को बढ़ाने की चाल है. बस इन्हीं सब के चलते राजनीतिक दलों में इस मसले पर आम राय नहीं बन पाने के कारण पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से यह बिल संसद की मंजूरी का इंतजार कर रहा है। पर कोई यह बता पाने की जुर्रत नहीं कर पाता है कि वास्तव में यह बिल मंजूर क्यों नहीं हो रहा है.

महिला-आरक्षण को एक ऐसा झुनझुना बना दिया गया है जिससे हर राजनैतिक दल व सत्ताधारी पार्टी खेलती जरुर है, पर उसे कोई सम्मानित स्थान नहीं देना चाहती. फ़िलहाल इंतजार इस बिल के पास होने का....!!!

-आकांक्षा यादव

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

जीवन एक पुष्प समान

यह जीवन एक पुष्प समान है. आप अपने हृदय के पटों को जितना खोलेंगें अर्थात अपनी विचारधारा को जितना विकसित करेंगें, वह समाज को उतना ज्यादा सुवासित करेगी !!

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

'शब्द-शिखर' के बहाने 'अमर उजाला' में अंडमान के आम

'शब्द शिखर' पर 18 फरवरी, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट अंडमान में आम की बहार को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 19 फरवरी, 2010 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! 'अमर उजाला' के ब्लॉग कोना में नौवीं बार 'शब्द-शिखर' की चर्चा हुई है. फ़िलहाल अंडमान आने के बाद पहली बार किसी पत्र-पत्रिका ने इस ब्लॉग की चर्चा की है, सुखद अनुभूति होती है. यहाँ पर अधिकतर पत्र-पत्रिकाएं नहीं मिलती हैं, पर स्नेही-जन फोन कर सूचनाएं जरुर देते रहते हैं...आप सभी का पुन: आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाओं की चर्चा अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका,गजरौला टाईम्स, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

अंडमान में आम की बहार

आम का फल विश्वप्रसिद्ध स्वादिष्ट फल है। इसे फलों का राजा कहा गया हैं। वेदों में आम को विलास का प्रतीक कहा गया है। इसका रसदार फल विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है। कवि कालीदास ने इसकी प्रशंसा में गीत लिखे हैं। अलेक्‍सेंडर ने इसका स्‍वाद चखा है और साथ ही चीनी धर्म यात्री व्‍हेनसांग ने भी। मुग़ल सम्राट अकबर ने तो दरभंगा में आम के एक लाख पौधे लगाए और उस बाग़ को आज भी लाखी बाग़ के नाम से जाना जाता है। कालांतर में तमाम कविताओं में इसका ज़िक्र हुआ और कलाकारों ने बखूबी इसे अपने कैनवास पर उतारा। अपने देश में गर्मियों के आरंभ से ही आम पकने का इंतज़ार होने लगता है।

भारतीय प्रायद्वीप में आम की कृषि हजारों वर्षों से हो रही है। यह ४-५ ईसा पूर्व पूर्वी एशिया में पहुँचा। १० वीं शताब्दी तक यह पूर्वी अफ्रीका पहुँच चुका था। उसके बाद आम ब्राजील,वेस्टइंडीज और मैक्सिको पहुँचा क्योंकि वहाँ की जलवायु में यह अच्छी तरह उग सकता था। १४वीं शताब्दी में मुस्लिम यात्री इब्नबतूता ने इसकी सोमालिया में मिलने की पुष्टि की है। तमिलनाडु के कृष्णगिरि के आम बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं और दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।

जब हम लखनऊ में थे तो अक्सर आम के इस शौक में मलिहाबाद जाते थे. उत्तर भारत में गौरजीत, बाम्बेग्रीन, दशहरी, लंगड़ा, चौसा एवं लखनऊ सफेदा प्रजातियाँ तो खूब उगायी जाती हैं।देखा जाय तो आम की किस्मों में दशहरी, लंगड़ा, चौसा, फज़ली, बम्बई ग्रीन, बम्बई, अलफ़ॉन्ज़ो, बैंगन पल्ली, हिम सागर, केशर, किशन भोग, मलगोवा, नीलम, सुर्वन रेखा,वनराज, जरदालू प्रसिद्द हैं। अब तो तमाम नई किस्में- मल्लिका, आम्रपाली, रत्ना, अर्का अरुण, अर्मा पुनीत, अर्का अनमोल तथा दशहरी-51 इत्यादि भी दिखने लगी हैं.

आम को तो वैज्ञानिकों ने ब्रेस्ट कैंसर से बचाव में दूसरे फलों के मुकाबले भी ज्यादा फायदेमंद माना है। वस्तुत: आम में ब्लूबेरी (नीबदरी), अंगूर, अनार जैसे दूसरे फलों से कम एंटीऑक्सिडेंट होने के कारण यह शरीर में एंटी कैंसर एक्टिविटीज को बढाता है। इसलिए कैंसर से बचने के लिए आम को रेग्यूलर डाइट में शामिल करना फायदेमंद है।पर यहाँ चर्चा अंडमान के आमों की...!!

आम खाना किसे नहीं अच्छा लगता, और वो भी मौसम से पहले. फ़िलहाल यहाँ अंडमान में तो हमारे लिए यही स्थिति है. अपने उत्तर-प्रदेश में रहते तो आम के लिए जून-जुलाई का इंतजार करते, पर यहाँ तो अभी से फलों के राजा आम की बहार है. पेड़ों पर आम सिर्फ दिखने ही नहीं लगे हैं बल्कि अब तो पककर पीले और लाल भी हो रहे हैं.

जब हम यहाँ आये थे तो आम के पेड़ों में बौर देखकर बड़ा अपनापन सा लगा था. पहले दाल में आम डालकर इसका स्वाद लिया, अब पर अब तो इन रसीले पीले-पीले आमों को खाने का मजा ही दुगुना हो गया है. वही स्वाद, वही अंदाज़..अजी क्या कहने. यहाँ के लोग बताते हैं कि अंडमान में बारहों महीने आम की फसल होती है और हर तीन माह बाद आम के फल पेड़ों पर दिखने लगते हैं. काश ऐसा ही हो और हम मस्ती से आम खाएं. फ़िलहाल अगले एक-दो सालों तक तो आम के लिए गर्मियों का इंतजार नहीं करना पड़ेगा. वक़्त से पहले आम को प्राकृतिक रूप में खाने के इस उत्साह ने बैठे-बैठे ये पोस्ट भी लिखवा दी. आप भी अंडमान आयें तो छककर आम खाएं और उसके बाद तो नारियल का पानी पियें ही... !!

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

प्रकृति प्रेमियों का स्‍वर्ग : अंडमान-निकोबार

फ़िलहाल अंडमान-निकोबार में हूँ, सो यहाँ की बहुत सी चीजें समझने की कोशिश भी कर रही हूँ. अंडमान निकोबार द्वीप प्रकृति प्रेमियों का स्‍वर्ग और गार्डन ऑफ इडन कहा जाता है। यहां का स्‍वच्‍छ परिवेश, सड़कें, हरियाली और प्रदूषण रहित ताजी हवा सभी प्रकृति प्रेमियों को अपनी ओर अकार्षित करते हैं। यहाँ स्थित कुल 572 दीपों में मात्र 38 पर जन-जीवन है और उनमें भी बमुश्किल आप लगभग 15 दीपों की सैर कर सकते हैं.

8,249 वर्ग कि.मी. में फैले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को पारिस्थितिकी के अनुकूल पर्यटक क्षेत्र के रूप में मान्‍यता दी गई हैं। इन द्वीपों के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 7,171 वर्ग किलोमीटर भाग वनों से ढका हुआ है। इन द्वीपों पर लगभग सभी प्रकार के वन जैसे उष्‍णकटिबंधीय आर्द्र सदाबहार वन, उष्‍णकटिबंधीय अर्द्ध सदाबहार वन, आर्द्र पर्णपाती, गिरि शिखर पर होने वाले तथा तटवर्ती और दलदली बन पाए जाते हैं। अंडमान निकोबार में विभिन्‍न प्रकार की लकडियां पाई जाती हैं। सबसे बहुमूल्‍य लकडियां पाडोक तथा गरजन की हैं। ये निकोबार में नहीं मिलतीं। यहाँ उष्‍ण कटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन, रजताभ बालू-तट, मैन्‍ग्रोव की घुमावदार पंक्तियां, संकरी खाडियां, पादपों, प्राणियों, प्रवालों आदि की दुर्लभ जातियों से भरपूर समुद्री जीवन पर्यटकों के लिए स्‍वर्ग हैं। इन द्वीपों में 96 वन्‍यजीव अभयारण्‍य, नौ राष्‍ट्रीय पार्क तथा एक जैव संरक्षित क्षेत्र (बायोरिजर्व) हैं।

अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की 1912 किमी की लंबी तटरेखा पर मात्स्यिकी के विकास के लिए बहुत संभावना हैं। इसका 6 लाख वर्ग किमी का अनन्‍य आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) है जो भारत के कुल अनन्‍य आर्थित क्षेत्र का 30 हैं। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के समुद्र में मछलियों की 1100 से अधिक जातियों की पहचान की गई है जिनमें से अभी लगभग 30 जातियों का ही वाणिज्यिक उपयोग किया जा रहा है। इस द्वीप के वनों में रहने वाले मूल अधिवासी अभी भी शिकार और मछली पकड़ने का कार्य करते हैं। इनकी चार नेग्रीटो जनजातियां हैं, जो हैं ग्रेट अंडमानी, ओंज, जरावा और सेंटीनेलेस जो द्वीप समूहों के अंडमान समूह में पाई जाती हैं तथा दो मंगोली जनजातियां अर्थात निकोबारी और शाम्‍पेन्‍स द्वीप के निकोबार समूह में पाई जाती हैं।

अंडमान द्वीप समूह की मुख्‍य खाद्य फसल धान है और निकोबार द्वीप समूह की मुख्‍य नकदी फ़सलें नारियल तथा सुपारी हैं। यहां के किसान पहाडी जमीन पर भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के फल, जैसे आम, सेपोटा, संतरा, केला, पपीता, अनन्‍नास और कंदमूल आदि उगाते हैं। यहां बहुफसल व्‍यवस्‍था के अंतर्गत मसाले, जैसे - मिर्च, लौंग, जायफल तथा दालचीनी आदि भी उगाए जाते हैं। इन द्वीपों में रबड, रेड आयल, ताड़ तथा काजू आदि भी थोडी-बहुत मात्रा में उगाए जाते हैं।

वाकई प्रकृति का सबसे अधिक कीमती उपहार माना जाने वाला अंडमान और निकोबार द्वीप जीवन भर याद रहने वाला अवकाश अनुभव है। तभी तो कीट्स ने यहाँ के लिए लिखा था कि-''यहाँ का संगमरमरी सफेद तट अपने किनारों पर पाम वृक्षों के साथ अचल खड़ा रहकर समुद्र की ताल पर नृत्‍य करता है। जनजातीय तबलों की ताल पर यहाँ की वीरानी और रंग- बिरंगी मछलियां साफ स्‍वच्‍छ चमकीले पानी में अपने रास्‍ते चलती हैं।''