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मंगलवार, 6 जनवरी 2009

सिमटता आदमी

सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी0 वी0 चैनलों की निगाह से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चौंक उठता है
कालबेल की हर आवाज पर
मानो खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !!

57 टिप्‍पणियां:

P.N. Subramanian ने कहा…

कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !
बिल्कुल सही स्थिति. बहुत ही सुंदर रचना. आभार.
http://mallar.wordpress.com

KK Yadav ने कहा…

आज के मानवीय व्यवहार को चित्रित करती उत्कृष्ट कविता.

Bahadur Patel ने कहा…

सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
bahut thik likha hai aapane.
badhai.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

चौंक उठता है
कालबेल की हर आवाज पर
मानो खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !!...sarahniy prastuti.

Bhanwar Singh ने कहा…

Bada sundar blog hai apka.apki kalam men bhi usi roop men dhar hai.

बेनामी ने कहा…

भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
...Yadi samay rahte manav nahi cheta to manvata hi khatre men pad jayegi.

सीमा सचदेव ने कहा…

सही कहा आपने आदमी कितना सिमटता जा रहा है ,
न केवल अपने आप मे बल्कि विचारो और मे भी |
कितना दूर हो रहा है आदमी अपने ही दिल से ,भावनाओ से......
सुन्दर रचना के लिए बधाई

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत प्रभाव शाली रचना...वाह...आज के हालात की सच्ची तस्वीर दिखाती हुई...हम कितने अजीब होते जा रहे हैं...अपने ही खोल में सिमटे सहमे से...
नीरज

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

हाँ सही लिखा आपने.....ये तो हम सब की आवाज़ है....!!

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

सही कहा आपने आदमी कितना सिमटता जा रहा है न केवल अपने आप मे बल्कि विचारो और मे भी |कितना दूर हो रहा है आदमी अपने ही दिल से,भावनाओ से......
सुन्दर रचना के लिए बधाई!!!

प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें

ss ने कहा…

टी0 वी0 चैनलों की निगाह से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज"

सही कहा आपने| हम सभी शायद ऐसी ही जिंदगी जीने लगे हैं| अच्छी कविता के लिए बधाई आपको|

रजनीश ने कहा…

यज़शिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
भुञ्जते ते त्व अघं पापा ये पचन्त्यात्मकारनात् ।।

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

सुंदर कविता बहुत अच्छी है आपके भावो की सटीक अभिव्यक्ति
प्रदीप मानोरिया
09425132060

Vinay ने कहा…

शब्द-शब्द प्रभावशाली!

---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें

सुशील दीक्षित ने कहा…

आप अच्छा लिखती हैं । आज समाज में हर व्यक्ति मशीन की तरह बस लगा हुआ और मानव में जो मूलभूत गुण होते हैं उनका ह्रास होता जा रहा है ।

आज के समाज पर दो लेने अर्ज है

" आज समाज की रफ्तार तेज है या दौड़ अंधी है ।
गरीब मर रहा मंहगाई से और रहीसों की मंदी है ॥ "

सविनय

सुशील दीक्षित

शगुफ्ता नियाज़ ने कहा…

bahut thik likha hai aapane.

Dr. Sanjay Kumar ने कहा…

आदमी कितना सिमटता जा रहा है ,
न केवल अपने आप मे बल्कि विचारो और मे भी. exactly

Ashutosh ने कहा…

bahut thick likha hai aapne ,dhanyawaad.

vijay kumar sappatti ने कहा…

bahut sundar abhivyakti .. aaj ki zaindagi ki sachai

poori kavita ,bhavnao ka mishran hai ..

badhai ..


vijay
Pls visit my blog for new poems:
http://poemsofvijay.blogspot.com/

Unknown ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है. आदमी बौना होता जा रहा है या अपने इर्द-गिर्द बनी दीवारों को और ऊंचा करता जा रहा है, या दोनों काम साथ-साथ कर रहा है. जो भी हो, ईश्वर की यह उत्कृष्ट रचना, मनुष्य, अपने रचनाकार को निरंतर शर्मिंदा कर रहा है.

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाह.. वाह.. अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें..

Jayshree varma ने कहा…

आपकी रचना पढी..... बहुत मार्मिक स्पर्श भरा लेखन है आपका..... बस, ईश्वर से प्रार्थना करूंगी कि आप इसी तरह शब्दों के शिखर की बुलंदियों को छुये..... स्त्री विषय पर आगे आपके आलेख पढने का अवसर अवश्य दीजिएगा।

sushant jha ने कहा…

पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं, अच्छा लगा। आगे कई उम्मीदें हैं...

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

अतिसुन्दर प्रस्तुति, साधुवाद !!

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

आकांक्षा जी की कविताओं की मैं कायल हूँ. सहज-सारगर्भित शब्दों में यथार्थ का इतना अनुपम चित्रण विरले ही देखने को मिलता है. इसे आकांक्षा जी की खूबी कहें या फिर उनकी कविताओं की ! सिमटता आदमी कविता की एक-एक पंक्तियाँ सोचने को मजबूर करती हैं कि आदमी कहाँ जा रहा है ? आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ मानवीय क्षमताओं का विस्तार होने के साथ उसकी संवेदनाएं सिमटती जा रही हैं और आकांक्षा जी की इस कविता में यह बखूबी देखने को मिल रहा है.

अवनीश एस तिवारी ने कहा…

सुंदर रचना है | बधाई|


अवनीश तिवारी

Udan Tashtari ने कहा…

सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रभावशाली रचना के लिए बधाई स्विकारें.

इरशाद अली ने कहा…

ek ek line meaningful hae. bahut hi sunder kawita hae jo dil main gahere se utar jati hae. mubaqbaad kae sath. irshad

Harshvardhan ने कहा…

kavita achchi lagi

बेनामी ने कहा…

''साहित्य-शिल्पी'' पर प्रकाशित आपकी इस कविता पर प्रति-अभिव्यक्ति स्वरूप सुशील कुमार ने ने तो एक कविता ही रच डाली है.उसे यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ-

फैल रहा है वह

हर रोज़ अपनी इच्छाओं के वातयन में -

अलस्सुबह बिस्तर के छोड़ने से

रात को वापिस लौटने तक।

भूला नहीं,याद है उसे

अपनी मुकम्मल दुनिया

पूरी तरह और नाशाद है आज भी!

दुनिया उसे दीखती कहाँ?

बेतरतीव बिछे कागज के

फूलों में खुशबू होती कहाँ,

पास-पड़ोस क्या,

अपने ही भीतर के तहखानों में

बंद है आज आदमी अपने आदमीपन को

अदृश्य बेड़ियों से जकड़

सुख की दुर्दमनीय लालसा में।

कोई क्या बाहर की वस्तु दस्तक देगी उसे ,

कितनी विडंबना है कि

वह खुद अपनी ही अंतरात्मा की पुकार से

थर्रा रहा है, और कर रहा है

अनसुनी अपनी ही आवाज़ें !

संकुचित हो रहे नित्य उसके सुख-स्वप्न सब

और पसर रहे हैं रोज़ उसके दुख-प्रमाद सब।

आकांक्षा जी, कितनी भयावह बात है कि

फैल रहा है हर रोज़ वह इस तरह

अपनी इच्छाओं के वातयन में

आपकी कविता के विपरीत!

---सुशील कुमार (sk.dumka@gmail.com)

मोबाईल- 09431310216

(किसी को आपत्ति है क्या, इस कविता पर?)

Unknown ने कहा…

सिमटता आदमी सिर्फ कविता भर नहीं है, बल्कि आज के जीवन का एक कड़वा यथार्थ है. बधाई स्वीकारें.

KK Yadav ने कहा…

भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
........
क्या करे, आदमी दिनों-ब-दिन स्वार्थी होता जा रहा है. उसकी भौतिक लिप्सा ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. मानो सब कुछ बटोरकर अपने साथ दूसरी दुनिया में ले जायेगा. आपकी कविता ऐसे मुद्दों को उठाकर अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाती है. बधाई....!!!!

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
...दुर्भाग्यवश इसे ही मानव अपना विस्तार समझ रहा है.

Amit Kumar Yadav ने कहा…

वाकई आपकी कविता पढ़कर आनंद आ गया. बड़ी खूबसूरती से आप विषय और शब्दों का चयन करती हैं.

shelley ने कहा…

sundar rachna. aaj ke manav k liye stik

Amit Kumar Yadav ने कहा…

''स्वामी विवेकानंद जयंती'' और ''युवा दिवस'' पर ''युवा'' की तरफ से आप सभी शुभचिंतकों को बधाई. बस यूँ ही लेखनी को धार देकर अपनी रचनाशीलता में अभिवृद्धि करते रहें.

Birds Watching Group ने कहा…

yatha sthiti ka varnan
sunder shabdo me

please gap between two different phrases

RAJIV MAHESHWARI ने कहा…

प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ . सुंदर कविता के
के लिए बधाई!!!

राजीव महेश्वरी

Vinay ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है,

---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम

अवाम ने कहा…

बहुत ही सुंदर कविता है आपकी.. शुभकामनाएं..

Kamal ने कहा…

सुश्री आकांक्षा जी,
आपके ब्लॉग की सुंदर रचनाओं से आज ही दो-चार हुआ हूँ। मैं स्वयं भी कानपूर का स्थाई निवासी हूँ। इस माह के अंत तक कानपूर लौट जाऊंगा । फिलहाल हैदराबाद में software engineer बेटे के पास रहकर ब्लोग्स के मायाजाल में फंस गया हूँ , ऊबर पाना संभव नहीं। कानपूर जा कर भी Internet से जुड़ना पड़ेगा। तबतक म्रेरी रचनाओं का यहाँ के ब्लॉग से ही आनंद लीजिये। आपकी रचना " सिमटता आदमी " बहुत अच्छी लगी। पढ़ कर मुझे अपनी एक कविता ` आम-आदमी` याद आ गयी जिसकी अन्तिम पंक्ति उधृत कर रहा हूँ।
"उपेक्षा के घावों की/ भूख की अभावों की/ पीड़ा लिए आम आदमी/ कहीं कोने में बका है। "
मेरा ईमेल पता है:- - । संपर्क की प्रतीक्षा रहेगी।
शुभाकांक्षी
kamal ahutee@gmail.com

Kamal ने कहा…

सुश्री आकांक्षा जी,
आपके ब्लॉग की सुंदर रचनाओं से आज ही दो-चार हुआ हूँ। मैं स्वयं भी कानपूर का स्थाई निवासी हूँ। इस माह के अंत तक कानपूर लौट जाऊंगा । फिलहाल हैदराबाद में software engineer बेटे के पास रहकर ब्लोग्स के मायाजाल में फंस गया हूँ , ऊबर पाना संभव नहीं। कानपूर जा कर भी Internet से जुड़ना पड़ेगा। तबतक म्रेरी रचनाओं का यहाँ के ब्लॉग से ही आनंद लीजिये। आपकी रचना " सिमटता आदमी " बहुत अच्छी लगी। पढ़ कर मुझे अपनी एक कविता ` आम-आदमी` याद आ गयी जिसकी अन्तिम पंक्ति उधृत कर रहा हूँ।
"उपेक्षा के घावों की/ भूख की अभावों की/ पीड़ा लिए आम आदमी/ कहीं कोने में दुबका है। "
मेरा ईमेल पता है:- ahutee@gmail.com । संपर्क की प्रतीक्षा रहेगी।
शुभाकांक्षी
kamal

Kamal ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Amit Kumar Yadav ने कहा…

आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!

rajesh singh kshatri ने कहा…

akanksha ji,
bhut sundar rachana hai.

Dev ने कहा…

आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....

roushan ने कहा…

खूबसूरत कविता

BrijmohanShrivastava ने कहा…

आधुनिकता की यही तस्वीर है

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

कालबेल की हर आवाज पर
मानो खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !!
आज के भोतिक्वादी समाज का बही आपने इन पंकितोयं मैं बहुत बेहतरीन उजागर किया है
http://manoria.blogspot.com
http://kundkundkahan.blogspot.com

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

Apki nai rachna ka intzar......

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

Apki nai rachna ka intzar......

amitabhpriyadarshi ने कहा…

vastav men aaj simtne laga hai admee. kud se hi bhagne laga hai. aise men apne aaspaas ko chuti lagtii hai kavita.

Kamal ने कहा…

6 jan. ke bad se apki koi rachna Shabdshikhar par drishtigat nahin hui. Mere blog http://kamal-kitiyan.blogspot.com par prakashait rachnaon par bhi apki koi pratikriya nahin mili. Aap jaisa sajag kalakar ki chuppi chinta ka vishaya hai. kripaya spasht karen.
kamal- ahutee@gmail.com

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

कहाँ है आकांक्षा जी...कोई नई रचना नहीं शब्द-शिखर पर.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आदमी की भीड़ में खोया हुआ है आदमी,
आदमी के नीड़ में सोया हुआ है आदमी।
आदमी घायल हुआ है आदमी की मार से,
आदमी का अब जनाजा जा रहा संसार से।

संजय भास्‍कर ने कहा…

Bada sundar blog hai apka.apki kalam men bhi usi roop men dhar hai.

संजय भास्‍कर ने कहा…

सही कहा आपने| हम सभी शायद ऐसी ही जिंदगी जीने लगे हैं| अच्छी कविता के लिए बधाई आपको|