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सोमवार, 22 अप्रैल 2013

न्यू मीडिया 'हिंदी ब्लागिंग' के दस साल : प्रिंट मीडिया ने लिया हाथों-हाथ

न्यू मीडिया के रूप में तेजी से उभरी हिन्दी ब्लागिंग के एक दशक पूरा होने पर प्रिंट मीडिया ने भी इसे हाथों-हाथ लिया। इलाहाबाद के तमाम पत्रकारों ने अन्य ब्लागर्स के साथ हम लोगों  से भी संपर्क किया और इस विधा के बारे में अपनी जानकारी में इजाफा करते हुए हिंदी ब्लागिंग के दस साल पूरे होने पर व्यापक और बेहतर कवरेज भी दी। इनमें 'शब्द-शिखर' के अलावा कृष्ण कुमार यादव जी के 'शब्द-सृजन की ओर' व 'डाकिया डाक लाया', अक्षिता के 'पाखी की दुनिया' के साथ-साथ हिंदी में ब्लागिंग कर रहे सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, गौरव कृष्णा बंसल इत्यादि की भी चर्चा की गई है।

 सबसे रोचक तो यह रहा कि हिन्दी मीडिया के साथ-साथ इस अवसर को अंग्रेजी-मीडिया ने भी भरपूर स्थान दिया। टाइम्स आफ इण्डिया, हिंदुस्तान टाइम्स  जैसे प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचार पत्रों के अलावा नार्दर्न इण्डिया पत्रिका ने भी इस पर बखूबी कलम चलाई। इसे आप सभी लोगों के साथ शेयर कर रही हूँ।  


(जनसंदेश टाइम्स, ( वाराणसी संस्करण)22 अप्रैल 2013)

(दैनिक जागरण , 21 अप्रैल 2013)


(जनसंदेश टाइम्स, 21 अप्रैल 2013)



(i next, 21 अप्रैल 2013)


(Times of India, 22nd April 2013)


(Hindustan Times, 22nd April 2013)

(Northern India patrika, 22nd April 2013)

रविवार, 21 अप्रैल 2013

ब्लागिंग का बढ़ता जलवा : हिंदी ब्लागिंग के एक दशक पूरे


भूमंडलीकरण ने समग्र विश्व को एक ग्लोबल विलेज में परिवर्तित कर दिया, जहाँ सूचना-प्रौद्योगिकी के बढ़ते कदमों के साथ सारी जानकारियाँ एक क्लिक मात्र पर उपलब्ध होने लगीं। वास्तविक दुनिया की बजाय लोग आभासी दुनिया में ज्यादा विचरण करने लगे। भूमंडलीकरण, उदारीकृत अर्थव्यवस्था, संचार क्रांति, सूचना का बढ़ता दायरा एवं इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती नवीनतम प्रौद्योगिकियों ने पूरी दुनिया को और करीब ला दिया और इसी के साथ एक नए प्रकार के मीडिया का भी जन्म हुआ। एक ऐसा मीडिया जहाँ न तो खबरों के लिए अगले दिन के अखबार का इंतजार करना पड़ता है और न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूलभुलैया में दौड़ना होता है। आलमारियों की बंद किताबों से अलग इसे दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर किसी भी समय पढ़ा-देखा जा सकता है। यह दौर है नित्य अपडेट होती वेबसाइट्स का, सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स का और ब्लागिंग का। वेबसाइट्स के लिए प्रोफेशनलिज्म व धन की जरूरत है, वहीं सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स की अपनी शाब्दिक सीमाएं हैं। इससे परे ब्लाग या चिट्ठा एक ऐसा स्पेस देता है, जहाँ लोग अपनी अनुभूतियाँ को न सिर्फ अन-सेंसर्ड रूप में  अभिव्यक्त करते हैं बल्कि पाठकों से अंतहीन खुला संवाद भी स्थापित करते हैं। आज ब्लागिंग (चिट्ठाकारी) का आकर्षण दिनों-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। जहाँ वेबसाइट में सामान्यतया एकतरफा सम्प्रेषण होता है, वहीं ब्लाग में यह लेखकीय-पाठकीय दोनों स्तर पर होता है। ब्लाग सिर्फ जानकारी देने का माध्यम नहीं बल्कि संवाद, प्रतिसंवाद, सूचना विचार और अभिव्यक्ति का भी सशक्त ग्लोबल मंच है। ब्लागिंग को कुछ लोग खुले संवाद का तरीका मानते हैं तो कुछेक लोग इसे निजी डायरी मात्र। ब्लाग को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है-‘‘एक इंटरनेट वेबसाइट जिसमें किसी की लचीली अभिव्यक्ति का चयन संकलित होता है और जो हमेशा अपडेट होती रहती है।‘‘

        वर्ष 1999 में आरम्भ हुआ ब्लाग वर्ष 2013 में 14 साल का सफर पूरा कर चुका है। वर्ष 2003 में यूनीकोड हिंदी में आया और तद्नुसार हिन्दी ब्लाग का भी आरम्भ हुआ। यद्यपि इससे पूर्व विनय जैन ने 19 अक्टूबर 2002 को अंगे्रजी ब्लाग पर हिन्दी की कड़ी सर्वप्रथम आरंभ कर इसका आगाज किया था, पर पूर्णतया हिन्दी में ब्लागिंग आरंभ करने का श्रेय आलोक को जाता है, जिन्होंने 21 अप्रैल 2003 को हिंदी के प्रथम ब्लॉग ’नौ दो ग्यारह’ से इसका आगाज किया। यहाँ तक कि ‘ब्लाग‘ के लिए ‘चिट्ठा‘ शब्द भी उन्हीं का दिया हुआ है।

      ब्लागिंग का क्रेज पूरे विश्व में छाया हुआ है। भारत के  राजनेताओं में लालू प्रसाद यादव, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार, शिवराज चैहान, फारूक अब्दुल्ला, अमर सिंह, उमर अब्दुल्ला तो फिल्म इण्डस्ट्री में अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, आमिर खान, मनोज वाजपेयी, प्रकाश झा, शिल्पा शेट्टी, सेलिना जेटली, विक्रम भट्ट, शेखर कपूर, अक्षय कुमार, अरबाज खान, नंदिता दास इत्यादि के ब्लाग मशहूर हैं। चर्चित सोशलाइट लेखिका शोभा डे से लेकर प्रथम आई0पी0एस0 अधिकारी किरण बेदी तक ब्लागिंग से जुड़ी हैं। सेलिबे्रटी के लिए ब्लाग तो बड़ी काम की चीज है। फिल्मी हस्तियाँ अपनी फिल्मों के प्रचार  और फैन क्लब में इजाफा हेतु ब्लागिंग का बखूबी इस्तेमाल कर रही हैं। फिल्में रिलीज बाद में होती हैं, उन पर प्रतिक्रियाएं पहले आने लगती हैं। पर अधिकतर फिल्मी हस्तियों के ब्लाग अंग्रेजी में ही लिखे जा रहे हैं। अभिनेता मनोज वाजपेयी बकायदा हिन्दी में ही ब्लागिंग करते हैं और गंभीर लेखन करते हैं। अमिताभ बच्चन ने भी हिन्दी में ब्लागिंग की इच्छा जाहिर की है। एक तरफ ये हस्तियाँ अपनी जीवन की छोटी-मोटी बातें लोगों से शेयर कर रही हैं, वहीं अपने ब्लाग के जरिए तमाम गंभीर व सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त कर रही हैं। परम्परागत मीडिया उनकी बातों को नमक-मिर्च लगाकर पेश करता रहा है, पर ब्लागिंग के माध्यम से वे अपनी वास्तुस्थिति से लोगों को अवगत करा सकते हैं।

      ब्लागिंग में भाषा की वर्जनाएं टूट रही हैं, तभी तो हिन्दी देश-विदेश व उत्तर-दक्षिण की सीमाओं से परे सरपट दौड़ रही है। इंटरनेट पर हिन्दी का विकास तेजी से हो रहा है। गूगल से हिन्दी में जानकारियाँ धड़ल्ले से खोजी जा रही हैं। 21 वीं सदी में इंटरनेट एक ऐसे महत्वपूर्ण हथियार के रूप में उभरा, जहाँ अभिव्यक्तियों के तौर-तरीके बदलते नजर आए। किसने सोचा था कि कभी निजी डायरी माना जाने वाला ब्लॉग देखते-देखते राजनैतिक व समसायिक विषयों, साहित्य, समाज के साथ-साथ फोटो ब्लॉग, म्यूजिक ब्लॉग, पोडकास्ट, वायस ब्लॉग, वीडियो ब्लॉग, सामुदायिक ब्लॉग, प्रोजेक्ट ब्लॉग, कारपोरेट ब्लॉग, वेब कास्टिंग इत्यादि के साथ जीवन की जरूरतों में शामिल हो जायेगा। आज हिंदी ब्लागिंग भी इसका अपवाद नहीं रही, यहाँ भी यह सभी बखूबी चीजें दिखने लगी हैं। महत्वपूर्ण किताबों के ई प्रकाशन के साथ-साथ इंटरनेट के इस दौर में तमाम हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं भी अपना ई-संस्करण जारी कर रही हैं, जिससे हिन्दी भाषा व साहित्य को नए आयाम मिले हैं। इंटरनेट पर उपलब्ध प्रमुख हिन्दी पत्रिकाएं हैं- हिंदी का पहला पोर्टल वेब दुनिया, अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, हिन्दयुग्म, रचनाकार, साहित्य कुंज, साहित्य शिल्पी, लघुकथा डाट काम, स्वर्गविभा, हिंदी नेस्ट, हिंदी चेतना, हिंदीलोक, कथाचक्र, काव्यालय, काव्यांजलि, कवि मंच, कृत्या, कलायन, आर्यावर्त, नारायण कुञ्ज, हंस, अक्षरपर्व, अन्यथा, आखर (अमर उजाला), उदन्ती, उद्गम, कथाक्रम, कादम्बिनी, कथादेश, गर्भनाल, जागरण, तथा, तद्भव, तहलका, ताप्तिलोक, दोआबा, नया ज्ञानोदय, नया पथ, परिकथा, पाखी, दि संडे पोस्ट, प्रतिलिपि, प्रेरणा, बहुवचन, भारत दर्शन, भारतीय पक्ष, मधुमती, रचना समय, लमही, लेखनी, लोकरंग, वागर्थ, शोध दिशा, संवेद, संस्कृति, समकालीन जनमत, समकालीन साहित्य, समयांतर, प्रवक्ता, अरगला, तरकश, अनुरोध, एक कदम आगे, पुरवाई, प्रवासी टुडे, अन्यथा, भारत दर्शन, सरस्वती पत्र, पांडुलिपि, हिंदी भाषी, हिंदी संसार, हिंदी समय, हिमाचल मित्र इत्यादि। इसी कड़ी में ‘कविता कोश‘ और ‘गद्य कोश‘ ने भी हिन्दी साहित्य के लिए मुक्ताकाश दिया है। यहाँ तमाम पुराने और प्रतिष्ठित साहित्यकारों की विभिन्न विधाओं में रचनाओं के संचयन के साथ-साथ नवोदित रचनाकारों की रचनाएँ भी पढ़ी जा सकती हैं। 

       आज हिन्दी ब्लागिंग में हर कुछ उपलब्ध है, जो आप देखना चाहते हैं। हर ब्लॉग का अपना अलग जायका है। राजनीति, धर्म, अर्थ, मीडिया, स्वास्थ्य, खान-पान, साहित्य, कला, शिक्षा, संस्कार, पर्यावरण, संस्कृति, विज्ञान-तकनीक, सेक्स, खेती-बाड़ी, ज्योतिषी, समाज सेवा, पर्यटन, वन्य जीवन, नियम-कानूनों की जानकारी सब कुछ अपने पन्नों पर समेटे हुए है। यहाँ खबरें हैं, सूचनाएं हैं, विमर्श हैं, आरोप-प्रत्यारोप हैं और हर किसी का अपना सोचने का नजरिया है। तमाम तकनीकी ब्लॉग लोगों को इससे जोड़ने और नित्य नई-नई जानकारियों के संग्रहण और विजेट्स से रूबरू कराने में अग्रसर हैं। सामुदायिक ब्लाग पर जीवन के विविध रंग देखे जा सकते हैं। हर सामुदायिक ब्लाग के अपने ब्लाग्र्स-लेखक हैं तो कुछ ब्लाग्र्स कई सामुदायिक ब्लाॅगों से जुड़े हुए हैं। कुछ ब्लाग्र्स का अपना स्वतंत्र ब्लाग नहीं है बल्कि वे इन सामुदायिक ब्लाग¨ के माध्यम से ही ब्लागिंग से जुड़े हुए हैं। इन सामुदायिक ब्लाग पर गंभीर वैचारिक बहसों से लेकर खरी-खोटी तक कही जाती है और कई बार ऐसी बातें/खबरें भी जो महत्वपूर्ण तो होती हैं पर किन्हीं कारणवश पत्र-पत्रिकाओं या टी0वी0 चैनल्स पर स्थान नहीं पातीं। इन ब्लागों पर स्थापित व उभर रह रचनाकारों की विभिन्न विधाओं में रचनाएं पढ़ी जा सकती हैं। कुछ ब्लाग तो नित्य-प्रतिदिन अपडेट होते हैं जबकि कुछ निश्चित अंतराल पश्चात। जाति-धर्म-क्षेत्र से ब्लागजगत भी अछूता नहीं रहा। हर कोई अपनी जाति से जुड़े महापुरुषों को लेकर गौरवान्वित हो रहा है। नेता, अभिनेता, प्रशासक, सैनिक, किसान, खिलाड़ी, पत्रकार, बिजनेसमैन, डाक्टर, इंजीनियर, पर्यावरणविद, ज्योतिषी, शिक्षक, साहित्यकार, कलाकार, कार्टूनिस्ट, वन्यजीव प्रेमी, पर्यटक, वैज्ञानिक, विद्यार्थी से लेकर बच्चे, युवा, वृद्ध, नारी-पुरुष व किन्नर तक ब्लागिंग में हाथ आजमा रहे हैं। ब्लागिंग ने पूरे विश्व में नई ऊर्जा का संचार किया है। देखते ही देखते हिन्दी को भी पंख लग गए और संपादकों की काट-छांट व खेद सहित वापस, प्रकाशकों की मनमानी व आर्थिक शोषण से परे हिन्दी ब्लागों पर पसरने लगी। हिंदी साहित्य, लेखन व पत्रकारिता से जुड़े तमाम चर्चित नाम भी अपने ब्लाग के माध्यम से पाठकों से नित्य रूबरू हो रहे हैं। विदेशों में रहकर भी हिन्दी ब्लागिंग को समृद्ध करने वालों की एक लम्बी सूची है।

      न्यू मीडिया के रूप में उभरी ब्लागिंग ने नारी-मन की आकांक्षाओं को मानो मुक्ताकाश दे दिया हो। वर्ष 2003 में यूनीकोड हिंदी में आया और तदनुसार तमाम महिलाओं ने हिंदी ब्लागिंग में सहजता महसूस करते हुए उसे अपनाना आरंभ किया। आज 50,000 से भी ज्यादा हिंदी ब्लाग हैं और इनमें लगभग एक चैथाई ब्लाग महिलाओं द्वारा संचालित हैं। ये महिलाएं अपने अंदाज में न सिर्फ ब्लागों पर सहित्य-सृजन कर रही हं बल्कि तमाम राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक मुददों से लेकर घरेलू समस्याओं, नारियों की प्रताड़ना से लेकर अपनी अलग पहचान बनाती नारियों को समेटते विमर्श, पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से लेकर  पुरूष समाज की नारी के प्रति दृष्टि, जैसे तमाम विषय ब्लागों पर चर्चा का विषय बनते हैं। महिलाएं हिन्दी ब्लागिंग को न सिर्फ अपना रही हैं बल्कि न्यू मीडिया के इस अन्तर्राष्ट्रीय विकल्प के माध्यम से अपनी वैश्विक पहचान भी बनाने में सफल रही हैं। 

       ब्लाॅगिंग की दुनिया ने लोगों को एक ऐसा मंच मुहैया कराया है जहाँ वे बिना किसी खर्च और बंदिश के अपनी बात कह सकते हैं। ब्लाग के माध्यम से समाज का सुख-दुःख भी बाँटा जा सकता है। कई बार प्राकृतिक आपदाओं इत्यादि के समय सहायता के लिए ब्लाग का इस्तेमाल किया जाता है। आज ब्लाग तो विद्यालय हो गए हैं, जहाँ लिखने-पड़ने के अलावा चर्चा-परिचर्चा, सेमिनार जैसे आयोजन भी कर-देख सकते हैं। 50,000 से ज्यादा हिन्दी ब्लाग मानो ज्ञान व सूचना का खजाना हों। ब्लागर्स की गतिविधियाँ सिर्फ वर्चुअल-स्पेस तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उससे परे भी कभी ब्लागर संगोष्ठी तो कभी ब्लागर मिलन के माध्यम से ब्लागर्स की गहमागहमी बनी रहती है। इनके माध्यम से ब्लागिंग के सम्बन्ध में बहुत कुछ शेयर करने के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभवों को भी साझा किया जा रहा है। निश्चिततः इन सब गतिविधियों से ब्लॉगिंग को न सिर्फ एक स्वतंत्र विधा में स्थापित करने में मदद मिलेगी बल्कि आने वाले दिनों में तमाम लोग भी इससे जुडेंगे। तमाम विश्वविद्यालय-कालेज-संस्थाओं के तत्वावधान में राष्ट्रीय ब्लागर संगोष्ठी के आयोजन जैसे कदम ब्लागिंग के बढ़ते प्रभाव का ही अहसास करा रहे हैं। ब्लागिंग पर कुछेक पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं- हिंदी ब्लागिंग: अभिव्यक्ति की नई क्रांति (सं. अविनाश वाचस्पति, रवीन्द्र प्रभात), हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (रवीन्द्र प्रभात), हिंदी ब्लागिंग : स्वरुप, व्याप्ति और संभावनाएं (स. डा. मनीष कुमार मिश्र) । यह पुस्तकें जहाँ ब्लागिंग के परंपरागत स्वरूप से लेकर बदलते दौर में ब्लागिंग के आयामों को परिलक्षित करती हैं, वहीं इसे शोध का विषय भी बनाती हैं। वैसे भी हिंदी ब्लागिंग अब शोध का विषय बन चुकी है। केवल राम, चिराग जैन, सुषमा सिंह जैसे ब्लागॅर्स बकायदा इस पर विभिन्न विश्वविद्यालयों से शोध कर रहे हैं, जो कि हिंदी ब्लागिंग के लिए एक अच्छा संकेत है।

         ब्लागिंग का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि किसी विषय पर एक ही साथ भिन्न-भिन्न पीढि़यों के नजरिए स्पष्ट होते हैं। ब्लागिंग से कुछ भी अछूता नहीं है, फिर चाहे वह किसी महान व्यक्तित्व को याद करना हो या किसी विशेष दिवस को। एक विषय पर एक ही साथ कई पोस्ट प्रकाशित होती हैं, बस जरूरत है इन्हें हाथी के विभिन्न अंगों की तरह समेटकर आत्मसात् करने की। जैसे-जैसे ब्लागिंग का दायरा बढ़ता गया, इसमें ब्लागर्स एसोसिएशन से लेकर पुरस्कारों तक की परंपरा भी आरंभ हो गई। कवि, लेखक, साहित्यकार इत्यादि उपाधियों से परे ब्लागर स्वयं में एक उपाधि बन चुकी है। हिंदी ब्लागिंग की सक्रियता का आलम ही है कि अब तो साहित्य अकादमी की तरह ब्लागिंग अकादमी की भी आवाज उठने लगी है। कुछ लोगों का मानना है कि जिस तरह ग्रामीण एवं अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले हिन्दी प्रकाशनों को विशेष मदद मिलती है उसी तर्ज पर दूरदराज तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के ब्लागर्स को भी विशेष सहायता मिलनी  चाहिए। ब्लाग सिर्फ राजनैतिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-कला-सामाजिक गतिविधियों के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि, तमाम कारपोरेट ग्रुप इसके माध्यम से अपने उत्पादों के संबंध में सर्वे और प्रचार भी करा रहे हैं। वास्तव में देखा जाय तो ब्लाग एक प्रकार की समालोचना है, जहाँ पाठक गुण-दोष दोनों को अभिव्यक्त करते हैं। ब्लागिंग का एक बहुत बड़ा फायदा प्रिंट मीडिया को हुआ है। अब उन्हें किसी के पत्रों एवं विचारों की दरकार महसूस नहीं होती। ब्लाग के माध्यम से वे पाठकों को समसामयिक एवं चर्चित विषयों पर जानकारी परोस रहे हैं। आज ब्लाग परम्परागत मीडिया का न सिर्फ एक विकल्प बन चुका है बल्कि ’नागरिक पत्रकार’ की भूमिका भी निभा रहा है। 

     ब्लाग बनाने हेतु मात्र तीन कदम चलने की जरूरत है, फिर अपनी सुविधानुसार उसे रंग-रूप दे सकते हैं। यहाँ ब्लागर ही लेआउट और साज सज्जा की जिम्मेदारी से लेकर सामग्री तक मुहैया कराता है अर्थात संपादक और प्रकाशक से लेकर रिपोर्टर व लेखक तक का कार्य करता है। ब्लागिंग आरम्भ करने हेतु ब्लागस्पाट.काम ; ब्लागर ; वर्डप्रेस ; तथा माईस्पेस ; चर्चित नाम हैं। इनके अलावा ब्लाग.काम, बिगअड्डा, माई वेब दुनिया, याहू ;याहू 360द्, रेडिफ आईलैण्ड, माइक्रोसाफ्ट स्पेसेजद्ध, टाइपपैड, पिटास, रेडियो यूजरलैंड इत्यादि भी ब्लागिंग की सुविधा उपलब्ध कराते हैं। ब्लागिंग की बढ़ती महत्ता देखकर तमाम अखबार भी ब्लागिंग के क्षेत्र में कूद पड़े हैं-दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स इत्यादि। आज ट्विटर द्वारा 140 शब्दों तक माइक्रो-ब्लागिंग भी की जा रही है। ऐसे में कोई भी नेट-यूजर आसानी से ब्लागिंग आरम्भ कर सकता है और अपनी अभिव्यक्तियों को सूचना-संजाल के इस दौर में हर किसी तक पहुँचा सकता है। निश्चिततः भूमंडलीकरण के इस दौर में ब्लागिंग ने न सिर्फ भाषाओं और उनके साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि विस्तृत संवाद का एक सशक्त हथियार भी मुहैया कराया है और हिन्दी भी इसकी अपवाद नहीं है।

- आकांक्षा यादव @ www.shabdshikhar.blogspot.com/ 





रविवार, 14 अप्रैल 2013

डा0 भीमराव अम्बेडकर के प्रति दीवानगी ने रचा ' ‘भीमायनम्’'


आधुनिक भारत के निर्माताओं में डा0 भीमराव अम्बेडकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है पर स्वयं डा0 अम्बेडकर को इस स्थिति तक पहुँचने के लिये तमाम सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। डा0 अम्बेडकर मात्र एक साधारण व्यक्ति नहीं थे वरन् दार्शनिक, चिंतक, विचारक, शिक्षक, सरकारी सेवक, समाज सुधारक, मानवाधिकारवादी, संविधानविद और राजनीतिज्ञ इन सभी रूपों में उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह किया। अंबेडकर के पिता रामजी की यह बेहद दिली इच्छा थी कि उनका पुत्र संस्कृत पढ़े। इसी के मद्देनजर, जब अंबेडकर ने मुंबई के एलफिंस्टन हाई स्कूल में संस्कृत विषय का विकल्प लिया तो वह यह देखकर हैरान हो गए कि स्कूल के शिक्षकों ने उन्हें संस्कृत विषय देने से इसलिए इन्कार कर दिया कि वह एक दलित थे। उन दिनों “निचली जाति” के लोगों को संस्कृत का ज्ञान देना एक ऐसी बात थी जिससे लोग बचते थे। हाल ही में दृष्टि दोष से संघर्षरत 84 वर्षीय एक वैदिक विद्वान प्रभाकर जोशी ने जब डा॰ अंबेडकर के जीवन के विषय में पढ़ना शुरू किया तो उन्हें यह एक विडंबना लगी और इसी के बाद उन्होंने संस्कृत में डा॰ अंबेडकर की जीवनी ‘भीमायनम्’ लिखने का फैसला किया। प्रभाकर जोशी ने भारतीय संविधान के निर्माता डा॰ भीमराव अंबेडकर की जीवनी संस्कृत श्लोकों में लिखी है। डा॰ अंबेडकर की संस्कृत में लिखी संभवतः यह पहली जीवनी है। इस किताब में संस्कृत के 1577 श्लोक हैं और इन श्लोकों में डा॰ अंबेडकर के जीवन की विभिन्न घटनाओं का जिक्र किया गया है। 



      संस्कृत शिक्षक रहे प्रभाकर जोशी पिछड़ों के कल्याण के लिए डा॰ अंबेडकर के अभियान  से बेहद प्रभावित हैं। वे उन्हें ‘महामानव’ कहते हैं। महाराष्ट्र सरकार के महाकवि कालिदास पुरस्कार से सम्मानित प्रभाकर जोशी मोतियाबिंद से पीडि़त हैं।  गौरतलब है कि 2004 में शुरू हुए इस काम के दौरान प्रभाकर जोशी की नेत्र ज्योति पूरी तरह चली गई, फिर भी उन्होंने अपना प्रयास निरंतर जारी रखा। लेखन के दौरान अक्सर कम दिखाई देने की वजह से उनके अक्षर गड्डमड्ड हो जाते थे। उनकी दृष्टि तेजी से धुंधलाती जा रही थी लेकिन इसके बावजूद अपने काम को पूरा करने की उनकी अदम्य इच्छाशक्ति बढ़ती जा रही थी।’ उनके लिखने के बाद उनकी पत्नी उन पंक्तियों को पढ़ती थी और उन्हें बाद में टाइप आदि किए जाने के लिए पठनीय बनाती थीं। कई बार प्रभाकर जोशी के मन में शब्द अचानक आ जाते थे और वे रात में ही उन्हें लिख लेने के लिए उठ जाते थे हालांकि उन्हें यह मालूम ही नहीं होता था कि स्याही सूख गई है। यहाँ एक अन्य प्रसंग का जिक्र करना उचित होगा कि 2 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर के प्रमुख पुरोहित की हैसियत से डा0 अम्बेडकर को दलित होने के कारण मन्दिर में प्रवेश करने से रोकने वाले रामदासबुवा पुजारी के पौत्र और विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के महंत सुधीरदास पुजारी ने भी अपने दादा की भूल का प्रायश्चित करने की इच्छा व्यक्त की थी। यह दर्शाता है कि डा॰ अंबेडकर के विचार व कार्य चिरंतन हैं और आज भी लोग उन्हें समझने की कोशिश कर रहे हैं। पं0 जवाहरलाल नेहरू ने उनके लिए यूं ही नहीं कहा था कि-‘‘डा0 अम्बेडकर हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

'दैनिक जागरण' और 'जनसत्ता' में भी फुदकी 'शब्द-शिखर' की गौरैया


'विश्व गौरैया दिवस' पर पर 20 मार्च, 2013 को 'शब्द-शिखर' पर लिखी गई मेरी पोस्ट 'लौट आओ नन्ही गौरैया'  को 9 अप्रैल, 2013 को जनसत्ता के नियमित स्तम्भ 'समांतर' में 'लौट आओ गौरैया' शीर्षक से स्थान दिया है. 

 इसी पोस्ट को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 21  मार्च, 2013 को  ' 'लौट आओ नन्ही गौरैया' शीर्षक से स्थान दिया है...आभार.

 समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 33 वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!





बुधवार, 20 मार्च 2013

लौट आओ नन्ही गौरैया

याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरैया को अपने आंगन या आसपास कब चीं-चीं करते देखा था। कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी। सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा। गौरैया व तमाम पक्षी हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहे हैं, लोकजीवन में इनसे जुड़ी कहानियां व गीत लोक साहित्य में देखने-सुनने को मिलते हैं। कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगंवार बना देते थे। नन्ही गौरैया के सानिध्य भर से बच्चों को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी, पर अब वही नन्ही गौरैया विलुप्त होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हमीं ही हैं। गौरैया का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और परिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है। बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरण, रहन-सहन में बदलाव, मोबाइल टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन, हरियाली कम होने जैसे कई कारणों से गौरैया की संख्या कम होती जा रही है।
बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थी, पर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं। नन्ही परी गौरैया अब कम ही नजर आती है। दिखे भी कैसे, हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया। हरियाली खत्म कर कंक्रीट के जंगल खड़े किए, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर उसका कुदरती भोजन खत्म कर दिया और अब मोबाइल टावरों से उनकी जान लेने पर तुले हुए हैं। फिर क्यों गौरैया हमारे आंगन में फुदकेगी, क्यों वह मां के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी?

कुछेक साल पहले तक गौरेया घर-परिवार का एक अहम हिस्सा होती थी। घर के आंगन में फुदकती गौरैया, उनके पीछे नन्हे-नन्हे कदमों से भागते बच्चे। अनाज साफ करती मां के पहलू में दुबक कर नन्हे परिंदों का दाना चुगना और और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना। ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गांवों में भी नहीं दिखाई देते।

भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है। फसलों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से परिंदों की दुनिया ही उजड़ गई है। गौरैया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं। गौरैया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं। कीटनाशकों से कीड़ों के लार्वा मर जाते हैं। ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है। फिर गौरैया कहाँ से आयेगी ?

गौरैया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है। पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। गौरैया घर के झरोखों में भी घोंसले बना लेती है। अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरैया घोंसला कहां बनाए। मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगें, अनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस भी गौरैयों और अन्य परिंदों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। ऐसे में गौरैया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। इधर कुछ वर्षों से पक्षी वैज्ञानिकों एंव सरंक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरैया की तरफ़ गया। नतीजतन इसके अध्ययन व सरंक्षण की बात शुरू हुई, जैसे की पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ। गौरैया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे हैं।

जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरैया का होना निहायत जरुरी है। हॉउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरैया परिवार की चिड़िया है, जो विश्व के अधिकांशत: भागों में पाई जाती है। इसके अलावा सोमाली, सैक्सुएल, स्पेनिश, इटेलियन, ग्रेट, पेगु, डैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं। भारत में असम घाटी, दक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है। गौरैया पूरे वर्ष प्रजनन करती है, विशेषत: अप्रैल से अगस्त तक। दो से पांच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है। नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं। अनाज, बीजों, बैरी, फल, चैरी के अलावा बीटल्स, कैटरपीलर्स, दिपंखी कीट, साफ्लाइ, बग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं। गौरैया आठ से दस फीट की ऊंचाई पर, घरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झाड़ियों में अपना घोसला बनाती हैं।
गौरैया को बचाने के लिए भारत की 'नेचर्स फोरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया' और 'इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांस' के साथ ही अन्य तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस' मनाने की घोषणा की और वर्ष 2010 में पहली बार 'विश्व गौरैया दिवस' मनाया गया। इस दिन को गौरैया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया। इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किए। कम होती गौरैया की संख्या को देखते हुए अक्टूबर 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया। वहीं गौरैया के संरक्षण के लिए 'बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी' ने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑन लाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है। कई एनजीओ गौरैया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं, ताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढियाँ भी रूबरू हो सके। देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरैया बचाओ के अभियान के बारे जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो, समाचारपत्रों का उपयोग किया जा रहा है। कुछेक संस्थाएं गौरैया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं। इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अख़बार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चों को घोसला बनाने का हुनर सिखाया जा रहा है । ये घोसले पेड़ों के वी शेप वाली जगह पर गौरैया के लिए लगाए जा रहे हैं।
वाकई आज समय की जरुरत है कि गौरैया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर ही प्रयास करें। कुछेक पहलें गौरैया को फिर से वापस ला सकती हैं। मसलन, घरों में कुछ ऐसे झरोखे रखें, जहां गौरैया घोंसले बना सकें। छत और आंगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखने, उन्हें आकर्षित करने हेतु आंगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परंपरा जैसे कदम भी इस नन्ही पक्षी को सलामत रख सकते हैं। इसके अलावा जिनके घरों में गौरैया ने अपने घोसलें बनाए हैं, उन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है। फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहलें भी आवश्यक हैं।

गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। आज भी बच्चों को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। साहित्य, कला के कई पक्ष इस नन्ही गौरैया को सहेजते हैं, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। गौरैया की कहानी, बड़ों की जुबानी सुनते-सुनते आज उसे हमने विलुप्त पक्षियों में खड़ा कर दिया है। नई पीढ़ी गौरैया और उसकी चीं-चीं को इंटरनेट पर खंगालती नजर आती है, ऐसा लगता है जैसे गौरैया रूठकर कहीं दूर चली गई हो। जरुरत है कि गौरैया को हम मनाएँ, उसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपनी जीवन-शैली में शामिल करें, ताकि हमारे बच्चे उसके साथ किलकारी मार सकें और वह उनके साथ फुदक सके !!

- आकांक्षा यादव

गुरुवार, 7 मार्च 2013

मेरा भी स्वतंत्र अस्तित्व है...




मुझे नहीं चाहिए
प्यार भरी बातें
चाँद की चाँदनी
चाँद से तोड़कर
लाए हुए सितारे।
मुझे नहीं चाहिए
रत्नजडि़त उपहार
मनुहार कर लाया
हीरों का हार
शरीर का श्रृंगार।
मुझे चाहिए
बस अपना वजूद
जहाँ किसी दहेज, बलात्कार
भ्रूण हत्या का भय
नहीं सताए मुझे।
मैं उन्मुक्त उड़ान
भर सकूँ अपने सपनों की
और कह सकूँ
मेरा भी स्वतंत्र अस्तित्व है।
-आकांक्षा यादव-

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

कांस्य युग में भी थी ’सोशल नेटवर्किंग’

आजकल सोशल नेटवर्किंग की सर्वत्र चर्चा है। न्यू मीडिया के विकल्प रूप में उभरी इन साइट्स ने एक साथ संवाद, क्रांति और कौतुहल तीनों को जन्म दिया है। फेसबुक तो एक अरब से ज्यादा लोगों के साथ एक ग्लोबल-विलेज ही बन गया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर राजनीति, धर्म, अध्यात्म, कला, संस्कृति, साहित्य, सरोकार, विमर्श से लेकर रिश्तों का बनना-बिगड़ना तक जारी है।
 
ऐसे में यह जानना अचरज भरा होगा कि विश्व में फेसबुक, आरकुट, ट्विटर या इस तरह की सोशल नेटवर्किंग साइटस का आज से नहीं बल्कि करीब 3,000 साल पहले से इस्तेमाल हो रहा है। यदि वैज्ञानिकों की मानें तो कांस्य युग में यानी करीब 3,000 साल पहले भी लोग एक-दूसरे से जुड़े रहने के लिए फेसबुक सरीखे किसी सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर अपने मित्रों से जुड़े रहते थे। वैज्ञानिकों ने इसे वर्तमान फेसबुक का प्राचीन ऐतिहासिक संस्करण करार दिया है।
 
     यह दावा कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने रूस और स्वीडन में दो विशालकाय ग्रेनाइट चट्टानों पर उकेरे गये  हजारों चित्रों के अध्ययन के बाद किया है। उनका कहना है कि ये स्थल एक तरह से सोशल नेटवर्क के पुरातन संस्करण हैं, जिनमें यूजर्स विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान करते थे और दूसरों के योगदान पर स्टैंप लगाकर उसकी सराहना करते थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे फेसबुक में हम ’लाइक’ को क्लिक करके किसी की बात को पसंद करते हैं।

 इस अध्ययन से जुड़े एक शोधकर्ता मार्क सैपवेल का मत है कि, ’इन खाली जगहों के बारे में जरूर कुछ खास बात है। मुझे लगता है कि लोग वहाँ इसलिए गए क्योंकि वे जानते थे कि उनसे पहले भी वहाँ बहुत से लोग जा चुके हैं. आज की तरह तब भी लोग एक-दूसरे से जुड़े रहना चाहते थे, एक लिखित भाषा का आविष्कार होने से पहले शुरूआती समाज में ये हजारों चित्र उनके लिए पहचान का इजहार करने के साधन थे।’’
 
 सैपवेल के मुताबिक, रूस के जालावरूगा और उत्तरी स्वीडन के नामफोरसेन में वह जिन स्थलों का अध्ययन कर रहे हैं, उनमें जानवरों, मनुष्यों, नौकाओं और शिकारी दलों की तस्वीरें शामिल हैं।

- आकांक्षा यादव

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन : जनसत्ता में 'शब्द-शिखर' का 'ढाई आखर'


वसंत के आगाज़ पर पर 10 फरवरी, 2013 को 'शब्द-शिखर' पर लिखी गई मेरी पोस्ट 'प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन' को 18 फरवरी, 2013 को जनसत्ता के नियमित स्तम्भ 'समांतर' में 'ढाई आखर' शीर्षक से स्थान दिया है...आभार. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 31वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सखि वसंत आया...

''सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया.'' (निराला)

 


वसंत पंचमी का आगमन हो चुका है. एक तरफ वसंत का सुहाना आगमन, वहीँ निराला जी की जयंती..सब कुछ कितना सुहाना लग रहा है. वसंत पंचमी एक ओर जहां ऋतुराज के आगमन का दिन है, वहीं यह विद्या की देवी और वीणावादिनी सरस्वती की पूजा का भी दिन है। इस ऋतु में मन में उल्लास और मस्ती छा जाती है और उमंग भर देने वाले कई तरह के परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

इससे शरद ऋतु की विदाई के साथ ही पेड़-पौधों और प्राणियों में नवजीवन का संचार होता है। प्रकृति नख से शिख तक सजी नजर आती है और तितलियां तथा भंवरे फूलों पर मंडराकर मस्ती का गुंजन गान करते दिखाई देते हैं। हर ओर मादकता का आलम रहता है। आयुर्वेद में वसंत को स्वास्थ्य के लिए हितकर माना गया है। हालांकि इस दौरान हवा में उड़ते पराग कणों से एलर्जी खासकर आंखों की एलर्जी से पीड़ित लोगों की समस्या बढ़ भी जाती है।

वसंत पंचमी को त्योहार के रूप में मनाए जाने के पीछे कई तरह की मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन ही देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था। इसीलिए इस दिन विद्या तथा संगीत की देवी की पूजा की जाती है। इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनने का चलन है, क्योंकि वसंत में सरसों पर आने वाले पीले फूलों से समूची धरती पीली नजर आती है।

वसंत पंचमी के पीछे एक मान्यता यह भी है कि इसी दिन भागीरथ की तपस्या के चलते गंगा का अवतरण हुआ था, जिससे समूची धरती खुशहाल हो गई। माघ माह के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली पंचमी पर गंगा स्नान का काफी महत्व है। पुराणों के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि वसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने पहली बार सरस्वती की पूजा की थी और तब से वसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा करने का विधान हो गया।

प्राचीन काल में वसंत पंचमी का दिन मदनोत्सव और वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस दिन स्त्रियां अपने पति की पूजा कामदेव के रूप में करती थीं। वसंत पंचमी के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव हदय में प्रेम एवं आकर्षण का संचार किया था और तभी से यह दिन वसंतोत्सव तथा मदनोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। वसंत पंचमी इस बात का संकेत देती है कि धरती से अब शरद की विदाई हो चुकी है और ऐसी ऋतु आ चुकी है जो जीव जंतुओं तथा पेड़ पौधों में नवजीवन का संचार कर देगी।

वसंत में मादकता और कामुकता संबंधी कई तरह के शारीरिक परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिसका आयुर्वेद में व्यापक वर्णन है। महर्षियों और मनीषियों ने कहा है कि वसंत पंचमी को पूरी श्रद्धा से सरस्वती की पूजा करनी चाहिए। बच्चों को इस दिन अक्षर ज्ञान कराना और बोलना सिखाना शुभ माना जाता है। वसंत पंचमी को श्री पंचमी भी कहा जाता है जो सुख, समृद्धि और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने का परिचायक है। इस दिन पतंग उड़ाने की भी परंपरा है जो मनुष्य के मन में भरे उल्लास को प्रकट करने का माध्यम है।

आकांक्षा यादव

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन


प्यार क्या है ? यह एक बड़ा अजीब सा प्रश्न है। पिछले दिनों इमरोज जी का एक इण्टरव्यू पढ़ रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब वे अमृता प्रीतम के लिए कुछ करते थे तो किसी चीज़ की आशा नहीं रखते थे। ज़ाहिर है प्यार का यही रूप भी है, जिसमें व्यक्ति चीज़े आत्मिक ख़ुशी के लिए करता है न कि किसी अपेक्षा के लिए। पर क्या वाकई यह प्यार अभी ज़िंदा है? हम वाकई प्यार में कोई अपेक्षा नहीं रखते। यदि रखते हैं तो हम सिर्फ़ रिश्ते निभाते हैं, प्यार नहीं? क्या हम अपने पति, बच्चों, माँ-पिता, भाई-बहन, से कोई अपेक्षा नहीं रखते।
 
सवाल बड़ा जटिल है पर प्यार का पैमाना क्या है? यदि किसी दिन पत्नी या प्रेमिका ने बड़े मन से खाना बनाया और पतिदेव या प्रेमी ने तारीफ़ के दो शब्द तक नहीं कहे, तो पत्नी का असहज हो जाना स्वाभाविक है। अर्थात् पत्नी/प्रेमिका अपेक्षा रखती है कि उसके अच्छे कार्यों की सराहना की जाय। यही बात पति या प्रेमी पर भी लागू होती है। वह चाहे मैनर हो या औपचारिकता, मुख से अनायास ही निकल पड़ता है- ’धन्यवाद या इसकी क्या ज़रूरत थी।’ यहाँ तक कि आपसी रिश्तों में भी ये चीज़ें जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं।
 
जीवन की इस भागदौड़ में ये छोटे-छोटे शब्द एक आश्वस्ति सी देते हैं। पर सवाल अभी भी वहीं है कि क्या प्यार में अपेक्षायें नहीं होती हैं? सिर्फ़ दूसरे की ख़ुशी अर्थात् स्व का भाव मिटाकर चाहने की प्रवृत्ति ही प्यार कही जायेगी। यहाँ पर मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान के शब्द याद आते हैं- ‘‘जब पहली बार प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आँखें खोली थीं और अपनी जोशीली अँगुलियों से मेरी रूह को छुआ था, तब दिन सपनों की तरह और रातें विवाह के उत्सव की तरह बीतीं।”

भारतीय संस्कृति में तो इस प्यार के लिए एक पूरा मौसम ही है- वसंत। वसंत तो प्रकृति का यौवन है, उल्लास की ऋतु है। इसके आते ही फ़िज़ा में रूमानियत छाने लगती है। निराला जी कहते हैं-

सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।

वसंत के सौंदर्य में जो उल्लास मिलता है, फिर हर कोई चाहता है कि अपने प्यार के इज़हार के लिए उसे अगले वसंत का इंतज़ार न करना पड़े। भारतीय संस्कृति में ऋतुराज वसंत की अपनी महिमा है। प्यार के बहाने वसंत की महिमा साहित्य और लोक संस्कृति में भी छाई है। तभी तो ‘अज्ञेय‘ ऋतुराज का स्वागत करते नज़र आते हैं-

अरे ऋतुराज आ गया।
पूछते हैं मेघ, क्या वसंत आ गया?
हंस रहा समीर, वह छली भुला गया।
कितु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचती-
हमें कौन स्नेह स्पर्श कर जगा गया?
वही ऋतुराज आ गया।

प्रेम आरम्भ से ही आकर्षण का केंद्र बिंदु रहा है। कबीर ने तो यहाँ तक कह दिया कि-’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’ प्रेम को लेकर न जाने कितना कुछ कहा गया, रचा गया। यहाँ तक कि वैदिक ऋचायें भी इससे अछूती नहीं रहीं। वहाँ भी प्रेम की महिमा गाई गई है। अथर्ववेद के एक प्रेम गीत ‘प्रिया आ’ के हिन्दी में रूपांतरित सुमधुर बोल अनायास ही दिलोदिमाग़ को झंकृत करने लगते हैं-

मत दूर जा/लिपट मेरी देह से/
लता लतरती ज्यों पेड़ से/मेरे तन के तने पर /
तू आ टिक जा/अंक लगा मुझे/
कभी न दूर जा/पंछी के पंख कतर/
ज़मीं पर उतार लाते ज्यों/छेदन करता मैं तेरे दिल का/
प्रिया आ, मत दूर जा।/धरती और अंबर को /
सूरज ढक लेता ज्यों/तुझे अपनी बीज भूमि बना/
आच्छादित कर लूंगा तुरंत/प्रिया आ, मन में छा/
कभी न दूर जा/आ प्रिया!

प्रेम एक बेहद मासूम अभिव्यक्ति है। अर्थववेद में समाहित ये प्रेम गीत भला किसे न बांध पायेंगे। जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं, वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है? प्रेम सिर्फ़ दैहिक नहीं होता, तात्कालिक नहीं होता, उसमें एक समर्पण होता है। अथर्ववेद के ही एक अन्य गीत ‘तेरा अभिषेक करूँ मैं‘ में अतर्निहित भावाभिव्यक्तियों को देखें-

पृथ्वी के पयस से/अभिषेक करूँ/
औषध के रस से/करूँ अभिषेक/
धन-संतति से/सुख-सौभाग्य सभी/तुझ पर वार करूँ मैं।/
यह मैं हूँ/वह तुम/मैं साम/तुम ऋचा/मैं आकाश/तुम धरा/
हम दोनों मिल/सुख सौभाग्य से/संतति संग/जीवन बिताएँ।

वेदों की ऋचाओं से लेकर कबीर-बानी के तत्व को सहेजता यह प्रेम सिर्फ लौकिक नहीं अलौकिक और अप्रतिम भी है। इसकी मादकता में भी आत्म और परमात्म का ज्ञान है। तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- “वसंत का मादक काल उस रहस्यमय दिन की स्मृति लेकर आता है, जब महाकाल के अदृश्य इंगित पर सूर्य और धरती-एक ही महापिंड के दो रूप-उसी प्रकार वियुक्त हुए थे जिस प्रकार किसी दिन शिव और शक्ति अलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है।“ हमारे यहाँ तो प्रेम अध्यात्म से लेकर पोथियों तक पसरा पड़ा है। उसके लिए किसी साकार और निर्विकार का भेद नहीं बल्कि महसूस करने की जरूरत है। राधा-कृष्ण का प्रेम भी अपनी पराकाष्ठा था तो उसी कृष्ण के प्रेम में मीरा का जोगन हो जाना भी पराकाष्ठा को दर्शाता है। आख़िर इस प्रेम में देह कहाँ है ? खजुराहो और कोणार्क की भित्तिमूर्तियाँ तो देवी-देवताओं को भी अलंकृत करती हैं। फिर कबीर भला क्यों न कहें- ’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’

पर दुर्भाग्यवश आज की युवा पीढ़ी प्यार के लिए भी पाश्चात्य संस्कृति की ओर झाँकती है। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट के प्यार के किस्से सुनते-सुनते जो पीढ़ियाँ बड़ी हुईं, उनके अंदर प्रेम का अनछुआ अहसास कब घर कर गया पता ही नहीं चला। मन ही मन में किसी को चाहने और यादों में जिन्दगी गुज़ार देने का फ़लसफ़ा देखते ही देखते पुराना हो गया। फ़िल्मों और टी. वी. सीरियलों ने प्रेम को अभिव्यक्त करने के ऐसे-ऐसे तरीक़े बता दिए कि युवा पीढ़ी वाकई ‘मोबाइल’ हो गई, पत्रों की जगह ‘चैट’ ने ले ली और अब प्यार का इजहार ‘ट्वीट’ करके किया जाने लगा। प्रेम का रस उसे वेलेण्टाइन-दिवस में दिखता है, जो कि कुछ दिनों का ख़ुमार मात्र है । ऋतुराज वसंत और इसकी मादकता की महिमा वह तभी जानता है, जब वह ‘वेलेण्टाइन‘ के पंखों पर सवार होकर अपनी ख़ुमारी फैलाने लगे। दरअसल यही दुर्भाग्य है कि हम जब तक किसी चीज़ पर पश्चिमी सभ्यता का ओढ़ावा नहीं ओढ़ा लेते, उसे मानने को तैयार ही नहीं होते। ‘योग’ की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘योगा’ होकर आयातित हुआ। और यही बात इस प्रेम पर भी लागू हो रही है। काश कि वे बसंती बयार में मदमदाते इस प्यार को अंदर से महसूस करते-

शुभ हो वसंत तुम्हें
शुभ्र, परितृप्त, मंद मंद हिलकोरता
ऊपर से बहती है सूखी मंडराती हवा,
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फटे से हैं सीठे अधजगे होठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है। (विजयदेव नारायण साही)

फ़िलहाल वेलेण्टाइन-डे का ख़ुमार युवाओं के दिलोदिमाग़ पर चढ़कर बोल रहा है। जो प्रेम कभी भीनी ख़ुशबू बिखेरकर चला जाता था, वह जोड़ों को घर से भगाने लगा। कोई इसी दिन पण्डित से कहकर अपना विवाह-मुहूर्त निकलवाता है तो कोई इसे अपने जीवन का यादगार लम्हा बनाने का दूसरा बहाना ढूँढता है। एक तरफ़ नैतिकता की झंडाबरदार सेनायें वेलेण्टाइन-डे का विरोध करने और इसी बहाने चर्चा में आने का बेसब्री से इंतज़ार करती हैं-‘करेंगे डेटिंग तो करायेंगे वेडिंग।‘ यही नहीं इस सेना के लोग अपने साथ पण्डितों को लेकर भी चलते हैं, जिनके पास ‘मंगलसूत्र‘ और ‘हल्दी‘ होगी। अब वेलेण्टाइन डे के बहाने पण्डित जी की भी बल्ले-बल्ले है तो प्रेम की राह में ‘खाप पंचायतें’ भी अपना हुक्म चलाने लगीं। जब सबकी बल्ले-बल्ले हो तो भला बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कैसे पीछे रह सकती हैं। प्रेम कभी दो दिलों की धड़कन सुनता था, पर बाज़ारवाद की अंधी दौड़ ने इन दिलों में अहसास की बजाय गिफ्ट, ग्रीटिंग कार्ड, चाकलेट, फूलों का गुलदस्ता भर दिया और प्यार मासूमियत की जगह हैसियत मापने वाली वस्तु हो गई। ‘प्रेम‘ रूपी बाज़ार को भुनाने के लिए उन्होंने वेलेण्टाइन-डे को बकायदा कई दिनों तक चलने वाले ‘वेलेण्टाइन-उत्सव’ में तब्दील कर दिया है। यही नहीं, हर दिन को अलग-अलग नाम दिया है और लोगों की जेब के अनुरूप गिफ्ट भी तय कर दिये हैं। यह उत्सव फ्रैगरेंस डे, टैडीबियर डे, रोज स्माइल प्रपोज डे, ज्वैलरी डे, वेदर चॉकलेट डे, मेक ए फ्रेंड डे, स्लैप कार्ड प्रामिस डे, हग चॉकलेट किस डे, किस स्वीट हर्ट हग डे, लविंग हार्टस डे, वैलेण्टाइन डे, फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे के रूप में अनवरत चलता रहता है और हर दिन को कार्पोरेट जगत से लेकर मॉल कल्चर और होटलों की रंगीनी से लेकर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स और मीडिया की फ्लैश में चकाचौंध कर दिया जाता है और जब तक प्यार का ख़ुमार उतरता है, करोड़ों के वारे-न्यारे हो चुके होते हैं। टेक्नॉलाजी ने जहाँ प्यार की राहें आसान बनाई, वहीं इस प्रेम की आड़ में डेटिंग और लिव-इन-रिलेशनशिप इतने गड्डमगड्ड हो गए कि प्रेम का ’शरीर’ तो बचा पर उसका ’मन’ भटकने लगा। प्रेम के नाम पर बचा रह गया ‘देह विमर्श’ और फिर एक प्रकार का उबाउपन। काश वसंत के मौसम में प्रेम का वह अहसास लौट आता-

वसंत
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता सा
अनुभव से जानता हूँ
कि यह वसंत है (रघुवीर सहाय)


सोमवार, 28 जनवरी 2013

लघु भारत का अहसास : कुंभ की बेला में

ब्रह्मा ने किया प्रथम यज्ञ,
सब कहते प्रयागराज हैं ।
गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम
तीर्थों का राजा तीर्थराज हैं।
 
कुंभ की बेला में उमड़ता,
जन-आस्था का सैलाब है।
संगम तट पर बसता शहर,
चमचमाता इसका रूआब है।
 
सनातन धर्म की अक्षुण्ण धारा,
निरंतर होती विराजमान है।
साधु, सन्यासी, संतों का डेरा,
आस्था प्रबल प्रवाहमान है।
 
सज रही देवों की पालकी,
रज-रज में बसे भगवान हैं ।
धर्म-ध्वजा फहराती रहे,
सनातन धर्म की शान है।
 
देश-दुनिया से जुटते लोग,
करते यहाँ कल्पवास हैं।
संस्कृतियों का अद्भुत संगम,
’लघु भारत’ का अहसास है।
 
(26 जनवरी, 2013 को अमर उजाला में 'रचना कुंभ'
के हत प्रकाशित मेरी कविता)
 
-आकांक्षा यादव-