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रविवार, 14 सितंबर 2014

भारतीय भाषाओं से ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है 'हिन्दी'

अंग्रेज जाते-जाते 'बाँटो और राज करो' की नीति  भारतीय भाषाओं पर भी लागू कर गए।  तभी तो आजादी के छः दशकों के बाद भी हिंदी को अपना गौरव नहीं मिला। आज भी हिंदी का सबसे अधिक विरोध अपने देश भारत में ही होता है। आजादी के दौरान हिंदी का सबसे अधिक समर्थन गैर-हिंदी भाषियों मसलन-महात्मा गाँधी, डा. अम्बेडकर, चक्रवर्ती राज गोपालाचारी और काका कालेलकर जैसे लोगों ने किया, पर दुर्भाग्य देखिये कि आजादी के बाद अ-हिन्दी राज्य अभी भी अपनी भाषाई लड़ाई हिंदी से  ही मानते हैं और इन सबके बीच अंग्रेजी आराम से राज कर रही है। अंग्रेजी की 'बाँटो और राज करो' नीति  ने कभी भी भारतीय भाषाओं  को यह सोचने का मौका नहीं दिया कि, वे एक हैं और उन्हें मिलकर अंग्रेजी को बाहर करना है।  संविधान में भी किन्तु-परन्तु के साथ अंग्रेजी को ही बढ़ावा दिया गया है।  हम एक सम्प्रभु राष्ट्र होने का दावा करते हैं पर हमारा संविधान कहीं भी 'राष्ट्रभाषा' का जिक्र नहीं करता। यहाँ तक कि अब सी-सैट के बहाने देश के भावी प्रशासकों को भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं से दूर किया जा रहा है। साठ करोड़ लोगों की भाषा हिंदी अपने ही अस्तित्व के लिए अपनी सहोदर भारतीय भाषाओं से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है और सात समुद्र पार की भाषा अंग्रेजी 'बाँटो और राज करो' की नीति की अपनी सफलता को देखते हुए मन ही मन मुस्कुरा रही है !! 




(विदेशों में भी पताका फहरा रही है हिंदी - कृष्ण कुमार यादव का डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 14 सितम्बर 2014(हिंदी दिवस)  के अंक में प्रकाशित लेख)

(विदेशों में भी हिंदी की पताका  - कृष्ण कुमार यादव का जनसंदेश टाइम्स, 14 सितम्बर 2014 (हिंदी दिवस) के अंक में प्रकाशित लेख)



बुधवार, 10 सितंबर 2014

क्या अब फ़िल्मी नायक-नायिकाओं से प्रेरणा लेंगे पुलिस अधिकारी

सिंघम, मर्दानी, कटियामार.......आजकल पुलिस से लेकर बिजली अधिकारी तक इन फिल्मों से प्रेरणा ले रहे हैं।  मंत्री से लेकर सीनियर आफिसर्स तक अपने अधीनस्थों को इन फिल्मों को देखने की सलाह दे रहे हैं।  यहाँ तक कि कुछेक जगहों पर सरकारी खर्च पर इन फिल्मों  को अधिकारियों-कर्मचारियों को दिखाने का प्रबन्ध भी किया गया। 

कभी फिल्में समाज का आइना होती थीं। प्रशासन या समाज के वास्तविक चरित्र कहीं न कहीं इन फिल्मों में दिख जाते थे। पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब प्रशासन  फिल्मों के नायक-नायिकाओं से प्रेरणा ले रहा है। क्या वास्तविक जीवन के पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों में ऐसा कोई नहीं हैं जो फिल्मी नायक-नायिकाओं की बजाय वास्तविक जीवन में प्रेरणा बन सके।

 बेहतर तो यही होता कि फिल्मी परदे पर नायक-नायिकाओं को देखकर उत्साहित होने कीे बजाय हम अपने बीच में से वास्तविक नायक-नायिकाओं की पहचान करते व उन्हें पूरा समर्थन देते। पिक्चर हाल में फिल्में देखते समय साधारण मनुष्य भी अपने को इन नायक-नायिकाओं से एकाकर लेता है। परंतु बाहर कदम रखते ही सारे जज्बात हवा हो जाते हैं।

 इस संबंध में ’मैरी काॅम’ जैसी फिल्म की सराहना होनी चाहिए जो कि वास्तविक जीवन की मुक्केबाज खिलाड़ी पर आधारित है, जिसने तमाम परंपरागत लकीरों को ठुकराकर नये आयाम रचे। काश प्रशासन मणिपुर में इस फिल्म को दिखाने की हिम्मत कर पाता !!

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

असली जीवन की 'मर्दानी'


'मर्दानी' फिल्म आजकल चर्चा में है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के ऊपर लिखी सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ  'खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी' भला किसे न याद होंगी। बदलते वक़्त और परिप्रेक्ष्य के साथ इस प्रकार की तमाम घटनाएँ सामने आती हैं तो अनायास ही लोगों के मुँह से निकला पड़ता है -खूब लड़ी मर्दानी।


अपने देश भारत के तमाम अंचलों  में महिलाओं पर हो रहे जुल्म-ओ-सितम के बीच भय और आतंक के साए में सांस ले रही महिलाओं ने खुद पर भरोसा करना सीख लिया है। इन सबके बीच मेरठ की एक दिलेर महिला ममता यादव नई मिसाल बनकर उभरी हैं। मेरठ के  सिविल लाइन क्षेत्र में 19 अगस्त, 2014 को कचहरी पुल के पास  अपनी अस्मिता और पति की रक्षा के लिए ममता ने हमलावर युवकों की पिटाई कर डाली थी। इस दौरान पुलिस  तमाशबीन बनी रही तो कुछ लोग नैतिकता का प्रवचन झाड़ रहे थे। जब वह लोगों से अपील कर रही थी, तो इन युवकों में से कुछ युवक अश्लील टिप्पणियां भी कर रहे थे और कुछ उनकी फोटो और वीडियो उतारने में लगे हुए थे।  

वस्तुत:  कार में सवार कुछ मनचले, बाइक पर पति के साथ जा रही युवती ममता यादव पर छींटाकशी करते चल रहे थे। इसी दौरान मनचलों ने कार बाइक में भिड़ा दी। जब बाइक सवार पति-पत्नी ने इसका विरोध किया तो मनचलों ने गाली- गलौज करते हुए पति पर हमला बोल दिया। यह सब देख युवती असहज हो गई। आसपास नजर घुमाकर देखा, तो पूरी भीड़ बेजान नजर आई। बुजदिल जमाने में उसे कोई अपना नहीं लगा। पास में खड़े पुलिस के जवानों में भी कोई हरकत नहीं हुई। लफंगों के हाथ से पिट रहे अधेड़ व्यक्ति को छुड़ाने के लिए कोई हाथ आगे नहीं बढ़ा। बेशर्मी की हद तो तब पार हो गई जब कइयों ने मारपीट सीन पर अपने मोबाइल के कैमरे की फ्लैश डालनी शुरू कर दी। ऐसे में भय की आबोहवा में कायर होते जा रहे समाज का घिनौने चेहरे ने युवती के अंदर हौसला भर दिया। उसने ताल ठोंकी और आधा दर्जन लड़कों से अकेले मुकाबला करते हुए उन्हें भागने पर मजबूर किया। लफंगे युवाओं ने ममता यादव  पर काबू जमाने की भरपूर कोशिश की, किंतु नारी की शक्ति और स्वाभिमान ने उनके पैर उखाड़ दिए। मामला बिगड़ता देख जब भी युवाओं ने भागने का प्रयास किया तो ममता  ने उनका रास्ता रोक लिया। तमाशबीन व जड़ हो चुकी भीड़ भी दृश्य को देख शर्मसार हो गई। कइयों ने बाद में ममता  के समर्थन में आवाज ऊंची करने की कोशिश की, जिसे उन्होंने  ने डांटकर चुप करा दिया। तमाशबीन लोगों के बीच घायल अवस्था में ही वे घर लौट आए। ममता ने कहा कि वे विक्टोरिया पार्क स्थित बिजली विभाग कार्यालय में बिल जमा कराने के लिए 23 हजार रुपये लेकर जा रहीं थीं। पैसे तो बच गए, लेकिन पति को बचाने की जद्दोजहद में उनकी चेन टूट गई। ममता यादव एलआइसी की एजेंट है और उनके पति कपड़े का व्यवसाय करते हैं। बहरहाल, लफंगों के आतंक से भयभीत भीड़ को ममता ने बहादुरी से अन्याय के खिलाफ लडऩे का संदेश दिया। लगे हाथ पुलिस को आइना दिखाया।

इस घटना के समय ममता ने हिम्मत तो दिखाई, पर इससे  वह बेहद घबराई भी हुई थीं। उन्हें  डर था कि उनके सामने आने के बाद हमलावर उनके घर तक नहीं पहुंच जाए। इसलिए वह तीन दिन से घर में चुप बैठी थीं। ममता की बड़ी बहन शशि यादव को जब पूरी घटना का पता चला तो वे दिल्ली से मेरठ पहुंचीं और ममता को मीडिया के सामने आने व पुलिस में अपनी ओर से शिकायत देने के लिए तैयार कराया। घटना के तीन दिन बाद 23 अगस्त को अंतत : तमाम झिझक को ताक पर रखकर ममता  मीडिया से मुखातिब हुई और पूरे वाकये को दोहराया। ऐसे में  अकेले दम कई युवाओं को धूल चटाने वाली ममता यादव के जज्बे की खबर राष्ट्रीय स्तर पर अख़बारों और तमाम  टीवी चैनलों की सुर्खियां बन गई।  ममता ने इस मामले की लिखित शिकायत पुलिस में की है। सामान्य सी जिंदगी जी रही ममता हाल-फिलहाल कैमरे की चकाचौंध और अखबारनवीसों के सवालों से घिरी हैं। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आदेश पर जिले के आला अफसरान ने ममता यादव के घर जाकर उन्हें एक लाख रुपये का चेक सौंपा। ममता का कहना है कि वह चाहती है कि हमलावरों को कड़ी से कड़ी सजा मिले, जिससे समाज में संदेश जाए कि ऐसे बदमाशों के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने की बजाए उनका सामना करना चाहिए।

हमलावरों के ग्रुप से अकेली लड़ने वाली साहसी महिला ममता यादव ने रविवार को साफ कहा है कि मुझे इनाम नहीं, न्याय चाहिए।ममता ने कहा कि मैं किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष नहीं बल्कि व्यवस्था के खिलाफ बोल रही हूं। रविवार को महिला की तरफ से भी पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली है और उसका मेडिकल भी करा दिया है। ममता ने कहा कि यदि मुझे तीन दिनों में न्याय नहीं मिला तो जान देने से भी नहीं हिचकूंगी। मीडिया से बातचीत में  ममता यादव ने पुलिस पर आरोप लगाते हुए कहा कि तीन दिन के बाद रविवार शाम को उनकी तहरीर रिसीव की गई। इसके बाद सीओ ने उनका मेडिकल परीक्षण कराया जिसमें उनके हाथ में फैक्चर आया है।ममता ने कहा कि मैं और मेरा परिवार खौफ में जी रहे हैं। चार आरोपियों में से अभी केवल एक ही आरोपी गिरफ्तार हुआ है।  ऐसे में मैं कैसे खुद को सुरक्षित महसूस कर सकती हूं। ममता ने कहा कि मैं किसी भी पार्टी पर अंगुली नहीं उठा रही हूं। बस न्याय मांग रही हूं। ममता ने कहा कि मेरे पति की जिंदगी पर खतरा मंडराया तो मैं हमलावरों से जा भिड़ी। मैंने भीड़ से मदद मांगी लेकिन कोई आगे नहीं आया था। मुझे सरकारी इनाम नहीं बल्कि न्याय चाहिए।अपने सम्मान की रक्षा करना अपराध नहीं है। ममता ने कहा कि मैंने जो किया, वह वक्त की नजाकत थी। हर इज्जतदार महिला को वही करना चाहिए जो मैंने किया। 

 .............पर यह लड़ाई तो अभी अधूरी है क्योंकि अब ममता यादव इंसाफ के लिए व्यवस्था से लड़ रही हैं !!


  

सोमवार, 18 अगस्त 2014

कृष्ण की बाँसुरी की मिठास


प्रेम की बाँसुरी की मिठास वाकई बहुत सुरीली और अनुपम होती है। बांसुरी भगवान श्री कृष्ण को अति प्रिय है, क्योंकि बांसुरी में तीन गुण हैं :

पहला
बांसुरी में गांठ नहीं है।
जो संकेत देता है
कि
अपने अंदर
किसी भी प्रकार की
गांठ मत रखो।
मन में
बदले की भावना मत रखो।

दूसरा गुण
बिना बजाये ये बजती नहीं है।
मानो बता रही है कि
जब तक ना कहा जाए
तब तक
मत बोलो।
और

तीसरा
जब भी बजती है
मधुर ही बजती है।
अर्थात
जब भी बोलो, मीठा ही बोलो।

जय श्रीकृष्ण !!
कृष्ण जन्माष्टमी पर हार्दिक बधाइयाँ !!

मुरलीधर मथुराधिपति माधव मदनकिशोर. 
मेरे मन मन्दिर बसो मोहन माखनचोर. 

कृष्ण जन्माष्टमी पर हार्दिक बधाइयाँ !!

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले से उठाई भारत में बेटियों की व्यथा

स्वतंत्रता दिवस पर  प्रधानमंत्री मोदी जी ने लालकिले से अपने भाषण में राजनैतिक कम, सामाजिक मुद्दों को ज्यादा तरजीह दी। समाज और परिवार पर  कटाक्ष करते हुए उन्होंने एक अहम  बात कही कि आखिर सवालों और बंदिशों के घेरे  में बेटियाँ ही क्यों, बेटे क्यों नहीं रखे जाते ? बेटा-बेटी  के प्रति समाज का  दोहरापन ही तमाम बुराईयों की जड़ है और जिसका प्रतिबिम्ब आज नारी से दुर्व्यवहार और रेप जैसी घटनाओं  में साफ दिख रहा है। आखिर बेटों से यह सवाल क्यों नहीं पूछे जाते कि उनके दोस्त कौन हैं, वे कहाँ जा रहे हैं, उनकी गतिविधियाँ क्या हैं जबकि बेटियों से ये सारे सवाल बार-बार पूछे जाते हैं। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सारे फरमान भी बेटियों पर ही बंदिश लगाते हैं। रेप जैसी घटनाओं के लिए सिर्फ बेटों ही नहीं उनके माँ-बाप भी उतने ही जिम्मेदार हैं।  मोदी जी ने जोर देकर कहा कि बलात्कार की घटनाओं के बारे में सुनकर सिर शर्म से झुक जाता है। माता-पिता बेटियों पर बंधन डालते हैं, लेकिन उन्हें बेटों से भी पूछना चाहिए, वे कहां जा रहे हैं, क्या करने जा रहे हैं ? कानून के साथ समाज को भी जिम्मेदार बनना होगा। 

भ्रूण हत्या पर मोदी जी ने बेहद तल्खी से कहा कि,  हमने हमारा लिंगानुपात देखा है...? समाज में यह असंतुलन कौन बना रहा है...? भगवान नहीं बना रहे...! मैं डॉक्टरों से अपील करता हूं कि वे अपनी तिजोरियां भरने के लिए किसी मां की कोख में पल रही बेटी को न मारें... बेटियों को मत मारो, यह 21वीं सदी के भारत के माथे पर कलंक है। 

मोदी जी ने कहा कि ऐसे परिवार देखे हैं, जहां बड़े मकानों में रहने वाले पांच-पांच बेटों के बावजूद बूढ़े मां-बाप वृद्धाश्रम में रहते हैं... और ऐसे भी परिवार हैं, जहां इकलौती बेटी ने माता-पिता की देखभाल करने के लिए शादी तक नहीं की... सो, एक बेटी पांच-पांच बेटों से भी ज़्यादा सेवा कर सकती है...

मोदी जी ने लाल किले से इस बात को उठाया है तो आवाज़ भी दूर तक जानी चाहिये। 

लाल किले की प्राचीर से जब तिरंगा बुलंदी से फहरा रहा था तो इसी के साथ लोगों की आशाएं भी जगीं। आने वाले दिनों में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया से आधी आबादी सकारात्मक और सख्त क़दमों की आशा तो कर ही सकती है, आखिर इसके बिना तो भारत को सुदृढ़, सशक्त और विकसित नहीं बनाया जा सकता  !!

रविवार, 10 अगस्त 2014

पत्नी द्वारा पति को रक्षासूत्र बाँधने से आरम्भ हुआ रक्षाबंधन का

भारतीय संस्कृति में त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर त्यौहार के साथ धार्मिक मान्यताओं, मिथकों, सामाजिक व ऐतिहासिक घटनाओं और परम्परागत विश्वासों का अद्भुत संयोग प्रदर्शित होता है। त्यौहार सिर्फ एक अनुष्ठान मात्र नहीं हैं, वरन् इनके साथ सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे रहने का सुखद अहसास भी जुड़ा होता है। त्यौहारों को मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं पर उद्देश्य अंतत: एक ही है। यहाँ तक कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए त्यौहारों व मेलों का एक मंच के रूप में प्रयोग होता था।

रक्षाबन्धन भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख त्यौहार है जो कि श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को राखी बाँधती है। भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षा बन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि- ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’- अर्थात ‘सूत्र’ अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा-सूत्र (राखी) भी लोगों को जोड़ता है। गीता में ही लिखा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है, तब ज्योतिर्लिंगम भगवान शिव प्रजापति ब्रह्मा द्वारा धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं, जिन्हें बहनें मंगलकामना करते हुए भाइयों को बाँधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए दुख और पीड़ा से निजात दिलाते हैं।

राखी का सर्वप्रथम उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है जिसके अनुसार असुरों के हाथ देवताओं की पराजय पश्चात अपनी रक्षा के निमित्त सभी देवता इंद्र के नेतृत्व में गुरू वृहस्पति के पास पहुँचे तो इन्द्र ने दुखी होकर कहा- ‘‘अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस नैराश्य भाव को सुनकर गुरू वृहस्पति के दिशा-निर्देश पर रक्षा-विधान हेतु इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र सहित समस्त देवताओं की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा और अंतत: इंद्र ने युद्ध में विजय पाई। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रक्षाबंधन की शुरुआत पत्नी द्वारा पति को राखी बाँधने से हुई। एक अन्य कथानुसार राजा बलि को दिये गये वचनानुसार भगवान विष्णु बैकुण्ठ छोड़कर बलि के राज्य की रक्षा के लिये चले गय। तब देवी लक्ष्मी ने ब्राह्मणी का रूप धर श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बलि की कलाई पर पवित्र धागा बाँधा और उसके लिए मंगलकामना की। इससे प्रभावित हो बलि ने देवी को अपनी बहन मानते हुए उसकी रक्षा की कसम खायी। तत्पश्चात देवी लक्ष्मी अपने असली रूप में प्रकट हो गयीं और उनके कहने से बलि ने भगवान विष्णु से बैकुण्ठ वापस लौटने की विनती की। त्रेता युग में रावण की बहन शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा नाक कटने के पश्चात रावण के पास पहुँची और रक्त से सनी साड़ी का एक छोर फाड़कर रावण की कलाई में बाँध दिया और कहा कि- ‘‘भैया! जब-जब तुम अपनी कलाई को देखोगे, तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटनेवालों से तुम बदला ले सकोगे।’’ इसी प्रकार महाभारत काल में भगवान कृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने व फिर खून की धारा फूट पड़ने पर द्रौपदी ने तत्काल अपनी कंचुकी का किनारा फाड़कर भगवान कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में दु:शासन द्वारा द्रौपदी-चीर-हरण के प्रयास को विफल कर उन्होंने इस रक्षा-सूत्र की लाज बचायी। द्वापर युग में ही एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि वह महाभारत के युद्ध में कैसे बचेंगे तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया- ‘‘राखी का धागा ही तुम्हारी रक्षा करेगा।’’

ऐतिहासिक युग में भी सिंकदर व पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर पर घातक प्रहार हेतु अपना हाथ उठाया तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया। मुगल काल के दौर में जब मुगल सम्राट हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर अपनी रक्षा का वचन लिया। हुमायूँ ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु गुजरात के बादशाह से भी युद्ध किया। इसी प्रकार न जाने कितनी मान्यतायें रक्षा बन्धन से जुड़ी हुयी हैं।

लोक परम्परा में रक्षाबन्धन के दिन परिवार के पुरोहित द्वारा राजाओं और अपने यजमानों के घर जाकर सभी सदस्यों की कलाई पर मौली बाँधकर तिलक लगाने की परम्परा रही है। पुरोहित द्वारा दरवाजों, खिड़कियों, तथा नये बर्तनों पर भी पवित्र धागा बाँधा जाता है और तिलक लगाया जाता है। यही नहीं बहन-भानजों द्वारा एवं गुरूओं द्वारा स्त्रियों को रक्षा सूत्र बाँधने की भी परम्परा रही है। राखी ने स्वतंत्रता-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। कई बहनों ने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधकर देश की लाज रखने का वचन लिया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन की शुरूआत लोगों द्वारा एक-दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधकर हुयी। राखी से जुड़ी एक मार्मिक घटना क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के जीवन की है। आजाद एक बार तूफानी रात में शरण लेने हेतु एक विधवा के घर पहुँचे। पहले तो उसने उन्हें डाकू समझकर शरण देने से मना कर दिया पर यह पता चलने पर कि वह क्रांतिकारी आजाद है, ससम्मान उन्हें घर के अंदर ले गई। बातचीत के दौरान आजाद को पता चला कि उस विधवा को गरीबी के कारण जवान बेटी की शादी हेतु काफी परेशानियाँ उठानी पड़ रही हैं तो उन्होंने द्रवित होकर उससे कहा- “मेरी गिरफ्तारी पर 5000 रूपये का इनाम है, तुम मुझे अंग्रेजों को पकड़वा दो और उस इनाम से बेटी की शादी कर लो।” यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- “भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखकर चल रहे हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। अत: मै ऐसा हरगिज नहीं कर सकती।” यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँधकर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- “अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।”

देश के विभिन्न अंचलों में राखी पर्व को भाई-बहन के त्यौहार के अलावा भी भिन्न-भिन्न तरीकों से मनाया जाता है। मुम्बई के कई समुद्री इलाकों में इसे नारियल-पूर्णिमा या कोकोनट-फुलमून के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन विशेष रूप से समुद्र देवता पर नारियल चढ़ाकर उपासना की जाती है और नारियल की तीन आँखों को शिव के तीन नेत्रों की उपमा दी जाती है। बुन्देलखण्ड में राखी को कजरी-पूर्णिमा भी कहा जाता है। इस दिन कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है। उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में राखी-पर्व पर बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि इस युद्ध में आज तक कोई भी गम्भीर रूप से घायल नहीं हुआ और न ही किसी की मृत्यु हुई। इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा सर्वाधिक भाग्यवान माना जाता है एवं युद्ध समाप्ति के पश्चात पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर आशीर्वाद देते हैं। इसके बाद युद्ध बन्द हो जाता है और योद्धाओं का मिलन समारोह होता है। एक रोचक घटनाक्रम में हरियाणा राज्य में अवस्थित कैथल जनपद के फतेहपुर गाँव में सन् 1857 में एक युवक गिरधर लाल को रक्षाबन्धन के दिन अंग्रेजों ने तोप से बाँधकर उड़ा दिया, इसके बाद से गाँव के लोगों ने गिरधर लाल को शहीद का दर्जा देते हुए रक्षाबन्धन पर्व मनाना ही बंद कर दिया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 150 वर्ष पूरे होने पर सन् 2006 में जाकर इस गाँव के लोगों ने इस पर्व को पुन: मनाने का संकल्प लिया।

रक्षाबन्धन हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तों का अंग है। आज जरुरत है कि आडम्बर की बजाय इस त्यौहार के पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।


( जीवन साथी कृष्ण कुमार यादव जी द्वारा लिखित आलेख, डेली न्यूज एक्टिविस्ट ( 10  अगस्त, 2014) में भी पढ़ सकते हैं )

रविवार, 3 अगस्त 2014

फ्रेण्डशिप-डे : ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे


मित्रता किसे नहीं भाती। यह अनोखा रिश्ता ही ऐसा है जो जाति, धर्म, लिंग, हैसियत कुछ नहीं देखता, बस देखता है तो आपसी समझदारी और भावों का अटूट बन्धन। इस जहां में हर रिश्तों पर भारी है मित्रता का रिश्ता। बशर्ते मित्र सच्चा हो। वैसे इस भौतिकवादी युग में सच्चे मित्रों को तलाश पाना टेढ़ी खीर है। जब दिन अच्छे होते है तो मित्रों की भारी-भरकम फौज साथ होती है, दिन खराब हुए तो यह फौज गायब हो जाती है। जो बुरे दिनों में काम आए वही सच्चा मित्र है। उसी पर भरोसा किया जा सकता है। लोग आज भी प्रभु कृष्ण व सुदामा की दोस्ती नहीं भूलते। त्रेता युग के प्रभु राम व सुग्रीव की दोस्ती लोगों को आज भी याद है। ऐसे ही तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं जहाँ मित्रता ने हार जीत के अर्थ तक बदल दिये। सिकन्दर-पोरस का संवाद इसका जीवंत उदाहरण है। मित्रता या दोस्ती का दायरा इतना व्यापक है कि इसे शब्दों में बाँंधा नहीं जा सकता। दोस्ती वह प्यारा सा रिश्ता है जिसे हम अपने विवेक से बनाते हैं। अगर दो दोस्तों के बीच इस जिम्मेदारी को निभाने में जरा सी चूक हो जाए तो दोस्ती में दरार आने में भी ज्यादा देर नहीं लगती। सच्चा दोस्त जीवन की अमूल्य निधि होता है। दोस्ती को लेकर तमाम फिल्में भी बनी और कई गाने भी मशहूर हुए-

                                   ये तेरी मेरी यारी
                                   ये दोस्ती हमारी
                                   भगवान को पसन्द है
                                   अल्लाह को है प्यारी।

     ऐसा ही एक अन्य गीत है-

                                ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे
                                छोड़ेंगे दम मगर
                                तेरा साथ न छोड़ेंगे।

    हाल ही में रिलीज हुई एक अन्य फिल्म के गीतों पर गौर करें-

                               आजा मैं हवाओं में बिठा के ले चलूँ
                               तू ही-तू ही मेरा दोस्त है।

दोस्ती की बात पर याद आया कि आजकल ‘फ्रेण्डशिप-डे‘ मनाने का चलन भी जोरों पर है। यद्यपि इस बात से इत्तफाक नहीं रखा जा सकता कि किसी संबंध को दिन विशेष के लिए निर्धारित कर दिया जाय, पर उस दिन का आनन्द लेने में कोई हर्ज भी नहीं दिखता। फ्रेण्डशिप कार्ड, क्यूट गिफ्ट्स और फ्रेण्डशिप बैण्ड से इस समय सारा बाजार पटा पड़ा है। हर कोई एक अदद अच्छे दोस्त की तलाश में है, जिससे वह अपने दिल की बातें शेयर कर सके। पर अच्छा दोस्त मिलना वाकई एक मुश्किल कार्य है। दोस्ती की कसमें खाना तो आसान है पर निभाना उतना ही कठिन। आजकल तो लोग दोस्ती में भी गिरगिटों की तरह रंग बदलते रहते हैं। पर किसी शायर ने भी खूब लिखा है-

                              दुश्मनी जमकर करो
                              लेकिन ये गुंजाइश रहे
                              कि जब कभी हम दोस्त बनें
                              तो शर्मिन्दा न हों।


मित्रों के बिना जीवन की कल्पना ही अधूरी है। कोई मित्र यूंँ ही नहीं बन जाता, बल्कि उसके पीछे तमाम बातें होती  हैं।  अब तो वैज्ञानिक भी इस पर शोध कर रहे हैं। यूनिवर्सिटी आॅफ कैलिफोर्निया और येल यूनिवर्सिटी में हुए एक शोध की मानें तो मित्रों की सिर्फ आदतें  या सोचने का तरीका ही एक जैसा नहीं होता बल्कि उनका डीएनए भी समान होता है। अब तक सिर्फ पारिवारिक सदस्यों के डीएनए ही एक जैसे होने की बात कही जाती रही है, पर अब तो दोस्तों का डीएनए भी तकरीबन उतना ही मिलता है, जितना दूर के रिश्तेदारों का।

फिलहाल, फ्रेण्डशिप-डे की बात करें तो भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में परंपरानुसार यह अगस्त माह के प्रथम रविवार को मनाया जाता है। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा 1935 में अगस्त माह के प्रथम रविवार को दोस्तों के सम्मान में ‘राष्ट्रीय मित्रता दिवस‘ के रूप में मनाने का फैसला लिया गया था। इस अहम दिन की शुरूआत का उद्देश्य प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उपजी कटुता को खत्म कर सबके साथ मैत्रीपूर्ण भाव कायम करना था। पर कालांतर में यह सर्वव्यापक होता चला गया। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े, इसके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ ने बकायदा 1997 में लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती के राजदूत के रूप में पेश किया। 


इस फ्रेण्डशिप-डे पर बस यही कहना उचित होगा कि सच्चा दोस्त वही होता है जो अपने दोस्त का सही मायनों में विश्वासपात्र होता है। अगर आप सच्चे दोस्त बनना चाहते हैं तो अपने दोस्त की तमाम छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी बातों को उसके साथ तो शेयर करें लेकिन लोगों के सामने उसकी कमजोरी या कमी का बखान कभी न करें , नहीं तो आपके दोस्त का विश्वास उठ जाएगा क्योंकि दोस्ती की सबसे पहली शर्त होती है विश्वास। हाँ, एक बात और। उन पुराने दोस्तों को विश करना न भूलें जो हमारे दिलों के तो करीब हैं, पर रहते दूरियों पर हैं।

एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि आजकल लड़के-लड़कियाँ भी अच्छे दोस्त होते हैं, लेकिन इस दोस्ती की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए इसकी गरिमा बनाए रखना जरूरी है। सच्चा मित्र जीवन के लिए वरदान जैसा होता है। ऐसे में आज जरूरत है सच्चे दोस्तों की।

फ्रेण्डशिप-डे : ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे 
(डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 3 अगस्त 2014 में आकांक्षा यादव का फ्रेण्डशिप-डे पर आलेख)


- आकांक्षा यादव


सच्चा मित्र जीवन के लिए वरदान जैसा 
(जनसंदेश टाइम्स, 3 अगस्त 2014 में आकांक्षा यादव का फ्रेण्डशिप-डे पर आलेख)


गुरुवार, 24 जुलाई 2014

दुनिया की हर तीसरी 'बालिका वधू' भारत में

बाल विवाह के तमाम किस्से और घटनाएँ हमने सुनी हैं।  कई बार लगता है कि ये सब अतीत की बातें हैं और सभ्य, सुशिक्षित व जागरूक होते समाज में इसकी गुंजाइश अब नहीं है।  पर यह एक अजीब  विडंबना है कि जिन देशों में बाल विवाह सबसे ज्यादा होते हैं, उनमें भारत भी है। यूनीसेफ  द्वारा जुलाई 2014 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की हर तीसरी बालिका वधू भारत में है। यूनिसेफ की रिपोर्ट 'एंडिंग चाइल्ड मैरिज - प्रोग्रेस ऐंड प्रॉस्पेक्ट' के अनुसार, दक्षिण एशिया खासकर भारत और सब-सहारा अफ्रीका बाल विवाह के मामले में सबसे आगे हैं। दुनियाभर की बाल वधुओं में से करीब आधी (42 फीसदी) दक्षिण एशिया में हैं। 

इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 25 करोड़ महिलाएं तो महज 15 साल से भी कम उम्र में ही ब्याह दी गईं, वहीं 70 करोड़ से अधिक महिलाएं 18 साल से कम उम्र में ब्याही गईं। इस रिपोर्ट के अनुसार बाल विवाह के मामले में भारत छठा प्रमुख देश है। 33 फीसदी बाल वधुएं अकेले भारत में हैं।बाल विवाह के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 देशों की बात करें तो इनमें क्रमश: नाइजर, बांग्लादेश, चाड, माली, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, भारत, गिनी, इथोपिया, बुरकीना फासो और  नेपाल शामिल हैं।  

दक्षिण एशिया में बाल-विवाह एक विकट समस्या है।  अकेले 42 फीसदी बाल वधुएं दक्षिण एशिया में हैं। दक्षिण एशियाई और उप सहारा अफ्रीकी इलाकों में बाल विवाह आम बात है।  भारत उन दस शीर्ष देशों में है जहां बाल विवाह की सबसे ऊंची दर है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहाँ 27% महिलाएं ऐसी हैं, जिनकी शादी 15 वर्ष से कम उम्र में हुई है, वहीं 31% महिलाओं का विवाह 15 से 18 के बीच हुआ है। भारत में शादी की औसत उम्र 19 साल है।  

ऐसा नहीं है कि बाल विवाह के खिलाफ कानूनी प्रावधान नहीं हैं, पर उनका प्रभावी क्रियान्वयन जरूर नहीं हो रहा है। भारत में 18 साल से कम उम्र में लड़की का और 21 साल से कम उम्र में लड़के का विवाह बाल विवाह माना  जाता है। 1929 में बाल विवाह गैरकानूनी बनाया गया, तब लड़की-लड़का की शादी की उम्र 15 व 18 वर्ष थी। 1950 में संविधान लागू होने के बाद कई संशोधन हुए, जिसमें 1978 में मौजूदा उम्र सीमा तय की गई। 2006 में कानून बनाकर बाल विवाह पर आर्थिक जुर्माना और कैद की सजा का प्रावधान भी किया गया, पर स्थिति में अभी भी बहुत सुधार नहीं है। गौरतलब है कि  भारत में बिहार, राजस्थान, झारखंड, यूपी, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में बाल विवाह की बड़ी समस्या है।



बाल विवाह से तमाम विसंगतियां उत्पन्न होती हैं, यही कारण है कि इसे गंभीर सामाजिक दोष माना  जाता है। कम उम्र में शादी से  स्कूल छूटने और पढ़ाई में पीछे रहने की आशंका सदैव बनी रहती है।  लड़कियों के कम उम्र में माँ बनने से जहाँ मौत का अधिक अंदेशा होता है, वहीं कम उम्र में माँ बनने से सामान्यतया बच्चे भी अविकसित-अस्वस्थ पैदा होते हैं। कम उम्र में यौन संबंध से जननांगों में विकृति की संभावना तो होती ही है, बाल वधुओं के घरेलू हिंसा की चपेट में आने का खतरा भी अधिक होता है।  

बाल विवाह को रोकने के लिए तमाम लड़कियाँ भी खुद सामने आई हैं। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले की संगीता बौरी ने न केवल खुद को बल्कि दूसरी अनेक लड़कियों को भी बाल वधू बनने से बचाया है। संगीता जब 15 साल की हुई तो परिवारवालों ने उसकी जबरन शादी करानी चाही, लेकिन उसने असाधारण हिम्मत दिखाते हुए अपनी शादी रुकवा दी। उसके गांव की दो और लड़कियों, बीना कालिंदी और मुक्ति मांझी ने भी बचपन में शादी से इनकार कर दिया। इन लड़कियों को दिसंबर 2011 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सम्मानित किया। संगीता आज एक मिसाल बन चुकी है।  

इसमें कोई शक नहीं कि स्त्री जननांगों के विकृत करने और बाल विवाह दो ऐसी बाते हैं, जो दुनियाभर में करोड़ों लडकियों के अपने निर्णय लेने के अधिकार को प्रभावित करती हैं। लड़कियां संपत्ति नहीं हैं। उन्हें अपनी तकदीर चुनने का अधिकार है। जब वे ऐसा करने में सक्षम होंगी तो इससे सभी को फायदा होगा। अत: बाल विवाह पर रोक के लिए सिर्फ क़ानूनी नहीं बल्कि सामाजिक, पारिवारिक और वैयक्तिक पहल भी जरुरी है। 

- आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर


मंगलवार, 15 जुलाई 2014

'पत्नी' और 'माँ' एक ही सिक्के के दो पहलू

इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया और वाट्स-एप तक तमाम ऐसे मैसेज प्राप्त होते हैं या दिखाई देते हैं, जिनमें 'पत्नी' को लेकर तमाम तरह के व्यंग्य और छींटाकशी होती है। कई बार तो पत्नी को एक समस्या के रूप में दिखाया जाता है, यहाँ तक कि पत्नी द्वारा पति की सलामती के लिए रखे जाने वाले व्रतों को  लेकर  भी तमाम व्यंग्य दिखते हैं।

....वहीँ, तमाम ऐसे सन्देश भी दिखाई देते हैं, जिनमें माँ की महिमा गाई गई है। कविगण भी माँ की महिमा में मंचों  से लेकर पन्नों तक  रँग डालते हैं और पत्नी को व्यंग्य विषय बनाकर रचनाएँ रचते हैं.

......पर लोग इस तरह की रचनाएँ रचते हुए,  सन्देश पोस्ट करते हुए या शेयर करते हुए भूल जाते हैं कि 'पत्नी' और 'माँ' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी की पत्नी ही बच्चों की माँ बनती है और हर माँ किसी की पत्नी होती है।

 वास्तव में ये दोनों नारी की ही भूमिकाएं हैं। पर यह पितृसत्तात्मक समाज अपनी  स्वार्थ सिद्धि के लिए इन दोनों भूमिकाओं को अलग-अलग कर आँकता है !! 













मंगलवार, 8 जुलाई 2014

नारों और आँकड़ों में उलझी गरीबी

'गरीबी हटाओ' का नारा हमारे जन्म से भी पहले का है। वक़्त बदला, पीढ़ियाँ बदल गईं पर नारा अभी भी वहीँ अटका पड़ा है।  हर सरकार गरीबी निर्धारण के नए फार्मूले तैयार करती है।  गरीबी का पैमाना कुछ रुपयों के बीच झूल रहा है।  इसे थोड़ा सा आगे या पीछे कर सरकारें अपनी इमेज चमकाती हैं कि देखो हमने इतने प्रतिशत गरीबी कम कर दी, पर बेचारा गरीब अभी भी उसी स्थिति में पड़ा है।  न तो उसे गरीबी रेखा की बाजीगरी समझ में आती है और न उसे यह पता होता  है कि कब वह गरीबी रेखा से नीचे या ऊपर हो गया।  सवाल अभी भी वहीँ मौजूं है कि आखिर सरकारें गरीबी दूर करने के लिए 'नारों' और 'गरीबी रेखा के पैमानों' पर ही क्यों अटकी पड़ी हैं।  आखिर इस दिशा में कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती !!





बुधवार, 25 जून 2014

लड़कियों को छेड़ा तो जोरदार करंट मारेगी सैंडिल

महिलाओं के साथ जिस तरह अत्याचार हो रहे हैं और उनकी सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो रहा है, ऐसे माहौल में शासन-प्रशासन के साथ ही कुछ विद्यार्थी भी इस प्रयास में जुटे हैं कि महिलाएं सुरक्षित रहें और उनकी स्वतंत्रता भी प्रभावित न हो। हाल ही में कुछेक ऐसे अविष्कारों के बारे में पढ़ना रोचक भी लगा और अच्छा भी। गौर कीजिये- छेड़खानी करने वालों को झटका देने वाली सैंडिल और लोकेशन बताने वाली लेडीज जींस।  

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में स्थित अशोका इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी एंड मैनेजमेंट के छात्र-छात्राओं ने इस दिशा में अनूठे प्रयास किये हैं। इनमें  बीटेक (कंप्यूटर साइंस) की द्वितीय वर्ष की छात्रा सलोनी यादव ने ऐसी फैशनेबल सैंडिल का अविष्कार किया है, जो जीपीएस से लैस है। यह सैंडिल पहनने वाली की लोकेशन बताती है। करीब 2,800 रुपए लागत वाली इस सैंडिल को पांच से छह महीने के बीच सिर्फ दो घंटे चार्ज करना पड़ता है। 

फैशनेबल सैंडिल कई बार अन्य कार्य भी कर सकती है।  तभी तो सीएस द्वितीय वर्ष की छात्रा रिजुल पांडे ने करंट वाली सैंडिल पेश की है। यह सैंडिल किसी को मारने पर उसे जोरदार झटका देती है। बटन दबते ही यह एक्टिव हो जाती है और छेड़खानी करने वालों को ऐसा झटका देती है कि वह बेहोश भी हो सकता है। इसके मोटे सोल के तल पर करंट प्रवाहित करने वाले उपकरण लगे हुए हैं। इसकी लागत एक हजार रुपए है । 

इसी संस्थान की  दीक्षा पाठक व इलेक्ट्रानिक्स एंड कम्युनिकेशन की छात्रा अंजली ने एक विशेष किस्म का लेडीज जींस पेश किया है , जिसमें लगा डिवाइस आपात स्थिति में बटन दबाने पर पांच ऐसे लोगों को सूचना भेज देगा, जिनके नंबर उसमें फीड होंगे। 

वाकई, अब समय आ गया है कि फैशन के साथ-साथ ऐसे यंत्रों का अविष्कार किया जाये जो हमारी दिनचर्या में भी शामिल हों और सुरक्षा भी दें !!

गुरुवार, 12 जून 2014

संघ लोक सेवा आयोग ने किए आईएएस के परिणाम घोषित, टॉप टेन में चार लड़कियाँ

संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने वर्ष 2013 के परिणाम घोषित कर दिए गए हैं। परिणामों में पहला स्‍थान गौरव अग्रवाल ने हासिल किया और महिलाओं में पहला स्‍थान भारती दीक्षित ने हासिल किया है। परीक्षा में सफल हुए सभी परिक्षार्थियों को आईएएस, आईएफएस और आईपीएस कॉडर में तैनाती मिलगी। यूपीएससी की परीक्षा में कुल 1122 परीक्षार्थी उत्‍तीर्ण हुए हैं जबकि भारत सरकार के पास कुल 1128 पद खाली हैं। 

परीक्षा में टॉप करने वाले गौरव अग्रवाल ने एक चैनल से बातचीत से कहा कि मैंने टॉपर होने की उम्मीद नहीं की थी। इस परीक्षा में रैंक क्या होगा इसका अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल है। इस बार का फॉमेंट भी कुछ अलग ही था लेकिन कभी भी तैयारी फॉमेंट के आधार पर नहीं करनी चाहिए। गौरव अग्रवाल का कहना है कि इस बार पूरी मेहनत की और तैयारी के साथ परीक्षा दी थी जिसके कारण मेरी पत्नी और परिवार वालों को मेरी सफलता पर पूरा विश्वास था। उन्‍होंने यह भी कहा कि जो लोग तैयारी कर रहे हैं उनसे कहना चाहूंगा कि आपकी रुचि  पढ़ाई में होनी चाहिए, बेसिक अच्छी होनी चाहिए, अपनी गलतियों पर गौर कीजिए। गौरव का पिछले साल आईपीएस के लिए चयन हुआ था और ट्रेनिंग के दौरान ही उन्होंने सिविल  सेवा की परीक्षा दी उन्होंने पिछली बार की परीक्षा में जो कमियां थी उसे ध्यान में रखकर तैयारी की थी। गौरव ने सफलता का श्रेय पूरे परिवार को दिया। 

टॉप टेन में चार लड़कियों ने भी जगह बनाई है। महिलाओं में पहले स्थान पर भारती दीक्षित हैं। इस परीक्षा में सामान्य वर्ग के 517, अति पिछड़ा वर्ग 326, अनुसूचित जाति के 187 अनुसूचित जनजाति के 92 उम्मीदवार को चुना गया है। 

टॉप 10 के नाम: 1. गौरव अग्रवाल 2. मुनीश शर्मा 3. रचित राज 4. अक्षय त्रिपाठी 5. भारती दीक्षित 6. साक्षी साहनी 7. चंचल राणा 8. जॉनी टॉम वर्गीज 9. दिव्यांशु झा 10. मेघा रुपम

बुधवार, 4 जून 2014

आपकी छोटी सी पहल पर्यावरण को सुरक्षित कर सकती है, आइये एक कदम तो बढ़ाएँ …


स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है और इसके बिना जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। पर्यावरण जीवन के प्रत्येक पक्ष से जुड़ा हुआ है, इसीलिए यह जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे। ऐसे में कुछ छोटी-छोटी बातों पर गौर कर हम पर्यावरण की स्वच्छता के लिए कार्य कर  सकते हैं। इसके लिए अपनी दिनचर्या भी प्रकृति के अनुरूप बनाने की कोशिश करनी होगी। 

जैव-विविधता के संरक्षण एवं प्रकृति के प्रति अनुराग पैदा करने हेतु फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट करना ज्यादा श्र्येस्कर होगा। बच्चों को भी पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है। जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगाकर उनका पोषण करना चाहिए, ताकि सतत-संपोष्य विकास की अवधारणा निरंतर फलती-फूलती रहे। यह और भी समृद्ध होगा यदि अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जाएँ, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों। 

आज के उपभोक्तावादी जीवन में इको-फ्रेण्डली  होना बहुत जरूरी है। पानी और बिजली का अपव्यय रोककर हम इसका निर्वाह कर सकते हैं। फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करके, री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोककर और टॉयलेट इत्यादि में उनका उपयोग कर एवं बिजली की खपत को स्वतः रोककर पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित बनाया जा सकता है !! 

(अमर उजाला, रूपायन-30 मई, 2014 में प्रकाशित आकांक्षा यादव के  विचार)
https://www.facebook.com/AkankshaYadava


मंगलवार, 3 जून 2014

कभी ये भी आजमायें

दादी-नानी माँ के खजाने से स्वास्थ्य का पिटारा



दही मथें माखन मिले, 
केसर संग मिलाय, 
होठों पर लेपित करें, 
रंग गुलाबी आय..

बहती यदि जो नाक हो, 
बहुत बुरा हो हाल, 
यूकेलिप्टिस तेल लें, 
सूंघें डाल रुमाल..


अजवाइन को पीसिये ,
गाढ़ा लेप लगाय,
चर्म रोग सब दूर हो,
तन कंचन बन जाय..


अजवाइन को पीस लें ,
नीबू संग मिलाय,
फोड़ा-फुंसी दूर हों,
सभी बला टल जाय..


अजवाइन-गुड़ खाइए,
तभी बने कुछ काम,
पित्त रोग में लाभ हो,
पायेंगे आराम..


ठण्ड लगे जब आपको,
सर्दी से बेहाल,
नीबू मधु के साथ में,
अदरक पियें उबाल..


अदरक का रस लीजिए.
मधु लेवें समभाग,
नियमित सेवन जब करें,
सर्दी जाए भाग..


रोटी मक्के की भली,
खा लें यदि भरपूर,
बेहतर लीवर आपका,
टी० बी० भी हो दूर..


गाजर रस संग आँवला,
बीस औ चालिस ग्राम,
रक्तचाप हिरदय सही,
पायें सब आराम..

१०
शहद आंवला जूस हो,
मिश्री सब दस ग्राम,
बीस ग्राम घी साथ में,
यौवन स्थिर काम..

११
चिंतित होता क्यों भला,
देख बुढ़ापा रोय,
चौलाई पालक भली,
यौवन स्थिर होय..

१२
लाल टमाटर लीजिए,
खीरा सहित सनेह,
जूस करेला साथ हो,
दूर रहे मधुमेह..

१३
प्रातः संध्या पीजिए,
खाली पेट सनेह,
जामुन-गुठली पीसिये,
नहीं रहे मधुमेह..

१४
सात पत्र लें नीम के,
खाली पेट चबाय,
दूर करे मधुमेह को,
सब कुछ मन को भाय..

१५
सात फूल ले लीजिए,
सुन्दर सदाबहार,
दूर करे मधुमेह को,
जीवन में हो प्यार..

१६
तुलसीदल दस लीजिए,
उठकर प्रातःकाल,
सेहत सुधरे आपकी,
तन-मन मालामाल..

१७
थोड़ा सा गुड़ लीजिए,
दूर रहें सब रोग,
अधिक कभी मत खाइए,
चाहे मोहनभोग.

१८
अजवाइन और हींग लें,
लहसुन तेल पकाय,
मालिश जोड़ों की करें,
दर्द दूर हो जाय..

१९
ऐलोवेरा-आँवला,
करे खून में वृद्धि,
उदर व्याधियाँ दूर हों,
जीवन में हो सिद्धि..

२०
दस्त अगर आने लगें,
चिंतित दीखे माथ,
दालचीनि का पाउडर,
लें पानी के साथ..

२१
मुँह में बदबू हो अगर,
दालचीनि मुख डाल,
बने सुगन्धित मुख, महक,
दूर होय तत्काल..

२२
कंचन काया को कभी,
पित्त अगर दे कष्ट,
घृतकुमारि संग आँवला,
करे उसे भी नष्ट..

२३
बीस मिली रस आँवला,
पांच ग्राम मधु संग,
सुबह शाम में चाटिये,
बढ़े ज्योति सब दंग..

२४
बीस मिली रस आँवला,
हल्दी हो एक ग्राम,
सर्दी कफ तकलीफ में,
फ़ौरन हो आराम..

२५
नीबू बेसन जल शहद ,
मिश्रित लेप लगाय,
चेहरा सुन्दर तब बने,
बेहतर यही उपाय..

२६.
मधु का सेवन जो करे,
सुख पावेगा सोय,
कंठ सुरीला साथ में ,
वाणी मधुरिम होय.

२७.
पीता थोड़ी छाछ जो,
भोजन करके रोज,
नहीं जरूरत वैद्य की,
चेहरे पर हो ओज..

२८
ठण्ड अगर लग जाय जो
नहीं बने कुछ काम,
नियमित पी लें गुनगुना,
पानी दे आराम..

२९
कफ से पीड़ित हो अगर,
खाँसी बहुत सताय,
अजवाइन की भाप लें,
कफ तब बाहर आय..

३०
अजवाइन लें छाछ संग,
मात्रा पाँच गिराम,
कीट पेट के नष्ट हों,
जल्दी हो आराम..

३१
छाछ हींग सेंधा नमक,
दूर करे सब रोग, जीरा
उसमें डालकर,
पियें सदा यह भोग..।


- - आकांक्षा यादव 
https://www.facebook.com/AkankshaYadava

शनिवार, 31 मई 2014

रेप, गैंग रेप, वहशी कृत्य, फाँसी, हत्या ...

रेप, गैंग रेप, वहशी कृत्य, फाँसी, हत्या  .....ये सारे शब्द कानों में पिघले शीशे की तरह चुभ रहे हैं। एक-दो दिन के भीतर उत्तर प्रदेश के कुछेक हिस्सों में हुए ऐसे वीभत्स कृत्य  सरकार पर गंभीर प्रश्नचिन्ह हैं।  मुआवज़ा, सहानुभूति, राजनैतिक बयानबाजी, अधिकारियों के बयान, ब्रेकिंग न्यूज, नेताओं के दौरे, पुलिस जाँच और सीबीआई जाँच .... ये कोई नए शब्द नहीं हैं। प्राय: हर घटना के बाद ऐसे शब्द सुनाई देते हैं और फिर एक लम्बा सन्नाटा पसर जाता है।  घटना सिर्फ एक अखबारी कतरन बनकर रह जाती है।  आखिर, सरकारें और समाज यह क्यों नहीं सुनिश्चित करता है कि ऎसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो ? जितनी जोर से बयानबाजी होती है, उसके बाद उतनी ही जोर से लीपा-पोती भी होती है। दिल्ली में हुआ 'दामिनी' कांड अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है, जब लोग सड़कों पर उतर आये थे…पर उसके बाद की घोषणाओं और वायदों का क्या ?

जब तक ऐसी खोखली बयानबाजियाँ और जाँचें चलती रहेंगी, तब तक इन घटनाओं से पार पाना मुश्किल ही लगता है।  जरुरत राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक व पुलिस कार्यशैली में सुधार की है।  जब राजनीति हर घटना को जाति, संप्रदाय, क्षेत्र  या अन्य चश्मे से देखती है और प्रशासन अपना इक़बाल खो बैठता है तो दुष्कर्मियों और दहशतगर्दों में से भय निकल जाता है।  जरुरत है कि ऐसे दुष्कृत्यों और पाशविकता  के विरुद्ध हम सब सिर्फ अपने-अपने ढंग से खड़े ही न हों, बल्कि  सुनिश्चित करें कि इसके अंजाम तक भी पहुँचें। अन्यथा हर एक पखवाड़े पर ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी और फिर वही  मुआवज़ा, सहानुभूति, राजनैतिक बयानबाजी, अधिकारियों के बयान, ब्रेकिंग न्यूज, नेताओं के दौरे, पुलिस जाँच और सीबीआई जाँच .…… पर नतीजा कब आएगा और क्या आया, किसी को नहीं पता !!

सोमवार, 26 मई 2014

13 साल में कर लिया एवरेस्ट फतह : पूर्णा के जज्बे को सलाम

कहते हैं हौसले बुलंद हों तो फिर पहाड़ भी रास्ता दे देता है।  इसे बखूबी सच कर दिखाया है आंध्रप्रदेश की 13 वर्षीया मालावाथ पूर्णा ने, जिसने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़कर सबसे कम उम्र में इस पर फतह करने  वाली महिला का रिकार्ड बनाया है। पूर्णा ने इस चढ़ाई को चीन के सबसे खतरनाक रास्ते से तय किया है। मनोनीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट के जरिये पूर्णा को बधाई देते हुए कहा,  'इस खबर को पढ़कर बहुत खुशी हुई। हमारे युवाओं को बधाई। हमें उन पर गर्व है।'

पूर्णा आंध्रप्रदेश के खमम जिले की नौवीं कक्षा की छात्रा है। इस अभियान पर वह अपनी सहयोगी 16 वर्षीय साधनापल्ली आनंद कुमार के साथ थीं। पूर्णा और आनंद दोनों ही आंध्र प्रदेश सोशल वेलफेयर एजुकेशन सोसायटी के विद्यार्थी हैं।


52 दिनों की चढ़ाई के बार वे 25 मई, 2014 की सुबह छह बजे एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचे।  पूर्णा ने एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचकर एक रिकॉर्ड कायम कर दिया है।  वह इतनी ऊंचाई पर चढ़ने वाली सबसे युवा महिला बन गयी है।  इन दोनों का चयन सोसायटी के 150 बच्चों में से किया गया, जिन्होंने साहसिक खेलों को चुना था।  इनमें से 20 बच्चों को प्रशिक्षण के लिए दार्जिलिंग के एक प्रतिष्ठित पर्वतारोहण संस्थान में भेजा गया था और नौ बच्चों को पहले भारत-चीन सीमा पर भेजा गया।  इसमें से दो विद्यार्थी ताकत और धीरज की बदौलत सबसे उच्च श्रेणी तक पहुंचने में सफल रहे, जिन्हें अप्रैल में एवरेस्ट फतह करने के लिए भेजा गया।  अब ये दोनों विद्यार्थी बेस कैंप की ओर लौट रहे हैं।

शुक्रवार, 23 मई 2014

एक और महिला मुख्यमंत्री : आनंदी बेन पटेल

राजस्थान, प. बंगाल, तमिलनाडु के बाद एक और राज्य में महिला मुख्यमंत्री।  गुजरात की राजस्व मंत्री आनंदी बेन पटेल 22 मई 2014  को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री  बन गईं। राज्‍यपाल कमला बेनीवाल ने उन्‍हें शपथ दिलाई। इस मौके पर पीएम पद संभालने जा रहे नरेंद्र मोदी के अलावा, बीजेपी अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह, पार्टी के सबसे सीनियर लीडर आडवाणी और कुछ अन्य पार्टी नेता भी मौजूद थे। इसके अलावा, मोदी के धुर विरोधी माने जाने वाले केशुभाई पटेल भी कार्यक्रम में पहुंचे। 

 आनंदीबेन की छवि एक कुशल प्रशासक की मानी जाती है।  राज्य के नौकरशाहों के बीच उनकी तूती बोलती है। मोदी सरकार में वह एकमात्र ऐसी मंत्री थीं जो सरकार के काम-काज पर चर्चा के लिए दूसरे विभागों के सचिवों की भी मीटिंग लेती थी। वह नौकरशाहों से सख्‍ती से काम लेने वाली मंत्री के रूप में जानी जाती हैं। आनंदीबेन बोलती भी कम ही हैं और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी उन्हें हंसते हुए कम ही देखा जाता है। वह गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री तो हैं ही, साथ ही राज्य की भाजपा  सरकार में सबसे ज्यादा दिनों तक मंत्री रहने वाली महिला नेता भी हैं।

आनंदीबेन किसी क्षेत्र विशेष को अपना 'गढ़' बनाने में यकीन नहीं करती हैं। 1998 में वह मांडल सीट से चुनाव जीतीं औऱ अगली बार उत्तरी गुजरात की पाटन सीट से विधानसभा पहुंचीं। 2012 में उन्होंने घटलोडिया से चुनाव जीता।

वह शुरू से ही बहादुर रही हैं। 1987 में स्कूल के दोस्‍तों के साथ पिकनिक के दौरान वह दो लड़कियों को बचाने के लिए सरदार सरोवर जलाशय में कूद पड़ी थीं। बहादुरी के इस कारनामे के चलते उन्हें गवर्नर ने सम्मानित भी किया था। नरेंद्र मोदी और आनंदीबेन, दोनों विसनगर (मेहसाणा) के एनएम हाईस्कूल में ही पढ़ते थे।  मोदी ही आनंदीबेन को राजनीति में लाए थे। दोनों ने एक ही स्‍कूल में पढ़ाई की थी। बाद में आनंदीबेन टीचर बन गईं। लेकिन, मोदी उन्‍हें राजनीति में ले आए। 

73 वर्षीय आनंदीबेन मोदी की गैरमौजूदगी में सरकार चलाती रही हैं। कन्या विद्यालय में टीचर रहीं आनंदीबेन लंबे सियासी सफर के बाद सीएम की कुर्सी तक पहुंची हैं। आनंदीबेन पटेल पुरुष प्रधान समाज में भी अपनी पहचान बनाने के लिए जानी जाती हैं। कहा जाता है कि अपनी स्कूलिंग के दौरान वह लड़कों की क्लास में एकमात्र लड़की थीं। वह 15 सालों से अपने पति से अलग रह रही हैं। आनंदीबेन पटेल अपनी बेटी अानार के बेहद करीब हैं। 

 आनंदी बेन के पति मफतभाई सायकोलॉजी के प्रोफेसर हैं। मफतभाई जनसंघ के समय से ही बीजेपी से जुड़े थे। 46 साल की उम्र में पहली बार आनंदीबेन के राजनीति में आने की चर्चा हुई, वह भी तब, जब मोदी आरएसएस से बीजेपी में आए। कहा जाता है कि मोदी और उनके बीजेपी समर्थकों ने ही आनंदीबेन से राजनीति में आने की गुजारिश की। पहले तो उन्होंने थोड़ा संकोच किया लेकिन बाद मे मफतभाई के कहने पर वह राजनीति में आने के लिए तैयार हो गईं। 

कुछ महीनों बाद जब मोदी गुजरात बीजेपी के महासचिव बने तो उन्होंने ही आनंदीबेन पटेल को पार्टी की राज्य महिला इकाई का अध्यक्ष बनवाया। हालांकि इसकी बड़ी वजह यह भी थी कि राज्य में बीजेपी के पास पटेल जाति की कोई महिला नेता भी नहीं थी। आनंदी तेजी से सियासी सीढ़ियां चढ़ीं और 1994 में उन्हें राज्यसभा के लिए भी नामांकित किया गया। 

1998 से लगातार विधायक आनंदी बेन गुजरात में सर्वाधिक समय तक विधायक रहने वाली महिला नेता हैं। वह केशुभाई पटेल सरकार में भी मंत्री रह चुकी हैं। हालांकि वह अलग-अलग सीटों से चुनाव लड़ती रही हैं। वह पहले मांडल, पाटन और इस बार अहमदाबाद की घटलोडिया सीट से चुनाव जीती हैं। 

आनंदी बेन को मोदी की वफादार साथी माना जाता है। यही नहीं जब केशुभाई की सरकार में मोदी पर निगरानी रखी जा रही थी, तब भी वह मोदी के साथ नजर आने से नहीं डरती थीं। मोदी की कैबिनेट में स्कूलों में नामांकन बढ़ाने और भूमि रिकॉर्ड का डिजिटलाइजेशन करने को लेकर भी उनके काम की खूब तारीफ हो चुकी है।

गुरुवार, 15 मई 2014

अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस : परिवार की महत्ता

परिवार की महत्ता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता।  रिश्तों के ताने-बाने और उनसे उत्पन्न मधुरता, स्नेह और प्यार का सम्बल ही परिवार का आधार है।  परिवार एकल हो या संयुक्त, पर रिश्तों की ठोस बुनियाद ही उन्हें ताजगी प्रदान करती है।  आजकल रिश्तों को लेकर मातृ दिवस, पिता दिवस और भी कई दिवस मनाये जाते हैं, पर आज इन सबको एकीकार करता हुआ ''अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस'' मनाया जाता है।  परिवार का साथ व्यक्ति को सिर्फ भावनात्मक रूप से ही नहीं बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी मजबूत रखता है। परिवार के सदस्य  ही व्यक्ति को सही-गलत जैसी चीजों के बारे में समझाते हैं।  

परिवार की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 1993 में एक प्रस्ताव पारित कर प्रत्येक वर्ष 15 मई को अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।  वस्तुत : अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस परिवारों से जुड़े मसलों के प्रति लोगों को जागरुक करने और परिवारों को प्रभावित करने वाले आर्थिक, सामाजिक दृष्टिकोणों के प्रति ध्यान आकर्षित करने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है.

उपभोक्तावाद एवं अस्त-व्यस्त दिनचर्या के इस दौर में जहाँ कुछ लोग अपने को एकाकी समझकर तनाव, डिप्रेशन और कभी-कभी तो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं, वहीँ कुछ लोग अपने काम को इतनी प्राथमिकता देने लगते हैं कि परिवार के महत्व को ही पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं।  एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में वे ना तो अपने माता-पिता को समय दे पाते हैं और ना ही अपने वैवाहिक जीवन के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में सक्षम होते हैं। 

ऐसे में एक तरफ जहाँ  परिवार के लोगों की वैयक्तिक जरूरतों के साथ सामूहिकता का तादात्मय परिवार को एक साथ रखने के लिए बेहद जरूरी है, वहीँ  परिवार और काम के बीच का संतुलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के लिए उसका परिवार बहुत महत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति के जीवन को स्थिर  और खुशहाल बनाए रखने में उसका परिवार बेहद अहम भूमिका निभाता है।  

सो, आप सभी लोग अपने परिवार के साथ विशेष रूप से आज का दिन इंजॉय करें और wish Happy family !!

रविवार, 11 मई 2014

'माँ' किसी दिन की मोहताज नहीं

माँ दुनिया का सबसे अनमोल रिश्ता है। एक ऐसा रिश्ता जिसमें सिर्फ अपनापन और प्यार होता है। माँ हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती है और माँ की वजह से हम आज इस दुनिया में हैं। दुनिया में माँ का एक ऐसा अनूठा रिश्ता है, जो सदैव दिल के करीब होता है। हर छोटी-बड़ी बात हम माँ से शेयर करते हैं। जब भी कभी उलझन में होते हैं तो माँ से बात करके जो आश्वस्ति मिलती है, वह कहीं नहीं। दुनिया के किसी भी कोने में रहें, माँ की लोरी, प्यार भरी डांँट और चपत, माँ का प्यार, दुलार, स्नेह, अपनत्व व ममत्व, माँ के हाथ का बना हुआ खाना, किसी से झगड़ा करके माँ के आँचल में छुप कर अपने को महफूज समझना, बीमार होने पर रात भर माँ का जगकर गोदी में सर लिए बैठे रहना, हमारी हर छोटी से छोटी जिद को पूरी करना, हमारी सफलता के लिए देवी-देवताओं से मन्नतें माँंगना .....और भी न जाने क्या-क्या कष्ट माँ हमारे लिए सहती है। एक दिन हम सफलता के पायदान पर चढ़ते हुए अपनी अलग ही जिदगी बसा लेते हैं। हम माँ की नजरों से दूर अपनी दुनिया में भले ही अलमस्त रहते है, फिर भी माँ रोज हमारी चिंता करती है। हम सोचते हैं कि हम बड़े हो चुके हैं, पर माँ की निगाह में तो हम बच्चे ही हैं। माँ की इबादत हर दिन भी करें तो भी उसका कर्ज नहीं चुका सकते। कहते हैं ईश्वर ने अपनी कमी पूरी करने के लिए इस धरा पर माँ को भेजा। इस धरा पर माँ ईश्वर का जीवंत रूप है। माँ  को खुशियाँ और सम्मान देने के लिए पूरी जिंदगी भी कम होती है।

    भारतीय परंपरा में मातृ शक्ति का विशिष्ट स्थान है। यहाँ मातृ पूजा की सनातन परंपरा रही है और हर जीवनदायिनी को माँ का दर्जा दिया गया है, फिर चाहे वह धरती हो या प्रकृति। नवरात्र जैसे पवित्र त्यौहार तो मातृ शक्ति को ही समर्पित होते हैं। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी देखें तो मातृ पूजा का इतिहास सदियों पुराना एवं प्राचीन है। यूनान में वसंत ऋतु के आगमन पर रिहा परमेश्वर की मांँ को सम्मानित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता था। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की माँं मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्यौहार मनाने लगा। वस्तुतः ’मातृ दिवस’ मनाने का मूल कारण मातृ शक्ति को सम्मान देना और एक शिशु के उत्थान में उसकी महान भूमिका को सलाम करना है।

पाश्चात्य सभ्यता में माँ के सम्मान में प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को ’’मदर्स डे’’ मनाया जाता है। मदर्स डे की शुरुआत अमेरिका से हुई। वहाँ एक कवयित्री और लेखिका जूलिया वार्ड होव ने 1870 में 10 मई को माँ के नाम समर्पित करते हुए कई रचनाएँ लिखीं। वे मानती थीं कि महिलाओं की सामाजिक जिम्मेदारी व्यापक होनी चाहिए। मदर्स डे को आधिकारिक बनाने का निर्णय अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने 8 मई, 1914 को लिया। 8 मई, 1914 को अन्ना की कठिन मेहनत के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने और माँ के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। वे समझ रहे थे कि सम्मान, श्रद्धा के साथ माताओं का सशक्तीकरण होना चाहिए, जिससे मातृत्व शक्ति के प्रभाव से युद्धों की विभीषिका रुके। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को ’मदर्स डे’ मनाया जाता है।  अमेरिका में मातृ दिवस (मदर्स डे) पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। अलग-अलग देशों में मदर्स डे अलग-अलग तारीख पर मनाया जाता है।

      अब भारत में भी पाश्चात्य देशों की तरह ’मदर्स डे’ को एक खास दिवस पर मनाने का महत्व बढ़ रहा है। इस दिन माँ के प्रति सम्मान-प्यार व्यक्त करने के लिए कार्ड्स, फूल व अन्य  उपहार भेंट किये जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में अभी भी इस दिवस के प्रति अनभिज्ञता है पर नगरों में यह एक फेस्टिवल का रूप ले चुका है। काफी हद तक इसका व्यवसायीकरण भी हो चुका है। 

   रिश्तों पर हावी होती स्वार्थपरता और व्यवसायकिता के बीच यह भी सोचने की जरूरत है कि रिश्ते कहीं किसी दिन विशेष के मोहताज न हो जाएं। माँ तो जननी है, वह अपने बच्चों के लिए हर कुछ बर्दाश्त कर लेती है। पर दुःख तब होता है जब माँ की सहनशीलता और स्नेह को उसकी कमजोरी मानकर उसके साथ दोयम व्यवहार किया जाता है। माँ के लिए बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जाता है, यह कला और साहित्य का एक प्रमुख विषय भी है, माँ के लिए तमाम संवेदनाएं प्रकट की जाती हैं पर माँ अभी भी अकेली है। जिन बेटों-बेटियों को उसने दुनिया में सर उठाने लायक बनाया, शायद उनके पास ही माँ के लिए समय नहीं है। अधिकतर घरों में माँ की महत्ता को गौण बना दिया गया है। आज भी माँ को अपनी संतानों से किसी धन या ऐश्वर्य की लिप्सा नहीं, वह तो बस यही चाहती है कि उसकी संतान जहाँ रहे खुश रहे। पर माँ के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में यह पीढ़ी बहुत पीछे है। माँ के त्याग, तपस्या, प्यार का न तो कोई जवाब होता है और न ही एक दिन में इसका कोई कर्ज उतारा जा सकता है। मत भूलिए कि आज हम-आप जैसा अपनी माँ से व्यवहार करते हैं, वही संस्कार अगली पीढि़यों में भी जा रहे हैं।

- आकांक्षा यादव

शनिवार, 10 मई 2014

प्रचार ख़त्म, अब कैसा महसूस कर रहे नेतागण

लोकसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार अंतत: आज ख़त्म हो गए। अंतिम दौर का मतदान 12 मई को और फिर 16 मई को सभी के भाग्य का फैसला।  दावे, सर्वे, वादे ..... इन सबके बावजूद लोकतंत्र में जनता अंतत : किस करवट  बैठेगी, कोई दावे के साथ नहीं जानता। 

जरा सोचिये, प्रचार ख़त्म होने के बाद अब कैसा महसूस कर रहे होंगे नेतागण। हर किसी का दिल धक-धक कर रहा होगा तो उनमें सत्ता के गुलाबी सपने भी तैर रहे होंगे।  

नरेंद्र मोदी : अंतत : ख़त्म हो गया चुनाव प्रचार।  बड़ी मेहनत की मैंने।  अब जल्दी से रिजल्ट आए तो पता चले। काश घडी की इन सुईयों को मैं तेजी से चला  सकता। अब तो इंतज़ार भी नहीं होता।  

राहुल गाँधी : माँ चिंता न करो।  मेहनत तो बहुत की हमने।  पता नहीं जनता का रिस्पांस कैसा रहेगा। आपकी विरासत भी मुझे ही संभालनी है अब। शायद ऐसा ही कुछ सोच कर माँ को तसल्ली दे रहे हैं राहुल गाँधी. 

अरविन्द केजरीवाल : चलो चुनावी प्रचार ख़त्म हुआ।  बहुत दिन हो गए दिल्ली छोड़े, यहाँ बनारस में तो बोर हो गया। दो-चार दिन घर घूम आते हैं।