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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

फिर से हाज़िर...

लीजिए जी, हमारा जन्मदिन फिर से हाज़िर हो गया. कल 30 जुलाई को हम अपना जन्म-दिन सेलिब्रेट करेंगें. वैसे, अभी तो पिछले साल ही मनाया था, पर यह तो पीछा ही नहीं छोड़ता. हर साल आ जाता है यह बताने के लिए आपकी उम्र एक साल और कम हो गई. फिर से मजबूर कर देता है पीछे मुड़कर देखने के लिए कि इस एक साल में क्या खोया-क्या पाया ? फ़िलहाल हमारी छोटी बिटिया तान्या (तन्वी, आइमा, अस्मिता भी कहते हैं...) पहली बार हमारे जन्म-दिन पर शरीक हो रही हैं. अच्छा लगता है उसका बचपना. अभी तो 27 जुलाई को 9 माह की हुई है. अभी तो सारा समय उसी के साथ निकल जाता है. कुछ ज्यादा लिखना-पढना भी नहीं हो पा रहा है. इस बीच यह प्रयास जरूर रहा है कि बाल-गीतों पर मेरी पहली पुस्तक शीघ्र प्रकाशित होकर हाथ में आ जाए. इस बीच हमारे (आकांक्षा-कृष्ण कुमार) व्यक्तित्व-कृतित्व पर भी एक प्रकाशन ने पुस्तक जारी करने की योजना बनाई है. वह भी कार्य प्रगति पर है.

...कल हमारा जन्म-दिन है. सबसे अच्छी बात यह है कि शनिवार के चलते कृष्ण कुमार जी का आफिस नहीं है और बिटिया पाखी का स्कूल भी बंद है. अंडमान में बारिश भी जोरों पर है, सो बाहर किसी द्वीप पर निकलने का भी स्कोप नहीं है. तो फिर पोर्टब्लेयर में ही जन्म-दिन सेलिब्रेट करेंगें...घूमेंगें-फिरेंगें, पार्टी करेंगें, केक काटेंगें और सपरिवार मस्ती करेंगें.
ब्लागिंग जगत में आप सभी के स्नेह से सदैव अभिभूत रही हूँ. जीवन के हर पड़ाव पर आप सभी की शुभकामनायें और स्नेह की धार बनी रहेगी, इसी विश्वास के साथ.... !!

सोमवार, 18 जुलाई 2011

कहां खो गई दादा-दादी की कहानी


बचपन में स्कूल की छुट्टियों में ननिहाल जाने पर मेरी नानी हम सब बच्चों को अपने पास बिठाकर मजेदार कहानियां सुनाया करती थी। उनकी कहानियों का विषय राजा, राजकुमार, राजकुमारी व दुष्ट जादूगर हुआ करते थे। अकबर-बीरबल व विक्रम-बेताल के किस्से हमें अपने साथ बांधे रखते थे। कभी-कभार नानी हमें भारत विभाजन के दौरान पाकिस्तान से भारत आने के दौरान हुए मुश्किलों भरे सफर की जानकारी भी तपफसील से देती, जो उस समय हमारे लिए रोचक किस्सों से कम
नहीं होता था। आज नानी नहीं रही, लेकिन दिमाग पर जोर डालते ही उसके किस्से-कहानियां ताजा हो उठती हैं। मेरी तरह वे सभी लोग खुशनसीब होंगे जिन्हें बचपन में अपने दादा-दादी, नाना-नानी के साथ इस तरह की बैठकों का अनुभव होगा।

कुछ दशक पहले ही बच्चों में काॅमिक्स बेहद लोकप्रिय थीं। इन काॅमिक्स के पात्रों में पैफंटम, चाचा चैधरी, लम्बू-मोटू, राजन-इकबाल, पफौलादी सिंह, महाबली शाका, ताऊजी, चाचा-भतीजा, जादूगर मैंड्रक, बिल्लू, अंकुर, पिंकी, रमन, क्रुकबांड सरीखे तमाम पात्रा बच्चों को अपने ही परिवेश के प्रतीत होते थे। जो उनमें पफैंटसी के अलावा रोमांच, चतुराई उभारते हुए उनकी कल्पनाशक्ति विकसित करते थे। अमर चित्रकथा ने भारतीय संस्कृति पर काॅमिक रचकर बच्चों का अपार ज्ञानवर्धन किया। इतना ही नहीं किशोरों के लिए साहस, रोमांच व ज्ञान से भरपूर पाॅकेट बुक्स भी प्रकाशित की गई। अस्सी-नब्बे के दशक में पाॅकेट बुक्स का जादू भी बाल पाठकों के दिलोदिमाग पर छाया रहा। डायमंड, मनोज, राजा, शकुन, पवन, साधना पाॅकेट बुक्स के अलावा अन्य जाने-माने प्रकाशनों ने बच्चों के लिए भरपूर छोटे उपन्यास प्रकाशित किए। उस समय बच्चों में भी यह क्रेज रहता था कि उन्होंने अपने पसंदीदा पात्रों की पाॅकेट बुक्स पढ़ी या नहीं। बच्चे आपस में अदल-बदल कर अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ने से नहीं चूकते थे।

बालरुचि के अनुरूप ही मधु मुस्कान, लोटपोट, पराग, टिंकल, नंदन, बालमेला, चंपक, चंदामामा, चकमक, हंसती दुनिया, बालहंस, बाल सेतु, बाल वाटिका, नन्हे सम्राट, देवपुत्र, लल्लू जगधर, बालक, सुमन सौरभ जैसी बाल-पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुई, जिनमें से कुछ आज भी बाल पाठकों को लुभा रही हैं। सरकारी तौर पर भी नन्हें तारे, बाल वाणी जैसी बाल-पत्रिकाएं शुरू की गई जो काल कलवित हो गई। अलबत्ता प्रकाशन विभाग की बाल भारती व नेशनल बुक ट्रस्ट की पाठक मंच बुलेटिन आज भी नियमित प्रकाशित हो रही हैं। यदि केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें बाल-साहित्य प्रकाशन व प्रोत्साहन की दिशा में गंभीरता से रुचि ले तो यह भावी नागरिकों के हित में एक अच्छा कदम होगा। दैनिक समाचार-पत्रों में भी अपने बाल-पाठकों को खास ख्याल रखते हुए प्रायः रविवारीय विशेषांक में बाल-साहित्य को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था। परन्तु बाजारवाद के मौजूदा दौर में बाल साहित्य अब केवल औपचारिकता बनकर रह गया है तथा सृजनात्मक साहित्य के स्थान पर बच्चों को ज्यादातर इंटरनेट की सामग्री परोसी जा रही है। रोचक-मजेदार बाल कथाओं का तो अब अभाव हो चला है। यही नहीं बाल-साहित्यकार भी खुद को उपेक्षित महसूस करते हुए साहित्य की अन्य विधाओं की ओर उन्मुख होते जा रहे हैं। यह स्थिति बाल-साहित्य के लिए बेहद घातक है। दूसरी तरफ आज के व्यस्तता भरे समय में जहां भौतिकवाद ने रिश्तों में दूरियां बना दी हैं, वहीं टेलीविजन तथा कम्प्यूटर ने बचपन को एक तरह से लील लिया है। मनोरंजन के नाम पर बच्चों के पास वीडियो गेम, कम्प्यूटर, इंटरनेट, केबल टीवी से लेकर मोबाइल जैसे तमाम उपकरण भले ही आ गए हों पर इनमें से कोई भी उन्हें स्वस्थ मनोरंजन दे पाने में सक्षम नहीं। वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि इंटरनेट, टीवी व वीडियो गेम बच्चों में तनाव, हिंसा, कुंठा व मनोरोगों को जन्म दे रहा है। इन उपकरणों से जुड़े रहने वाले बच्चों की आंखों पर मोटे-मोटे चश्मे भी देखे जा सकते हैं। पश्चिमी संस्कृति से प्रेरित कार्टून पिफल्में व अन्य डब किए गए कार्यक्रम बाल सुलभ मन में अश्लीलता व विकारों के बीज बो रहे हैं। उनकी भाषा भी व्यवहार की तरह संस्कारविहीन होती जा रही है।

इस परिस्थिति में बच्चों में नैतिकता, शिष्टाचार, ईमानदारी सहित अन्य सद्गुणों के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए जरूरी है कि हम सब बाल-साहित्य की प्रासंगिकता व उपादेयता को समझते हुए उसे बाल-जीवन में स्थान दें। बच्चों को संस्कारवान बनाने में गीताप्रेस-गोरखपुर का बाल साहित्य व अमर चित्राकथा बेजोड़ है। बाल साहित्यकारों को एक चुनौती की तरह भारतीय आधुनिक परिवेश के हिसाब से अपने साहित्य को विकसित करना चाहिए। अभिभावकों को भी बच्चों पर पढ़ाई का बोझ न लादते हुए कुछ समय स्वाध्याय के लिए प्रेरित करना चाहिए। साहित्य पठन के इन पलों में बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन होने के साथ ही उनमें मानवीय गुण तो विकसित होंगे ही, एकाग्रता व शिक्षा के प्रति रूझान भी बढ़ेगा।

संदीप कपूर
-88/1395, बलदेव नगर
अंबाला सिटी-134007 (हरियाणा)

बुधवार, 13 जुलाई 2011

250 पोस्ट, 200 फालोवर्स ...


आज जब 'शब्द-शिखर' पर 250 पोस्ट और 200 फालोवार्स का सफ़र पूरा हो चुका है, तो एक सुखद अनुभूति सी होती है. जब 20 नवम्बर, 2008 को जब पतिदेव कृष्ण कुमार जी की प्रेरणा से इस ब्लॉग की पहली पोस्ट लिखी थी तो सोचा भी न था कि ब्लागर्स और पाठकों का इतना स्नेह मिलेगा, पर भविष्य किसने देखा है. आप सबके स्नेह ने 'शब्द-शिखर' को यहाँ लाकर खड़ा किया है. इस बीच बिटिया अक्षिता (पाखी) ने भी शरारतों के साथ-साथ काफी सहयोग किया, ताकि मैं कुछ लिख सकूँ. 8 जुलाई, 2011 को ब्लॉग पर 'नश्तरे अहसास' नाम से एक टिप्पणी प्राप्त हुई- ''आपके 200 फालोवर्स होने पर बधाई...वैसे हम आपके 200 वें फालोवर्स बन रहे हैं..बधाई !"

जब इस लिंक पर जाकर देखा तो 'शब्द-शिखर' की यह 200 वीं फालोवर्स कानपुर की नेहा त्रिवेदी थीं. इनका परिचय देखना चाहा तो- ''कुछ खास नहीं बताने को अपने बारे में, बस इतना की ब्लॉगिंग की दुनिया में नयी-नयी आई हूँ. लिखने का तो शौक तो रखते थे,पर वह डायरी तक ही सीमित था. किसी दोस्त ने बताया ब्लॉग भी कुछ होता है, हमे लगा की क्यूँ न हम भी इस मंच पे जा कर अपनी रचनाओं को लोगों तक पहुंचाएं और ब्लॉग से जुड़े इतने बड़े-बड़े लेखकों को पढने का आनंद भी उठा सके. आप सभी बड़ों का आशीर्वाद चाहूंगी और हम-उम्र दोस्तों का प्रोत्साहन. यदि कुछ गलती हो जाये तो माफ़ कीजियेगा...............धन्यवाद!! :) नेहा त्रिवेदी.''

नेहा की एक पोस्ट पर भी नजर डाल लें तो पता चलेगा कि ये कितनी दिल्लगी से लिखती हैं-

मौसमें - सौगात

इस छोटी सी ज़िन्दगी में बहारे मौसम आ गई,
बहारे मौसम आँचल में समेटे इक सौगात ला गई,
तेरे इश्क का एहसास क्या हुआ
मेरे बेज़ार पड़े दिल में जीने की ललक छा गई !!

........नेहा जी, 'शब्द-शिखर' की 200 वीं फालोवर्स बनने के लिए आभार और बधाई भी !!

...इस 250 वीं पोस्ट के माध्यम से आप सभी के स्नेह और प्रोत्साहन के लिए आभार, जिन्होंने हमें इस मुकाम तक पहुँचाया. इस बीच 'शब्द-शिखर' ब्लॉग ने भी ढाई साल से ज्यादा का सफ़र पूरा कर लिया है.

........अभी तक प्रिंट-मिडिया में प्राप्त जानकारी के अनुसार 27 बार 'शब्द-शिखर' से जुडी पोस्टों की चर्चा हुई है. इनमें दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर शामिल हैं. इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार!

एक बार पुन: आप सभी के सहयोग, प्रोत्साहन के लिए आभार. यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!


(चित्र में : सपरिवार सेलुलर जेल के समक्ष)

-आकांक्षा यादव
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर

सोमवार, 11 जुलाई 2011

विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती 'आस्था'


आज विश्व जनसंख्या दिवस है. संयोगवश इस समय भारत में जनसंख्या का काम भी जोरों से चल रहा है. जनसंख्या के अंतरिम आंकडे आ चुके हैं, पर वास्तविक आंकड़े आने अभी भी शेष हैं. जनसंख्या सिर्फ कागजी न हो, बल्कि इससे लोगों के जीवन स्टार में भी सुधर आए, ऐसे में इसे इसे व्यापक और लोकप्रिय बनाने एवं लोगों से जोड़ने हेतु तमाम उपायों का सहारा लिया जाता है। माना जा रहा है कि वर्ष 2011 की जनगणना पर जितनी राशि और मानवीय संसाधन झोंके गए हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। यह जनगणना सिर्फ मानव जाति की गणना नहीं करती बल्कि मानव के समृद्ध होते परिवेश एवं भौतिक संसाधनों को भी कवर करती है। भारत दुनिया के उन देशों में से है, जहाँ सर्वाधिक तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ रही है। फिलहाल चीन के बाद हम दुनिया में दूसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र हैं। यह जनसंख्या ही भारत को दुनिया के सबसे बड़े बाजार के रूप में भी प्रतिष्ठित करती है। यही कारण है कि इससे जुड़े मुद्दे भी खूब ध्यान आकर्षित करते हैं।

वर्ष 2011 की जनसंख्या के प्रारम्भिक आंकड़े बता रहे हैं की भारत में लड़कियों का लिंगानुपात घटा है. हर किसी को बस बेटा चाहिए, बेटियां भले ही एवरेस्ट की चोटी को दस दिन में दो बार नाप दें, पर समाज की मानसिकता में घुसा हुआ है कि सृष्टि को चलाने के लिए बेटा ही जरूरी है. याद कीजिए भारत में एक अरबवें मानवीय जन्म को। राजधानी दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में 11 मई 2000 की सुबह 5 बजकर 5 मिनट पर आस्था नामक बच्ची के जन्म से उत्साहित देश के नीति-नियंताओं ने वायदों और घोषणाओं की झड़ी लगा दी थी। इनमें देश की तत्कालीन स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्री श्रीमती सुमित्रा महाजन, दिल्ली के सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्मा के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के वरिष्ठ अधिकारीगण तक शामिल थे। इनमें बच्ची की मुफ्त शिक्षा, मुफ्त रेल यात्रा, मुफ्त मेडिकल सेवा से लेकर बच्ची के पिता को सरकारी नौकरी तक के वायदे शामिल थे। पर वक्त के साथ ही जैसे खिलौने टूट जाते है, इस एक अरबवें शिशु के प्रति किए गए सभी वायदे टूट गए। माता-पिता ने समझा था कि बिटिया अपने साथ सौभाग्य लेकर आई है, तभी तो इतने लोग उसे देखने व उसके लिए कुछ करने को लालायित हैं। शायद इसीलिए उसका नाम भी आस्था रखा। पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की इस एक अरबवीं बच्ची आस्था की किलकारियों को न जाने किसकी नजर गई कि आज 11 साल की हो जाने के बावजूद उसे कुछ नहीं मिला, सिवाय संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा वायदानुसार दी गई दो लाख रूपये की रकम।

वाकई यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे नीति-नियंता बड़े-बड़े वायदे और घोषणाएं तो करते हैं, पर उन पर कभी अमल नहीं करते। 'आस्था' तो एक उदाहरण मात्र है जो आज दिल्ली के नजफगढ़ के हीरा पार्क स्थित अपने पैतृक आवास में माता-पिता और बड़े भाई के साथ रहती है। दुर्भाग्यवश इस गली में पानी व सीवर लाइन सहित तमाम सुविधाओं का अभाव है। इन सबके बीच माता-पिता इस गरीबी में कुछ पैसे जुटाकर खरीदी गई सेकण्ड हैण्ड साईकिल ही आस्था की खुशियों का संबल है। उसके माता-पिता भी उस दिन को एक दु:स्वप्न मानकर भूल जाना चाहते हैं, जब इस एक अरबवीं बच्ची के जन्म के साथ ही नेताओं-अधिकारियों-मीडिया की चकाचैंध के बीच दुनिया ने आस्था को सर आखों पर बिठा लिया था। 11 मई 2011 को आस्था पूरे 11 साल की हो गई, पर उसकी सुध लेने की शायद ही किसी को फुर्सत हो !!

आज विश्व जनसंख्या दिवस है. हमारे कर्णधार इस बात का रोना रो रहे हैं कि देश में बच्चियों का घटता अनुपात भविष्य के लिए संकट पैदा कर सकता है, पर क्या वाकई इस ओर वे गंभीरता से सोचते हैं. 'आस्था' का मसला तो सिर्फ एक उदाहरण मात्र है. ऐसी न जाने कितने आस्थाएं इस देश में रोज टूटती हैं और फिर बिखर जाती हैं !!

शनिवार, 9 जुलाई 2011

'जनसत्ता' के बहाने प्रिंट-मीडिया में 'शब्द-शिखर' की 27वीं चर्चा


'शब्द शिखर' पर 1 जुलाई , 2011 को प्रस्तुत पोस्ट 'एक चवन्नी का जाना' को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में आज 09 जुलाई , 2011 को 'अब जो नहीं है' शीर्षक से स्थान दिया गया है. जनसत्ता में चौथी बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और इससे पूर्व 'शब्द शिखर' पर 26 अप्रैल, 2011 को प्रस्तुत पोस्ट 'मानव ही बन गया है खतरा... ' को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में 09 मई, 2011 को 'अस्तित्व का संकट' शीर्षक से, 21 अक्तूबर, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'कहाँ गईं वो तितलियाँ' को जनसत्ता के ‘समांतर’ स्तम्भ में 7 दिसंबर, 2010 को 'गुम होती तितली' शीर्षक एवं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च, 2010) को प्रस्तुत पोस्ट 'महिला होने पर गर्व' को 12 मार्च, 2011 को 'किसका समाज' शीर्षक से स्थान दिया गया था. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 27वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

एक चवन्नी का जाना...


चवन्नी 30 जून से इतिहास बन गई. पर जो लोग चवन्नी के साथ बड़े हुए हैं, क्या इसे भुला पायेंगें. एकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी...न जाने इसको लेकर कितने मुहावरे हैं, मीठी यादें हैं. बचपन में यह चवन्नी ही बच्चों को चुप करने के लिए काफी होती थी, आखिर इतने में ही बिस्कुट-चाकलेट और मिठाइयाँ तक मिल जाती थीं. पर आज चवन्नी छोडिये पचास पैसे और एक रूपये का भी कोई मोल नहीं बचा. जब हम लोक स्कूल में पढ़ते थे तो किसी भी खेल-कूद प्रतियोगिता के लिए एक रूपये के सिक्के से टॉस किया जाता था और टास जीतने वाला उस एक रूपये से उस दौर में पूरे एक पैकेट ग्लूकोज बिस्किट खरीदकर अपनी टीम के सदस्यों को खिलाता था. एक रूपये का जेब-खर्च भी तब मायने रखता था, और आज भिखारी भी एक रूपये में नहीं मानता, चवन्नी-अठन्नी की तो बात ही दूर है. शादियों में दूल्हे की गाड़ी पर शगुन रूप में धान के लावे के साथ मिलाकर सिक्के फेंके जाते थे. बच्चों में यही क्रेज रहता था की किसने ज्यादा सिक्के बटोरे ? पर यह सब तो मानो, अब बाबा-आदम के ज़माने की बातें लगती हैं.

जब कृष्ण कुमार जी से मेरी शादी हुई तो एक दिन उन्होंने एक बड़ी सी पोटली मेरे सामने रखी. मैंने उत्सुकतावश खोला तो उसके ढेर सारे सिक्के थे. एक आने से लेकर न जाने किन-किन देशों के. पता चला कि ये बचपन से ही इन्हें एकत्र करने का शौक रखते हैं. इन सिक्कों की कीमत आज भी बाजार में काफी ज्यादा है, उस पर से मिलना तो दूभर ही है. बिटिया अक्षिता (पाखी) को बताया तो पहले चवन्नी शब्द ही सुनकर खूब हँसी, फिर चवन्नी दिखाने को कहा. जब किसी तरह चवन्नी मैनेज की तो बोली कि यह तो 25 पैसे हैं, इसे चवन्नी क्यों कहते हैं ? शायद नई पीढ़ी को आने का मतलब भी नहीं पता होगा, आखिर उनकी शुरुआत ही सैकड़ा से आरंभ होती है. जेब-खर्च भी भरी-भरकम हो गया है. गलती उनकी भी नहीं है, महंगाई जो न कराए.

चवन्नी की महिमा फिर भी कम नहीं हुई है. रिजर्व बैंक की माने तो पिछले वर्ष 31 मार्च, 2010 तक बाजार में पचास पैसे से कम मूल्य वाले कुल 54 अरब 73 करोड़ 80 लाख सिक्के प्रचलन में थे, जिनकी कुल कीमत 1,455 करोड़ रूपये मूल्य के बराबर है. बाजार में प्रचलित कुल सिक्कों का यह 54 फीसदी तक है. मतलब चवन्नी जैसे सिक्के भले ही प्रचलन से बाहर हो जाएँ, पर चवन्नी की वैल्यू बनी हुई है. अब तो चवन्नी एक तो ढूंढे नहीं मिलेगी, उस पर से संग्रहालय की वस्तु बन जाएगी. संग्राहक ज्यादा दाम देकर भी इसे अपने पास रखना चाहेंगें.

चवन्नी की महिमा अभी भी बरकरार है. चवन्नी के नाम पर कहावतें हैं, मुहावरें हैं, गालियां हैं, ब्लॉग हैं....पर बस नहीं है तो चवन्नी !!

रविवार, 26 जून 2011

स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें

मादक पदार्थों व नशीली वस्तुओं के निवारण हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 7 दिसंबर, 1987 को प्रस्ताव संख्या 42/112 पारित कर हर वर्ष 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस मानाने का निर्णय लिया. यह एक तरफ लोगों में चेतना फैलाता है, वहीँ नशे के लती लोगों के उपचार की दिशा में भी सोचता है.इस वर्ष का विषय है- ''स्वास्थ्य के बारे में सोचें, नशे को न कहें." आजकी पोस्ट इसी विषय पर-
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मादक पदार्थों के नशे की लत आज के युवाओं में तेजी से फ़ैल रही है. कई बार फैशन की खातिर दोस्तों के उकसावे पर लिए गए ये मादक पदार्थ अक्सर जानलेवा होते हैं. कुछ बच्चे तो फेविकोल, तरल इरेज़र, पेट्रोल कि गंध और स्वाद से आकर्षित होते हैं और कई बार कम उम्र के बच्चे आयोडेक्स, वोलिनी जैसी दवाओं को सूंघकर इसका आनंद उठाते हैं. कुछ मामलों में इन्हें ब्रेड पर लगाकर खाने के भी उदहारण देखे गए हैं. मजाक-मजाक और जिज्ञासावश किये गए ये प्रयोग कब कोरेक्स, कोदेन, ऐल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस जैसे दवाओं को भी घेरे में ले लेते हैं, पता ही नहीं चलता. फिर स्कूल-कालेजों य पास पड़ोस में गलत संगति के दोस्तों के साथ ही गुटखा, सिगरेट, शराब, गांजा, भांग, अफीम और धूम्रपान सहित चरस, स्मैक, कोकिन, ब्राउन शुगर जैसे घातक मादक दवाओं के सेवन की ओर अपने आप कदम बढ़ जाते हैं. पहले उन्हें मादक पदार्थ फ्री में उपलब्ध कराकर इसका लती बनाया जाता है और फिर लती बनने पर वे इसके लिए चोरी से लेकर अपराध तक करने को तैयार हो जाते हैं.नशे के लिए उपयोग में लाई जानी वाली सुइयाँ HIV का कारण भी बनती हैं, जो अंतत: एड्स का रूप धारण कर लेती हैं. कई बार तो बच्चे घर के ही सदस्यों से नशे की आदत सीखते हैं. उन्हें लगता है कि जो बड़े कर रहे हैं, वह ठीक है और फिर वे भी घर में ही चोरी आरंभ कर देते हैं. चिकित्सकीय आधार पर देखें तो अफीम, हेरोइन, चरस, कोकीन, तथा स्मैक जैसे मादक पदार्थों से व्यक्ति वास्तव में अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है एवं पागल तथा सुप्तावस्था में हो जाता है। ये ऐसे उत्तेजना लाने वाले पदार्थ है जिनकी लत के प्रभाव में व्यक्ति अपराध तक कर बैठता है। मामला सिर्फ स्वास्थ्य से नहीं अपितु अपराध से भी जुड़ा हुआ है. कहा भी गया है कि जीवन अनमोल है। नशे के सेवन से यह अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में भारत हेरोइन का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है और ऐसा लगता है कि वह खुद भी अफीम पोस्त का उत्पादन करता है. गौरतलब है कि अफीम से ही हेरोइन बनती है. अपने देश के कुछ भागों में धड़ल्ले से अफीम की खेती की जाती है और पारंपरिक तौर पर इसके बीज 'पोस्तो' से सब्जी भी बने जाती है. पर जैसे-जैसे इसका उपयोग एक मादक पदार्थ के रूप में आरंभ हुआ, यह खतरनाक रूप अख्तियार करता गया. वर्ष 2001 के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में भारतीय पुरुषों में अफीम सेवन की उच्च दर 12 से 60 साल की उम्र तक के लोगों में 0.7 प्रतिशत प्रति माह देखी गई. इसी प्रकार 2001 के राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार ही 12 से 60 वर्ष की पुरुष आबादी में भांग का सेवन करने वालों की दर महीने के हिसाब से तीन प्रतिशत मादक पदार्थ और अपराध मामलों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र कार्यालय [यूएनओडीसी] की रिपोर्ट के ही अनुसार भारत में जिस अफीम को हेरोइन में तब्दील नहीं किया जाता उसका दो तिहाई हिस्सा पांच देशों में इस्तेमाल होता है। ईरान 42 प्रतिशत, अफगानिस्तान सात प्रतिशत, पाकिस्तान सात प्रतिशत, भारत छह प्रतिशत और रूस में इसका पांच प्रतिशत इस्तेमाल होता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2008 में 17 मीट्रिक टन हेरोइन की खपत की और वर्तमान में उसकी अफीम की खपत अनुमानत: 65 से 70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। कुल वैश्विक उपभोग का छह प्रतिशत भारत में होने का मतलब कि भारत में 1500 से 2000 हेक्टेयर में अफीम की अवैध खेती होती है, जो वाकई चिंताजनक है.

नशे से मुक्ति के लिए समय-समय पर सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएं पहल करती रहती हैं. पर इसके लिए स्वयं व्यक्ति और परिवार जनों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. अभिभावकों को अक्सर सुझाव दिया जाता है कि वे अपने बच्चों पर नजर रखें और उनके नए मित्र दिखाई देने, क्षणिक उत्तेजना या चिडचिडापन होने, जेब खर्च बढने, देर रात्रि घर लौटने, थकावट, बेचैनी, अर्द्धनिद्राग्रस्त रहने, बोझिल पलकें, आँखों में चमक व चेहरे पर भावशून्यता, आँखों की लाली छिपाने के लिए बराबर धूप के चश्मे का प्रयोग करते रहने, उल्टियाँ होने, निरोधक शक्ति कम हो जाने के कारण अक्सर बीमार रहने, परिवार के सदस्यों से दूर-दूर रहने, भूख न लगने व वजन के निरंतर गिरने, नींद न आने, खांसी के दौरे पड़ने, अल्पकालीन स्मृति में ह्रास, त्वचा पर चकते पड़ जाने, उंगलियों के पोरों पर जले का निशान होने, बाँहों पर सुई के निशान दिखाई देने, ड्रग न मिलने पर आंखों-नाक से पानी बहने-शरीर में दर्द-खांसी-उल्टी व बेचैनी होने, व्यक्तिगत सफाई पर ध्यान न देने, बाल-कपड़े अस्त व्यस्त रहने, नाखून बढे रहने, शौचालय में देर तक रहने, घरेलू सामानों के एक-एक कर गायब होते जाने आदत के तौर पर झूठ बोलने, तर्क-वितर्क करने, रात में उठकर सिगरेट पीने, मिठाईयों के प्रति आकर्षण बढ जाने, शैक्षिक उपलब्धियों में लगातार गिरावट आते जाने, स्कूल कालेज में उपस्थिति कम होते जाने, प्रायः जल्दबाजी में घर से बाहर चले जाने एवं कपडों पर सिगरेट के जले छिद्र दिखाई देने जैसे लक्षणों के दिखने पर सतर्क हो जाएँ. यह बच्चों के मादक-पदार्थों का व्यसनी होने की निशानी है. यही नहीं यदि उनके व्यक्तिगत सामान में अचानक माचिस,मोमबत्ती,सिगरेट का तम्बाकू, 3 इंच लम्बी शीशे की ट्यूब,एल्मूनियम फॉयल, सिरिंज, हल्का भूरा सफेद पाउडर मिलता है तो निश्चित जान लें कि वह ड्रग्स का शिकार है और तत्काल इस सम्बन्ध में कदम उठाने की जरुरत है.

मादक पदार्थों और नशा के सम्बन्ध में जागरूकता के लिए तमाम दिवस, मसलन- 31 मई को अंतर्राष्ट्रीय धूम्रपान निषेध दिवस, 26 जून को अंतर्राष्ट्रीय नशा व मादक पदार्थ निषेध दिवस, गाँधी जयंती पर 2 से 8 अक्टूबर मद्यनिषेध सप्ताह और 18दिसम्बर को मद्य निषेध दिवस के रूप में हर साल मनाया जाता है. मादक पदार्थों का नशा सिर्फ स्वास्थ्य को ही नुकसान नहीं पहुँचाता बल्कि सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक- मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है. जरुरत इससे भागने की नहीं इसे समझने व इसके निवारण की है. मात्र दिवसों पर ही नहीं हर दिन इसके बारे में सोचने की जरुरत है अन्यथा देश की युवा पीढ़ी को यह दीमक की तरह खोखला कर देगा.

शुक्रवार, 24 जून 2011

भारत में एक द्वीप सिर्फ तोतों के लिए

अंडमान में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो प्राय: बहुत कम ही लोगों को पता होती हैं. इन्हीं में से एक है-पैरट-आइलैंड. पोर्टब्लेयर से बाराटांग की यात्रा में बहुत कुछ देखने को मिलता है. रास्ते में पाषाण कालीन सभ्यता में रह रहे तीर-धनुष से लैस जारवा आदिवासी, बाराटांग में कीचड़ के ज्वालामुखी, लाइम स्टोन केव. चारों तरफ घने वृक्षों से आच्छादित हरे-भरे जंगल और समुद्र की अठखेलियाँ. समुद्र का सीना चीरते हमारी स्टीमर-बोट शाम को साढ़े चार बजे आगे बढती है, साथ में मेरा परिवार और कुछेक स्टाफ के लोग.


मैन्ग्रोव-क्रीक के बीच से गुजरते हुए शाम की समुद्री हवाएँ ठण्ड का अहसास कराती हैं. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, आस-पास दसियों छोटे-छोटे द्वीप दिखने लगते हैं. मौसम सुहाना सा हो चला है. गंतव्य नजदीक है. आखिर हम पैरट-आइलैंड के करीब पहुँच ही जाते हैं. बोट को धीमे-धीमे वह किनारे लगाता है. उतरने की कोई जगह नहीं, बोट में बैठकर ही नजारा लेना है.



बिटिया पाखी चारों तरफ टक-टकी सी निगाह लगाए हुए है. बार-बार पूछती है कि तोते कब दिखेंगें. कानपुर में हमारे आवास-प्रांगन में एक विशाल वट वृक्ष था, शाम को उस पर अक्सर ढेर सारे तोते आते थे. तोतों की टें-टें सुनना मनोरंजक लगता था.



...चारों तरफ ठहरी हुई शांति, समुद्र भी मानो थक कर आराम कर रहो हो. एक-दो मछुहारे नाव के साथ मछली पकड़ते दिख जाते हैं. अचानक एक चीख सी पूरे माहौल का सन्नाटा तोड़ती है. हम चौंकते हैं कि क्या हुआ ? नाविक ने बताया कि जंगल में किसी ने हिरण का शिकार कर पकड़ लिया है. यद्यपि यहाँ हिरण को मारना जुर्म है, पर ये तथाकथित शिकारी जंगलों में कुत्तों के साथ जाते हैं और कुत्ते दौड़कर हिरण को पकड़ लेते हैं. अंडमान में अवैध रूप से हिरण के मांस की बिक्री कई बार सुनने को मिलती है. यह भी एक अजीब बात है की यहाँ के आदिवासी हिरणों को पवित्र आत्मा मानते हैं और उनका शिकार नहीं करते, पर बाहर से आकर बसे लोग हिरणों के शिकार में अवैध रूप से लिप्त हैं.



पैरट आईलैंड वास्तव में समुद्र के बीच मैंग्रोव की झाड़ियों पर अवस्थित है. यहाँ कोई जमीन नहीं, इसीलिए चाहकर भी बोट से नहीं उतर सकते. इन मैंग्रोव की झाड़ियों को तोतों ने कुतर-कुतर कर सम बना दिया है, ताकि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो. दूर से देखने पर यह हरे रंग का गलीचा लगता है. न तो एक पत्ती ऊपर, न एक पत्ती नीचे. वाकई, प्रकृति का अद्भुत नजारा.

...तभी एक तोते की टें-टें सुनाई दी. वह चारों तरफ एक चक्कर मरता है, फिर आवाज़ देता है-टें-टें. यह इशारा था सभी तोतों को बुलाने का. तभी दूसरी दिशा से आते दो तोते दिखाई दिए..टें-टें. फिर तो देखते ही देखते चारों तरफ से तोतों का झुण्ड दिखने लगा. बमुश्किल 15 मिनट के भीतर हजारों तोते आसमान में दिखने लगे. आसमान में कलाबाजियाँ करते, विभिन्न तरह की आकृति बनाते, एक झुण्ड से दुसरे झुण्ड में मिलते और फिर बड़ा झुण्ड बनाते तोते मानो अपनी एकता और कला का जीवंत प्रदर्शन कर रहे हों.

सबसे बड़ा अजूबा तो यह था कि कोई भी तोता मैंग्रोव पर नहीं बैठता, बस उसके चारों तरफ चक्कर लगाता और फिर आसमान में कलाबाजियाँ, मानो सब एक अनुशासन से बंधे हुए हों...और देखते ही देखते सारे तोते मैंग्रोव की झाड़ियों पर उतर गए. हरे रंग के मैंग्रोव पर हरे -हरे तोते, सब एकाकार से हो गए थे. चूँकि हमने उन्हें वहाँ उतरते देखा था, अत: उनकी उपस्थिति का भान हो रहा था. कोई सोच भी नहीं सकता कि मैंग्रोव की इन झाड़ियों पर हजारों तोते उपस्थित हैं. न जाने कितने द्वीपों से और दूर-दूर से ये तोते आते हैं और पूरी रात एक साथ बिताने के बाद फिर अगली सुबह मोती की तरह बिखरे द्वीपों की सैर पर निकल जाते हैं.

-कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 16 जून 2011

शब्दों की गति


कनाडा से प्रकाशित हिंदी-चेतना के जनवरी-मार्च , 2011 अंक में मेरी कविता 'शब्दों की गति' प्रकाशित हुई. इस कविता को साभार 'वेब दुनिया हिंदी' ने भी प्रकाशित किया है. आप भी पढ़ें-

कागज पर लिखे शब्द
कितने स्थिर से दिखते हैं
आड़ी-तिरछी लाइनों के बी‍च
सकुचाए-शर्माए से बैठे।

पर शब्द की नियति
स्थिरता में नहीं है
उसकी गति में है
और जीवंतता में है।

जीवंत होते शब्द
रचते हैं इक इतिहास
उनका भी और हमारा भी
आज का भी और कल का भी।

सभ्यता व संस्कृति की परछाइयों को
अपने में समेटते शब्द
सहते हैं क्रूर नियति को भी
खाक कर दिया जाता है उन्हें
यही प्रकृति की नियति।

कभी खत्म नहीं होते शब्द
खत्म होते हैं दस्तावेज
और उनकी सूखती स्याहियाँ
पर शब्द अभी-भी जीवंत खड़े हैं।

सोमवार, 13 जून 2011

कन्या-भ्रूण की हत्या कहाँ तक वैध ??

कन्याओं के प्रति विरक्ति सिर्फ भारत में हो, ऐसा नहीं है. यह रोग अन्य देशों में भी है. जो भारतीय अच्छी शिक्षा-दीक्षा पाकर विदेशों में बस गए, अभी भी अपनी रुढी मानसिकता से छुटकारा नहीं पा पा रहे हैं. तभी तो उनके लिए भी बेटा-बेटी का भेद बना हुआ है. गर्भ में बेटी के आते ही उसे ख़त्म कर देने में उनकी आत्मा कचोटती नहीं.


यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया द्वारा किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अमेरिका में भारतीय मूल की महिलाएं पुत्र की चाह में कन्या भ्रूण हत्या करा रही हैं। अध्ययन के मुताबिक महिलाएं कृत्रिम प्रजनन तकनीक इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) के दौरान सिर्फ नर भ्रूण को प्रत्यारोपित करा रही हैं। वह कन्या भ्रूण का गर्भपात करा देती हैं।

शोधकर्ताओं ने कैलिफोर्निया, न्यूजर्सी और न्यूयार्क में 65 आप्रवासी भारतीय महिलाओं का साक्षात्कार लिया, जिन्होंने सितंबर 2004 से दिसंबर 2009 के बीच लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रूण हत्याएं की। गौरतलब है कि भारत के विपरीत अमेरिका में लिंग निर्धारण वैध है। पर इस वैधता की आड में कन्या-भ्रूण की हत्या कहाँ तक वैध है, यह एक बड़ा सवाल जरुर है ??

बुधवार, 18 मई 2011

मेघा रे मेघा...

गर्मी का प्रकोप जोरों पर है. तापमान 40-45 से ऊपर जा रहा है. यहाँ तक कि पहाड़ और समुद्र के किनारे बसे इलाके भी इसकी विभीषिका से जूझ रहे हैं. अंडमान में तो पहले अप्रैल से अक्तूबर तक घनघोर बारिश होती थी, पर सुनामी ने ऐसा कहर ढाया कि ऋतु-चक्र ही बदल गया. मई माह आधा बीतने वाला है, पर बमुश्किल 4-5 दिन बारिश हुई होगी. इसे पर्यावरण-प्रदूषण का प्रकोप कहें या पारिस्थितकीय असंतुलन। पर गर्मी की तपिश ने हर व्यक्ति को रूला कर रख दिया है. वरुण देवता तो मानो पृथ्वी से रूठे हुए हैं. मसूरी, शिमला, पचमढ़ी जैसी जिन जगहों को अनुकूल मौसम के लिए जाना जाता है, वहाँ भी गर्मी का प्रकोप दिखाई दे रहा है। पंखे छोडिये अब बिना ए. सी. के कम नहीं चलता.

ऐसे में रूठे बादलों को मनाने के लिए लोग तमाम परंपरागत नुस्खों को अपना रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि बरसात और देवताओं के राजा इंद्र इन तरकीबों से रीझ कर बादलों को भेज देते हैं और धरती हरियाली से लहलहा उठती है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो इन्द्र देवता ही बता पायेंगें. इनमें सबसे प्रचलित नुस्खा मेंढक-मेंढकी की शादी है। मानसून को रिझाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में चुनरी ओढ़ाकर बाकायदा रीति-रिवाज से मेंढक-मेंढकी की शादी की जाती है। इनमें मांग भरने से लेकर तमाम रिवाज आम शादियों की तरह होते हैं। एक अन्य प्रचलित नुस्खा महिलाओं द्वारा खेत में हल खींचकर जुताई करना है। कुछ अंचलों में तो महिलाए अर्धरात्रि को अर्धनग्न होकर हल खींचकर जुताई करतीं हैं। बच्चों के लिए यह अवसर काले मेघा को रिझाने का भी होता है और शरारतें करने का भी। वे नंगे बदन जमीन पर लोटते हैं और प्रतीकात्मक रूप से उन पर पानी डालकर बादलों को बुलाया जाता है। एक अन्य मजेदार परम्परा में गधों की शादी द्वारा इन्द्र देवता को रिझाया जाता है। इस अनोखी शादी में इंद्र देव को खास तौर पर निमंत्रण भेजा जाता है। मकसद साफ है इंद्र देव आएंगे तो साथ मानसून भी ले आएंगे। गधे और गधी को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और शादी के लिए बाकायदा मंडप सजाया जाता है, शादी खूब धूम-धाम से होती है। बरसात के अभाव में मनुष्य असमय दम तोड़ सकता है, इस बात से इन्द्र देवता को रूबरू कराने के लिए जीवित व्यक्ति की शव-यात्रा तक निकाली जाती है। इसमें बरसात के लिए एक जिंदा व्यक्ति को आसमान की तरफ हाथ जोड़े हुए अर्थी में लिटा दिया जाता है। तमाम प्रक्रिया ‘दाह संस्कार‘ की होती है। ऐसा करके इंद्र को यह जताने का प्रयास किया जाता है कि धरती पर सूखे से यह हाल हो रहा है, अब तो कृपा करो।

इन परम्पराओं से परे कुछेक परम्पराएँ वैज्ञानिक मान्यताओं पर भी खरी उतरती हैं। ऐसा माना जाता है कि पेड़-पौधे बरसात लाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसी के तहत पेड़ों का लगन कराया जाता है। कर्नाटक के एक गाँव में इंद्र देवता को मनाने के लिए एक अनोखी परंपरा है। यहां नीम के पौधे को दुल्हन बनाया जाता है और अश्वत्था पेड़ को दूल्हा। पूरी हिंदू रीति रिवाज से शादी संपन्न की जाती है, जिसमें गाँव के सैकड़ों लोग हिस्सा हिस्सा लेते हैं. नीम के पेड़ को बाकायदा मंगलसूत्र भी पहनाया जाता है। लोगों का मानना है कि अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की शादी का आयोजन करने से झमाझम पानी बरसता है। इस सम्बन्ध में कई मान्यताएं भी हैं. मसलन, कहते हैं जब धूप भी हो और बारिस भी हो रही हो तो उस समय सियार का विवाह होता है. पर अब तो ऐसे दिन देखने को ऑंखें ही तरस गई हैं.


यह भी अजीब बात है कि, यह ईश्वरीय और कर्मकांडी आस्था भी तभी प्रबल होती है, जब आदमी पर मुसीबत पड़ती है. मनुष्य यह नहीं सोचता कि यदि बारिश नहीं हो रही तो इसका कारण वह स्वयं है और जरुरत उसके निवारण की है. जब तक मानव, प्रकृति से शादी (तदाद्मय) नहीं करेगा, बरसात के लिए तरसेगा ही. अब इसे परम्पराओं का प्रभाव कहें या मानवीय बेबसी, पर अंततः कुछ दिनों के लिए बारिश होती है लेकिन हर साल यह मनुष्य व जीव-जन्तुओं के साथ पेड़-पौधों को भी तरसाती हैं। बेहतर होता यदि हम मात्र एक महीने सोचने की बजाय साल भर विचार करते कि किस तरह हमने प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है, उसके आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया है, तो निश्चिततः बारिश समय से होती और हमें व्यर्थ में परेशान नहीं होना पड़ता। अभी भी वक्त है, यदि हम चेत सके तो इस पारिस्थिकीय-प्रकोप से बचा जा सकता है अन्यथा हर वर्ष इसी तरह इन्द्र देवता को मानते रहेंगें और इन्द्र देवता यूँ ही नखरे दिखाते रहेंगें !!

सोमवार, 9 मई 2011

प्रिंट-मीडिया में 'शब्द-शिखर' की 25वीं चर्चा


'शब्द शिखर' पर 26 अप्रैल, 2011 को प्रस्तुत पोस्ट 'मानव ही बन गया है खतरा... ' को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में आज 09 मई, 2011 को 'अस्तित्व का संकट' शीर्षक से स्थान दिया गया है. जनसत्ता में तीसरी बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और इससे पूर्व 'शब्द शिखर' पर 21 अक्तूबर, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'कहाँ गईं वो तितलियाँ' को जनसत्ता के ‘समांतर’ स्तम्भ में 7 दिसंबर, 2010 को 'गुम होती तितली' शीर्षक एवं अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च, 2010) को प्रस्तुत पोस्ट 'महिला होने पर गर्व' को 12 मार्च, 2011 को 'किसका समाज' शीर्षक से स्थान दिया गया था. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 25वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

चित्र साभार : http://blogsinmedia.com/

रविवार, 8 मई 2011

मदर्स डे पर कृष्ण कुमार यादव की कविता : माँ

आज सुबह कुछ पहले ही नींद खुल गई. मन किया कि बाहर जाकर बैठूं. अभी सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिए थे पर ढेर सारी चिड़िया कलरव कर रही थीं. मौसम में हलकी सी ठण्ड थी, शायद रात में बारिश हुई थी. अचानक दिमाग में ख्याल आया कि हम लोग भी घर से कितने दूर हैं. एक ऐसी जगह जहाँ सारे रिश्ते बेगाने हैं. एक-दो साल बाद हम लोग भी यहाँ से चले जायेंगे. इन सबके बीच घर की याद आई तो मम्मी का चेहरा आँखों के सामने घूम गया. कभी सोचा भी ना था की मम्मी से एक दिन इतने दूर जायेंगे, पर दुनिया का रिवाज है. शादी के बाद सबको अपनी नई दुनिया में जाना होता है, बस रह जाती हैं यादें. पर यादें जीवन भर नहीं छूटतीं , हमें अपने आगोश में लिए रहती हैं. ..पर आज पता नहीं क्यों सुबह-सुबह मम्मी की खूब याद आ रही थी. सोचा कि फोन करूँ तो याद आया कि वहाँ तो अभी सभी लोग सो रहे होंगे. सामने नजर दौडाई तो पतिदेव कृष्ण कुमार जी का काव्य-संग्रह 'अभिलाषा' दिखी. पहला पन्ना पलटते ही 'माँ' कविता पर निगाहें ठहर गईं. एक बार नहीं कई बार पढ़ा. वाकई यह कविता दिल के बहुत करीब लगी. अंतर्मन के मनोभावों को बखूबी संजोया गया है इस अनुपम कविता में. सौभाग्यवश आज मई माह का दूसरा रविवार है और इसे दुनिया में मदर्स डे के रूप में मनाया जाता है. तो आज इस विशिष्ट दिवस पर माँ को समर्पित यही कविता आप लोगों के साथ शेयर कर रही हूँ-


मेरा प्यारा सा बच्चा
गोद में भर लेती है बच्चे को
चेहरे पर नजर न लगे
माथे पर काजल का टीका लगाती है
कोई बुरी आत्मा न छू सके
बाँहों में ताबीज बाँध देती है।

बच्चा स्कूल जाने लगा है
सुबह से ही माँ जुट जाती है
चैके-बर्तन में
कहीं बेटा भूखा न चला जाये।
लड़कर आता है पड़ोसियों के बच्चों से
माँ के आँचल में छुप जाता है
अब उसे कुछ नहीं हो सकता।

बच्चा बड़ा होता जाता है
माँ मन्नतें माँगती है
देवी-देवताओं से
बेटे के सुनहरे भविष्य की खातिर
बेटा कामयाबी पाता है
माँ भर लेती है उसे बाँहों में
अब बेटा नजरों से दूर हो जायेगा।

फिर एक दिन आता है
शहनाईयाँ गूँज उठती हैं
माँ के कदम आज जमीं पर नहीं
कभी इधर दौड़ती है, कभी उधर
बहू के कदमों का इंतजार है उसे
आशीर्वाद देती है दोनों को
एक नई जिन्दगी की शुरूआत के लिए।

माँ सिखाती है बहू को
परिवार की परम्परायें व संस्कार
बेटे का हाथ बहू के हाथों में रख
बोलती है
बहुत नाजों से पाला है इसे
अब तुम्हें ही देखना है।

माँ की खुशी भरी आँखों से
आँसू की एक गरम बूँद
गिरती है बहू की हथेली पर।


( कृष्ण कुमार यादव जी के प्रथम काव्य-संग्रह "अभिलाषा" से साभार)

सोमवार, 2 मई 2011

हिंदी ब्लागिंग से आशाएं बढ़ा गया दिल्ली में हुआ ब्लागर्स सम्मलेन

ब्लागिंग को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने में तमाम प्रक्रियाएं परिलक्षित हो रही हैं, इसी क्रम में हिंदी ब्लागिंग ने भी वर्ष 2003 में आरंभ होकर लगभग 8 वर्ष का सफ़र पूरा कार लिया है. आज 30,000 से ज्यादा लोग हिंदी ब्लागिंग से जुड़े हुए हैं. इनमें प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर समाज के हर वर्ग, पेशे से जुड़े लोग अपनी भावनाओं को न सिर्फ चिट्ठों पर अभिव्यक्त कर रहे हैं, बल्कि उसे लोगों के साथ बाकायदा साझा करके नए विमर्शों को भी जन्म दे रहे हैं. ब्लागिंग और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स का क्रेज इतना बढ़ चुका है कि वह तमाम देशों में चल रहे क्रांति और आंदोलनों को भी गंभीर धार दे रही है. हाल ही में भारत में अन्ना हजारे के आन्दोलन के दौरान भी इसकी प्रखर भूमिका देखने को मिली. ऐसे में ब्लागिंग से जुड़ा कोई भी कार्यक्रम अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है.



हिंदी साहित्य निकेतन की स्वर्ण जयंती पर हिंदी साहित्‍य निकेतन, परिकल्‍पना डॉट कॉम और नुक्‍कड़ डॉट कॉम की त्रिवेणी द्वारा हिंदी भवन, नई दिल्ली में 30 अप्रैल, 2011 को आयोजित कार्यक्रम को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. बतौर मुख्यमंत्री उत्‍तराखंड के मुख्‍यमंत्री डा0 रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने जब अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि, हिंदी भाषा जब चहुं ओर से तमाम थपेड़े खा रही हो, अपने ही घर में अपमानित हो रही हो और हिंदी में सृजन करने वाला अपने आप को उपेक्षित महसूस कर रहा हो, ऐसे में इस प्रकार के कार्यक्रम की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है, तो मुख्यमंत्री से परे वे एक साहित्यकार के रूप में ही अपना दुःख व्यक्त कर रहे थे. आखिर वे भी साहित्य में उसी भावभूमि के पोषक हैं, जिसका मानना है कि, कल्‍पना स्‍वर्ग की तरंगों का अहसास कराती है, वहीं सृजन हमारे सामाजिक सरोकार को मजबूती देता है। ऐसे में एक प्रभावी मंच से निशंक जी ने उक्त उद्गार व्यक्त कर हिंदी ब्लागिंग से नई आशाएं भी व्यक्त की हैं, जिनका कि सम्मान किया जाना चाहिए.




इस अवसर पर अविनाश वाचस्‍पति और रवीन्‍द्र प्रभात द्वारा संपादित हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की पहली मूल्‍यांकनपरक पुस्‍तक ‘हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग : अभिव्‍यक्ति की नई क्रांति’, का लोकार्पण जहाँ हिंदी ब्लागिंग को नए आयाम दिखता है, वहीँ यह भी सचेत करता है कि अभिव्यक्ति की इस नई क्रांति को अपने दलदलों से भी बचकर रहना होगा. क्योंकि इस विधा के उन्नयन के साथ ही इस पर हमले भी तेज हो रहे हैं. फ़िलहाल रवीन्द्र प्रभात जी की पुस्तक ''हिंदी ब्लागिंग का इतिहास'' का भी लोगों को इंतजार बना रहेगा, जिसके इस कार्यक्रम में दिखने की सम्भावना थी.



दो सत्रों में संपन्‍न इस कार्यक्रम का सशक्त पक्ष रहा, परिकल्‍पना डॉट कॉम की ओर से देश विदेश के 51 चर्चित और श्रेष्‍ठ तथा नुक्‍कड़ डॉट कॉम की ओर से हिंदी ब्‍लॉगिंग में विशिष्‍टता हासिल करने वाले 13 ब्‍लॉगरों को सारस्‍वत सम्‍मान प्रदान किया जाना. इससे यह कार्यक्रम और भी समावेशी और भागीदारीपूर्ण हो गया. जहाँ पहले सत्र की अध्‍यक्षता हास्‍य व्‍यंग्‍य के लोकप्रिय हस्‍ताक्षर एवं चर्चित ब्लागर अशोक चक्रधर ने की वहीँ मुख्‍य अतिथि का गुरुतर दायित्व संभाला वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. रामदरश मिश्र ने और विशिष्‍ट अतिथि रहे प्रभाकर श्रोत्रिय। प्रमुख समाजसेवी विश्‍वबंधु गुप्‍ता और डायमंड बुक्‍स के संचालक नरेन्‍द्र कुमार वर्मा ने भी मंचासीन होकर कार्यक्रम की शोभा बढाई.



इस अवसर पर ब्लागिंग के बारे में भी गंभीर विमर्श हुआ. बकौल अशोक चक्रधर -''हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग ने सचमुच समाज में एक नई क्रांति का सूत्रपात किया है क्‍योंकि पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में साहित्‍य और संस्‍कृति के पेज संकुचित होते जा रहे हैं और उनकी अभिव्‍यक्ति को धार दे रही है हिन्‍दी ब्‍लॅगिंग। ऐसे कार्यक्रमों से निश्चित रूप से हिंदी का विकास होगा और हिन्‍दी अंतरराष्‍ट्रीय फलक पर अग्रणी भाषा के रूप में प्रतिस्‍थापित होगी।'' वहीँ डॉ. रामदरश मिश्र इस विधा के प्रति आशान्वित होते दिखे-''जब मैंने साहित्य सृजन करना शुरु किया था तो मैं यह महसूस करता था कि कलम सोचती है और आज़ हिन्दी ब्लोगिंग के इस महत्वपूर्ण दौर मे यह कहने पर विवश हो गया हूँ कि उंगलिया भी सोचती है।'' हिंदी के प्रखर साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय ने तो अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम 'ब्लागिंग' को वर्तमान परिवेश और घटना क्रम में लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति से जोड़कर देखा और कहा कि हिंदी ब्लॉगिंग का तेजी से विकास हो रहा है, तमाम साधन और सूचना की न्यूनता के बावजूद यह माध्यम प्रगति पथ पर तीब्र गति से अग्रसर है, तकनीक और विचारों का यह साझा मंच कुछ बेहतर करने हेतु प्रतिबद्ध दिखाई दे रहा है । पूरे विमर्श के दौरान यह बात खुलकर सामने आई कि, हिंदी ब्‍लॉगिंग में सामाजिक स्‍वर और सरोकार पूरी तरह परिलक्षित हो रहा है। कई ऐसे ब्‍लॉगर हैं जो सामाजिक जनचेतना को हिंदी ब्‍लॉगिंग से जोड़ने का महत्‍वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। वस्तुत: यह दुनिया विचारों की दुनिया है और सभी ब्लागर्स की कोशिश होनी चाहिए कि विचार शून्य में नहीं, बल्कि आम आदमी से जुड़कर आगे आएं।

इस कार्यक्रम के लिए परिकल्पना और ब्लागोत्सव जैसी कल्पनाओं को मूर्त रूप देकर 'अनेक ब्लॉग नेक हृदय' की बात कहने वाले लखनऊ शहर के ब्लागर रवीन्द्र प्रभात और नुक्कड़ सहित तमाम ब्लॉगों के कर्ता-धर्ता अविनाश वाचस्पति और हिंदी साहित्य निकेतन के मालिक और 'शोध-दिशा' पत्रिका के संपादक डा. गिरिजा शरण अग्रवाल सहित उनकी पूरी टीम को साधुवाद ! आशा की जानी चाहिए कि इस तरह के कार्यक्रम/सम्मलेन भविष्य में भी होते रहेंगें और हिंदी ब्लागिंग को नए आयामों के साथ नई दिशा भी दिखाएंगें !!

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इस अवसर पर हिन्दी ब्लॉगिंग के उत्‍थान में अविस्मरणीय योगदान हेतु 51 हिंदी ब्लॉगरों को ''हिंदी साहित्य निकेतन परिकल्पना सम्मान-2010'' से सम्मानित किया गया, जिसके अंतर्गत स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र, पुस्तकें और एक निश्चित धनराशि भी दी गई.

1. वर्ष का श्रेष्ठ नन्हा ब्लॉगर – अक्षिता (पाखी), पोर्टब्लेयर
2. वर्ष के श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट – श्री काजल कुमार, दिल्ली
3. वर्ष की श्रेष्ठ कथा लेखिका – श्रीमती निर्मला कपिला, नांगल (पंजाब)
4. वर्ष के श्रेष्ठ विज्ञान कथा लेखक – डॉ. अरविन्द मिश्र, वाराणसी
5. वर्ष की श्रेष्ठ संस्मरण लेखिका – श्रीमती सरस्वती प्रसाद, पुणे
6. वर्ष के श्रेष्ठ लेखक – श्री रवि रतलामी, भोपाल
7. वर्ष की श्रेष्ठ लेखिका (यात्रा वृतान्त) – श्रीमती शिखा वार्ष्णेय, लंदन
8. वर्ष के श्रेष्ठ लेखक (यात्रा वृतान्त) – श्री मनोज कुमार, कोलकाता
9. वर्ष के श्रेष्ठ चित्रकार – श्रीमती अल्पना देशपांडे, रायपुर
10. वर्ष के श्रेष्ठ हिन्दी प्रचारक – श्री शास्त्री जे.सी. फिलिप, कोच्ची, केरल
11. वर्ष की श्रेष्ठ कवयित्री – श्रीमती रश्मि प्रभा, पुणे
12. वर्ष के श्रेष्ठ कवि – श्री दिवि‍क रमेश, दिल्ली
13. वर्ष की श्रेष्ठ सह लेखिका – सुश्री शमा कश्यप, पुणे
14. वर्ष के श्रेष्ठ व्यंग्यकार – श्री अविनाश वाचस्पति, दिल्ली
15. वर्ष की श्रेष्ठ युवा गायिका – सुश्री मालविका, बैंगलोर
16. वर्ष के श्रेष्ठ क्षेत्रीय लेखक – श्री संजीव तिवारी, दुर्ग (म.प्र.)
17. वर्ष के श्रेष्ठ क्षेत्रीय कवि – श्री एम. वर्मा, वाराणसी
18. वर्ष के श्रेष्ठ गजलकार – श्री दिगम्बर नासवा, दुबई
19. वर्ष के श्रेष्ठ कवि (वाचन) – श्री अनुराग शर्मा, पिट्सबर्ग अमेरिका
20. वर्ष की श्रेष्ठ परिचर्चा लेखिका – श्रीमती प्रीति मेहता, सूरत
21. वर्ष के श्रेष्ठ परिचर्चा लेखक – श्री दीपक मशाल, लंदन
22. वर्ष की श्रेष्ठ महिला टिप्पणीकार – श्रीमती संगीता स्वरूप, दिल्ली
23. वर्ष के श्रेष्ठ टिप्पणीकार – श्री हिमांशु पाण्डेय, सकलडीहा (यू.पी.)
24-25-26. वर्ष की श्रेष्ठ उदीयमान गायिका – खुशबू/अपराजिता/इशिता, पटना (संयुक्त रूप से)
27. वर्ष के श्रेष्ठ बाल साहित्यकार – श्री जाकिर अली ‘रजनीश’, लखनऊ
28. वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार (आंचलिक) – श्री ललित शर्मा, रायपुर
29. वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार (गायन) – श्री राजेन्द्र स्वर्णकार, बीकानेर, राजस्थान
30-31. वर्ष के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार – डॉ. रूपचंद्र शास्त्री ‘मयंक’, खटीमा एवं आचार्य संजीव वर्मा सलिल, भोपाल (संयुक्त रूप से)
32. वर्ष की श्रेष्ठ देशभक्ति पोस्ट – कारगिल के शहीदों के प्रति ( श्री पवन चंदन)
33. वर्ष की श्रेष्ठ व्यंग्य पोस्ट – झोलाछाप डॉक्टर (श्री राजीव तनेजा)
34. वर्ष के श्रेष्ठ युवा कवि – श्री ओम आर्य, सीतामढ़ी बिहार
35. वर्ष के श्रेष्ठ विचारक – श्री जी.के. अवधिया, रायपुर
36. वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक – श्री गिरीश पंकज, रायपुर
37. वर्ष की श्रेष्ठ महिला चिन्तक – श्रीमती नीलम प्रभा, पटना
38. वर्ष के श्रेष्ठ सहयोगी – श्री रणधीर सिंह सुमन, बाराबंकी
39. वर्ष के श्रेष्ठ सकारात्मक ब्लॉगर (पुरूष) – डॉ. सुभाष राय, लखनऊ (उ0प्र0)
40. वर्ष की श्रेष्ठ सकारात्मक ब्लॉगर (महिला) – श्रीमती संगीता पुरी, धनबाद
41. वर्ष के श्रेष्ठ तकनीकी ब्लॉगर – श्री विनय प्रजापति, अहमदाबाद
42. वर्ष के चर्चित उदीयमान ब्लॉगर – श्री खुशदीप सहगल, दिल्ली
43. वर्ष के श्रेष्ठ नवोदित ब्लॉगर – श्री राम त्यागी, शिकागो अमेरिका
44. वर्ष के श्रेष्ठ युवा पत्रकार – श्री मुकेश चन्द्र, दिल्ली
45. वर्ष के श्रेष्ठ आदर्श ब्लॉगर – श्री ज्ञानदत्त पांडेय, इलाहाबाद
46. वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉग शुभचिंतक – श्री सुमन सिन्हा, पटना
47. वर्ष की श्रेष्ठ महिला ब्लॉगर – श्रीमती स्वप्न मंजूषा ‘अदा’, अटोरियो कनाडा
48. वर्ष के श्रेष्ठ ब्लॉगर – श्री समीर लाल ‘समीर’, टोरंटो कनाडा
49. वर्ष की श्रेष्ठ विज्ञान पोस्ट – भविष्य का यथार्थ (लेखक – जिशान हैदर जैदी)
50. वर्ष की श्रेष्ठ प्रस्तुति – कैप्टन मृगांक नंदन एण्ड टीम, पुणे
51. वर्ष के श्रेष्ठ लेखक (हिन्दी चिट्ठाकारी विषयक पोस्ट) – श्री प्रमोद ताम्बट, भोपाल

इसके अलावा नुक्कड़ डाट काम की तरफ से भी 'हिन्‍दी ब्‍लॉग प्रतिभा सम्‍मान-2011' के अंतर्गत 13 विशिष्ट ब्लॉगरों को हिंदी ब्लॉगिंग में दिए जा रहे विशेष योगदान के लिए सम्मानित किया गया-

(1) श्री श्रीश शर्मा (ई-पंडित), तकनीकी विशेषज्ञ, यमुनानगर (हरियाणा)
(2) श्री कनिष्क कश्यप, संचालक ब्लॉगप्रहरी, दिल्ली
(3) श्री शाहनवाज़ सिद्दिकी, तकनीकी संपादक, हमारीवाणी, दिल्ली
(4) श्री जय कुमार झा, सामाजिक जन चेतना को ब्लॉगिंग से जोड़ने वाले ब्लॉगर, दिल्ली
(5) श्री सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी, महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
(6) श्री अजय कुमार झा, मीडिया चर्चा से रूबरू कराने वाले ब्लॉगर, दिल्ली
(7) श्री रविन्द्र पुंज, तकनीकी विशेषज्ञ, यमुनानगर (हरियाणा)
(8) श्री रतन सिंह शेखावत, तकनीकी विशेषज्ञ, फरीदाबाद (हरियाणा )
(9) श्री गिरीश बिल्लौरे ‘मुकुल’, वेबकास्ट एवं पॉडकास्‍ट विशेषज्ञ, जबलपुर
(10) श्री पद्म सिंह, तकनीकी विशेषज्ञ, दिल्ली
(11) सुश्री गीताश्री, नारी विषयक लेखिका, दि‍ल्ली
(12) श्री बी एस पावला,ब्लॉग संरक्षक, भिलाई (म.प्र.)
(13) श्री अरविन्द श्रीवास्तव, समालोचना, मधेपुरा (बिहार)

................सभी सम्मानित ब्लॉगरों को बधाई !!

(चित्र में : वर्ष का श्रेष्ठ नन्हा ब्लॉगर के तहत बिटिया अक्षिता (पाखी) की तरफ से सम्मान ग्रहण करते उनके चाचू श्री अमित कुमार यादव, जो की 'युवा-मन' ब्लॉग के संयोजक भी हैं.पायलटों की हड़ताल के चलते ऐन वक़्त पर अंडमान से फ्लाईट कैंसिल हो जाने के चलते हम कार्यक्रम में शामिल न हो सके. अत: अक्षिता की तरफ से यह सम्मान उनके चाचू श्री अमित कुमार ने ग्रहण किया.)



(अन्य फोटोग्राफ का नजारा यहाँ लें)

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मानव ही बन गया है खतरा...


अस्तित्व की लड़ाई का सिद्धांत इस जग में बहुत पुराना है. एक तरफ प्रकृति का प्रकोप, वहीँ दूसरी तरफ सभ्यता का प्रकोप. वनमानुष, जिन्हें मानवों का पूर्वज मन जाता है अब मानव के चलते ही भय महसूस कर रहे हैं. एक तरफ मानव बेटियों को गर्भ में ख़त्म कर रहा हैं, वहीँ मानवी लालच के चलते अब पशु-पक्षी भी तंग हो चुके हैं. कोई अपना घोंसला उजड़े जाने से त्रस्त है तो कोई जंगल में सभ्यता की आड में फैलते दोहन से.

मेघालय के गारो हिल्स में हूलाॅक गिब्बन (वनमानुष) तो मन की इन्हीं करतूतों के चलते अपनी ममता का गला तक घोंट दे रहे  हैं। नए सदस्य के जन्म लेते ही पिता दिल पर पत्थर रख उसे जमीन पर पटक देता है। आखिर, दिनों-ब-दिन सिमटते जंगल और घटते भोजन पर नई पीढ़ी कैसे जिंदा रहेगी ? वनमानुषों ने इसी सवाल का यह निर्मम हल निकाला है। याद कीजिये कंस द्वारा कृष्ण की खोज में की गई हत्याएं, पर यहाँ तो अपने अस्तित्व पर ही खतरा महसूस हो रहा है. साल दर साल अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे वनमानुषों की संख्या पिछले 25 वर्ष में 90 फीसदी कम हो गई है। औलाद से अजीज कुछ नहीं, इंसान हो या जानवर संतान सुख का भाव सबमें एक है। परन्तु सभ्यता के नाम पर  मची विकास की अंधी होड़ से विनाश की कगार पर पहुंच चुके वनमानुष शायद जिंदगी की आस ही छोड़ चुके हैं। ऐसे में इस असुरक्षा के भाव ने ही उन्हें अपनी ही संतान की जान का दुश्मन बना दिया है.

देहरादून स्थित प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण विभाग की टीम हूलाॅक गिब्बन पर अब तो बाकायदा शोध कर रही है। शोध के नतीजे बताते हैं कि वनमानुषों के व्यवहार में आए इस परिवर्तन का असर उनकी प्रजनन दर पर भी पड़ा है। मेघालय के जंगलों में किए जा रहे अध्ययन के निष्कर्ष से साफ है कि तेजी से कट रहे जंगलों से वनमानुषों का रहन-सहन भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।हूलाॅक गिब्बन की प्रजनन की रफ्तार घटने से उनके अस्तित्व पर सवाल खड़े हो गए हैं। यहां तक कि वे अपने बच्चों के कातिल बन बैठे हैं। जन्म लेते ही नर नवजात की पटक कर हत्या कर देता है। वर्ष 1990 में असम में इनकी संख्या लगभग 130 थी, जबकी आज यह घटकर 80 हो गई है। पिछले आंकड़ों पर गौर करें तो मेघालय सहित पूर्वोत्तर भारत के अन्य राज्यों में 25 साल पहले करीब 70 हजार के आसपास वनमानुष थे, जो आज सिर्फ तकरीबन 600 रह गए हैं।

ऐसे में जरुरत है कि सभ्यता की  आड में प्रकृति का अन्धादोहन करने से बचा जाय. आंगन की गौरैया, फूलों पर मंडराती तितलियाँ, पशु-लाशों पर इतराते गिद्ध से लेकर राष्ट्रीय पशु बाघ तक खतरे में हैं. हर रोज इनके कम होने या विलुप्त होने की ख़बरें आ रही हैं, पर हम हाथ पर हाथ धरे रहकर बैठे हैं. प्रकृति और पर्यावरण से मानव का अभिन्न नाता है. यदि प्रकृति का विकास चक्र यूँ ही गड़बड़ होता रहा तो न सिर्फ हम अपनी जैव-विविधता खो देंगें, बल्कि सुनामी, कटरीना के झंझावातों से भी रोज लड़ते रहेंगें. कंक्रीट के घरों में बैठकर चाँद को छूने की ख्वाहिश रखने वाला मानव यह क्यों भूल जाता है कि उसे अपने साथ ही पशु-पक्षियों-पेड़-पौधों के लिए भी सोचना चाहिए. इस जहान में प्रकृति ने उनके लिए भी जगह मयस्सर की है, और यदि ऐसे ही हम उनका हक़ छीनकर उन्हें मौत के मुंह में धकेलते रहेंगें तो मानवता को भी मौत में मुंह में जाने से कोई नहीं रोक सकता !! 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

किरण बेदी को क्यों छोड़ दिया अन्ना जी ??

पुण्य की गंगा बह रही है, लगे हाथ सभी लोग हाथ धोकर पुण्यात्मा बन गए. इससे पहले किये गए उनके सारे पाप धुल गए...कुछ ऐसे ही लगा अपनी पिछली पोस्ट 'कौन सी क्रांति ला रहे हैं अन्ना ?' पर लिखे कुछ कमेंटों को पढ़कर. कितनों ने तो बिना पढ़े ही ख़ारिज कर दिया और किसी ने नकारात्मक मानसिकता का आरोप जड़ दिया.

एक सज्जन ने कहा कि देशवासी परिवर्तन चाहते हैं और इसीलिये भारत से भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले सभी के साथ हैं।....शायद इन सज्जन को पता नहीं कि हर राजनैतिक दल नारों में भ्रष्टाचार मिटाने की बात करता है, पर मात्र बात करने से भ्रष्टाचार नहीं मिटता, उसके लिए वैसे कर्मों की भी जरुरत होती है.

एक सज्जन ने कहा कि, देश की स्वाधीनता के लिए भी लोग अपने पूर्व नेताओं को छोड़कर महात्मा गाँधी के पीछे लग गये थे--हुआ न चमत्कार!..एक अन्य सज्जन ने जोड़ा कि -'' पर ये मत भूलिये कि एक बार फ़िर एक बूढ़ा शरीर जीने की राह दे रहा है, उसने बता दिया किया कि बदलाव के लिये गाँधी कितने ज़रूरी थे हैं और रहेंगे !''.....शायद अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दें तो पता चलेगा कि जो लोग 'गाँधी के पीछे लग गये थे' वे उन्हें ही पीछे छोड़कर आज तक उनके नाम पर राजनीति कर रहे हैं और उनके नाम की रोटी खा रहे हैं. गाँधी जी का बदलाव आज कहीं नहीं दिख रहा है. यही हाल तो जे.पी. के साथ भी हुआ था. अपनों ने ही वैचारिक रूप से पीठ में छुरा घोंप दिया.

एक सज्जन ने हुंकार भरी है कि-'' तथ्य यह है कि आम जनता नेता/आइ.ए.ऐस/आइ.पी.ऐस के निकम्मे, भ्रष्ट और प्रशासनहीनतंत्र से त्रस्त है और परिवर्तन चाहती है। रिश्वत से लेकर आतंकवाद तक, देश की अधिकांश समस्याओं की जड में सत्ता पर काबिज़ यही निकम्मा/भ्रष्ट वर्ग है।''...मानो ये नेता, अधिकारी आसमान से टपकते हैं या दूसरे देश से आयातित होकर आए हैं. किरण बेदी के बारे में क्या कहेंगें. जाति-धर्म-क्षेत्र-पैसा के नाम पर वोट देनी वाली जनता के बारे में इन सज्जन का मौन अखरता है. आखिर जब जड़ में ही दीमक लगे हुए हैं तो वृक्ष कहाँ से मजबूत होगा ? एक देशभक्त ने क्रांतिकारी लहजों में लिखा है कि- ''अगर हम सिर्फ सोचते ही रहे तो ये भ्रष्टाचार का दानाव इतना बड़ा हो जाएगा कि आने वाले कल हमारे ही बच्चों को निगल जाएगा .''...हम भी तो वही कह रहे हैं कि सोचिये नहीं कि कोई मसीहा आयेगा, खुद कदम उठाइए.

''अन्ना को व्यक्ति नहीं एक विचारधारा मानिए तो आपके आलेख का नजरिया बदल जायेगा...'' एक सलाह यह भी दी गई है, पर सवाल मानने का नहीं कुछ करने का है. दुर्भाग्यवश इस देश में हम सिर्फ मानते, जानते, चर्चा करते और लोगों की हाँ में हाँ मिलते हैं. एक सज्जन ने तर्क दिया है कि-'' लेकिन क्या ये पहली बार नहीं हुआ सरकार को जनता की आवाज़ के सामने घुटने टेकने पड़े.''...जनाब! हर पाँच साल बाद ये नेता हमारे सामने घुटने टेकते हैं, पर तब हम अपनी जाती-धर्म-स्वार्थ देखते हैं. उसी समय क्यों नहीं चेत जाते ?

एक आलोचक ने लिखा कि -''जिन्हें कोई काम करना नहीं आता वे आलोचक बन जाते हैं। समस्या का पता सबको है। समाधान खोजने की जहमत उठाना कम लोग चाहते हैं।''...आप भी तो मेरी ही बात दुहरा रहे हैं. समाधान खोजने की बजाय हम मसीहों की तलाश करते हैं कि एक दिन वो आयेगा और हमको मुक्ति दिला जायेगा.

..ऐसी ही ढेर सारी प्रतिक्रियाएं मेरी पोस्ट पर आईं, पर सबमें हुजूम की हाँ में हाँ मिलाने वाला देशभक्त, अन्यथा देशद्रोही जैसी भावना ही चमकी. बिना बात को समझे किसी ने नकारात्मकवादी तो किसी ने सहमति जताने वालों की ही उथले सोच का दर्शाकर अपना गंभीर परिचय दे दिया. सवाल अभी भी है की हम अन्ना की व्यक्ति पूजा कर रहे हैं या विचारधारा पर जोर दे रहे हैं. अपने बारे में सुनने में इतने अ-सहिष्णु तो गाँधी जी भी नहीं थे, फिर ये अन्ना के समर्थक ??

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बाबा रामदेव ने कहा कि सिविल सोसाईटी के नाम पर जिन पाँच नामों को रखा गया है, उनमें पिता-पुत्र को रखना अनुचित है तो हंगामा मच गया..आखिर क्या गलत कहा बाबा रामदेव ने ? जिस समिति को 'समावेशी' की संज्ञा दी जा रही है उसमें किरण बेदी को रखने पर भला क्या आपत्ति थी. इस पूरी समिति में एक भी महिला का ना होना अखरता है. किरण बेदी को शामिल कर जहाँ इसे वास्तविक रूप में समावेशी बनाया जा सकता था, वहीँ ब्यूरोक्रेट के रूप में उन्हें अन्य सदस्यों से ज्यादा व्यावहारिक अनुभव भी है. अन्ना हजारे जी का यह कहना कि -''भ्रष्टाचार विरोधी कानून का प्रारूप तैयार करने के लिए अनुभवी और क़ानूनी विशेषज्ञ कि आवश्यकता थी'', तो क्या किरण बेदी के अनुभवों पर बाप-बेटे का अनुभव भरी पड़ गया. दुर्भाग्यवश, अन्ना हजारे अपनी पहली ही कोशिश में विवादों में आ गए. एक महिला और अनुभवी व्यक्तित्व किरण बेदी की उपेक्षा कर और बाप-बेटे की जोड़ी को तरजीह देकर अन्ना किस भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से लड़ने जा रहे हैं. वह किस आधार पर दूसरों पर अंगुली उठायेंगें ? यह जरुर बहस का विषय बन गया है. उन्होंने बाप-बेटे कि जोड़ी को तरजीह देकर सोनिया गाँधी और तमाम नेताओं के के लिए इतनी तो सहूलियत पैदा कर दी कि उनके वंशवाद पर अन्ना द्वारा भविष्य में कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगने जा रहा ? दूसरे समिति का अध्यक्ष नागरिक समाज से होने कि बात अस्वीकार कर सरकार ने अपने संकट मोचक प्रणव मुखर्जी को अध्यक्ष बना दिया. वैसे भी प्रणब दा विवादों को सम्मानजनक ढंग से सुलझाने के लिए ही तो जाने जाते हैं.

एक सवाल उन लोगों से जिन्होंने मेरी इस बात पर आपत्ति दर्ज की की- 'आज अन्ना हट जाएँ तो हर कोई अपने बैनर और कैंडल उठाकर अपनी खोल में सिमट जायेगा. हम भीड़ का हिस्सा बनकर नारा लगाना जानते हैं, पर खुद क्यों कोई पहल क्यों नहीं करते ?'...आखिर क्यों अन्ना के अनशन ख़त्म करते ही वे हट गए. क्यों नहीं अपने-अपने क्षेत्रों में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लड़ने बैठ गए. अन्ना ने यदि अलख जगाई तो उस आन्दोलन का प्रभाव तब दिखता जब हर क्षेत्र -जनपद -राज्य में भ्रष्टाचार के विरोधी अन्ना के बिना भी इस मुहिम को आगे बढ़ाते. पर यहाँ तो राजनैतिक दलों की रैली की तरह अन्ना के उठते ही भीड़ अपना बोरिया-बिस्तर लेकर घर चले गए. यदि वाकई इस भीड़ में जन चेतना पैदा करने की ताकत होती तो वह रूकती नहीं बल्कि अन्ना की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए समाज के निचले स्तर तक जाकर कार्य करती और जन-जागरूकता फैलाती. आन्दोलन के लिए निरंतरता चाहिए, न की तात्कालिकता.

वैसे भी इस देश में तमाम नियम-कानून हैं, एक कानून और सही ? कानूनों से यदि भ्रष्टाचार मिटता तो हमें यह दिन देखने को नहीं मिलता. अधिसूचना पर खुश होने वाले यह क्यों भूल रहे हैं कि हमारे यहाँ जब किसी प्रकरण को ख़त्म करना होता है तो समिति बना दी जाती है. अभी तक तो उन्हीं समितियों का नहीं पता जो पिछले सालों में गठित हुई थीं, फिर यह नई समिति, जिसकी रिपोर्ट शायद बाध्यकारी भी नहीं होगी. इस खुशफहमी में रहने की कोई जरुरत नहीं कि लोकपाल के पास ऐसी कोई जादुई छड़ी होगी कि वह उसे घुमायेगा और देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा. कानूनों से भ्रष्टाचार नहीं ख़त्म होता, बल्कि इसके लिए इच्छा शक्ति की जरुरत होती है. जरुरी है कि लोग स्वत: स्फूर्त प्रेरित हों और वास्तविक व्यवहार में भी वैसा ही आचरण करें.

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

कौन सी क्रांति ला रहे हैं अन्ना ??

आजकल अन्ना हजारे चर्चा में हैं और साथ ही भ्रष्टाचार और जन लोकपाल को लेकर उनका अभियान भी. चारों तरफ अन्ना के गुणगान हो रहे हैं, कोई उन्हें गाँधी बता रहा है तो कोई जे.पी. कोई कैंडल-मार्च निकाल रहा है तो कोई उनके पक्ष में धरने पर बैठा है. राजनेता से लेकर अभिनेता तक, मीडिया से लेकर युवा वर्ग तक हर कोई अन्ना के साथ खड़ा नजर आना चाहता है.

लेकिन क्या वाकई अन्ना के इस अभियान का कोई सार्थक अर्थ है ? इस मुहिम का कोई सकारात्मक अर्थ निकलने जा रहा है. इस देश में भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा नहीं है, बल्कि कई और भी ज्वलंत मुद्दे हैं. क्या एक जन लोकपाल आ जाने से सारी समस्याएं छू-मंतर हो जायेंगीं, मानो इसके पास जादू की कोई छड़ी हो और छड़ी घुमाते ही सब रोग दूर हो जाय.

अन्य देशों में हुए आंदोलनों को देखकर इस भ्रम में रहने वाले कि अन्ना के इस आन्दोलन के बाद भारत में भी क्रांति आ जाएगी, क्या अपनी अंतरात्मा पर हाथ रखकर बता सकेंगें कि वो जब मतदान करते हैं, तो किन आधारों पर करते हैं. चंद लोगों को छोड़ दें तो अधिकतर लोग अपनी जाति-धर्म-परिचय-राजनैतिक दल जैसे आधारों पर ही मतदान करते हैं. उनके लिए एक सीधा-साधा ईमानदार व्यक्ति किसी काम का नहीं होता, आखिरकार वह उनके लिए थाने-कोर्ट में पैरवी नहीं कर सकता, किसी दबंग से लोहा नहीं ले सकता या उन्हें किसी भी रूप में उपकृत नहीं कर सकता. जिस मीडिया के लोग आज अन्ना के आन्दोलन को धार दे रहे हैं, यही लोग उन्हीं लोगों के लिए पेड-न्यूज छापते हैं और उन्हें विभिन्न समितियों के सदस्य और मंत्री बनाने के लिए लाबिंग करते हैं, जिनके विरुद्ध अन्ना आन्दोलन कर रहे हैं. फ़िल्मी दुनिया से जुड़े लोगों का वैसे भी यह शगल है कि जहाँ चैरिटी दिखे, फोटो खिंचाने पहुँच जाओ.

कहते हैं साहित्य समाज को रास्ता दिखाता है, पर हमारे साहित्यजीवी तो खुद ही सत्ता से निर्देशित होते हैं. कोई किसी सम्मान-पुरस्कार के लिए, कोई संसद में बैठने के लिए तो कोई किसी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए या किसी अकादमी का अध्यक्ष-सदस्य बनने के लिए सत्ता की चारणी करते हैं. पर किसी के पक्ष में वक्तव्य देने में भी सबसे माहिर होते हैं ये कलमजीवी. अन्ना के इस आन्दोलन में भी उनकी भूमिका इससे ज्यादा नहीं है. दो-चार लेख लिखने और पत्र-पत्रिकाओं के एकाध पन्ने भरकर ये अपने काम की इतिवृत्ति समझ लेते हैं. अदालत में सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने वाले वकील भले ही अपने पेशेगत प्रतिबद्धतता की आड लें, पर पब्लिक सब जानती है. कितने लोग इस आन्दोलन के समर्थन में अपनी बैरिस्टरी छोड़ने को तैयार हैं ?

फेसबुक-ट्विटर-आर्कुट पर अन्ना के पक्ष में लिखने वाले कित्ते गंभीर हैं, यह अभी से दिखने लगा है. अभी कुछ दिनों पहले लोग बाबा रामदेव का गुणगान कर रहे थे, अब अन्ना का, फिर कोई और आयेगा, पर हम नहीं बदलेंगें. हम भीड़ का हिस्सा बनकर चिल्लाते रहेंगें कि गद्दी छोडो, जनता आती है (दिनकर) और लोग हमारे ही घरों पर कब्ज़ा कर बेदखल कर देंगें. एक शेषन जी भी आए थे. कहा करते थे राष्ट्रपति तो चोंगे वाला साधू मात्र है, उसे कोई भी शक्ति नहीं प्राप्त है, पर रिटायर्ड होते ही राष्ट्रपति का चुनाव लड़ बैठे.

गाँधी और जे.पी तो इस देश में मुहावरा बन गए हैं. हमारी छोडिये, जो उनकी बदौलत सत्ता की चाँदी काट रहे हैं वे भी उन्हें जयंती और पुण्यतिथि में ही निपटा देते हैं. अन्ना के बहाने अपने को चर्चा में लाने की हर कोई कोशिश कर रहा है, पर सवाल है कि अन्ना के बिना इस आन्दोलन का क्या वजूद है...शायद कुछ नहीं. आज अन्ना हट जाएँ तो हर कोई अपने बैनर और कैंडल उठाकर अपनी खोल में सिमट जायेगा. हम भीड़ का हिस्सा बनकर नारा लगाना जानते हैं, पर खुद क्यों कोई पहल क्यों नहीं करते. हम कभी मुन्नाभाई से प्रेरित होकर गांधीगिरी करते हैं, कभी दूसरे से. याद रखिये दूसरों की हाँ में हाँ मिलाकर और मौका देखकर भीड़ का हिस्सा बन जाने से न कोई क्रांति आती है और न कोई जनांदोलन खड़ा होता है. इसके लिए जरुरी है कि लोग स्वत: स्फूर्त प्रेरित हों और वास्तविक व्यवहार में वैसा ही आचरण करें. जिस दिन हम अपनी अंतरात्मा से ऐसा सोच लेंगें उस दिन हमें किसी बाहरी रौशनी (कैंडल) की जरुरत नहीं पड़ेगी.

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

नव संवत्सर से जुडी हैं कई महत्वपूर्ण घटनाएँ

भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत में नव वर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है।

असम में नववर्ष बीहू के रुप में मनाया जाता है, केरल में पूरम विशु के रुप में, तमिलनाडु में पुत्थंाडु के रुप में, आन्ध्र प्रदेश में उगादी के रुप में, महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा के रुप में तो बांग्ला नववर्ष का शुभारंभ वैशाख की प्रथम तिथि से होता है। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ लगभग सभी जगह नववर्ष मार्च या अप्रैल माह अर्थात चैत्र या बैसाख के महीनों में मनाये जाते हैं। पंजाब में नव वर्ष बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगू नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग$आदि का अपभ्रंश) के रूप मंे मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रुप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेण्डर नवरेह 19 मार्च को आरम्भ होता है। महाराष्ट्र में गुडी पड़वा के रुप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुडी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरुविजा नव वर्ष के रुप में मनाया जाता है। मारवाड़ी और गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है, जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है।

वस्तुतः भारत वर्ष में वर्षा ऋतु की समाप्ति पर जब मेघमालाओं की विदाई होती है और तालाब व नदियाँ जल से लबालब भर उठते हैं तब ग्रामीणों और किसानों में उम्मीद और उल्लास तरंगित हो उठता है। फिर सारा देश उत्सवों की फुलवारी पर नववर्ष की बाट देखता है। इसके अलावा भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं, इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था।

भारतीय नव वर्ष नव संवत्सर का आरंभ आज हो रहा है. ऐसी मान्यता है कि जगत की सृष्टि की घड़ी (समय) यही है। इस दिन भगवान ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना हुई तथा युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारंभ हुआ। ‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि। शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति।।‘ अर्थात ब्रह्मा पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के प्रथम दिन, प्रथम सूर्योदय होने पर की। इस तथ्य की पुष्टि सुप्रसिद्ध भास्कराचार्य रचित ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ से भी होती है, जिसके श्लोक में उल्लेख है कि लंका नगर में सूर्योदय के क्षण के साथ ही, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस से मास, वर्ष तथा युग आरंभ हुए। अतः नव वर्ष का प्रारंभ इसी दिन से होता है, और इस समय से ही नए विक्रम संवत्सर का भी आरंभ होता है, जब सूर्य भूमध्य रेखा को पार कर उत्तरायण होते हैं। इस समय से ऋतु परिवर्तन होनी शुरू हो जाती है। वातावरण समशीतोष्ण होने लगता है। ठंडक के कारण जो जड़-चेतन सभी सुप्तावस्था में पड़े होते हैं, वे सब जाग उठते हैं, गतिमान हो जाते हैं। पत्तियों, पुष्पों को नई ऊर्जा मिलती है। समस्त पेड़-पौधे, पल्लव रंग-विरंगे फूलों के साथ खिल उठते हैं। ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर कहते हैं।

इस वर्ष नया विक्रम संवत 2068, अप्रैल 4, 2011 को प्रारंभ हो रहा है। संवत्सर, सृष्टि के प्रारंभ होने के दिवस के अतिरिक्त, अन्य पावन तिथियों, गौरवपूर्ण राष्ट्रीय, सांस्कृतिक घटनाओं के साथ भी जुड़ा है। रामचन्द्र का राज्यारोहण, धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म, आर्य समाज की स्थापना तथा चैत्र नवरात्र का प्रारंभ आदि जयंतियां इस दिन से संलग्न हैं। इसी दिन से मां दुर्गा की उपासना, आराधना, पूजा भी प्रारंभ होती है। यह वह दिन है, जब भगवान राम ने रावण को संहार कर, जन-जन की दैहिक-दैविक-भौतिक, सभी प्रकार के तापों से मुक्त कर, आदर्श रामराज्य की स्थापना की। सम्राट विक्रमादित्य ने अपने अभूतपूर्व पराक्रम द्वारा शकों को पराजित कर, उन्हें भगाया, और इस दिन उनका गौरवशाली राज्याभिषेक किया गया। आप सभी को भारतीय नववर्ष विक्रमी सम्वत 2068 और चैत्री नवरात्रारंभ पर हार्दिक शुभकामनायें. आप सभी के लिए यह नववर्ष अत्यन्त सुखद हो, शुभ हो, मंगलकारी व कल्याणकारी हो, नित नूतन उँचाइयों की ओर ले जाने वाला हो !!

रविवार, 3 अप्रैल 2011

आखिर भारत ने दे ही दिया घुमा के...

यह जीत भी खूब रही. आखिर 28 साल बाद आया क्रिकेट में विश्व विजयी होने का सुनहरा पल. पहले आस्ट्रेलिया, फिर पाकिस्तान और अंतत: श्रीलंका...भारत ने दे ही दिया घुमा के. लीजिये इस ख़ुशी में मुंह मीठा कीजिये...!!

गुरुवार, 31 मार्च 2011

चक दे इण्डिया...अब दम दिखा दे और फ़ाइनल में दे घुमा के..!!

!!...चक दे इण्डिया...अब दम दिखा दे और फ़ाइनल में दे घुमा के..!!

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

बिटिया पाखी के जन्मदिन पर...


आज हमारी प्यारी बिटिया अक्षिता (पाखी) का जन्म-दिन है. अंडमान में हम दूसरी बार पाखी का जन्मदिन मना रहे हैं. अब तो पाखी की बहना तन्वी भी उसका जन्मदिन सेलिब्रेट करने के लिए आ गई हैं. पाखी के जन्मदिन पर उसके लिए एक प्यारी सी कविता लिखी है. पाखी यह कविता सुनकर बहुत खुश है, आप भी इसका आनंद उठायें और बिटिया पाखी को जन्मदिन पर अपना स्नेहिल आशीर्वाद दें-


आँखों में भविष्य के सपने
चेहरे पर मधुर मुस्कान है
अक्षिता को देखकर लगता है
दिल में छुपाये कई अरमान है।

अक्षिता के मन में इतनी उमंगें
नन्हीं सी यह जान है
प्यारी-प्यारी ड्राइंग बनाती
देखकर सब हैरान हैं।

ज्ञान पथ पर है तत्पर
गुणों की यह खान है
भोली सी सूरत इसकी
हमें इस पर अभिमान है।


(चित्र में : तन्वी के आगमन पर आयोजित पार्टी में केक काटकर ख़ुशी का इजहार करती पाखी संग ममा-पापा और तन्वी)

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

बैंगन जी की होली


टेढे़-मेढे़ बैंगन जी
होली पर ससुराल चले
लुढ़क-लुढ़क जाते हर पल
एक मुसीबत पाल चले.

उनकी पत्नी भिण्डी जी
बनी-ठनी तैयार मिलीं
हाथ पकड़ करके उनका
स्वागत में घर पार चलीं.

ससुरा कद्दू देख उन्हें
रेड लाइट को लांघ चले
टेढे़-मेढे़ बैंगन जी
होली पर ससुराल चले.

उछल पड़ीं बल्लियों तभी
लौकी सास निहाल हुईं
तब तक मिर्ची साली जी
मिलने को फिलहाल चलीं.

रंग भरी पिचकारी ले
जीजा जी पर झपट पड़ीं
बैंगन जी भी थाली में
इधर-उधर बदहाल चले।
टेढ़े-मेढ़े.......!!


कृष्ण कुमार यादव
!! होली पर्व पर आप सभी को रंग भरी शुभकामनायें !!

शनिवार, 12 मार्च 2011

जनसत्ता में 'शब्द-शिखर' की पोस्ट


'शब्द शिखर' पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च, 2010) को प्रस्तुत पोस्ट 'महिला होने पर गर्व' को प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक अख़बार जनसत्ता के नियमित स्तंभ ‘समांतर’ में 12 मार्च, 2011 को 'किसका समाज' शीर्षक से स्थान दिया गया है. जनसत्ता में दूसरी बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है और इससे पूर्व 'शब्द शिखर' पर 21 अक्तूबर, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट 'कहाँ गईं वो तितलियाँ' को जनसत्ता के ‘समांतर’ स्तम्भ में 7 दिसंबर, 2010 को 'गुम होती तितली' शीर्षक से स्थान दिया गया था. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 24वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

गुरुवार, 10 मार्च 2011

105 साल का हो गया सेलुलर जेल


यह तीर्थ महातीर्थों का है.
मत कहो इसे काला-पानी.
तुम सुनो, यहाँ की धरती के
कण-कण से गाथा बलिदानी (गणेश दामोदर सावरकर)

आजकल अंडमान-निकोबार दीप समूह में हूँ. वही अंडमान, जो काला पानी के लिए प्रसिद्द है. आप भी सोचते होंगे कि भला काला-पानी का क्या रहस्य है. तो आइये आज आपको उसी काला पानी की सैर कराते हैं-

भारत का सबसे बड़ा केंद्रशासित प्रदेश अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह सुंदरता का प्रतिमान है और सुंदर दृश्यावली के साथ सभी को आकर्षित करता है। बंगाल कि खाड़ी के मध्य प्रकृति के खूबसूरत आगोश में 8249 वर्ग कि0मी0 में विस्तृत 572 द्वीपों (अंडमान-550, निकोबार-22) के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भले ही मात्र 38 द्वीपों (अंडमान-28, निकोबार-10) पर जन-जीवन है, पर इसका यही अनछुआपन ही आज इसे 'प्रकृति के स्वर्ग' रूप में परिभाषित करता है। निकोबार द्वीप समूह के ग्रेट निकोबार द्वीप में ही भारत का सबसे दक्षिणी छोर 'इंदिरा प्वाइंट' भी अवस्थित है, जो कि इंडोनेशिया से लगभग 150 कि0मी0 दूर है। यहीं अंडमान में ही ऐतिहासिक सेलुलर जेल है. सेलुलर जेल का निर्माण कार्य 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ. सेलुलर जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं।

(इस दृश्य के माध्यम से इसे समझा जा सकता है) अंडमान को काला पानी कहा जाता रहा है तो इसके पीछे बंगाल की खाड़ी और जेल की ही भूमिका है. अंग्रेजों के दमन का यह एक काला अध्याय था, जिसके बारे में सोचकर अभी भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कहते हैं कि अंडमान का नाम हनुमान जी के नाम पर पड़ा. पहले भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई इधर से ही करने की सोची पर बाद में यह विचार त्याग दिया. अंडमान शब्द की उत्पत्ति मलय भाषा के 'हांदुमन' शब्द से हुई है जो भगवान हनुमान शब्द का ही परिवर्तित रुप है। निकोबार शब्द भी इसी भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ होता है नग्न लोगों की भूमि। (वीर सावरकर को इसी काल-कोठरी में बंदी रखा गया. यह काल-कोठरी सबसे किनारे और अन्य कोठरियों से ज्यादा सुरक्षित बने गई है. गौरतलब है कि सावरकर जी के एक भाई भी काला-पानी की यहाँ सजा काट रहे थे, पर तीन सालों तक उन्हें एक-दूसरे के बारे में पता तक नहीं चला. इससे समझा जा सकता है कि अंग्रेजों ने यहाँ क्रांतिकारियों को कितना एकाकी बनाकर रखा था.)

वीर सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों को यहीं सेलुलर जेल की काल-कोठरियों में कैद रखा गया और यातनाएं दी गईं. सेलुलर जेल अपनी शताब्दी मना चुका है पर इसके प्रांगन में रोज शाम को लाइट-साउंड प्रोग्राम उन दिनों की यादों को ताजा करता है, जब हमारे वीरों ने काला पानी की सजा काटते हुए भी देश-भक्ति का जज्बा नहीं छोड़ा. गन्दगी और सीलन के बीच समुद्री हवाएं और उस पर से अंग्रेजों के दनादन बरसते कोड़े मानव-शरीर को काट डालती थीं. पर इन सबके बीच से ही हमारी आजादी का जज्बा निकला. दूर दिल्ली या मेट्रो शहरों में वातानुकूलित कमरों में बैठकर हम आजादी के नाम पर कितने भी व्याख्यान दे डालें, पर बिना इस क्रांतिकारी धरती के दर्शन और यहाँ रहकर उन क्रांतिवीरों के दर्द को महसूस किये बिना हम आजादी का अर्थ नहीं समझ सकते.

सेलुलर जेल में अंग्रेजी शासन ने देशभक्त क्रांतिकारियों को प्रताड़ित करने का कोई उपाय न छोड़ा. यातना भरा काम और पूरा न करने पर कठोर दंड दिया जाता था. पशुतुल्य भोजन व्यवस्था, जंग या काई लगे टूटे-फूटे लोहे के बर्तनों में गन्दा भोजन, जिसमें कीड़े-मकोड़े होते, पीने के लिए बस दिन भर दो डिब्बा गन्दा पानी, पेशाब-शौच तक पर बंदिशें कि एक बर्तन से ज्यादा नहीं हो सकती. ऐसे में किन परिस्थितियों में इन देश-भक्त क्रांतिकारियों ने यातनाएं सहकर आजादी की अलख जगाई, वह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. सेलुलर जेल में बंदियों को प्रतिदिन कोल्हू (घानी) में बैल की भाँति घूम-घूम कर 20 पौंड नारियल का तेल निकालना पड़ता था. इसके अलावा प्रतिदिन 30 पौंड नारियल की जटा कूटने का भी कार्य करना होता. काम पूरा न होने पर बेंतों की मार पड़ती और टाट का घुटन्ना और बनियान पहनने को दिए जाते, जिससे पूरा बदन रगड़ खाकर और भी चोटिल हो जाता. अंग्रेजों की जबरदस्ती नाराजगी पर नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते. जब भी किसी को फांसी दी जाती तो क्रांतिकारी बंदियों में दहशत पैदा करने के लिए तीसरी मंजिल पर बने गुम्बद से घंटा बजाया जाता, जिसकी आवाज़ 8 मील की परिधि तक सुनाई देती थी.
भय पैदा करने के लिए क्रांतिकारी बंदियों को फांसी के लिए ले जाते हुए व्यक्ति को और फांसी पर लटकते देखने के लिए विवश किया जाता था।वीर सावरकर को तो जान-बूझकर फांसी-घर के सामने वाले कमरे में ही रखा गया था.फांसी के बाद मृत शरीर को समुद्र में फेंक दिया जाता था.
अब आप समझ सकते हैं कि इस जगह को काला-पानी क्यों कहा जाता था. एक तरफ हमारे धर्म समुद्र पार यात्रा की मनाही करते थे, वहीँ यहाँ मुख्यभूमि से हजार से भी ज्यादा किलोमीटर दूर लाकर देशभक्तों को प्रताड़ित किया जाता था. आजादी का अर्थ सिर्फ अच्छा खाना, घूमना य मौज-मस्ती ही परिचायक नहीं है, बल्कि इसके लिए हमें उन मूल्यों की भी रक्षा करनी होगी जिसके लिए देशभक्तों ने अपनी कुर्बानियां दे दी !!
सेलुलर जेल की 105 वीं वर्षगाँठ पर उन सभी नाम-अनाम शहीदों और कैद में रहकर आजादी का बिगुल बजाने वालों को नमन !!

[ चित्रों में : कृष्ण कुमार, आकांक्षा एवं अक्षिता (पाखी) ]