इंटरनेट से लेकर सोशल मीडिया और वाट्स-एप तक तमाम ऐसे मैसेज प्राप्त होते हैं या दिखाई देते हैं, जिनमें 'पत्नी' को लेकर तमाम तरह के व्यंग्य और छींटाकशी होती है। कई बार तो पत्नी को एक समस्या के रूप में दिखाया जाता है, यहाँ तक कि पत्नी द्वारा पति की सलामती के लिए रखे जाने वाले व्रतों को लेकर भी तमाम व्यंग्य दिखते हैं।
....वहीँ, तमाम ऐसे सन्देश भी दिखाई देते हैं, जिनमें माँ की महिमा गाई गई है। कविगण भी माँ की महिमा में मंचों से लेकर पन्नों तक रँग डालते हैं और पत्नी को व्यंग्य विषय बनाकर रचनाएँ रचते हैं.
......पर लोग इस तरह की रचनाएँ रचते हुए, सन्देश पोस्ट करते हुए या शेयर करते हुए भूल जाते हैं कि 'पत्नी' और 'माँ' एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी की पत्नी ही बच्चों की माँ बनती है और हर माँ किसी की पत्नी होती है।
वास्तव में ये दोनों नारी की ही भूमिकाएं हैं। पर यह पितृसत्तात्मक समाज अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए इन दोनों भूमिकाओं को अलग-अलग कर आँकता है !!
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