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सोमवार, 13 दिसंबर 2010

भारत में फैलता एन0 जी0 ओ0 का बाजार

आजकल भारत में एन0जी0ओ0 खोलना एक व्यवसाय हो गया है। हर व्यक्ति किसी-न-किसी बहाने एन0जी0ओ0 खोलता है और फंडिंग के लिए बड़े-बड़े दावे करता है। हाल के दिनों में देश भर में एन0जी0ओ0 संस्थाओं की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। मार्च 2005 की रिपोर्ट के अनुसार इनकी संख्या 15 लाख थी। ये सब मिलकर 30 हजार करोड़ रुपये हैंडल कर रहे थे। यह राशि विभिन्न कार्यक्रमों के लिए संस्थाओं को सरकारी, गैर सरकारी एवं अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से मिलती हैं। इस आधार पर देखा जाय तो भारत को एक सुखी एवं समृद्ध राष्ट्र होना चाहिए। पर यदि ऐसा नहीं है तो जरूर दाल में कुछ काला है। गरीबी-उन्मूलन, शिक्षा-प्रसार, स्वास्थ्य-सेवाओं, धार्मिक कार्यों सहित तमाम कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर चल रहे इन एन0जी0ओ0 का नेटवर्क सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी फैला है, जहाँ से उन्हें धमार्थ-कल्याणार्थ-परोपकरार्थ डाॅलरों में सहायता मिलती है। इन संस्थाओं पर आर्थिक कृपा करने वालों में व्यक्तिगत दानियों का नाम सबसे ऊपर है। ब्रिटेन में एक विदेशी एनजीओ की ओर से किए गए एक आंतरिक अध्ययन के मुताबिकए निजी तौर पर दिया दान सबसे बडा़ आर्थिक सा्रेत रहा है। इन दाताओं के बूते सन 2005 में 2,200 करोड़ से 8,100 करोड़ रुपए संस्थाओं पर न्यौछावर किए जाने का अनुमान लगाया गया । फिलहाल जो अनुमान मिल रहे हैं उसके अनुसार एन0जी0ओ0 और गैर-लाभान्वित संस्थाओं ने सालाना 40 हजार करोड़ से 80 हजार करोड़ रुपए इमदाद के जरिए जुटाए हैं। इनके लिए सबसे बडी़ दानदाता सरकार है जिसने ग्या़रहवीं पंचवर्षीय योजना में सामाजिक क्षेत्र के लिए 18 हजार करोड़ रुपए रखे। इसके बाद विदेशी दानदाताओं का नंबर आता है। सन 2007-08 में इन एन0जी0ओ0 ने 9,700 करोड़ दान से जुटाए। तकरीबन 1600-2000 करोड़ रुपए धार्मिक संस्थाएं खोलने के लिए दान में दिए गए। ऐसी संस्थाओं में तिरुमला तिरुपति देवास्थानम का नाम भी लिया जाता है, जिन्हें दान में प्रचुर धन ही नहीं हीरे-जवाहरात भी मिलते हैं।

यह आश्चर्यजनक पर सच है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा सक्रिय गैर-सरकारी, गैर-लाभन्वित संगठन भारत में हैं। पीपुल्स रिसर्च इन एशिया (पी॰आर॰आइ॰ए॰) ने अपने एक अध्ययन के बाद देश भर में 12 लाख एन॰ जी॰ ओ॰ को सूचीबद्ध किया था, जिनके बीच करीब 18 हजार करोड़ रुपये का मोबलाइजेशन हुआ। इन संस्थाओं में से 26.5 फीसदी धार्मिक गतिविधियों में, 21.3 फीसदी सामुदायिक व सामाजिक सेवा कार्यों में, 20.4 फीसदी शिक्षा के क्षेत्र में, 18 फीसदी खेलकूद एवं कला-संस्कृति में तथा 6.6 फीसदी स्वास्थ्य के क्षेत्र में व शेष अन्य क्षेत्रों में कार्यरत थीं। भारत सरकार के योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश भर में केंद्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से संबद्ध 30 हजार एन॰जी॰ ओ॰ सूचीबद्ध हैं। सरकार की ओर से कराए गए एक अन्य अध्ययन में बीते साल तक इन संस्थाओं की संख्या 30,30,000 (तीस लाख तीस हजार) तक पहुँच चुकी थी अर्थात 400 से भी कम भारतीयों के पीछे एक एन0जी0ओ0। यह तादाद देश में प्राथमिक विद्यालयों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से कई गुना ज्यादा है। इस अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 4.8 लाख, आंध्रप्रदेश (4.6 लाख), उत्तर प्रदेश (4.3 लाख), केरल (3.3 लाख), कर्नाटक (1.9 लाख), तमिलनाडु (1.4 लाख), ओडीशा (1.3 लाख) और राजस्थान में 1 लाख एन0जी0ओ0 पंजीकृत हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि अस्सी फीसदी से ज्यादा पंजीकरण दस राज्यों से हैं। इन संगठनों की असली संख्या और भी ज्यादा हो सकती है क्योंकि यह ब्यौरा तो मात्र उन संस्थाओं का है जो सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1860 या मुंबई पब्लिक ट्रस्ट एक्ट या दूसरे राज्यों में समकक्ष एक्ट के तहत पंजीकृत की जा चुकी हैं। गौरतलब है कि ये संस्थाएं कई कानूनों के तहत पंजीकृत की जा सकती हैं। इनमें से प्रमुख हैं- सोसाइटीज एक्ट 1860, रिलिजियस इनडाउमेंट एक्ट 1863, इंडियन ट्रस्ट एक्ट 1882, द चैरिटेबल एंड रिलिजियस ट्रस्ट एक्ट 1920, द मुसलमान वक्फ एक्ट 1923, पब्लिक ट्रस्ट एक्ट 1950, इंडियन कंपनीज एक्ट 1956 ;दफा 25द्ध इत्यादि।

पिछले दशकों में जिस तरह से गैर-सरकारी संगठनों यानी एन0जी0ओ0 की तादाद बढी़ हैए उसी अनुपात में दानी बढे़ हैं। स्पष्ट है कि भारत में एन0 जी0 ओ0 खोलने और उसके नाम पर वारे-न्यारे करने का बाजार भी बढ़ रहा है। सरकार से पैसे मिलने लगे तो संस्थाएं भी बनने लगीं। एन॰ जी॰ ओ॰ की संख्या बढ़ाने में सेवानिवृत लोगों का बड़ा हाथ है। इनमें ज्यादातर संस्थाएं कागजी हैं, जो न तो काम करने वाली हैं और न ही टिकाऊ। दुर्भाग्यवश सरकार सिर्फ निबंधन करती है, संस्थाएं क्या कर रही है, इससे मतलब नहीं होता। ऐसे में इन एन॰ जी॰ ओ॰ में प्रतिबद्धता की भी कमी झलकती है। आँकडों पर गौर करें तो सन 1970 तक महज 1.44 लाख पंजीकृत संस्थाएँ थीं वहीँ अगले तीन दशकों में बढ़कर क्रमश: 1.79, 5.52 और 11.22 लाख हो गईं । वर्ष 2000 में सबसे ज्यादा संस्थाएँ पंजीकृत हुईं । हालांकि अपने देश भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियाँ बडे़ दानियों के रुप में सामने नहीं आई हैं। वे इस तरह के सामाजिक कामों के लिए अपने मुनाफे का एक फीसदी से भी कम दान में देती हैं। जबकि ब्रिटेन और अमेरिका में निजी क्षेत्र की कंपनियाँ मुनाफे का डेढ़ से दो फीसदी तक भलाई और धर्मार्थ काम के लिए दान देती हैं। ऐसे में भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियों को जनकल्याण के लिए अभी जागना है। वहीं यह भी जरूरी हो गया है कि इन तमाम एन0जी0ओ0 इत्यादि की सोशल-आडिटिंग भी कायदे से सुनिश्चित किया जाय ताकि जनकल्याण के नाम पर एन0जी0ओ0 खोलकर अपना कल्याण करने की प्रवृति दूर हो सके।

27 टिप्‍पणियां:

Taarkeshwar Giri ने कहा…

बहुत सुन्दर लेख, और गजब कि जानकारी. सही कहा हैं अपने ये एक धंधा हो गया हैं.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर लेख, चिन्तनीय स्थिति, सामाजिक खर्च वहीं जाता है।

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी है लेकिन चिन्ता बढ गयी है। धन्यवाद।

Unknown ने कहा…

वहीं यह भी जरूरी हो गया है कि इन तमाम एन0जी0ओ0 इत्यादि की सोशल-आडिटिंग भी कायदे से सुनिश्चित किया जाय ताकि जनकल्याण के नाम पर एन0जी0ओ0 खोलकर अपना कल्याण करने की प्रवृति दूर हो सके।
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आपसे शत-प्रतिशत सहमत !!

Unknown ने कहा…

वहीं यह भी जरूरी हो गया है कि इन तमाम एन0जी0ओ0 इत्यादि की सोशल-आडिटिंग भी कायदे से सुनिश्चित किया जाय ताकि जनकल्याण के नाम पर एन0जी0ओ0 खोलकर अपना कल्याण करने की प्रवृति दूर हो सके।
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आपसे शत-प्रतिशत सहमत !!

Unknown ने कहा…

वहीं यह भी जरूरी हो गया है कि इन तमाम एन0जी0ओ0 इत्यादि की सोशल-आडिटिंग भी कायदे से सुनिश्चित किया जाय ताकि जनकल्याण के नाम पर एन0जी0ओ0 खोलकर अपना कल्याण करने की प्रवृति दूर हो सके।
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आपसे शत-प्रतिशत सहमत !!

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बिलकुल NGOs का औडिट तो होना ही चाहिए.बहुत से ऐसे NGOs हैं जो सिर्फ कागजों पर ही चल रहे हैं.

आंकड़ों से पोस्ट बहुत ही रुचिकर हो गयी है.

सादर

Amit Kumar Yadav ने कहा…

बड़ा गंभीर विश्लेषण. NGO तो आजकल चांदी काटने के औजार बन गए हैं. अपना भला लोग ज्यादा कर रहे हैं.

खबरों की दुनियाँ ने कहा…

स्थिति कहीं भी अच्छी नहीं है , तथ्यपरक लेख ,धन्यवाद ।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

yatharthparak lekh...
N.G.O.vastav me ek dhandhe me tabdeel ho gaya hai jiske tar bhrasht naukarshahi se juda hai...

Mrityunjay Kumar Rai ने कहा…

जी पूरी तरह सहमत हू आपके लेख से .

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर और शानदार लेख! उम्दा प्रस्तुती!

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

आकांक्षा जी ,
मगर फिर भी बहुत कम ही मदद असल जरूरतमंद लोंगो तक पहुँच पाती है. सब लूट खसोट का धंधा है. बहुत अच्छा विश्लेषण आपने किया ....
.
मेरे ब्लॉग सृजन_ शिखर पर " हम सबके नाम एक शहीद की कविता "

shyam gupta ने कहा…

बिल्कुल सही कहा,एन जी ओ आज्कल एक धन्धा बन गया है...

राज भाटिय़ा ने कहा…

लेकिन अब विदेशो मै बसे भारतिया भी धीरे धीरे पिछे होने लगे हे, जब वो देखते हे कि हमारे खुन पसीने की कमाई से देश मे किसी का भला नही हो रहा, बाल्कि यही संस्थाये बडी ओर बडी हो रही हे तो यह लोग खुद वा खुद पीछे होते जा रहे हे,
इस सुंदर जानकारी के लिये आप का धन्यवाद

Shahroz ने कहा…

सार्थक और समाचीन लेख..मैं तो NGO को समाजोपयोगी कम समझती थी. यहाँ भी दाल में काला है.

Shahroz ने कहा…

राज भाटिया जी की बात में भी दम है...

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

तभी तो कहा है- गन्दा है, पर धंधा है.

S R Bharti ने कहा…

शोधपरक लेख. आप हर पोस्ट के लिए काफी मेहनत करती हैं..बधाई.

KK Yadav ने कहा…

ये बाज़ार ही तो सब करा रहा है. शानदार पोस्ट.

babanpandey ने कहा…

dedication bahut hi kam hai ...NGO's me // bahut hi sunder //

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

सच्चाई को मुखरित करते हुए आपके लेख ने उन पहलुओं को छुआ है जिन्हें हम देख कर भी अनजान बने हैं !
सामयिक पोस्ट !
साभार,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी है चिन्तनीय स्थिति, धन्यवाद।

संजय भास्‍कर ने कहा…

आकांक्षा जी ,
बहुत अच्छा विश्लेषण आपने किया ....

raghav ने कहा…

एन॰ जी॰ ओ॰ की संख्या बढ़ाने में सेवानिवृत लोगों का बड़ा हाथ है। इनमें ज्यादातर संस्थाएं कागजी हैं, जो न तो काम करने वाली हैं और न ही टिकाऊ। दुर्भाग्यवश सरकार सिर्फ निबंधन करती है, संस्थाएं क्या कर रही है, इससे मतलब नहीं होता। ऐसे में इन एन॰ जी॰ ओ॰ में प्रतिबद्धता की भी कमी झलकती है..Sahi kaha apne.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

NGO के फैलते व्यवसाय पर आपने अच्छा ध्यानाकर्षण किया. उम्दा पोस्ट.

सुनील गज्जाणी ने कहा…

स्थिति कहीं भी अच्छी नहीं है , तथ्यपरक लेख ,धन्यवाद ।