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मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

एलीनोर कैटन : सबसे युवा बुकर पुरस्कार विजेता

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती। यह बात न्यूजीलैंड की 28 वर्षीय लेखिका एलिनोर कैटन पर पूरी तरह लागू  होती है, जिन्होंने अपने उपन्यास 'द लूमिनरीज़' के लिए सबसे कम उम्र में मैन बुकर पुरस्कार जीतकर एक इतिहास रच दिया है।

एलिनोर कैटन को उनके उपन्यास द लुमिनरीज के लिए वर्ष 2013 का मैन बुकर पुरस्कार दिया गया है। कैटन बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की लेखिका हैं। कनाडा में जन्मी कैटन न्यूज़ीलैंड में पली-बढ़ी हैं और वे मैन बुकर पुरस्कार जीतने वाली न्यूज़ीलैंड की दूसरी लेखक हैं.

यही नहीं, एलिनोर कैटन के खाते में एक और भी उपलब्धि जुड़ गई है। दरअसल बुकर पुरस्कारों के 45 साल के इतिहास में कैटन का 832 पेज का उपन्यास ये पुरस्कार जीतने वाली सबसे लंबी कृति भी बन गया है। उन्होंने ये उपन्यास उन्नीसवीं सदी की सोने की खानों पर लिखा है। कैटन ने यह उपन्यास 25 साल की उम्र में लिखना शुरू किया था। गौरतलब है कि बुकर  पुरस्कार के साथ पचास हज़ार पाउंड की इनामी राशि भी दी जाती है.

बकौल जूरी के मुखिया रॉबर्ट मैकफार्लेन- ''द लुमिनरीज एक शानदार उपन्यास है, इसकी संरचना अद्भुत रूप से जटिल है, कथा शैली आपको बांधे रखती है और लालच और सोना का वर्णन जादुई है।'' रॉबर्ट मैकफ़ारलेन ने कहा, "यह एक चमकदार कार्य है जो लंबा हुए बिना विशाल काम है....आप इसे पढ़ना शुरू करते हैं और आपको लगने लगता है कि आप एक दैत्य की पकड़ में हैं. इसका हर हिस्सा पिछले हिस्से की तुलना में ठीक आधा लंबा है."

सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

"लघुकथाओं की मल्लिका" एलीस मुनरो

महिलाएँ आज जीवन की हर ऊंचाई को छू रही है। दुनिया भर में महिलाएं अपनी श्रेष्ठता का परचम फहरा रही हैं। तभी तो  दुनिया भर के तमाम सम्मान नारी के आँचल में समाये हैं, इन्हीं में से नोबेल सम्मान भी है। अभी तक 44  महिलाओं को नोबेल पुरस्कार मिला है और उनमें से 13 साहित्य के क्षेत्र में। 

 इस बार वर्ष 2013 के साहित्य के प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार के लिए "लघुकथाओं की मल्लिका" के नाम से विख्यात कनाडा की लेखिका एलिस मुनरो को चुना गया है। मुनरो साहित्य का नोबेल जीतने वाली 13 वीं महिला हैं, जबकि किसी भी क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाली 44वीं महिला हैं। अनूठी कथाकार और मानवीय संवेदनाओं की मर्मज्ञ कलमकार एलीस मुनरो को यह पुरस्कार मानवीय परिस्थितियों की कमजोरियों पर आधारित लघु कथाओं  के लिए प्राप्त हुआ. वर्ष 1901 में शुरु हुए नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित होने वाली एलिस पहली कनाडाई नागरिक हैं. स्वीडिश अकादमी ने एलिस (82वर्ष) को समकालीन लघु कहानी का मास्टर बताकर सम्मानित किया. अकादमी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि छोटे शहरों के माहौल में होती है जहां सामाजिक स्वीकार्य अस्तित्व के लिए संघर्ष के कारण अक्सर रिश्तों में तनाव और नैतिक विवाद होता है.

कनाडा के विंघम में 10 जुलाई 1931 में जन्मी मुनरो ने 1950 में पत्रिकाओं में लिखना शरू किया था। साढ़े बारह लाख अमेरिकी डालर के पुरस्कार की घोषणा करते हुए स्वीडिश अकादमी ने मुनरो के लिए कहा, "कुछ आलोचक उन्हें कनाडाई चेखव भी मानते हैं।'' अंग्रेजी के अलावा मुनरो फ्रेंच, स्वीडिश, स्पेनिश और जर्मन में भी लिखती रही हैं। ग्लैमर और मीडिया से दूरी पसंद मुनरो ने 2009 में बताया था कि उनके दिल की बाईपास सर्जरी भी हुई है और वह कैंसर से भी पीडित रही हैं। लेकिन इस क्रांतिकारी लेखिका ने इन सब मुसीबतों का डट कर मुकाबला किया और आज भी अपने कलम की धार कुंद नहीं होने दी है। 

एलिस मुनरो यूँ ही इस मुकाम तक नहीं पहुंचीं बल्कि इसके पीछे एक लम्बी साहित्य यात्रा है। मुनरो का पहला कहानी संग्रह "डांस आफ हैप्पी शेड्स" 1968 मे प्रकाशित हुआ, जबकि उनका ताजा कहानी संग्रह "डीयर लाइफ" पिछले साल वर्ष 2012 में   प्रकाशित हुआ। उनके अन्य कहानी संग्रहों में लाइव्स आफ गल्र्स एंडवीमिन्स (1971) हू डू यू थिंक यू आर (1978), द मून्स आफ जुपिटर (1982), रनअवे (2004), द वियू फ्राम कैसल राक (2006) और टू मच हैप्पीनेस (2009) उल्लेखनीय हैं। उनके कहानी संग्रह हेटशिप, फ्रेंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरिज (2001) पर वर्ष 2006 में "अवे फ्राम हर" नाम से फिल्म भी बनी थी। एलिस मुनरो की कहानियां अक्सर छोटे शहरों के माहौल पर आधारित होती हैं, जहां अस्तित्व की सामाजिक स्वीकार्यता का संघर्ष तनावपूर्ण संबंधों और नैतिक उहापोह को जन्म देता है। ऎसी समस्याएं जो पीढियों के अतंर और महत्वाकांक्षा के टकराव से पैदा होती हैं। 

 वर्ष 2009 में मुनरो को प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार भी मिला था, जबकि तीन बार उन्हें कनाडा के "गवर्नर जनरल अवार्ड" से नवाजा गया है। यह भी अजीब इत्तफाक है कि  मुनरो स्वयं कहानीकार के बदले उपन्यासकार बनना चाहती थीं, पर भाग्य कि नियति उन्हें कहानीकार बना गया।  इसी साल जुलाई में न्यूयार्क टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, "अपनी पहली पांच किताबें लिखते समय मैं प्रार्थना कर रही थी कि काश मैं उपन्यास लिखती। मैं सोचती थी कि जब तक आप उपन्यास नहीं लिखते, लोग आपको लेखक के रूप में गंभीरता से नहीं लेते। यह सोच कर मैं काफी परेशान रहती थी, लेकिन अब कोई भी बात मुझे परेशान नहीं करती। मैं समझती हूं कि अब लोग लघुकथाओं को पहले के मुकाबले अधिक गंभीरता से लेते हैं।

एलिस मुनरो को 10 दिसंबर, 2013  को स्टाकहोम में एक औपचारिक समारोह में 12 . 4 लाख डालर की राशि और पुरस्कार दिया जायेगा. कनाडाई लेखिका एलिस मुनरो ने कहा कि वह यह जानकार काफी आश्चर्यचकित और प्रसन्न हैं कि उन्होंने साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीता है.एलीस ने  कहा, हां मुझे पता था कि मैं दौड़ में हूं लेकिन मुझे नहीं पता था कि मैं जीतूंगी.   लेखिका ने कहा कि उनकी बेटी ने उन्हें जगाते हुए खबर दी कि स्वीडन की नोबेल समिति ने साहित्य पुरस्कार के लिए उन्हें चुना है.

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

पंखे झलते देश के नौनिहाल

सोचिए, गर्मी में आप बैठे हों, फैन और एसी नहीं। कितना अजीब सा लगता है। कभी राजा-महाराजा चला करते थे तो उनके साथ पंखे झलने वालियों का हुजूम भी चला करता था। राजे-महराजे तो चले गए, पर उन जैसे सामंती मानसिकता वाले अधिकारी अभी भी उनकी यादों को जिन्दा किये हुए हैं। हमारे यहाँ सरकारी स्कूलों में अक्सर ऐसा देखने को मिलता था कि गर्मियों में मास्टर जी आराम से बैठकर बच्चों से पंखे झलवा रहे होते। घर में कोई मेहमान आता और लाइट  नहीं रहती तो फिर पंखे झलने के लिए बच्चों की ही ड्यूटी लगती ....खैर ये सब बातें पुरानी हैं। अभी उत्तर प्रदेश के शामली में दौरे पर  गए एक प्रमुख सचिव और जिलाधिकारी को बच्चों  से पंखा झलवाना महंगा पड़ा। मीडिया ने उनकी विकास के दावों की हवा के बीच पंखे झलवाते आकर्षक फोटुयें उतारी।आनन-फानन में राज्य सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि अफसरों की सामंती मानसिकता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और ऐसे अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही भी की जाएगी। अफसरों का अंजाम क्या होगा, यह तो वक़्त बताएगा पर यह तो स्पष्ट है की अभी भी समाज में परम्पराओं और सामंती मानसिकता के नाम पर बहुत कुछ चल रहा है, जिसका संज्ञान लेने की जरुरत है ...!!  

पूरी खबर यहाँ पर देख-पढ़ सकते हैं-

अखिलेश यादव जहां सूबे में छात्रों को लेपटॉप, बेरोजगारों को भत्ता और कन्याओं को कन्या विधा धन बांट रहे हैं वहीं उनके अधिकारी कुछ ऐसा कर रहे हैं जिन्हें देखकर शायद वो भी शर्मशार हो जाए।

शामली के जिलाधिकारी प्रवीण कुमार, उनके ठीक बगल में बैठे हैं सुनील कुमार जो समाज-कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव है। इनके बगल में शामली की सीडीओ वी के सिंह बैठे हैं, इनका नाम है लोकेश कुमार जनाब शामली के सीएमओ हैं। दरअसल अखिलेश राज में अधिकारियों को जब गर्मी लगने लगती है तो वे ये भी भूल जाते हैं कि मासूम बच्चों से काम करवाना कितना बड़ा जुर्म है।

ये तस्वीरें उत्तरप्रदेश के शामली जनपद के लोहिया ग्राम हसनपुर की है और पंखों की हवा खा रहे ये हैं अखिलेश सरकार के अधिकारी जो पहुंचे हैं गांव में विकास कार्यों का निरीक्षण करने। पहले तो इन्होंने गांव के विकास कार्यों का निरीक्षण किया, फिर लोगों की समस्याओं को सुनने के लिए बैठे उनके बीच मुख्यालय से गांव पहुंचे तो भाग-दौड़ भी थोड़ी ज्यादा हो गई। गांव की गलियों से भी गुजरना पड़ा। इसी वजह से उन्हें बैठते ही तेज गर्मी लगी लेकिन शामियाने में एससी तो चल नहीं सकते थे लिहाजा उनके लिए हाथ के पंखे के इंतजाम किए गए और इसके लिए छोटे बच्चों की ड्यूटी लगाई गई। गर्मी से तर-ब-तर भूखे-प्यासे बच्चे उन्हें पंखे झलते रहे लेकिन अधिकारियों को इन बच्चों पर तनिक भी दया नहीं आई।

अब सवाल ये है कि सूबे के समाज कल्याण के प्रमुख सचिव साहब क्या इसी तरीके से सूबे की जनता का कल्याण करते हैं या फिर ये उनके कार्यो का नमूना भर है। अब देखना ये है अखिलेश यादव अपने इन वरिष्ठ अधिकारियों को बाल श्रम कराने के लिए क्या क्या कोई सजा भी देते हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार ने शामली में अधिकारियों की एक बैठक में बच्चों से कथित रूप से पंखे झलवाने की घटना पर गंभीरता से लेते हुए कहा है कि ‘सामंती’ मानसिकता वाले अधिकारियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जायेगी.
शामली में अधिकारियों के पीछे खडे़ बच्चों को पंखा झलते दिखाये जाने की घटना पर प्रदेश के मंत्री राजेन्द्र चौधरी ने कहा, ‘मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बच्चों की भावनाओं के प्रति खासे संवेदनशील हैं. उन्हें इस घटना के बारे में बताया जायेगा और सरकार सामंती मानसिकता वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी.’

चौधरी ने कहा कि अधिकारियों की बैठक में बच्चों से पंखे झलवाना एक गंभीर घटना है. यह सरकारी सेवा नियमावली के खिलाफ तो है ही, अधिकारियों की सामंतवादी मानसिकता की भी परिचायक है.

गौरतलब है कि कुछ न्‍यूज चैनलों पर शामली में हुई समाज कल्याण विभाग की बैठक में प्रमुख सचिव सुनील कुमार, जिलाधिकारी तथा अन्य अधिकारियों की एक बैठक में बच्चों को उनके पीछे खडे़ होकर हाथ से पंखे झलते हुए दिखाया गया है.

Courtesy : http://aajtak.intoday.in/story/action-against-officers-who-made-children-fan-them-1-744729.html



रविवार, 13 अक्टूबर 2013

रावण अभी भी नहीं मरा है



खामोश है ये शहर
सन्नाटा पसरा पड़ा है
आंतक की फैलती विषबेल
रावण अडिग सा खड़ा है।

जलता है हर साल
फिर आकर खड़ा है
डरते हैं अब राम भी
रावण आंतक पर अड़ा है।

फिर खड़ा हो करेगा अट्ठाहस
हर साल होता जाता बड़ा है
कब तक चलेगी यह लीला
रावण अभी भी नहीं मरा है।


शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

नवरात्र पर 'मातृ शक्ति' की पूजा ...पर असली जीवन में ??

एक बार फिर से शारदीय नवरात्र का शुभारंभ। हर साल यह पर्व आता है। इन नौ दिनों में हम मातृ शक्ति की आराधना करते हैं  नवरात्र मातृ-शक्ति का प्रतीक है। आदिशक्ति को पूजने वाले भारत में नारी को शक्तिपुंज के रूप में माना जाता है। नारी सृजन की प्रतीक है. हमारे यहाँ साहित्य और कला में नारी के 'कोमल' रूप की कल्पना की गई है. कभी उसे 'कनक-कामिनी' तो कभी 'अबला' कहकर उसके रूपों को प्रकट किया गया है. पर आज की नारी इससे आगे है. वह न तो सिर्फ 'कनक-कामिनी' है और न ही 'अबला', इससे परे वह दुष्टों की संहारिणी भी बनकर उभरी है. यह अलग बात है कि समाज उसके इस रूप को नहीं पचा पता. वह उसे घर की छुई-मुई के रूप में ही देखना चाहता है. बेटियाँ कितनी भी प्रगति कर लें, पुरुषवादी समाज को संतोष नहीं होता. उसकी हर सफलता और ख़ुशी बेटों की सफलता और सम्मान पर ही टिकी होती है. तभी तो आज भी गर्भवती स्त्रियों को ' बेटा हो' का ही आशीर्वाद दिया जाता है. पता नहीं यह स्त्री-शक्ति के प्रति पुरुष-सत्तात्मक समाज का भय है या दकियानूसी सोच. 

नवरात्र पर देवियों की पूजा करने वाले समाज में यह अक्सर सुनने को मिलता है कि 'बेटा' न होने पर बहू की प्रताड़ना की गई. विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि बेटा-बेटी का पैदा होना पुरुष-शुक्राणु पर निर्भर करता है, न कि स्त्री के अन्दर कोई ऐसी शक्ति है जो बेटा या बेटी क़ी पैदाइश करती है. पर पुरुष-सत्तात्मक समाज अपनी कमजोरी छुपाने के लिए हमेशा सारा दोष स्त्रियों पर ही मढ़ देता है. ऐसे में सवाल उठाना वाजिब है क़ी आखिर आज भी महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से क्यों ग्रस्त है पुरुष मानसिकता ? कभी लड़कियों के जल्दी ब्याह क़ी बात, कभी उन्हें जींस-टॉप से दूर रहने क़ी सलाह, कभी रात्रि में बाहर न निकलने क़ी हिदायत, कभी सह-शिक्षा को दोष तो कभी मोबाईल या फेसबुक से दूर रहने क़ी सलाह....ऐसी एक नहीं हजार बिन-मांगी सलाहें हैं, जो समाज के आलमबरदार रोज सुनाते हैं. उन्हें दोष महिलाओं क़ी जीवन-शैली में दिखता है, वे यह स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं कि दोष समाज की मानसिकता में है.

'नवरात्र' के दौरान अष्टमी के दिन नौ कन्याओं को भोजन कराने की परंपरा रही है. लोग उन्हें ढूढ़ने के लिए गलियों की खाक छानते हैं, पर यह कोई नहीं सोचता कि अन्य दिनों में लड़कियों के प्रति समाज का क्या व्यवहार होता है। आश्चर्य होता है कि यह वही समाज है जहाँ भ्रूण-हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार जैसे मामले रोज सुनने को मिलते है पर नवरात्र की बेला पर लोग नौ कन्याओं का पेट भरकर, उनके चरण स्पर्श कर अपनी इतिश्री कर लेना चाहते हैं। आखिर यह दोहरापन क्यों? इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाय या कुछ और? आज बेटियां धरा से आसमां तक परचम फहरा रही हैं, पर उनके जन्म के नाम पर ही समाज में लोग नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं। यही नहीं लोग यह संवेदना भी जताने लगते हैं कि अगली बार बेटा ही होगा। इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं। वे स्वयं भूल जाती हैं कि वे स्वयं एक महिला हैं। आखिर यह दोहरापन किसके लिए ?

समाज बदल रहा है। अभी तक बेटियों द्वारा पिता की चिता को मुखाग्नि देने के वाकये सुनाई देते थे, हाल के दिनों में पत्नी द्वारा पति की चिता को मुखाग्नि देने और बेटी द्वारा पितृ पक्ष में श्राद्ध कर पिता का पिण्डदान करने जैसे मामले भी प्रकाश में आये हैं। फिर पुरूषों को यह चिन्ता क्यों है कि उनकी मौत के बाद मुखाग्नि कौन देगा। अब तो ऐसा कोई बिन्दु बचता भी नहीं, जहाँ महिलाएं पुरूषों से पीछे हैं। फिर भी समाज उनकी शक्ति को क्यों नहीं पहचानता? समाज इस शक्ति की आराधना तो करता है पर वास्तविक जीवन में उसे वह दर्जा नहीं देना चाहता। ऐसे में नवरात्र पर नौ कन्याओं को भोजन मात्र कराकर क्या सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई ....???


शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

'देवालय' बनाम 'शौचालय'

'देवालय' बनाम 'शौचालय' ....मुद्दा फिर चर्चा में है। कभी स्व. काशीराम, कभी जयराम रमेश और अब नरेन्द्र मोदी ....पर इसे मात्र मुद्दे और विचारों तक रखने की ही जरुरत नहीं है, इस पर ठोस पहल और कार्य की भी जरुरत है। आज भी भारत में तमाम महिलाएं  'शौचालय' के अभाव में अपने स्वास्थ्य से लेकर सामाजिक अस्मिता तक के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। स्कूलों में 'शौचालय' के अभाव में बेटियों का स्कूल जाना तक दूभर हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो काफी बुरी स्थिति है। पहले घर और स्कूलों को इस लायक बनाएं कि महिलाएं वहाँ आराम से और इज्जत से रह सकें, फिर तो 'देवालय' बन ही जाएंगें। इसे सिर्फ राजनैतिक नहीं सामाजिक, शैक्षणिक, पारिवारिक  और आर्थिक रूप में भी देखने की जरुरत है !!

फ़िलहाल, राजनैतिक मुद्दा क्यों गरम है, इसे समझने के लिए पूरी रिपोर्ट पढ़ें, जो कि  साभार प्रकाशित है।

नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने नरेंद्र मोदी को उनके उस बयान पर आडे हाथों लिया है जिसमें उन्होंने देवालय से ज्यादा महत्व शौचालय को देने की बात कही थी। खुद भी ऎसा ही बयान दे चुके रमेश ने कहा कि मोदी ऎसे नेता हैं जो रोज नए रूप में सामने आते हैं। मोदी को यह बताना चाहिए कि क्या वह अयोध्या में महा शौचालय बनाने के कांशीराम के सुझाव से सहमत हैं। एक कार्यक्रम के दौरान टीवी पत्रकारों से बात करते हुए जयराम रमेश ने कहा, अब जब उन्होंने देवालय से पहले शौचालय की बात कह दी है तो उन्हें यह भी साफ करना चाहिए क्या वह अयोध्या में ब़डा सा शौचालय बनवाने के कांशीराम के सुझाव से भी सहमत हैं या नहीं। उन्होंने कहा, कांशीराम जी ने एक रैली में यह सुझाव दिया था।

उन्होंने कहा, अब मेरे बीजेपी के दोस्त क्या कहेंगे। मोदी के बयान पर वो क्या राय रखते हैं। जब मैंने कुछ ऎसा ही बयान दिया था तो विरोध हुआ। राजीव प्रताप रूडी और प्रकाश जावडेकर ने मुझपर धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया पर अब वे क्या कहेंगे। इनके अलावा कुछ संगठनों ने विरोध का बेहद ही खराब तरीका अपनाया और मेरे घर के सामने पेशाब की बोतल रख दी। मोदी पर निशाने साधते हुए उन्होंने कहा, चलो देर से ही सही पर मोदी को ज्ञान तो मिला पर उनकी ये बयानबाजी सिर्फ राजनीति के कारण है क्योकि गुजरात के सीएम पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। जयराम रमेश ने कहा कि खुद को हिंदुत्ववादी बताने वाले मोदी अब नए अवतार में सामने आए हैं। वह ऎसे नेता हैं जो रोज नए अवतार में सामने आते हैं। हमारे यहां दशावतार की बात कही जाती है, लेकिन उनके लिए यह शब्द कम पडेगा। वह शतावतार वाले नेता हैं। रमेश ने मोदी के शौचालय वाले बयान पर निशाना साधते हुए कहा कि 2011-12 में गुजरात सरकार ने दावा किया था कि ग्रामीण इलाकों में लगभग 82 फीसदी घरों में शौचालय हैं, पर सही आंकडा सिर्फ 34 फीसदी है। इससे विकास के दावे पूरी तरह से सामने आ जाते हैं।

गौरतलब है कि खुद जयराम रमेश ने कुछ दिन पहले ऎसा बयान दिया था कि गांव में मंदिर बनवाने से ज्यादा जरूरी है कि शौचालय की व्यवस्था करना। उनके उस बयान की काफी आलोचना हुई थी। उस बयान के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, मैंने देवालय का नाम नहीं लिया था। लेकिन उस बयान पर हंगामा मचाने वाले लोगों को अब मोदी के इस बयान पर अपना रूख साफ करना चाहिए। 

दिग्गी ने पूछा, भाजपा अब चुप क्यूं... 
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अखबार के एक पुराने लेख का उललेख किया जिसमें मोदी के हवाले से कहा गया था कि वो लोग जो शौचालय साफ करते हैं उन्हें ऎसा करने में आध्यात्मिक खुशी मिलती है जबकि केन्द्रीय मंत्री राजीव शुक्ला ने कहा कि "मोदी हिन्दू नेता नहीं" हैं लेकिन हिन्दुओं को भ्रमित करने व वोट इकटा करने के लिए उन्हें ऎसा पेश किया जा रहा है।

रमेश का भाजपा ने किया था विरोध...
शुक्ला ने कहा कि मोदी जो कुछ भी कहते हैं उस पर भाजपा चुप्पी मार जाती है और उन्हें समर्थन देना शुरू कर देती है। जयराम रमेश ने एक बार कहा था कि गावों में मंदिर से पहले शौचालय बनना चाहिए। तब भाजपा ने तत्काल रमेश की आलोचना की थी और मांग की कि उन्हें देश से माफी मागनी चाहिए। शुक्ला ने कहा,जब मोदी ने ऎसा कहा तो भाजपा अपना मुंह क्यों नहीं खोल रही है। मोदी कोई हिन्दू नेता नहीं हैं। उन्होंने हिन्दुओं के लिए कुछ किया भी नहीं है। उनकी राय भी पूरी तरह से अलग है। वोट हासिल करने के षडयंत्र के तहत लोगों को, हिन्दुओं को भ्रमित करने के लिए उन्हें इस तरह से पेश किया जा रहा है।

क्या मोदी ने शौचालय साफ किया...
मोदी के कटु आलोचक समझे जाने वाले कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि उन्होंने एक लेख देखा है जिसमें मोदी ने कहा था कि जो शौचालयों को साफ करते हैं उन्हें इसकी सफाई करने में आध्यात्मिक खुशी मिलती है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या उन्हें कभी इस तरह की खुशी का अनुभव हुआ था और शौचालय साफ किया था। 

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

मैं राजघाट से गाँधी की आत्मा बोल रहा हूँ ....




मैं राजघाट से गाँधी नहीं, 
उनकी आत्मा बोल रहा हूँ
मेरी समाधी पर वर्षो से शीश झुका रहे है
भारत के भ्रष्ट और बेईमान नेता और अपने 
काले कृत्यों में मुझे जोड़ दुःख पहुचाते हैं
जानते हुए भी की मैंने ऐसे भारत की
कभी परिकल्पना भी नहीं की थी.
आते है विश्व नेता भी जो मुझे
भारतियों से अधिक जानते है
जो सचमुच मुझसे स्नेह करते है
मेरे दर्शन को जानते है,
मुझसे प्रेरणा लेते है

क्या भारत में ऐसी कोई जगह है
जहाँ मेरी तस्वीर न छपी हो
और जहाँ मेरा निरादर न हो
यहाँ तक की सबसे अधिक काले धन की
मुद्रा पर भी मेरी ही तस्वीर छाप दी

मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ
न ही यह मेरा निवास स्थान है.
मैं एक विचारधारा हूँ जो असंख्य
लोगो के दिलो में बस्ती है
मैं प्रतिबिम्ब हूँ उन करोड़े देशवासियों का.
मेरी समाधी पर आ कर फूल
अर्पित करने वालो, कभी अपने अन्दर
झांक कर देखो, क्या कभी
तुमने उन आदर्शो को अपने जीवन
में जीने का प्रयास भी किया है, 
जिनके लिए लिए मैंने अपना
पूरा जीवन जी कर दिखलाया,
मेरा दर्शन समझने की कोशिश तो करो,
मैं भारत की आत्मा हूँ, मेरे दर्शन में ही
छिपा है भारत की समस्याओ का हल

यहाँ सत्यागढ़ के ढकोसले मत करो
दुःख होता है मेरी आत्मा को
मुझे किसी की गोली ने नहीं मारा
मारा है तो बेईमान भ्रष्ट राजनेताओ
नौकरशाहों और व्यव्सहियो ने

मेरी समाधी कोई पर्यटन स्थल नहीं
यहाँ आकर फूल मत अर्पण करो
यह भारत मेरे सपनो का भारत नहीं
अब यहाँ अहिंसा परमो धर्म नहीं
यहाँ तस्वीर मत खिचवाया करो
क्योंकि मैं तो कब का छोड़ चुका हूँ
इस राजघाट को, जन्म ले चुका हूँ
किसी और के रूप में
और तुम पूजे जा रहे हो ........

तुमने मेरे सपनो के भारत को
कुत्सित राजनेतिक चालों से 
बदल दिया है एक भ्रष्ट राष्ट्र में
अब तो मेरी तस्वीर भारतीय मुद्रा से हटा,
छाप दो उन चेहरों को जिन्होंने लूटा है
मेरे भारत की भोली भाली मासूम जनता हो
और मुझे चैन से बैठ कर पश्चाताप करने दो
की मैंने क्यों भारत को आज़ाद कराने की गलती की

विनोद पासी "हंसकमल"

( फेसबुक पर 'शब्द-शिखर' ग्रुप में विनोद पासी "हंसकमल"जी की प्रकाशित यह कविता साभार) 

रविवार, 22 सितंबर 2013

'इण्डिया टुडे' में बेटियों की मनोदशा पर तीन कविताएँ




बेटियाँ समाज की अमूल्य धरोहर हैं। इन्हें बचाकर-सहेजकर रखिये, नहीं तो सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।आज डाटर्स  डे है, यानि बेटियों का दिन। यह सितंबर माह के चौथे रविवार को मनाया जाता है। इस साल यह 22  सितम्बर को मनाया जा रहा है। गौरतलब है कि चाईल्‍ड राइट्स एंड यू (क्राई) और यूनिसेफ ने वर्ष 2007 के सितंबर माह के चौथे रविवार यानी 23 सितंबर, 2007 को प्रथम बार 'डाटर्स-डे' मनाया था, तभी से इसे हर वर्ष मनाया जा रहा है।  इस पर एक व्यापक बहस हो सकती है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस दिन का महत्त्व क्या है, पर जिस तरह से अपने देश में लिंगानुपात कम है या भ्रूण हत्या जैसी बातें अभी भी सुनकर मन सिहर जाता है, उस परिप्रेक्ष्य में जरुर इस दिन का बहुत महत्त्व है। 


आज की बेटियाँ पहले जैसी नहीं रहीं। अब वो सवाल-जवाब करने लगी हैं। प्रतिरोध करने लगी हैं। संस्कारों को जीने के साथ-साथ अपनी नियति की बागडोर भी सँभालने लगी हैं। बेटियों से संबंधित मेरी तीन कविताएँ 'इण्डिया टुडे स्त्री' के मार्च 2010 में प्रकाशित हुई थीं।यह समाज में बेटियों की विभिन्न मनोदशाओं को दर्शाती हैं। आप भी पढ़िए -
21वीं सदी की बेटी

जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है

वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।

एक लड़की

न जाने कितनी बार

टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में

हर किसी को देखती

याचना की निगाहों से

एक बार तो हाँ कहकर देखो

कोई कोर कसर नहीं रखूँगी

तुम्‍हारी जिन्‍दगी संवारने में

पर सब बेकार.


कोई उसके रंग को निहारता

तो कोई लम्‍बाई मापता

कोई उसे चलकर दिखाने को कहता

कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता

पर कोई नहीं देखता

उसकी आँखों में

जहाँ प्‍यार है, अनुराग है


लज्‍जा है, विश्‍वास है।


मैं अजन्मी

मैं अजन्मी
हूँ अंश तुम्हारा
फिर क्यों गैर बनाते हो
है मेरा क्या दोष
जो, ईश्वर की मर्जी झुठलाते हो

मै माँस-मज्जा का पिण्ड नहीं
दुर्गा, लक्ष्मी औ‘ भवानी हूँ
भावों के पुंज से रची
नित्य रचती सृजन कहानी हूँ

लड़की होना किसी पाप की
निशानी तो नहीं
फिर
मैं तो अभी अजन्मी हूँ
मत सहना मेरे लिए क्लेश
मत सहेजना मेरे लिए दहेज
मैं दिखा दूँगी
कि लड़कों से कमतर नहीं
माद्दा रखती हूँ
श्मशान घाट में भी अग्नि देने का

बस विनती मेरी है
मुझे दुनिया में आने तो दो !!!




शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन में ब्लागर दंपति आकांक्षा यादव- कृष्ण कुमार यादव सम्मानित

इंटरनेट पर हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार और ब्लागिंग के माध्यम से देश-विदेश में अपनी रचनाधर्मिता को विस्तृत आयाम देने वाले ब्लागर दम्पति कृष्ण कुमार यादव और  आकांक्षा  यादव को काठमांडू, नेपाल में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन में क्रमशः ''परिकल्पना साहित्य सम्मान'' एवं ''परिकल्पना ब्लाग विभूषण'' से नवाजा गया। नेपाल की विषम राजनीतिक परिस्थितियों के चलते मुख्य अतिथि नेपाल के राष्ट्रपति डा0 राम बरन यादव की अनुपस्थिति में यह सम्मान नेपाल सरकार के पूर्व शिक्षा व स्वास्थ्य मंत्री तथा संविधान सभा के अध्यक्ष अर्जुन नरसिंह केसी ने दिया। इस सम्मेलन में एकमात्र बाल ब्लागर के रूप में गल्र्स हाई स्कूल, इलाहाबाद की कक्षा 1 की छात्रा अक्षिता ने भी भाग लिया। 

इस अवसर पर यादव दम्पति सहित देश-विदेश के हिंदी, नेपाली, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मैथिली आदि भाषाओं के ब्लागर्स को भी सम्मानित किया गया। परिकल्पना समूह द्वारा आयोजित यह समारोह 13-15 सितम्बर के मध्य काठमांडू के लेखनाथ साहित्य सदन, सोरहखुटे सभागार में हुआ।

इस अवसर पर ’’न्यू मीडिया के सामाजिक सरोकार’’ सत्र में वक्ता के रूप में कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में न्यू मीडिया व ब्लागिंग व इसके सामाजिक प्रभावों पर विस्तृत चर्चा की, वहीं ’’साहित्य में ब्लागिंग की भूमिका’’ पर हुयी चर्चा को सारांशक रूप में आकांक्षा यादव ने मूर्त रूप दिया।

गौरतलब है कि इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं पद पर पदस्थ कृष्ण कुमार यादव एवं उनकी पत्नी आकांक्षा यादव एक लंबे समय से ब्लाग और न्यू मीडिया के माध्यम से हिंदी साहित्य एवं विविध विधाओं में अपनी रचनाधर्मिता को प्रस्फुटित करते हुये अपनी व्यापक पहचान बना चुके हैं।

(सम्मान चित्र : अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर सम्मेलन, काठमांडू (13 सितम्बर, 2013 ) में आकांक्षा यादव को ''परिकल्पना ब्लॉग विभूषण'' से सम्मानित  करते नेपाल सरकार के पूर्व मंत्री तथा संविधान सभा के अध्यक्ष अर्जुन नरसिंह केसी जी। साथ में परिलक्षित हैं- कृष्ण कुमार यादव, बेटियाँ अक्षिता व अपूर्वा, परिकल्पना के संयोजक रवीन्द्र प्रभात  और वरिष्ठ नेपाली साहित्यकार कुमुद अधिकारी।)

                                                                     (साभार प्रकाशित)

बुधवार, 11 सितंबर 2013

'दामिनी' का न्याय बनाम 'आधी-आबादी'

आज फैसले की घड़ी है। दामिनी रेप केस के अभियुक्तों को न्यायालय द्वारा सजा सुनाये जाने का महत्वपूर्ण दिन है। पर क्या वाकई यह फैसला एक मील का पत्थर साबित होगा। क्या इस फैसले के बाद आधी आबादी का 'दामिनी' जैसा हश्र नहीं होगा। भारत में एक नहीं कई दामिनियाँ हैं, जिनके दामन को रोज कलंकित किया जाता है। दिल्ली, मुंबई और राजधानियों की घटनाएँ तो खबर बनकर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं, पर दूरदराज इलाकों में भी स्थिति बहुत अच्छी  नहीं है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो भारत में हर वर्ष बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज हो  रही है। वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार के कुल 7,112 मामले सामने आए, जबकि 2010 में 5,484 मामले ही दर्ज हुए थे। आंकड़ों के हिसाब से एक वर्ष में बलात्कार के मामलों में 29.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। राजधानी दिल्ली का तो बेहद बुरा हाल है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ही आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। 2007 से 2011 की अवधि के दौरान अर्थात चार साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस मामले में दिल्ली नंबर वन रही। एनसीबी के आंकड़ों के मुताबिक देश की राजधानी लगातार चौथे साल बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में साल 2011 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए, जबकि मुंबई में 218 मामले दर्ज हुए।

राज्यों की बात करें तो मध्यप्रदेश इस मामले में सबसे ऊपर है। मप्र में रेप के सबसे अधिक 15,275 मामले दर्ज किए गए। पश्चिम बंगाल में 11,427, यूपी में 8834 और असम में 8060 मामले दर्ज किये गए। 7703 रेप केस के साथ महाराष्ट्र इस सूची में पांचवें नंबर पर है यानी कुल 51 हजार 299 बलात्कार हुए। हल ही में मुंबई में दिनदहाड़े हुए महिला पत्रकार का बलात्कार इसका ज्वलंत उदाहरण है।

मात्र दर्ज मामलों के आधार पर  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस प्रकार भारतभर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी अस्मत गंवा देती हैं। ‘विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, 'भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ वहीं महिलाओं के विकास के लिए केंद (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ट्रस्ट लॉ वोमेन द्वारा किए गए हालिया सर्वेक्षण के अनुसार भारत स्त्रियों के लिए दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश है।

बलात्कार की घटनाएँ जिस तरह बढ़ रही हैं, वह हमारे संस्कार, पारिवारिक मूल्यों, परिवेश और स्कूली शिक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। 'आधी आबादी' का सर्वप्रथम शोषण घर से ही शुरू होता है। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर बलात्कार जान-पहचान वाले लोग ही करते हैं। इसी आधार पर ‘रेप क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर’ ने दिल्ली में 2010 के शुरु से जुलाई 2011 में हुए बलात्कारों पर दर्ज एफ.आइ.आर. का गहन अध्ययन किया तो चौंकाने  नतीजे सामने आए। इसमें यह पाया गया कि 66%  बलात्कार-पीड़ित लड़कियां बीस साल की उम्र के नीचे की हैं जिनमें 22% की उम्र तो  दस साल के भी नीचे है। दूसरी ओर 67% बलात्कारी की उम्र बीस साल के ऊपर है। अधिकतर मामलों में पाया गया कि बलात्कारी मूलतः पीड़ित लड़की के जाने-पहचाने होते हैं जिनमें रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त, शिक्षक और अन्य निकट संबंधी होते हैं। अपरिचितों द्वारा बलात्कार के मामले उतने ज्यादा नहीं हैं।मसलन् 58 पीड़ितों में 51 जान-पहचान के और बाकी 7 अपरिचित होते हैं। ऐसे में बलात्कार  के मामलों की जांच में जुटे पुलिस अधिकारियों का मानना है कि ऐसे अधिकतर मामलों में आरोपी को पीड़िता के बारे में जानकारी होती है। ऐसे में कई बार यह एक क़ानूनी से ज्यादा सामाजिक समस्या बन जाती है है और ऐसे अपराधों पर नकेल कसने के लिए सिर्फ क़ानूनी ही नहीं, सामाजिक रूप से भी सशक्त पहल करनी होगी। अधिकारियों की मानें तो इनमें से अधिकांश मामले बेहद तकनीकी होते हैं। अक्सर ऐसे अपराध दोस्तों या रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं, जो पीड़िता को झूठे वादे कर बहलाते हैं, फिर गलत काम करते हैं। कई बार ऐसे अपराध अज्ञात लोग करते हैं और पुलिस की पहुंच से आसानी से बच निकलते हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि इसमें पीड़िता की रजामंदी होती है, उसे इस बात के लिए रजामंद कर लिया जाता है। पर बाद में कुछ कारणों से इसे दूसरा रूप दे दिया जाता है।

 बलात्कार सिर्फ एक शारीरिक दुष्कृत्य नहीं है, बल्कि यह समग्र नारी अस्मिता से जुड़ा  सवाल है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि बलात्कार से पीड़ित महिला बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जिसे उसने नहीं किया। 

...ऐसे में सवाल  उठना लाजिमी है कि क्या 'दामिनी' केस में सुनाया गया फैसला सिर्फ एक फैसला होगा या यह आधी आबादी की सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है।

- आकांक्षा यादव : शब्द-शिखर @ www.shabdshikhar.blogspot.com/ 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

'मजदूर' की बेटी, पर 'मजबूर' नहीं, 7 साल में हाईस्कूल, 13 साल में एमएससी

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती, वह अपना रास्ता खुद ही बना लेती है। तभी तो महज सात साल की उम्र में हाईस्कूल पास कर रिकॉर्ड बनाने वाली वंडर गर्ल के नाम से मशहूर लखनऊ की सुषमा वर्मा अब 13 साल की उम्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में मास्टर ऑफ साइंस (एमएससी) में दाखिला लेने के बाद एक बार फिर सुर्खियों में हैं। सुषमा वही होनहार लडकी है जिसने सिर्फ़ 7 साल की उम्र में 10वीं और 9 साल की उम्र में 12वीं पास कर देश भर में सुर्ख़ियाँ बटोरी थी. सुषमा ने कहा कि वह एम.बी.बी.एस. कोर्स ज्वाइन करना चाहती थी. लेकिन, 17 वर्ष की उम्र प्राप्त करने से पहले वह ऐसा नहीं कर सकती. अतः वह लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.एस-सी. कोर्स ज्वाइन कर रही है.

लखनऊ के कृष्णानगर निवासी श्रमिक तेज बहादुर वर्मा की बेटी सुषमा ने महज सात साल की उम्र में हाईस्कूल, नौ साल की उम्र में इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की है। उसने सिटी मान्टेसरी स्कूल (सीएमएस) डिग्री कॉलेज से इसी साल बीएससी की डिग्री हासिल की। अब वह तेरह साल की उम्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में एमएससी करने जा रही है। उसने एमएससी माइक्रोबायलॉजी में दाखिला लिया है। सुषमा इन दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय के दूसरे छात्रों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। उसके तमाम सहपाठी लगभग दोगुने उम्र के हैं। ऐसे में हर छात्र सुषमा से उसकी कामयाबी की कहानी सुनना चाहते हैं। छात्रों का कहना है कि सुषमा हमारे लिए एक मिसाल है, जिससे हमें चुनौतियों के बावजूद आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।

बेहद गरीब परिवार से संबंध रखने वाली सुषमा का नाम एमएससी माइक्रोबायोलॉजी में दाखिले की कटऑफ सूची में आने के बाद एडमिशन फीस भरने में अड़चने आईं। लेकिन होनहार सुषमा की मदद के लिए कई हाथ आगे बढ़े। लखनऊ विश्वविद्यालय के चीफ प्राक्टर डॉ़ मनोज दीक्षित का कहना है कि सुषमा किसी चमत्कार से कम नहीं। ऐसे में समाज की जिम्मेदारी बनती है कि इसकी हर तरह से मदद की जाए। उन्होंने बताया कि गीतकार जावेद अख्तर और अमेरिका में माइक्रोसॉफ्ट में कार्यरत अनिवासी भारतीय रफत सरोस ने सुषमा की पढ़ाई में आने वाले खर्च में मदद का भरोसा दिया है। 

सुषमा के पिता तेज बहादुर कहते हैं कि घर की माली हालत ठीक न होने की वजह से मुझे अपनी बेटी को पढ़ाने में दिक्कतें आ रही थीं, लेकिन मैं उन सभी लोगों का बहुत आभारी हूं जिन्होंने मदद के लिए हाथ बढ़ाया है। बहादुर ने कहा कि बिना लोगों की मदद के मैं अपनी बेटी की फीस भरकर उसे एमएससी में दाखिला नहीं दिला सकता था। सुलभ इंटनेशनल के प्रमुख बिंदेश्वरी पाठक ने भी सुषमा की पढ़ाई में मदद के लिए पांच लाख रुपये देने की बात कही है। अगले सप्ताह वह स्वयं लखनऊ आकर सुषमा के पिता को पांच लाख रुपये देंगे।

सुषमा कहती है कि लखनऊ विश्वविद्यालय से माइक्रोबायलॉजी के बाद पीएचडी करना चाहती हूं और 18 साल की होने पर सीपीएमटी की परीक्षा दूंगी। घर की हालत देखते हुए अभी तक यह सब बहुत मुश्किल लग रहा था, लेकिन लोगों की मदद से उम्मीद जगी है कि मैं अपना मुकाम हासिल कर लूंगी। अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़ने वाली सुषमा को बी एस अब्दुर्रहमान विश्वविद्यालय, चेन्नई की तरफ से मुफ्त एमएससी की पढ़ाई का भी ऑफर मिला है।

शनिवार, 31 अगस्त 2013

अंग्रेजी अख़बारों में 'हिन्दी ब्लागिंग' की चर्चा

अभिव्यक्ति के तमाम साधन हैं, इनमें पत्र-पत्रिकाओं से लेकर ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स तक शामिल हैं। कोई भी माध्यम अन्य  माध्यमों की उपेक्षा नहीं कर सकता। आज हर माध्यम एक-दूसरे का परस्पर पूरक बन चुका है। हिंदी अख़बारों के लिए यह पहले से ही कहता जाता  रहा है कि वे अंग्रेजी से जुडी चीजों को भी उतना ही स्थान देते हैं। ..पर अब प्रतिष्ठित अंग्रेजी अख़बार भी हिंदी से जुडी चीजों को हाथों-हाथ ले रहे हैं। अंग्रेजी अख़बारों में हिंदी ब्लागिंग की भी चर्चा हो रही है।



NET savvy Krishna Kumar Yadav and his wife Akanksha have been contributing to literature through blogging for years now Last year the couple was awarded by the CM with ‘awadh samman’ for new mdeia blogging and ‘blogger of the decade’ award.

ALLAHABAD: The net savvy couple Krishna Kumar Yadav and his wife Akanksha Yadav who have carved a nicha in new media of creativity – blogging – have been selected for International awards ‘Parikalpana Sahitya Samman’ and ‘Parikalpana Blog Vibhusan Award’ respectively by Parikalpana Group for their contributions to literature through blogging.

The coveted awards would be conferred on them during the ‘International Blogging Conference’ to be held on September 13-14 in Rajbhawan at Kathmandu, Nepal. KK Yadav is employed as director postal services in Allahabad region.

Last year the couple was awarded by chief minister Akhilesh Yadav with ‘Awadh Samman’ for new media blogging and ‘Blogger of the decade’ award on completion of 10 years of Hindi Blogging.

“I entered the field of blogging in 2008 with ‘Shabd Srijan Ki or’ and ‘Dakia Dak Laya’ while Akansha started blogging with ‘Shabd Shikhar’ in the same year. Within months, we started receiving response from people across the globe,” said KK Yadav.

The couple’s blogs have also motivated a number of people to enter the field of blogging and provide new dimension to Hindi blogging through their literary creativity.

“My blogs focus on social issues, heart touching poems and informative research articles whereas those of Akanksha touch the issues relating to women, child welfare and society and her creations reflect women empowerment,” added Yadav.

The creations of this couple are published regularly in various reputed papers, magazines and on internet in web magazines. Six books of Krishna Kumar Yadav have also been published, which include collections of poetry and essays, a book on 150-years of India Post and non-fictional work, ‘Krantiyagya: 1857-1947 ki Gatha’. A children book, ‘Jungle me cricket’ is also authored by Yadav.

A creation of Akanksha – ‘Chaand par pani’ – has been published. “It is a proud moment for me and my family members. I started writing glogs to express my literary creativity and am happy that now my blogs are being viewed by hundreds of readers from across the globe,” said Akansha Yadav.

 A number of national as well as international bloggers are expected to be present in this conference to discuss social aspects of new media such as blog, website, webportal and social networking sites.

The couple’s daoughter Akshitaa (Pakhi) was in 2011 awarded ‘Best baby blogger’ award for her glog ‘Pakhi ki duniy’ and is also the youngest ‘National Child Award winner’ of India.
  
(Courtesy: Hindustan Times, 24 August 2013)

(It may be also read at http://activeindiatv.com/miscellaneous/11864-blogger-couple-set-to-receive-intl-award)

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

'सम्मान' की युगल ख़ुशी : ”परिकल्पना साहित्य व ब्लॉग विभूषण सम्मान”

हिंदी ब्लॉगिंग के माध्यम से समाज और साहित्य के बीच सेतु निर्माण के निमित्त मुझे (आकांक्षा यादव) ''परिकल्पना ब्लॉग विभूषण सम्मान'' और पतिदेव कृष्ण कुमार यादव जी को ''परिकल्पना साहित्य सम्मान'' के लिए चुना गया है। यह सम्मान 13-14 सितंबर 2013 को काठमाण्डू में आयोजित "अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन" में प्रदान किया जायेगा। इन सम्मान के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र, श्री फल, पुस्तकें अंगवस्त्र और एक निश्चित धनराशि प्रदान किए जाएंगे। इस समारोह में अन्य ब्लागर्स और साहित्यकारों को भी सम्मानित किया जाएगा .....इस चयन के लिए रवीन्द्र प्रभात जी और उनकी पूरी टीम का बहुत-बहुत आभार !!


(इस सम्मान को विभिन्न प्रतिष्ठित अख़बारों ने भी भरपूर कवरेज दिया, उन सभी का आभार। आप भी इन्हें पढ़ सकते हैं।)


हिंदी ब्लॉगिंग के माध्यम से समाज और साहित्य के बीच सेतु निर्माण के निमित्त चर्चित  ब्लागर एवं इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ कृष्ण कुमार यादव और उनकी पत्नी आकांक्षा यादव को क्रमशः ”परिकल्पना साहित्य सम्मान” व  ”परिकल्पना ब्लॉग विभूषण सम्मान” के लिए चुना गया है। यह सम्मान 13-14 सितंबर 2013 को नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के राजभवन में आयोजित ‘अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन‘ में प्रदान किया जायेगा। इन सम्मान के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र, श्री फल, पुस्तकें अंगवस्त्र और एक निश्चित धनराशि प्रदान किए जाएंगे। 

     गौरतलब है कि यादव दंपति एक लम्बे समय से साहित्य और ब्लागिंग से अनवरत जुडे़ हुए हैं। अभी पिछले वर्ष ही इन दम्पति को उ.प्र. के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा न्यू मीडिया ब्लागिंग हेतु ”अवध सम्मान” और हिन्दी ब्लागिंग के दस साल पूरे होने पर ”दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लागर दम्पति” सम्मान से भी नवाजा गया था। कृष्ण कुमार यादव जहाँ “शब्द-सृजन की ओर“ (www.kkyadav.blogspot.com/) और “डाकिया डाक लाया“ (www.dakbabu.blogspot.com/) ब्लॉग के माध्यम से सक्रिय हैं, वहीं आकांक्षा यादव “शब्द-शिखर“ (www.shabdshikhar.blogspot.com/) ब्लॉग के माध्यम से। इसके अलावा इस दंपत्ति द्वारा सप्तरंगी प्रेम, बाल-दुनिया और उत्सव के रंग ब्लॉगों का भी युगल संचालन किया जाता है। कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव ने वर्ष 2008 में ब्लॉग जगत में कदम रखा और 5 साल के भीतर ही विभिन्न विषयों पर आधारित दसियों ब्लॉग  का संचालन-सम्पादन करके कई लोगों को ब्लागिंग की तरफ प्रवृत्त किया और अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ ब्लागिंग को भी नये आयाम दिये। कृष्ण कुमार यादव के ब्लॉग सामयिक विषयों, मर्मस्पर्शी कविताओं व जानकारीपरक, शोधपूर्ण आलेखों से परिपूर्ण है; वहीं नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रुचि रखने वाली आकांक्षा यादव अग्रणी महिला ब्लॉगर हैं और इनकी रचनाओं में नारी-सशक्तीकरण बखूबी झलकता है। गौरतलब है कि इस ब्लागर दम्पति की सुपुत्री अक्षिता (पाखी) को ब्लागिंग हेतु 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) ब्लॉग के लिए सबसे कम उम्र में 'राष्ट्रीय बाल  पुरस्कार' प्राप्त हो चुका है। अक्षिता को परिकल्पना समूह द्वारा श्रेष्ठ नन्ही ब्लागर के ख़िताब से भी सम्मानित किया जा चुका है। 

    लगभग समान अभिरुचियों से युक्त इस दंपति की विभिन्न विधाओं में रचनाएँ देश-विदेश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर निरंतर प्रकाशित होती रहती है। कृष्ण कुमार यादव की 6 कृतियाँ ”अभिलाषा” (काव्य संग्रह), ”अभिव्यक्तियों के बहाने” व ”अनुभूतियाँ और विमर्श” (निबंध संग्रह), इण्डिया पोस्ट: 150 ग्लोरियस ईयर्ज (2006) एवं ”क्रांतियज्ञ: 1857-1947 की गाथा” (2007), ”जंगल में क्रिकेट” (बालगीत संग्रह) प्रकाशित हैं, वहीं आकांक्षा यादव की एक मौलिक कृति ”चाँद पर पानी” (बालगीत संग्रह) प्रकाशित है।








लोकस्वामी (पाक्षिक, 1-15 सितम्बर 2013)

विस्तृत रूप में सम्मानों की सूची परिकल्पना पर देख सकते हैं-

(1) श्री गिरीश पंकज (ब्लॉग: सद्भावना दर्पण ), रायपुर (छतीसगढ़) 
(२) श्रीमती आकांक्षा यादव (ब्लॉग:सप्तरंगी प्रेम ), इलाहाबाद (उ. प्र.)


श्री के के यादव (ब्लॉग : शब्द सृजन की ओर ), इलाहाबाद  (उ. प्र.)
श्री के के यादव का चयनआलेख  वर्ग से किया गया है ।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

'ब्लॉग' बनाम 'फेसबुक' की बहस के बीच एक बार फिर से 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन'


फेसबुक के उद्भव ने हिंदी-ब्लागिंग को दोराहे पर खड़ा कर दिया। तमाम लोगों ने फेसबुक को हिंदी ब्लागिंग के समक्ष खतरे से जोड़ दिया। तमाम ब्लागर्स फेसबुक पर न सिर्फ सक्रिय हुए, बल्कि उसी में रमते गए। एक बार फिर से वही सवाल-जवाब कि हिंदी ब्लोग्स पर गंभीर  पोस्ट नहीं आती हैं और यदि आती भी हैं तो उन्हें उचित रिस्पांस (टिप्पणियां) नहीं मिलता। फेसबुक के लाइक और कमेंट्स की बहार ने कईयों को हिंदी ब्लागिंग से फेसबुकिया बना दिया। कम शब्दों में फेसबुक स्टेटस अपडेट कर शाम ताक वाह-वाही मिलने के क्रम ने कईयों को दिग्भ्रमित भी कर दिया। तमाम चर्चित ब्लॉग एक लम्बे समय से अपडेट नहीं हुए हैं। धडाधड बनने वाले कम्युनिटी ब्लॉगों पर सामान्यतया एक ही पोस्ट दिखती हैं। जो कल तक ब्लॉग को देखे बिना बिस्तर पर सोने नहीं जाते थे, उनके लिए ब्लॉग 'अतीत' का स्वप्न बनकर रह गया। 


पर इन सबके बीच भी हिंदी ब्लागिंग से गंभीर रूप से जुड़े हुए लोगों की संख्या कम नहीं हुई। आज भी ब्लॉग पर पोस्ट आती हैं, पढ़ी जाती हैं, चर्चा का विषय बनती हैं, अख़बार इन्हें अपने स्तंभों में ससम्मान स्थान देते हैं। यही क्यों फेसबुक पर नेटवर्क ब्लागिंग के माध्यम से भी ब्लागर्स वहां अपने को अपडेट कर रहे हैं और अपने ब्लॉग-पाठकों की संख्या बढ़ा रहे हैं। सही रूप में देखा जाये तो ब्लॉग और फेसबुक एक दुसरे के विरोधी न होकर परस्पर-पूरक हैं, पर कई लोग इस बात को बिना समझे अभिव्यक्ति के इन दोनों माध्यमों को प्रतिदंधी बनाकर खड़ा कर देते हैं। ...कई ब्लागर्स तो इसी भ्रम में फेसबुक की तरफ उन्मुख हुए, और अपने ब्लॉग को एक लम्बे समय से अपडेट करना भूल ही गए।

 ब्लॉग बनाम फेसबुक का जिक्र इसलिए भी समीचीन लगा, जब एक बार फिर से अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन के बहाने ब्लॉग की चर्चा होने लगी। आज भी हिंदी ब्लागिंग में ऐसे लोग हैं, जो इस माध्यम को  उसकी ऊँचाइयों तक पहुँचाना चाहते हैं। बिना किसी लाग-लपेट के लगातार तीसरे साल इस बार अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन का आयोजन आगामी 13-14 सितंबर 2013 को काठमाण्डू में किया जा रहा है और इसके पीछे हैं लखनवी तहजीब से जुड़े रवीन्द्र प्रभात। सौभाग्यवश हिंदी ब्लागिंग 2013 में अपने दस साल पूरा कर चुका  है, ऐसे में इस सम्मलेन की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। इस अवसर पर हिंदी और नेपाली ब्लॉग से जुड़े तमाम लोगों को विभिन्न श्रेणियों में सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है।  परिकल्पना (http://www.parikalpnaa.com/)  पर इसे जाकर विस्तृत रूप में देखा जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन, काठमांडू इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि कईयों ने हिंदी ब्लॉग को गुजरे ज़माने की चीज  बताते हुए और इसे फेसबुक से तुलना करके, इसे हाशिये पर धकेलना का प्रयास किया, ऐसे में इस प्रकार का  सम्मलेन न सिर्फ हिंदी ब्लागिंग से जुड़े लोगों के बीच स्फूर्ति का कार्य करेगा, बल्कि उन्हें एक साथ मिल-बैठकर नए माध्यमों और चुनौतियों के बीच हिंदी ब्लागिंग का सुनहरा भविष्य सुनिश्चित करने का भी भरपूर अवसर देगा .....!!