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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

कांस्य युग में भी थी ’सोशल नेटवर्किंग’

आजकल सोशल नेटवर्किंग की सर्वत्र चर्चा है। न्यू मीडिया के विकल्प रूप में उभरी इन साइट्स ने एक साथ संवाद, क्रांति और कौतुहल तीनों को जन्म दिया है। फेसबुक तो एक अरब से ज्यादा लोगों के साथ एक ग्लोबल-विलेज ही बन गया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर राजनीति, धर्म, अध्यात्म, कला, संस्कृति, साहित्य, सरोकार, विमर्श से लेकर रिश्तों का बनना-बिगड़ना तक जारी है।
 
ऐसे में यह जानना अचरज भरा होगा कि विश्व में फेसबुक, आरकुट, ट्विटर या इस तरह की सोशल नेटवर्किंग साइटस का आज से नहीं बल्कि करीब 3,000 साल पहले से इस्तेमाल हो रहा है। यदि वैज्ञानिकों की मानें तो कांस्य युग में यानी करीब 3,000 साल पहले भी लोग एक-दूसरे से जुड़े रहने के लिए फेसबुक सरीखे किसी सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर अपने मित्रों से जुड़े रहते थे। वैज्ञानिकों ने इसे वर्तमान फेसबुक का प्राचीन ऐतिहासिक संस्करण करार दिया है।
 
     यह दावा कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने रूस और स्वीडन में दो विशालकाय ग्रेनाइट चट्टानों पर उकेरे गये  हजारों चित्रों के अध्ययन के बाद किया है। उनका कहना है कि ये स्थल एक तरह से सोशल नेटवर्क के पुरातन संस्करण हैं, जिनमें यूजर्स विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान करते थे और दूसरों के योगदान पर स्टैंप लगाकर उसकी सराहना करते थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे फेसबुक में हम ’लाइक’ को क्लिक करके किसी की बात को पसंद करते हैं।

 इस अध्ययन से जुड़े एक शोधकर्ता मार्क सैपवेल का मत है कि, ’इन खाली जगहों के बारे में जरूर कुछ खास बात है। मुझे लगता है कि लोग वहाँ इसलिए गए क्योंकि वे जानते थे कि उनसे पहले भी वहाँ बहुत से लोग जा चुके हैं. आज की तरह तब भी लोग एक-दूसरे से जुड़े रहना चाहते थे, एक लिखित भाषा का आविष्कार होने से पहले शुरूआती समाज में ये हजारों चित्र उनके लिए पहचान का इजहार करने के साधन थे।’’
 
 सैपवेल के मुताबिक, रूस के जालावरूगा और उत्तरी स्वीडन के नामफोरसेन में वह जिन स्थलों का अध्ययन कर रहे हैं, उनमें जानवरों, मनुष्यों, नौकाओं और शिकारी दलों की तस्वीरें शामिल हैं।

- आकांक्षा यादव

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन : जनसत्ता में 'शब्द-शिखर' का 'ढाई आखर'


वसंत के आगाज़ पर पर 10 फरवरी, 2013 को 'शब्द-शिखर' पर लिखी गई मेरी पोस्ट 'प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन' को 18 फरवरी, 2013 को जनसत्ता के नियमित स्तम्भ 'समांतर' में 'ढाई आखर' शीर्षक से स्थान दिया है...आभार. समग्र रूप में प्रिंट-मीडिया में 31वीं बार मेरी किसी पोस्ट की चर्चा हुई है.. आभार !!

इससे पहले शब्द-शिखर और अन्य ब्लॉग पर प्रकाशित मेरी पोस्ट की चर्चा दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला,राष्ट्रीय सहारा,राजस्थान पत्रिका, आज समाज, गजरौला टाईम्स, जन सन्देश, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, दस्तक, आई-नेक्स्ट, IANS द्वारा जारी फीचर में की जा चुकी है. आप सभी का इस समर्थन व सहयोग के लिए आभार! यूँ ही अपना सहयोग व स्नेह बनाये रखें !!

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सखि वसंत आया...

''सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया.'' (निराला)

 


वसंत पंचमी का आगमन हो चुका है. एक तरफ वसंत का सुहाना आगमन, वहीँ निराला जी की जयंती..सब कुछ कितना सुहाना लग रहा है. वसंत पंचमी एक ओर जहां ऋतुराज के आगमन का दिन है, वहीं यह विद्या की देवी और वीणावादिनी सरस्वती की पूजा का भी दिन है। इस ऋतु में मन में उल्लास और मस्ती छा जाती है और उमंग भर देने वाले कई तरह के परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

इससे शरद ऋतु की विदाई के साथ ही पेड़-पौधों और प्राणियों में नवजीवन का संचार होता है। प्रकृति नख से शिख तक सजी नजर आती है और तितलियां तथा भंवरे फूलों पर मंडराकर मस्ती का गुंजन गान करते दिखाई देते हैं। हर ओर मादकता का आलम रहता है। आयुर्वेद में वसंत को स्वास्थ्य के लिए हितकर माना गया है। हालांकि इस दौरान हवा में उड़ते पराग कणों से एलर्जी खासकर आंखों की एलर्जी से पीड़ित लोगों की समस्या बढ़ भी जाती है।

वसंत पंचमी को त्योहार के रूप में मनाए जाने के पीछे कई तरह की मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन ही देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था। इसीलिए इस दिन विद्या तथा संगीत की देवी की पूजा की जाती है। इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनने का चलन है, क्योंकि वसंत में सरसों पर आने वाले पीले फूलों से समूची धरती पीली नजर आती है।

वसंत पंचमी के पीछे एक मान्यता यह भी है कि इसी दिन भागीरथ की तपस्या के चलते गंगा का अवतरण हुआ था, जिससे समूची धरती खुशहाल हो गई। माघ माह के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली पंचमी पर गंगा स्नान का काफी महत्व है। पुराणों के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि वसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने पहली बार सरस्वती की पूजा की थी और तब से वसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा करने का विधान हो गया।

प्राचीन काल में वसंत पंचमी का दिन मदनोत्सव और वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता था। इस दिन स्त्रियां अपने पति की पूजा कामदेव के रूप में करती थीं। वसंत पंचमी के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव हदय में प्रेम एवं आकर्षण का संचार किया था और तभी से यह दिन वसंतोत्सव तथा मदनोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। वसंत पंचमी इस बात का संकेत देती है कि धरती से अब शरद की विदाई हो चुकी है और ऐसी ऋतु आ चुकी है जो जीव जंतुओं तथा पेड़ पौधों में नवजीवन का संचार कर देगी।

वसंत में मादकता और कामुकता संबंधी कई तरह के शारीरिक परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिसका आयुर्वेद में व्यापक वर्णन है। महर्षियों और मनीषियों ने कहा है कि वसंत पंचमी को पूरी श्रद्धा से सरस्वती की पूजा करनी चाहिए। बच्चों को इस दिन अक्षर ज्ञान कराना और बोलना सिखाना शुभ माना जाता है। वसंत पंचमी को श्री पंचमी भी कहा जाता है जो सुख, समृद्धि और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने का परिचायक है। इस दिन पतंग उड़ाने की भी परंपरा है जो मनुष्य के मन में भरे उल्लास को प्रकट करने का माध्यम है।

आकांक्षा यादव

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन


प्यार क्या है ? यह एक बड़ा अजीब सा प्रश्न है। पिछले दिनों इमरोज जी का एक इण्टरव्यू पढ़ रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब वे अमृता प्रीतम के लिए कुछ करते थे तो किसी चीज़ की आशा नहीं रखते थे। ज़ाहिर है प्यार का यही रूप भी है, जिसमें व्यक्ति चीज़े आत्मिक ख़ुशी के लिए करता है न कि किसी अपेक्षा के लिए। पर क्या वाकई यह प्यार अभी ज़िंदा है? हम वाकई प्यार में कोई अपेक्षा नहीं रखते। यदि रखते हैं तो हम सिर्फ़ रिश्ते निभाते हैं, प्यार नहीं? क्या हम अपने पति, बच्चों, माँ-पिता, भाई-बहन, से कोई अपेक्षा नहीं रखते।
 
सवाल बड़ा जटिल है पर प्यार का पैमाना क्या है? यदि किसी दिन पत्नी या प्रेमिका ने बड़े मन से खाना बनाया और पतिदेव या प्रेमी ने तारीफ़ के दो शब्द तक नहीं कहे, तो पत्नी का असहज हो जाना स्वाभाविक है। अर्थात् पत्नी/प्रेमिका अपेक्षा रखती है कि उसके अच्छे कार्यों की सराहना की जाय। यही बात पति या प्रेमी पर भी लागू होती है। वह चाहे मैनर हो या औपचारिकता, मुख से अनायास ही निकल पड़ता है- ’धन्यवाद या इसकी क्या ज़रूरत थी।’ यहाँ तक कि आपसी रिश्तों में भी ये चीज़ें जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं।
 
जीवन की इस भागदौड़ में ये छोटे-छोटे शब्द एक आश्वस्ति सी देते हैं। पर सवाल अभी भी वहीं है कि क्या प्यार में अपेक्षायें नहीं होती हैं? सिर्फ़ दूसरे की ख़ुशी अर्थात् स्व का भाव मिटाकर चाहने की प्रवृत्ति ही प्यार कही जायेगी। यहाँ पर मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान के शब्द याद आते हैं- ‘‘जब पहली बार प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आँखें खोली थीं और अपनी जोशीली अँगुलियों से मेरी रूह को छुआ था, तब दिन सपनों की तरह और रातें विवाह के उत्सव की तरह बीतीं।”

भारतीय संस्कृति में तो इस प्यार के लिए एक पूरा मौसम ही है- वसंत। वसंत तो प्रकृति का यौवन है, उल्लास की ऋतु है। इसके आते ही फ़िज़ा में रूमानियत छाने लगती है। निराला जी कहते हैं-

सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।

वसंत के सौंदर्य में जो उल्लास मिलता है, फिर हर कोई चाहता है कि अपने प्यार के इज़हार के लिए उसे अगले वसंत का इंतज़ार न करना पड़े। भारतीय संस्कृति में ऋतुराज वसंत की अपनी महिमा है। प्यार के बहाने वसंत की महिमा साहित्य और लोक संस्कृति में भी छाई है। तभी तो ‘अज्ञेय‘ ऋतुराज का स्वागत करते नज़र आते हैं-

अरे ऋतुराज आ गया।
पूछते हैं मेघ, क्या वसंत आ गया?
हंस रहा समीर, वह छली भुला गया।
कितु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचती-
हमें कौन स्नेह स्पर्श कर जगा गया?
वही ऋतुराज आ गया।

प्रेम आरम्भ से ही आकर्षण का केंद्र बिंदु रहा है। कबीर ने तो यहाँ तक कह दिया कि-’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’ प्रेम को लेकर न जाने कितना कुछ कहा गया, रचा गया। यहाँ तक कि वैदिक ऋचायें भी इससे अछूती नहीं रहीं। वहाँ भी प्रेम की महिमा गाई गई है। अथर्ववेद के एक प्रेम गीत ‘प्रिया आ’ के हिन्दी में रूपांतरित सुमधुर बोल अनायास ही दिलोदिमाग़ को झंकृत करने लगते हैं-

मत दूर जा/लिपट मेरी देह से/
लता लतरती ज्यों पेड़ से/मेरे तन के तने पर /
तू आ टिक जा/अंक लगा मुझे/
कभी न दूर जा/पंछी के पंख कतर/
ज़मीं पर उतार लाते ज्यों/छेदन करता मैं तेरे दिल का/
प्रिया आ, मत दूर जा।/धरती और अंबर को /
सूरज ढक लेता ज्यों/तुझे अपनी बीज भूमि बना/
आच्छादित कर लूंगा तुरंत/प्रिया आ, मन में छा/
कभी न दूर जा/आ प्रिया!

प्रेम एक बेहद मासूम अभिव्यक्ति है। अर्थववेद में समाहित ये प्रेम गीत भला किसे न बांध पायेंगे। जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं, वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है? प्रेम सिर्फ़ दैहिक नहीं होता, तात्कालिक नहीं होता, उसमें एक समर्पण होता है। अथर्ववेद के ही एक अन्य गीत ‘तेरा अभिषेक करूँ मैं‘ में अतर्निहित भावाभिव्यक्तियों को देखें-

पृथ्वी के पयस से/अभिषेक करूँ/
औषध के रस से/करूँ अभिषेक/
धन-संतति से/सुख-सौभाग्य सभी/तुझ पर वार करूँ मैं।/
यह मैं हूँ/वह तुम/मैं साम/तुम ऋचा/मैं आकाश/तुम धरा/
हम दोनों मिल/सुख सौभाग्य से/संतति संग/जीवन बिताएँ।

वेदों की ऋचाओं से लेकर कबीर-बानी के तत्व को सहेजता यह प्रेम सिर्फ लौकिक नहीं अलौकिक और अप्रतिम भी है। इसकी मादकता में भी आत्म और परमात्म का ज्ञान है। तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- “वसंत का मादक काल उस रहस्यमय दिन की स्मृति लेकर आता है, जब महाकाल के अदृश्य इंगित पर सूर्य और धरती-एक ही महापिंड के दो रूप-उसी प्रकार वियुक्त हुए थे जिस प्रकार किसी दिन शिव और शक्ति अलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है।“ हमारे यहाँ तो प्रेम अध्यात्म से लेकर पोथियों तक पसरा पड़ा है। उसके लिए किसी साकार और निर्विकार का भेद नहीं बल्कि महसूस करने की जरूरत है। राधा-कृष्ण का प्रेम भी अपनी पराकाष्ठा था तो उसी कृष्ण के प्रेम में मीरा का जोगन हो जाना भी पराकाष्ठा को दर्शाता है। आख़िर इस प्रेम में देह कहाँ है ? खजुराहो और कोणार्क की भित्तिमूर्तियाँ तो देवी-देवताओं को भी अलंकृत करती हैं। फिर कबीर भला क्यों न कहें- ’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’

पर दुर्भाग्यवश आज की युवा पीढ़ी प्यार के लिए भी पाश्चात्य संस्कृति की ओर झाँकती है। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट के प्यार के किस्से सुनते-सुनते जो पीढ़ियाँ बड़ी हुईं, उनके अंदर प्रेम का अनछुआ अहसास कब घर कर गया पता ही नहीं चला। मन ही मन में किसी को चाहने और यादों में जिन्दगी गुज़ार देने का फ़लसफ़ा देखते ही देखते पुराना हो गया। फ़िल्मों और टी. वी. सीरियलों ने प्रेम को अभिव्यक्त करने के ऐसे-ऐसे तरीक़े बता दिए कि युवा पीढ़ी वाकई ‘मोबाइल’ हो गई, पत्रों की जगह ‘चैट’ ने ले ली और अब प्यार का इजहार ‘ट्वीट’ करके किया जाने लगा। प्रेम का रस उसे वेलेण्टाइन-दिवस में दिखता है, जो कि कुछ दिनों का ख़ुमार मात्र है । ऋतुराज वसंत और इसकी मादकता की महिमा वह तभी जानता है, जब वह ‘वेलेण्टाइन‘ के पंखों पर सवार होकर अपनी ख़ुमारी फैलाने लगे। दरअसल यही दुर्भाग्य है कि हम जब तक किसी चीज़ पर पश्चिमी सभ्यता का ओढ़ावा नहीं ओढ़ा लेते, उसे मानने को तैयार ही नहीं होते। ‘योग’ की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘योगा’ होकर आयातित हुआ। और यही बात इस प्रेम पर भी लागू हो रही है। काश कि वे बसंती बयार में मदमदाते इस प्यार को अंदर से महसूस करते-

शुभ हो वसंत तुम्हें
शुभ्र, परितृप्त, मंद मंद हिलकोरता
ऊपर से बहती है सूखी मंडराती हवा,
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फटे से हैं सीठे अधजगे होठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है। (विजयदेव नारायण साही)

फ़िलहाल वेलेण्टाइन-डे का ख़ुमार युवाओं के दिलोदिमाग़ पर चढ़कर बोल रहा है। जो प्रेम कभी भीनी ख़ुशबू बिखेरकर चला जाता था, वह जोड़ों को घर से भगाने लगा। कोई इसी दिन पण्डित से कहकर अपना विवाह-मुहूर्त निकलवाता है तो कोई इसे अपने जीवन का यादगार लम्हा बनाने का दूसरा बहाना ढूँढता है। एक तरफ़ नैतिकता की झंडाबरदार सेनायें वेलेण्टाइन-डे का विरोध करने और इसी बहाने चर्चा में आने का बेसब्री से इंतज़ार करती हैं-‘करेंगे डेटिंग तो करायेंगे वेडिंग।‘ यही नहीं इस सेना के लोग अपने साथ पण्डितों को लेकर भी चलते हैं, जिनके पास ‘मंगलसूत्र‘ और ‘हल्दी‘ होगी। अब वेलेण्टाइन डे के बहाने पण्डित जी की भी बल्ले-बल्ले है तो प्रेम की राह में ‘खाप पंचायतें’ भी अपना हुक्म चलाने लगीं। जब सबकी बल्ले-बल्ले हो तो भला बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कैसे पीछे रह सकती हैं। प्रेम कभी दो दिलों की धड़कन सुनता था, पर बाज़ारवाद की अंधी दौड़ ने इन दिलों में अहसास की बजाय गिफ्ट, ग्रीटिंग कार्ड, चाकलेट, फूलों का गुलदस्ता भर दिया और प्यार मासूमियत की जगह हैसियत मापने वाली वस्तु हो गई। ‘प्रेम‘ रूपी बाज़ार को भुनाने के लिए उन्होंने वेलेण्टाइन-डे को बकायदा कई दिनों तक चलने वाले ‘वेलेण्टाइन-उत्सव’ में तब्दील कर दिया है। यही नहीं, हर दिन को अलग-अलग नाम दिया है और लोगों की जेब के अनुरूप गिफ्ट भी तय कर दिये हैं। यह उत्सव फ्रैगरेंस डे, टैडीबियर डे, रोज स्माइल प्रपोज डे, ज्वैलरी डे, वेदर चॉकलेट डे, मेक ए फ्रेंड डे, स्लैप कार्ड प्रामिस डे, हग चॉकलेट किस डे, किस स्वीट हर्ट हग डे, लविंग हार्टस डे, वैलेण्टाइन डे, फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे के रूप में अनवरत चलता रहता है और हर दिन को कार्पोरेट जगत से लेकर मॉल कल्चर और होटलों की रंगीनी से लेकर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स और मीडिया की फ्लैश में चकाचौंध कर दिया जाता है और जब तक प्यार का ख़ुमार उतरता है, करोड़ों के वारे-न्यारे हो चुके होते हैं। टेक्नॉलाजी ने जहाँ प्यार की राहें आसान बनाई, वहीं इस प्रेम की आड़ में डेटिंग और लिव-इन-रिलेशनशिप इतने गड्डमगड्ड हो गए कि प्रेम का ’शरीर’ तो बचा पर उसका ’मन’ भटकने लगा। प्रेम के नाम पर बचा रह गया ‘देह विमर्श’ और फिर एक प्रकार का उबाउपन। काश वसंत के मौसम में प्रेम का वह अहसास लौट आता-

वसंत
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता सा
अनुभव से जानता हूँ
कि यह वसंत है (रघुवीर सहाय)


सोमवार, 28 जनवरी 2013

लघु भारत का अहसास : कुंभ की बेला में

ब्रह्मा ने किया प्रथम यज्ञ,
सब कहते प्रयागराज हैं ।
गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम
तीर्थों का राजा तीर्थराज हैं।
 
कुंभ की बेला में उमड़ता,
जन-आस्था का सैलाब है।
संगम तट पर बसता शहर,
चमचमाता इसका रूआब है।
 
सनातन धर्म की अक्षुण्ण धारा,
निरंतर होती विराजमान है।
साधु, सन्यासी, संतों का डेरा,
आस्था प्रबल प्रवाहमान है।
 
सज रही देवों की पालकी,
रज-रज में बसे भगवान हैं ।
धर्म-ध्वजा फहराती रहे,
सनातन धर्म की शान है।
 
देश-दुनिया से जुटते लोग,
करते यहाँ कल्पवास हैं।
संस्कृतियों का अद्भुत संगम,
’लघु भारत’ का अहसास है।
 
(26 जनवरी, 2013 को अमर उजाला में 'रचना कुंभ'
के हत प्रकाशित मेरी कविता)
 
-आकांक्षा यादव-
 

रविवार, 20 जनवरी 2013

'माई स्टैम्प' (My Stamp) के तहत डाक-टिकट पर फोटो

( माई स्टैम्प के तहत सिंह (Leo) राशि के साथ आकांक्षा यादव की तस्वीर)
( माई स्टैम्प के तहत सिंह (Leo) राशि के साथ कृष्ण कुमार   यादव की तस्वीर) 
(माई स्टैम्प के तहत सिंह (Leo) राशि के साथ युगल रूप में आकांक्षा यादव-कृष्ण कुमार यादव की तस्वीर)
( माई स्टैम्प के तहत सिनेरेरिया (Cineraria) फूल के साथ अक्षिता (पाखी) की तस्वीर)
( माई स्टैम्प के तहत सिनेरेरिया (Cineraria) फूल के साथ अपूर्वा की तस्वीर)
 
भारतीय डाक विभाग डाक-टिकटों के क्षेत्र में नित नए और अनूठे प्रयोग कर रहा है. पिछले वर्षों में जहाँ चन्दन, गुलाब व जूही की सुगंध से सुवासित खुशबूदार डाक-टिकट और हालमार्क के साथ मिलकर सोने के डाक टिकट जारी किये गए, वहीँ अब 'माई स्टांप' या 'पर्सनालाईजड स्टैम्प' के साथ डाक-टिकट पर कोई व्यक्ति अपनी भी तस्वीर लगा सकता है. फ़िलहाल ये 17 से ज्यादा डाक-टिकटों के साथ उपलब्ध हैं. इनमें ताजमहल, पंचतंत्र, एयरो फ्लाईट, स्टीम इंजन, विभिन्न तरह के फूल एवं वाइल्ड लाइफ डाक-टिकटों के साथ 12 राशियों के डाक टिकट भी उपलब्ध हैं.
 
दुनिया के कई देशों में 'माई स्टाम्प' सुविधा पहले से ही लागू है, पर भारत में पहली बार इसे भारतीय डाक विभाग द्वारा वर्ष 2000 में कोलकाता में 'इंदिपेक्स एशियाना' के आयोजन के दौरान जारी किया गया था. पर उस समय यह उतनी लोकप्रिय न हो सकी. पिछले वर्ष नई दिल्ली में विश्व डाक टिकट प्रदर्शनी (12-18 फरवरी 2011 ) के आयोजन के दौरान इसे पुन: लांच किया गया और लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया. नतीजन देखते ही देखते हजारों लोगों ने डाक टिकटों के साथ अपनी तस्वीर लगाकर इसका लुत्फ़ उठाया. उत्तर प्रदेश में 17 -19 दिसंबर, 2011 के दौरान लखनऊ में आयोजित राज्य स्तरीय डाक टिकट प्रदर्शनी में इसे जारी किया गया। इसके बाद इसे आगरा और हाल ही में 13-14 जनवरी 2013 को कुम्भ के दौरान इलाहाबाद में जारी किया गया। इस सु-अवसर का फायदा हमने भी उठाया और अपने पूरे परिवार को ही माई स्टैम्प के तहत डाक-टिकटों पर ला दिया।
 
आपकी जानकारी हेतु बता दूं कि इस सेवा का लाभ उठाने के लिए अपने शहर में स्थित फिलाटेलिक ब्यूरो में पंजीकरण कराना होता है. एक फार्म भरकर उसके साथ अपनी फोटो और 300 /-जमा करने होते हैं. एक शीट में कुल 12 डाक-टिकटों के साथ फोटो लगाई जा सकती है. इसके लिए आप अपनी अच्छी तस्वीर डाक विभाग को दे सकते हैं, जो उसे स्कैन करके आपका खूबसूरत 'माई स्टांप' बना देगा. यदि कोई तत्काल भी फोटो खिंचवाना चाहे तो उसके लिए भी प्रबंध किया गया है. 'माई स्टैम्प' को ही 'पर्सनालाईजड स्टैम्प' भी कहा जाता है. इस पर सिर्फ जीवित व्यक्तियों की ही तस्वीर लगाई जा सकती है. सम्बंधित व्यक्ति को फिलाटेलिक ब्यूरो में व्यक्तिगत रूप से जाना पड़ता है, यदि किसी कारणवश न जा सके तो सम्बंधित संदेशवाहक से अपना फोटो युक्त परिचय पत्र भेजना पड़ता है.
 
तो अब देर किस बात की, किसी को उपहार देने का इससे नायब तरीका शायद ही हो. इसके लिए जेब भी ज्यादा नहीं ढीली करनी पड़ेगी, मात्र 300 रूपये में 12 डाक-टिकटों के साथ आपकी खूबसूरत तस्वीर. अब आप इसे चाहें अपने परिवारजनों को दें, मित्रों को या फिर अपने प्रेमी-प्रेमिका को. डाक-टिकट पर आप अपनों की तस्वीर भी छपवा कर उसे भेज सकते हैं. मतलब, आप किसी से बेशुमार प्यार करते हैं, तो इस प्यार को बेशुमार दिखाने का भी मौका है. पांच रुपए के डाक-टिकट, जिस पर आपकी तस्वीर होगी, वह देशभर में कहीं भी भेजी जा सकती है.
'माई स्टाम्प' पर सिर्फ आप अपनी तस्वीर ही नहीं देखते, बल्कि वक़्त की नजाकत के अनुसार इसे विभिन्न डाक-टिकटों के साथ देख सकते हैं. मसलन, प्रेम को दर्शाने के लिए ताजमहल, बच्चों के लिए रंग-बिरंगे फूल और पञ्चतंत्र, एडवेंचर के लिए वाइल्ड लाइफ से जुड़ा डाक टिकट या फिर एयरो फ्लाईट और स्टीम इंजन. यही नहीं अपनी राशि के अनुरूप भी डाक-टिकट पसंद कर उस पर अपनी फोटो लगवा सकते हैं !!

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

विभिन्न संस्कृतियों में नव-वर्ष के विविध रूप



मानव इतिहास की सबसे पुरानी पर्व परम्पराओं में से एक नववर्ष है। नववर्ष के आरम्भ का स्वागत करने की मानव प्रवृत्ति उस आनन्द की अनुभूति से जुड़ी हुई है जो बारिश की पहली फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागतार्थ पक्षी के प्रथम गान पर या फिर हिम शैल से जन्मी नन्हीं जलधारा की संगीत तरंगों से प्रस्फुटित होती है। विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ इसे अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। वस्तुतः मानवीय सभ्यता के आरम्भ से ही मनुष्य ऐसे क्षणों की खोज करता रहा है, जहाँ वह सभी दुख, कष्ट व जीवन के तनाव को भूल सके। इसी के तद्नुरुप क्षितिज पर उत्सवों और त्यौहारों की बहुरंगी झांकियाँ चलती रहती हैं।


इतिहास के गर्त में झांकें तो प्राचीन बेबिलोनियन लोग अनुमानतः 4000 वर्ष पूर्व से ही नववर्ष मनाते रहे हैं, उस समय नव वर्ष का ये त्यौहार 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी। प्राचीन रोमन कैलेण्डर में मात्र 10 माह होते थे और वर्ष का शुभारम्भ 1 मार्च से होता था। बहुत समय बाद 713 ई0पू0 के करीब इसमें जनवरी तथा फरवरी माह जोड़े गये। सर्वप्रथम 153 ई0पू0 में 1 जनवरी को वर्ष का शुभारम्भ माना गया एवं 45 ई0पू0 में जब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर द्वारा जूलियन कैलेण्डर का शुभारम्भ हुआ, तो यह सिलसिला बरकरार रहा। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल, यानि, ईसा पूर्व 46 ई0 को 445 दिनों का करना पड़ा था। 1 जनवरी को नववर्ष मनाने का चलन 1582 ई0 के ग्रेगेरियन कैलेण्डर के आरम्भ के बाद ही बहुतायत में हुआ। दुनिया भर में प्रचलित ग्रेगेरियन कैलेंडर को पोप ग्रेगरी अष्टम ने 1582 में तैयार किया था। ग्रेगरी ने इसमें लीप ईयर का प्रावधान भी किया था। ईसाईयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडाक्स चर्च रोमन कैलेंडर को मानता है। इस कैलेंडर के अनुसार नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। यही वजह है कि आर्थोडाक्स चर्च को मानने वाले देशों रुस, जार्जिया, येरुशलम और सर्बिया में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है।

आज विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ नव वर्ष अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं । हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे। इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है। यह दिन ग्रेगेरियन कैलेण्डर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता है। इसी तरह इस्लाम के कैलेंडर को हिजरी साल कहते हैं। इसका नव वर्ष मोहर्रम माह के पहले दिन होता है। इस्लामी कैलेण्डर एक पूर्णतया चन्द्र आधारित कैलेंडर है, जिसके कारण इसके बारह मासों का चक्र 33 वर्षों में सौर कैलेण्डर को एक बार घूम लेता है। इसके कारण नर्व वर्ष प्रचलित ग्रेगेरियन कैलेण्डर में अलग-अलग महीनों में पड़़ता है। चीन का भी कैलेण्डर चन्द्र गणना पर आधारित है। चीनी कैलेण्डर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। यह प्रायः 21 जनवरी से 21 फरवरी के बीच पड़ता है।

भारत के भी विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत में नव वर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है। असम में नववर्ष बीहू के रुप में मनाया जाता है, केरल में पूरम विशु के रुप में, तमिलनाडु में पुत्थंाडु के रुप में, आन्ध्र प्रदेश में उगादी के रुप में, महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा के रुप में तो बांग्ला नववर्ष का शुभारंभ वैशाख की प्रथम तिथि से होता है।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ लगभग सभी जगह नववर्ष मार्च या अप्रैल माह अर्थात चैत्र या बैसाख के महीनों में मनाये जाते हैं। पंजाब में नव वर्ष बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगू नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग$आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रुप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेण्डर नवरेह 19 मार्च को आरम्भ होता है। महाराष्ट्र में गुडी पड़वा के रुप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुडी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरुविजा नव वर्ष के रुप में मनाया जाता है। मारवाड़ी और गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है, जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है। वस्तुतः भारत वर्ष में वर्षा ऋतु की समाप्ति पर जब मेघमालाओं की विदाई होती है और तालाब व नदियाँ जल से लबालब भर उठते हैं तब ग्रामीणों और किसानों में उम्मीद और उल्लास तरंगित हो उठता है। फिर सारा देश उत्सवों की फुलवारी पर नववर्ष की बाट देखता है। इसके अलावा भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं, इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था।

नववर्ष आज पूरे विश्व में एक समृद्धशाली पर्व का रूप अख्तियार कर चुका है। इस पर्व पर पूजा-अर्चना के अलावा उल्लास और उमंग से भरकर परिजनों व मित्रों से मुलाकात कर उन्हें बधाई देने की परम्परा दुनिया भर में है। अब हर मौके पर ग्रीटिंग कार्ड भेजने का चलन एक स्वस्थ परंपरा बन गयी है पर पहला ग्रीटिंग कार्ड भेजा था 1843 में हेनरी कोल ने। हेनरी कोल द्वारा उस समय भेजे गये 10,000 कार्ड में से अब महज 20 ही बचे हैं। आज तमाम संस्थायंे इस अवसर पर विशेष कार्यक्रम आयोजित करती हैं और लोग दुगुने जोश के साथ नववर्ष में प्रवेश करते हैं। पर इस उल्लास के बीच ही यही समय होता है जब हम जीवन में कुछ अच्छा करने का संकल्प लें, सामाजिक बुराईयों को दूर करने हेतु दृढ़ संकल्प लें और मानवता की राह में कुछ अच्छे कदम और बढ़ायें।
नव-वर्ष 2013 की आप सभी को शुभकामनाएं..!!

(आल इण्डिया रेडियो, इलाहाबाद से कल 31 दिसंबर, 2012 की रात्रि वार्ता रूप में मेरा यह आलेख प्रसारित हुआ।)


मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

महिलाएं सुरक्षित क्यों नहीं हैं...

दिल्ली में हुए 'गैंग रेप' के विरुद्ध जनाक्रोश चरम पर है। हर शहर में लोगों का आक्रोश दिख रहा है, जुलूस निकल रहे हैं। पर ऐसी घटनाये रोज किसी-न-किसी रूप में घटित हो रही हैं। कल इलाहाबाद में एक इंजीनियरिंग कालेज के स्टूडेंट्स ने चलती बस से बाइक पर जा रहे जोड़े के साथ बद्तमीजी की। विरोध करने पर बस से उतरकर इन भावी इंजीनियरों ने लड़के को जमकर पीटा और लड़की के साथ सरेआम बदसलूकी की। प्रशासन ने इस घटना के लिए बस चालक और परिचालक के विरुद्ध कार्यवाही की है। पर 'भावी इंजीनियर्स' का क्या करेंगें। ऐसे इंजीनियर्स के हाथ में देश का भविष्य कहाँ तक सुरक्षित है ?
 
 एक तरफ देश के कोने-कोने में गैंग-रेप जैसी घटनाओं के विरुद्ध जनाक्रोश है, वहीँ इस तरह की सरेआम घटनाएँ। क्या वाकई हुकूमत का भय लोगों के दिलोदिमाग से निकल गया है। प्रधानमंत्री जी अपनी तीन बेटियों और गृहमंत्री जी अपनी दो बेटियों की बात कर रहे हैं। पुलिस अफसर टी. वी. चैनल्स पर बता रहे हैं कि हमारी भी बेटियां हैं, अत: हमारी भी संवेदनाएं हैं। पर इन संवेदनाओं का आम आदमी क्या करे। कब तक मात्र सहानभूति और संवेदनाओं की बदौलत हम घटनाओं को विस्मृत करते रहेंगें।
 
लडकियाँ सड़कों पर असुरक्षित हैं, मानो वे कोई 'सेक्स आब्जेक्ट' हों। ऐसे में अब लड़कियों / महिलाओं को भी अपनी आत्मरक्षा के लिए खुद उपाय करने होंगें। अपने को कमजोर मानने की बजाय बदसलूकी करने वालों से भिड़ना होगा। पिछले दिनों इलाहबाद की ही एक लड़की आरती ने बदसलूकी करने वाले लड़के का वो हाल किया कि कुछेक दिनों तक शहर में इस तरह की घटनाये जल्दी नहीं दिखीं।
 
दुर्भाग्यवश,  दिल्ली में शोर है, बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं पर इन सबके बीच भय किसी के चेहरे पर भी नहीं है। तभी तो ऐसी घटनाओं की बारम्बार पुनरावृत्ति हो रही है। संसद मात्र बहस और प्रस्ताव पास करके रह जाती है, प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं हिंसा नहीं जायज है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि, तो क्या हम कानून-व्यवस्था सुधारने हेतु वर्दी पहन लें।.......जब देश के जिम्मेदार पद पर बैठे लोगों का यह रवैया है तो भला कानून और शासन-प्रशासन का भय लोगों के मन में कहाँ से आयेगा। फांसी पर तो चढाने की बात दूर है, समाज में वो माहौल क्यों नहीं पैदा हो  पा  रहा है कि लड़कियां अपने को सुरक्षित समझें।
 

    

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

नहीं हूँ मैं माँस-मज्जा का एक पिंड

नहीं हूँ मैं माँस-मज्जा का एक पिंड
जिसे जब तुम चाहो जला दोगे
नहीं हूँ मैं एक शरीर मात्र
जिसे जब तुम चाहो भोग लोगे
नहीं हूँ मैं शादी के नाम पर अर्पित कन्या
जिसे जब तुम चाहो छोड़ दोगे
नहीं हूँ मैं कपड़ों में लिपटी एक चीज
जिसे जब तुम चाहो तमाशा बना दोगे।

मैं एक भाव हूँ, विचार हूँ
मेरा एक स्वतंत्र अस्तित्व है
ठीक वैसे ही, जैसे तुम्हारा
अगर तुम्हारे बिना दुनिया नहीं है
तो मेरे बिना भी यह दुनिया नहीं है।

फिर बताओं
तुम क्यों अबला मानते हो मुझे
क्यों पग-पग पर तिरस्कृत करते हो मुझे
क्या देह का बल ही सब कुछ है
आत्मबल कुछ नहीं
खामोश क्यों हो
जवाब क्यों नहीं देते.....?

(कृष्ण कुमार यादव जी के कविता-संग्रह 'अभिलाषा' से साभार)

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

12-12-12 का अद्भुत संयोग

 
12-12-12, सदी का एक अनुपम दिन है आज, पता नहीं यह संयोग फिर कब बने। इसी के साथ वर्ष 2012 भी अपने ढलान पर है। वर्ष 2013 का आगमन भी शीघ्र होने वाला है। यह वक़्त है विचार करने का कि हमने क्या खोया, क्या पाया। सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी।

कुछ लोग यह भी दावा कर रहे हैं कि 21 दिसंबर, 2012 को सृष्टि ख़त्म हो जाएगी। इससे पहले भी इस तरह की बातें चर्चा और अफवाहों में आईं और गुजर गयीं। वक़्त का पहिया तेजी से भाग रहा है। जरुरत है अपने अतीत से सबक लेने, आज को समझने और भविष्य को संवारने की। वर्ष 2012  में भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया में तमाम उथल-पुथल हुई है। आशा की जानी चाहिए कि वर्ष 2012 का अंत सुखद होगा और 2013 का भविष्य सुरक्षित होगा !!

सोमवार, 19 नवंबर 2012

छठि मईया आई न दुअरिया



भारतीय संस्कृति में त्यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्रभर नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। माना जाता है कि अमावस्या के छठवें दिन ही अग्नि-सोम का समान भाव से मिलन हुआ तथा सूर्य की सातों प्रमुख किरणें संजीवनी वर्षाने लगी। इसी कारण इस दिन प्रातः आकाश में सूर्य रश्मियों से बनने वाली शक्ति प्रतिमा उपासना के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वस्तुतः शक्ति उपासना में षष्ठी कात्यायिनी का स्वरूप है जिसकी पूजा नवरात्रि के छठवें दिन होती है। छठ के पावन पर्व पर सौभाग्य, सुख-समृद्धि व पुत्रों की सलामती के लिए प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं। वैसे भी सूर्य समूचे सौर्यमण्डल के अधिष्ठाता हैं और पृथ्वी पर ऊर्जा व जीवन के स्रोत कहा जाता है कि सूर्य की साधना वाले इस पर्व में लोग अपनी चेतना को जागृत करते हैं और सूर्य से एकाकार होने की अनुभूति प्राप्त कर आनंदित होते है।

छठ पर्व के प्रारंभ के बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। मान्यता है कि इस पर्व का उद्भव द्वापर युग में हुआ था। भगवान कृष्ण की सलाह पर सर्वप्रथम कुन्ती ने अपने पुत्र पाण्डवों के लिए छठ पर्व पर व्रत लिया था, ताकि पाण्डवों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवाश कष्टमुक्त गुजरे। इस मान्यता को इस बात से भी बल मिलता है कि कुन्ती पुत्र कर्ण सूर्य का पुत्र था। इसी प्रकार जब पाण्डव जुए में अपना सब कुछ हार गए और विपत्ति में पड़ गये, तब द्रौपदी ने धौम्य ऋषि की सलाह पर छठ व्रत किया। इस व्रत से द्रौपदी की कामनाएं पूरी हुईं और पाण्डवों को उनका खोया राजपाट वापस मिला गया। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी सूर्य षष्ठी के दिन पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए सूर्य देवता की आराधना की थी, जिसके चलते उन्हें लव-कुश जैसे तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। माँ गायत्री का जन्म भी सूर्य षष्ठी को ही माना जाता है। यही नहीं इसी दिन महर्षि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र निकला था। एक अन्य मत के अनुसार छठ व्रत मूलतः नागकन्याओं से जुड़ा है। इसके अनुसार नागकन्याएं प्रतिवर्ष कश्यप ऋषि के आश्रम में कार्तिक षष्ठी को सूर्य देवता की पूजा करती थीं। संजोगवश एक बार च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या भी वहाँ पहुँच गई, जिनके पति अक्सर अस्वस्थ रहते थे। नागकन्याओं की सलाह पर सुकन्या ने छठ व्रत उठाया और इसके चलते च्यवन ऋषि का शरीर स्वस्थ और सुन्दर हो गया।

छठ से जुड़ी एक अन्य प्रचलित मान्यता कर्तिकेय के जन्म से संबंधित है। मान्यता है कि भगवान शिव हिमवान की छोटी कन्या उमा के साथ पाणिग्रहण के उपरान्त रति-क्रीड़ा में मग्न हो गये। क्रीड़ा-विहार में सौ दिव्य वर्ष बीत जाने पर भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। इतनी दीर्घावधि के पश्चात भगवान शिव के रूद्र तेज को सहन करेगा, इससे भयभीत होकर सभी देवगण उनकी प्रार्थना करने लगे- हे प्रभु।़ आप हम देवों पर कृपा करें और देवी उमा के साथ रति-क्रीड़ा से निवृत्त होकर तप में लीन हों । इस बीच निवृत क्रिया में सर्वोत्तम तेज स्खलित हो गया जिसे अग्नि ने अंगीकार किया। गंगा ने इस रूद्र तेज को हिमालय पर्वत के पाश्र्वभाग में स्थापित किया जो कान्तिवान बालक के रूप में प्रकट हुआ। इन्द्र, मरूत एवं समस्त देवताओं ने बालक को दूध पिलाने तथा लालन-पालन के लिए छह कृतिकाओं को नियुक्त किया। इन कृतिकाओं के कारण ही यह बालक कर्तिकेय के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये छह कृतिकाएं छठी मइया का प्रतीक मानी जाती हैं। तभी से महिलाएं तेजस्वी पुत्र और सुन्दर काया के लिए छठी मइया की पूजा करते हुए व्रत रखती हैं और पुरूष अरोग्यता और समृद्धि के लिए व्रत रखते हैं। बच्चों के जन्म की छठी रात को षष्ठी पूजन का विधान अभी समाज में है।
छठ पर्व की लोकप्रियता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि यह पूरे चार दिन तक जोश-खरोश के साथ निरंतर चलता है। पर्व के प्रारम्भिक चरण में प्रथम दिन व्रती स्नान कर के सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे ‘नहाय खाय‘ कहा जाता है। वस्तुतः यह व्रत की तैयारी के लिए शरीर और मन के शु़िद्धकरण की प्रक्रिया होती है। मान्यता है कि स्वच्छता का ख्याल न रखने से छठी मइया रूष्ठ हो जाती हैं-कोपि-कोपि बोलेंली छठिय मइया, सुना महादेव/मोरा घाटे दुबिया उपरिज गइले, मकड़ी बसेढ़ लेले/हंसि-हंसि बोलेलें महादेव, सुना ए छठिय मइया/हम राउर दुबिया छिलाई देबों। इसी प्रकार घाटो पर वेदियाँ बनाते हुए महिलाएं गाती हैं-एक कवन देव पोखरा खनावेलें, पटिया बन्हावेलें रे/एक कवन देवी छठी के बरत कइलीं, कइसे जल जगाइबि रे/ए घाट मोरे छेके घटवरवा, दुअरे पियदवा लोग रे/एक कोरा मोरा छेक ले गनपति, कइसे जलजगइबि/एक रूपया त देहु घटवरवां, भइया ढेबुआ पियदवा लोग रे। प्रथम दिन सुबह सूर्य को जल देने के बाद ही कुछ खाया जाता है। लौकी की सब्जी, अरवा चावल और चने की दाल पारम्परिक भोजन के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरे दिन छोटी छठ (खरना) या लोहण्डा व्रत होता है, जिसमें दिन भर निर्जला व्रत रखकर शाम को खीर रोटी और फल लिया जाता है। खीर नये चावल व नये गुड़ से बनायी जाती है, रोटी में शुद्ध देशी घी लगा होता है। इस दिन नमक का प्रयोग तक वर्जित होता है। व्रती नये वस्त्र धारण कर भोजन को केले के पत्ते पर रखकर पूजा करते हैं और फिर इसे खाकर ही व्रत खोलते हैं।

तीसरा दिन छठ पर्व में सबसे महत्वपूर्ण होता है। संध्या अघ्र्य में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर महिलाएँ घरों में ठेकुआ, पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की सजावट आदि में जुटते हैं। सूर्यास्त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा हो जाते हैं। छठ पूजा के पारम्परिक गीत गाए जाते हैं और बच्चे आतिशबाजी छुड़ाते हैं। सूर्यदेव जब अस्ताचल की ओर जाते हैं तो महिलायें आधी कमर तक पानी में खड़े होकर अघ्र्य देती हैं। अघ्र्य देने के लिए सिरकी के सूप या बाँस की डलिया में पकवान, मिठाइयाँ, मौसमी फल, कच्ची हल्दी, सिंघाड़ा, सूथनी, गन्ना, नारियल इत्यादि रखकर सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है और मन्नतें माँगी जाती हैं- बांस की बहंगिया लिये चले बलका बसवंा लचकत जाय/तोहरे शरणियां हे मोर बलकवा/हे दीनानाथ मोरे ललवा के द लंबी उमरिया। मन्नत पूरी होने पर कोसी भरना पड़ता है। जिसके लिए महिलाएँ घर आकर 5 अथवा 7 गन्ना खड़ा करके उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। निर्जला व्रत जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अन्तिम एवं चैथे दिन सूर्योदय अघ्र्य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन आरम्भ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही ‘केलवा के पात पर उगलन सूरजमल‘, ‘उगी न उदित उगी यही अंगना‘ एवं ‘प्रातः दर्शन दीहिं ये छठी मइया‘ जैसे भजन गीतों के बीच सूर्यदेव को पुत्र, पति या ब्राह्मण द्वारा व्रती महिलाओं के हाथ से गाय के कच्चे दूध से अध्र्य दिलाया जाता है और सूर्य देवता की बहन माता छठ को विदाई दी जाती है। माना जाता है कि छठ मईया दो दिन पहले मायके आई थीं, जिन्हें पूजन-अर्चन के बाद ‘मोरे अंगना फिर अहिया ये छठी मईया‘ की भावना के साथ ससुराल भेज दिया जाता है। इसके बाद छठ मईया चैत माह में फिर मायके लौटती हैं। छठ मईया को ससुराल भेजने के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं और प्रसाद लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं। व्रती की सेवा और व्रत की सामग्री का अपना अलग ही महत्व है। किसी गरीब को व्रत की सामग्री उपलब्ध कराने से व्रती के बराबर ही पुण्य मिलता है। इसी प्रकार यदि अपने घर के बगीचे में लगे फल को किसी व्रती को पूजा के लिए दिया जाता है, तो भी पुण्य मिलता है। यहाँ तक की व्रती की डलिया व्रत को वेदी तक पहुँचाकर, उसके कपड़े धुलकर भी पुण्य कमाया जाता है। व्रत रखने वाले घरों में माता की विदाई पर सफाई नहीं की जाती क्योंकि मान्यता है कि बेटी की विदाई या कथा आदि के बाद घरों में झाड़ू नहीं लगाई जाती।

मूलत: बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोकरंजकता और नगरीकरण के साथ गाँवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है- छठि मईया आई न दुअरिया। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती, न कोई मठ-मंदिर, न कोई अवतारी पुरूष और न ही कोई शास्त्रीय कर्मकाण्ड होता है। आडम्बरों से दूर प्रत्यक्षतः प्रकृति के अवलंब सूर्य देवता को समर्पित एवं पवित्रता, निष्ठा व अशीम श्रद्धा को सहेजे छठ पर्व मूलतः महिलाओं का माना जाता है, जिन्हें पारम्परिक शब्दावली में ‘परबैतिन‘ कहा जाता है। पर छठ व्रत स्त्री-पुरूष दोनों ही रख सकते हैं। इस पर्व पर जब सब महिलाएं इकट्ठा होती हैं तो बरबस ही ये गीत गूँज उठते हैं- केलवा जे फरला घवध से, तो ऊपर सुगा मड़राय/तीरवा जो मरबो धनुष से, सुगा गिरे मुरछाय।

भारतीय संस्कृति में समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादाद्म्य स्थापित करते हैं। जब छठ पर्व पर महिलाएँ गाती हैं- कौने कोखी लिहले जनम हे सूरज देव या मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया....... तो प्रकृति से लगाव खुलकर सामने आता है। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकडि़यों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।

-आकांक्षा यादव

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

पावन पर्व दीपावली का

 पावन पर्व  दीपावली का,
दीपों की बारात लाए।
बम, पटाखे, फुलझड़ी संग,
खुशियों की सौगात लाए।

तोरण द्वार पर सजे अल्पना,
ज्योति का पुंज -हार लाए।
खील-लड्डू का चढ़े प्रसाद,
दिलों में सबके प्यार लाए।

है शुभ मंगलकारी पर्व यह,
इस दिन अयोध्या राम आए।
जल उठी दीपों की बाती,
पुलकित मन पैगाम लाए।

अमावस्या का तिमिर चीरकर,
रोशनी का उपहार लाए।
चारों तरफ सजे रंगोली,
लक्ष्मी-गणेश भी द्वार आए।

शनिवार, 3 नवंबर 2012

ब्लागिंग ने दिलाया अवध सम्मान : उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित

(उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने 1 नवम्बर, 2012 को हमें (आकांक्षा यादव-कृष्ण कुमार यादव) ‘न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग’ में उत्कृष्टता के लिए एक भव्य कार्यक्रम में ‘अवध सम्मान’ से सम्मानित किया. जी न्यूज़ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन ताज होटल, लखनऊ में किया गया था, जिसमें विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया गया. इस पर प्रस्तुत है डा. विनय शर्मा की एक रिपोर्ट-


जीवन में कुछ करने की चाह हो तो रास्ते खुद-ब-खुद बन जाते हैं। हिन्दी-ब्लागिंग के क्षेत्र में ऐसा ही रास्ता अखि़्तयार किया दम्पति कृष्ण कुमार यादव व आकांक्षा यादव ने। उनके इस जूनून के कारण ही आज हिंदी ब्लागिंग को आधिकारिक तौर पर भी विधा के रूप में मान्यता मिलने लगी है. इसी क्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने 1 नवम्बर, 2012 को इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं कृष्ण कुमार यादव और उनकी पत्नी आकांक्षा यादव को ‘न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग’ में उत्कृष्टता के लिए एक भव्य कार्यक्रम में ‘अवध सम्मान’ से सम्मानित किया गया. जी न्यूज़ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन ताज होटल, लखनऊ में किया गया था, जिसमें विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया गया, पर यह पहली बार हुआ जब किसी दम्पति को युगल रूप में यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया गया. ब्लागर दम्पति को सम्मानित करते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जहाँ न्यू मीडिया के रूप में ब्लागिंग की सराहना की, वहीँ कृष्ण कुमार यादव ने अपने संबोधन में उनसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए जा रहे सम्मानों में ‘ब्लागिंग’ को भी शामिल करने का अनुरोध किया. आकांक्षा यादव ने न्यू मीडिया और ब्लागिंग के माध्यम से भ्रूण-हत्या, नारी-उत्पीडन जैसे मुद्दों के प्रति सचेत करने की बात कही. अन्य सम्मानित लोगों में वरिष्ठ साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी, चर्चित लोकगायिका मालिनी अवस्थी, ज्योतिषाचार्य पं. के. ए. दुबे पद्मेश, वरिष्ठ आई.एस. अधिकारी जय शंकर श्रीवास्तव इत्यादि प्रमुख रहे.

जीवन में एक-दूसरे का साथ निभाने की कसमें खा चुके कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव, साहित्य और ब्लागिंग में भी हमजोली बनकर उभरे हैं. कृष्ण कुमार यादव ब्लागिंग और हिन्दी-साहित्य में एक चर्चित नाम हैं, जिनकी 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनके जीवन पर एक पुस्तक ’बढ़ते चरण शिखर की ओर’ भी प्रकाशित हो चुकी है। आकांक्षा यादव भी नारी-सशक्तीकरण को लेकर प्रखरता से लिखती हैं और उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव ने वर्ष 2008 में ब्लाग जगत में कदम रखा और 5 साल के भीतर ही सपरिवार विभिन्न विषयों पर आधारित दसियों ब्लाग का संचालन-सम्पादन करके कई लोगों को ब्लागिंग की तरफ प्रवृत्त किया और अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ ब्लागिंग को भी नये आयाम दिये। कृष्ण कुमार यादव का ब्लॉग ‘शब्द-सृजन की ओर’ (http://www.kkyadav.blogspot.in/) जहाँ उनकी साहित्यिक रचनात्मकता और अन्य तमाम गतिविधियों से रूबरू करता है, वहीँ ‘डाकिया डाक लाया’ (http://dakbabu.blogspot.in/) के माध्यम से वे डाक-सेवाओं के अनूठे पहलुओं और अन्य तमाम जानकारियों को सहेजते हैं. आकांक्षा यादव अपने व्यक्तिगत ब्लॉग ‘शब्द-शिखर’ (http://shabdshikhar.blogspot.in/) पर साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों और विशेषत: नारी-सशक्तिकरण को लेकर काफी मुखर हैं.

इस दम्पति के ब्लागों को सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी भरपूर सराहना मिली। कृष्ण कुमार यादव के ब्लाग ’डाकिया डाक लाया’ को 98 देशों, ’शब्द सृजन की ओर’ को 75 देशों, आकांक्षा यादव के ब्लाग ’शब्द शिखर’ को 68 देशों में देखा-पढ़ा जा चुका है. सबसे रोचक तथ्य यह है कि यादव दम्पति ने अभी से अपनी सुपुत्री अक्षिता (पाखी) में भी ब्लागिंग को लेकर जूनून पैदा कर दिया है. पिछले वर्ष ब्लागिंग हेतु भारत सरकार द्वारा ’’राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’’ से सम्मानित अक्षिता (पाखी) का ब्लाग ’पाखी की दुनिया' (http://pakhi-akshita.blogspot.in/)

बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी काफी लोकप्रिय है और इसे 98 देशों में देखा-पढ़ा जा चुका है।इसके अलावा इस ब्लागर दम्पति द्वारा ‘उत्सव के रंग’, ‘बाल-दुनिया’, ‘सप्तरंगी प्रेम’ इत्यादि ब्लॉगों का भी सञ्चालन किया जाता है.

इस अवसर पर उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय, रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, केबिनेट मंत्री दुर्गा प्रसाद यादव, अनुप्रिया पटेल, मेयर दिनेश शर्मा सहित मंत्रिपरिषद के कई सदस्य, विधायक, कार्पोरेट और मीडिया से जुडी हस्तियाँ, प्रशासनिक अधिकारी, साहित्यकार, पत्रकार, कलाकर्मी व खिलाडी इत्यादि उपस्थित रहे. आभार ज्ञापन जी न्यूज उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के संपादक वाशिन्द्र मिश्र ने किया.

-डा. विनय कुमार शर्मा
प्रधान संपादक-संचार बुलेटिन (अंतराष्ट्रीय शोध जर्नल)
448/119/76, कल्याणपुरी, ठाकुरगंज, चैक, लखनऊ-226003


गुरुवार, 1 नवंबर 2012

'तूफान' और 'महिलाएं'


आजकल 'सैंडी' और 'नीलम' की बड़ी चर्चा है. नाम की खूबसूरती पर मत जाइये,  ये वास्तव में तूफान हैं. हाल के अमेरिकी इतिहास के सबसे खतरनाक तूफान (हरिकेन) माने जाने वाले 'सैंडी' ने तबाही मचा रखी है तो भारत में 'नीलम' ने तबाही मचा रखी है. इससे पहले 'कटरीना' और 'इरीन' अमेरिका को भयाक्रांत चुके हैं। वहीं चक्रवाती तूफान 'नीलम' से पहले भारत में 'लैला' और 'आइला' तूफान कहर बरपा चुके हैं।.यहाँ पर एक बात गौर करने लायक है कि इन सभी तूफानों के नाम महिलाओं के नाम पर ही रखे गए हैं. तो क्या वैश्विक समाज नारी-शक्ति से इतना भयाक्रांत है कि तबाही मचाने वाले तूफानों के नाम खूबसूरत महिलाओं के नाम पर रखकर अपनी दमित इच्छा पूर्ति कर रहा है ? आस्ट्रेलियाई मौसम वैज्ञानिक क्लीमेंट वेग्री (1852 -1922 ) ने ट्रापिकल तूफानों को महिलाओं के नाम देने का चलन आरम्भ किया. इसी क्रम में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी नौसेना के जवानों और मौसम विज्ञानियों ने तूफानों को अपनी प्रेमिकाओं और पत्नियों के नाम से पुकारा। 1951 में अन्तराष्ट्रीय फोनेटिक वर्णमाला के अस्तित्व में आने के बाद कुछ समय के लिए इसे तूफानों के नामकरण का आधार बनाया गया, पर 1953 में अमेरिका ने इस नामकरण को अस्वीकार करते हुए फिर से महिलाओं के नाम पर ही तूफानों के नामकरण की परंपरा को आगे बढाया.
70 के दशक में जब पूरे विश्व में महिलाएं नारी-सशक्तिकरण की ओर अग्रसर रही थीं और सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही थीं, तब कहीं जाकर लोगों का ध्यान इस ओर गया कि मात्र महिलाओं के नाम पर खतरनाक तूफानों का नामकरण गलत है और इससे समाज में गलत सन्देश जाता है. 1978 में यह सुनिश्चित हुआ कि तूफानों के नामकरण हेतु पुरुष और महिला दोनों तरह के नामों का इस्तेमाल किया जायेगा और तदनुसार इस्टर्न नार्थ पैसिफिक स्टॉर्म लिस्ट में दोनों के नाम शामिल किये गए. 1979 में अटलांटिक और मैक्सिको की खाड़ी में उठने वाले तूफानों के नाम भी पुरुष और महिला दोनों के नाम पर रखे गए.भारतीय उपमहाद्वीप में यह चलन वर्ष 2004 से आरंभ हुआ।
1953 से अमेरिका का नेशनल हरिकेन सेंटर, ट्रापिकल तूफानों के नाम की घोषणा करता था पर अब तूफान का नामकरण विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) और यूनाइटेड नेशंस इकोनामिक एंड सोशल कमीशन फार एशिया एंड पेसिफिक (ईएससीएपी) द्वारा प्रभाव में लाई गई प्रक्रिया के तहत होता है। वस्तुत : नाम रखे जाने से मौसम विशेषज्ञों की एक ही समय में किसी बेसिन पर एक से अधिक तूफानों के सक्रिय होने पर भ्रम की स्थिति भी दूर हो गई। हर साल विनाशकारी तूफानों के नाम बदल दिए जाते है और पुराने नामों की जगह नए रखे जाते हैं। इससे किसी गड़बड़ी या भ्रम की सम्भावना नहीं रह जाती. विश्व मौसम संगठन द्वारा हर साल छ: वर्षों के लिए नामों की छ: सूची बनाई जाती है. प्रत्येक सूची में २१ नाम होते हैं. ये सूचियाँ रोटेशन और पुनर्चक्रण सिद्धांत पर कार्य करती हैं. अर्थात हर सातवें वर्ष में विशिष्ट सूची दोबारा प्रयोग करने के लिए उपलब्ध होती है, पर इसमें यह ध्यान रखा जाता है की ऐसे तूफानों के नाम फिर से न रखें जाएँ जिनसे लोगों की संवेदना आहत होती हो, क्योंकि कुछेक तूफान काफी तबाही का मंजर ला चुके होते हैं और दुबारा उनका नाम इस्तेमाल करना लोगों की भावनाओं को भड़का सकता है. यही कारण है कि विश्व मौसम संगठन और यूनाइटेड नेशंस इकोनामिक एंड सोशल कमीशन फार एशिया एंड पेसिफिक साल में एक बार बैठक कर चक्रवाती तूफान की आशंका और उसका सामना करने के लिए कार्य योजना पर विचार-विमर्श करते हैं। तूफानों का नाम इनके शुरू होने की जगह के नजदीकी बेसिन की मॉनीटरिंग बॉडी की सीजनल लिस्ट के मुताबिक तय होता है। विश्व मौसम संगठन विभिन्न देशों के मौसम विभागों को तूफानों का नाम रखने की जिम्मेदारी सौंपता है, ताकि तूफानों की आसानी से पहचान की जा सके. इसी क्रम में मौसम वैज्ञानिकों ने आसानी से पहचान करने और तूफान के तंत्र का विश्लेषण करने के लिए उनके नाम रखने की परंपरा शुरु की । अब तूफानों के नाम विश्व मौसम संगठन द्वारा तैयार प्रक्रिया के अनुसार रखे जाते हैं । बंगाल की खाडी़ और अरब सागर के उपर बनने वाले तूफानों के नाम वर्ष 2004 से रखे जा रहे हैं. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) क्षेत्रीय विशेषीकृत मौसम केद्र होने की वजह से भारत के अलावा सात अन्य देशों बंगलादेश, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, थाईलैंड एवं श्रीलंका को मौसम संबंधी परामर्श जारी करता है। आईएमडी ने इन देशों से भी तूफानों के लिए नाम सुझाने को कहा। इन देशों ने अंग्रेजी वर्णमाला के क्रम के अनुसार नामों की सूची दी है । पूर्वानुमान और चेतावनी जारी करने की खातिर विशिष्ट पहचान देने के उद्धेश्य से अब तक कुल 64 नाम सुझाए गए हैं, जिनमें से अब तक 24 का उपयोग किया जा चुका है । मसलन 'लैला' और 'नीलम' नाम नाम पाकिस्तान द्वारा सुझाया गया था ।
 
पर इस सच्चाई से तो नहीं नक्कारा जा सकता कि अब भी अधिकतर बड़े तूफानों के नाम महिलाओं के नाम पर ही पाए जाते हैं. 'सैंडी' नाम को भले ही मौसम विज्ञानी पुरुषवाचक कह रहे हों, पर यह नाम भी महिलाओं के ही करीब है. कई बार तो लगता है कि पुरुषवाचक आधार पर तूफानों के ऐसे नाम रखे जाते हैं, जिनसे महिलावाचक होने का भ्रम हो. नारी के लिए अक्सर कहा जाता है कि वह जब शांत होती है तो 'विनम्र व दयालु' होती है और जब रणचंडी का रूप धारण करती है तो 'तूफान' आते हैं, पर हमारे मौसम विज्ञानी अभी भी प्राय: हर खतरनाक तूफान का नामकरण महिलाओं के नाम पर ही करना चाहते हैं तो यह सोचनीय विषय है !!
-आकांक्षा यादव

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

काश इंदिरा गाँधी को भी लड़की होती..


आज भारत की लौह-महिला कही जाने वाली इंदिरा गाँधी जी की पुण्य तिथि है. हम उनकी नीतियों से सहमत-असहमत हो सकते हैं, पर भारतीय राजनीति में उनके व्यक्तित्व को नज़र अंदाज़ करना संभव नहीं. वे नारी-सशक्तिकरण की प्रतीक थीं, जिनकी खुद की चाहत थी कि काश उनके यहाँ बेटी पैदा होती. उन्होंने अपनी इस भावना से अपने कई राजनैतिक सहयोगियों को अवगत कराया था कि उनकी एक पुत्री भी हो। इस बात का उल्लेख पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'योवर्स सिंसीयरली' में भी किया है। इसमें उन्होंने जिक्र किया है कि जब उन्हें पुत्री हुई तो उन्हें बधाई देते हुए इंदिरा गाँधी ने पत्र में लिखा था कि उनकी तमन्ना थी कि उन्हें भी एक लड़की होती।
आज इंदिरा गाँधी जी कि पुण्यतिथि है. वे एक ऐसी महिला थीं, जिनका लोहा भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया मानती है. आज हम महिला आरक्षण की बात कर रहे हैं, पर वे उस दौर में भारतीय राजनीति के शिखर पर थीं, जब दुनिया में महिलाओं का संसदीय प्रतिनिधित्व विरले ही मिलता था. काश, इंदिरा जी की कोई बेटी होती तो आज भारतीय राजनीति का चेहरा ही कुछ और होता !
 
पुण्य तिथि पर सादर नमन !!

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

'चाँद पर पानी' : श्रेष्ठतम लेखन की दिशा में गतिमान हैं कवयित्री आकांक्षा

समीक्ष्य बाल काव्य-कृति ’चाँद पर पानी’ की रचनाकार आकांक्षा यादव की यह प्रथम बाल कृति बड़े मनोयोग से प्रस्तुत की गयी है। उद्योग नगर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कृति में तीस बालोपयोगी कवितायें आद्यन्त तक प्रसारित हैं । ये बालमन की रुचि वाली हैं ही, इनके माध्यम से अल्पवयी पाठकों को पर्यावरण, पर्व, परिवेश, खेल, देशभक्ति, पशु-पक्षियों जैसे मानवेतर प्राणियों को तकनीकी के अतिरिक्त इलेक्ट्रानिक विषयों की भी जानकारी दी गई है।
 
  कृति की संज्ञा इसकी प्रथम रचना ’चाँद पर पानी’ पर ही आधारित है। इस लघु रचना में बाल मनोविज्ञान का संस्पर्श अपने चरम पर है। बड़ी सरलता से बालिका कहती है कि-
 
चाँद पे निकला पानी,
सुनकर हुई हैरानी।
बड़ी होकर जाऊँगी,
पीने चाँद पर पानी। (चाँद पर पानी, पृ.सं. 7)
 
इस कमोवेष अविश्वसनीय कल्पना से ही ऊर्जान्वित होकर वह महत्वाकांक्षायें गढ़ने लगती है, सांकेतिक रूप से कहती है-असंभव शब्द को हमें अब कोई नया अर्थ देना होगा। 'मैं भी बनूंगा सैनिक’ की प्रारंभिक पंक्तियों में दशकों पूर्व की बहुश्रृत कवि 'मां मुझे सैनिक बना दो/चाहता रणभूमि में जाना मुझे तलवार ला दो’ की अनुगँज पाठकों और श्रोताओं को पसंद आयेगी। रचना की आगे की पंक्तियों की रंजकता तथा मासूमियत कम हदयग्राही नहीं-
 
चुस्त वर्दी और लम्बे बूट,
उस पर पहनूं आर्मी सूट।
मेरी तुम नजर उतारना,
तुम्हें करूँगा मैं सैल्यूट। (मैं भी बनूंगा सैनिक, पृ.सं. 8)
 
’नटखट बंदर’ (पृ.सं. 13) तथा ’सूरज का संदेश’ रचनायें जीवन में परिश्रम, परोपकार की उपादेयता को रेखांकित करने के साथ-साथ सभी से सूर्य मानसिकता ग्रहण करने का आह्वान भी करती हैं। यथा-
 
जीवन में तुम सदा सभी के,
ज्ञान की ज्योति फैलाओ।
दूसरों के काम आकर,
परोपकारी कहलाओ। (सूरज का संदेश पृ.सं. 10)
 
आजकल के बच्चे बचपन से ही लैपटाप पर खेलने लगे है। ऐसे में लैपटाप के प्रति बाल आसक्ति उत्पन्न करने वाली कतिपय काव्य पंक्तियों का आस्वाद भी पाठक पसंद करेंगें-
 
लैपटाप पापा जी लाए,
हम सबके यह दिल को भाए।
खेल खिलाए, ज्ञान बढ़ाए,
नई-नई ये बात बताए।
 
‘की बोर्ड‘ से हो गई यारी,
‘माउस‘ की मैं करूँ सवारी।
‘मानीटर‘ पर सब है दिखता,
कितना प्यारा है यह रिश्ता। (लैपटाप, पृ.सं. 12)
 
कविता ’राखी का त्यौहार’, भाई और बहन के बीच दीर्घजीवी प्यार का वार्षिक पुनर्स्मरण है तो ’नव वर्ष का प्रथम प्रभात’ रचना में भी नववर्ष की पहली सुबह से लोक कल्याण की कामना की गई है-
 
नैतिकता के मूल्य गढ़ें,
अच्छी-अच्छी बातें पढें।
कोई भूखा पेट न सोए,
संपन्नता के बीज बोए।
ऐ नव वर्ष के प्रथम प्रभात,
 दो सबको अच्छी सौगात। (’नव वर्ष का प्रथम प्रभात’ पृ.सं. 20)
 
तीस बाल गीतों से सुसज्जित इस कृति इस कृति की लगभग सभी रचनायें सार्थकता की दृष्टि से उत्तमतर हैं। प्रत्येक को रुचिकर रेखाचित्रों से संबंलित करने के कारण किसी का भी मन उसे पढ़ना चाहेगा। मुझे विश्वास है कि यह कृति बच्चों और प्रौढ़ों के द्वारा समान रुचि से पढ़ी जायेगी।
 
कृति: चाँद पर पानी
 
कवयित्री: आकांक्षा यादव, टाइप 5 निदेशक बंगला, जी0पी0ओ0 कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.) - 211001
 
प्रकाशन वर्ष: 2012
 
मूल्य: रु. 35/-    पृष्ठ: 36
 
प्रकाशक : उद्योग नगर प्रकाशन, 695, न्यू कोट गांव, जी0टी0रोड, गाजियाबाद (उ.प्र.)
 
समीक्षक: डा. कौशलेन्द्र पाण्डेय, 130, मारुतीपुरम्, लखनऊ मो0: 09236227999
 
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डा. कौशलेन्द्र पाण्डेय : एक परिचय-
 
जन्म: 28 दिसंबर, 1937 .

शिक्षा : एम्. काम., एल.एल. बी. एवं विद्यावाचस्पति व विद्यासागर (मानद उपाधियाँ)

प्रकाशन : प्राय: सभी लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकाशन.
कृतियाँ : 7 कहानी एवं 5 काव्य-संग्रह सहित कुल 18 पुस्तकें प्रकाशित.

सम्मान : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'साहित्य भूषण' सहित विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त.

सम्प्रति : स्वतंत्र अध्ययन व लेखन.

संपर्क : डा. कौशलेन्द्र पाण्डेय, 130, मारुतीपुरम्, लखनऊ (उ.प्र.). मो.: 09236227999
 
( साभार : डा. कौशलेन्द्र पाण्डेय जी द्वारा लिखित उपरोक्त समीक्षा हिंदी मीडिया इन और परिकल्पना ब्लागोत्सव पर भी पढ़ी जा सकती है. इसके अलावा यह यू. एस. एम्. पत्रिका () एवं डेली न्यूज एक्टिविस्ट (27 अक्तूबर, 2012) में भी प्रकाशित है. )

शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

अपूर्वा का ’बर्थ-डे’ है आया

आज 27 अक्तूबर, 2012 है. आज का दिन हमारे लिए खास मायने रखता है. आज ही के दिन हमारी प्यारी सी बिटिया अपूर्वा का जन्म हुआ था.

अपूर्वा का ’बर्थ-डे’ है आया,
सब बच्चे मिल करो धमाल।
जमके खूब खाओ तुम सारे,
हो जाओ फिर लाल-लाल।
हैप्पी ’बर्थ-डे’ मिलकर गाओ,
मस्ती करो और मौज मनाओ।
पाखी, तन्वी, खुशी, अपूर्वा,
सब मिलकर बैलून फुलाओ।
आईसक्रीम और केक भी खाओ,
कोई भी ना मुँह लटकाओ।

कितना प्यारा बर्थ-डे केक
हैप्पी बर्थ-डे मिलकर गाओ।

अपूर्वा तुम जियो हजारों साल,
साल के दिन हों पचास हजार ! 

आज अपूर्वा दो साल की हो गईं. अपूर्वा के जन्मदिन पर ढेरों बधाई, आशीर्वाद, स्नेह और प्यार. आपके आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा बनी रहेगी !!
 

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन है दशहरा


दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है।
 
दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मां दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।
 
दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है।
 
 
आप सभी को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!