सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी0 वी0 चैनलों की निगाह से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चौंक उठता है
कालबेल की हर आवाज पर
मानो खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !!
57 टिप्पणियां:
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !
बिल्कुल सही स्थिति. बहुत ही सुंदर रचना. आभार.
http://mallar.wordpress.com
आज के मानवीय व्यवहार को चित्रित करती उत्कृष्ट कविता.
सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
bahut thik likha hai aapane.
badhai.
चौंक उठता है
कालबेल की हर आवाज पर
मानो खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !!...sarahniy prastuti.
Bada sundar blog hai apka.apki kalam men bhi usi roop men dhar hai.
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
...Yadi samay rahte manav nahi cheta to manvata hi khatre men pad jayegi.
सही कहा आपने आदमी कितना सिमटता जा रहा है ,
न केवल अपने आप मे बल्कि विचारो और मे भी |
कितना दूर हो रहा है आदमी अपने ही दिल से ,भावनाओ से......
सुन्दर रचना के लिए बधाई
बहुत प्रभाव शाली रचना...वाह...आज के हालात की सच्ची तस्वीर दिखाती हुई...हम कितने अजीब होते जा रहे हैं...अपने ही खोल में सिमटे सहमे से...
नीरज
हाँ सही लिखा आपने.....ये तो हम सब की आवाज़ है....!!
सही कहा आपने आदमी कितना सिमटता जा रहा है न केवल अपने आप मे बल्कि विचारो और मे भी |कितना दूर हो रहा है आदमी अपने ही दिल से,भावनाओ से......
सुन्दर रचना के लिए बधाई!!!
प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें
टी0 वी0 चैनलों की निगाह से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज"
सही कहा आपने| हम सभी शायद ऐसी ही जिंदगी जीने लगे हैं| अच्छी कविता के लिए बधाई आपको|
यज़शिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
भुञ्जते ते त्व अघं पापा ये पचन्त्यात्मकारनात् ।।
सुंदर कविता बहुत अच्छी है आपके भावो की सटीक अभिव्यक्ति
प्रदीप मानोरिया
09425132060
शब्द-शब्द प्रभावशाली!
---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें
आप अच्छा लिखती हैं । आज समाज में हर व्यक्ति मशीन की तरह बस लगा हुआ और मानव में जो मूलभूत गुण होते हैं उनका ह्रास होता जा रहा है ।
आज के समाज पर दो लेने अर्ज है
" आज समाज की रफ्तार तेज है या दौड़ अंधी है ।
गरीब मर रहा मंहगाई से और रहीसों की मंदी है ॥ "
सविनय
सुशील दीक्षित
bahut thik likha hai aapane.
आदमी कितना सिमटता जा रहा है ,
न केवल अपने आप मे बल्कि विचारो और मे भी. exactly
bahut thick likha hai aapne ,dhanyawaad.
bahut sundar abhivyakti .. aaj ki zaindagi ki sachai
poori kavita ,bhavnao ka mishran hai ..
badhai ..
vijay
Pls visit my blog for new poems:
http://poemsofvijay.blogspot.com/
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है. आदमी बौना होता जा रहा है या अपने इर्द-गिर्द बनी दीवारों को और ऊंचा करता जा रहा है, या दोनों काम साथ-साथ कर रहा है. जो भी हो, ईश्वर की यह उत्कृष्ट रचना, मनुष्य, अपने रचनाकार को निरंतर शर्मिंदा कर रहा है.
वाह.. वाह.. अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें..
आपकी रचना पढी..... बहुत मार्मिक स्पर्श भरा लेखन है आपका..... बस, ईश्वर से प्रार्थना करूंगी कि आप इसी तरह शब्दों के शिखर की बुलंदियों को छुये..... स्त्री विषय पर आगे आपके आलेख पढने का अवसर अवश्य दीजिएगा।
पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं, अच्छा लगा। आगे कई उम्मीदें हैं...
अतिसुन्दर प्रस्तुति, साधुवाद !!
आकांक्षा जी की कविताओं की मैं कायल हूँ. सहज-सारगर्भित शब्दों में यथार्थ का इतना अनुपम चित्रण विरले ही देखने को मिलता है. इसे आकांक्षा जी की खूबी कहें या फिर उनकी कविताओं की ! सिमटता आदमी कविता की एक-एक पंक्तियाँ सोचने को मजबूर करती हैं कि आदमी कहाँ जा रहा है ? आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ मानवीय क्षमताओं का विस्तार होने के साथ उसकी संवेदनाएं सिमटती जा रही हैं और आकांक्षा जी की इस कविता में यह बखूबी देखने को मिल रहा है.
सुंदर रचना है | बधाई|
अवनीश तिवारी
सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रभावशाली रचना के लिए बधाई स्विकारें.
ek ek line meaningful hae. bahut hi sunder kawita hae jo dil main gahere se utar jati hae. mubaqbaad kae sath. irshad
kavita achchi lagi
''साहित्य-शिल्पी'' पर प्रकाशित आपकी इस कविता पर प्रति-अभिव्यक्ति स्वरूप सुशील कुमार ने ने तो एक कविता ही रच डाली है.उसे यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ-
फैल रहा है वह
हर रोज़ अपनी इच्छाओं के वातयन में -
अलस्सुबह बिस्तर के छोड़ने से
रात को वापिस लौटने तक।
भूला नहीं,याद है उसे
अपनी मुकम्मल दुनिया
पूरी तरह और नाशाद है आज भी!
दुनिया उसे दीखती कहाँ?
बेतरतीव बिछे कागज के
फूलों में खुशबू होती कहाँ,
पास-पड़ोस क्या,
अपने ही भीतर के तहखानों में
बंद है आज आदमी अपने आदमीपन को
अदृश्य बेड़ियों से जकड़
सुख की दुर्दमनीय लालसा में।
कोई क्या बाहर की वस्तु दस्तक देगी उसे ,
कितनी विडंबना है कि
वह खुद अपनी ही अंतरात्मा की पुकार से
थर्रा रहा है, और कर रहा है
अनसुनी अपनी ही आवाज़ें !
संकुचित हो रहे नित्य उसके सुख-स्वप्न सब
और पसर रहे हैं रोज़ उसके दुख-प्रमाद सब।
आकांक्षा जी, कितनी भयावह बात है कि
फैल रहा है हर रोज़ वह इस तरह
अपनी इच्छाओं के वातयन में
आपकी कविता के विपरीत!
---सुशील कुमार (sk.dumka@gmail.com)
मोबाईल- 09431310216
(किसी को आपत्ति है क्या, इस कविता पर?)
सिमटता आदमी सिर्फ कविता भर नहीं है, बल्कि आज के जीवन का एक कड़वा यथार्थ है. बधाई स्वीकारें.
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
........
क्या करे, आदमी दिनों-ब-दिन स्वार्थी होता जा रहा है. उसकी भौतिक लिप्सा ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. मानो सब कुछ बटोरकर अपने साथ दूसरी दुनिया में ले जायेगा. आपकी कविता ऐसे मुद्दों को उठाकर अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाती है. बधाई....!!!!
सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
...दुर्भाग्यवश इसे ही मानव अपना विस्तार समझ रहा है.
वाकई आपकी कविता पढ़कर आनंद आ गया. बड़ी खूबसूरती से आप विषय और शब्दों का चयन करती हैं.
sundar rachna. aaj ke manav k liye stik
''स्वामी विवेकानंद जयंती'' और ''युवा दिवस'' पर ''युवा'' की तरफ से आप सभी शुभचिंतकों को बधाई. बस यूँ ही लेखनी को धार देकर अपनी रचनाशीलता में अभिवृद्धि करते रहें.
yatha sthiti ka varnan
sunder shabdo me
please gap between two different phrases
प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ . सुंदर कविता के
के लिए बधाई!!!
राजीव महेश्वरी
बहुत सुन्दर रचना है,
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
बहुत ही सुंदर कविता है आपकी.. शुभकामनाएं..
सुश्री आकांक्षा जी,
आपके ब्लॉग की सुंदर रचनाओं से आज ही दो-चार हुआ हूँ। मैं स्वयं भी कानपूर का स्थाई निवासी हूँ। इस माह के अंत तक कानपूर लौट जाऊंगा । फिलहाल हैदराबाद में software engineer बेटे के पास रहकर ब्लोग्स के मायाजाल में फंस गया हूँ , ऊबर पाना संभव नहीं। कानपूर जा कर भी Internet से जुड़ना पड़ेगा। तबतक म्रेरी रचनाओं का यहाँ के ब्लॉग से ही आनंद लीजिये। आपकी रचना " सिमटता आदमी " बहुत अच्छी लगी। पढ़ कर मुझे अपनी एक कविता ` आम-आदमी` याद आ गयी जिसकी अन्तिम पंक्ति उधृत कर रहा हूँ।
"उपेक्षा के घावों की/ भूख की अभावों की/ पीड़ा लिए आम आदमी/ कहीं कोने में बका है। "
मेरा ईमेल पता है:- - । संपर्क की प्रतीक्षा रहेगी।
शुभाकांक्षी
kamal ahutee@gmail.com
सुश्री आकांक्षा जी,
आपके ब्लॉग की सुंदर रचनाओं से आज ही दो-चार हुआ हूँ। मैं स्वयं भी कानपूर का स्थाई निवासी हूँ। इस माह के अंत तक कानपूर लौट जाऊंगा । फिलहाल हैदराबाद में software engineer बेटे के पास रहकर ब्लोग्स के मायाजाल में फंस गया हूँ , ऊबर पाना संभव नहीं। कानपूर जा कर भी Internet से जुड़ना पड़ेगा। तबतक म्रेरी रचनाओं का यहाँ के ब्लॉग से ही आनंद लीजिये। आपकी रचना " सिमटता आदमी " बहुत अच्छी लगी। पढ़ कर मुझे अपनी एक कविता ` आम-आदमी` याद आ गयी जिसकी अन्तिम पंक्ति उधृत कर रहा हूँ।
"उपेक्षा के घावों की/ भूख की अभावों की/ पीड़ा लिए आम आदमी/ कहीं कोने में दुबका है। "
मेरा ईमेल पता है:- ahutee@gmail.com । संपर्क की प्रतीक्षा रहेगी।
शुभाकांक्षी
kamal
आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!
akanksha ji,
bhut sundar rachana hai.
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
खूबसूरत कविता
आधुनिकता की यही तस्वीर है
कालबेल की हर आवाज पर
मानो खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर !!
आज के भोतिक्वादी समाज का बही आपने इन पंकितोयं मैं बहुत बेहतरीन उजागर किया है
http://manoria.blogspot.com
http://kundkundkahan.blogspot.com
Apki nai rachna ka intzar......
Apki nai rachna ka intzar......
vastav men aaj simtne laga hai admee. kud se hi bhagne laga hai. aise men apne aaspaas ko chuti lagtii hai kavita.
6 jan. ke bad se apki koi rachna Shabdshikhar par drishtigat nahin hui. Mere blog http://kamal-kitiyan.blogspot.com par prakashait rachnaon par bhi apki koi pratikriya nahin mili. Aap jaisa sajag kalakar ki chuppi chinta ka vishaya hai. kripaya spasht karen.
kamal- ahutee@gmail.com
कहाँ है आकांक्षा जी...कोई नई रचना नहीं शब्द-शिखर पर.
आदमी की भीड़ में खोया हुआ है आदमी,
आदमी के नीड़ में सोया हुआ है आदमी।
आदमी घायल हुआ है आदमी की मार से,
आदमी का अब जनाजा जा रहा संसार से।
Bada sundar blog hai apka.apki kalam men bhi usi roop men dhar hai.
सही कहा आपने| हम सभी शायद ऐसी ही जिंदगी जीने लगे हैं| अच्छी कविता के लिए बधाई आपको|
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