सुनकर अजीब लगता है, पर यह सच है. हाल ही में अंडमान निकोबार द्वीप समूह की तकरीबन 65000 साल से बोली जाने वाली एक आदिवासी भाषा हमेशा के लिए विलुप्त हो गई । वस्तुत: कुछ दिन पहले अंडमान में रहने वाले बो कबीले की आखिरी सदस्य 85 वर्षीय बोआ सीनियर के निधन के साथ ही इस आदिवासी समुदाय द्वारा बोली जाने वाली बो भाषा भी लुप्त हो गई। ग्रेट अंडमान में कुल 10 मूल आदिवासी समुदायों में से एक बो समुदाय की इस अंतिम सदस्य ने 2004 की विनाशकारी सुनामी में अपने घर-बार को खो दिया था और सरकार द्वारा बनाए गए कांक्रीट के शेल्टर में स्ट्रैट द्वीप पर गुजर-बसर कर रही थी। 'बो' भाषा के बारे में भाषाई विशेषज्ञों का मानना है कि यह भाषा अंडमान में प्री-नियोलोथिक समय से इस समुदाय द्वारा उपयोग में लाई जा रही थी।
अंडमान में रहने वाले आदिवासियों को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है-द ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग और सेंटिनीलीस। लगभग 10 भाषाई समूहों में बँटे ग्रेट अंडमान के मूल निवासियों की जनसंख्या 1858 में द्वीप पर ब्रिटिश कॉलोनी बनने तक 5500 से भी ज्यादा थी, पर इनमें से बहुत से मारे गए या 'बाहरी' दुनिया के लोगों द्वारा लाई गई संक्रमित बीमारियों का शिकार बन गए। वर्तमान में ग्रेटर अंडमान में केवल 52 मूल निवासी लोग बचे हैं, जिनके भविष्य पर भी अब संशय बना है। दरअसल, ये भाषाएँ शहरीकरण के चलते दूर-दराज के इलाकों में अंग्रेजी और हिंदी के बढ़ते प्रभाव के कारण हाशिए पर जा रही हैं।
गौरतलब है कि कुछ ही दिन पहले संयुक्त राष्ट्र की पहली ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स इंडीजीनस पीपुल्स’ रिपोर्ट में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि दुनियाभर में छह से सात हजार तक भाषाएँ बोली जाती हैं, इनमें से बहुत सी भाषाओं पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से अधिकतर भाषाएँ बहुत कम लोग बोलते हैं, जबकि बहुत थोड़ी सी भाषाएँ बहुत सारे लोगों द्वारा बोली जाती हैं। सभी मौजूदा भाषाओं में से लगभग 90 फीसदी अगले 100 सालों में लुप्त हो सकती हैं, क्योंकि दुनिया की लगभग 97 फीसदी आबादी इनमें से सिर्फ चार फीसदी भाषाएँ बोलती हैं। यूनेस्को द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक ठेठ आदिवासी भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा बढ़ता ही जा रहा है और इन्हें बचाने की आपात स्तर पर कोशिशें करना होंगी।
वस्तुत: यह सिर्फ किसी भाषा के खत्म होने का ही सवाल नहीं है, बल्कि इसी के साथ उस समुदाय के नष्ट होने का अहसास भी होता है। इस तरफ सभी देशों को ध्यान देने की जरुरत है, अन्यथा हम अपनी विरसत को यूँ ही खोते रहेंगे !!
-आकांक्षा यादव
-आकांक्षा यादव
15 टिप्पणियां:
अजीब नही लगता तकलीफ होती है कि हम इतने आधुनिक इतने वैज्ञानिक इतने विकसित होते जा रहे हैं और एक भाषा को सम्भालकर नहीं रख सके । गनीमत है कि पता चल गया । कई भाषायें तो लुप्त हो जाती है और पता भी नही चलता ।
आपका यह लेख सोचने को विवश करता है। इँडिया टुडे मेँ आपकी कविता मनमोहक है।
बढियां जानकारी,लेकिन आश्चर्य है की इस भाषा के संचयन हेतु प्रयास क्यों नही हुए.
Vakai yah dukh ka vishay hai aur sachet bhi hone ka.
भाषाओँ पर संकट मंडरा रहा है और हम अपनी प्रगति के गीत गा रहे हैं. बड़ा विरोधाभासी है. इस ओर ध्यान देने की जरुरत है.
भाषाओँ पर संकट मंडरा रहा है और हम अपनी प्रगति के गीत गा रहे हैं. बड़ा विरोधाभासी है. इस ओर ध्यान देने की जरुरत है.
आकांक्षा जी, अपने बहुत सार्थक मुद्दा उठाया है. अंडमान जैसी जगह पर इतनी विस्तृत विरासत है कोई सोच भी नहीं सकता. सरकार को बड़े शहरों के साथ-साथ इन पर भी ध्यान देना होगा.
काश कि कोई पहले इस बारे में सचेत हुआ होता, खैर..............!!!
जानकर ताज्जुब होता है कि इतनी पुरानी भाषा के संरक्षण की तरफ किसी का ध्यान तक नहीं गया. भाषा व साहित्य अकादमियों की जूतम-पैजार बस पद भरने तक ही रह गई है.
बढियां जानकारी,लेकिन आश्चर्य है की इस भाषा के संचयन हेतु प्रयास क्यों नही हुए.
Bada ashcharya hua ki hum nirantar pragati ke bawjood bhi 65000 sal purani Bhasha bilupt hone se nahi bacha paye.
It's a fact that we are burying all the good and original values, culture and past in the name of advancement and only we can preserve them, not the government.We should think it right now .
उस भाषा को किसी ने सीखा नहीं क्या.....
वैसे जब आखिरी इंसान ही न रहा उस कबीले का तो भाषा कैसे बचती....संसार का नियम है परिर्वतन....वैसे भी हम अपनी विरासत को संभालना कहां जानते हैं....
चिंतनीय विषय... अहम् मुद्दा...आभार.
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