आजकल तो हिंदी की ही चर्चा है, आखिर पखवाड़ों का दौर जो है. एक तरफ हिंदी को बढ़ावा देने की लम्बी-लम्बी बातें, उस पर से भारत सरकार के बजट में हिंदी के मद में जबरदस्त कटौती. केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में हिन्दी के लिए आवंटित राशि में पिछले वर्ष की तुलना में दो करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। वित्त वर्ष 2010-11 के आम बजट में राजभाषा के मद में 34.17 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया जबकि चालू वित्त वर्ष 2009-10 के बजट में इस खंड में 36.22 करोड़ रुपये दिये गये थे।
लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई. अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है. हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है. इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाज़ी चलती है. और यदि यह बाज़ी हाथ न लगे तो श्लीलता-अश्लीलता का दौर आरंभ हो जाता है. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब का बाज़ार ऐसे लोगों ने ही बढाया. आजकल तो जमाना बस चर्चा में रहने का है, बदनाम हुए तो क्या हुआ-नाम तो हुआ. अभी हिंदी अकादमी, दिल्ली की चर्चा ख़त्म ही नहीं हुई थी कि भारतीय ज्ञानपीठ ने बेवफाई के नाम पर अपना रंग फिर से दिखा दिया.
साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है. साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय. कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है. हर कोई अपने को प्रेमचंद, निराला की विरासत का संवाहक मन बैठा है, पर फुसफुसे बम से ज्यादा दम किसी में नहीं. तथाकथित बड़े साहित्यकार एक-दूसरे की आलोचना करके एक-दूसरे को चर्चा में लाते रहते हैं. दिखावा तो ऐसा होता है मानो वैचारिक बहस चल रही हो, पर उछाड़ -पछाड़ से ज्यादा यह कुछ नहीं होना. दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं.
हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं. अभी नया ज्ञानोदय और विभूति नारायण राय वाले मामले में यह बखूबी देखने को मिला. कुछ दिनों पहले ही एक मित्र ने बताया कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित करवाने के लिए किस तरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार साहित्यकार से पैरवी कराई. पिछले दिनों कहीं पढ़ा था कि हिंदी के एक ठेकेदार दावा करते हैं कि वह कोई भी सम्मान आपकी झोली में डाल सकते हैं, बशर्ते पूरी पुरस्कार राशि आप उन्हें ससम्मान सौंप दे. बढ़िया है, किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!
Akanksha Yadav आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर : http://shabdshikhar.blogspot.com/
लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई. अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है. हर कोई बस किसी तरह सरकार में बैठे लोगों की छत्र-छाया चाहता है. इस छत्र-छाया में ही पुस्तकों का विमोचन, अनुदान और सरकारी खरीद से लेकर सम्मानों तक की तिकड़मबाज़ी चलती है. और यदि यह बाज़ी हाथ न लगे तो श्लीलता-अश्लीलता का दौर आरंभ हो जाता है. मकबूल फ़िदा हुसैन साहब का बाज़ार ऐसे लोगों ने ही बढाया. आजकल तो जमाना बस चर्चा में रहने का है, बदनाम हुए तो क्या हुआ-नाम तो हुआ. अभी हिंदी अकादमी, दिल्ली की चर्चा ख़त्म ही नहीं हुई थी कि भारतीय ज्ञानपीठ ने बेवफाई के नाम पर अपना रंग फिर से दिखा दिया.
साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है. साहित्यकार लोग राजनीति की राह पर चलने को तैयार हैं, बशर्ते कुलपति, राज्यसभा या अन्य कोई पद उन्हें मिल जाय. कभी निराला जी ने पंडित नेहरु को तवज्जो नहीं दी थी, पर आज भला किस साहित्यकार में इतना दम है. हर कोई अपने को प्रेमचंद, निराला की विरासत का संवाहक मन बैठा है, पर फुसफुसे बम से ज्यादा दम किसी में नहीं. तथाकथित बड़े साहित्यकार एक-दूसरे की आलोचना करके एक-दूसरे को चर्चा में लाते रहते हैं. दिखावा तो ऐसा होता है मानो वैचारिक बहस चल रही हो, पर उछाड़ -पछाड़ से ज्यादा यह कुछ नहीं होना. दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं.
हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं. अभी नया ज्ञानोदय और विभूति नारायण राय वाले मामले में यह बखूबी देखने को मिला. कुछ दिनों पहले ही एक मित्र ने बताया कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित करवाने के लिए किस तरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार साहित्यकार से पैरवी कराई. पिछले दिनों कहीं पढ़ा था कि हिंदी के एक ठेकेदार दावा करते हैं कि वह कोई भी सम्मान आपकी झोली में डाल सकते हैं, बशर्ते पूरी पुरस्कार राशि आप उन्हें ससम्मान सौंप दे. बढ़िया है, किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा. हिंदी अकादमियां घुमाने-फिराने का साधन बन रही हैं या पद और पुरस्कार की आड में बन्दर-बाँट का. पर इन सबके बीच हिन्दी या साहित्य कहीं नहीं है. हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!
Akanksha Yadav आकांक्षा यादव @ शब्द-शिखर : http://shabdshikhar.blogspot.com/
17 टिप्पणियां:
हिंदी के लिए यदि सरकार वास्तव में गंभीर होती ,तो हिंदी आज विभागों में हाशिये पर न होती ..इसके उत्थान के लिए आम आदमी को ही आगे आना होगा
मुझे भी मिलकर हाल पूछना है। आपको मिले तो कृपा कर सूचित कीजियेगा।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
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दूज का चन्दा गगन में मुस्कराया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
छा गई गुलशन में जन्नत की बहारें,
ईद ने सबको गले से है मिलाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
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जय हिन्दी!
जय नागरी!!
गुलामो के राज मै आजादी की बाते अच्छी नही लगती गुलामो को, कुछ सिर फ़िरे मेरे जेसे ही यह गुमान लिये बेठे है कि हम आजाद है
बहुत सार्थक लेख ....
बहुत ही जानकारी वर्धक आलेख ......आभार
वो लोग हिन्दी के व्यवसायी हैं, हम हैं सेवक।
आपको और आपके परिवार को तीज, गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत से फ़ुरसत में … अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा, “मनोज” पर, मनोज कुमार की प्रस्तुति पढिए!
किसी को नाम चाहिए, किसी को पैसा, किसी को पद तो किसी को चर्चा...फिर हिंदी कहाँ से आयेगी...बहुत सुन्दर और सटीक लिखा...साधुवाद.
हिन्दी विषय को उठाता एक महत्वपूर्ण तथा सार्थक लेख, लाजबाव हैँ आपका लेखन। -: VISIT MY BLOG :- Mind and body researches को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ।
ढ़ूंढ रहे हैं...जैसे ही मिलती है-खबर करेंगे. :)
बेहतरीन!!
भाषा भी राजनीति की शिकार है अपने देश में .... टुकड़ों में बंटी हुई ....
हर पत्रिका के अपने लेखक हैं, तो हर साहित्यकार का अपना गैंग, जो एक-दूसरे पर वैचारिक (?) हमले के काम आते हैं...bahut sahi likha apne..
आज हिंदी दिवस है. अपने देश में हिंदी की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा नहीं है. हिंदी को लेकर तमाम कवायदें हो रही हैं, पर हिंदी के नाम पर खाना-पूर्ति ज्यादा हो रही है. जरुरत है हम हिंदी को लेकर संजीदगी से सोचें और तभी हिंदी पल्लवित-पुष्पित हो सकेगी...! ''हिंदी-दिवस'' की बधाइयाँ !!
आकांक्षा जी,
हिंदी कभी भी शासन की मॊहताज नहीं रही.वह तो देश के करोडो लोगों के ह्रदय पर अभी भी राज कर रही हॆ.वास्तविकता तो यह हॆ कि हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिये जाने के बाद,यह कुछ अधिकारियों के गले की फांस बन गयी हॆ.शायद इसीलिये सारे साल अंग्रेजी में काम करके, हिंदी- दिवस पर-एक बॆनर लगाकर,कुछ उपदेश देकर-हिंदी से हमदर्दी की नॊटंकी कर लेते हॆं.इस मानसिकता के अधिकारियों से हिंदी दिवस के मॊके पर, मॆंने कुछ जरुरी सवाल अपने नये ब्लाग ’राजभाषा विकास मंच’पर उठाये हॆं.यदि समय मिले,तो कृपया अपनी राय से अवगत करवायें.
पुनश्च:आपके मित्रों की सूची में दो के.के.यादव शामिल हॆं.दोनों की शक्ल-सूरत भी एक जॆसी हॆ.
...बड़ी महत्वपूर्ण बात उठाई आकांक्षा जी आपने..इस ओर सोचने की जरुरत है.
...बड़ी महत्वपूर्ण बात उठाई आकांक्षा जी आपने..इस ओर सोचने की जरुरत है.
दिन भर एक दूसरे की आलोचना कर प्रायोजित रूप में एक-दूसरे को चर्चा में लाने वाले हमारे मूर्धन्य साहित्यकार शाम को गलबहियाँ डाले एक-दूसरे के साथ प्याले छलका रहे होते हैं....सहमत हूँ आपसे. विचारोत्तेजक पोस्ट ...बधाई.
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