कालेज लाइफ का नाम सुनते ही न जाने कितने सपने आँखों में तैर आते हैं। तमाम बंदिशों से परे वो उन्मुक्त सपने, उनको साकार करने की तमन्नायें, दोस्तों के बीच जुदा अंदाज, फैशन-ब्रांडिंग और लाइफ स्टाइल की बदलती परिभाषायें....और भी न जाने क्या-क्या। कालेज लाइफ में मन अनायास ही गुनगुना उठता है- आज मैं ऊपर, आसमां नीचे।
पर ऐसे माहौल में यदि शुरूआत ही बंदिशों से हो तो मन कसमसा उठता है। दिलोदिमाग में ख्याल उठने लगता है कि क्या जींस हमारी संस्कृति के विपरीत है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि मात्र जींस-टाप पहन लेने से वो प्रभावित होने लगती है? क्या जींस न पहनने भर से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं। दरअसल कानपुर के कई नामी-गिरामी कालेजों ने सत्र प्रारम्भ होने से पहले ही छात्राओं को उनके ड्रेस कोड के बारे में बकायदा प्रास्पेक्टस में ही फरमान जारी किया है कि वे जींस और टाप पहन कर कालेज न आयें। इसके पीछे निहितार्थ यह है कि अक्सर लड़कियाँ तंग कपड़ों में कालेज आती हैं और नतीजन ईव-टीजिंग को बढ़ावा मिलता है। स्पष्ट है कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। अतः यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को दरिंदों की निगाहों से बचाएं।
आज के आधुनिकतावादी एवं उपभोक्तावादी दौर में जहाँ हमारी चेतना को बाजार नियंत्रित कर रहा हो, वहाँ इस प्रकार की बंदिशें सलाह कम फरमान ज्यादा लगते हैं। समाज क्यों नहीं स्वीकारता कि किसी तरह के प्रतिबंध की बजाय बेहतर यह होगा कि अच्छे-बुरे का फैसला इन छात्राओं पर ही छोड़ा जाय और इन्हें सही-गलत की पहचान करना सिखाया जाय। दुर्भाग्य से कालेज लाइफ में प्रवेश के समय ही इन लड़कियों के दिलोदिमाग में उनके पहनावे को लेकर इतनी दहशत भर दी जा रही है कि वे पलटकर पूछती हैं-’’ड्रेस कोड उनके लिए ही क्यों ? लड़के और अध्यापक भी तो फैशनेबल कपड़ों में काॅलेज आते हैं, उन पर यह प्रतिबंध क्यों नहीं?‘‘ यही नहीं तमाम काॅलेजों ने तो टाइट फिटिंग वाले सलवार सूट एवं अध्यापिकाओं को स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। शायद यहीं कहीं लड़कियों-महिलाओं को अहसास कराया जाता है कि वे अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। देश में सत्ता शीर्ष पर भले ही एक महिला विराजमान हो, संसद की स्पीकर एक महिला हो, सरकार के नियंत्रण की चाबी एक महिला के हाथ में हो, यहाँ तक कि उ0 प्र0 में एक महिला मुख्यमंत्री है, पर इन सबसे बेपरवाह पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता।
सवाल अभी भी अपनी जगह है। क्या जींस-टाप ईव-टीजिंग का कारण हैं ? यदि ऐसा है तो माना जाना चाहिए कि पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। ग्रामीण अंचलों में छेड़खानी व बलात्कार की घटनाएं तो किसी पहनावे के कारण नहीं होतीं बल्कि अक्सर इनके पीछे पुरुषवादी एवं जातिवादी मानसिकता छुपी होती है। बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार भला किसे नहीं याद होगा ? हाल ही में दिल्ली की एक संस्था ’साक्षी’ ने जब ऐसे प्रकरणों की तह में जाने के लिए बलात्कार के दर्ज मुकदमों के पिछले 40 वर्षों का रिकार्ड खंगाला तो पाया कि बलात्कार से शिकार हुई 70 प्रतिशत महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनीं थीं।
स्पष्ट है कि मारल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा लड़कियों-महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि लड़कियां अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं। मानों लड़कियां सेक्स आब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टाप में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टाप में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है।
35 टिप्पणियां:
ईव-टीजिंग के बहाने एक गंभीर विवेचन करती पोस्ट.वैसे भी आपकी हर पोस्ट मुद्दों को बारीकी से उठाती है.
आपने बहुत सही लिख कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। दरअसल यह समस्या किसी एक शहर या कॉलेज की नहीं है, हर कहीं दोष लड़कियों को ही दिया जाता है. पित्रसत्तात्मक समाज अपने दोषों की तरफ नहीं देखता....एक सही विषय पर आपने बहस आरंभ की है...बधाई.
मैं भी कानपुर का हूँ. इस विषय पर अक्सर अख़बारों में पढता रहता हूँ. यहाँ पर इस मुद्दे पर बेबाकी से व्यक्त आपकी सारगर्भित पोस्ट देखकर अच्छा लगा. आपके विचारों से सहमत हूँ.
आकांक्षा जी मैं आपकी बात से सहमत हूँ...वाकई हमारे पुरुष प्रधान समाज में दोष सदैव नारी का ही होता है...आपने सही मुद्दा उठाया है|
भाई हमे पता नही.....
aapne achchha mudda uthaya aur ek achchhi post likhi hai
अभी एक दिन अखबार में यह खबर पढ़ी और तभी दिमाग में यह विचार कौंधा था कि यह कैसा समस्या का निदान? क्या मात्र जींस टॉप पर प्रतिबन्ध और मोबाइल पर प्रतिबन्ध उन लड़कों को रोक पायेगा जो महज लफ्फाजी में किसी भी लड़की को छेड़ कर जाने कौन सा सुख प्राप्त करते हैं. ऐसे बीमार युवाओं का यह उपचार है कि महिलाओं और युवतियों को प्रतिबन्धित करो. फिर तो महिलाओं का घर से निकलना ही बंद कर देना चाहिये तो सारे इस श्रेणी के अपराध रुक जायेंगे. जाने किसकी सोच का नतीजा है यह प्रतिबन्ध. होना तो यह चाहिये कि ऐसे शहोंदों को पकड़कर पीटो और वह अपराध की श्रेणी में नहीं जायेगा-देखो, फिर कौन हिम्मत जुटाता है छेड़छाड़ की.
बेहद अफसोसजनक निर्णय है. इसका पुरजोर विरोध होना चाहिये या फिर हर कालेज की चाहे वो युवकों का हो या युवतियों का, यूनिफॉर्म प्रिस्क्राइब करो. हालांकि इससे कुछ होना जाना नहीं है.
विचारणीय आलेख.
beshak is tarah ka dress code ka concept ek mazaak hai...ye un jagaho par hota hai jahaan prashahshan pani asal zimmedari nahi nibha saktaa...mere college me aisi koi roktok to nahi,par ladkiyon ka ek in-time hota hai jisse pehle unko hostel aanahota hai...ye bada atpata hai kyonki kai baar ye 5.30 baje rehta hai...is tarah ki bandishe behad bachkaani hai....
zara saa svasth maahol paida karna aisi koi mushkil baat nahi,wo bhi jahandesh ke padhne likhne vaale yuva maujood ho...
dress code ho to to indescent exposure rokne tak seemit rahe,jeans jaise paridhaan par manahi sachmuch hasyprad hai...ab zaroorat hai ki ladkiyaan iska poornatah virodh kare
शब्द शिखर ब्लॉग का आलेख समाचार पत्र अमर उजाला पर पढ़ कर बहुत अच्छा लगा , हार्दिक बधाइयां | शब्द शिखर की आकांक्षा [ओं] का भविष्य ऐसे ही बहुत से 'उजालों ' भरा हो :की शुभ कामनाओं सहित !
आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
आपने बिल्कुल सही फ़रमाया और एक अच्छी मुद्दा पर लिखने के लिए बधाई! बहुत बढ़िया लगा!
ye to sahi hai ki hamara najariya apne liye alag or dusare ke liye usi mudde par alag hota hai.kyonki hamare pass lene ka taraju alag or dene ka taraju alag jo hai. vaise dress garima purn to honi hee chahiye, ho chahe koi bhee. sach hai ki nahin narayan narayan. your blog bahut hee khubsurat,shabdo kee tarah.
अकांक्षाजी आपको अपने ब्लॉग पर देखकर बहुत अच्छा लगा और इससे भी कई गुना ज्यादा अच्छा तब लगा, जब आपका यह पोस्ट पढ़ा। विचारणीय पोस्ट।
इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।
काफी सही मुद्दा है सकारत्मक सोच .......
बहुत ही सुलझा हुआ लिखा है............अच्छा लगा...
बहुत सही
"जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें।"
सही बात
नमस्कार स्वीकार करें
आंकाक्षा जी,
यह बात कानपुर की ही नही हमारी सामाजिक / कानूनी व्यव्स्था को दर्शाती है। जहाँ केवल नारी होना ही समस्या हो जाता हो, वहां ऐसी किसी तर्कसंगतता और लिंगभेद से परे समन्याय की अपेक्षा रखना भी बेकार।
विचारोत्तजक लेख जो अपनी भूमिका में खरा उतरता है, और अपने पाठक को किसी निर्णय पर नही भी पहुँचा पाया तो भी बैचेन जरूर कर देता है।
खुदा करे ये बैचेनी को करार मिले
किसी दिन।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
व्यवस्था विवशता बन चुकी है,
पर इसे बदलना तो होगा ही।
अच्छा लेख।
एक सही विषय-वस्तु को उठाती सार्थक पोस्ट.
नारी ब्लॉग पर इसी लेख पर अजय कुमार झा said...
आकांक्षा जी..बहुत ही सामयिक और सटीक मुद्दा उठाया...मुझे दुःख इस बात का है की ऐसा लखनऊ में हुआ है..मैं खुद लखनऊ में काफी समय गुजार चुका हूँ ..और मुझे उस समय की याद है जब वहाँ तहजीब की कोई बात हुआ करती थी....अब बात करें ड्रेस कोड की..बिलकुल ही वाहियात और बेहूदा निर्णय है..किसी को ये कहना की मोबाईल ले कण ना आओ..ये पहन कर ना आओ..गलत है..यदि आपको लगता है की सचमुच उनके ऐसा पह्नेंसे ..फोन लाने से कुछ नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.. तो ठीक है की एक पल को मान भी लें..तो आप दीजिये ना ऐसी शिक्षा की सब उस दिशा में सोचने लगें..बल्कि मुझे तो कई बार जींस ज्यादा सुरक्षित लगी है..
सवाल कपडों का नहीं है मानसिकता का है..और कमाल की बात है की वो नहीं बदलने को तैयार है..किसी की बेहेन बेटी क्या पहनती है..फोन रखती है..तो पहला अधिकार उस युवती का खुद का..फिर दूसरा उसके अभिभावकों का है..किसी भी तीसरे को कोई अधिकार नहीं है..दरअसल ये सारा कसूर कुछ उन ठेक्देदारों का है जिन्होंने स्वम्भू होकर चरित्र निर्माण का ठेका उठा लिया है....यदि ऐसा ही है तो आप ये बात महिला पुलिस अधिकारी..महिला सैनिकों ..आदि से कह के देखें..आपको पता चल जाएगा..
लेकिन इस और ऐसे सभी मुद्दों पर सबसे ज्यादा दुखद मुझे लगता है महिला समाज की चुप्पी..आखिर क्या वजह है की इन मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दा बना कर ..पत्रों के माध्यमों से...रैलियों से..सम्पादक के नाम पत्रों से..और हस्ताक्षर अभियानों से सत्ता के शीर्ष पर बैठे बहरे लोगों के कानों तक पहुंचाते..
एक आम इंसान के रूप में मैं ऐसा ही सोचता हूँ...
June 17, 2009 11:27 AM
(Courtesy:http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/06/blog-post_16.html)
Priya said at Nari Blog...
vastra apraadh ko janm nahi dete. vyakti ke haalaat , soch aur mansikta use aprathi banati hain...Stri ke prati dohri maapdand varsho se chale aa rahe hain... ye galat hain ....inhe badalna hoga aur badal bhi rahe hain.....
Jaha tak dress code ki baat hain...un mahilaon ke saath bhi utpeedan aur shoshan hota hain jo sir se paav tak dhaki rahti hain...
Lekin iske liye sirf purusho ko jimmedaar tharana galat hi hoga...waja ye hain.... ki faishon T.V se prabhavit hokar.. . ramp pe kisi model ki dress dekhkar ya phir cinema mein abhinetriyon ke paridhano se prabhavit hokar waise paridhano ko school, college , bazaar ya phir samajit karykramo mein shirkat karna.....main samjhati hoon ki ...ek mahila ke prati aapradh ko dawat dene jaisa hi hota hain....kyoki mansikta ek din mein nahi badalti...... saawdhani hi suraksha hain........... Umeed karti hoon ki aap log sahmat honge
June 17, 2009 11:12 PM
लवली कुमारी / Lovely kumari said at Nari Blog...
दुर्भाग्यपूर्ण हैं ..हम कट्टर पंथियों के समाज में रह रहें हैं, अब यह धारणा मजबूत होती जा रही है .. जाने आने वाले १० सालों में क्या होगा?
मन कड़वाहट से भर जाता है यह सब देख सुनकर.
Mired Mirage said at Nari blog...
क्या कहा जाए? कड़वाहट इतनी होती है कि बस! देखती जाइए, पाबंदियाँ बढ़ेंगी ही घटेंगी नहीं। जरा कुछ पाबंदियाँ, कायदे कानून पुरुष पर थोपने का साहस तो कोई दिखाए।
घुघूती बासूती
June 16, 2009 6:37 PM
sanjaygrover said on Chokher-Bali...
अश्लीलता को लेकर एक और मजेदार तथ्य यह है कि बढ़ते-बदलते समय के साथ-साथ इसको नापने-देखने के मापदंड भी बदलते जाते हैं। 1970 में जो फिल्म या दृश्य हमें अजीब लगते थे, अब नहीं लगते। आज बाबी पर उतना विवाद नहीं हो सकता, जितना ‘चोली के पीछे’ पर होता है। आज साइकिल, स्कूटर, कार चलाती लड़कियां उतनी अजीब नहीं लगतीं, जितनी पांच-दस साल पहले लगती थीं। मिनी स्कर्ट के आ जाने के बाद साधारण स्कर्ट पर एतराज कम हो जाते हैं।
लेकिन एक अर्ज़ आंकाक्षा जी से भी करुंगा कि यह ‘‘मां-बहिन-बेटी-देवी’’ वाले चिंतन से कोई फायदा होना होता तो अब तक हो गया होता। देवताओं की भी जब नीयत खराब होती है तो वे पसंदीदा महिलाओं के पतियों का रुप धर परनारियों/ऋषि-पत्नियों से समागम कर लेते हैं (इंद्र-अहिल्या प्रसंग)।
June 16, 2009 7:21 PM
शोभना चौरे said on Chokher-Bali...
dress code se koi fark nhi pdta ldko ki vikrat mansikta par .1970 -73me jab ham school coleg jate the tab bhi ldko ki chedkhanni utni hi thi jitni kiaaj hai .ham to school me slwar kameej aur coleg me sadi phnkar jate the aur dono kndho par palla hota tha .jab tk ghar ki gli me n phuch jaye tb tk sans atki rhti thi .
June 16, 2009 10:59 PM
श्याम कोरी 'उदय' said on Chokher-Bali...
... प्रभावशाली व प्रसंशनीय लेख है, .... छेडछाड-छींटाकशी की घटनाएँ तो होते रहती हैं इसके पीछे पहनावे को दोष देना उचित नहीं है ! ... साथ-ही-साथ यह भी अत्यंत आवश्यक है कि पहनावे में फूहडपन व अश्लीलता का समावेष न हो तो मान-मर्यादा प्रभावी हो जाती है !!!!!
June 17, 2009 11:18 AM
डॉ .अनुराग said on Chokher-Bali...
ये सब अपनी फ़्रसटेशन निकालने के तरीके है...बीमार दिमाग के ..उन्हें अहमियत ही मत दीजिये....
June 17, 2009 1:59 PM
"चोखेरबाली" और "नारी" ब्लॉग से साभार इन टिप्पणियों को मैंने यहाँ पर पेस्ट किया है.इरादा बस इतना है की आकांक्षा जी द्वारा उठाये गए मुद्दे "ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड" पर हो रही बहस और विश्लेषण को एक जगह रखा जा सके. आशा है की आप सभी को मेरा यह आईडिया पसंद आयेगा.
सादर,
रश्मि सिंह
@ Rashmi !
Its nice idea that u consolidated the whole things at a place.Eve-teasing & Dress-code is matter of open discussion now.
NICE POST.
आपने सामयिक मुद्दे पर
बहुत ही सशक्त तरीके से लिखा है !
यह एक तरीके का तुगलकी फरमान ही लगता है !
देखा जाए तो लड़कियां जींस में स्वयं को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं ! उनके अन्दर आत्म-विश्वास भी ज्यादा आ जाता है साथ ही हर तरीके का काम करने की सहूलियत भी रहती है .. चाहे रुपये-पैसे रखने हों ... चाहे भाग-दौड़ करनी हो ... चाहे स्कूटी पर बैठना अथवा चलाना हो !
मैं एक और बात अवश्य कहना चाहूँगा की "ड्रेस कोड" से ज्यादा जरूरी "ड्रेस सेंस" जरूरी है ! अगर शालीन तरीके से आपने सलवार सूट या साड़ी नहीं पहनी है तो वो भी अश्लील लग सकती है !
इसलिए मेरे ख्याल से कपडे पहनने का सऊर भी बहुत जरूरी है !
अच्छे लेखन पर बधाई !
आज की आवाज
आपके विचारों से सहमत हूँ!!!
i am reading your blog first time. i have read all comments on your 'eve teasing and dress code'. i have noticed that you have kept only those comments which say "very good', 'good', 'you are right' i hope you are not in mood to listen any other aspect of the problem. but you must agree that every problem have two sides and both are to be looked into to clear it.
एक सही विषय-वस्तु को उठाती सार्थक पोस्ट.
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