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सोमवार, 21 जून 2010

'पेड़ न्यूज' के चंगुल में पत्रकारिता

आजकल ‘पेड-न्यूज’ का मामला सुर्खियों में है। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, ‘पेड-न्यूज’ ने उसकी विश्वसनीयता को कटघरे में खड़ा कर दिया है। प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस तरह से लोगों की भूमिका को मोड़ देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है, ऐसे में उसकी स्वयं की भूमिका पर उठते प्रश्नचिन्ह महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मीडिया का काम समाज को जागरूक बनाना है, न कि अन्धविश्वासी. फिर चाहे वह धर्म का मामला हो या राजनीति का. पर मीडिया में जिस तरह कूप-मंडूक बातों के साथ-साथ आजकल पैसे लेकर न्यूज छापने/प्रसारित करने का चलन बढ़ रहा है, वह दुखद है. शब्दों की सत्ता जगजाहिर है. शब्द महज बोलने या लिखने मात्र को नहीं होते बल्कि उनसे हम अपनी प्राण-ऊर्जा ग्रहण करते हैं। शब्दों की अर्थवत्ता तभी प्रभावी होती है जब वे एक पवित्र एवं निष्कंप लौ की भाँति लोगों की रूह प्रज्वलित करते हैं, उसे नैतिक पाश में आबद्ध करते हैं। सत्ता के पायदानों, राजनेताओं और कार्पोरेट घरानों ने तो सदैव चालें चली हैं कि वे शब्दों पर निर्ममता से अपनी शर्तें थोप सकें और लेखक-पत्रकार को महज एक गुर्गा बना सकें जो कि उनकी भाषा बोले। उनकी कमियों को छुपाये और अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करे. देश के कोने-कोने से निकलने वाले तमाम लघु अखबार-पत्रिकाएं यदि विज्ञापनों के अभाव और पेट काटकर इस दारिद्रय में भी शब्द-गांडीव की तनी हुई प्रत्यंचा पर अपने अस्तित्व का उद्घोष करते हैं तो वह उनका आदर्श और जुनून ही है. पर इसके विपरीत बड़े घरानों से जुड़े अख़बार-पत्रिकाएँ तो 'पत्रकारिता' को अपने हितों की पूर्ति के साधन रूप में इस्तेमाल करती हैं.

‘पेड-न्यूज’ का मामला दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव में तेजी से उठा और इस पर एक समिति भी गठित हुई, जिसकी रिपोर्ट व सिफारिशें काफी प्रभावशाली बताई जा रही हैं।पर मीडिया तो पत्रकारों की बजाय कारपोरेट घरानों से संचालित होती है ऐसे में वे अपने हितों पर चोट कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। अतः इस समिति की रिपोर्ट व सिफारिशों को निष्प्रभावी बनाने का खेल आरंभ हो चुका है। पर समाज के इन तथाकथित कर्णधारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि रचनात्मक पत्रकारिता समाज के लिए काफी महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता स्वतः स्फूर्ति व स्वप्रेरित होकर निर्बाध रूप से चीज को देखने, विश्लेषण करने और उसके सकारात्मक पहलुओं को समाज के सामने रखने का साधन है, न कि पैसे कमाने का. यहाँ तक कि किसी भी परिस्थिति में मात्र सूचना देना ही पत्रकारिता नहीं है अपितु इसमें स्थितियों व घटनाओं का सापेक्ष विश्लेषण करके उसका सच समाज के सामने प्रस्तुत करना भी पत्रकारिता का दायित्व है.

आज का समाज घटना की छुपी हुई सच्चाई को खोलकर सार्वजनिक करने की उम्मीद पत्रकारों से ही करता है। इस कठिन दौर में भी यदि पत्रकांरिता की विश्वसनीयता बढ़ी है तो उसके पीछे लोगों का उनमें पनपता विश्वास है. गाँव का कम पढ़ा-लिखा मजदूर-किसान तक भी आसपास की घटी घटनाओं को मीडिया में पढ़ने के बाद ही प्रामाणिक मानता है। कहते हैं कि एक सजग पत्रकार की निगाहें समाज पर होती है तो पूरे समाज की निगाहें पत्रकार पर होती है। पर दुर्भाग्यवश अब पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है। सम्पादक खबरों की बजाय 'विज्ञापन' और 'पेड न्यूज' पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। यह दौर संक्रमण का है. हम उन पत्रकारों-लेखकों को नहीं भूल सकते जिन्होंने यातनाएं सहने के बाद भी सच का दमन नहीं छोड़ा और देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया. ऐसे में जरुरत है कि पत्रकारिता को समाज की उम्मीद पर खरा उतरते हुए विश्वसनीयता को बरकरार रखना होगा। पत्रकारिता सत्य, लोकहित में तथा न्याय संगत होनी चाहिए।

26 टिप्‍पणियां:

Shyama ने कहा…

जरुरत है कि पत्रकारिता को समाज की उम्मीद पर खरा उतरते हुए विश्वसनीयता को बरकरार रखना होगा। पत्रकारिता सत्य, लोकहित में तथा न्याय संगत होनी चाहिए।...सुन्दर व सार्थक विश्लेषण !

Amit Kumar Yadav ने कहा…

पेड न्यूज के बढ़ते चलन पर गंभीर पोस्ट...

Amit Kumar Yadav ने कहा…

वैसे भी अधिकतर मीडिया में नेताओं के शेयर हैं, फिर उनकी जी-हुजूरी ये लोग क्यों न करें.

editor : guftgu ने कहा…

पेड़ न्यूज और विज्ञापनों ने बड़े अख़बारों की चांदी कर दी है. नेता और अख़बार वाले दोनों मिलकर जनता को लूट रहे हैं.

Unknown ने कहा…

दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिंदुस्तान जैसे तमाम अख़बारों ने पिछले लोकसभा चुनावों में फॉण्ट बदलकर पेड न्यूज छपे और लोगों को भरमाया. यह बेहद शर्मनाक रहा.

Unknown ने कहा…

क्या बात है आप और कृष्ण कुमार जी दोनों लोग आज अखबारों पर ही धावा बोले हुए हैं.

बेनामी ने कहा…

यह चंगुल समाज के लिए घातक है..अच्छी पोस्ट.

मन-मयूर ने कहा…

सामयिक व ज्वलंत मुद्दा..सोचने की जरुरत.

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

ये तो सोचने वाली बात हो गई न.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

यह चिंता की बात है।
---------
इंसानों से बेहतर चिम्पांजी?
क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सोचने को मजबूर करती हुई रचना!

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

behn aakaankshaa aap shi hen ped ptrkaaritaa ne desh men jo gndgi fellayi he usse koi bch nhin paa rhaa he aapke yhaan kyaa haal he ptaa nhin lekin hmaare yhaan to ab is gngi ne h kr di he akhbaar men vigyaapn or vigyapn daataaon ke hi gungaan milte hen fir mrne jine niyukti uplbdhi smaaj ki suchnaa chaahe jo bhi ho binaa ped ke nhin chpegi. akhtar khan akela kota rajstha n meraa hindi blog akhtarkhanakela.blogspot.com he

राज भाटिय़ा ने कहा…

जनता खरीदती ही क्यो है इन्हे...

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

मीडिया का रोल बहुत महत्वपूर्ण है .. आम आदमी आंखें मूँद कर भरोसा करता है कि ये जो भी कहेंगे सच ही कहेंगे ....हरेक चीज़ व्यवसाय हों रही है .. दुखद है यह !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चिंतनीय विषय....लोग स्वयं को सुर्ख़ियों में लाने के लिए क्या क्या करते हैं...जहां मांग होगी वहीँ पूर्ति भी....

अच्छी जानकारी देता आलेख

Mrityunjay Kumar Rai ने कहा…

you have raised a very pertinent issue. yes i agree with you , Media is not in hands of honest people.

i have heard , the Father of Manu sharma ( a convict who assassinated Jessica lal in delhi in 1995) has lounched a News Channel just for creating a sympathy for his criminal son. what can you expect fron this channel. the money has spoiled the creditial of media.

बहुत कचरा आ गया है मीडिया में , कुछ सफाई जरुरी है .

हमारीवाणी ने कहा…

आ गया है ब्लॉग संकलन का नया अवतार:हमारीवाणी.कॉम



हिंदी ब्लॉग लिखने वाले लेखकों के लिए खुशखबरी!

ब्लॉग जगत के लिए हमारीवाणी नाम से एकदम नया और अद्भुत ब्लॉग संकलक बनकर तैयार है। इस ब्लॉग संकलक के द्वारा हिंदी ब्लॉग लेखन को एक नई सोच के साथ प्रोत्साहित करने के योजना है। इसमें सबसे अहम् बात तो यह है की यह ब्लॉग लेखकों का अपना ब्लॉग संकलक होगा।

http://hamarivani.blogspot.com

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

aur professionals ki tarah ye Media ke log bhi apne viswasniyata ko kho chuke hain........:(

ek gambhir vishleshan......!

nimantran: hamare blog pe aane ka!:P

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

विश्वसनीयता खतरे में है ।

sandhyagupta ने कहा…

पत्रकारिता स्वतः स्फूर्ति व स्वप्रेरित होकर निर्बाध रूप से चीज को देखने, विश्लेषण करने और उसके सकारात्मक पहलुओं को समाज के सामने रखने का साधन है, न कि पैसे कमाने का.

Aapki baat se sahmat hoon.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इस सुन्दर पोस्ट की चर्चा "चर्चा मंच" पर भी है!
--
http://charchamanch.blogspot.com/2010/06/193.html

शरद कुमार ने कहा…

गंभीर मुद्दा..कानपुर के दैनिकों में तो चुनाव के दौरान यह परम्परा लम्बे समय से चल रही है.

raghav ने कहा…

हम उन पत्रकारों-लेखकों को नहीं भूल सकते जिन्होंने यातनाएं सहने के बाद भी सच का दमन नहीं छोड़ा और देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया...!!

raghav ने कहा…

...आपकी हर पोस्ट प्रेरक होती है.

Akanksha Yadav ने कहा…

@ मयंक जी,

चर्चा के लिए आपका आभार !!

Akanksha Yadav ने कहा…

आप सभी ने इस पोस्ट को पसंद किया..आभार !!