स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन जीवन अर्पित कर दिया था।
क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिया। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।
1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हंे मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।
बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुतः 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पेंशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि-‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”
रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाॅंध घोडे़ पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहुँची, जहाँ तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।....अन्ततः 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा - ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।”
इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शाश्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी/ अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी/......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी। माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चैहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- चमक उठी सन् सत्तावन में/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलों के मुँह/हमने सुनी कहानी थी/खूब लड़ी मर्दानी वह तो/झाँसी वाली रानी थी ।
29 टिप्पणियां:
रानी लक्ष्मीबाई को श्रध्धाँजलि देने के बहाने आधुनिक दौर में नारी-सशक्तीकरण को धार देता यह आलेख बेहद संजीदगी से लिखा और प्रस्तुत किया गया है.....आकांक्षा जी को कोटि-कोटि बधाई !!
आकांक्षा जी लेख बहुत प्रभावशाली है....
झाँसी की शूरवीर रानी लक्ष्मीबाई को शत-शत नमन.
रानी लक्ष्मीबाई को अनुपम श्रधांजलि. ऐसी वीर नारियाँ ही भारत की अस्मिता की परिचायक बनती हैं.
रानी लक्ष्मीबाई को पुष्पांजलि अर्पित करता यह आलेख बहुत सुंदर और प्रभावी लगा. आज के दिन नमन उस अद्भुत वीरांगना को!!
बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक -लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दईं, गोला चलाए असमानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी......छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी। माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चौहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं*****************इसी बहाने एक रहस्य से पर्दा तो उठा. वाकई लोक चेतना में अमर शहीदों को जिस तरह याद किया गया है, स्तुत्य है.
आकांक्षा जी !आज बलिदान दिवस पर महारानी लक्ष्मीबाई को याद करना बहुत अच्छा लगा। आपके आलेखों की प्रशंसा करनी होगी. आप इन्हें बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत करती हैं।
आकांक्षा जी !आज बलिदान दिवस पर महारानी लक्ष्मीबाई को याद करना बहुत अच्छा लगा। आपके आलेखों की प्रशंसा करनी होगी. आप इन्हें बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत करती हैं।
आज के दिन इस अनुपम प्रस्तुति के लिए आकांक्षा जी को साधुवाद. झांसी की रानी को शर-शत नमन.
यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो विद्रोहियों में एकमात्र मर्द थी...यह कथन रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को दर्शाता है. उन्हें आपने याद किया.यह आपकी तत्परता और सजगता को दर्शाता है. आकांक्षा जी की लेखनी में दम है.
इस सुंदर एवं सारगर्भित प्रस्तुति के लिए बधाई। अमर वीरांगना को शत् शत् नमन।
आकांक्षा जी ! आज महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर मर्दानी को खूब याद किया आपने, सारगर्भित और जोश भरा आलेख है।
इस अत्यन्त सुंदर लेख के लिए हर्दिक बधाई।
रानी लक्ष्मीबाई को श्रध्धाँजलि, शत् शत् नमन।
आकांक्षा जी,
बहुत सारगर्भित आलेख है। बधाई स्वीकारें।नमन उस अद्भुत वीरांगना को!
‘स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है.
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1857 की क्रान्ति में रानी लक्ष्मीबाई के बहाने बहुत प्रभावशाली आलेख.रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को नमन.
महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर श्रध्धाँजलि
अमर शहीद वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर भाव-भीनी श्रद्धांजलि।
महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर श्रधांजलि।
Rani Lakshmibai ki smriti ko taaza karnr ke liye aabhar.
आकांक्षा जी! बलिदान दिवस पर रानी लक्ष्मीबाई को याद करना बहुत अच्छा लगा। झाँसी की रानी को शत-शत नमन....
बहुत सुँदर आलेख है सदा की तरह आकाँक्षा जी -
"लक्ष्मी बाई"
मर्दानी नहीँ -
स्त्री की बहादुरी की
ज्वलँत मिसाल थीँ और रहेँगी
स्नेह सहित,
- लावण्या
सशक्त आलेख.....रानी लक्ष्मी बाई को कोटि-कोटि नमन.....काफी पहले दूरदर्शन पर रानी लक्ष्मी बाई पर आधारित एक धारावाहिक आता था और हमारी ख़ास पसंद में से एक था....असल में उनका जीवन है ही प्रेरणादायी, इसलिए कोई भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं रहता.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
"खूब लड़ी मर्दानी वो झासी वाली रानी थी"
पाठ्यपुस्तको में इस रचना को खूब पढ़ा है शायद जबतक जीवन रहेगा भूल नहीं पाउँगा .
वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ .आभार.
सशक्त और सार्थक रचना्रानी झाँसी का नाम लेते ही मन मे एक प्रश्न उठता है कि क्याीआज नारी केअस्तित्व और दशा पर bahut kuch kahaa sunaa jataa hai kyaa jis dehs me hjaansi jaisee naarian hain vahan ki aurat abalaa ho sakti hai bas ek nazar khud apane astitv ko talaash karne ki hai aur jhansee ranee se prerana lene kee hai bahut saarthak samayik aalekh badhaai
आपका लेख प्रभावशाली तो है ही
प्रेरणादायी भी है !
आपने पोस्ट के माध्यम से अमर वीरांगना
रानी लक्ष्मी बाई को स्मरण करके सराहनीय कार्य किया है !
सुभद्रा कुमारी चौहान की बचपन में कंठित
कविता - "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी
वाली रानी थी "
आज भी रक्त में उबाल पैदा कर देती है !
ऐसी वीरांगना को नमन करते हुए भाव-भीनी श्रद्धांजलि।
आज की आवाज
प्रभावी आलेख|बधाई स्वीकारें।
धन्यवाद् आपने मेरे ब्लॉग पर दस्तक दी आपका हमेशा मेरे ब्लॉग पर स्वागत है. आपने पोस्ट पर बिलकुल सही बात कही की शासन का सूत्र अभी महिलाओं के हाथ मे नहीं .
लक्ष्मीबाई को अर्पित यह आलेख सुंदर और प्रभावी लगा!!!
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