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गुरुवार, 30 जनवरी 2025

Special Issue of Hindi Magazine Saraswati Suman : संग्रहणीय है 'सरस्वती सुमन' का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक

प्रतिष्ठित हिंदी मासिक पत्रिका 'सरस्वती सुमन' का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक, दिसंबर-2024 (वर्ष 23, अंक 110) प्राप्त हुआ जो देहरादून, उत्तराखंड से प्रकाशित होती है। वर्तमान अंक का आकर्षण एक साहित्यकार दंपत्ति के रूप में स्थापित आकांक्षा यादव और कृष्ण कुमार यादव के साहित्य पर विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है। इस पत्रिका के प्रधान संपादक डॉ. आनंद सुमन सिंह और संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव हैं। पत्रिका का कवर पेज साहित्य साधना में रत युगल जोड़ी के खूबसूरत छायाचित्र से बहुत कुछ कहता प्रतीत होता है। पत्रिका की अनुक्रमणिका पर दृष्टि डालने से यह बात और भी पुष्ट होती नजर आती है। साहित्य एवं संस्कृति का सारस्वत अभियान के तहत प्रकशित पत्रिका के इस अंक को कुल सात भागों में विभक्त करके कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव की साहित्यिक रचनाधर्मिता को समेटने की कोशिश की गई है। 

प्रथम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कविताएं, द्वितीय भाग में आकांक्षा यादव की कविताएं, तृतीय भाग में कृष्ण कुमार यादव की लघु कथाएं, चतुर्थ भाग में आकांक्षा यादव की लघु कथाएं, पंचम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कहानियाँ, षष्ठ भाग में आकांक्षा यादव के लेख और सप्तम भाग में कृष्ण कुमार यादव के लेख के साथ-साथ युगल आकांक्षा और कृष्ण कुमार यादव का परिचय व्यवस्थित तरीके से प्रकाशित किया गया है।


प्रथम भाग में कृष्ण कुमार यादव की कविताएं जैसे - बदलती कविता, अंडमान के आदिवासी, सेलुलर जेल की आत्माएं, सभ्यताओं का संघर्ष, रिश्तों का अर्थशास्त्र, विज्ञापनों का गोरखधंधा, मांस का लोथड़ा, बिखरते शब्द, मां, बच्चे की निगाह, पॉलिश  ब्रेकिंग न्यूज़ आदि कविताएं पत्रिका के गौरव को बढ़ा रही हैं। द्वितीय भाग में आकांक्षा यादव की कविताएं जैसे- शब्दों की गति, हमारी बेटियां, नियति का प्रहार, वजूद, 21वीं सदी की बेटी,मैं अजन्मी, श्मशान, एहसास, सिमटता आदमी भी विशेष महत्व की कविताएं दिखतीं हैं। तृतीय भाग में कृष्ण कुमार यादव की लघु कथाएं जैसे - एन.जी.ओ, चिंता, व्यवहार, सर्कस, हिंदी सप्ताह, बेटा, एक राहगीर की मौत, खतरनाक, प्यार का अंजाम, रोशनी, दहेज, योग्यता, इन्वेस्टमेंट के साथ चतुर्थ भाग में आकांक्षा यादव की लघु कथाएं जैसे- अधूरी इच्छा, अरमान,बेटियाँ, चैट, अवार्ड का राज, काला आखर आदि प्रमुख आकर्षण हैं।

 
पंचम खंड में कृष्ण कुमार यादव की कहानियाँ  जैसे- आवरण, हकीकत, रिश्तों की नजाकत, शराफत इत्यदि प्रकाशित हैं। षष्ठ भाग में आकांक्षा यादव के लेख - लोक चेतना में स्वाधीनता की लय, भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा, समकालीन परिवेश में नारी विमर्श, मानव और पर्यावरण : सतत विकास और चुनौतियां प्रकाशित हैं। सप्तम खंड में कृष्ण कुमार यादव के लेख - शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत, भागो नहीं दुनिया को बदलो, राजनीति से दूर होता साहित्यिक व सांस्कृतिक विमर्श, कोई लौटा दे वो चिठ्ठियां प्रकाशित हैं।

कृष्ण कुमार यादव की कविताएं सीधे-सीधे जन मानस की आवाज बनी हुई दिखाई देती हैं। वही सुदूर अंडमान-निकोबार के आदिवासी भी उनकी लेखनी के माध्यम से आवाज पाते हैं। एक साहित्यकार की नजर में कृष्ण कुमार यादव सेलुलर जेल की आत्माओं को भी शब्द देते नजर आते हैं। कृष्ण कुमार यादव रिश्तों के अर्थशास्त्र को भी अपनी रचना में कम शब्दों में बेहतरीन तरीके से व्यक्त करते नजर आते हैं। आज का बाजार विज्ञापनों से भरा पड़ा है। ऐसे में उनकी 'विज्ञापनों का गोरखधंधा' कविता विज्ञापनों के खोखलेपन को उजागर करती नजर आती है। 'मांस का लोथड़ा' या 'बिखरते शब्द' पढ़ने से उनके अंदर की संवेदना और संस्कृति की झलक मिलती है। 'बिखरते शब्द' में वह लिखते हैं- "शब्द है तो सृजन है/साहित्य है संस्कृति है/पर लगता है/शब्द को लग गई किसी की बुरी नजर।" इसी तरह 'मां' कविता में कृष्ण कुमार यादव मां के जीवनी के हर पहलू को मां और बेटे के भावनात्मक जुड़ाव के माध्यम से शब्दों में पिरोते हैं। 'पालिश' कविता में उनके जो शब्द हैं वह जमीनी एहसास कराते हैं। कविता की शुरुआत ही एक बालक के जूता पॉलिश करने के शब्द से होती है। जिस शब्द से जूता पॉलिश करने वाला बच्चा जूता पॉलिश कराने वाले को स्नेह के साथ अपने पास बुलाता है-'साहब पॉलिश करा लो' इस एक लाइन में ही उनकी पूरी कविता का विमर्श सामने आ जाता है और उनकी रचना बाल विमर्श के नए अध्याय को खोलती है। 'ब्रेकिंग न्यूज़' कविता में वे आज की मीडिया पर करारा प्रहार करते नजर आते हैं।

आकांक्षा यादव की कविताएं संवेदना की धरातल पर तो लिखी ही गई हैं, साथ ही साथ वह नारी अस्मिता और सशक्तिकरण की बात को भी बहुत सलीके के साथ अपनी कविता में रखती नजर आती हैं। वह लिखती है - 'मुझे नहीं चाहिए/ प्यार भरी बातें/ चांद की चांदनी/ चांद से तोड़कर लाए हुए सितारे/ मुझे चाहिए बस अपना वजूद/ जहां किसी दहेज, बलात्कार,भ्रूण हत्या/का भय नहीं सताए मुझे।' अपनी कविताओं में वे स्त्री विमर्श को सशक्त करती नजर आती हैं।

 



कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव लगातार विभिन्न विधाओं में सक्रियता के साथ लिख रहे हैं और खूब प्रकाशित भी हो रहे हैं। इस युगल की कविताएं कम शब्दों में अपनी बात को व्यक्त करने में सक्षम हैं। दोनों अपने-अपने नजरिये से लघु कथाएं लिखते हैं। दोनों के कैनवास अलग-अलग हैं पर दोनों की दृष्टि लगभग समान है। कृष्ण कुमार यादव की कहानियों का कैनवास बड़ा है और उनकी कहानी एक से बढ़कर एक हैं। आकांक्षा यादव के लेख एक तरफ जहां स्त्री विमर्श के नए आयाम स्थापित करने की कोशिश करते हैं, वही भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं पर बढ़ता खतरा और प्रकृति व पर्यावरण भी उनके लिए पसंदीदा लेखन का विषय है। कृष्ण कुमार यादव का लेख 'भागो नहीं दुनिया को बदलो' राहुल सांकृत्यायन पर एक शोधपरक लेख है, जो कि उनके अपने ही जिले आज़मगढ़ के एक महँ दार्शनिक, यायावर रहे हैं। 'कोई लौटा दे वो चिट्ठियाँ' लेख में कृष्ण कुमार यादव ने बड़ी खूबसूरती से चिट्ठी-पत्री में छुपी भावनाओं और सोशल मीडिया के दौर में उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। लेख पढ़ने के दौरान व्यक्ति उन चिट्ठियों की दुनिया में खो जाता है जिनमें हम सभी के बचपन गुजरे हैं। पत्र लेखन साहित्य की भी एक विधा है और संयोगवश कृष्ण कुमार डाक सेवाओं और साहित्य दोनों से ही गहराई से जुड़े हुए हैं। 


निश्चितत: प्रतिष्ठित हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती सुमन का 'आकांक्षा-कृष्ण युगल' अंक एक संग्रहणीय अंक है। इस तरह का दांपत्य अंक विरले ही देखने को मिलता है। साहित्य समाज का दर्पण है। इस दर्पण में पति-पत्नी के साहित्य को समाज के सामने लाकर 'सरस्वती सुमन' के संपादक ने एक नया विमर्श भी खोला है। साहित्य का अनुराग होने के कारण इस तरह का एक प्रयास हमने भी अपने साहित्य लेखन के दौरान 'सहचर मन' (काव्य संग्रह) 2010 में प्रकाशित कराया था, जिसमें आधी कविताएं मेरी और आधी कविताएं मेरे जीवन साथी प्रोफेसर अखिलेश चंद्र की हैं। इस तरह का प्रयास न केवल साहित्य में बल्कि दांपत्य जीवन में भी खूबसूरत स्थापना का स्वरूप रखते हैं ।

समीक्ष्य पत्रिका - सरस्वती सुमन/ मासिक हिंदी पत्रिका/ प्रधान सम्पादक -डॉ. आनंद सुमन सिंह/ सम्पादक - किशोर श्रीवास्तव/संपर्क -'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, आर्य नगर, देहरादून, उत्तराखंड-248001, मो.-7579029000, ई-मेल :saraswatisuman@rediffmail.com 


समीक्षक : प्रोफेसर (डॉ.) गीता सिंह, अध्यक्ष-स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, डी.ए.वी  पी.जी कॉलेज, आजमगढ़ (उ.प्र.), मो.-9532225244
प्रोफेसर (डॉ.) अखिलेश चन्द्र, शिक्षा संकाय, श्री गांधी पी.जी कॉलेज, मालटारी, आजमगढ़ (उ.प्र.), मो.-9415082614

Mahakumbh Prayagraj : भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को उजागर करता महाकुंभ

महाकुंभ विविध पृष्ठभूमि के लाखों व्यक्तियों को एकजुट करता है, सामाजिक सामंजस्य और सांस्कृतिक संपर्क के लिए एक स्थान स्थापित करता है। यह आयोजन पर्यटन, स्थानीय व्यवसायों के लिए समर्थन और रोजगार सर्जन के माध्यम से आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता है। आगामी 45-दिवसीय धार्मिक उत्सव 2012 के महाकुंभ की तुलना में तीन गुना बड़ा और अधिक महंगा होने का अनुमान है। हर दिन लाखों भक्तों के भाग लेने के साथ, महाकुंभ दुनिया भर में सबसे बड़ी सभाओं में से एक है, जो भारत के आध्यात्मिक महत्त्व का प्रतीक है। प्रयागराज, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियाँ मिलती हैं, का आध्यात्मिक महत्त्व बहुत अधिक है और इसे अक्सर भारतीय ग्रंथों में "सबसे प्रमुख तीर्थ स्थल" के रूप में वर्णित किया जाता है।

इस वर्ष, महाकुंभ मेला पौष पूर्णिमा की शुभ तिथि पर शुरू हुआ, जो 13 जनवरी, 2025 को हुआ और 26 फरवरी, 2025 तक चलेगा। इस वर्ष का महाकुंभ मेला विशेष रूप से विशेष है क्योंकि नक्षत्रों का संरेखण ऐसा कुछ है जो हर 144 वर्षों में केवल एक बार होता है। महाकुंभ मेला हिंदू धर्म में सबसे महत्त्वपूर्ण और पूजनीय धार्मिक समागमों में से एक है, जो हर बारह साल में चार पवित्र स्थलों पर होता है: प्रयागराज (जिसे पहले इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था) , हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। महाकुंभ मेला एक पवित्र तीर्थयात्रा है जो 12 वर्षों की अवधि में चार बार होती है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी शांतिपूर्ण सभा के रूप में मान्यता प्राप्त है।

अनगिनत तीर्थयात्री आध्यात्मिक मुक्ति और पापों की शुद्धि की तलाश में पवित्र नदियों में डुबकी लगाने के लिए इकट्ठा होते हैं। कुंभ मेले की मूल कथा पुराणों में पाई जाती है, जो प्राचीन मिथकों का संग्रह है। आम तौर पर यह माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके कुंभ को लालची राक्षसों से छीन लिया था, जिन्होंने इसे हड़पने का प्रयास किया था। कुंभ मेले की शुरुआत हज़ारों सालों से होती आ रही है, जिसका उल्लेख मौर्य और गुप्त दोनों युगों (4वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 6वीं शताब्दी ई.पू।) में मिलता है। इसे चोल, विजयनगर साम्राज्य, दिल्ली सल्तनत और सम्राट अकबर सहित मुगलों जैसे शाही परिवारों से संरक्षण प्राप्त हुआ। महाकुंभ मेले की शुरुआत 8वीं शताब्दी के विचारक आदि शंकराचार्य द्वारा दर्ज की गई थी। 19वीं शताब्दी में जेम्स प्रिंसेप जैसे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा दर्ज किए गए इस मेले का भारत की स्वतंत्रता के बाद महत्त्व बढ़ गया, यह एकता और सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। 2017 में, यूनेस्को ने इसे मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में स्वीकार किया, जो भारत की स्थायी परंपराओं को उजागर करता है।

यह त्यौहार बहुत आध्यात्मिक महत्त्व रखता है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं और रीति-रिवाजों में गहराई से समाया हुआ है। कुंभ मेले की उत्पत्ति समुद्र मंथन या समुद्र मंथन से जुड़ी है, जिसके दौरान देवताओं (देवों) और राक्षसों (असुरों) ने अमरता के अमृत को सुरक्षित करने के लिए मिलकर काम किया था। मिथक के अनुसार, इस मंथन के दौरान, अमृत से भरा एक घड़ा (कुंभ) सतह पर आया था। राक्षसों को इसे जब्त करने से रोकने के लिए, भगवान विष्णु ने मोहिनी के वेश में घड़ा लिया और भाग निकले। परिणामस्वरूप, अमृत की बूँदें चार स्थानों पर गिरीं: प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। तब से ये स्थान हिंदुओं के लिए पूजनीय तीर्थ स्थल बन गए हैं, माना जाता है कि त्यौहार के दौरान उनके जल में स्नान करने वालों को आध्यात्मिक लाभ मिलता है।

महाकुंभ मेले का प्राथमिक समारोह शाही स्नान है, जिसके दौरान लाखों भक्त महत्त्वपूर्ण समय पर पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह अभ्यास व्यक्तियों को उनके पापों से शुद्ध करता है और उन्हें पुनर्जन्म (संसार) के चक्र से मुक्त करता है, अंततः उन्हें मोक्ष या आध्यात्मिक मुक्ति की ओर ले जाता है। प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती का मिलन स्थल मोक्ष प्राप्ति के लिए विशेष रूप से प्रतिष्ठित है। अपने आध्यात्मिक महत्त्व के अलावा, महाकुंभ मेला एक जीवंत सांस्कृतिक उत्सव के रूप में कार्य करता है जो विभिन्न व्यक्तियों को एकजुट करता है। इसमें तपस्वी (साधु) , भक्त और दर्शक शामिल होते हैं जो उपवास, दान कार्य और सामूहिक प्रार्थना जैसे कई अनुष्ठानों में भाग लेते हैं। यह सभा प्रतिभागियों के बीच जाति और धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर एकजुटता की भावना को बढ़ावा देती है। यह त्यौहार पीढ़ियों से चली आ रही अपनी परंपराओं और प्रथाओं के माध्यम से भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी उजागर करता है।


महाकुंभ विविध पृष्ठभूमि के लाखों व्यक्तियों को एकजुट करता है, सामाजिक सामंजस्य और सांस्कृतिक संपर्क के लिए एक स्थान स्थापित करता है। यह आयोजन पर्यटन, स्थानीय व्यवसायों के लिए समर्थन और रोजगार सर्जन के माध्यम से आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता है। आगामी 45-दिवसीय धार्मिक उत्सव 2012 के महाकुंभ की तुलना में तीन गुना बड़ा और अधिक महंगा होने का अनुमान है। हर दिन लाखों भक्तों के भाग लेने के साथ, महाकुंभ दुनिया भर में सबसे बड़ी सभाओं में से एक है, जो भारत के आध्यात्मिक महत्त्व का प्रतीक है। प्रयागराज, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियाँ मिलती हैं, का आध्यात्मिक महत्त्व बहुत अधिक है और इसे अक्सर भारतीय ग्रंथों में "सबसे प्रमुख तीर्थ स्थल" के रूप में वर्णित किया जाता है।

महाकुंभ मेले में दुनिया भर से 400 मिलियन से अधिक आगंतुक आए। दक्षिण कोरियाई यू ट्यूबर्स और जापान, स्पेन, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के यात्रियों सहित अंतर्राष्ट्रीय तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की एक विस्तृत शृंखला इस आयोजन की भव्यता से मंत्रमुग्ध थी। संगम घाट पर, कई लोगों ने महाकुंभ के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व के बारे में जानने के लिए स्थानीय गाइडों से बातचीत की। आध्यात्मिकता और संस्कृति के इस 45-दिवसीय उत्सव ने दुनिया के सभी हिस्सों से लोगों को आस्था और आध्यात्मिकता पर केंद्रित अनुष्ठानों, प्रार्थनाओं और वार्तालापों में भाग लेने के लिए एक साथ लाया।

 - डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
 हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148,01255281381


बुधवार, 29 जनवरी 2025

प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए 70-90 घंटे काम करना : उत्पादकता और कर्मचारी कल्याण

लंबे कार्य घंटों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए; इसके बजाय, टिकाऊ और कुशल कार्य अनुसूचियों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए जो उत्पादकता और कर्मचारी कल्याण दोनों को बढ़ावा दें। संतुलित और प्रेरित कार्यबल बनाने के लिए समान वेतन संरचना और वास्तविक समावेशिता आवश्यक है। प्रणालीगत असमानताओं को पहचानना और उनका समाधान करना एक निष्पक्ष कार्य वातावरण को बढ़ावा दे सकता है। एक संपन्न कार्यबल व्यक्तिगत कल्याण और पारिवारिक जीवन के महत्त्व को स्वीकार करता है, तथा इन मूल्यों को कार्यस्थल संस्कृति में एकीकृत करता है। इसका लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ पुरुष और महिलाएँ स्वास्थ्य, परिवार या व्यक्तिगत समय से समझौता किए बिना व्यावसायिक सफलता प्राप्त करें, तथा एक समतापूर्ण और समृद्ध भविष्य के लिए सभी श्रमिकों की पूरी क्षमता का उपयोग करें।

लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यन ने हाल ही में सुझाव दिया था कि प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए कर्मचारियों को रविवार सहित प्रति सप्ताह 90 घंटे तक काम करना चाहिए। "लालची नौकरियाँ" उन भूमिकाओं को संदर्भित करती हैं जो समय, ऊर्जा और प्रतिबद्धता के अनुपातहीन रूप से उच्च स्तर की माँग करती हैं, अक्सर उत्पादकता या परिणामों के बजाय लंबे समय तक काम करने वाले कर्मचारियों को पुरस्कृत करती हैं। "लालची नौकरियों" का लिंग समानता और कार्य-जीवन संतुलन पर प्रभाव के साथ करियर विकास पर प्रभाव पड़ता है। महिलाएँ मुख्य रूप से घरेलू ज़िम्मेदारियाँ संभालती हैं, इसलिए वे लालची नौकरियों की माँग के अनुसार लंबे समय तक काम करने, देर रात तक मीटिंग करने और यात्रा करने में असमर्थ होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि नेतृत्व की भूमिकाएँ निभाने वाली महिलाओं की संख्या कम होती है, जिससे कार्यस्थल पर असमानताएँ बढ़ती हैं।

महिला श्रम शक्ति भागीदारी में वृद्धि के बावजूद, कार्यबल में हर 10 पुरुषों के लिए केवल 4 महिलाएँ हैं। यह महिलाओं द्वारा असमान रूप से उठाए जाने वाले अवैतनिक घरेलू कार्यभार से जुड़ा है, जो उनकी आर्थिक स्वतंत्रता के लिए प्रणालीगत बाधाएँ पैदा करता है। लंबे समय तक काम करने वाले कर्मचारियों, पुरुषों और महिलाओं दोनों को ही आराम करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है, जिससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएँ होती हैं। यह व्यक्तियों और संगठनों के लिए दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ नहीं है। लालची नौकरियाँ परिवार के साथ बातचीत और देखभाल में भागीदारी को कम करती हैं, जिससे महिलाओं पर बोझ बढ़ता है। घरेलू कामों में पुरुषों का सीमित योगदान इस असंतुलन को बढ़ाता है।

नोबेल पुरस्कार विजेता क्लाउडिया गोल्डिन "लालची" नौकरियों की पहचान उन भूमिकाओं के रूप में करती हैं, जिनमें पर्याप्त वेतन मिलता है, लेकिन लंबे समय तक काम करना पड़ता है, व्यापक नेटवर्किंग, देर रात तक बैठकें करनी पड़ती हैं और लगातार यात्रा करनी पड़ती है। ये भूमिकाएँ अक्सर व्यक्तियों को व्यक्तिगत और पारिवारिक जिम्मेदारियों से अलग कर देती हैं, तथा अन्य सभी चीजों से ऊपर पेशेवर प्रतिबद्धताओं को प्राथमिकता देती हैं। दोनों काम करने वाले परिवारों के लिए चुनौतियाँ: जिन परिवारों में दो कामकाजी माता-पिता होते हैं, उनमें बच्चों के पालन-पोषण की मांग के कारण आमतौर पर केवल एक ही "लालची" नौकरी कर सकता है। दूसरे माता-पिता को द्वितीयक भूमिका में रखा जाता है, जिसे अक्सर "मम्मी ट्रैक" के रूप में संदर्भित किया जाता है, जहाँ वे घरेलू और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारियों का प्रबंधन करते हैं, जैसे स्कूल की गतिविधियाँ, चिकित्सा आवश्यकताएँ और पाठ्येतर गतिविधियाँ।

जबकि "मम्मी ट्रैक" की भूमिका माता-पिता में से किसी एक द्वारा निभाई जा सकती है, सामाजिक मानदंड और अपेक्षाएँ अक्सर यह बोझ महिलाओं पर डालती हैं। परिणामस्वरूप, महिलाएँ अक्सर पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए करियर में उन्नति और उच्च वेतन को छोड़ देती हैं। महिलाओं का कैरियर पथ प्रायः अवरुद्ध रहता है, जिससे नेतृत्वकारी भूमिकाएँ और कैरियर विकास के उनके अवसर सीमित हो जाते हैं। "लालची" नौकरियों और "मम्मी ट्रैक" के बीच का विभाजन वेतन अंतर को बढ़ाता है, यहाँ तक कि उच्च शिक्षित व्यक्तियों के बीच भी, क्योंकि पुरुष उच्च वेतन वाली, मांग वाली भूमिकाओं पर हावी हैं। यह गतिशीलता कार्यस्थल और समाज में प्रणालीगत लैंगिक असमानता को क़ायम रखती है।

परिणाम-आधारित प्रदर्शन मीट्रिक पेश करें जो कार्यालय में बिताए गए समय के बजाय परिणामों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे लंबे समय तक काम करने के घंटों का महिमामंडन कम होता है। साझा देखभाल जिम्मेदारियों को प्रोत्साहित करने के लिए पुरुषों और महिलाओं के लिए माता-पिता की छुट्टी तक समान पहुँच प्रदान करें। कैरियर विकास या मुआवजे के मामले में कर्मचारियों को दंडित किए बिना अंशकालिक या लचीली कार्य व्यवस्था को बढ़ावा दें। ऐसी नीतियों को लागू करें जो कार्यालय के घंटों के बाद काम से अलग होने के कर्मचारियों के अधिकार का सम्मान करती हैं, जिससे बेहतर कार्य-जीवन संतुलन को बढ़ावा मिलता है। कर्मचारियों के पास आराम और व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं के लिए पर्याप्त समय सुनिश्चित करने के लिए साप्ताहिक कार्य घंटों (जैसे, 48 घंटे की सीमा) पर सख्त सीमाएँ लगाएँ।

प्रबंधकीय पुरस्कारों को संगठनात्मक उत्पादकता और निष्पक्षता से जोड़कर पारिश्रमिक में असमानताओं को कम करें, सभी कर्मचारियों के लिए समान वेतन सुनिश्चित करें। घरेलू बोझ को कम करने के लिए साइट पर चाइल्डकैअर सुविधाओं और देखभाल सेवाओं का समर्थन करें। कार्यस्थल की संस्कृति को बढ़ावा दें जो कल्याण को महत्त्व देती है और परिवार के अनुकूल प्रथाओं को प्राथमिकता देती है। उन रूढ़ियों को चुनौती देने के लिए नियमित प्रशिक्षण आयोजित करें जो केवल महिलाओं के साथ देखभाल को जोड़ती हैं और कर्मचारियों के बीच साझा घरेलू जिम्मेदारियों को बढ़ावा देती हैं। सरकारी नीतियों की वकालत करें जो कंपनियों को कर लाभ और प्रमाणन जैसे परिवार के अनुकूल और लिंग-समान प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

एक संतुलित समाज सभी श्रमिकों की पूरी क्षमता को अनलॉक करने और दीर्घकालिक समृद्धि सुनिश्चित करने की कुंजी है। लंबे कार्य घंटों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए; इसके बजाय, टिकाऊ और कुशल कार्य अनुसूचियों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए जो उत्पादकता और कर्मचारी कल्याण दोनों को बढ़ावा दें। संतुलित और प्रेरित कार्यबल बनाने के लिए समान वेतन संरचना और वास्तविक समावेशिता आवश्यक है। प्रणालीगत असमानताओं को पहचानना और उनका समाधान करना एक निष्पक्ष कार्य वातावरण को बढ़ावा दे सकता है। एक संपन्न कार्यबल व्यक्तिगत कल्याण और पारिवारिक जीवन के महत्त्व को स्वीकार करता है, तथा इन मूल्यों को कार्यस्थल संस्कृति में एकीकृत करता है। इसका लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ पुरुष और महिलाएँ स्वास्थ्य, परिवार या व्यक्तिगत समय से समझौता किए बिना व्यावसायिक सफलता प्राप्त करें, तथा एक समतापूर्ण और समृद्ध भविष्य के लिए सभी श्रमिकों की पूरी क्षमता का उपयोग करें।


- डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
 हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148,01255281381

मंगलवार, 28 जनवरी 2025

Coaching & Suicide : कोचिंग के प्रतिस्पर्धी दौर में, विद्यार्थियों में आत्महत्या की प्रकृति और प्रवृत्ति

स्कूली पढाई के बजाय कोचिंग के भयावह दौर में, छात्रों में आत्महत्या की प्रकृति और प्रवृत्ति का नए सिरे से अध्ययन करने की भी बहुत सख्त ज़रूरत है, क्योंकि देश की पूरी युवा बौद्धिक संपदा दांव पर लगी हुई है, जिसके दूरगामी गंभीर नतीजे पूरे राष्ट्र के माथे पर गहरा सिकन ला सकते हैं। युवाओं के कंधे पर स्थापित विकासशील प्रगति का पूरा ढांचा ही भरभरा कर गिर सकता है। छात्रों को इसे चुनौती के रूप में लेते हुए पूरी क्षमता के साथ इसका सामना करना चाहिए। परीक्षा जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं है। परीक्षा परिणामों को जीवन का अंतिम आधार न मानकर अपनी सफलता की राह स्वयं बनानी होती है। बिना श्रम के जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलती। अभिभावकों को यह समझना है कि उन्हें अपने बच्चों के साथ कैसा घरेलू बर्ताव करना है।

वैसे तो इस दौर में पूरी युवा पीढ़ी ही भयावह मानसिक व्याधि से विचलित है, इनमें विशेषत: छात्र विचलन गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। हमारे देश में प्रति 100 में 15 से अधिक छात्र आत्महत्या से प्रभावित हो रहे हैं। वे अवसाद, चिंता और आत्मघात से पीड़ित पाए जा रहे हैं। कठिन प्रतिस्पर्धा और पढ़ाई-लिखाई में अनुशासन आदि को लेकर तनाव बढ़ रहा है, उससे न सिर्फ़ शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों, बल्कि पूरे समाज की चिंता बढ़ती गई है। पारिवारिक दबाव, शैक्षिक तनाव और पढ़ाई में अव्वल आने की महत्त्वाकांक्षा ने छात्रों के एक बड़े वर्ग को गहरे मानसिक अवसाद में डाल दिया है। अभिभावकों के सपनों की उड़ान न भर पाने वाले, परीक्षा में खराब प्रदर्शन करने वाले बच्चों को घर पर पिटना पड़ता है। परीक्षा और नतीजों के दबाव में छात्रों की आत्महत्याएँ अब आम घटनाएँ बनती जा रही हैं। छात्र आत्महत्याओं में बेतहाशा वृद्धि के पीछे मानसिक तनाव सबसे आम कारक बन चुका है। तनावग्रस्त छात्रों की आत्महत्याओं का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। जैसे-जैसे परीक्षा के दिन निकट आते हैं, छात्रों का तनाव हद से गुजरने लगता है। पूरी युवा पीढ़ी का परीक्षा के दिनों में ऐसे हालात से दो-चार होना देश और समाज, अभिभावकों और शिक्षाविदों, सभी के लिए अब गंभीर चिंता का विषय हो चला है। शिक्षा क्षेत्र में दशकों से व्याप्त कई बुनियादी गंभीर समस्याओं और चुनौतियों पर अभी तक पार पाने में कतई कामयाब नहीं हो पा रहा है।

व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं को अनिवार्य कर दिए जाने के बाद से भारतीय छात्रों को प्रतिस्पर्धा करने और प्रदर्शन करने के लिए भारी तनाव का सामना करना पड़ता है। प्रदर्शन के दबाव को संभालने, माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा करने और आकांक्षाओं को प्राप्त करने में असमर्थता मनोवैज्ञानिक संकट और बाद में अवसाद का कारण बन सकती है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में अकादमिक उत्कृष्टता की निरंतर खोज ने अनजाने में छात्रों के बीच तीव्र दबाव और प्रतिस्पर्धा का माहौल पैदा कर दिया है। शैक्षणिक उपलब्धियों पर अत्यधिक ध्यान देने के साथ-साथ सामाजिक अपेक्षाओं और असफलता के डर ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। इसने चिंता, अवसाद और तनाव जैसे मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों में वृद्धि में योगदान दिया है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा को देखते हुए कई बार छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन करने का लगातार दबाव रहता है। वे अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और आक्रामकतापूर्वक पूर्णता के लिए प्रयास करते हैं। यह अंतर्निहित दबाव मानसिक परेशानी के विभिन्न रूपों में प्रकट हो सकता है, जिसमें चिंता, विफलता का डर और कम आत्मसम्मान शामिल है। गंभीर मामलों में, मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएँ आत्म-नुकसान का कारण बन सकती हैं और यहाँ तक कि आत्महत्या के प्रयासों के विचार को भी जन्म दे सकती हैं।

प्रतियोगी पाठ्यक्रम के भारी भरकम बोझ से बच्चों का मानसिक विकास अवरुद्ध हो रहा है। इससे बच्चों को भारी नुक़सान झेलना पड़ रहा है। बच्चों के जीवन में तनाव के पौध की बड़ी वज़ह यह भी है कि लंबे समय तक स्कूल के घंटों के बाद बच्चे घर लौटते ही होमवर्क निपटाने में जुट जाते हैं। इसके बाद ट्यूशन के लिए दौड़ पड़ते हैं। खाना-पीना, सोना, खेलकूद, सब हराम हो जाता है। आराम करने और अन्य पाठ्येतर गतिविधियाँ करने का उन्हें समय ही नहीं मिलता है। ऐसे में छात्रों के लिए कम नींद और अवसाद की स्थिति या गंभीर तनाव का सबब बनी रहती है। वर्तमान प्रतियोगी दौर में छात्रों की आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। परीक्षा केंद्रित शिक्षा से भारत में छात्रों की आत्महत्याओं में अंक, अध्ययन और प्रदर्शन के दबाव के साथ अकादमिक उत्कृष्टता की तुलना करना इस अवसाद के पीछे महत्त्वपूर्ण कारक हैं। भारत में किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे किसी भी छात्र के साथ एक साधारण साक्षात्कार, चाहे वह जेईई, एनईईटी या सीएलएटी हो, यह प्रकट करेगा कि छात्रों के बीच मानसिक संकट का प्रमुख स्रोत उन पर दबाव की असहनीय मात्रा है जो लगभग हर एक द्वारा डाला जाता है। हर शिक्षक, हर रिश्तेदार कठिन अध्ययन और एक अच्छे कॉलेज में प्रवेश पाने के महत्त्व को दोहराते हैं। जबकि छात्र स्कूल से स्नातक होने के बाद क्या करने की आकांक्षा रखता है, या जहाँ उसकी रुचियाँ हैं, उसके बारे में सहज पूछताछ बहुत कम की जाती है।

इन सभी परीक्षाओं की अत्यधिक जटिल प्रकृति (सभी नहीं) का अनिवार्य रूप से मतलब है कि उन्हें पास करने के लिए माता-पिता को अपने बच्चों को प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटरों में दाखिला दिलाने का सपना पूरा करना होगा, इससे छात्र के लिए एक से अधिक तरीकों से समस्या बढ़ जाती है क्योंकि वह कोचिंग पर माता-पिता द्वारा ख़र्च किए गए पैसे को चुकाने के लिए अब परीक्षा को पास करने का दबाव बढ़ गया है और उसे कोचिंग संस्थान के अतिरिक्त दबावों का भी सामना करना पड़ता है। जब तक देश की परीक्षा संस्कृति से इस कुत्सित व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जाता है, तब तक छात्रों में आत्महत्या की दर को रोकने के मामले में कोई प्रत्यक्ष परिवर्तन नहीं देखा जाएगा। सरकार को इस मुद्दे पर संज्ञान लेना चाहिए, अगर वास्तव में हम सोचते है कि " आज के बच्चे कल के भविष्य हैं। जबरन करियर विकल्प देने से कई छात्र बहुत अधिक मात्रा में दबाव के आगे झुक जाते हैं, खासकर उनके परिवार और शिक्षकों से उनके करियर विकल्पों और पढ़ाई के मामले में। शैक्षिक संस्थानों से समर्थन की कमी के चलते बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से निपटने के लिए सुसज्जित नहीं है और मार्गदर्शन और परामर्श के लिए केंद्रों और प्रशिक्षित मानव संसाधन की कमी है।

ऐसे कठिन दौर में, आज छात्रों में आत्महत्या की प्रकृति और प्रवृत्ति का नए सिरे से अध्ययन करने की भी बहुत ज़रूरत है, क्योंकि देश की पूरी युवा बौद्धिक संपदा दांव पर लगी हुई है, जिसके दूरगामी गंभीर नतीजे पूरे राष्ट्र के माथे पर गहरा सिकन ला सकते हैं। युवाओं के कंधे पर स्थापित विकासशील प्रगति का पूरा ढांचा ही भरभरा कर गिर सकता है। छात्रों को इसे चुनौती के रूप में लेते हुए पूरी क्षमता के साथ इसका सामना करना चाहिए। परीक्षा जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं है। परीक्षा परिणामों को जीवन का अंतिम आधार न मानकर अपनी सफलता की राह स्वयं बनानी होती है। बिना श्रम के जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलती। अभिभावकों को यह समझना है कि उन्हें अपने बच्चों के साथ कैसा घरेलू बर्ताव करना है। छात्रों के बीच मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों की बढ़ती व्यापकता से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें व्यक्ति, संस्थान और समग्र रूप से समाज शामिल हो। सफलता को फिर से परिभाषित करना और छात्रों को अपने जुनून और रुचियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना उनके मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है। केवल शैक्षणिक उपलब्धियों पर आधारित सफलता की संकीर्ण परिभाषा से आगे बढ़ने से छात्रों को अपनी अद्वितीय प्रतिभा का पता लगाने और अपने चुने हुए रास्ते में पूर्णता पाने का मौका मिलता है।

आत्महत्या के जोखिम कारकों को कम करने के लिए शिक्षकों को द्वारपाल के रूप में प्रशिक्षित करना और परीक्षा के नवीन तरीकों को अपनाया जाना चाहिए। छात्रों की सराहना करने की आवश्यकता है और यह बदलना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय समाज शिक्षा को कैसे देखता है। यह प्रयासों का उत्सव होना चाहिए न कि अंकों का। छात्रों की चिंताओं, अवसाद और अन्य मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों को दूर करने के लिए सभी स्कूलों / कॉलेजों / कोचिंग केंद्रों में प्रभावी परामर्श केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए। बढ़ते संकट को दूर करने के लिए अतीत की विफलताओं से सीखना और छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों, संस्थानों और नीति निर्माताओं सभी हितधारकों को शामिल करने वाले तत्काल क़दम उठाने की आवश्यकता है।


डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
 हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148,01255281381

रविवार, 26 जनवरी 2025

भारतीय गणतंत्र के 76 साल : हमने क्या खोया और क्या पाया !

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की है। भारत ने साहित्य, खेल, कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति की है। भारत ने अपनी विविध संस्कृति को संरक्षित करते हुए उसे गहरा अर्थ दिया है। भारत विकास में आगे बढ़ गया है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य, खेल और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में राष्ट्र ने अपनी पहचान स्थापित की है। इस विकास यात्रा में नए कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। वर्तमान में भारत को एक मजबूत देश माना जाता है। यह इस क्षण में नहीं है। आज विश्व की नजर भारत पर है। देश ने अपने आंतरिक मुद्दों और कठिनाइयों के बावजूद पिछले वर्षों में कुछ ऐसा हासिल किया है जो विश्व को आकर्षक लगता है। ऐसी कुछ बातें हैं जिन पर राष्ट्र को गर्व हो सकता है, और ऐसी कुछ बातें भी हैं जिन पर खेद व्यक्त किया जा सकता है।

भारत अपना 76वां गणतंत्र दिवस 26 जनवरी, 2025 को मनाने के लिए तैयार है, जो अपने देश की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए लड़ने वाले असंख्य लोगों के लक्ष्यों, सिद्धांतों और बलिदानों की एक मार्मिक याद दिलाता है। इस लम्बे समय में हमने जो कुछ पाया और खोया है, उसके बारे में परस्पर विरोधी भावनाएं हैं। इस मामले में "क्या खो गया" प्रश्न गलत प्रतीत होता है। क्योंकि जिसने पा लिया वह खो गया। हमारा गणतंत्र और हमारी स्वतंत्रता दोनों ही नये थे। इस प्रकार, हमने इसकी खोज की। स्वाभाविक रूप से, जो को उतना नहीं मिला जितना वह हकदार था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, एक गणतंत्र की स्थापना हुई। इस स्वतंत्रता और गणतंत्र को बचाए रखने की क्षमता सबसे बड़ी उपलब्धि है। पिछले 25 वर्षों से हम लगातार सीमापार छद्म संघर्षों तथा घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के बावजूद अपने देश की विविधता और एकता को बनाए रखने में सफल रहे हैं।


भारत को मुख्यतः तीन प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। भारतीय समाज की विविधता को ध्यान में रखते हुए भारत को एकजुट करने का रास्ता खोजना पहली और सबसे बड़ी चुनौती थी। आकार और विविधता की दृष्टि से भारत किसी भी महाद्वीप के बराबर था। विविध संस्कृतियों और धर्मों के अलावा, कुछ लोग अलग-अलग बोलियाँ भी बोलते हैं। उस समय लोगों का मानना था कि इतनी विविधता वाला देश लंबे समय तक एकजुट नहीं रह सकता। एक तरह से देश के विभाजन को लेकर लोगों की आशंकाएं सच हो गईं। क्या भारत अपनी एकता बनाये रख पायेगा? क्या यह अन्य लक्ष्यों की अपेक्षा राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता देगा? क्या ऐसी क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय पहचान को अस्वीकार कर दिया जाएगा? उस समय का सबसे ज्वलंत और पीड़ादायक प्रश्न यह था कि भारत की क्षेत्रीय अखंडता को कैसे बनाए रखा जाए। इससे देश के भविष्य को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा हो गईं। लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखना दूसरी चुनौती थी। भारतीय संविधान के बारे में सभी जानते हैं। जैसा कि आप जानते हैं, संविधान के तहत प्रत्येक नागरिक को वोट देने का अधिकार और मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। भारत ने प्रतिनिधि लोकतंत्र के अंतर्गत संसदीय शासन को अपनाया। इन गुणों से यह सुनिश्चित हो गया कि राजनीतिक चुनाव लोकतांत्रिक वातावरण में होंगे। यद्यपि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक संविधान आवश्यक है, परंतु यह अपर्याप्त है। संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक व्यवहार लागू करना एक और चुनौती थी। तीसरी कठिनाई विकास की थी।


गणतंत्र दिवस पर हम आत्मचिंतन करते हैं और सोचते हैं कि हमने क्या खोया और क्या पाया। गणतंत्र दिवस पर हम अपनी उपलब्धियों और असफलताओं का आकलन करते हैं। इसके अलावा, हम भविष्य में आने वाली चुनौतियों और लक्ष्यों पर भी विचार करते हैं। अब समय आ गया है कि हम रुककर सोचें कि वर्षों की इस यात्रा में हमने क्या खोया और क्या पाया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की है। भारत ने साहित्य, खेल, कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति की है। भारत ने अपनी विविध संस्कृति को संरक्षित करते हुए उसे गहरा अर्थ दिया है। भारत विकास में आगे बढ़ गया है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य, खेल और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में राष्ट्र ने अपनी पहचान स्थापित की है। इस  विकास यात्रा में नए कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। वर्तमान में भारत को एक मजबूत देश माना जाता है। यह इस क्षण में नहीं है। आज विश्व की नजर भारत पर है। देश ने अपने आंतरिक मुद्दों और कठिनाइयों के बावजूद पिछले वर्षों में कुछ ऐसा हासिल किया है जो विश्व को आकर्षक लगता है। ऐसी कुछ बातें हैं जिन पर राष्ट्र को गर्व हो सकता है, और ऐसी कुछ बातें भी हैं जिन पर खेद व्यक्त किया जा सकता है। यदि किसी लोकतांत्रिक देश में सामाजिक-आर्थिक असमानता बनी रहती है, तो यह राजनीतिक समानता को भी निगल जाती है, भले ही औपचारिक और कानूनी राजनीतिक समानता बरकरार रहे। आज का भारत काफी हद तक इसकी पुष्टि करता है। आज हमारा संविधान विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त है। भ्रष्टाचार, बलात्कार, प्रदूषण, जनसंख्या नियंत्रण जैसी अनेक समस्याओं ने भारत माता को रक्तरंजित कर दिया है। आज भी हमारा गणतंत्र कुछ कंटीली झाड़ियों में फंसा हुआ नजर आता है।


युवाओं में असंतोष और क्रोध बढ़ रहा है। उन्हें गलत दिशा में चलने के लिए मजबूर किया जाता है। चुनाव संबंधी भ्रष्टाचार और बल के दुरुपयोग ने इसे विकृत कर दिया है। येन-केन युग के सत्ता संघर्ष ने राजनीति को अवैध बना दिया है। सामाजिक बुराइयों से निपटने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। कुछ स्थानों पर यह चिंताजनक रूप से उभर कर सामने आया है। दलितों के विरुद्ध अत्याचार बढ़ गए हैं, साथ ही जातिगत भेदभाव भी बढ़ गया है। उनकी महिलाओं पर हमले और बलात्कार की घटनाएं बढ़ गयी हैं। प्रांतीयता और जातीयता का जहर अभी भी वातावरण में मौजूद है। लोग खुद को भारतीय कहने के बजाय बंगाली, बिहारी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, कन्नड़ आदि के रूप में पहचानते हैं। इसके अलावा वे अलग-अलग जातियों में विभाजित भी दिखाई देते हैं। जातीय सेनाओं की हिंसा चिंताजनक है। कर्ज, भुखमरी, भारी बारिश, बाढ़ और अन्य कारण किसानों को आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रहे हैं। विस्थापित लोगों के पास पर्याप्त आवास और रोजगार नहीं है। नक्सलवाद का इतिहास इसका प्रमाण है। आजकल महिलाएं और लड़कियां पहले से कहीं अधिक असुरक्षित हैं तथा बलात्कार की घटनाएं लगातार हो रही हैं। हमारे नेताओं द्वारा की गई खेदजनक टिप्पणियों से हमारा मनोबल और भी गिर गया है। हमारे संविधान के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल सिद्धांत का अभी भी उल्लंघन किया जा रहा है। यह एक चेतावनी संकेत है. हमें पीछे धकेलना चाहिए. इस महत्वपूर्ण अवसर को अब एक परियोजना का रूप देने की आवश्यकता है, क्योंकि हमने इसे अभी केवल संगठनात्मक रूप दिया है।

 
  - डॉo सत्यवान सौरभ,
    कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
    333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
     हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148,01255281381

बुधवार, 1 जनवरी 2025

Happy New Year : नया साल सिर्फ़ जश्न नहीं, आत्म-परीक्षण और सुधार का अवसर भी

एक नया साल एक नई शुरुआत है। यह एक नए जन्म की तरह है। नया साल शुरू होते ही हमें लगता है कि हमें अपने जीवन में बदलाव करने, नई राह पर चलने, नए काम करने और पुरानी आदतों, समस्याओं और कठिनाइयों को अलविदा कहने की ज़रूरत है। अक्सर हम नई योजनाएँ और नए संकल्प बनाने लगते हैं। हम उत्साहित, प्रेरित और आशावान महसूस कर सकते हैं, लेकिन कभी-कभी आशंकित भी होते हैं। कवियों और दार्शनिकों ने अक्सर दोहराया है कि भविष्य में जो कुछ भी करना है, उसमें जीवन ने जो सबक हमें सिखाया है, उसे लागू करना ज़रूरी है। लेकिन यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है। लोग एक-दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएँ देते हैं। संदेश, ग्रीटिंग कार्ड और उपहारों का आदान-प्रदान नए साल के जश्न का अभिन्न अंग है। मीडिया कई नए साल के कार्यक्रमों को कवर करता है, जिन्हें दिन के अधिकांश समय प्राइम चैनलों पर दिखाया जाता है। जो लोग घर के अंदर रहने का फ़ैसला करते हैं, वे मनोरंजन और मौज-मस्ती के लिए इन नए साल के शो का सहारा लेते हैं।

नया साल सिर्फ़ जश्न मनाने का समय नहीं है, बल्कि आत्म-परीक्षण और सुधार का अवसर भी है। अतीत की गलतियों से सीखते हुए हमें अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करना चाहिए। आइए हम अपने लक्ष्यों को स्पष्ट करें और उन्हें प्राप्त करने की योजना बनाएँ। आइए हम नकारात्मकता को पीछे छोड़ें और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ। आइए हम ज़रूरतमंदों की मदद करके समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाएँ। आइए हम आत्म-विकास के लिए प्रयास करते रहें और नई चीज़ें सीखते रहें।  लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहनते हैं और मौज-मस्ती से भरी गतिविधियाँ करते हैं जैसे गाना, खेलना, नाचना और पार्टियों में जाना। नाइट क्लब, मूवी थिएटर, रिसॉर्ट, रेस्टोरेंट और मनोरंजन पार्क हर उम्र के लोगों से भरे हुए हैं। आने वाले साल के लिए नए संकल्पों की योजना बनाने की सदियों पुरानी परंपरा आम है। कुछ सबसे लोकप्रिय संकल्पों में वज़न कम करना, अच्छी आदतें विकसित करना और कड़ी मेहनत करना शामिल है। आज के समय में, जब पर्यावरण के मुद्दे एक गंभीर चिंता का विषय हैं, तो पर्यावरण के प्रति संवेदनशील तरीकों से नए साल का जश्न मनाना हमारी जिम्मेदारी बन जाती है। पटाखों का उपयोग कम करना, पेड़ लगाना और जल संरक्षण इस दिशा में सकारात्मक क़दम हो सकते हैं।

नया साल हमें अतीत की कड़वाहट को भूलकर नए रिश्ते शुरू करना सिखाता है। आइए हम एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सद्भावना व्यक्त करें। आइए हम उन लोगों को सही रास्ते पर लाने का प्रयास करें जो अपना रास्ता भूल गए हैं। भगवद गीता में भगवान कृष्ण की शिक्षाएँ हमें याद दिलाती हैं कि हमें अपना काम करना चाहिए और परिणाम भगवान पर छोड़ देना चाहिए। नया साल सिर्फ़ कैलेंडर बदलने के बारे में नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन को एक नई दिशा देने का अवसर है। यह नई ऊर्जा, उत्साह और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने का समय है। आइए हम सब मिलकर इस नए साल को अपने और समाज के लिए बदलाव का साल बनाएँ। अब, सभी चमक-दमक के बीच, नए साल का दिन कुछ गंभीर सोच-विचार का भी समय है। हाँ, हम आत्मनिरीक्षण के बारे में बात कर रहे हैं-पिछले साल को पीछे देखते हुए और यह पता लगाते हुए कि हमने क्या सीखा है। क्या हमने आखिरकार मकड़ियों के डर पर विजय प्राप्त की? क्या हमने उन लोगों के साथ पर्याप्त समय बिताया जो सबसे ज़्यादा मायने रखते हैं? यह कुछ हद तक हमारे जीवन की मुख्य घटनाओं को स्क्रॉल करने और यह सोचने जैसा है, "वाह, क्या मैंने वाकई ऐसा किया?" एक पेड़ लगाएँ, अपने भविष्य के लिए एक पत्र लिखें, या बोर्ड गेम का लुत्फ़ उठाएँ। इसे अपने लिए अनोखा बनाएँ और हर साल इसका इंतज़ार करें।

अब, इस तरह से आप एक परंपरा की शुरुआत कर सकते हैं! नए साल के दिन सोच-समझकर उपहार देकर प्यार फैलाएँ। यह क़ीमत के बारे में नहीं बल्कि इशारे के पीछे की भावना के बारे में है। एक हस्तलिखित नोट, एक व्यक्तिगत ट्रिंकेट, या एक हार्दिक संदेश दुनिया भर में अंतर ला सकता है जब आप उन लोगों के लिए अपनी प्रशंसा व्यक्त करते हैं जो सबसे ज़्यादा मायने रखते हैं। अक्सर, हम या तो इसे महसूस नहीं करते या इसे स्वीकार करने से इनकार करते हैं और एक ऐसी कहानी लिखने की कोशिश करते हैं जो पहले ही ख़त्म हो चुकी है। ऐसे समय में हमें याद रखना चाहिए कि कभी-कभी क़लम को नीचे रखना ठीक होता है। बंद दरवाज़े से जूझना ठीक नहीं है। इससे चिपके रहने से आप दूसरी तरफ़ की खिड़की को देख नहीं पाते। जैसा कि माइंडफुलनेस प्रैक्टिशनर कहते हैं, सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि नए सिरे से शुरुआत करने के लिए आपके पास मौजूद पल से बेहतर कोई समय नहीं है। नए साल की सुबह, सबसे अच्छी स्थिति में, केवल सही सेटिंग ही बना सकती है; बाकी, जैसा कि वे कहते हैं, सब आपके भीतर है। हालाँकि, आप नए साल के दिन 2025 को धूम मचाने का फ़ैसला करते हैं, इसे यादगार बनाते हैं। ऐसे नाचें जैसे कोई देख नहीं रहा हो, ऐसे हँसें जैसे यह अब तक का सबसे अच्छा मज़ाक हो और अपने दोस्तों को ऐसे गले लगाएँ जैसे आपने उन्हें एक दशक से नहीं देखा हो। क्योंकि अंदाज़ा लगाइए क्या? 2025 आपका चमकने का साल है। तो, आइए इसे यादगार बनाएँ, इसे यादगार बनाएँ और इसे ख़ास बनाएँ! नई शुरुआत के जादू के लिए चीयर्स!

31 दिसम्बर की आधी रात को हम 2024 को अलविदा कह देंगे और कैलेंडर 1 जनवरी यानी 2025 के नए साल के दिन के लिए अपना नया पन्ना खोलेगा। उतार-चढ़ाव, मजेदार पल और कुछ ख़ास नहीं-यह सब अब अतीत की बात हो जायेंगे। हम एक नए साल के मुहाने पर खड़े हैं, जो हमारे सामने आने वाली हर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार है। हवा में उत्साह और चिंतन की गूंज है, जैसे पुरानी यादों और उम्मीदों का एक बेहतरीन मिश्रण। बुद्धिमान लोग कहते हैं कि जीवन विरामों के बीच में ज़िया जाता है-जैसे कि सांस छोड़ने के ठीक बाद और सांस लेने से पहले। हर अंत बस एक और शुरुआत है। वास्तव में इसे महसूस करने के लिए साल के पहले दिन से बेहतर कोई समय नहीं है।

 -प्रियंका सौरभ
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045
(मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप)

गुरुवार, 13 जून 2024

Paper leak : विद्यार्थियों में तनाव और चिंता का कारण बनती प्रश्नपत्र लीक होने की घटनाएं

प्रश्नपत्र लीक की लगातार घटनाएं भारत की शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय बन गई हैं। जब किसी प्रतियोगी परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक होता है तो परीक्षार्थियों के साथ परिजनों के भी सपने भी चकनाचूर होते हैं। ऐसी घटनाओं से एक उन्नत, समृद्ध, सुशिक्षित एवं सशक्त राष्ट्र एवं समाज बनने-बनाने का हमारा सामूहिक स्वप्न और मनोबल टूटता है। इससे युवाओं के भीतर व्यवस्था के प्रति असंतोष एवं निराशा की स्थायी भावना घर करती है, शासन का प्रभाव कम होता है और व्यवस्था से आमजन का मोहभंग होता है। नौजवानों के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं न केवल उज्ज्वल भविष्य का, अपितु कई बार अस्तित्व का भी प्रश्न बन जाती हैं। इसके साथ ही सरकार की विश्वसनीयता संकट में पड़ती है। प्रश्नपत्र लीक करवाने के मामले में कई बार बड़े-बड़े कोचिंग केंद्रों एवं संचालकों की भी संलिप्तता पाई जाती है। नकल आज एक देशव्यापी कारोबार बनता जा रहा है, जिसके कई लाभार्थी और अंशधारक हैं। राजनेता से लेकर अधिकारी तक, प्रश्नपत्र निर्माता से लेकर समन्वयक तक, परीक्षा आयोजित कराने वाली संस्थाओं और आयोगों से लेकर परीक्षा केंद्रों तक की संदिग्ध भूमिका या मिलीभगत से इन्कार नहीं किया जा सकता।

प्रश्नपत्र लीक की लगातार घटनाएं भारत की शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय बन गई हैं। उदाहरण के लिए, अकेले प्रश्नपत्र लीक के 70 से अधिक मामले 2023 में सामने आए, जिससे बीसीएस , मेडिकल प्रवेश परीक्षा और राज्य भर्ती परीक्षाओं सहित विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं प्रभावित हुईं । इन लीक ने छात्रों में अत्यधिक तनाव और चिंता पैदा कर दी है , जिससे उनकी तैयारी और आत्मविश्वास का स्तर बाधित हुआ है। प्रश्नपत्र लीक होने में  मैनुअल हैंडलिंग और सुरक्षा चूक प्रमुख कारण है।  प्रश्नपत्रों की छपाई और वितरण की पारंपरिक विधि में कई टचपॉइंट शामिल होते हैं, जहां सुरक्षा से समझौता किया जा सकता है। उदाहरण के लिए: 2020 में, मैनुअल हैंडलिंग गलती के कारण बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के दौरान एक महत्वपूर्ण गलती हुई। संगठित अपराध में संलिप्तता से आपराधिक गिरोह परीक्षा प्रणाली की कमजोरियों का लाभ बढ़ते आर्थिक लाभ कमाते हैं। उदाहरण के लिए: राजस्थान में, कई परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक करने वाले एक गिरोह का भंडाफोड़ किया गया, जिससे करोड़ों का अवैध राजस्व अर्जित हुआ।

तकनीकी कमज़ोरियाँ बताती है कि  खराब सुरक्षा वाले डिजिटल सिस्टम को हैक किया जा सकता है, जिससे इलेक्ट्रॉनिक लीक हो सकता है। उदाहरण के लिए: मेडिकल प्रवेश परीक्षा के प्रश्नपत्र हैक किए गए ईमेल पोस्ट के माध्यम से लीक हो गए, जिससे व्यापक वितरण हुआ। परीक्षा अधिकारी या कर्मचारी कभी-कभी वित्तीय लाभ के लिए पेपर लीक करने के लिए बाहरी पक्ष के साथ सहयोग करते हैं। उदाहरण के लिए: 2023 में राज्य भर्ती परीक्षाओं के लिए प्रश्नपत्र लीक करने में शामिल होने के लिए कई अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया था। प्रश्नपत्र लीक रोकने के लिए आज हमें उन्नत सुरक्षा प्रोटोकॉल की महती आवश्यकता है। भौतिक उपयोगकर्ताओं के लिए छेड़छाड़-रोधी ट्रैकिंग और सुरक्षित परिवहन सुविधाओं का उपयोग करना जरुरी है। उदाहरण के लिए: केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने डेटाबेस डिजिटल संसाधनों का उपयोग शुरू किया है, जो केवल परीक्षा परिणामों पर अधिकृत कर्मियों के लिए आसान हैं।

सुरक्षित प्रश्नपत्र प्रबंधन और वितरण के लिए ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी का उपयोग करना फायदेमंद हो सकता है। उदाहरण के लिए: एडुब्लॉक प्रोब्लॉक का उपयोग करके यह सुनिश्चित करता है कि प्रश्नपत्र सुरक्षित रूप से चिपका हुआ हो और केवल परीक्षा केंद्र पर ही डिक्रिप्ट किया गया हो , जिससे लीक होने का जोखिम काफी कम हो जाता है। सख्त कानूनी ढांचा लीक में शामिल व्यक्तियों और अंगों के लिए कठोर दंड लागू कर सकता है। उदाहरण के लिए: सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित मौतों की रोकथाम) टिप , 2024, कारावास और भारी जुर्माने सहित कठोर दंड का प्रस्ताव करता है। परीक्षा कर्मचारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण और सख्त जवाबदेही भी एक उपाय हो सकता है। उदाहरण के लिए: खतरे का पता लगाना और उन्हें रोकने के लिए नियमित ऑडिट करना और निगरानी प्रणाली लागू करना। प्रश्नपत्र लीक का छात्रों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर पड़ता है।इससे छात्रों में तनाव और चिंता में वृद्धि होती है।

प्रश्नपत्र लीक होने से उत्पन्न असुविधा और अनियमितता छात्रों में तनाव और चिंता को काफी हद तक बढ़ा देती है, जिससे उनका मानसिक कल्याण और परीक्षा प्रदर्शन प्रभावित होता है। जिन छात्रों ने कड़ी मेहनत की है, उन्हें लग सकता है कि उनकी उपलब्धियों को कम आंका गया है, जिससे शिक्षा प्रणाली और उनकी अपनी क्षमता में आत्मविश्वास की कमी हो सकती है। पेपर लीक की बार-बार होने वाली घटनाएं छात्रों को हक़ कर सकती हैं, जिससे उन्हें अपने भविष्य की संभावनाओं और योग्यता-आधारित सफलता के मूल्य के बारे में मोहभंग होने लगता है।बिहार में राज्य स्तरीय प्रवेश परीक्षाओं के कई लीक के बाद, कई छात्र निराश महसूस करने लगे और शिक्षा प्रणाली की निष्पक्षता में विश्वास खो दिया। छात्रों की शैक्षणिक योजनाएं  परीक्षा में बैठने की आवश्यकता से बाधित होती हैं , जिससे अतिरिक्त तनाव और तार्किक प्रतिभा पैदा होती है। प्रश्न-पत्र लीक होने सेकण्डरी विश्वास और परीक्षा में विश्वास की हानि होती है, जिससे छात्रों और सेवाओं में अविश्वास पैदा होता है।

छात्रों पर इस मनोवैज्ञानिक प्रभाव को कम करने के लिए परामर्श और सहायता सेवाएं समय की मांग है । लीक से प्रभावित छात्रों को मनोवैज्ञानिक सहायता और परामर्श प्रदान करना अत्यंत जरुरी है। उदाहरण के लिए: परीक्षा के समय में छात्रों को तनाव और चिंता से निपटने में मदद करने के लिए हेल्पलाइन और परामर्श केंद्र स्थापित करना। भविष्य में लीक को रोकने के लिए किए गए प्रयासों के बारे में संशोधित संचार बनाए रखें। छात्रों और उपभोक्ताओं को विश्वास को फिर से बनाने के लिए बेहतर सुरक्षा उपायों और मुफ्त योजनाओं के बारे में सूचित करना। वैकल्पिक परीक्षा कार्यक्रम से बीमारियों को कम करने के लिए मजबूत सुरक्षा उपायों के साथ परीक्षाओं को जल्दी से दोबारा करवाना बहुत फायदेमंद है। छात्रों के लिए लंबे समय तक तनाव से बचने के लिए स्थानीय प्रश्न पत्र और पर्याप्त परीक्षा तिथियों की व्यवस्था करना। प्रश्नपत्र लीक होने की निरंतर घटनाएं प्रतियोगी परीक्षाओं की वास्तविकता को कमजोर करती हैं और छात्रों के लिए काफी तनाव का कारण बनती हैं।

चूंकि प्रश्नपत्र लीक होने की समस्या अनियंत्रित होती जा रही है, इसलिए केंद्र समेत विभिन्न राज्यों की सरकारों का यह प्रथम एवं सर्वोच्च दायित्व होना चाहिए कि वे प्रश्नपत्र लीक होने के प्रकरणों की पुनरावृत्ति न होने दें और दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करें। इसके साथ ही उन्हें प्राथमिकता के आधार पर ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जिससे प्रश्नपत्र लीक होने की कोई गुंजाइश ही न रहे। समझना कठिन है कि सूचना तकनीक के इस युग में ऐसी व्यवस्था बनाना कठिन क्यों है? यह दुर्भाग्य की बात है कि शिक्षा क्षेत्र की कई समस्याओं के समाधान की कोई राह नहीं दिख रही है। इन्हीं में से एक है प्रश्नपत्र लीक होने की समस्या। शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहां किसी न किसी प्रतियोगी या नियमित परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक होने का मामला सुर्खियों में न रहता हो।

 इस मुद्दे को सुलझाने के लिए एक उत्कृष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें बेहतर सुरक्षा प्रोटोकॉल, प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना, सख्त कानूनी उपाय और प्रभावित छात्रों के लिए व्यापक समर्थन शामिल है। इन उपायों को लागू करके, हम परीक्षा प्रणाली में विश्वास बहाल कर सकते हैं और सभी छात्रों के लिए एक निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया सुनिश्चित कर सकते हैं।

  प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045, मो.- 7015375570


सोमवार, 10 जुलाई 2023

भोजपुरी के शेक्सपीयर - भिखारी ठाकुर

भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के संदेश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्तित्व थे। अपनी रचनात्मकता में अपनी माटी को प्रतिबिंबित करने वाले संस्कृति-पुत्र, प्रखर कवि, नाटककार व ‘बिहार के शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जी ने कला-साहित्य के क्षेत्र में भोजपुरी भाषा को एक नई ऊँचाई दी। 

भिखारी ठाकुर (18 दिसम्बर,1887-10 जुलाई,1971) का जन्म बिहार के सारन जिले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर व माताजी का नाम शिवकली देवी था। भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना के साथ अपने सामाजिक कार्यों के लिये भी प्रसिद्ध रहे। राहुल सांकृत्यायन ने उनको अनगढ़ हीरा कहा है और जगदीशचंद्र माथुर ने 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। 

वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। आज भी बिहार की शादियों में भिखारी ठाकुर की मूल रचना के आधार पर रचित कई गीतों का वही स्थान है जो पूजा में मंत्रों का होता है-

चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे, 

दिअका के लागल बर दुआरे बाजा बाजल हे।

आंवा के पाकल दुलहा झांवा के झारल हे

कलछुल के दागल, बकलोलपुर के भागल हे।

'भोजपुरी के शेक्सपीयर' कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की पुण्य तिथि पर कोटिश: नमन।🙏


बुधवार, 3 मई 2023

विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस : लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में बदलती भूमिका

मीडिया लोकतंत्र में जनहित के प्रहरी के रूप में कार्य करता है। यह एक लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और लोगों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं की सूचना देने का काम करता है। मीडिया को लोकतांत्रिक देशों में विधानमंडल, कार्यकारी और न्यायपालिका के साथ "चौथा स्तंभ" माना जाता है। पाठकों को प्रभावित करने में इसकी अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जो भूमिका निभाई थी, वह राजनीतिक रूप से उन लाखों भारतीयों को शिक्षित कर रही थी, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में शामिल हुए थे।

पत्रकारिता एक पेशा है जो सेवा तो करता ही है, यह दूसरों से प्रश्न का विशेषाधिकार भी प्राप्त करता है। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य निष्पक्ष, सटीक, निष्पक्ष: और सभ्य तरीके और भाषा में जनहित के मामलों पर समाचारों, विचारों, टिप्पणियों और सूचनाओं के साथ लोगों की सेवा करना है। प्रेस लोकतंत्र का एक अनिवार्य स्तंभ है। यह सार्वजनिक राय को शुद्ध करता है और इसे आकार देता है। संसदीय लोकतंत्र मीडिया की चौकस निगाहों के नीचे ही पनप सकता है। मीडिया न केवल रिपोर्ट करता है बल्कि राज्य और जनता के बीच एक सेतु का काम करता है।

निजी टीवी चैनलों के आगमन के साथ, मीडिया ने जीवन के हर क्षेत्र में मानव जीवन और समाज की बागडोर संभाली है। मीडिया आज चौथे एस्टेट के रूप में संतुष्ट नहीं है, इसने समाज और शासन में सबसे महत्वपूर्ण महत्व ग्रहण किया है। मुखबिर की भूमिका निभाते हुए, मीडिया एक प्रेरक और एक नेता का रूप भी लेता है। मीडिया का ऐसा प्रभाव है कि यह किसी व्यक्ति, संस्था या किसी विचार को बना या बिगाड़ सकता है। इसलिए सभी व्यापक और सर्व-शक्तिशाली आज समाज पर इसका प्रभाव है। इतनी शक्ति और शक्ति के साथ, मीडिया अपने विशेषाधिकारों, कर्तव्यों और दायित्वों की दृष्टि नहीं खो सकता है।

आज पेड न्यूज, मीडिया ट्रायल, गैर-मुद्दों को वास्तविक समाचार के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जबकि वास्तविक मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा है, वास्तविक और समाज हित के  समाचार को नजरअंदाज किया जा रहा है और मुनाफे और राजनीतिक पक्ष के लिए तथ्य विरूपण, फर्जी समाचार, पीत पत्रकारिता की जा रही है  पेड न्यूज़ के मामलों में वृद्धि के पीछे भारत में अधिकतर मीडिया समूह कॉरपोरेट के बड़े घरानों वाले हैं जो मात्रा लाभ के लिये इस क्षेत्र में है और लाभ के लिए ही कार्य करते हैं। पत्रकारों की कम सैलरी तथा जल्दी मशहूर होने की चाहत भी पीत पत्रकारिता के पीछे एक कारण है।

आँकड़े ये राज भी खोलते है कि अधिकतर राजनीतिक दलों के कुल बजट का लगभग 40 प्रतिशत मीडिया संबंधी खर्चों में जाया होता है । चुनावों में प्रयुक्त होने वाला धन बल, शराब तथा पेड न्यूज़ की अधिकता आज बेहद गंभीर चिंता का विषय है। भारतीय प्रेस परिषद  के अनुसार, ऐसी खबरें जो प्रिंट या इलेक्ट्रॅानिक मीडिया में नकद या अन्य लाभ के बदले में प्रसारित किये जा रहे हों पेड न्यूज़ कहलाते हैं।  मगर सांठ-गाँठ कि गुच्छी को खोलकर ये साबित करना अत्यंत कठिन कार्य है कि किसी चैनल पर दिखाई गई विशेष खबर या समाचारपत्र में छपी न्यूज़, पेड न्यूज़ ही है।

वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता की अनुपस्थिति एक ऐसे समाज में सत्य की झूठी प्रस्तुति को जन्म देती है जो लोगों की धारणा और विचारों को प्रभावित करती है। जैसा कि कैंब्रिज एनालिटिका मामले में देखा गया था, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पक्षपातपूर्ण समाचार कवरेज ने अमेरिकी चुनावों को प्रभावित किया। सनसनीखेज वाले और उच्च टीआरपी दरों का पीछा करने के लिए जैसा कि भारत में 26/11 के आतंकवादी हमलों के कवरेज में देखा गया था, ने राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा को जोखिम में डाल दिया था। सनसनीखेज चालित रिपोर्टिंग ने न्यायालय के  दिशानिर्देशों के बावजूद बलात्कार पीड़ितों और बचे लोगों की पहचान से समझौता किया।

पेड न्यूज और फर्जी खबरें जनता की धारणा में हेरफेर कर सकती हैं और समाज के भीतर विभिन्न समुदाय के बीच नफरत, हिंसा, और असहमति पैदा कर सकती हैं। सोशल मीडिया, तकनीकी परिवर्तनों के आगमन के साथ, मीडिया की पहुंच गहराई से बढ़ी है। जनमत को प्रभावित करने में इसकी पहुंच और भूमिका ने पत्रकारिता नैतिकता के प्रवर्तन के लिए अपनी निष्पक्षता, गैर-पक्षपातपूर्ण कॉल को सुनिश्चित करने के लिए इसे और भी महत्वपूर्ण बना दिया है।इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को प्रभावी ढंग से और कुशलता से निभाने के लिए, मीडिया को अपनी स्वतंत्रता और संपादकीय स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए एक अच्छी तरह से परिभाषित आचार संहिता के भीतर काम करना चाहिए। चूंकि गैर-जिम्मेदार पत्रकारिता प्रतिबंध को आमंत्रित करती है, मीडिया को अपनी स्वतंत्रता को लूटना, पेशेवर आचरण और नैतिक अभ्यास मीडिया की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि मीडिया में निवेशित जनता का विश्वास कायम है।

बदलते दौर में मीडिया संबंधित शिक्षण संस्थानों में ‘नैतिकता’ को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। एक ‘स्वतंत्र जांच दल’ का गठन किया जाना चाहिए जो पत्रकारिता के निष्पक्ष प्रसारण एवं संवेदनशील सूचनाओं के प्रसारण संबंधी कार्यों पर निगरानी रखे। नियमित अंतराल पर समाजविदों तथा मीडियाकर्मियों की बैठक होनी चाहिये जिससे सब मिलकर सामाजिक समस्याओं से संबंधित समाधान खोज सकें एवं रणनीति बना सकें। मीडिया को राजनीतिक दबाव से मुक्त किया जाना चाहिए साथ ही  ‘पत्रकारिता से संबंधित आचार-संहिता’ का पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।

वर्तमान दौर में खेमों में बंटी पत्रकारिता समाज को गलत दिशा में ले जा रहे है, चौथा खम्भा गिर चुका है।   कुछ लोग पत्रकारिता/साहित्य में है क्यूंकि उनको इसकी अपनी स्वार्थ सीधी के लिए जरूरत है। जबकि कुछ लोग इसलिए है कि पत्रकारिता और साहित्य को उनकी जरूरत है, तभी आज समाज बचा हुआ है। ऐसे बहुत से है जो सच और संतुलित लिखने की बजाय सालों से घिस रहे है बस; उनको अपनी प्राथमिक इच्छा के साथ तो न्याय करना चाहिए। बाकी देखा जायेगा, आने वाली पत्रकार पीढ़ी को संतुलित फैसला करके आगे बढ़ना होगा तभी ते स्तम्भ मजबूती से खड़ा होकर तीन अन्यों की बराबरी कर सकता है।

मीडिया ने एक-तरफ जहाँ लोगों की  जागरूकता का सशक्त माध्यम है, वहीं दूसरी तरफ सरकार को देश की समस्याओं से रूबरू भी करवाती है।  मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने के कारण उससे अपेक्षा रहती  है की वह देशहित में अपना सकारात्मक योगदान दे। आज बदलते समय में मीडिया की भूमिका के साथ-साथ  उसके रिपोर्टिंग करने का तरीका भी बदल चुका है । समय को देखते हुए मीडिया को अपने स्वार्थपूर्ति के गीत गाने की बजाय तटस्थ वाचडॉग की भूमिका निभानी चाहिये।

 -डॉ. प्रियंका सौरभ, रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045 (मो.) 7015375570

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

विश्व पशु चिकित्सा दिवस : पोषण का रामबाण है भारत का पशुधन

विश्व पशु चिकित्सा दिवस का आयोजन हर साल अप्रैल के अंतिम शनिवार को पशु चिकित्सा व्यवसाय को सम्मान स्वरुप मनाया जाता है। इस साल इस दिवस का विषय पशु चिकित्सा क्षेत्र में विविधता, समानता और समावेश को बढ़ावा देना है। पशुपालन का अभ्यास अब एक विकल्प नहीं है, बल्कि समकालीन परिदृश्य में एक आवश्यकता है। इसके सफल, टिकाऊ और कुशल कार्यान्वयन से हमारे समाज के निचले तबके की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। पशुपालन को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, कृषि, शोध और पेटेंट से जोड़ने से भारत को दुनिया का पोषण शक्ति केंद्र बनाने की हर संभव क्षमता है। पशुपालन भारत के साथ-साथ विश्व के लिए अनिवार्य आशा, निश्चित इच्छा और अत्यावश्यक रामबाण है।

पशुपालन का तात्पर्य पशुधन पालने और चयनात्मक प्रजनन से है। यह जानवरों का प्रबंधन और देखभाल है जिसमें लाभ के लिए जानवरों के अनुवांशिक गुणों और व्यवहार को और विकसित किया जाता है। भारत का पशुधन क्षेत्र दुनिया में सबसे बड़ा है। लगभग 20.5 मिलियन लोग अपनी आजीविका के लिए पशुधन पर निर्भर हैं। सभी ग्रामीण परिवारों के औसत 14% की तुलना में छोटे कृषि परिवारों की आय में पशुधन का योगदान 16% है। पशुधन दो-तिहाई ग्रामीण समुदाय को आजीविका प्रदान करता है। यह भारत में लगभग 8.8% आबादी को रोजगार भी प्रदान करता है। भारत में विशाल पशुधन संसाधन हैं। पशुधन क्षेत्र 4.11% सकल घरेलू उत्पाद और कुल कृषि सकल घरेलू उत्पाद का 25.6% योगदान देता है। पशुधन आय ग्रामीण परिवारों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण माध्यमिक स्रोत बन गया है और किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

पशुधन किसानों की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में किसान मिश्रित कृषि प्रणाली को बनाए रखते हैं यानी फसल और पशुधन का संयोजन जहां एक उद्यम का उत्पादन दूसरे उद्यम का इनपुट बन जाता है जिससे संसाधन दक्षता का एहसास होता है। पशुधन विभिन्न तरीकों से किसानों की सेवा करता है। पशुधन भारत में कई परिवारों के लिए सहायक आय का एक स्रोत है, विशेष रूप से संसाधन गरीब जो जानवरों के कुछ सिर रखते हैं। दूध की बिक्री के माध्यम से गायों और भैंसों को दूध देने से पशुपालकों को नियमित आय प्राप्त होगी। भेड़ और बकरी जैसे जानवर आपात स्थितियों जैसे विवाह, बीमार व्यक्तियों के इलाज, बच्चों की शिक्षा, घरों की मरम्मत आदि को पूरा करने के लिए आय के स्रोत के रूप में काम करते हैं। जानवर चलती बैंकों और संपत्ति के रूप में भी काम करते हैं जो मालिकों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं।

भारत में कम साक्षर और अकुशल होने के कारण बड़ी संख्या में लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। लेकिन कृषि प्रकृति में मौसमी होने के कारण एक वर्ष में अधिकतम 180 दिनों के लिए रोजगार प्रदान कर सकती है। कम भूमि वाले लोग कम कृषि मौसम के दौरान अपने श्रम का उपयोग करने के लिए पशुओं पर निर्भर करते हैं। पशु उत्पाद जैसे दूध, मांस और अंडे पशुपालकों के सदस्यों के लिए पशु प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। दूध की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगभग 355 ग्राम/दिन है; अंडे 69/वर्ष है। 

जानवर समाज में अपनी स्थिति के संदर्भ में मालिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। परिवार विशेष रूप से भूमिहीन जिनके पास जानवर हैं, उनकी स्थिति उन लोगों की तुलना में बेहतर है जिनके पास पशु नहीं हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में शादियों के दौरान जानवरों को उपहार में देना एक बहुत ही सामान्य घटना है। पशुपालन भारतीय संस्कृति का अंग है। जानवरों का उपयोग विभिन्न सामाजिक धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता है। गृह प्रवेश समारोहों के लिए गायें; उत्सव के मौसम में बलिदान के लिए मेढ़े, हिरन और चिकन; विभिन्न धार्मिक कार्यों के दौरान बैल और गायों की पूजा की जाती है। कई मालिक अपने जानवरों से लगाव विकसित करते हैं।

पशुपालन लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है। पशुधन उत्पादन में श्रम की तीन-चौथाई से अधिक मांग महिलाओं द्वारा पूरी की जाती है। पशुधन क्षेत्र में महिलाओं के रोजगार की हिस्सेदारी पंजाब और हरियाणा में लगभग 90% है जहां डेयरी एक प्रमुख गतिविधि है और जानवरों को स्टाल-फेड किया जाता है। बैल भारतीय कृषि की रीढ़ की हड्डी हैं। भारतीय कृषि कार्यों में यांत्रिक शक्ति के उपयोग में बहुत प्रगति के बावजूद, भारतीय किसान विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी विभिन्न कृषि कार्यों के लिए बैलों पर निर्भर हैं।

बैल ईंधन पर काफी बचत कर रहे हैं जो यांत्रिक शक्ति जैसे ट्रैक्टर, कंबाइन हार्वेस्टर आदि का उपयोग करने के लिए एक आवश्यक इनपुट है। बैलों के अलावा देश के विभिन्न भागों में सामान ढोने के लिए ऊंट, घोड़े, गधे, खच्चर आदि जैसे पैक जानवरों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है। पहाड़ी इलाकों जैसी स्थितियों में माल परिवहन के लिए खच्चर और टट्टू ही एकमात्र विकल्प के रूप में काम करते हैं। इसी तरह, ऊंचाई वाले क्षेत्रों में विभिन्न वस्तुओं के परिवहन के लिए सेना को इन जानवरों पर निर्भर रहना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए किया जाता है जिसमें ईंधन (गोबर के उपले), उर्वरक (खेत यार्ड खाद), और प्लास्टरिंग सामग्री (गरीब आदमी की सीमेंट) शामिल हैं।

कृषि पशुओं की उत्पादकता में सुधार करना प्रमुख चुनौतियों में से एक है। भारतीय मवेशियों की औसत वार्षिक दुग्ध उपज 1172 किलोग्राम है जो वैश्विक औसत का लगभग 50 प्रतिशत है। खुरपका और मुंहपका रोग, ब्लैक क्वार्टर संक्रमण जैसी बीमारियों का लगातार प्रकोप; इन्फ्लुएंजा, आदि पशुधन स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं और उत्पादकता को कम करते हैं। भारत में जुगाली करने वालों की विशाल आबादी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान करती है। शमन और अनुकूलन रणनीतियों के माध्यम से ग्रीनहाउस गैसों को कम करना एक बड़ी चुनौती होगी।

विभिन्न प्रजातियों की आनुवंशिक क्षमता को बढ़ाने के लिए विदेशी स्टॉक के साथ स्वदेशी प्रजातियों का क्रॉसब्रीडिंग केवल एक सीमित सीमा तक ही सफल रहा है। कृत्रिम गर्भाधान के बाद खराब गर्भाधान दर के साथ मिलकर गुणवत्ता वाले जर्मप्लाज्म, बुनियादी ढांचे और तकनीकी जनशक्ति में कमी के कारण सीमित कृत्रिम गर्भाधान सेवाएं प्रमुख बाधाएँ रही हैं। इस क्षेत्र को कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर कुल सार्वजनिक व्यय का लगभग 12 प्रतिशत प्राप्त हुआ, जो कि कृषि सकल घरेलू उत्पाद में इसके योगदान की तुलना में अनुपातहीन रूप से कम है। वित्तीय संस्थानों द्वारा इस क्षेत्र की उपेक्षा की गई है।

मांस उत्पादन और बाजार: इसी तरह, वध सुविधाएं अपर्याप्त हैं। कुल मांस उत्पादन का लगभग आधा अपंजीकृत, अस्थायी बूचड़खानों से आता है। पशुधन उत्पादों के विपणन और लेनदेन की लागत बिक्री मूल्य का 15-20 प्रतिशत अधिक है। बढ़ती आबादी के साथ, खाद्य मुद्रास्फीति में लगातार वृद्धि, किसानों की आत्महत्या में दुर्भाग्यपूर्ण वृद्धि के बीच भारत की अधिकांश आबादी का प्राथमिक व्यवसाय कृषि है, पशुपालन का अभ्यास अब एक विकल्प नहीं है, बल्कि समकालीन परिदृश्य में एक आवश्यकता है। इसके सफल, टिकाऊ और कुशल कार्यान्वयन से हमारे समाज के निचले तबके की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। पशुपालन को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, कृषि, शोध और पेटेंट से जोड़ने से भारत को दुनिया का पोषण शक्ति केंद्र बनाने की हर संभव क्षमता है। पशुपालन भारत के साथ-साथ विश्व के लिए अनिवार्य आशा, निश्चित इच्छा और अत्यावश्यक रामबाण है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045

(मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप)