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सोमवार, 30 अगस्त 2010

टॉयलेट हैंडिल के तुलना में मोबाइल 18 गुना ज्यादा गंदा



आधुनिक संचार क्रांति के दौर में मोबाईल फोन, लैपटॉप जैसे तमाम गैजेट्स अपरिहार्य बन चुके हैं. इनके बिना हम अपने दिन की कल्पना भी नहीं कर पाते. इनको लेकर विरोध भी उठते रहते हैं कि ये लोगों की निजता में दखल देते हैं, वगैरह-वगैरह. पर अब आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मोबाइल फोन अब अपने उपभोक्ताओं को ‘रोग देने वाली मशीन ‘ बन चुका है। ध्यान से सुनिए, टॉयलेट हैंडिल के तुलना में मोबाइल 18 गुना ज्यादा गंदा है. आपके प्यारे मोबाइल फोन जिसे आप हमेशा अपने से चिपकाये घूमते हैं, में इतने अधिक बैक्टीरिया होते हैं कि ये कभी भी आपको पेट की बीमारी प्रदान कर सकते हैं। मोबाइल फोन इतना खतरनाक और गंदा हो गया है कि अब उसको स्पर्श करने से भी लोगों को अपने हाथ साबुन से तुरंत धुलने चाहिए. कुछ मोबाईल फ़ोनों पर तो इतने अधिक बैक्टीरिया पाए गए हैं कि वे आपके साथ-साथ आपके साथियों को भी अच्छा-खासा रोगी बनाने में में सक्षम हैं। यह बात ब्रिटेन में हुई एक शोध के दौरान आई है, जहाँ 6 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन उपयोग में हैं और इनमें से 127 लाख मोबाइल फोन सेहत के लिए खतरा बन चुके हैं। यहाँ तक कि इनमें साॅलमोनेला बैक्टीरिया तक भी पाए गए जो किसी को भी पेट का मरीज बना सकते हैं। परीक्षण के दौरान यह तथ्य भी सामने आए कि कुछ मोबाइल फ़ोनों पर तो स्वीकृत मात्रा से 170 गुना फीकल काॅलीफार्म मिले, ये काॅलीफार्म मानव मल में पाए जाते हैं. परीक्षण के दौरान स्टे फाइलोकाॅक्स औरियंस, ई-कोलाई जैसे बैक्टीरिया भी मोबाइल फोन पर चिपके मिले जो फोन को स्पर्श करते ही हाथ से चिपक कर शरीर में तुरंत प्रवेश कर जाते हैं।

यह शोध भले ही ब्रिटेन में हुआ हो, पर इसके निष्कर्ष भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी उतने ही संगत हैं. आखिरकार भारत में लुभावने नारों के बीच मोबाईल-फोन खरीदने की होड़ मची हुई है और अब तो यह स्टेटस नहीं दिनचर्या का अंग बन चुका है. अमीरों की तो छोडिये, गाँव के किसान, मजदूर, रिक्शा-चालक और यहाँ तक कि बेरोजगार भी इसे धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं. सरकार लोगों को बता रही है कि वाहन चलाते समय मोबाईल फोन का इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है, पर यहाँ तो बच्चे भी धड़ल्ले से बाइक चलाते समय मोबाईल फोन का इस्तेमाल करते देखे जा सकते हैं. आज भारत में लगभग साठ से सत्तर करोड़ लोग मोबाईल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं. औसतन हर कोई दिन में इसे 25 बार अपने मुँह के समीप ले जाता है. ऐसे में भारत में मोबाईल फोन से संक्रमण और रोग फैलने का खतरा कितना सघन होगा, इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। सिर्फ मोबाईल फोन ही क्यों, कम्प्यूटर का की-बोर्ड, माउस, लैपटॉप, लैंड-लाइन फोन का रिसीवर तथा ए.टी.एम. जैसे तमाम उपकरण भी बीमारियों की जड़ बन चुके हैं. स्वाभाविक है किसी भी उपकरण को जितने ज्यादा लोग स्पर्श करेंगे, उतना ही ज्यादा वह संक्रामक होता जायेगा और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बनता जाएगा। तमाम मोबाईल कम्पनियाँ भी आने वाले दिनों में इस खतरे को समझ रही हैं और इससे छुटकारा पाने के लिए मोबाईल फोन इत्यादि पर एंटी बैक्टीरियल कोटिंग का प्रस्ताव चल रहा है, पर यह कितना सफल होगा, अभी भविष्य के गर्भ में है. फ़िलहाल तो हर किसी को देखना होगा कि कहीं उसकी बीमारियों की जड़ उसका मोबाईल फोन या ऐसे ही गैजेट्स तो नहीं हैं.

बुधवार, 25 अगस्त 2010

ये पलकें कुछ कहती हैं...

कहते हैं आंखें दिल का आईना होती हैं। किसी भी व्यक्ति के दिल का हाल उसकी आंखें कह देती हैं। मतलब जो आंखों को पडऩा सीख लेते हैं वे किसी के भी दिल की बात को आसानी से समझ सकते हैं। आंखों को पढऩा तो फिर भी बहुत लोग जानते हैं लेकिन आप ऐसे कितने लोगों को जानते हैं जो पलकों के झपकने के अंदाज से व्यक्ति का स्वभाव को बता देते हैं। लेकिन ज्योतिष में यह भी सम्भव हैं। तो आइये जानते हैं कैसे जानें जा सकते है पलकों की झपकन से व्यक्तित्व के राज।


- पांच सेकंड में पलकें झपकाने वाले अपने जीवन से परेशान वैभव व समृद्धि हीन होते हैं।

- दस सेकंड में पलकों को झपकाने वाले दूसरों पर आश्रित रहते हैं ये अपना काम दूसरों से करवाकर अधिक खुशी महसुस करते हैं।

- पन्द्रह सेकंड में पलकें झपकाने वाले तेजी से निर्णय लेने वाले और चतुर होते हैं।

- बीस सेकंड में पलकें झपकाने वाले स्थिरबुद्धि वाले और प्रभावशाली होते हैं।


- पच्चीस सेकंड में पलकें झपकाने वाले अपने आप एक अजीब सा आकर्षण लिए होते हैं इनमे सम्मोहित करने की क्षमता होती है।

साभार : भास्कर

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

अटूट विश्वास का बन्धन है राखी

भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी अटूट विश्वास के बन्धन की अभिव्यक्ति है। रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर सिर्फ रक्षा का वचन ही नहीं दिया जाता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए यह पर्व हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख त्यौहार है, जिस दिन बहनें अपनी रक्षा के लिए भाईयों की कलाई में राखी बाँधती हंै। गीता में कहा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है, तब ज्योर्तिलिंगम भगवान शिव प्रजापति ब्रह्मा द्वारा धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं, जिन्हें बहनें मंगलकामना करते हुए भाइयों को बाँधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए दुख और पीड़ा से निजात दिलाते हैं।

पहले रक्षाबन्धन पर्व सिर्फ बहन-भाई के रिश्तों तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जा सकता था। लोक परम्परा में रक्षाबन्धन के दिन परिवार के पुरोहित द्वारा राजाओं और अपने यजमानों के घर जाकर सभी सदस्यों की कलाई पर मौली बाँधकर तिलक लगाने की परम्परा रही है। पुरोहित द्वारा दरवाजों, खिड़कियों, तथा नये बर्तनों पर भी पवित्र धागा बाँधा जाता है और तिलक लगाया जाता है। यही नहीं बहन-भानजों द्वारा एवं गुरूओं द्वारा शिष्यों को रक्षा सूत्र बाँधने की भी परम्परा रही है। इतिहास गवाह है कि सिंकदर और पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर पर घातक प्रहार हेतु अपना हाथ उठाया तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया। राखी ने स्वतंत्रता-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। कई बहनों ने अपने भाईयों की कलाई पर राखी बाँधकर देश की लाज रखने का वचन लिया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन की शुरूआत लोगों द्वारा एक-दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधकर हुयी।

रक्षाबन्धन का उल्लेख पुराणों में मिलता है जिसके अनुसार असुरों के हाथ देवताओं की पराजय पश्चात अपनी रक्षा के निमित्त सभी देवता इंद्र के नेतृत्व में गुरू वृहस्पति के पास पहुँचे तो इन्द्र ने दुखी होकर कहा- ‘‘अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस नैराश्य भाव को सुनकर गुरू वृहस्पति के दिशा-निर्देश पर रक्षा-विधान हेतु इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र सहित समस्त देवताओं की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा और अंततः इंद्र ने युद्ध में विजय पाई। एक अन्य मान्यतानुसार राजा बालि को दिये गये वचनानुसार भगवान विष्णु बैकुण्ठ छोड़कर बालि के राज्य की रक्षा के लिये चले गये। तब लक्ष्मी जी ने ब्राह्मणी का रूप धारण कर श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बालि की कलाई पर पवित्र धागा बाँधा और उसके लिए मंगलकामना की। इससे प्रभावित हो राजा बालि ने लक्ष्मी जी को अपनी बहन मानते हुए उसकी रक्षा की कसम खायी। तत्पश्चात देवी लक्ष्मी अपने असली रूप में प्रकट हो गयीं और उनके कहने से बालि ने भगवान इन्द्र से बैकुण्ठ वापस लौटने की विनती की। महाभारत काल में भगवान कृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने व फिर खून की धारा फूट पड़ने पर द्रौपदी ने तत्काल अपनी कंचुकी का किनारा फाड़कर भगवान कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में दुःशासन द्वारा द्रौपदी-हरण के प्रयास को विफल कर उन्होंने इस रक्षा-सूत्र की लाज बचायी। इसी प्रकार जब मुगल समा्रट हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर अपनी रक्षा का वचन लिया। हुमायँू ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख़्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु गुजरात के बादशाह से भी युद्ध किया। ऐसे ही न जाने कितने विश्वास के धागों से जुड़ा हुआ है राखी का पर्व।

देश के विभिन्न अंचलों में राखी पर्व को भाई-बहन के त्यौहार के अलावा भी भिन्न-भिन्न तरीकों से मनाया जाता है। मुम्बई के कई समुद्री इलाकों में इसे नारियल-पूर्णिमा या कोकोनट-फुलमून के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन विशेष रूप से समुद्र देवता पर नारियल चढ़ाकर उपासना की जाती है और नारियल की तीन आँखों को शिव के तीन नेत्रों की उपमा दी जाती है। बुन्देलखण्ड में राखी को कजरी-पूर्णिमा या कजरी-नवमी भी कहा जाता है। इस दिन कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है। उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में राखी-पर्व पर बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि इस युद्ध में आज तक कोई भी गम्भीर रूप से घायल नहीं हुआ और न ही किसी की मृत्यु हुई। इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा सर्वाधिक भाग्यवान माना जाता है एवं युद्ध समाप्ति पश्चात पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर आर्शीवाद देते हैं। इसके बाद युद्ध बन्द हो जाता है और योद्धाओं का मिलन समारोह होता है।

कोस-कोस पर बदले भाषा, कोस-कोस पर बदले बोली-वाले भारतीय समाज में रक्षाबन्धन सिर्फ भाई-बहन के रिश्तों तक ही सीमित नहीं वरन् हर रिश्ते की बुनियाद है। यहाँ त्यौहार सिर्फ एक अनुष्ठान मात्र नहीं, वरन् इनके साथ सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास भी जुड़ा होता है। रक्षाबन्धन हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तों का अंग है। आज जरुरत है कि आडम्बरता की बजाय इस त्यौहार के पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।

कृष्ण कुमार यादव जी के सहयोग से.

रविवार, 22 अगस्त 2010

वृक्षों को रक्षा-सूत्र बाँधने का अनूठा अभियान

रक्षाबंधन का पर्व करीब है. (24 अगस्त). यह सिर्फ भाई -बहन से जुड़ा नहीं बल्कि मानवता की रक्षा से भी जुड़ा हुआ है. हममें से तमाम लोग अपने स्तर पर मानवता को बचने हेतु पर्यावरण संरक्षण में जुटे हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं- जीवन के समानांतर ही जल, जमीन और जंगल को देखने वाली ग्रीन गार्जियन सोसाइटी की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर सुनीति यादव। पिछले कई वर्षों से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य कर रही एवं छत्तीसगढ़ में एक वन अधिकारी के0एस0 यादव की पत्नी सुनीति यादव सार्थक पहल करते हुए वृक्षों को राखी बाँधकर वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम का सफल संचालन कर नाम रोशन कर रही हैं। इस सराहनीय कार्य के लिए उन्हें ‘महाराणा उदय सिंह पर्यावरण पुरस्कार, स्त्री शक्ति पुरस्कार 2002, जी अस्तित्व अवार्ड इत्यादि पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। सुनीति यादव द्वारा वृक्ष रक्षा-सूत्र कार्यक्रम चलाये जाने के पीछे एक रोचक वाकया है। वर्ष 1992 में उनके पति जशपुर में डी0एफ0ओ0 थे। वहां प्राइवेट जमीन में पांच बहुत ही सुन्दर वृक्ष थे, जिन्हें भूस्वामी काटकर वहां दुकान बनाना चाहता था। उसने इन पेड़ों को काटने के लिए जिलाधिकारी को आवेदन कर रखा था। अपने पति द्वारा जब यह बात सुनीति यादव को पता चली तो उनके दिमाग में एक विचार कौंध गया। राखी पर्व पर कुछ महिलाओं के साथ जाकर उन्होंने उन पांच वृक्षों की विधिवत पूजा की और रक्षा सूत्र बांध दिया। देखा-देखी शाम तक आस-पास के लोगों द्वारा उन वृक्षों पर ढेर सारी राखियां बंध गई। फिर भूस्वामी को इन वृक्षों का काटने का इरादा ही छोड़ना पड़ा और गांव वाले इन पेड़ों को पांच भाई के रूप में मानने लगे। इससे उत्साहित होकर सुनीति यादव ने हर गांव में एक या दो विशिष्ट वृक्षों का चयन कराया तथा वर्ष 1993 में राखी के पर्व पर 17000 से अधिक लोगों ने 1340 वृक्षों को राखी बांधकर वनों की सुरक्षा का संकल्प लिया और इस प्रकार वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम चल निकला। बस्तर के कोंडागांव इलाके में वृक्ष रक्षा सूत्र अभियान के तहत एक वृक्ष को नौ मीटर की राखी बांधी गई।

याद कीजिए 70 के दशक का चिपको आन्दोलन। सुनीति का मानना है कि चिपको आन्दोलन वन विभाग की नीतियों के विरूद्ध चलाया गया था जबकि वृक्ष रक्षा सूत्र वन विभाग एवं जनता का सामूहिक अभियान है, जिसे समाज के हर वर्ग का समर्थन प्राप्त है। यह सुनीति यादव की प्रतिबद्वता ही है कि वृक्ष रक्षा सूत्र कार्यक्रम अब देश के नौ राज्यों तक फैल चुका है। सुनीति इसे और भी व्यापक आयाम देते हुए ‘‘पौध प्रसाद कार्यक्रम‘‘ से जोड़ रही हैं। इसके लिए वे देश के सभी छोटे-बड़े धार्मिक प्रतिष्ठानों से सम्पर्क कर रही हैं कि वे भक्तों को प्रसाद के रूप में पौधे बांटे, ताकि वे उन पौधों को श्रद्धा के साथ लगायें, पालें-पोसें और बड़ा करें। यही नहीं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वृक्ष प्रजातियों, वनौषधियों के बीज पैकेट भी प्रसाद के रूप में बांटे जा रहे हैं। सुनीति यादव का मानना है कि वृक्ष भगवान के ही दूसरे रूप हैं। जब वह कहती हैं कि भगवान शिव की तरह वृक्ष सारा विषमयी कार्बन डाई आक्साइड पी जाते हैं और बदले में जीवन के लिए जरूरी आक्सीजन देते हैं, तो लोग दंग रह जाते हैं। सुनीति यादव का स्पष्ट मानना है कि-‘‘ईश्वर ने हम सभी को पृथ्वी पर किसी न किसी उद्देश्य के लिए भेजा है। आइए, उसके सपनों को साकार करें। धरती पर हरियाली को सुरक्षित रखकर हम जिन्दगी को और भी खूबसूरत बनाएंगे, कच्चे धागों से हरितिमा को बचाएंगे। ताज और मीनार हमारे किस काम के, जब पृथ्वी की धड़कन ही न बच सके। कल आने वाली पीढ़ी को हम क्या सौगात दे सकेंगे? आइए, रक्षाबंधन के इस पर्व पर हम भी ढेर सारे पौधे लगाएं और लगे हुए वृक्षों को रक्षा-सूत्र बंधकर उन्हें बचाएं।‘‘

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

सबसे बड़ा दान है देहदान, नेत्रदान

दान से पुण्य कोई कार्य नहीं होता। दान जहाँ मनुष्य की उदारता का परिचायक है, वहीं यह दूसरों की आजीविका चलाने या किसी सामूहिक कार्य में संकल्पबद्ध होकर अपना योगदान देने की मानवीय प्रवृति को दर्शाता है। राजा हरिश्चन्द्र को उनकी दानवीरता के लिए ही जाना जाता है। महर्षि दधीचि जैसे ऋषिवर ने तो अपनी अस्थियाँ ही मानव के कल्याण हेतु दान कर दीं। महर्षि दधीचि ने मानवता को जो रास्ता दिखाया आज उस पर चलकर तमाम लोग समाज एवं मानव की सेवा में जुटे हुए हैं। देहदान के पवित्र संकल्प द्वारा दूसरों को जीवन देने का जज्बा विरले लोगों में ही देखने को मिलता है। चूँकि मनुष्य के देहान्त पश्चात की परिस्थितियां मानवीय हाथ में नहीं होती, अतः विभिन्न धर्मों में इसे अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया गया है। धर्मों की परिभाषा से परे एक मानव धर्म भी है जो सिखाता है कि जिन्दा होकर किसी व्यक्ति के काम आये तो उत्तम है और यदि मृत्यु के बाद भी आप किसी के काम आये तो अतिउत्तम है।

हाल ही में ज्योति बसु, विष्णु प्रभाकर एवं प्रतीक मिश्र जैसे वरेण्य लोगों ने जिस प्रकार मृत्यु के बाद भी देहदान द्वारा लोगों को शिक्षित एवं जागरुक किया है, वह स्तुत्य है। वस्तुतः आज सबसे ज्यादा जरूरत युवा पीढ़ी को देहदान व नेत्रदान जैसे संकल्पबद्ध अभियान से जोड़ने की है। हिन्दुस्तान में मौजूद 1 करोड 20 लाख नेत्रहीनों को नेत्र ज्योति प्रदान करने एवं अन्धता निवारण के लिए नेत्रदान करना बहुत जरूरी है। इसी परम्परा में भारतवर्ष में तमाम लोग नेत्रदान-देहदान की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। मरने के बाद हाथी के दाँतों से कामोत्तेजक औषधियाँ एवं खिलौने, जानवरों की खाल से चमड़ा बनता है, उसी प्रकार से इन्सान भी मृत्यु के बाद 4 नेत्रहीनों को नेत्रज्योति, 14 लोगो को अस्थियाँ व हजारों मेडिकल छात्रों को चिकित्सा शिक्षा दे सकता है। दान की हुई आँखें तीन पीढ़ी तक काम आती हैं। किसी कवि ने कहा है-

हाथी के दाँत से खिलौने बने भाँति-भाँति
बकरी की खाल भी पानी भर लाई
मगर इंसान की खाल किसी काम न आई !!

रविवार, 15 अगस्त 2010

क्या है आजादी का मतलब ??

आज स्वतंत्रता दिवस है. पर क्या वाकई हम इसका अर्थ समझते हैं या यह छलावा मात्र है. सवाल दृष्टिकोण का है. इसे समझने के लिए एक वाकये को उद्धृत करना चाहूँगीं-

देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे। उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे। गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी। अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी-’’नेहरू! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है। पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मैं कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया हैं।‘‘ नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-’’ माता! आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और ’तू‘ कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन स्थापित हो गया है।‘‘ इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और आजादी के पहरूओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया।

आजादी की यही विडंबना है कि हम नेहरू अर्थात आजादी व लोकतंत्र के पहरूए एवं बूढ़ी औरत अर्थात जनता दोनों में से किसी को भी गलत नहीं कह सकते। दोनों ही अपनी जगहों पर सही हैं, अन्तर मात्र दृष्टिकोण का है। गरीब व भूखे व्यक्ति हेतु आजादी और लोकतंत्र का वजूद रोटी के एक टुकड़े में छुपा हुआ है तो अमीर व्यक्ति हेतु आजादी और लोकतंत्र का वजूद अपनी शानो-शौकत, चुनावों में अपनी सीट सुनिश्चित करने और अंततः मंत्री या किसी अन्य प्रतिष्ठित संस्था की चेयरमैनशिप पाने में है। यह एक सच्चायी है कि दोनों ही अपनी वजूद को पाने हेतु कुछ भी कर सकते हैं। भूखा और बेरोजगार व्यक्ति रोटी न पाने पर चोरी की राह पकड़ सकता है या समाज के दुश्मनों की सोहबत में आकर आतंकवादी भी बन सकता है। इसी प्रकार अमीर व्यक्ति धन-बल और भुजबल का प्रयोग करके चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकता है। यह दोनों ही लोकतान्त्रिक आजादी के दो विपरीत लेकिन कटु सत्य हैं।


परन्तु इन दोनों कटु सत्यों के बीच आजादी कहाँ है, संभवतः यह आज भी एक अनुत्तरित प्रश्न है ?...फ़िलहाल आप सभी को 64 वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !!

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

जब कजरी में भी गूँजे आजादी के बोल...

कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गायी जाती हो पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ़ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूँज सुनायी देती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बख़ूबी अभिव्यक्त किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आजादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-

केतने गोली खाइके मरिगै
केतने दामन फांसी चढ़िगै
केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया
बदरिया घेरि आई ननदी।


1857 की क्रान्ति पश्चात जिन जीवित लोगों से अँगरेज़ी हुकूमत को ज़्यादा ख़तरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सजा दे दी गई। अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला ‘कजरी‘ के बोलों में गाती है-

अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियाँ रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियाँ रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियाँ रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।

स्वतंत्रता की लड़ाई में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस संग्राम में अपनी आहुति दें। ऐसे में उन नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-

लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।

सुभाष चन्द्र बोस ने जंग-ए-आज़ादी में नारा दिया कि- ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएँ भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठीं। तभी तो कजरी के शब्द फूट पड़े-

हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

महात्मा गाँधी आज़ादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नवयुवतियाँ अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानतीं और एक स्वर में कजरी के बोलों में गातीं-

अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गाँधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।

कजरी में ’चुनरी’ शब्द के बहाने बहुत कुछ कहा गया है। आजादी की तरंगें भी कजरी से अछूती नहीं रही हैं-

एक ही चुनरी मंगाए दे बूटेदार पिया
माना कही हमार पिया ना
चद्रशेखर की बनाना, लक्ष्मीबाई को दर्शाना
लड़की हो गोरों से घोड़ों पर सवार पिया।
जो हम ऐसी चुनरी पइबै, अपनी छाती से लगइबे
मुसुरिया दीन लूटै सावन में बहार पिया
माना कही हमार पिया ना।
..................
पिया अपने संग हमका लिआये चला
मेलवा घुमाये चला ना
लेबई खादी चुनर धानी, पहिन के होइ जाबै रानी
चुनरी लेबई लहरेदार, रहैं बापू औ सरदार
चाचा नेहरू के बगले बइठाये चला
मेलवा घुमाये चला ना
रहइं नेताजी सुभाष, और भगत सिंह ख़ास
अपने शिवाजी के ओहमा छपाये चला
जगह-जगह नाम भारत लिखाये चला
मेलवा घुमाये चला ना

उपभोक्तावादी बाज़ार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेज़ी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है।

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

कृष्ण जी को जन्म-दिवस की बधाइयाँ






आज पतिदेव कृष्ण कुमार जी का जन्म-दिवस है. जन्म-दिवस के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई और प्यार. इस जन्म-दिवस पर बाल-दुनिया और पाखी की दुनिया पर आप मेरे बाल-गीत पढ़ सकते हैं. और सबसे ऊपर बाल-गोपाल कृष्ण कुमार जी की तस्वीर दिख रही है. वैसे भी इनका जन्म कृष्ण जन्माष्टमी पर हुआ, तभी तो नाम भी कृष्ण कुमार रखा गया. जन्म-दिवस की अनंत शुभकामनायें !!

रविवार, 8 अगस्त 2010

कजरी के रूप

भारतीय परम्परा का आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की ख़ास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-

बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।

विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज़्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-

पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।

विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वंदिता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-

कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।

बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-

हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।

सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु न तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों न हो-

चन्दा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।

विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेक़रारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-

पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
.जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी-हरी पतियाँ।

ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ़ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ़ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फ़सल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को ख़ूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलायें समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत् गाये जाते हैं।
वाकई, कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा।
(क्रमश: अगली पोस्ट में .....)
(पतिदेव कृष्ण कुमार जी का यह आलेख सृजनगाथा पर भी पढ़ा जा सकता है)

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

सावन के मतवाले मौसम में कजरी

सावन और बारिश का अटूट सम्बन्ध है। इनसे ना जाने कितनी लोक-मान्यताएं और लोक-संस्कृति के रंग जुड़े हुए हैं, उन्हीं में से एक है- कजरी. उत्तर भारत में रहने वालों के लिए कजरी बहुत परिचित है. जिन लोगों का लगाव अभी भी ग्राम्य-अंचल से बना हुआ है, सावन आते ही उनका मन कजरी के बोल गुनगुनाने लगता है. शहरी क्षेत्रों में भले ही संस्कृति के नाम पर फ़िल्मी गानों की धुन बजती हो, पर ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच लोक रंगत की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। विदेशों में बसे भारतीयों को अभी भी कजरी के बोल सुहाने लगते हैं, तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूँज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूँज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है -

रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयाँ गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियाँ की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।

वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ़ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-

घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।

छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूँज उनके प्रीतम तक पहुँचे और शायद वे लौट आयें-

सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आये
रतिया देखी सवनवा ना।

यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके साँवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं -

गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।


एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-

सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।

(क्रमश: अगली पोस्ट में कजरी के रूप.....)

(पतिदेव कृष्ण कुमार जी का यह आलेख सृजनगाथा पर भी पढ़ा जा सकता है)

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

बारिश का मौसम और भुट्टे की सोंधी खुशबू

बारिश का मौसम हो और भुट्टे (मक्का) की चर्चा न हो तो बात अधूरी लगती है। सड़क के किनारे खड़े होकर ठेले से भुट्टा लेने की बात याद आते ही आग पर सेंके हुए भुट्टे की सोधी खुशबू और भुट्टे पर बड़े मन से लगाये गये नीबू-नमक का अंदाज ही निराला होता है।

पीले रंग का भुट्टा देखते ही अभी भी दिल मचल जाता है। वस्तुतः भुट्टे में कैरोटीन की मौजूदगी के कारण यह पीला होता है। भुट्टे (मक्का) को गरीबों का भोज्य पदार्थ भी कहा जाता है। इसमें कार्बोहाइड्रेट की अधिकता होती है तथा खनिज और विटामिन जैसे पोटेशियम, फासफोरस, आयरन और थायसीन जैसे तत्व भी होते हैं। वैसे भी विश्व में गेहूँ के बाद सबसे ज्यादा उत्पादन मक्के का ही होता है। इतिहास में झांके तो मक्के के उत्पादन की शुरूआत मैक्सिको में वहाँ के मूल निवासियों द्वारा 10,000 वर्ष पूर्व की गई थी।

उद्योगों में मक्के (भुट्टे) के प्रचुर इस्तेमाल और इसकी फूड वेल्यू के कारण मक्का विश्व की महत्वपूर्ण फसलों में से एक है। भुट्टे को खाने का अंदाज निराला है और इसमें कई पोषक तत्व भी मौजूद होते हैं। भुट्टा स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमन्द है। भुट्टे में एंटी आॅक्सीडेंट की अधिकता होती है, साथ ही इसके दानों को पकाने से फूलिक एसिड मिलता है जो शरीर की कैंसर से लड़ने की क्षमता को मजबूत करता है। भुट्टे से बनने वाला ऐसे में इसके सेवन से हृदय रोगों व कैंसर की संभावना कम हो जाती है। कार्न आयल कोलेस्ट्राल कम करने में मद्दगार होता है, अतः हृदय रोगियों हेतु काफी फायदेमन्द होता है। इस कार्न आयल में पाली अंसतृप्त फैटी एसिड (55 प्रतिशत), मोनो अंसतृप्त फैटी एसिड (32प्रतिशत) होता है। पर भुट्टा सबके लिए मुफीद भी नहीं होता क्योंकि इसमें ग्लाइकेमिक इंडेक्स (ब्लड शुगर बढ़ाने की क्षमता वाला तत्व) की मात्रा ज्यादा होती है, अतः डायबिटीज के रोगियों को इससे ज्यादा दिल नहीं लगाना चाहिए।

तो चलिए बारिश के मौसम में भुट्टे का मजा लेते हैं.....

रविवार, 1 अगस्त 2010

फ्रैंडशिप डे -ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगें

मित्रता किसे नहीं भाती। यह अनोखा रिश्ता ही ऐसा है जो जाति, धर्म, लिंग, हैसियत कुछ नहीं देखता, बस देखता है तो आपसी समझदारी और भावों का अटूट बन्धन। कृष्ण-सुदामा की मित्रता को कौन नहीं जानता। ऐसे ही तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं जहाँ मित्रता ने हार जीत के अर्थ तक बदल दिये। सिकन्दर-पोरस का संवाद इसका जीवंत उदाहरण है। मित्रता या दोस्ती का दायरा इतना व्यापक है कि इसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। दोस्ती वह प्यारा सा रिश्ता है जिसे हम अपने विवेक से बनाते हैं। अगर दो दोस्तों के बीच इस जिम्मेदारी को निभाने में जरा सी चूक हो जाए तो दोस्ती में दरार आने में भी ज्यादा देर नहीं लगती। सच्चा दोस्त जीवन की अमूल्य निधि होता है। दोस्ती को लेकर तमाम फिल्में भी बनी और कई गाने भी मशहूर हुए-ये तेरी मेरी यारी/ये दोस्ती हमारी/भगवान को पसन्द है/अल्लाह को है प्यारी। ऐसे ही एक अन्य गीत है-ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे/छोड़ेंगे दम मगर/तेरा साथ न छोड़ेंगे। हाल ही में रिलीज हुई एक अन्य फिल्म के गीतों पर गौर करें- आजा मैं हवाओं में बिठा के ले चलूँ/ तू ही-तू ही मेरा दोस्त है।

दोस्ती की बात पर याद आया कि अगस्त माह का प्रथम रविवार फ्रेंडशिप डे के रूप में मनाया जाता है। आज 1अगस्त को ‘फ्रेण्डशिप-डे‘ है। फ्रेण्डशिप कार्ड, क्यूट गिफ्ट्स और फ्रेण्डशिप बैण्ड से इस समय सारा बाजार पटा पड़ा है। हर कोई एक अदद अच्छे दोस्त की तलाश में है, जिससे वह अपने दिल की बातें शेयर कर सके। पर अच्छा दोस्त मिलना वाकई एक मुश्किल कार्य है। दोस्ती की कस्में खाना तो आसान है पर निभाना उतना ही कठिन। आजकल तो लोग दोस्ती में भी गिरगिटों की तरह रंग बदलते रहते हैं। पर किसी शायर ने भी खूब लिखा है-दुश्मनी जमकर करो/लेकिन ये गुंजाइश रहे/कि जब कभी हम दोस्त बनें/तो शर्मिन्दा न हों।

फिलहाल, फ्रेण्डशिप-डे की बात करें तो यह अगस्त माह के प्रथम रविवार को सेलीबे्रट किया जाता है। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा 1935 में अगस्त माह के प्रथम रविवार को दोस्तों के सम्मान में ‘राष्ट्रीय मित्रता दिवस‘ के रूप में मनाने का फैसला लिया गया था। इस अहम दिन की शुरूआत का उद्देश्य प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उपजी कटुता को खत्म कर सबके साथ मैत्रीपूर्ण भाव कायम करना था। पर कालान्तर में यह सर्वव्यापक होता चला गया। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े, इसके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ ने बकायदा 1997 में लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती के राजदूत के रूप में पेश किया।

इस फ्रेण्डशिप-डे पर बस यही कहूंगी कि सच्चा दोस्त वही होता है जो अपने दोस्त का सही मायनों में विश्वासपात्र होता है। अगर आप सच्चे दोस्त बनना चाहते हैं तो अपने दोस्त की तमाम छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी बातों को उसके साथ तो शेयर करो लेकिन लोगों के सामने उसकी कमजोरी या कमी का बखान कभी न करो। नही तो आपके दोस्त का विश्वास उठ जाएगा क्योंकि दोस्ती की सबसे पहली शर्त होती है विश्वास। हाँ, एक बात और। उन पुराने दोस्तों को विश करना न भूलें जो हमारे दिलों के तो करीब हैं, पर रहते दूरियों पर हैं।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

आप सभी के स्नेह से अभिभूत हूँ...

हर साल जन्मदिन आता है और चला जाता है. इसी के साथ हम एक साल और वृद्ध हो जाते हैं या कहें कि एक साल का अनुभव और समेट लेते हैं और आने वाले दिनों के लिए तैयार हो जाते हैं. जिन्दगी अनवरत चलती रहती है. ऐसे विशेष दिन परिवार के सदस्यों, मित्रों, रिश्तेदारों के लिए भी अहम् होते हैं. खैर, आज सुबह जगी तो रिलेक्स. जन्मदिन के बाद दो दिन की छुट्टियाँ, जन्मदिन का मजा और बढ़ा देती हैं. पाखी बिटिया सुबह जगकर ही 'ममा आज भी केक चाहिए' की मांग करती हैं और पतिदेव 'फिर से आउटिंग के मूड में' हैं. इन सबके बीच ब्लाग, मेल खोला तो बधाइयों का अम्बार. बड़ा अच्छा लगता है आप सभी का प्यार व स्नेह देखकर. पाखी बिटिया ख़ुशी मना रही हैं कि आज तो ममा का हैपी बर्थ-डे है तो पतिदेव कृष्ण कुमार जी के लिए ये खुशियों का दिन रहा. सप्तरंगी-प्रेम पर उनकी यह ख़ुशी प्यार की अनुभूतियों को समेटती एक कविता तुम के माध्यम से प्रस्फुटित हुई-जैसे कि अपना सारा निचोड़/उन्होंने धरती को दे दिया हो/ठीक ऐसे ही तुम हो।



किसी का जन्मदिन हो तो हिंदी ब्लागरों के जन्मदिन पर शुभकामनायें मिलना स्वाभाविक ही है. सौभाग्यवश, 30 जुलाई को ही महावीर बी सेमलानी जी और जोगेन्द्र सिंह जी का भी जन्मदिन है. सब सिंह (Leo) राशि वाले. एक दिन पहले ही एक अन्य 'सिंह' समीर लाल जी भी अपना जन्म-दिन मना चुके थे. मेरे जन्मदिन पर एक पोस्ट भड़ास पर भी दिखी- आकांक्षा को जन्मदिन की बधाई, तो यदुकुल ने तुम जियो हजारों साल, गाकर मेरी जिंदगी में कई साल और जोड़ दिए. बाल-दुनिया पर अपने बर्थ-डे पर मैंने एक पोस्ट प्रकाशित की कि -कहाँ से आई 'हैप्पी बर्थडे टू यू' की पैरोडी, तो वहाँ भी आप सभी का स्नेह झलका. ताका-झाँकी ब्लॉग पर रत्नेश मौर्य जी को समझ में नहीं आया कि मुझे जन्मदिन कैसे विश करें, तो सुशीला जी की इन पंक्तियों को सजा लिया। सुशीला जी की आभारी हूँ। सुशीला जी की ये खूबसूरत पंक्तियाँ मेरे आर्कुट प्रोफाइल पर बतौर शुभकामना थीं-


मेघ आषाढ़ी बुलाते सावनों को,
झूम आओ शाख कहती वॄक्ष की, अब डाल पर झूले झुलाओ
मलयजी झोंके खड़े हैं हो गये दहलीज आकर
धूप भी कहने लगी दालान से नवगीत गाकर
साथ गाओ, आज का दिन आपका शुभ जन्मदिन है ।

मेरे अपने ब्लॉग शब्द-शिखर पर भी 'जीवन के सफ़र में आज मेरा जन्मदिन' पर आप सभी लोगों की बधाइयाँ और भरपूर स्नेह मिला.



आज सुबह छुट्टी से लौटने के बाद डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी ने जब चर्चा मंच सजाया (“'जिंदगी' और मैं” (चर्चा मंच – 231) ) तो उसमें सबसे अंत में 'पोस्ट जन्म-दिन की! हमारी भी हार्दिक शुभकामनाएँ!' शीर्षक से ऊपर उल्लेखित ब्लॉगों की पोस्टों को सहेजा. इसी बहाने मुझे भी ये लिंक्स मिल गए। 'मयंक' जी के आशीष की सदैव आकांक्षी हूँ।


आप सभी ने मेरे जन्म दिन पर ब्लॉग, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स, फोन, SMS और कुछ लोगों ने डाक द्वारा शुभकामना-पत्र भेजकर ढेरों आशीर्वाद, बधाई और शुभकामनायें दीं। आप सभी के इस अपार स्नेह से अभिभूत हूँ...आभारी हूँ....अपना स्नेह इसी तरह सदैव बनाये रहें !!


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आज 31 जुलाई को साहित्य सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती है....नमन !!

कल 1 अगस्त को फ्रैंडशिप-दिवस है... आप सभी को पूर्व संध्या पर बधाइयाँ !!



शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जीवन के सफ़र में आज मेरा जन्मदिन...

जीवन का प्रवाह अपनी गति से चलता रहता है। कभी हर्ष तो कभी विषाद, यह सब जीवन में लगे रहते हैं। हर किसी का जीवन जीने का और जिंदगी के प्रति अपना नजरिया होता है। महत्व यह नहीं रखता कि आपने जीवन कितना लम्बा जिया बल्कि कितना सार्थक जिया। आज अपने जीवन के एक नए वर्ष में प्रवेश कर रही हूँ। मेरी माँ बताती हैं कि मेरा जन्म 30 जुलाई की रात्रि एक बजे के करीब हुआ। ऐसे में पाश्चात्य समय को देखें तो मेरी जन्म तिथि 31 जुलाई को पड़ती है, पर भारतीय समयानुसार यह 30 जुलाई ही माना जायेगा। जीवन के इस सफर में न जाने कितने पड़ाव आये और जीवन का कारवां बढ़ता चला गया। जीवन के हर मोड़ पर जो चीज महत्वपूर्ण लगती है, वही अगले क्षण गौण हो जाती है। पल-प्रतिपल हमारी प्राथमिकताएं बदलती जाती हैं। सीखने का क्रम इसी के साथ अनवरत चलता रहता है। कई लोग तो सरकारी सेवा में आने के बाद जीवन का ध्येय ही मात्र नौकरी मानने लगते हैं, पर मुझे लगता है कि व्यक्ति को रूटीनी जीवन जीने की बजाय नित नये एवं रचनात्मक ढंग से सोचना चाहिए। जैसे हर सुबह सूरज की किरणे नई होती हैं, हर पुष्प गुच्छ नई खुशबू से सुवासित होता है, प्रकृति की अदा में नयापन होता है, वैसे ही हर सुबह मानव जीवन को तरोताजा होकर अपने ध्येय की तरफ अग्रसर होना चाहिए। सफलताएं-असफलताएं जीवन में सिक्के के दो पहलुओं की भांति हैं, इन्हें आत्मसात कर आगे बढ़ने में ही जीवन प्रवाह का राज छुपा हुआ है।
जीवन के इस सफर में मैंने बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ पाने की अभिलाषा है। ईश्वर में आस्था, माता-पिता का आशीर्वाद, भाइयों व बहन का स्नेह, पति कृष्ण कुमार यादव जैसा प्यारा हमसफर, बेटी अक्षिता की खिलखिलाहट जीवन के हर मोड़ को आसान बना देती है और एक नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इन सब के बीच आप मित्रों एवं शुभचिंतकों की हौसलाआफजाई भी टानिक का कार्य करती है। आप सभी का स्नेह एवं आशीष इसी प्रकार बना रहे तो जीवन का प्रवाह भी खूबसूरत बना रहेगा।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मासूम सूरत सहमी-सी

 
वह पैबंद लगी फ्राक पहने
लालीपाप ले जा रही थी,
मासूम सूरत सहमी-सी
बरबस पूछ लिया
बच्ची, क्या नाम है तुम्हारा
कहां रहती हो
जवाब देने के बजाय
उसने मांगने के लिए फैला दिये हाथ।

(कानपुर से अलका गुप्ता जी ने भेजा. उनकी यह कविता कादम्बिनी के नए पत्ते-स्तम्भ में प्रकाशित हो चुकी है.)

रविवार, 25 जुलाई 2010

अब कार में भी ब्लैक-बाक्स

अब कार में भी ब्लैक-बाक्स. चौंक गए न आप. मैंने भी इसे जब पहली बार पढ़ा था तो चौंक गई थी. तो सोचा कि क्यों न आप लोगों को भी चौंका दूं. कंप्यूटर की दुनिया में अग्रणी इंटेल के वैज्ञानिक एक ऐसी स्मार्ट कार तैयार कर रहे हैं जिसमें विमान की तर्ज पर ब्लैक बॉक्स होगा, जो किसी दुर्घटना के दौरान चालक के व्यवहार की पूरी जानकारी ऑडियो-वीडियो समेत मुहैया कराएगा।यह खास उपकरण वाहन की गति दर्ज करेगा और बताएगा कि किन हालात में ब्रेक लगाए गए। यह उपकरण कार के भीतर और बाहर के दृश्यों को भी कैद करेगा, जिससे दुर्घटना की पड़ताल में मदद मिलेगी।शोधकर्ताओं की मानें तो किसी दुर्घटना की स्थिति में यह तमाम सूचना स्वत: पुलिस और बीमा कंपनी तक पहुँच जाएगी। इंटेल इस तकनीक को कारों में लगाने के लिए कई कार कंपनियों के साथ विचार विमर्श कर रही है। फिर चलिए हम-आप भी इंतजार करते है कि कब यह कार वास्तव में फलीभूत हो और हम उस पर सवारी कर सकें !!

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

एस. एम. एस.


अब नहीं लिखते वो ख़त
करने लगे हैं एस. एम. एस.
तोड़-मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ
करते हैं खुशी का इजहार
मिटा देता है हर नया एस. एम. एस.
पिछले एस. एम. एस. का वजूद
एस. एम. एस. के साथ ही
शब्द छोटे होते गए
भावनाएं सिमटती गई
खो गई सहेज कर रखने की परम्परा
लघु होता गया सब कुछ
रिश्तों की क़द्र का अहसास भी !!

बुधवार, 21 जुलाई 2010

अब आयेगी खून से रंगी सचिन तेंदुलकर की किताब...अजीबोगरीब

क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंडुलकर के करोड़ों दीवानों के लिए यह खबर चौंकाने वाली हो सकती है कि उनके प्रिय क्रिकेटर के जीवन पर लिखी किताब की चुनिंदा 10 प्रतियों पर उनके खून के छींटे होंगे, जिनमें से प्रत्येक की कीमत पौने 34 लाख रुपए होगी। इनकी बिक्री से प्राप्त कुल 3 करोड़ 75 लाख रुपए स्कूल निर्माण में लगी सचिन की चैरिटेबल संस्था को दिए जाएँगे।सचिन की आत्मकथा 'तेंडुलकर ओपस' के इस विशेष संस्करण की 10 प्रतियाँ प्रकाशित होंगी, जिन पर सोने की पत्ती जड़ी होगी। इस 852 पन्नों वाली किताब का सस्ता संस्करण भी तैयार किया जा रहा है लेकिन इसकी कीमत भी 90 हजार से सवा लाख रुपए के बीच होगी। इस सस्ते संस्करण की एक हजार प्रतियाँ ही छापी जाएँगी।

इसके साथ ही सचिन ऐसे पहले क्रिकेटर बन गए हैं, जिनकी आत्मकथा 'ओपस' के जरिए प्रकाशित हो रही है। विलासी और चमक-दमक भरी किताबों के प्रकाशक 'क्रेकन मीडिया' इससे पहले फुटबॉल के सुपर स्टार डिएगो मेराडोना, ड्रीम कार फेरारी, पॉप संगीत के बादशाह माइकल जैक्सन, इंग्लिश प्रीमियर लीग की फुटबॉल टीम मैनचेस्टर यूनाइटेड और दुनिया की सबसे ऊँची इमारत बुर्ज खलीफा पर यह प्रयोग कर चुका है।इस किताब के हस्ताक्षर पृष्ठ के लिए सचिन के खून से युक्त लुगदी का कागज बनाया जाएगा और उनके डीएनए प्रोफाइल पर केंद्रित पन्ना भी इसमें जोड़ा जाएगा। कुछ पन्नों में सचिन के जिंदगी की ऐसी दुर्लभ तस्वीरें प्रकाशित होंगी, जो अब तक कहीं नजर नहीं आई हैं।क्रिकेट के बाजार में सबसे महँगे ब्रांड रहे सचिन की जिंदगी पर यह किताब उनके ब्रांड की तरह ही इतनी महँगी है कि इसे खरीदना तो दूर, आम प्रशंसकों के लिए इसके बारे में सोचना भी मुश्किल है।हस्ताक्षर पृष्ठ में सचिन का खून मिला होगा। पन्ने की लालिमा इससे सचिन का खून झलकाएगी। इसे खरीदना हर किसी के बस की बात नहीं और यह हर किसी को पसंद भी नहीं आएगा। कुछ लोगों को यह बेतुका भी लग सकता है। सचिन की लोकप्रियता का हवाला देते हुए क्रेकर्न मीडिया के मुख्य कार्यकारी कार्ल फ्लावर ने कहा कि सच तो यह है कि करोड़ों प्रशंसकों के लिए सचिन भगवान जैसे हैं, इसलिए हमने सोचा कि उन्हें अनोखे तरीके से इस प्रकाशित स्वरूप में लाया जाए। क्या कोई अपने भगवान के इतना करीब भी हो सकता है। किताब को अगले साल भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश में होने वाले विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट से पहले फरवरी में प्रकाशित करने की योजना है। यह सबसे मुफीद समय है क्योंकि तब भारत में विश्व कप का आयोजन होगा। फ़िलहाल इंतजार कीजिये सचिन के खून से रंगी इस 34 लाख रूपये की किताब का.

सोमवार, 19 जुलाई 2010

आज मन कुछ उदास सा है...

आज मन कुछ उदास सा है। पोर्टब्लेयर आए करीब छह महीने होने जा रहे हैं और इस बीच मैंने अपने अपने पति व बिटिया पाखी के अलावा किसी परिवारीजन का चेहरा नहीं देखा. कल तक जो लोग हमारे करीब थे, वे हमसे दूर कहीं बैठे हैं. टेकनालजी के इतने विकास के बाद भी, फ़ोन, मेल, चैटिंग, कितना भी कर लीजिये, वह अहसास नहीं पैदा होता. जब भी अपनी मम्मी से बात करती हूँ, अक्सर कहती हैं कि कितनी दूर चली गई हो. जब मैं कहती हूँ क़ि यह दूरी मात्र एक छलावा है, भला कानपुर में ही रहकर कितनी बार मायके गई हूँ, पर माँ को कौन समझाये. वे तो यही सोचती हैं क़ि बिटिया दूर चली गई. कानपुर में थी तो वे आ भी जाती थीं, किसी-न-किसी बहाने. पर यहाँ तो अरसा बीत गया. मुझे भी पता है, हमारे लिए दूरी के कोई मायने नहीं हैं. यहाँ से सुबह चलें तो शाम को लखनऊ फ्लाईट से पहुँच जाएँ. पर सम्बन्ध एकतरफा तो नहीं होते. यह सुविधा सामने वाले के साथ भी तो होनी चाहिए. उम्र के इस दौर में बीमारियाँ हमारे बुजुर्गों को अनायास ही घेर लेती हैं. हर मर्ज का इलाज दवा ही नहीं होती, कई बार नजदीकियां और प्यार के दो-शब्द भी काम आते हैं. दुनिया में माँ अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ सहती है, पर बड़े होते बच्चे अपनी दुनिया में रमते जाते हैं.

मैं अपने ही परिवार में देखूं तो तीन भाई और दो बहनों के बीच मैं चौथे नंबर पर हूँ। भरा-पूरा परिवार है हमारा, पर घर पर कोई नहीं. एक भाई IAS हैं, दूसरे पुलिस अधिकारी, तीसरे मल्टीनेशनल कंपनी में. दो बहनों में मैं कृष्ण कुमार जी से ब्याही हूँ, जो भारतीय डाक सेवा के अधिकारी हैं तो छोटी बहन के पति कस्टम-विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर हैं. हम सब चाहते हैं क़ि अपने मम्मी-पापा को वो खुशियाँ दें, जो उन्होंने बचपन में हमें दीं. मुझे याद है, जब मम्मी टाउन एरिया चेयरपर्सन थीं तो भी व्यस्तताओं के बीच हमारी हर छोटी जरूरतें पूरी करती थीं. कभी यहाँ सम्मलेन तो कभी मीटिंग का दौर, पर उनकी प्राथमिकता हम बच्चे ही रहे. पिता जी भी टाउन एरिया के चेयरमैन रहे, साथ में एक राष्ट्रीय पार्टी के जिलाध्यक्ष और फिर राष्ट्रीय कार्य परिषद् के सदस्य. लोग कहते क़ि आप विधायकी/संसदी का चुनाव लड़िये और दिल्ली में रहिये.कई बार टिकट देने की बात भी हुई, पर पिता जी को भी हम बच्चों की चिंता थी क़ि इनकी देखभाल कौन करेगा. नौकर-चाकर आपकी सहायता कर सकते हैं, पर माँ-बाप का स्थान तो नहीं ले सकते. एक भाई IIT में तो दूसरे रूडकी में, तीसरे लखनऊ विश्वविद्यालय में...घर पर थीं हम दोनों बहनें. हमेशा माँ के अंचल से चिपटी यही कहती थीं कि उन्हें कभी भी छोड़कर नहीं जायेंगीं. ॥पर दुनिया का दस्तूर यही है, हर लड़की ब्याहकर अपने घर चली जाती है. फिर अपनी जिम्मेदारियां माँ-बाप को खुद उठानी पड़ती हैं.

कानपुर में देश के एक लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक रहते हैं. भरा-पूरा परिवार, पर साथ में सिर्फ पति-पत्नी. जब भी उनके यहाँ जाइये, अहसास ही नहीं होगा कि वे इतने बड़े लेखक हैं. बड़ी सादगी से उनकी पत्नी चाय बनाकर लाती हैं, फिर दो-तीन प्लेट में नमकीन और मिठाई. साथ बैठकर जिद करेंगीं कि इसे आप पूरा ख़त्म कर देना. अच्छा लगता है यह ममत्व भाव. एक बार उनसे कहा कि आप किसी नौकर को क्यों नहीं रख लेतीं. वह ध्यान से मेरा चेहरा देखने लगीं, मानो कोई गलती कर दी हो. फिर कभी उनसे नहीं पूछा. यही बात एक बार माँ से भी कहने की सोची कि घर में नौकर-चाकरों के होते हुए आपको काम करने की क्या जरुरत है.पलटकर जवाब दिया- मुझे समय से पहले बूढ़ा नहीं होना. हाथ-पांव सक्रिय रहेंगें तो बुढ़ापे में भी काम आयेंगें, किसी के मोहताज नहीं बनाना पड़ेगा. आज सोचती हूँ कि यह उनका स्वाभिमान बोल रहा था या जीवन का एक कटु सच. पर आज वही हाथ-पांव बुढ़ापे में भी तरसते हैं कि बेटा-बहू-बिटिया-दामाद आयें तो फिर ये सक्रिय हों. नाती-पोतों को देखते ही सारा रोग छू-मंतर हो जाता है, हाथ-पांव के सारे दर्द भूल जाती हैं...न जाने कितनी बातें उनसे करती हैं. कई बार हम लोग भले ही बच्चों के व्यव्हार पर चिडचिडे हो जाएँ. पर उन्हें तो इसी में ख़ुशी मिलती है कि उनका कोई पास में है. ये अहसास फोन पर बातें करके तो पूरा नहीं हो सकता.....फिर मेरी उदासी भी जायज है. मम्मी-पापा के पास जाऊगीं तो एक बार फिर वही भरा-पूरा संसार उनको लौटा पाऊँगी. हमारी ख़ुशी के कुछ हिस्से पाकर ही हमारे माँ-बाप कितने खुश हो जाते हैं. ..बस अब इंतजार है एक लम्बे समय बाद मायके लौटने का. ताकि फिर से मम्मी-पापा के चेहरे पर अपनों के पास होने की रौनक देख सकूँ.

1857 की क्रांति का प्रथम शहीद : मंगल पाण्डे

मंगल पांडे के नाम से भला कौन अपरिचित होगा. 1857 की क्रांति के उस प्रथम शहीद की आज जयंती है. 1857 की 150 वीं जयंती पर मैंने और कृष्ण कुमार जी ने एक पुस्तक सम्पादित की थी-क्रांति-यज्ञ (1857-1947 की गाथा). यह लेख उसी से साभार-

कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे (19 जुलाई 1827-8 अप्रैल 1857) की विद्रोह से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे को 1857 की क्रान्ति का पहला शहीद सिपाही माना जाता है।

29 मार्च 1857, दिन रविवार-उस दिन जनरल जान हियर्से अपने बँंगले में आरम्भ कर रहा था कि एक लेफ्टिनेन्ट बद्हवास सा दौड़ता हुआ आया और बोला कि देसी लाइन में दंगा हो गया। खून से रंगे अपने घायल लेफ्टिनेन्ट की हालत देखकर जनरल जान हियर्से अपने दोनों बेटों को लेकर 34वीं देसी पैदल सेना की रेजीमेन्ट के परेड ग्राउण्ड की ओर दौड़ा। उधर धोती-जैकेट पहने 34वीं देसी पैदल सेना का जवान मंगल पाण्डे नंगे पाँव ही एक भरी बन्दूक लेकर क्वाटर गार्ड के सामने बड़े ताव मे चहलकदमी कर रहा था और रह-रह कर अपने साथियों को ललकार रहा था-‘‘अरे! अब कब निकलोगे? तुम लोग अभी तक तैयार क्यों नहीं हो रहे हो? ये अंग्रेज हमारा धर्म भ्रष्ट कर देंगे। आओ, सब मेरे पीछे आओ। हम इन्हें अभी खत्म कर देते हैं।’’ लेकिन अफसोस किसी ने उसका साथ नहीं दिया। पर मंगल पाण्डे ने हार नहीं मानी और अकेले ही अंग्रेजी हुकूमत को ललकारता रहा। तभी अंगे्रज सार्जेंट मेजर जेम्स थार्नटन हृूासन ने मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। यह सुन मंगल पाण्डे का खून खौल उठा और उसकी बन्दूक गरज उठी। सार्जेंट मेजर ह्युसन वहीं लुढ़क गया। अपने साथी की यह स्थिति देख घोडे़ पर सवार लेफ्टिनेंट एडजुटेंट बेम्पडे हेनरी वाॅग मंगल पाण्डे की तरफ बढ़ता है, पर इससे पहले कि वह उसे काबू कर पाता, मंगल पाण्डे ने उस पर गोली चला दी। दुर्भाग्य से गोली घोड़े को लगी और वाॅग नीचे गिरते हुये फुर्ती से उठ खड़ा हुआ। अब दोनों आमने-सामने थे। इस बीच मंगल पाण्डे ने अपनी तलवार निकाल ली और पलक झपकते ही वाॅग के सीने और कन्धे को चीरते हुये निकल गई। तब तक जनरल जान हियर्से घोड़े पर सवार परेड ग्राउण्ड में पहुँचा और यह दृश्य देखकर भौंचक्का रह गया। जनरल हियर्से ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को हुक्म दिया कि मंगल पाण्डे को तुरन्त गिरफ्तार कर लो पर उसने ऐसा करने से मना कर दिया। तब जनरल हियर्से ने शेख पल्टू को मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। शेख पल्टू ने मंगल पाण्डे को पीछे से पकड़ लिया। स्थिति भयावह हो चली थी। मंगल पाण्डे ने गिरफ्तार होने से बेहतर मौत को गले लगाना उचित समझा और बन्दूक की नाली अपने सीने पर रख पैर के अंगूठे से फायर कर दिया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, सो मंगल पाण्डे सिर्फ घायल होकर ही रह गया। तुरन्त अंग्रेजी सेना ने उसे चारों तरफ से घेर कर बन्दी बना लिया और मंगल पाण्डे के कोर्ट मार्शल का आदेश हुआ। अंग्रेजी हुकूमत ने 6 अप्रैल को फैसला सुनाया कि मंगल पाण्डे को 18 अप्रैल को फांसी पर चढ़ा दिया जाये। पर बाद में यह तारीख 8 अप्रैल कर दी गयी, ताकि विद्रोह की आग अन्य रेजिमेण्टो में भी न फैल जाये। मंगल पाण्डे के प्रति लोगों में इतना सम्मान पैदा हो गया था कि बैरकपुर का कोई जल्लाद फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। नतीजन कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाकर मंगल पाण्डे को 8 अप्रैल, 1857 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। मंगल पाण्डे को फाँसी पर चढ़ाकर अंग्रेजी हुकूमत ने जिस विद्रोह की चिंगारी को खत्म करना चाहा, वह तो फैल ही चुकी थी और देखते ही देखते इसने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया।

14 मई 1857 को गर्वनर जनरल लार्ड वारेन हेस्टिंगस ने मंगल पाण्डे का फांसीनामा अपने आधिपत्य में ले लिया। 8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर, बंगाल में मंगल पाण्डे को प्राण दण्ड दिये जाने के ठीक सवा महीने बाद, जहाँ से उसे कलकत्ता के फोर्ट विलियम काॅलेज में स्थानान्तरित कर दिया गया था। सन् 1905 के बाद जब लार्ड कर्जन ने उड़ीसा, बंगाल, बिहार और मध्य प्रदेश की थल सेनाओं का मुख्यालय बनाया गया तो मंगल पाण्डे का फांसीनामा जबलपुर स्थानान्तरित कर दिया गया। जबलपुर के सेना आयुध कोर के संग्राहलय में मंगल पाण्डे का फांसीनामा आज भी सुरक्षित रखा है। इसका हिन्दी अनुवाद निम्नवत है-

जनरल आर्डर्स
बाय हिज एक्सीलेन्सी
द कमान्डर इन चीफ, हेड क्वार्टर्स, शिमला
18 अप्रैल 1857
गत 18 मार्च 1857, बुधवार को फोर्ट विलियम्स में सम्पन्न कोर्ट मार्शल के बाद कोर्ट मार्शल समिति 6 अप्रैल 1857, सोमवार के दिन बैरकपुर में पुनः इकट्ठा हुई तथा पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेंट नेटिव इनफेन्ट्री के 1446 नं. के सिपाही मंगल पाण्डे के खिलाफ लगाये गये निम्न आरोपों पर विचार किया।

आरोप (1) बगावतः- 29 मार्च 1857 के बैरकपुर में परेड मैदान पर अपनी रेजीमेन्ट की क्वार्टर गार्ड के समक्ष तलवार और राइफल से लैस होकर अपने साथियों को ऐसे शब्दो में ललकारा, जिससे वे उत्तेजित होकर उसका साथ दें तथा कानूनों का उल्लंघन करें।

आरोप (2) इसी अवसर पर पहला वार किया गया तथा हिंसा का सहारा लेते हुए अपने वरिष्ठ अधिकारियों, सार्जेन्ट-मेजर जेम्स थार्नटन ह्यूसन और लेफ्टिनेंट-एडजुटेंट बेम्पडे हेनरी वाॅग जो 34वीं रेजेमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के ही थे, पर अपनी राइफल से कई गोलियाँ दागीं तथा बाद में उल्लिखित लेफ्टिलेन्ट वाॅग और सार्जेंट मेजर ह्यूसन पर तलवार के कई वार किये।

निष्कर्षः- अदालत पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही नं0 1446, मंगल पाण्डे को उक्त आरोपों का दोषी पाती है।

सजाः- अदालत पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही नं0 1446, मंगल पाण्डे को मृत्युपर्यन्त फाँसी पर लटकाये रखने की सजा सुनाती है।

अनुमोदित एवं पुष्टिकृत
(हस्ताक्षरित) जे.बी.हरसे, मेजर जनरल कमांडिंग,
प्रेसीडेन्सी डिवीजन
बैरकपुर, 7 अप्रैल 1857

टिप्पणीः- पाँचवी कंपनी की 34वीं रेजीमेन्ट नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही नं0 1446, मंगल पाण्डे को कल 8 अप्रैल को प्रातः साढ़े पाँच बजे ब्रिगेड परेड पर समूची फौजी टुकड़ी के समक्ष फाँसी पर लटकाया जायेगा।
(हस्ताक्षरित) जे.बी.हरसे, मेजर जनरल, कमांडिंग प्रेसीडेन्सी डिवीजन

इस आदेश को प्रत्येक फौजी टुकड़ी की परेड के दौरान और खास तौर से बंगाल आर्मी के हर हिन्दुस्तानी सिपाही को पढ़कर सुनाया जाये।

बाय आर्डर आफ हिज एक्सीलेन्सी
द कमांडर-इन-चीफ
सी.चेस्टर, कर्नल।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

1942 की रानी झाँसी : अरुणा आसफ अली

देश की आजादी में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया. कईयों ने तो अपनी जान भी गँवा दी, फिर भी महिलाओं के हौसले कम नहीं हुए. रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं का उदहारण हमारे सामने है, पर जब आजादी का ज्वार तेजी से फैला तो तमाम महिलाएं भी इसमें शामिल होती गईं. इन्हीं में से एक हैं- अरुणा आसफ अली, जिनकी आज जयंती है. उनका जन्म 16 जुलाई 1909 को तत्कालीन पंजाब (अब हरियाणा) के कालका में हुआ था। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गईं और कोलकाता के गोखले मेमोरियल कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगीं। अध्यापन के साथ-साथ वे स्वाधीनता सम्बन्धी गतिविधियों पर भी निगाह रखती थीं और प्रेरित होती थीं. 1928 में कांग्रेसी नेता और स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से शादी करने के बाद अरुणा गांगुली भी पार्टी सम्बन्धी गतिविधियों और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं। शादी के बाद उनका नाम अरुणा आसफ अली हो गया। अरुणा आरंभ से ही तेज-तर्रार थीं, अत: उनसे अंग्रेजी हुकूमत को शीघ्र ही खतरा महसूस होने लगा. अरुणा आसफ अली ‘नमक कानून तोड़ो आन्दोलन’ के दौरान जेल भी गयीं। 1931 में जब गाँधी-इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया गया लेकिन अरुणा आसफ अली को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोड़ने से इंकार कर दिया। अंतत: अरुणा की लोकप्रियता को देखते हुए ज्यादा माहौल न बिगड़े, अंग्रेजों ने अरुणा को भी रिहा कर दिया. अपने तीखे तेवरों के लिए मशहूर अरुणा ने अंग्रेजों के विरुद्ध कोई भी मौका हाथ से न जाने दिया. 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और तिहाड़ जेल, दिल्ली में रखा गया। पर अरुणा आसफ अली कहाँ शांति से बैठने वाली थीं, वहाँ उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुर्व्‍यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल आरंभ कर दी, जिसके चलते अंग्रेजी हुकूमत को जेल के हालात सुधारने को मजबूर होना पड़ा। रिहाई के बाद भी अरुणा आजादी के आन्दोलन में सक्रिय बनी रहीं.

8 अगस्त 1942 को जब बम्बई अधिवेशन में गाँधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की उद्घोषणा करते हुए करो या मरो का नारा दिया तो अरुणा आसफ अली ने भी इसे उसी अंदाज़ में ग्रहण किया. अंग्रेजी हुकूमत ने इस आन्दोलन से डर कर सभी प्रमुख नेताओं को तुरंत गिरफ्तार कर लिया। पर अरुणा आसफ अली तो गज़ब की दिलेर निकलीं, वे अंग्रेजों के हाथ तक नहीं आईं. अगले दिन नौ अगस्त 1942 को उन्होंने अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए शेष अधिवेशन की अध्यक्षता की और मुम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहरा कर भारत छोडो आन्दोलन का शंखनाद कर अंग्रेजी हुकूमत को बड़ी चुनौती दी. अंग्रेजी हुकूमत ने अधिवेशन में शामिल लोगों पर गोलियां तक बरसें, पर अरुणा तो मानो जान हथेली पर लेकर निकली थीं. इस घटना से वे 1942 के आन्दोलन में एक नायिका के रूप में उभर कर सामने आईं। अरुणा आसफ अली की इस दिलेरी और 1942 में उनकी सक्रिय भूमिका के कारण ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने उन्हें ‘1942 की रानी झाँसी’ नाम दिया। गौरतलब है कि इस आन्दोलन के दौरान जब सभी शीर्ष नेता गिरफ्तार या नजरबन्द हो चुके थे, अरुणा आसफ अली व सुचेता कृपलानी ने अन्य आन्दोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आन्दोलन को आगे बढ़ाया तो ऊषा मेहता ने इस दौर में भूमिगत रहकर कांग्रेस-रेडियो से प्रसारण किया। अंग्रेजी हुकूमत अरुणा आसफ अली से इतनी भयग्रस्त चुकी थी कि उन्हें पकड़वाने वाले को पाँच हजार रुपए का इनाम देने की घोषणा की। उनकी सम्पति को जब्त कर नीलाम तक कर दिया गया. इसके बावजूद अरुणा ने हिम्मत नहीं हारी. इस दौरान उन्होंने राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर कांग्रेस पार्टी की मासिक पत्रिका 'इन्कलाब' का संपादन भी किया. 1944 के संस्करण में उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे हिंसा और अहिंसा के वाद-विवाद में न पड़कर क्रांति में शामिल हों और देश को आजाद कराएँ. इस बीच उनका स्वास्थ्य भी खराब हो गया तो गाँधी जी ने उन्हें एक पत्र लिखा कि वह समर्पण कर दें ताकि इनाम की राशि को हरिजनों के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जा सके। अरुणा को गाँधी जी का यह प्रस्ताव तात्कालिक रूप से ठीक नहीं लगा और उन्होंने समर्पण करने से मना कर दिया। अंतत: अंग्रेजी हुकूमत द्वारा 1946 में गिरफ्तारी वारंट वापस लिए जाने के बाद ही वह लोगों के सामने आईं।

आजादी के बाद भी अरुणा आसफ अली राजनीति और समाज-सेवा में सक्रिय रहीं. 1948 में वे कांग्रेस छोड़कर नए दल सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुईं तो बाद में भाकपा में शामिल हो गईं. 1956 में वे भाकपा से भी अलग हो गईं. अपनी लोकप्रियता की बदौलत 1958 में वे दिल्ली की प्रथम महापौर निर्वाचित हुईं. 1964 में वे पुन: कांग्रेस में शामिल हुईं, पर सक्रिय राजनीति से किनारा करना आरंभ कर दिया. 1964 में ही उन्हें अन्तराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार भी मिला. राष्ट्र निर्माण में जीवन पर्यन्त योगदान के लिए उन्हें 1992 में भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया. अरुणा आसफ अली की जीवनशैली काफी अलग थी। वे जनता से जुड़े मुद्दों पर काफी संवेदनशील थीं. यहाँ तक कि अपनी उम्र के आठवें दशक में भी उन्होंने सार्वजनिक परिवहन से सफर जारी रखा। इस सम्बन्ध में एक घटना को उद्धरित करना उचित होगा. एक बार अरुणा आसफ अली दिल्ली में यात्रियों से ठसाठस भरी बस में सवार थीं। बस में कोई सीट खाली नहीं थी। उसी बस में आधुनिक जीवनशैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक आदमी ने युवा महिला की नजरों में चढ़ने के लिए अपनी सीट उसे दे दी लेकिन उस महिला ने अपनी सीट अरुणा को दे दी। ऐसे में वह व्यक्ति भड़क गया गया और युवा महिला से कहा यह सीट मैंने आपके लिए खाली की थी बहन।' इसके जवाब में अरुणा आसफ अली तुरंत बोलीं ' माँ को कभी न भूलो क्योंकि माँ का हक बहन से पहले होता है।' इस बात को सुनकर वह व्यक्ति काफी शर्मसार हो गया। जीवन को अपने ही अंदाज में भरपूर जीने वालीं अरुणा आसफ अली नारी-सशक्तिकरण के क्षेत्र में एक मील का पत्थर हैं, जिनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता. यही कारण है कि 29 जुलाई 1996 को उनके निधन पश्चात् अगले वर्ष ही 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया और उसके अगले वर्ष 1998 में उनकी स्मृति में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। आज अरुणा आसफ अली भले ही हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके कार्य और उनका अंदाज आने वाली पीढ़ियों को सदैव रास्ता दिखाते रहेंगें. उन्हें यूँ ही स्वतंत्रता संग्राम की 'ग्रैंड ओल्ड लेडी' नहीं कहा जाता है।
!! आज अरुणा आसफ अली जी की 101 वीं जयंती पर शत-शत नमन !!

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

आजकल के बच्चे हमसे आगे हैं...

जीवन का प्रवाह अविच्छिन्न है। अपनी निरंतरता में, अपनी लय में जीवन चलता रहता है. कई बार मजाक-मजाक में उठाये गए हमारे कदम भी मूल्यवान हो जाते हैं. बच्चों के मुँह से निकली चीजें भी शाश्वत सच का अहसास करा जाती हैं. बड़े होने का मतलब ये नहीं कि हम बच्चों से श्रेष्ठ भी हैं. प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती. बचपन में बच्चों द्वारा की गई गतिविधियों पर गौर करें तो बहुत कुछ रचनात्मक भी छनकर आता है. वे जो कर रहे होते हैं, वह सिर्फ यूँ ही नहीं होता, बल्कि उनकी भी भावनाएं होती हैं. कभी बच्चों के बनाये चित्रों को गौर से देखिये, उलटी-तिरछी लाइनों के बीच झाँकने की कोशिश कीजिये, वहाँ आपको बहुत कुछ मिलेगा. पहले हम भी अपनी बिटिया के बनाये चित्रों को यूँ ही फेंक देते थे, फिर एक दिन ध्यान से देखने की कोशिश की तो उसके बाद उसके बनाये चित्रों को संग्रहित करने लगे.
एक दिन सुबह के समय लॉन में बैठी थी और पाखी को बता रही थी कि पाखी, सुना है चाँद पर भी पानी निकला है। कुछ देर बाद गौर किया तो पाखी मस्ती में गाये जा रही है कि ममा ने बताया कि चंदा ममा पर पानी निकला है॥बड़ी होकर मैं भी पानी पीने जाऊगी. बस बैठे-बैठे हमने भी अक्षिता के शब्दों को सहेज दिया और 'चाँद पे पानी' शीर्षक से एक बाल-कविता रच डाली. यह कविता 'बाल-भारती' पत्रिका के फरवरी-2010 अंक में प्रकाशित भी हुई. सही कहूँ तो सोच पाखी की थी, उसे मैंने शब्दों में गूँथ दिया. यही नहीं, मजाक-मजाक में पाखी के साथ खूब तुकबन्दियाँ करती हूँ और इनके पापा तो कई बार कागज-पेन लेकर बैठते हैं कि अब कोई कविता या गीत प्रस्फुटित हुआ.

वस्तुत: कहीं-न-कहीं यह सोचने की जरुरत है कि आजके बच्चे हमारे समय से काफी आगे हैं. हम लोग पाँच साल की उम्र में पढने गए थे, पर ये तो दो-ढाई साल में ही प्ले-स्कूल में जा रहे हैं. सुविधाएँ, टेक्नालाजी, परिवेश, संस्कार ...सब कुछ इन्हें कम उम्र में ही ज्यादा रचनात्मक बना देता है. आजकल के बच्चे लम्बे समय तक तुतलाकर नहीं बोलते, जल्द ही बोली को पकड़ने लगते हैं. कई बार पुरानी पीढ़ी के लोग इस पर विश्वास भी नहीं कर पते और इसे झूठा मानते हैं. पर जनरेशन-गैप को कब तक झुठलाया जा सकता है. सो. जरुरत है आप भी बच्चों को स्पेस दें, उनकी बातों या पेन लेकर बनाये गए चित्रों को यूँ ही हवा में नहीं मानें, उनमें भी कुछ न कुछ छुपा है..बस जरुरत है पारखी निगाहों की !!
चलते-चलते : लोकसंघर्ष-परिकल्पना द्वारा आयोजित ब्लागोत्सव-2010 में वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही चिट्ठाकारा का ख़िताब अक्षिता (पाखी) बिटिया को मिला है। आप इसे परिकल्पना और ब्लागोत्सव -2010 के साथ-साथ पाखी की दुनिया और बाल-दुनिया में भी देख सकते हैं।
सबसे पहले तो रवीन्द्र प्रभात जी और ब्लागोत्सव की पूरी टीम को बधाई, जिन्होंने पूरे मनोयोग से ब्लॉग जगत की परिकल्पनाओं को मूर्त रूप देकर इसे उत्सवी-परंपरा में तब्दील किया है, उसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं. बिटिया पाखी को 'वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही चिट्ठाकारा' के ख़िताब हेतु चुने जाने पर मैं अपनी ख़ुशी को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती. आप सभी के इस प्यार हेतु मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं. पाखी बिटिया को इस ब्लॉग के माध्यम से भी ढेरों प्यार और शुभकामनायें. यह आप सभी की हौसला अफजाई का ही नतीजा है कि पाखी और भी मन से ड्राइंग बनाने लगी हैं और बाल-गीतों की तुकबंदी में हम लोगों का साथ भी देने लगी हैं.

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

अब बाघों के लिए जिम कार्बेट नहीं, काजीरंगा

जिम कार्बेट नेशनल पार्क बाघों के लिए विख्यात है पर अब यह घनत्व के मामले में नंबर वन नहीं रहा। असम के काजीरंगा पार्क ने उसे पीछे छोड़ दिया है, जो कि अब तक गैंडों के लिए सर्वाधिक मुफीद जगह मानी जाती रही है। असम वन विभाग और अरण्यक नामक संस्था द्वारा देहरादून स्थित भारतीय वन्य जीव संस्थान के तकनीकी सहयोग से कराई गई अध्ययन रिपोर्ट के बाद हुए इस खुलासे ने सभी को चौंका दिया है. इसके मुताबिक काजीरंगा में हर 100 वर्ग किलोमीटर में 32 बाघ हैं । यह घनत्व दुनिया में सबसे ज्यादा है। 50 स्थानों पर कैमरा टैप विधि के जरिए पिछले साल जनवरी से मार्च के बीच 50 दिन तक काजीरंगा पार्क केंद्र और पश्चिमी क्षेत्र में 144 वर्ग किमी इलाके के सर्वेक्षण के दौरान यह रहस्य सामने आया , जबकि इस दौरान बाघ के एक साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं गिना गया।अभी तक हुई सभी बाघ गणना रिपोर्टों के मुताबिक उत्तराखंड के कार्बेट पार्क में 19.6 बाघ प्रति सौ बर्ग किलोमीटर, राजस्थान के रणथंभौर अभयारण्य में 11.46 बाघ, नेपाल के चितवन पार्क में 8.7 और उत्तराखंड के राजाजी नेशनल पार्क में 5.12 बाघ प्रति सौ वर्ग किमी में हैं ।

इसी के साथ काजीरंगा में बाघ घनत्व अपने सबसे उंचे संभावित स्तर पर पहुँच गया है. वस्तुत: इस उच्च बाघ घनत्व की वजह काजीरंगा में बाघों के लिए सांभर, बारहसिंगा और जंगली भैंस जैसे शिकार की कोई कमी न होना है। यही नहीं यहाँ के घासयुक्त मैदान बाघों को रिहाइश के लिए बहुत मुफीद भौगौलिक क्षेत्र भी उपलब्ध कराते हैं। वाकई बाघों का बढ़ना एक शुभ संकेत है, पर इन पर निगरानी रखना भी उतना ही जरुरी हो गया है. अक्सर ऐसे क्षेत्रों में बाघों द्वारा गांवों में आकर शिकार करना आम बात हो जाती है, इस ओर ध्यान देना होगा. इसी के साथ शिकारियों की निगाह भी बाघ के शिकार के लिए अब काजीरंगा की ओर हो जाएगी, जिसके लिए समुचित कदम उठाने होंगें. फ़िलहाल बाघों की संख्या बढ़ रही है, यह एक शुभ समाचार है !!

सोमवार, 5 जुलाई 2010

भारत बंद...पर किसके लिए ??

आज भारत बंद...पर किसके लिए ? इस बंद के बाद हमारे जीवन में क्या परिवर्तन होने जा रहा है. न तो इससे महंगाई घटने जा रही है, न ही अन्य समस्याएं कम होने जा रही हैं, इस भारत बंद के चलते सामान्य नागरिक को आज जरुर ढेरों परेशानियों का सामना करना पड़ेगा. किसी का आफिस छूटेगा तो किसी को इलाज नहीं मिल पायेगा. बच्चों का स्कूल प्रभावित होगा तो कईयों का रोजगार. फिर भी बंद पर बंद. कल नेताओं की फोटो अख़बारों के फ्रंट पेज पर होगी और आज दिन भर चैनलों की चांदी है. आखिरकार, बैठे-बिठाये मुद्दा जो मिल गया है. पर सवाल अभी भी वहीँ है, की इस बंद से क्या वाकई कुछ हासिल होगा. यदि इसका प्रतीकात्मक महत्त्व मात्र है तो इसे प्रतीक रूप में किसी स्थान विशेष पर ही क्यों नहीं किया जा सकता. क्या कोई लखपति-करोडपति संसद/विधायक/ राजनेता यह भी सोच रहा है कि बारिश न होने के चलते किसान बर्बादी के कगार पर हैं, भुखमरी बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है ...आखिर इनके प्रति कोई सचेत क्यों नहीं होता ?
बंदी कोई हल नहीं है, बल्कि यह पलायनवादी सोच है, जो मूल मुद्दों से लोगों को भटकाती है. ऐसे भारत बंद से देश का उद्धार नहीं बल्कि रसातल में ले जाने की तैयारी है. संसद में बायकाट कर चर्चा से भागने वाले लोगों के सड़क पर हुल्लड़ मचाने से न तो महंगाई कम होगी और न रोजमर्रा की समस्याएं. इन नेताओं को कौन समझाए कि जनता समझदार हो चुकी है. उसे एक ऐसा नेतृतव चाहिए जो उसे सही दिशा दिखा सके न कि खोखले वादों, नारों और प्रदर्शनों के दम पर गुमराह करने की कोशिश करे !!

बुधवार, 30 जून 2010

विलुप्त होने के कगार पर एक तिहाई वनस्पति-जीव

जैव विविधता पृथ्वी की सबसे बड़ी पूंजी है. पर जैसे-जैसे हम विकास और प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं, इस पर विपरीत असर पड़ रहा है. पर्यावरण का निरंतर क्षरण रोज की बात है पर अब तो दुनिया भर में पाए जाने वाले पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की करीब एक तिहाई प्रजातियां भी विलुप्त होने के कगार पर हैं । एक तरफ मानवीय जनसँख्या दिनों-ब-दिन बढती जा रही है, वहीँ मानव अन्य जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को नष्ट कर उनकी जगह भी पसरता जा रहा है. यदि जनसँख्या इसी तरह बढती रही तो 2050 तक विश्व जनसख्या नौ अरब के आंकड़े को पार कर जाएगी और फिर हमें रहने के लिए कम से कम पाँच ग्रहों को जरूरत पड़ेगी। वाकई यह एक विभीषिका ही साबित होगी. भारत, पाकिस्तान और दक्षिण पूर्व एशिया सहित तमाम देशों में में जीवों के प्राकृतिक ठिकानों को कृषि योग्य भूमि में तब्दील किया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ नित फैलता प्रदूषण और पाश्चात्य संस्कृति की ओर अग्रसर विकासशील देशों की वजह से भी वनस्पति और जीवों की सख्या घट रही है। विकास की ओर अग्रसर देशों की खाद्यान्न और माँस की बढ़ती जरूरतों की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र दिनों-ब-दिन गड़बडा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी ग्लोबल बायोडाइवर्सिटी आउटलुक के तीसरे संस्करण की रिपोर्ट पर गौर करें तो दुनिया में 21 प्रतिशत स्तनपायी जीव, 30 प्रतिशत उभयचर जीव; जैसे मेंढक और 35 प्रतिशत अकशेरूकी जीव ;बिना रीढ़ के हड्डी वाले जीव विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें मछलियां भी शामिल है। दक्षिण एशियाई नदियों में डाॅल्फिन की संख्या तो बहुत तेजी से घट रही है।इसमें दुनिया के 120 देशों के आँकड़े शामिल किए गए हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत, चीन और ब्राजील जैसे देशों की तेजी से बढ़ती आथिक विकास दर से विश्व की जैव विविधता को खतरा है। यही नहीं रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि पश्चिम देशों को विलुप्तप्राय जातियों के बारे में अधिक सोचने की जरूरत है।

वाकई, यदि हम इस ओर अभी से सचेत नहीं हुए तो पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के बाद मानव के अस्तित्व पर ही पहला खतरा पैदा होगा. प्रकृति में संतुलन बेहद जरुरी है, ऐसे में अन्य की कीमत पर मानवीय इच्छाओं का विस्तार सभ्यता को असमय काल-कवलित कर सकता है !!