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गुरुवार, 24 जून 2010

मेघों को मनाने का अंदाज अपना-अपना

इसे पर्यावरण-प्रदूषण का प्रकोप कहें या पारिस्थितकीय असंतुलन। इस साल गर्मी ने हर व्यक्ति को रूला कर रख दिया। बारिश तो मानो पृथ्वी से रूठी हुई है। पृथ्वी पर चारों तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई है। शिमला जैसी जिन जगहों को अनुकूल मौसम के लिए जाना जाता है, वहाँ भी इस बार गर्मी का प्रकोप दिखाई दे रहा है। ऐसे में रूठे बादलों को मनाने के लिए लोग तमाम परंपरागत नुस्खों को अपना रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि बरसात और देवताओं के राजा इंद्र इन तरकीबों से रीझ कर बादलों को भेज देते हैं और धरती हरियाली से लहलहा उठती है।

इनमें सबसे प्रचलित नुस्खा मेंढक-मेंढकी की शादी है। मानसून को रिझाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में चुनरी ओढ़ाकर बाकायदा रीति-रिवाज से मेंढक-मेंढकी की शादी की जाती है। इनमें मांग भरने से लेकर तमाम रिवाज आम शादियों की तरह होते हैं। एक अन्य प्रचलित नुस्खा महिलाओं द्वारा खेत में हल खींचकर जुताई करना है। कुछ अंचलों में तो महिलाए अर्धरात्रि को अर्धनग्न होकर हल खींचकर जुताई करतीं हैं। बच्चों के लिए यह अवसर काले मेघा को रिझाने का भी होता है और शरारतें करने का भी। वे नंगे बदन जमीन पर लोटते हैं और प्रतीकात्मक रूप से उन पर पानी डालकर बादलों को बुलाया जाता है। एक अन्य मजेदार परम्परा में गधों की शादी द्वारा इन्द्र देवता को रिझाया जाता है। इस अनोखी शादी में इंद्र देव को खास तौर पर निमंत्रण भेजा जाता है। मकसद साफ है इंद्र देव आएंगे तो साथ मानसून भी ले आएंगे। गधे और गधी को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और शादी के लिए बाकायदा मंडप सजाया जाता है, शादी खूब धूम-धाम से होती है। बरसात के अभाव में मनुष्य असमय दम तोड़ सकता है, इस बात से इन्द्र देवता को रूबरू कराने के लिए जीवित व्यक्ति की शव-यात्रा तक निकाली जाती है। इसमें बरसात के लिए एक जिंदा व्यक्ति को आसमान की तरफ हाथ जोड़े हुए अर्थी में लिटा दिया जाता है। तमाम प्रक्रिया ‘दाह संस्कार‘ की होती है। ऐसा करके इंद्र को यह जताने का प्रयास किया जाता है कि धरती पर सूखे से यह हाल हो रहा है, अब तो कृपा करो।

इन परम्पराओं से परे कुछेक परम्पराए वैज्ञानिक मान्यताओं पर भी खरी उतरती हैं। ऐसा माना जाता है कि पेड़-पौधे बरसात लाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसी के तहत पेड़ों का लगन कराया जाता है। कर्नाटक के एक गाँव में इंद्र देवता को मनाने के लिए एक अनोखी परंपरा है। यहां हाल ही में नीम के पौधे को दुल्हन बनाया गया और अश्वत्था पेड़ को दूल्हा। पूरी हिंदू रीति रिवाज से शादी संपन्न हुई जिसमें गाँव के सैकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया। नीम के पेड़ को बाकायदा मंगलसूत्र भी पहनाया गया। लोगों का मानना है कि अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की शादी का आयोजन करने से झमाझम पानी बरसता है।

अब इसे परम्पराओं का प्रभाव कहें या मानवीय बेबसी, पर अंततः बारिश होती है लेकिन हर साल यह मनुष्य व जीव-जन्तुओं के साथ पेड़-पौधों को भी तरसाती हैं। बेहतर होता यदि हम मात्र एक महीने सोचने की बजाय साल भर विचार करते कि किस तरह हमने प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है, उसके आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया है, तो निश्चिततः बारिश समय से होती और हमें व्यर्थ में परेशान नहीं होना पड़ता। अभी भी वक्त है, यदि हम चेत सके तो मानवता को बचाया जा सकता है अन्यथा हर वर्ष हम इसी प्रलाप में जीते रहेंगे कि अब तो धरती का अंत निकट है और कभी भी प्रलय हो सकती है।

28 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सब आस्था और विश्वास का खेल है. एक संबल मिल जाता है और क्या!

Unknown ने कहा…

सच्चाई को बयां करती आपकी यह पोस्ट,सिर्फ एक महीने प्रयास करने से क्या होता है,इसके लिए तो हमें हमेशा सचेत रहना होगा...

विकास पाण्डेय
www.vicharokadarpan.blogspot.com

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

...हा.हा..हा..पर अंडमान में तो जमकर बारिश हो रही है. यहाँ ढेर सारे पेड़ और समुद्र जो हैं.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अच्छी जानकारी.....प्रकृति से खिलवाड़ का कुछ तो मूल्य चुकाना होगा....

मेंढक मेंढकी की शादी की बात पहली बार जानी ...

Mrityunjay Kumar Rai ने कहा…

बहुत बढ़िया आलेख लिखा है . हमारे देश की लोक संस्कृति की अच्छी जानकारी ओर समझ है आपको. मेंढक-मेंढकी की शादी का जिक्र यही तो है हमारी संस्क्रीती की पहचान है. मैंने सियार ( Jackal) के विवाह के बारे में सुना है . कहते है जब धुप भी हो और बारिस भी हो रही हो तो उस समय सियार का विवाह होता है .

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

रोचक जानकारियाँ ।

बेनामी ने कहा…

शानदार है यह अंदाज।
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क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

ashish ने कहा…

जब तक मानव , प्रकृति(nature ) से शादी नहीं करेगा , बरसात के लिए तरसेगा ही. बाकी सब टोटके आत्मसंतुष्टि के लिए है. अच्छी पोस्ट.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

आकाँक्षा जी आपका आलेख बहुत सुन्दर है ।बधाई

सुरेश यादव ने कहा…

आकांक्षा जी,आप ने कोई नयी बात नहींकही है ,लेकिन नए अंदाज़ में जरुर कही है आज का समाज पुरानी बातों में रूचि ही कितनी लेता है ? इस कारण भी इन का महत्व है मेरी शुभ कामनाएं स्वीकारें.

मनोज कुमार ने कहा…

रचना मन को लुभा गई

अजय कुमार ने कहा…

आस्था की बात है ।

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

बहुत सही लिखा आपने आकांक्षा जी, पर यह ईश्वरीय और कर्मकांडी आस्था भी तभी प्रबल होती है, जब आदमी पर मुसीबत पड़ती है. मनुष्य यह नहीं सोचता कि यदि बारिश नहीं हो रही तो इसका कारण वह स्वयं है और जरुरत उसके निवारण की है. जब मनुष्य चरों तरफ से हर जाता है तो फिर आस्था का संबल लेना लाजिमी भी है. इसी आस्था व उसके संबल के चलते ही तो हिन्दू धर्म में 36 करोड़ देवी-देवता पनपे हुए हैं...शानदार पोस्ट की बधाई.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

अभी भी वक्त है, यदि हम चेत सके तो मानवता को बचाया जा सकता है अन्यथा हर वर्ष हम इसी प्रलाप में जीते रहेंगे कि अब तो धरती का अंत निकट है और कभी भी प्रलय हो सकती है। ...सुन्दर लेख..सार्थक सन्देश.आकांक्षा जी को साधुवाद !!

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

वैसे आपके अंडमान में तो खूब बारिश हो रही है. वहां तो इन टोटकों की जरुरत नहीं पड़ती होगी. पाखी बिटिया ने भी तो इशारा किया है इस ओर.

Unknown ने कहा…

सारगर्भित प्रस्तुति..कुछ को हम भी आजमाने की सोच रहे हैं. शायद इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाएँ..हा..हा..हा...

Shyama ने कहा…

आकांक्षा जी, वाकई कई नई जानकारियां मिलीं इस लेख से..लोगों को पर्यावरण के प्रति सजग करता है आपका यह लेख..बधाई.

मन-मयूर ने कहा…

जानकारी भी..चेतावनी भी..दिलचस्प लेख.

मन-मयूर ने कहा…

रश्मि सिंह जी की टिपण्णी भी दिलचस्प लगी.

KK Yadav ने कहा…

काश कि हम सब पहले ही सचेत हो जाते तो यह सब नौबत नहीं आती...इन्द्र देवता को खुश करने के लिए तमाम रोचक पहलू..मजेदार !!

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

हमारे पूर्वांचल में भी इनमें से कुछेक परम्पराएँ देखने को मिलती हैं. जानकारीपूर्ण लेख..बधाई.

शरद कुमार ने कहा…

आपकी पूर्व की रचनाओं की भांति ही ज्ञानवर्धक व प्रेरक.

बेनामी ने कहा…

हमें तो पता ही नहीं था...अदभुत व रोचक. देखिये बादल कब मेहरबान होते हैं.

शरद कोकास ने कहा…

इनमे से किसी भी टोटके से पानी नहीं बरसता , फिर भी इंसान यह सब किये जाता है ।

Akanksha Yadav ने कहा…

यह पोस्ट आप सभी को पसंद आई..अच्छा लगा... अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखें.

शरद कुमार ने कहा…

बेहतर होता यदि हम मात्र एक महीने सोचने की बजाय साल भर विचार करते कि किस तरह हमने प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है, उसके आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया है, तो निश्चिततः बारिश समय से होती और हमें व्यर्थ में परेशान नहीं होना पड़ता।....बहुत सही कहा आपने.

शरद कुमार ने कहा…

तमाम प्रचलित परम्पराओं के बारे में भी पहली बार सुना..ज्ञानवर्धन हुआ.

raghav ने कहा…

दिलचस्प पोस्ट..अच्छा चेताया आपने...आपकी हर पोस्ट प्रेरक होती है.