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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

शब्द-शिखर : बदलाव की एक लहर...



जो काम तलवार नहीं कर सकती, वह कलम कर सकती है। दुनिया में हुई क्रांतियों में लेखनी की अहम भूमिका रही है। मौजूदा समाज में जो स्थिति महिलाओं की है, उसे बदलने में भी शब्द अहम भूमिका निभा सकते हैं । आज का ब्लॉग  ’शब्द शिखर’ नारी के प्रति लोगों की सोच में बदलाव की बात करता है। इसमें ब्लॉगर ने समाज में नारी की स्थिति को लेकर मन में चल रहे द्वंद को शब्दों में उतारा है। महिलाओं की हालिया स्थिति में परिवर्तन की मांग को जोर-शोर से उठाया गया है। 

’शब्द शिखर’ ब्लॉग  पर हुई पोस्ट्स से पता चलता है कि ब्लॉगर महिलाओं की स्थिति बदलना चाहती हैं। उन्होंने अपने तरकश में बाणों की जगह शब्दों को रखा है, जिससे वह समाज के लोगों की दकियानूसी सोच को बदल सकें। ब्लॉग  पर महिलाओं से जुडे़ विभिन्न मुद्दों पर अपलोड किए गए लेख और कविताओं से नारी सशक्तीकरण बखूबी झलकता है। ज्यादातर पोस्ट्स में महिलाओं, बच्चों व सामाजिक सरोकरों का विचार-विमर्श है, जो लोगों को जागरूक करने का प्रयास है। 

’शब्द शिखर’ ब्लॉग  की पोस्ट ’पाकिस्तान में अब महिला उड़ाएगी लड़ाकू विमान’ में पाकिस्तान की आयशा फारूक को बदलाव की लहर की तरह प्रस्तुत किया है। इसमें लिखा है कि वक्त के साथ बहुत से पैमाने बदल जाते हैं। जिन रूढि़यों को समाज ढो रहा है, वे दरकती नजर आती हैं। यही वजह है कि अब पाक में भी महिला लड़ाकू विमान उड़ाने जा रही है। 

एक पोस्ट में माँ की महिमा का बखान है। इसमें बताया गया है कि माँ एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें सिर्फ अपनापन व प्यार होता है। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए बेटी की अहमियत कविता के माध्यम से परिभाषित की हैं। 

-आर्यन शर्मा

(6 जुलाई 2013 को पत्रिका के साप्ताहिक स्तंभ me.next के नियमित स्तंभ web blog में शब्द शिखर की चर्चा)


मंगलवार, 23 जुलाई 2013

सावन की बहारों के साथ लोकगीतों की रानी 'कजरी' की अनुगूँज

प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर, उन्हें जीवंत करने वाली ‘कजरी’ सावन की हरियाली बहारों के साथ तेरा स्वागत है। मौसम और यौवन की महिमा का बखान करने के लिए परंपरागत लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है-कजरी इसका उदाहरण है। प्रतीक्षा के पट खोलती लोकगीतों की श्रृंखलाएं इन खास दिनों में गज़ब सी हलचल पैदा करती हैं, हिलोर सी उठती है, श्रृंगार के लिए मन मचलता है और उस पर कजरी के सुमधुर बोल! सचमुच वह सबकी प्रतीक्षा है, जीवन की उमंग और आसमान को छूते हुए झूलों की रफ्तार है। शहनाईयों की कर्णप्रिय गूंज है, सुर्ख़ लाल मखमली वीर बहूटी और हरियाली का गहना है, सावन से पहले ही तेरे आने का एहसास! महान कवियों और रचनाकारों ने तो कजरी के सम्मोहन की व्याख्या विशिष्ट शैली में की है।

भारतीय परंपरा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। यहां लोक कोई एकाकी धारणा नहीं है, बल्कि इसमें सामान्य-जन से लेकर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, ऋतुएं, पर्यावरण, हमारा परिवेश और हर्ष-विषाद की सामूहिक भावना से लेकर श्रृंगारिक दशाएं तक शामिल हैं। ‘ग्राम-गीत’ की भारत में प्राचीन परंपरा रही है। लोकमानस के कंठ में, श्रुतियों में और कई बार लिखित-रूप में यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होते रहते हैं। पंडित रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में-‘ग्राम गीत प्रकृति के उद्गार हैं, इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है। छंद नहीं, केवल लय है। लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति मानो गान करती है। प्रकृति का यह गान ही ग्राम गीत है....।’ इस लोक संस्कृति का ही एक पहलू है-कजरी। ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच कजरी की धाराएं समवेत फूट पड़ती हैं। यहां तक कि जो अपनी मिट्टी छोड़कर विदेशों में बस गए, उन्हें भी यह कजरी अपनी ओर खींचती है, तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है-

रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।


वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है, बल्कि यह सावन के मौसम की सुंदरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु वसंत के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों के संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-

घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी सांवरिया।


छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गए होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं, ताकि कजरी की गूंज उनके प्रीतम तक पहुंचे और शायद वे लौट आएं-

सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आए
रतिया देखी सवनवा ना।


यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं-

गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।


एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियां देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-

सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।


नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परंतु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है।

कजरी के मूलतः तीन रूप हैं-बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिंदास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-

बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।


विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परंपराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसंद करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-

पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।


विंध्य क्षेत्र में पारंपरिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर ‌स्त्रियां उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जा सका, क्योंकि इसका कोई तोड़ ही नहीं है। कजरी की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परंपरा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरंभ होता है। स्वस्थ परंपरा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वंदिता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है, केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-

कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।


बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-

हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।


सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु नहीं तड़पेगा, फिर वह चाहे चंद्रमा ही क्यों न हो-

चंदा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।


विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है, फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-

पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी-हरी पतियां।


ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है, बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती, बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहां मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलाएं झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुई अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबंधन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरंभ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलाएं खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलाएं समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत गाए जाते हैं।

कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाए रखना है, तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गाई जाती हो, पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूंज सुनाई देती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आज़ादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-

केतने गोली खाइके मरिगै
केतने दामन फांसी चढ़िगै
केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया
बदरिया घेरि आई ननदी।


1857 की क्रांति के पश्चात जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा ख़तरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सज़ा दे दी गई। अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला ‘कजरी’ के बोलों में गाती है-

अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।


स्वतंत्रता की लड़ाई में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस संग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को जगाया और दुश्मन का सामना करने को प्रेरित किया। ऐसे में उन नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-

लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।


सुभाष चंद्र बोस ने जंग-ए-आजादी में नारा दिया कि-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठीं। तभी तो कजरी के शब्द फूट पड़े-

हरे रामा सुभाष चंद्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झंडा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

महात्मा गांधी आज़ादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातकर उन्होंने स्वावलंबन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नवयुवतियां अपनी-अपनी धुन में गांधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानतीं और एक स्वर में कजरी के बोलों में गातीं-

अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गांधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।


कजरी में ’चुनरी’ शब्द के बहाने बहुत कुछ कहा गया है। आज़ादी की तरंगें भी कजरी से अछूती नहीं रही हैं-

एक ही चुनरी मंगाए दे बूटेदार पिया
माना कही हमार पिया ना
चंद्रशेखर की बनाना, लक्ष्मीबाई को दर्शाना
लड़की हो गोरों से घोड़ों पर सवार पिया।
जो हम ऐसी चुनरी पइबै, अपनी छाती से लगइबे
मुसुरिया दीन लूटै सावन में बहार पिया
माना कही हमार पिया ना।
..................
पिया अपने संग हमका लिआये चला
मेलवा घुमाए चला ना
लेबई खादी चुनर धानी, पहिन के होइ जाबै रानी
चुनरी लेबई लहरेदार, रहैं बापू औ सरदार
चाचा नेहरू के बगले बइठाए चला
मेलवा घुमाए चला ना
रहइं नेताजी सुभाष, और भगत सिंह खास
अपने शिवाजी के ओहमा छपाए चला
जगह-जगह नाम भारत लिखाए चला
मेलवा घुमाए चला

उपभोक्तावादी ग्लैमर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो, पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है-सुख का, सुंदरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच, कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परंपरा से जन-जन तक पहुंचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को बचाया जा सकता है।

कजरी! तेरी विशिष्टता के बखान के लिए शब्द भी कम पड़ते हैं, मैं तेरे और भी विशेषणों के साथ फिर लौटता हूं !!

- (कृष्ण कुमार यादव जी का यह आलेख 'स्वतंत्र आवाज़' पर भी पढ़ सकते हैं)

शनिवार, 29 जून 2013

एक महिला के दिमाग से वैज्ञानिकों ने तैयार किया दिमाग का थ्रीडी मैप


वैज्ञानिकों ने पहली बार इंसानी दिमाग का एक थ्रीडी खाका तैयार किया है। इससे वैज्ञानिकों को भावनाओं के बनने और बीमारियों के वजहों का अधिक गहराई से अध्ययन करने में मदद मिलेगी। बीबीसी न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक, 'बिग ब्रेन' प्रोजेक्ट के तहत तैयार किये गये इस थ्रीडी खाके के लिये 65 वर्षीय एक महिला के दिमाग का इस्तेमाल किया गया। वैज्ञानिकों ने इस दिमाग को 20 माइक्रोमीटर की मोटाई वाली 7,400 परतों में बांटा है। इस तरह से वे दिमाग की कोशिकीय संरचना के स्तर तक पहुंच गए।

इस शोध में शामिल रहे मोंट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर एलन इवांस ने कहा, आखिरकार विज्ञान ने दिमाग को समझ लिया। इस शोध से दिमाग की आतंरिक संरचना को समझने की दिशा में क्रांति आ जाएगी। उन्होंने यह भी कहा, 'अब तक शोधकर्ता जिस पैमाने पर दिमाग का अध्ययन करते थे, अब उससे 50 गुना अधिक गहराई से उसे पढ़ सकेंगे।'

दिमाग के इस थ्रीडी खाके से ‌दुनियाभर के शोधकर्ताओं को बेहद बारीकी से दिमाग पर शोध करने में मदद मिलेगी। इससे उन्हें भावनाओं के बनने, पहचान क्षमता के विकसित होने तथा बीमारियों के पनपने के कारणों का पता लगाने में मदद मिलेगी। इस शोध को साइंस पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

रविवार, 16 जून 2013

पितृ-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे



आज फादर्स डे है. माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं. इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है. पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति प्रेम का इज़हार कई तरीकों से किया जाता है, पर बेटों-बेटियों द्वारा पिता के प्रति इज़हार का यह दिवस अनूठा है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि स्त्री-शक्ति का एहसास करने हेतु तमाम त्यौहार और दिन आरंभ हुए पर पितृ-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे की कल्पना अजीब जरुर लगती है.पाश्चात्य देशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ पर फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है. पर भारत में कही इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से छुटकारा तो नहीं चाहते हैं. इस पर भी विचार करने की जरुरत है. जरुरत फादर्स-डे की अच्छी बातों को अपनाने की है, न कि पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में उसे अपनाने की जरुरत है.

माना जाता है कि फादर्स डे सर्वप्रथम 19 जून 1910 को वाशिंगटन में मनाया गया। अर्थात इस साल 2013 में फादर्स-डे के 103 साल पूरे हो गए. इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। सोनेरा डोड जब नन्हीं सी थी, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में माँ की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे माँ का भी प्यार दिया। एक दिन यूँ ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? ....इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने फादर्स डे पर अपनी सहमति दी। फिर 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की।1972 में अमेरिका में फादर्स डे पर स्थायी अवकाश घोषित हुआ। फ़िलहाल पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है.भारत में भी धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है. इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य में भी.

शनिवार, 15 जून 2013

सोच में बदलाव : पाकिस्तान में अब महिला उड़ाएंगी लड़ाकू विमान

वक़्त के साथ बहुत से पैमाने बदल जाते हैं। जिन रुढियों को समाज ढो रहा होता है, वह दरकती नजर आती हैं। अब महिलाएं लड़ाकू विमान भी उड़ाने को तैयार हैं। फ़िलहाल भारत में न सही पडोसी देश पाकिस्तान में ही सही। पाकिस्तान की आयशा फारुख ने भारतीय वायुसेना को पीछे छोड़ दिया है. पुरुषवादी पाकिस्तान की वायुसेना में 26 साल की आयशा फारुख तमाम रूढि़यों को तोड़कर युद्ध के मोर्चे पर जाने के लिए तैयार हैं। वह लड़ाकू विमान उड़ाने वाली पाकिस्तान की पहली महिला लड़ाकू विमान चालक (फाइटर पायलट) बन गई हैं।
आयशा फारुख पिछले एक दशक में पाकिस्तानी वायुसेना में पायलट बनने वाली 19 महिलाओं में से एक हैं। आयशा के अलावा पाकिस्तानी वायुसेना में पांच और लड़ाकू महिला विमान चालक हैं, लेकिन उन्हें युद्ध के मोर्चे पर जाने के लिए अंतिम परीक्षा को पास करना है। हालांकि आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहे पड़ोसी देश भारत में अभी तक कोई महिला फाइटर पायलट नहीं है।
पंजाब के ऐतिहासिक शहर बहावलपुर की मृदुभाषी 26 वर्षीय आयशा कहती हैं कि मुझे नहीं लगता कि महिला या पुरुष होने से एक फाइटर पायलट के काम में कोई फर्क पड़ता है। हाल में पाकिस्तानी लड़कियों के बड़े पैमाने पर सेना में आने के सवाल पर वह कहती हैं कि आतंकवाद और हमारी भौगोलिक स्थितियां के कारण सभी को मुस्तैद रहना जरूरी है।
चीन निर्मित एफ 7पीजी विमान उड़ाने वाली आयशा बताती हैं कि आज से सात साल पहले जब उन्होंने अपनी विधवा मां को एयरफोर्स में जाने की इच्छा बताई थी, तो उन्होंने उन्हें मूर्ख समझा था। कारण हमारे समाज में लड़कियां विमान उड़ाने के बारे में सोचती तक नहीं हैं। पाकिस्तानी वायुसेना में फिलहाल 316 महिलाएं हैं। जबकि पांच साल पहले इनकी संख्या महज सौ थी। वहीं पाकिस्तानी सेना में करीब चार हजार महिलाएं हैं जिनमें ज्यादातर चिकित्सा या कार्यालय संबंधी कार्य कर रही हैं। स्क्वाड्रन 20 की विंग कमांडर नसीम अब्बास ने कहा कि अब समाज की सोच में बदलाव आया है। लड़कियां सेना में शामिल होने के बारे में सोचने लगी हैं। 25 पायलटों वाली इस स्क्वाड्रन में आयशा भी शामिल हैं।
आयशा फारुख ने गुरुवार को राजधानी इस्लामाबाद से लगभग 300 किलोमीटर दूर पंजाब के सरगोधा एयरबेस में फाइटर जेट को उड़ाया. चीन में बने हुये एफ-7पीजी फाइटर जेट को आयशआ ने जब उड़ाया तो उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे.
यहां यह गौरतलब है कि भारतीय वायुसेना ने किसी भी महिला को आज तक फाइटर जेट उड़ाने की अनुमति नहीं दी है. अलका शुक्ला और एम पी सुमंती भारतीय सेना की दो ऐसी महिला पायलट हैं, जिन्हें एमआई-8 जैसे मालवाहक हेलिकॉप्टर उड़ाने का गौरव प्राप्त है. लेकिन अब तक इन्हें फाइटर जेट उड़ाने का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है.की   देर-सबेर अपने देश भारत में भी ऐसा होगा। 

मंगलवार, 28 मई 2013

शब्दों से बदलाव की कोशिश



मैं मांस, मज्जा का पिंड नहीं, दुर्गा, लक्ष्मी और भवानी हूँ , भावों से पुंज से रची, नित्य रचती सृजन कहानी हूँ । ये लाइनें आकांक्षा यादव की इच्छा, हौसला और महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने की उनकी तमन्ना को बयां करने के लिए काफी हैं।  गाजीपुर की मिडिल क्लास फैमिली से बिलांग करने वाली आकांक्षा की बचपन से ही महिलाओं की जिंदगी में बड़ा परिवर्तन  कराने की प्रबल इच्छा रही है। गाजीपुर में फैमिली के साथ रहते हुए किसी लड़की के लिए यह संभव नहीं था, लेकिन 2004 में डाइरेक्टर पोस्टल सर्विसेज के के यादव से शादी के बाद उनकी यह दबी हुई इच्छा जाग्रत हो गई। 

लोक सेवा आयोग के थ्रू  होने वाली लेक्चरर भर्ती में सेलेक्ट होकर वह जीजीआइसी में लेक्चरर बनीं लेकिन जब पाया कि इस नौकरी के चलते वह अपने मकसद से भटक जाएंगी तो उन्होने जॉब  से रिजाइन कर दिया। नारी विमर्श पर उनके मन में चल रहे द्वंद  को उन्होंने  अपने शब्दों के जरिए लोगों को जगाने का काम किया। महिलाओं से रिेलेटेड उनके आर्टिकल देश भर की मैगजीन में पब्लिश्ड हो चुके हैं। दो बुक भी लिख चुकी हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि आनलाइन दुनिया में भी अपने ब्लॉग  में उन्होने महिलाओं की हालिया स्थिति में परिवर्तन की डिमांड को जोर-शोर से उठाया। उनकी ब्लागिंग की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें दशक के श्रेष्ठ  ब्लागर दंपति का अवार्ड मिला ।

आकांक्षा कहती हैं कि वह महिलाओं में बदलाव लाना चाहती हैं। फिलहाल वह अपनी लेखनी से महिलाओं को जगाने का काम कर रही हैं। अगर जरूरत पड़ी तो वह बाहर आकर भी इसके लिए लड़ाई लड़ेंगी।

(आई नेक्स्ट (इलाहाबाद संस्करण) 28 मई 2013 में प्रकाशित )


रविवार, 12 मई 2013

माँ का रिश्ता सबसे अनमोल




माँ दुनिया का  सबसे अनमोल रिश्ता है। एक ऐसा रिश्ता जिसमें सिर्फ अपनापन और प्यार होता है। माँ की इबादत हर दिन भी करें तो भी उसका कर्ज नहीं चुका सकते। कहते हैं ईश्वर ने अपनी जीवंत उपस्थिति हेतु माँ को भेजा। माँ  को खुशियाँ और सम्मान देने के लिए पूरी ज़िंदगी भी कम होती है। फिर भी पूरी दुनिया में माँ  के सम्मान में प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को 'मदर्स डे' मनाया जाता है। वैसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो मातृ  पूजा की सनातन परंपरा रही है, पर इसके लिए कोई दिन नियत नहीं होता। हर कोई अपनी माँ से प्यार करता है, फिर किसी एक दिन की क्या ज़रूरत !

अब भारत में भी पाश्चात्य देशों की तरह 'मदर्स डे' एक खास दिवस पर मनाया जाने लगा है। वैश्विक स्तर  पर देखें तो मदर्स डे  का इतिहास सदियों पुराना एवं प्राचीन है। यूनान में बसंत ऋतु के आगमन पर रिहा परमेश्वर की मां को सम्मानित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता था। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की मां मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्योहार मनाने लगा। `मदर्स डे' मनाने का मूल कारण मातृ शक्ति को सम्मान देना और एक शिशु के उत्थान में उसकी महान भूमिका को सलाम करना है।

 मदर्स डे की शुरुआत अमेरिका से हुई। वहाँ एक कवयित्री और लेखिका जूलिया वार्ड होव ने 1870 में 10 मई को माँ के नाम समर्पित करते हुए कई रचनाएँ लिखीं। वे मानती थीं कि महिलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी व्यापक होनी चाहिए। मदर्स डे को आधिकारिक बनाने का निर्णय अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने 8 मई1914 को लिया। 8 मई, 1914 में अन्ना की कठिन मेहनत के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने और मां के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। वे समझ रहे थे कि सम्मान, श्रद्धा के साथ माताओं का सशक्तीकरण होना चाहिए, जिससे मातृत्व शक्ति के प्रभाव से युद्धों की विभीषिका रुके। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।  अमेरिका में मातृ दिवस (मदर्स डे) पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। अलग-अलग देशों में मदर्स डे अलग अलग तारीख पर मनाया जाता है।

 भारत में भी मदर्स डे का महत्व बढ़ रहा है। इस दिन माँ के प्रति सम्मान-प्यार व्यक्त करने के लिए कार्ड्स, फूल व अन्य  उपहार भेंट किये जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में अभी भी इस दिवस के प्रति अनभिज्ञता है पर  नगरों में यह एक फेस्टिवल का रूप ले चुका है। काफी हद तक इसका व्यवसायीकरण भी हो चुका है। पर माँ तो माँ है। वह अपने बच्चों के लिए हर कुछ बर्दाश्त कर लेती है, पर दुःख तब होता है जब माँ की सहनशीलता और स्नेह को उसकी कमजोरी मानकर उनके साथ दोयम व्यव्हार किया जाता है। माँ के लिए बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जाता है, यह कला और साहित्य का एक प्रमुख विषय भी है, माँ के लिए तमाम संवेदनाएं प्रकट की जाती हैं पर माँ अभी भी अकेली है। जिन बेटों-बेटियों को उसने दुनिया में सर उठाने लायक बनाया, शायद उनके पास ही माँ के लिए समय नहीं है। अधिकतर घरों में माँ की महत्ता को हमने गौण बना दिया है। आज भी माँ को अपनी संतानों से किसी धन या ऐश्वर्य की लिप्सा नहीं, वह तो बस यही चाहती है कि उसकी संतान जहाँ रहे खुश रहे। पर माँ के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में यह पीढ़ी बहुत पीछे है। माँ के त्याग, तपस्या, प्यार का न तो कोई जवाब होता है और न ही एक दिन में इसका कोई कर्ज उतारा जा सकता है। मत भूलिए कि आज हम-आप जैसा अपनी माँ से व्यव्हार करते हैं, वही संस्कार अगली पीढ़ियों में भी जा रहे हैं। 


बुधवार, 8 मई 2013

हमारी बेटियाँ



हमारी बेटियाँ 
घर को सहेजती-समेटती
एक-एक चीज का हिसाब रखतीं
मम्मी की दवा तो
पापा का आफिस
भैया का स्कूल
और न जाने क्या-क्या।

इन सबके बीच तलाशती
हैं अपना भी वजूद
बिखेरती हैं अपनी खुशबू
चहरदीवारियों से पार भी
पराये घर जाकर
बना लेती हैं उसे भी अपना
बिखेरती है खुशियाँ
किलकारियों की गूंज  की ।

हमारी  बेटियाँ 
सिर्फ बेटियाँ  नहीं होतीं
वो घर की लक्ष्मी
और आँगन की तुलसी हैं
मायके में आँचल का फूल
तो ससुराल में वटवृक्ष होती हैं 
हमारी बेटियाँ  ।

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

न्यू मीडिया 'हिंदी ब्लागिंग' के दस साल : प्रिंट मीडिया ने लिया हाथों-हाथ

न्यू मीडिया के रूप में तेजी से उभरी हिन्दी ब्लागिंग के एक दशक पूरा होने पर प्रिंट मीडिया ने भी इसे हाथों-हाथ लिया। इलाहाबाद के तमाम पत्रकारों ने अन्य ब्लागर्स के साथ हम लोगों  से भी संपर्क किया और इस विधा के बारे में अपनी जानकारी में इजाफा करते हुए हिंदी ब्लागिंग के दस साल पूरे होने पर व्यापक और बेहतर कवरेज भी दी। इनमें 'शब्द-शिखर' के अलावा कृष्ण कुमार यादव जी के 'शब्द-सृजन की ओर' व 'डाकिया डाक लाया', अक्षिता के 'पाखी की दुनिया' के साथ-साथ हिंदी में ब्लागिंग कर रहे सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, गौरव कृष्णा बंसल इत्यादि की भी चर्चा की गई है।

 सबसे रोचक तो यह रहा कि हिन्दी मीडिया के साथ-साथ इस अवसर को अंग्रेजी-मीडिया ने भी भरपूर स्थान दिया। टाइम्स आफ इण्डिया, हिंदुस्तान टाइम्स  जैसे प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचार पत्रों के अलावा नार्दर्न इण्डिया पत्रिका ने भी इस पर बखूबी कलम चलाई। इसे आप सभी लोगों के साथ शेयर कर रही हूँ।  


(जनसंदेश टाइम्स, ( वाराणसी संस्करण)22 अप्रैल 2013)

(दैनिक जागरण , 21 अप्रैल 2013)


(जनसंदेश टाइम्स, 21 अप्रैल 2013)



(i next, 21 अप्रैल 2013)


(Times of India, 22nd April 2013)


(Hindustan Times, 22nd April 2013)

(Northern India patrika, 22nd April 2013)

रविवार, 21 अप्रैल 2013

ब्लागिंग का बढ़ता जलवा : हिंदी ब्लागिंग के एक दशक पूरे


भूमंडलीकरण ने समग्र विश्व को एक ग्लोबल विलेज में परिवर्तित कर दिया, जहाँ सूचना-प्रौद्योगिकी के बढ़ते कदमों के साथ सारी जानकारियाँ एक क्लिक मात्र पर उपलब्ध होने लगीं। वास्तविक दुनिया की बजाय लोग आभासी दुनिया में ज्यादा विचरण करने लगे। भूमंडलीकरण, उदारीकृत अर्थव्यवस्था, संचार क्रांति, सूचना का बढ़ता दायरा एवं इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती नवीनतम प्रौद्योगिकियों ने पूरी दुनिया को और करीब ला दिया और इसी के साथ एक नए प्रकार के मीडिया का भी जन्म हुआ। एक ऐसा मीडिया जहाँ न तो खबरों के लिए अगले दिन के अखबार का इंतजार करना पड़ता है और न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूलभुलैया में दौड़ना होता है। आलमारियों की बंद किताबों से अलग इसे दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर किसी भी समय पढ़ा-देखा जा सकता है। यह दौर है नित्य अपडेट होती वेबसाइट्स का, सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स का और ब्लागिंग का। वेबसाइट्स के लिए प्रोफेशनलिज्म व धन की जरूरत है, वहीं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स की अपनी शाब्दिक सीमाएं हैं। इससे परे ब्लाग या चिट्ठा एक ऐसा स्पेस देता है, जहाँ लोग अपनी अनुभूतियाँ को न सिर्फ अन-सेंसर्ड रूप में  अभिव्यक्त करते हैं बल्कि पाठकों से अंतहीन खुला संवाद भी स्थापित करते हैं। आज ब्लागिंग (चिट्ठाकारी) का आकर्षण दिनों-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। जहाँ वेबसाइट में सामान्यतया एकतरफा सम्प्रेषण होता है, वहीं ब्लाग में यह लेखकीय-पाठकीय दोनों स्तर पर होता है। ब्लाग सिर्फ जानकारी देने का माध्यम नहीं बल्कि संवाद, प्रतिसंवाद, सूचना विचार और अभिव्यक्ति का भी सशक्त ग्लोबल मंच है। ब्लागिंग को कुछ लोग खुले संवाद का तरीका मानते हैं तो कुछेक लोग इसे निजी डायरी मात्र। ब्लाग को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है-‘‘एक इंटरनेट वेबसाइट जिसमें किसी की लचीली अभिव्यक्ति का चयन संकलित होता है और जो हमेशा अपडेट होती रहती है।‘‘

        वर्ष 1999 में आरम्भ हुआ ब्लाग वर्ष 2013 में 14 साल का सफर पूरा कर चुका है। वर्ष 2003 में यूनीकोड हिंदी में आया और तद्नुसार हिन्दी ब्लाग का भी आरम्भ हुआ। यद्यपि इससे पूर्व विनय जैन ने 19 अक्टूबर 2002 को अंगे्रजी ब्लाग पर हिन्दी की कड़ी सर्वप्रथम आरंभ कर इसका आगाज किया था, पर पूर्णतया हिन्दी में ब्लागिंग आरंभ करने का श्रेय आलोक को जाता है, जिन्होंने 21 अप्रैल 2003 को हिंदी के प्रथम ब्लॉग ’नौ दो ग्यारह’ से इसका आगाज किया। यहाँ तक कि ‘ब्लाग‘ के लिए ‘चिट्ठा‘ शब्द भी उन्हीं का दिया हुआ है।

      ब्लागिंग का क्रेज पूरे विश्व में छाया हुआ है। भारत के  राजनेताओं में लालू प्रसाद यादव, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार, शिवराज चैहान, फारूक अब्दुल्ला, अमर सिंह, उमर अब्दुल्ला तो फिल्म इण्डस्ट्री में अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, आमिर खान, मनोज वाजपेयी, प्रकाश झा, शिल्पा शेट्टी, सेलिना जेटली, विक्रम भट्ट, शेखर कपूर, अक्षय कुमार, अरबाज खान, नंदिता दास इत्यादि के ब्लाग मशहूर हैं। चर्चित सोशलाइट लेखिका शोभा डे से लेकर प्रथम आई0पी0एस0 अधिकारी किरण बेदी तक ब्लागिंग से जुड़ी हैं। सेलिबे्रटी के लिए ब्लाग तो बड़ी काम की चीज है। फिल्मी हस्तियाँ अपनी फिल्मों के प्रचार  और फैन क्लब में इजाफा हेतु ब्लागिंग का बखूबी इस्तेमाल कर रही हैं। फिल्में रिलीज बाद में होती हैं, उन पर प्रतिक्रियाएं पहले आने लगती हैं। पर अधिकतर फिल्मी हस्तियों के ब्लाग अंग्रेजी में ही लिखे जा रहे हैं। अभिनेता मनोज वाजपेयी बकायदा हिन्दी में ही ब्लागिंग करते हैं और गंभीर लेखन करते हैं। अमिताभ बच्चन ने भी हिन्दी में ब्लागिंग की इच्छा जाहिर की है। एक तरफ ये हस्तियाँ अपनी जीवन की छोटी-मोटी बातें लोगों से शेयर कर रही हैं, वहीं अपने ब्लाग के जरिए तमाम गंभीर व सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त कर रही हैं। परम्परागत मीडिया उनकी बातों को नमक-मिर्च लगाकर पेश करता रहा है, पर ब्लागिंग के माध्यम से वे अपनी वास्तुस्थिति से लोगों को अवगत करा सकते हैं।

      ब्लागिंग में भाषा की वर्जनाएं टूट रही हैं, तभी तो हिन्दी देश-विदेश व उत्तर-दक्षिण की सीमाओं से परे सरपट दौड़ रही है। इंटरनेट पर हिन्दी का विकास तेजी से हो रहा है। गूगल से हिन्दी में जानकारियाँ धड़ल्ले से खोजी जा रही हैं। 21 वीं सदी में इंटरनेट एक ऐसे महत्वपूर्ण हथियार के रूप में उभरा, जहाँ अभिव्यक्तियों के तौर-तरीके बदलते नजर आए। किसने सोचा था कि कभी निजी डायरी माना जाने वाला ब्लॉग देखते-देखते राजनैतिक व समसायिक विषयों, साहित्य, समाज के साथ-साथ फोटो ब्लॉग, म्यूजिक ब्लॉग, पोडकास्ट, वायस ब्लॉग, वीडियो ब्लॉग, सामुदायिक ब्लॉग, प्रोजेक्ट ब्लॉग, कारपोरेट ब्लॉग, वेब कास्टिंग इत्यादि के साथ जीवन की जरूरतों में शामिल हो जायेगा। आज हिंदी ब्लागिंग भी इसका अपवाद नहीं रही, यहाँ भी यह सभी बखूबी चीजें दिखने लगी हैं। महत्वपूर्ण किताबों के ई प्रकाशन के साथ-साथ इंटरनेट के इस दौर में तमाम हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं भी अपना ई-संस्करण जारी कर रही हैं, जिससे हिन्दी भाषा व साहित्य को नए आयाम मिले हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध प्रमुख हिन्दी पत्रिकाएं हैं- हिंदी का पहला पोर्टल वेब दुनिया, अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, हिन्दयुग्म, रचनाकार, साहित्य कुंज, साहित्य शिल्पी, लघुकथा डाट काम, स्वर्गविभा, हिंदी नेस्ट, हिंदी चेतना, हिंदीलोक, कथाचक्र, काव्यालय, काव्यांजलि, कवि मंच, कृत्या, कलायन, आर्यावर्त, नारायण कुञ्ज, हंस, अक्षरपर्व, अन्यथा, आखर (अमर उजाला), उदन्ती, उद्गम, कथाक्रम, कादम्बिनी, कथादेश, गर्भनाल, जागरण, तथा, तद्भव, तहलका, ताप्तिलोक, दोआबा, नया ज्ञानोदय, नया पथ, परिकथा, पाखी, दि संडे पोस्ट, प्रतिलिपि, प्रेरणा, बहुवचन, भारत दर्शन, भारतीय पक्ष, मधुमती, रचना समय, लमही, लेखनी, लोकरंग, वागर्थ, शोध दिशा, संवेद, संस्कृति, समकालीन जनमत, समकालीन साहित्य, समयांतर, प्रवक्ता, अरगला, तरकश, अनुरोध, एक कदम आगे, पुरवाई, प्रवासी टुडे, अन्यथा, भारत दर्शन, सरस्वती पत्र, पांडुलिपि, हिंदी भाषी, हिंदी संसार, हिंदी समय, हिमाचल मित्र इत्यादि। इसी कड़ी में ‘कविता कोश‘ और ‘गद्य कोश‘ ने भी हिन्दी साहित्य के लिए मुक्ताकाश दिया है। यहाँ तमाम पुराने और प्रतिष्ठित साहित्यकारों की विभिन्न विधाओं में रचनाओं के संचयन के साथ-साथ नवोदित रचनाकारों की रचनाएँ भी पढ़ी जा सकती हैं। 

       आज हिन्दी ब्लागिंग में हर कुछ उपलब्ध है, जो आप देखना चाहते हैं। हर ब्लॉग का अपना अलग जायका है। राजनीति, धर्म, अर्थ, मीडिया, स्वास्थ्य, खान-पान, साहित्य, कला, शिक्षा, संस्कार, पर्यावरण, संस्कृति, विज्ञान-तकनीक, सेक्स, खेती-बाड़ी, ज्योतिषी, समाज सेवा, पर्यटन, वन्य जीवन, नियम-कानूनों की जानकारी सब कुछ अपने पन्नों पर समेटे हुए है। यहाँ खबरें हैं, सूचनाएं हैं, विमर्श हैं, आरोप-प्रत्यारोप हैं और हर किसी का अपना सोचने का नजरिया है। तमाम तकनीकी ब्लॉग लोगों को इससे जोड़ने और नित्य नई-नई जानकारियों के संग्रहण और विजेट्स से रूबरू कराने में अग्रसर हैं। सामुदायिक ब्लाग पर जीवन के विविध रंग देखे जा सकते हैं। हर सामुदायिक ब्लाग के अपने ब्लाग्र्स-लेखक हैं तो कुछ ब्लाग्र्स कई सामुदायिक ब्लाॅगों से जुड़े हुए हैं। कुछ ब्लाग्र्स का अपना स्वतंत्र ब्लाग नहीं है बल्कि वे इन सामुदायिक ब्लाग¨ के माध्यम से ही ब्लागिंग से जुड़े हुए हैं। इन सामुदायिक ब्लाग पर गंभीर वैचारिक बहसों से लेकर खरी-खोटी तक कही जाती है और कई बार ऐसी बातें/खबरें भी जो महत्वपूर्ण तो होती हैं पर किन्हीं कारणवश पत्र-पत्रिकाओं या टी0वी0 चैनल्स पर स्थान नहीं पातीं। इन ब्लागों पर स्थापित व उभर रह रचनाकारों की विभिन्न विधाओं में रचनाएं पढ़ी जा सकती हैं। कुछ ब्लाग तो नित्य-प्रतिदिन अपडेट होते हैं जबकि कुछ निश्चित अंतराल पश्चात। जाति-धर्म-क्षेत्र से ब्लागजगत भी अछूता नहीं रहा। हर कोई अपनी जाति से जुड़े महापुरुषों को लेकर गौरवान्वित हो रहा है। नेता, अभिनेता, प्रशासक, सैनिक, किसान, खिलाड़ी, पत्रकार, बिजनेसमैन, डाक्टर, इंजीनियर, पर्यावरणविद, ज्योतिषी, शिक्षक, साहित्यकार, कलाकार, कार्टूनिस्ट, वन्यजीव प्रेमी, पर्यटक, वैज्ञानिक, विद्यार्थी से लेकर बच्चे, युवा, वृद्ध, नारी-पुरुष व किन्नर तक ब्लागिंग में हाथ आजमा रहे हैं। ब्लागिंग ने पूरे विश्व में नई ऊर्जा का संचार किया है। देखते ही देखते हिन्दी को भी पंख लग गए और संपादकों की काट-छांट व खेद सहित वापस, प्रकाशकों की मनमानी व आर्थिक शोषण से परे हिन्दी ब्लागों पर पसरने लगी। हिंदी साहित्य, लेखन व पत्रकारिता से जुड़े तमाम चर्चित नाम भी अपने ब्लाग के माध्यम से पाठकों से नित्य रूबरू हो रहे हैं। विदेशों में रहकर भी हिन्दी ब्लागिंग को समृद्ध करने वालों की एक लम्बी सूची है।

      न्यू मीडिया के रूप में उभरी ब्लागिंग ने नारी-मन की आकांक्षाओं को मानो मुक्ताकाश दे दिया हो। वर्ष 2003 में यूनीकोड हिंदी में आया और तदनुसार तमाम महिलाओं ने हिंदी ब्लागिंग में सहजता महसूस करते हुए उसे अपनाना आरंभ किया। आज 50,000 से भी ज्यादा हिंदी ब्लाग हैं और इनमें लगभग एक चैथाई ब्लाग महिलाओं द्वारा संचालित हैं। ये महिलाएं अपने अंदाज में न सिर्फ ब्लागों पर सहित्य-सृजन कर रही हं बल्कि तमाम राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक मुददों से लेकर घरेलू समस्याओं, नारियों की प्रताड़ना से लेकर अपनी अलग पहचान बनाती नारियों को समेटते विमर्श, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से लेकर  पुरूष समाज की नारी के प्रति दृष्टि, जैसे तमाम विषय ब्लागों पर चर्चा का विषय बनते हैं। महिलाएं हिन्दी ब्लागिंग को न सिर्फ अपना रही हैं बल्कि न्यू मीडिया के इस अन्तर्राष्ट्रीय विकल्प के माध्यम से अपनी वैश्विक पहचान भी बनाने में सफल रही हैं। 

       ब्लाॅगिंग की दुनिया ने लोगों को एक ऐसा मंच मुहैया कराया है जहाँ वे बिना किसी खर्च और बंदिश के अपनी बात कह सकते हैं। ब्लाग के माध्यम से समाज का सुख-दुःख भी बाँटा जा सकता है। कई बार प्राकृतिक आपदाओं इत्यादि के समय सहायता के लिए ब्लाग का इस्तेमाल किया जाता है। आज ब्लाग तो विद्यालय हो गए हैं, जहाँ लिखने-पड़ने के अलावा चर्चा-परिचर्चा, सेमिनार जैसे आयोजन भी कर-देख सकते हैं। 50,000 से ज्यादा हिन्दी ब्लाग मानो ज्ञान व सूचना का खजाना हों। ब्लागर्स की गतिविधियाँ सिर्फ वर्चुअल-स्पेस तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उससे परे भी कभी ब्लागर संगोष्ठी तो कभी ब्लागर मिलन के माध्यम से ब्लागर्स की गहमागहमी बनी रहती है। इनके माध्यम से ब्लागिंग के सम्बन्ध में बहुत कुछ शेयर करने के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभवों को भी साझा किया जा रहा है। निश्चिततः इन सब गतिविधियों से ब्लॉगिंग को न सिर्फ एक स्वतंत्र विधा में स्थापित करने में मदद मिलेगी बल्कि आने वाले दिनों में तमाम लोग भी इससे जुडेंगे। तमाम विश्वविद्यालय-कालेज-संस्थाओं के तत्वावधान में राष्ट्रीय ब्लागर संगोष्ठी के आयोजन जैसे कदम ब्लागिंग के बढ़ते प्रभाव का ही अहसास करा रहे हैं। ब्लागिंग पर कुछेक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं- हिंदी ब्लागिंग: अभिव्यक्ति की नई क्रांति (सं. अविनाश वाचस्पति, रवीन्द्र प्रभात), हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (रवीन्द्र प्रभात), हिंदी ब्लागिंग : स्वरुप, व्याप्ति और संभावनाएं (स. डा. मनीष कुमार मिश्र) । यह पुस्तकें जहाँ ब्लागिंग के परंपरागत स्वरूप से लेकर बदलते दौर में ब्लागिंग के आयामों को परिलक्षित करती हैं, वहीं इसे शोध का विषय भी बनाती हैं। वैसे भी हिंदी ब्लागिंग अब शोध का विषय बन चुकी है। केवल राम, चिराग जैन, सुषमा सिंह जैसे ब्लागॅर्स बकायदा इस पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से शोध कर रहे हैं, जो कि हिंदी ब्लागिंग के लिए एक अच्छा संकेत है।

         ब्लागिंग का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि किसी विषय पर एक ही साथ भिन्न-भिन्न पीढि़यों के नजरिए स्पष्ट होते हैं। ब्लागिंग से कुछ भी अछूता नहीं है, फिर चाहे वह किसी महान व्यक्तित्व को याद करना हो या किसी विशेष दिवस को। एक विषय पर एक ही साथ कई पोस्ट प्रकाशित होती हैं, बस जरूरत है इन्हें हाथी के विभिन्न अंगों की तरह समेटकर आत्मसात् करने की। जैसे-जैसे ब्लागिंग का दायरा बढ़ता गया, इसमें ब्लागर्स एसोसिएशन से लेकर पुरस्कारों तक की परंपरा भी आरंभ हो गई। कवि, लेखक, साहित्यकार इत्यादि उपाधियों से परे ब्लागर स्वयं में एक उपाधि बन चुकी है। हिंदी ब्लागिंग की सक्रियता का आलम ही है कि अब तो साहित्य अकादमी की तरह ब्लागिंग अकादमी की भी आवाज उठने लगी है। कुछ लोगों का मानना है कि जिस तरह ग्रामीण एवं अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले हिन्दी प्रकाशनों को विशेष मदद मिलती है उसी तर्ज पर दूरदराज तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के ब्लागर्स को भी विशेष सहायता मिलनी  चाहिए। ब्लाग सिर्फ राजनैतिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-कला-सामाजिक गतिविधियों के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि, तमाम कारपोरेट ग्रुप इसके माध्यम से अपने उत्पादों के संबंध में सर्वे और प्रचार भी करा रहे हैं। वास्तव में देखा जाय तो ब्लाग एक प्रकार की समालोचना है, जहाँ पाठक गुण-दोष दोनों को अभिव्यक्त करते हैं। ब्लागिंग का एक बहुत बड़ा फायदा प्रिंट मीडिया को हुआ है। अब उन्हें किसी के पत्रों एवं विचारों की दरकार महसूस नहीं होती। ब्लाग के माध्यम से वे पाठकों को समसामयिक एवं चर्चित विषयों पर जानकारी परोस रहे हैं। आज ब्लाग परम्परागत मीडिया का न सिर्फ एक विकल्प बन चुका है बल्कि ’नागरिक पत्रकार’ की भूमिका भी निभा रहा है। 

     ब्लाग बनाने हेतु मात्र तीन कदम चलने की जरूरत है, फिर अपनी सुविधानुसार उसे रंग-रूप दे सकते हैं। यहाँ ब्लागर ही लेआउट और साज सज्जा की जिम्मेदारी से लेकर सामग्री तक मुहैया कराता है अर्थात संपादक और प्रकाशक से लेकर रिपोर्टर व लेखक तक का कार्य करता है। ब्लागिंग आरम्भ करने हेतु ब्लागस्पाट.काम ; ब्लागर ; वर्डप्रेस ; तथा माईस्पेस ; चर्चित नाम हैं। इनके अलावा ब्लाग.काम, बिगअड्डा, माई वेब दुनिया, याहू ;याहू 360द्, रेडिफ आईलैण्ड, माइक्रोसाफ्ट स्पेसेजद्ध, टाइपपैड, पिटास, रेडियो यूजरलैंड इत्यादि भी ब्लागिंग की सुविधा उपलब्ध कराते हैं। ब्लागिंग की बढ़ती महत्ता देखकर तमाम अखबार भी ब्लागिंग के क्षेत्र में कूद पड़े हैं-दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स इत्यादि। आज ट्विटर द्वारा 140 शब्दों तक माइक्रो-ब्लागिंग भी की जा रही है। ऐसे में कोई भी नेट-यूजर आसानी से ब्लागिंग आरम्भ कर सकता है और अपनी अभिव्यक्तियों को सूचना-संजाल के इस दौर में हर किसी तक पहुँचा सकता है। निश्चिततः भूमंडलीकरण के इस दौर में ब्लागिंग ने न सिर्फ भाषाओं और उनके साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि विस्तृत संवाद का एक सशक्त हथियार भी मुहैया कराया है और हिन्दी भी इसकी अपवाद नहीं है।

- आकांक्षा यादव @ www.shabdshikhar.blogspot.com/ 





रविवार, 14 अप्रैल 2013

डा0 भीमराव अम्बेडकर के प्रति दीवानगी ने रचा ' ‘भीमायनम्’'


आधुनिक भारत के निर्माताओं में डा0 भीमराव अम्बेडकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है पर स्वयं डा0 अम्बेडकर को इस स्थिति तक पहुँचने के लिये तमाम सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। डा0 अम्बेडकर मात्र एक साधारण व्यक्ति नहीं थे वरन् दार्शनिक, चिंतक, विचारक, शिक्षक, सरकारी सेवक, समाज सुधारक, मानवाधिकारवादी, संविधानविद और राजनीतिज्ञ इन सभी रूपों में उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह किया। अंबेडकर के पिता रामजी की यह बेहद दिली इच्छा थी कि उनका पुत्र संस्कृत पढ़े। इसी के मद्देनजर, जब अंबेडकर ने मुंबई के एलफिंस्टन हाई स्कूल में संस्कृत विषय का विकल्प लिया तो वह यह देखकर हैरान हो गए कि स्कूल के शिक्षकों ने उन्हें संस्कृत विषय देने से इसलिए इन्कार कर दिया कि वह एक दलित थे। उन दिनों “निचली जाति” के लोगों को संस्कृत का ज्ञान देना एक ऐसी बात थी जिससे लोग बचते थे। हाल ही में दृष्टि दोष से संघर्षरत 84 वर्षीय एक वैदिक विद्वान प्रभाकर जोशी ने जब डा॰ अंबेडकर के जीवन के विषय में पढ़ना शुरू किया तो उन्हें यह एक विडंबना लगी और इसी के बाद उन्होंने संस्कृत में डा॰ अंबेडकर की जीवनी ‘भीमायनम्’ लिखने का फैसला किया। प्रभाकर जोशी ने भारतीय संविधान के निर्माता डा॰ भीमराव अंबेडकर की जीवनी संस्कृत श्लोकों में लिखी है। डा॰ अंबेडकर की संस्कृत में लिखी संभवतः यह पहली जीवनी है। इस किताब में संस्कृत के 1577 श्लोक हैं और इन श्लोकों में डा॰ अंबेडकर के जीवन की विभिन्न घटनाओं का जिक्र किया गया है। 



      संस्कृत शिक्षक रहे प्रभाकर जोशी पिछड़ों के कल्याण के लिए डा॰ अंबेडकर के अभियान  से बेहद प्रभावित हैं। वे उन्हें ‘महामानव’ कहते हैं। महाराष्ट्र सरकार के महाकवि कालिदास पुरस्कार से सम्मानित प्रभाकर जोशी मोतियाबिंद से पीडि़त हैं।  गौरतलब है कि 2004 में शुरू हुए इस काम के दौरान प्रभाकर जोशी की नेत्र ज्योति पूरी तरह चली गई, फिर भी उन्होंने अपना प्रयास निरंतर जारी रखा। लेखन के दौरान अक्सर कम दिखाई देने की वजह से उनके अक्षर गड्डमड्ड हो जाते थे। उनकी दृष्टि तेजी से धुंधलाती जा रही थी लेकिन इसके बावजूद अपने काम को पूरा करने की उनकी अदम्य इच्छाशक्ति बढ़ती जा रही थी।’ उनके लिखने के बाद उनकी पत्नी उन पंक्तियों को पढ़ती थी और उन्हें बाद में टाइप आदि किए जाने के लिए पठनीय बनाती थीं। कई बार प्रभाकर जोशी के मन में शब्द अचानक आ जाते थे और वे रात में ही उन्हें लिख लेने के लिए उठ जाते थे हालांकि उन्हें यह मालूम ही नहीं होता था कि स्याही सूख गई है। यहाँ एक अन्य प्रसंग का जिक्र करना उचित होगा कि 2 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर के प्रमुख पुरोहित की हैसियत से डा0 अम्बेडकर को दलित होने के कारण मन्दिर में प्रवेश करने से रोकने वाले रामदासबुवा पुजारी के पौत्र और विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के महंत सुधीरदास पुजारी ने भी अपने दादा की भूल का प्रायश्चित करने की इच्छा व्यक्त की थी। यह दर्शाता है कि डा॰ अंबेडकर के विचार व कार्य चिरंतन हैं और आज भी लोग उन्हें समझने की कोशिश कर रहे हैं। पं0 जवाहरलाल नेहरू ने उनके लिए यूं ही नहीं कहा था कि-‘‘डा0 अम्बेडकर हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

'दैनिक जागरण' और 'जनसत्ता' में भी फुदकी 'शब्द-शिखर' की गौरैया


'विश्व गौरैया दिवस' पर पर 20 मार्च, 2013 को 'शब्द-शिखर' पर लिखी गई मेरी पोस्ट 'लौट आओ नन्ही गौरैया'  को 9 अप्रैल, 2013 को जनसत्ता के नियमित स्तम्भ 'समांतर' में 'लौट आओ गौरैया' शीर्षक से स्थान दिया है. 

 इसी पोस्ट को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 21  मार्च, 2013 को  ' 'लौट आओ नन्ही गौरैया' शीर्षक से स्थान दिया है...आभार.

 समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 33 वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!





बुधवार, 20 मार्च 2013

लौट आओ नन्ही गौरैया

याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरैया को अपने आंगन या आसपास कब चीं-चीं करते देखा था। कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी। सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा। गौरैया व तमाम पक्षी हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहे हैं, लोकजीवन में इनसे जुड़ी कहानियां व गीत लोक साहित्य में देखने-सुनने को मिलते हैं। कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगंवार बना देते थे। नन्ही गौरैया के सानिध्य भर से बच्चों को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी, पर अब वही नन्ही गौरैया विलुप्त होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हमीं ही हैं। गौरैया का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और परिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है। बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरण, रहन-सहन में बदलाव, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन, हरियाली कम होने जैसे कई कारणों से गौरैया की संख्या कम होती जा रही है।
बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थी, पर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं। नन्ही परी गौरैया अब कम ही नजर आती है। दिखे भी कैसे, हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया। हरियाली खत्म कर कंक्रीट के जंगल खड़े किए, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर उसका कुदरती भोजन खत्म कर दिया और अब मोबाइल टावरों से उनकी जान लेने पर तुले हुए हैं। फिर क्यों गौरैया हमारे आंगन में फुदकेगी, क्यों वह मां के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी?

कुछेक साल पहले तक गौरेया घर-परिवार का एक अहम हिस्सा होती थी। घर के आंगन में फुदकती गौरैया, उनके पीछे नन्हे-नन्हे कदमों से भागते बच्चे। अनाज साफ करती मां के पहलू में दुबक कर नन्हे परिंदों का दाना चुगना और और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना। ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गांवों में भी नहीं दिखाई देते।

भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है। फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से परिंदों की दुनिया ही उजड़ गई है। गौरैया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं। गौरैया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं। कीटनाशकों से कीड़ों के लार्वा मर जाते हैं। ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है। फिर गौरैया कहाँ से आयेगी ?

गौरैया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है। पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। गौरैया घर के झरोखों में भी घोंसले बना लेती है। अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरैया घोंसला कहां बनाए। मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगें, अनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस भी गौरैयों और अन्य परिंदों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। ऐसे में गौरैया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। इधर कुछ वर्षों से पक्षी वैज्ञानिकों एंव सरंक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरैया की तरफ़ गया। नतीजतन इसके अध्ययन व सरंक्षण की बात शुरू हुई, जैसे की पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ। गौरैया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे हैं।

जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरैया का होना निहायत जरुरी है। हॉउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरैया परिवार की चिड़िया है, जो विश्व के अधिकांशत: भागों में पाई जाती है। इसके अलावा सोमाली, सैक्सुएल, स्पेनिश, इटेलियन, ग्रेट, पेगु, डैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं। भारत में असम घाटी, दक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है। गौरैया पूरे वर्ष प्रजनन करती है, विशेषत: अप्रैल से अगस्त तक। दो से पांच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है। नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं। अनाज, बीजों, बैरी, फल, चैरी के अलावा बीटल्स, कैटरपीलर्स, दिपंखी कीट, साफ्लाइ, बग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं। गौरैया आठ से दस फीट की ऊंचाई पर, घरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झाड़ियों में अपना घोसला बनाती हैं।
गौरैया को बचाने के लिए भारत की 'नेचर्स फोरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया' और 'इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांस' के साथ ही अन्य तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस' मनाने की घोषणा की और वर्ष 2010 में पहली बार 'विश्व गौरैया दिवस' मनाया गया। इस दिन को गौरैया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया। इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किए। कम होती गौरैया की संख्या को देखते हुए अक्टूबर 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया। वहीं गौरैया के संरक्षण के लिए 'बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी' ने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑन लाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है। कई एनजीओ गौरैया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं, ताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढियाँ भी रूबरू हो सके। देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरैया बचाओ के अभियान के बारे जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो, समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है। कुछेक संस्थाएं गौरैया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं। इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अख़बार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चों को घोसला बनाने का हुनर सिखाया जा रहा है । ये घोसले पेड़ों के वी शेप वाली जगह पर गौरैया के लिए लगाए जा रहे हैं।
वाकई आज समय की जरुरत है कि गौरैया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर ही प्रयास करें। कुछेक पहलें गौरैया को फिर से वापस ला सकती हैं। मसलन, घरों में कुछ ऐसे झरोखे रखें, जहां गौरैया घोंसले बना सकें। छत और आंगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखने, उन्हें आकर्षित करने हेतु आंगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परंपरा जैसे कदम भी इस नन्ही पक्षी को सलामत रख सकते हैं। इसके अलावा जिनके घरों में गौरैया ने अपने घोसलें बनाए हैं, उन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है। फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहलें भी आवश्यक हैं।

गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। आज भी बच्चों को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। साहित्य, कला के कई पक्ष इस नन्ही गौरैया को सहेजते हैं, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। गौरैया की कहानी, बड़ों की जुबानी सुनते-सुनते आज उसे हमने विलुप्त पक्षियों में खड़ा कर दिया है। नई पीढ़ी गौरैया और उसकी चीं-चीं को इंटरनेट पर खंगालती नजर आती है, ऐसा लगता है जैसे गौरैया रूठकर कहीं दूर चली गई हो। जरुरत है कि गौरैया को हम मनाएँ, उसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपनी जीवन-शैली में शामिल करें, ताकि हमारे बच्चे उसके साथ किलकारी मार सकें और वह उनके साथ फुदक सके !!

- आकांक्षा यादव