आजकल अन्ना हजारे चर्चा में हैं और साथ ही भ्रष्टाचार और जन लोकपाल को लेकर उनका अभियान भी. चारों तरफ अन्ना के गुणगान हो रहे हैं, कोई उन्हें गाँधी बता रहा है तो कोई जे.पी. कोई कैंडल-मार्च निकाल रहा है तो कोई उनके पक्ष में धरने पर बैठा है. राजनेता से लेकर अभिनेता तक, मीडिया से लेकर युवा वर्ग तक हर कोई अन्ना के साथ खड़ा नजर आना चाहता है.
लेकिन क्या वाकई अन्ना के इस अभियान का कोई सार्थक अर्थ है ? इस मुहिम का कोई सकारात्मक अर्थ निकलने जा रहा है. इस देश में भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा नहीं है, बल्कि कई और भी ज्वलंत मुद्दे हैं. क्या एक जन लोकपाल आ जाने से सारी समस्याएं छू-मंतर हो जायेंगीं, मानो इसके पास जादू की कोई छड़ी हो और छड़ी घुमाते ही सब रोग दूर हो जाय.
अन्य देशों में हुए आंदोलनों को देखकर इस भ्रम में रहने वाले कि अन्ना के इस आन्दोलन के बाद भारत में भी क्रांति आ जाएगी, क्या अपनी अंतरात्मा पर हाथ रखकर बता सकेंगें कि वो जब मतदान करते हैं, तो किन आधारों पर करते हैं. चंद लोगों को छोड़ दें तो अधिकतर लोग अपनी जाति-धर्म-परिचय-राजनैतिक दल जैसे आधारों पर ही मतदान करते हैं. उनके लिए एक सीधा-साधा ईमानदार व्यक्ति किसी काम का नहीं होता, आखिरकार वह उनके लिए थाने-कोर्ट में पैरवी नहीं कर सकता, किसी दबंग से लोहा नहीं ले सकता या उन्हें किसी भी रूप में उपकृत नहीं कर सकता. जिस मीडिया के लोग आज अन्ना के आन्दोलन को धार दे रहे हैं, यही लोग उन्हीं लोगों के लिए पेड-न्यूज छापते हैं और उन्हें विभिन्न समितियों के सदस्य और मंत्री बनाने के लिए लाबिंग करते हैं, जिनके विरुद्ध अन्ना आन्दोलन कर रहे हैं. फ़िल्मी दुनिया से जुड़े लोगों का वैसे भी यह शगल है कि जहाँ चैरिटी दिखे, फोटो खिंचाने पहुँच जाओ.
कहते हैं साहित्य समाज को रास्ता दिखाता है, पर हमारे साहित्यजीवी तो खुद ही सत्ता से निर्देशित होते हैं. कोई किसी सम्मान-पुरस्कार के लिए, कोई संसद में बैठने के लिए तो कोई किसी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए या किसी अकादमी का अध्यक्ष-सदस्य बनने के लिए सत्ता की चारणी करते हैं. पर किसी के पक्ष में वक्तव्य देने में भी सबसे माहिर होते हैं ये कलमजीवी. अन्ना के इस आन्दोलन में भी उनकी भूमिका इससे ज्यादा नहीं है. दो-चार लेख लिखने और पत्र-पत्रिकाओं के एकाध पन्ने भरकर ये अपने काम की इतिवृत्ति समझ लेते हैं. अदालत में सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने वाले वकील भले ही अपने पेशेगत प्रतिबद्धतता की आड लें, पर पब्लिक सब जानती है. कितने लोग इस आन्दोलन के समर्थन में अपनी बैरिस्टरी छोड़ने को तैयार हैं ?
फेसबुक-ट्विटर-आर्कुट पर अन्ना के पक्ष में लिखने वाले कित्ते गंभीर हैं, यह अभी से दिखने लगा है. अभी कुछ दिनों पहले लोग बाबा रामदेव का गुणगान कर रहे थे, अब अन्ना का, फिर कोई और आयेगा, पर हम नहीं बदलेंगें. हम भीड़ का हिस्सा बनकर चिल्लाते रहेंगें कि गद्दी छोडो, जनता आती है (दिनकर) और लोग हमारे ही घरों पर कब्ज़ा कर बेदखल कर देंगें. एक शेषन जी भी आए थे. कहा करते थे राष्ट्रपति तो चोंगे वाला साधू मात्र है, उसे कोई भी शक्ति नहीं प्राप्त है, पर रिटायर्ड होते ही राष्ट्रपति का चुनाव लड़ बैठे.
गाँधी और जे.पी तो इस देश में मुहावरा बन गए हैं. हमारी छोडिये, जो उनकी बदौलत सत्ता की चाँदी काट रहे हैं वे भी उन्हें जयंती और पुण्यतिथि में ही निपटा देते हैं. अन्ना के बहाने अपने को चर्चा में लाने की हर कोई कोशिश कर रहा है, पर सवाल है कि अन्ना के बिना इस आन्दोलन का क्या वजूद है...शायद कुछ नहीं. आज अन्ना हट जाएँ तो हर कोई अपने बैनर और कैंडल उठाकर अपनी खोल में सिमट जायेगा. हम भीड़ का हिस्सा बनकर नारा लगाना जानते हैं, पर खुद क्यों कोई पहल क्यों नहीं करते. हम कभी मुन्नाभाई से प्रेरित होकर गांधीगिरी करते हैं, कभी दूसरे से. याद रखिये दूसरों की हाँ में हाँ मिलाकर और मौका देखकर भीड़ का हिस्सा बन जाने से न कोई क्रांति आती है और न कोई जनांदोलन खड़ा होता है. इसके लिए जरुरी है कि लोग स्वत: स्फूर्त प्रेरित हों और वास्तविक व्यवहार में वैसा ही आचरण करें. जिस दिन हम अपनी अंतरात्मा से ऐसा सोच लेंगें उस दिन हमें किसी बाहरी रौशनी (कैंडल) की जरुरत नहीं पड़ेगी.
59 टिप्पणियां:
"....जरुरी है कि लोग स्वत: स्फूर्त प्रेरित हों और वास्तविक व्यवहार में वैसा ही आचरण करें."
आलेख से शब्दशः सहमत.
सादर
बेहतरीन और बेबाक लिखा आकांक्षा जी आपने...
बेहतरीन और बेबाक लिखा आकांक्षा जी आपने...
बेहतरीन और बेबाक लिखा आकांक्षा जी आपने...
बेहतरीन और बेबाक लिखा आकांक्षा जी आपने...
आकाँक्षा जी आप ने अपने लेख मेँ बिल्कुल सटिक उल्लेख किया है,मैँ आपकी बातो से 100% सहमत हूँ
मैं आपकी बातों से सहमत हूँ भी और नहीं भी, नहीं का कारण फिलहाल नहीं दे सकता, काफी सोचना पड़ेगा :(
आकांक्षा जी , मैं न सिर्फ़ इस मुहिम को पहले दिन से बल्कि शायद उससे पहले से भी देख रहे हैं जो लोग इसे सिर्फ़ बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे से जोड कर देख रहे हैं मेरी समझ में नहीं आ रहा कि उन्हें किरन बेदी , अरविंद केजरीवाल ( जिनकी सूचना के अधिकार की लडाई के कारण आज बडे बडे अधिकारियों की रात की नींद हराम हो गई है ) शांति भूषण जैसे न्यायविद लोगों की उपस्थिति को बिल्कुल नज़र अंदाज़ क्यों कर रहे हैं । मैंने पिछले चालीस सालों में लोगों को यूं घर से बाहर निकलते हुए नहीं देखा और जम्मू , से लेकर गोहाटी तक , फ़रीदाबाद से लेकर मंगलूरू और विशाखापत्तनम तक से लोग सिर्फ़ वहां तमाशा देखने आए थे ऐसा नहीं लगता ..मैंने वहां लोगों का आक्रोश देखा है ..मैंने वहां लोगों को इन सबसे दूर बैठ कर बहस करते देखा है ..। मुझे नहीं पता कि कल क्या होगा लेकिन आज जो हो रहा है उसे सिरे से नकार के निराशावादी होने को मैं कतई तैयार नहीं हूं । एक बात और अगर ये भी ठीक नहीं है तो फ़िर प्रधानमंत्री तक की गद्दी पर बैठा व्यक्ति कहता है कि मैं मजबूर हूं । आप लोग ही विकल्प सुझाइए कि क्या किया जाए ...ध्यान रखना चाहिए कि ये स्थिति बासठ वर्षों में हुई है ..रातोंरात नहीं ..तो बदलव भी रातोंरात नहीं होगा ..आने वाली नस्लों को अगर इस लडाई से बचाना है तो हमें इस लडाई को लडना ही होगा ..बिना परिणाम की परवाह किए हुए
लेकिन क्या वाकई अन्ना के इस अभियान का कोई सार्थक अर्थ है ? इस मुहिम का कोई सकारात्मक अर्थ निकलने जा रहा है. इस देश में भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा नहीं है, बल्कि कई और भी ज्वलंत मुद्दे हैं. क्या एक जन लोकपाल आ जाने से सारी समस्याएं छू-मंतर हो जायेंगीं, मानो इसके पास जादू की कोई छड़ी हो और छड़ी घुमाते ही सब रोग दूर हो जाय....Bahut sahi likha apne Akanksha ji.
लेकिन क्या वाकई अन्ना के इस अभियान का कोई सार्थक अर्थ है ? इस मुहिम का कोई सकारात्मक अर्थ निकलने जा रहा है. इस देश में भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा नहीं है, बल्कि कई और भी ज्वलंत मुद्दे हैं. क्या एक जन लोकपाल आ जाने से सारी समस्याएं छू-मंतर हो जायेंगीं, मानो इसके पास जादू की कोई छड़ी हो और छड़ी घुमाते ही सब रोग दूर हो जाय....Bahut sahi likha apne Akanksha ji.
क्या कहें आपने तो वाकई निरुत्तर कर दिया..
एक बार इलाहाबाद से गुजर रहा था तो किसी संगठन का बैनर देखा कि हम दूसरी आजादी लायेंगें. यहाँ भी लोग दूसरी आजादी कि बात कर रहे हैं, पर इसके मायने क्या हैं किसी को नहीं पता. कहते हैं लोकतंत्र में जैसी जनता, वैसा शासन..फिर हम किसे दोष दे रहे हैं और क्यों ?
वाकई कौन सी क्रांति ला रहे हैं अन्ना ....इसका जवाब तो देनाही होगा. ??
प्रभावशाली विवेचन! यह एक मीडिया इवेंट बन गया जिसके अपने निहितार्थ हैं!मीडिया खुद ही भ्रष्ट हो चुका है ..उन्हें कवरेज का मसाला मिलता है ....और मीडिया हाउसेज खुद अपने पत्रकारों .संवाददाताओं का शोषण करते हैं जो बिचारे इसके समर्थन में गला फाड़ फाड़ कर इवेंट कवर कर रहे हैं -सोचिये खुद की उनकी आयरनी कितनी बड़ी है !
मतदाता भ्रष्ट है ,अकादमिक जगत भ्रष्ट है और खुद अन्ना की भीद्में कितने लोग हैं जो दूध के धुले नहीं !
बहती गंगा में हाथ धोने तरह तरह के पापी भी आ जुटते हैं -
भ्रष्टाचार समाज में समादृत हो चुका है -एक बड़ी सामाजिक क्रान्ति ही इसे दूर कर सकेगी !
आपके विचारों से पूर्ण असहमति। देशवासी परिवर्तन चाहते हैं और इसीलिये भारत से भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले सभी के साथ हैं।
बात तो आपकी सही है यह
थोड़ा करने से सब नहीं होता
फिर भी इतना तो मैं कहूंगा ही
कुछ न करने से कुछ नहीं होता
आज अन्ना हट जाएँ तो हर कोई अपने बैनर और कैंडल उठाकर अपनी खोल में सिमट जायेगा. हम भीड़ का हिस्सा बनकर नारा लगाना जानते हैं, पर खुद क्यों कोई पहल क्यों नहीं करते.
आपकी बात से सहमत.
आकांक्षा जी, यह टिप्पणी मुझे दोबारा लिखनी पड़ रही है क्योंकि पहली टिप्पणी को ब्लॉगर ने स्वीकार नहीं किया। 'कौन-सी क्रांति ला रहे हैं अन्ना'--इस शीर्षक में ही अण्णा के प्रति परिहास का भाव झलकता है, जो आपकी सोच की दिशा को आसानी से बता देता है। लोग अगर कभी बाबा रामदेव के तो कभी अण्णा के पीछे दौड़ रहे हैं तो इसका यही अर्थ निकाला जाना चाहिए कि लोग भ्रष्ट-तन्त्र से आजिज आ चुके हैं और उससे लड़ने व बदलने के लिए एक अगुआ के इंतजार में हैं। क्रान्तियाँ एक ही दिन में और एक ही व्यक्ति के प्रयास से नहीं आ जातीं; वे एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही परिपक्वता को प्राप्त होती हैं। देश की स्वाधीनता के लिए भी लोग अपने पूर्व नेताओं को छोड़कर महात्मा गाँधी के पीछे लग गये थे--हुआ न चमत्कार! आज यह भी सिद्ध हो गया कि ब्लॉग्स के सभी टिप्पणीकार गम्भीर सोच वाले नहीं हैं, उथले भी हैं।
सार्थक आलेख सही मौके पर....विचारणीय.
@KK Yadav ने कहा…
आज अन्ना हट जाएँ तो हर कोई अपने बैनर और कैंडल उठाकर अपनी खोल में सिमट जायेगा. हम भीड़ का हिस्सा बनकर नारा लगाना जानते हैं, पर खुद क्यों कोई पहल क्यों नहीं करते.
एक अन्ना हटेंगे तो दूसरे आयेंगे। जिन्हें निकम्मे प्रशासन की मोटी खाल पर अहिंसक आन्दोलनों से असर पडता नहीं दीखता वहाँ हिंसक आन्दोलन भी होते हैं। तथ्य यह है कि आम जनता नेता/आइ.ए.ऐस/आइ.पी.ऐस के निकम्मे, भ्रष्ट और प्रशासनहीनतंत्र से त्रस्त है और परिवर्तन चाहती है। रिश्वत से लेकर आतंकवाद तक, देश की अधिकांश समस्याओं की जड में सत्ता पर काबिज़ यही निकम्मा/भ्रष्ट वर्ग है।
रही बात खुद पहल करने की तो अगर हर आदमी इतना ही सक्षम हो पाता तो यह भ्रष्ट तंत्र एक दिन भी मुफ्त की बोटी नहीं तोड पाता और भारत भी कभी का जर्मनी और अमेरिका जैसा विकसित होता।
पुनश्च: आपकी इस पोस्ट को बेहतरीन बताने वाले और उससे शब्दश: सहमत होने वाले कुछ टिप्पणीकारों के हितार्थ यह शे'र और एक लिंक पेश है:
मैं चाहता हूँ निज़ामे कुहन बदल डालूं,
मगर ये बात फ़क़त मेरे बस की बात नहीं!
उठो बढ़ो, मेरी दुनिया के आम इंसानों,
ये सबकी बात है, दो चार दस की बात नहीं!
* ताज भोपाली
लिंक:http://utsahi.blogspot.com
मैं आपकी आलेख की कुछ बातों से सहमत हुॅ। अजय झा जी सही कह रहे है। वैसे भी देश में सबसे ज्यादा संख्या मध्यम वर्गीय परिवारों का है जो रोज कमाती है और रोज खाती है। ऐसे लोगों के दिल में आग तो पलती है पर वो साहस नहीं दिखा पाते क्योंकि इन्हें घर चलाना होता है। इन्हें एक चिंगारी की जरूरत होती है तब जाकर यहॉ ज्वालामुखी फटता है। अन्ना हजारे जी ने वो चिंगारी दिखाई। मैं मानता हुॅ कि देश में और भी सारी समस्याएॅ है जिनके खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है पर इसमें भ्रष्टाचार का नबंर पहले आ गया तो हर्ज क्या है।
विचारणीय पोस्ट , कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने है
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बेहतरीन, बेबाक विश्लेषण...
मसीहा की तलाश में बैठे हम लोग भ्रष्टाचार को तो हटाना चाहते हैं पर दूसरे के घर-दिल-दिमाग से... हमारा आचरण हमारे कथन से मेल नहीं खाता... कितने ईमानदार दिखाई देते हैं आपको इर्द-गिर्द...
कोई क्रांति नहीं आने वाली... ग्राम पंचायत के इलेक्शन में तक योग्य-ईमानदार की कोई पूछ नहीं... अगले इलेक्शन में फिर देखियेगा... जात-धर्म और क्षेत्र के आधार पर चोरों को ही चुनेगी जनता... और उम्मीद करेगी कि वे भ्रष्टाचार मिटायें...
...
mein aapki baat se sahmat hu, lekin kisi n kisi ko suruwaat to karni hi thi n, ab hmaari jimmedari ye banti hai ki hm is muhim ko thamne n de ise us mukaam tk le jaaye janha is desh ko iski jarurat hai...
@ आकांक्षा जी ! हमारी वाणी पर लेख का शीर्षक देखकर आपके ब्लॉग पर आया और आपका पहला लेख पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां आकर निराश नहीं होना पड़ा। आपने सच बात कही, मेरे मन की कही और जो मैं लिखने का इरादा कर रहा था, वह आपकी क़लम से ही सामने आ गया। लोग वास्तव में सुधार के इच्छुक होते तो सुधार की शुरूआत खुद से, अपने घर और अपने गांव से करते। बड़े नेता और अफ़सर बेईमान और भ्रष्ट हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि इस देश के ग़रीब नेक हैं। बड़े लोग अपने दायरे में भ्रष्ट हैं और ग़रीब लोग अपने दायरे में। लोग अपने दायरे में बेईमान रहते और अनुशासनहीन रहते हुए दूसरों पर दबाव बना रहे हैं कि वे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ बन जाएं। दबाव में सरकार कोई क़ानून बना भी देगी तो भी क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है ?
क्या कन्या भ्रूण हत्या और दहेज निषेध के लिए, धोखाधड़ी, हत्या और दीगर तमाम जुर्मों को रोकने के लिए पहले ही क़ानून बने हुए हैं। इसके बावजूद हर साल क्राइम का ग्राफ़ बढ़ता ही जा रहा है। अन्ना हज़ारे का काम प्रशंसनीय है लेकिन हमें और भी ज़्यादा गहरी नज़र से देखना होगा और खुद को तो बहरहाल बदलना ही होगा।
एक अच्छे लेख के लिए आप यक़ीनन तारीफ़ की हक़दार हैं।
http://charchashalimanch.blogspot.com/2011/04/anwer-jamal.html
आकांक्षा जी , यह पहली पोस्ट है जो इस विषय पर अलग नज़रिया दर्शा रही है ।
लेकिन हैरानी तो इस बात की है कि जो लोग बाकि पोस्ट्स पर वाह वाही करने में जुटे हैं , वही यहाँ अलग भाषा बोल रहे हैं ।
हमारी सोई हुई आत्मा को जाग्रत करने के लिए किसी को तो पहल करनी ही होगी । और ऐसा काम अन्ना हजारे जैसा निस्वार्थ व्यक्ति ही कर सकता है ।
बेशक पंडाल में बैठने या खड़े होने वाले सभी लोग दूध के धुले नहीं हैं । लेकिन आज नहीं तो कल --कुछ तो बदलेगा --इसका विश्वास है ।
आकांक्षा जी
आप की कलम दो धारी नही बहुधारी तलवार है
क्या गज़ब सबको समान रूप से खोल के रख दिया
पर ये मत भूलिये कि एक बार फ़िर एक बूढ़ा शरीर जीने की राह दे रहा है, उसने बता दिया किया कि बदलाव के लिये गांधी कितने ज़रूरी थे हैं और रहेंगे !
उनकी नीयत पर कोई शक-ओ-शुबहा नही, तभी तो इतने लोग जुड़े हैं उनसे
यह भी की रास्ता दिखाई दिया....सबको
सवाल खड़े करती हुई पोस्ट. विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण जरूरी है. हुजूम को देखकर निर्णय लेना उचित नहीं है.
आपने बिलकुल ठीक कहा, हालाँकि शीर्षक से मैं ना इत्तेफाकी रखता हूँ... भर्ष्टाचार हमारे अन्दर से ही शुरू होता है, और जब तक आम जनता खुद इससे पीछा नहीं छुटाएगी, तब तक यह ज़हरीले सांप की तरह डसता ही रहेगा.... हम चाहते हैं कि दुसरे ठीक हो जाएं और हम वैसे के वैसे ही रहें.... दुसरे संघर्ष करें, भूख हड़ताल करें और हम बस दो शब्दों से उनकी वाहवाही करके इतिश्री पा लें.... इससे कुछ नहीं होने वाला... बल्कि बदलाव हमारे खुद को बदलने के प्रयास से ही आएगा...
अन्ना ने शुरुआत की है, यह हर एक के लिए अपने अन्दर के बदलाव का एक बेहतरीन समय है... उम्मीद है यह शब्दों से आगे बढ़कर यह बात दूर तलक जाएगी...
अकांक्षा जी आपने सही कहा है परन्तु हमें किसी ना किसी के साथ तो होना ही पढेगा ना तभी कहीं जाकर कुछ बन पायेगा और अगर हम सिर्फ सोचते ही रहे तो ये भ्रष्टाचार का दानाव इतना बड़ा हो जाएगा की आने वाले कल हमारे ही बच्चों को निगल जाएगा और मैं तो अजय झा जी के विचारों से सहमत हूँ आप जो कुछ भी सोचो वैसे अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर अगर कभी समय हो तो यहाँ भी जरूर आना
www.krantikarideshsevak.blogspot.com
आकांक्षा जी,
अन्यथा न लें। लगता है क्रांति की समझ में ही फेर है। सब से पहले तो ये कि क्रांति कभी कोई व्यक्ति नहीं करता। क्रांति हमेशा जनता करती है। इस लिए अन्ना कोई क्रांति लाएंगे ये किसी की समझ है तो बिलकुल गलत है। क्रांति तो जब भी होनी है जनता ने करनी है।
ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानून पहले नहीं थे। वे हैं, अदालतें भी हैं, विभाग भी है जो काम भी करते हैं। लेकिन जनता में जागरूकता की कमी है। जनता स्वयं भी उस कानून का उपयोग नहीं करती। करती भी है तो उस में इतनी पोल है कि अधिकांश अभियुक्त बरी हो जाते हैं।
कमी है तो जनता की जागरूकता में है। अण्णा ने वह अवसर प्रदान किया जिस से जनता के एक हिस्से में जागरूकता पैदा हुई। भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामूहिक आवाज उठने लगी। यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध यह आवाज उठना जारी रहा तो निश्चित ही अन्य मुद्दे भी उठेंगे। उन पर भी जनता आगे बढ़ेगी।
अन्ना कोई क्रांति नहीं ला रहे हैं और न वे इस का दावा करते हैं। लेकिन वे यह कहते हैं कि चुप न रहो। संगठित हो कर संघर्ष के मार्ग पर आगे बढ़ो।
bahut sundar lekh likha hai aapne....
आकांक्षा जी या आलेख आपकी पृष्ठभूमि के हिसाब से ठीक है... आप एक बड़े ब्यूरोक्रेट के परिवार से जुडी हैं.. सो वे विचार आयेंगे ही... जिन्हें लोकतंत्र में लोकहित में काम करना था उन्होंने देश की नीव में घुन लगा दिया.. अन्ना को व्यक्ति नहीं एक विचारधारा मानिए तो आपके आलेख का नजरिया बदल जायेगा...
संघर्ष अब हर पग में है।
अन्ना क्रांति कि राह सुझा रहे हैं ...भ्रष्टाचार से अकेला आदमी नहीं लड़ सकता ...पूरी व्यवस्था से लडने के लिए सहयोग की ज़रूरत है ..हर आम आदमी त्रस्त है सरकार के रवैये से ...आज एक अवसर मिला है कुछ करने का तो जनता जुडी है इस आंदोलन से ...कुछ न किया जाए उससे तो बेहतर है कि जो रास्ता दिखे उस पर चला जाए ...अब कुछ हासिल होता है या नहीं वो बाद की बात है ...
आपकी पोस्ट भी लोगों को सोचने का और जागरूक करने का काम कर रही है
व्यक्ति नहीं मुद्दा महत्वपूर्ण है...
गांधी नहीं गांधी की विचारधारा अमर है...
स्कूल के बच्चे धूप-गर्मी की परवाह किए बिना जंतर-मंतर पर आ जुटे...सिर्फ इसलिए कि वो अपना भविष्य भ्रष्ट भारत में नहीं देखना चाहते...क्या वो भी किसी उकसावे पर वहां आए...
सरकार की मंशा पर मुझे भी भरोसा नहीं है...लेकिन क्या ये पहली बार नहीं हुआ सरकार को जनता की आवाज़ के सामने घुटने टेकने पड़े...
इस पूरे प्रकरण के दौरान सम्वेदना के स्वर की ये दो पंक्तियां सटीक विश्लेषण कर देती हैं...
भेड़ियों के झुंड में खलबली है,
एक गाय ने शमशान की राख सींग पर मली है...
जय हिंद...
संयोग की ही बात है कि बिखरे भावों के साथ ही सही लेकिन काफी-कुछ ऐसी ही बात परसों मेरे मन में भी आई थी जिसको कि ब्लॉग पर भी लोगों से शेयर किया था. असल में सच में कुछ करने के लिए एक तरफी नहीं बल्कि दो तरफी लड़ाई लड़नी होगी, मेडिकल साइंस से सबक लेते हुए. जैसे चिकित्सक घाव को भरने के लिए बाहर से मरहम और अन्दर से भरने के लिए दवा खाने को देता है ठीक वैसे ही हमें बाहर से ऐसे आन्दोलन चलाते रहने की भी जरूरत है और स्वयं में सुधार लाने की भी. परिणाम मिलने में समय भले ही लग जाए लेकिन इस तरह कार्य करने से बदलाव आना निश्चित है. बस ख्याल रहे कि हम नकारात्मक ना होने पायें ये ख्याल रखना है. अपनी आलोचना भी इसीलिये करना है कि अपनी बुराइयों को दूर कर सकें. हालांकि कहना आसान है और करना कठिन, फिर भी इस सोच को मूर्तरूप दिए बिना काम नहीं हो सकता. अच्छा है शुरुआत हम सब करें, इसके लिए अपने और अपने परिवारीजनों के हितों के प्रति मोह भी कम करना ही होगा क्योंकि मोह ही भ्रष्ट आचरण का प्रथम कारण है.
All has to understand this is the starting of Kranti there are lot of issues in our country,govt should take proactive approach.There rae lot of Andolans will take place like this as it is the past.
आपने वर्तमान वातावरण का जो चित्रण किया है वह सही है। कमोबेश सभी यह जानते भी हैं। लेकिन बात उसके आगे की हो रही है।
जिन्हें कोई काम करना नहीं आता वे आलोचक बन जाते हैं। समस्या का पता सबको है। समाधान खोजने की जहमत उठाना कम लोग चाहते हैं।
अन्ना ने एक कोशिश की है। उसका समर्थन होना चाहिए। आज सूचना का अधिकार कानून जो हमारी प्रशासनिक व्यवस्था की शक्ल बदलने में कामयाब हुआ है वह अन्ना जैसे लोगों की मेहनत का ही परिणाम है। जन लोकपाल के आ जाने से जरूरत सूरत बदलेगी।
अन्धकार को क्यों धिक्कारें, नन्हा सा एक दीप जलाएँ।
इस आलेख के उद्देश्य से और विषयवस्तु से असहमत।
आकांक्षा जी,
जहाँ अधिकतर ब्लागर अन्ना के पक्ष में जय-जय कर कर रहे थे, वहां आपकी पोस्ट आत्म विश्लेषण का मौका देती है. दुर्भाग्यवश हम सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते. अन्ना कोई पहले व्यक्ति नहीं हैं जो आन्दोलन और क्रांति की बात कर रहे हैं, इससे पहले भी काफी लोगों ने यह बीड़ा उठाया है. बस हमें अपनी स्मरण शक्ति पर जोर देना है की उनका हश्र क्या हुआ?...और तब क्या जनता-जनार्दन सो रही थी. जिस जे.पी. ने सत्ता पलट दिया, जनता कुछ ही सालों के भीतर जे.पी. को भुलाकर पुन: उसी तानाशाह इंदिरा को ले आई. हर बार चुनाव होते हैं, पर हर बार नेता यही कहते हैं कि जनता कि स्मरण शक्ति बहुत कमजोर है, उन्हें अपनी गृहस्थी से फुर्सत ही नहीं. मह्नागाई, भ्रष्टाचार न जाने कितनी बार आये और गए पर हम तो अपनी जाती और धर्म का बंद देखकर वोट दे आये. जब हमारी मानसिकता में ही खोट है तो एक अन्ना कहाँ से क्रांति लायेंगें....??
आकांक्षा जी, आपकी बातों से शत-प्रतिशत सहमत. सवाल पैदा होता है कि अन्ना अनशन से उठ क्यों गए. उनकी तो सारी बातें सरकार ने मानी भी नहीं. वो तो यही कह रहे थे कि जब तक सारी बातें मान नहीं ली जायेंगीं, उपवास पर रहूँगा. कहीं यह डर तो नहीं था कि ये जो नौजवान उनके साथ दिख रहे हैं IPL मैचों के साथ ही TV से चिपक जायेंगें और मिडिया जो अभी अन्ना को इतना भाव दे रहा है, उसके लिए अन्ना गौड़ हो जायेंगें. सही समय चुना अन्ना ने अपने को अ-प्रासंगिक बनाने से बचने के लिए. आखिर वो भी जनता कि नब्ज़ पकड़ते हैं, कब पलटी मार जय कोई भरोसा नहीं. बाबा रामदेव भी तो उन्हें शायद यही सीख देने गए थे कि कल मेरी जय बोल रहे थे, आज आपकी, कल किसी और की. किसी भी नेतृतव की इच्छा शक्ति से ज्यादा जरुरी है उसके पीछे चलने वाले भी इमानदार हों.
@ बलराम अग्रवाल जी,
आप अन्ना के समर्थक है, यहाँ तक तो बात समझ में आती है. पर इस पोस्ट कि शीर्षक में जो आपकी निगाह में तथाकथित परिहास झलकता है, वह मेरी समझ में नहीं आई. अपने रटी -रटाई बात तो कह दी कि -''क्रान्तियाँ एक ही दिन में और एक ही व्यक्ति के प्रयास से नहीं आ जातीं; वे एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही परिपक्वता को प्राप्त होती हैं।''...पर यह कहने से क्यों चूक गए कि क्रांति के लिए इच्छा-शक्ति की भी जरुरत होती है. न तो क्रांतियाँ बयानबाजी से आती हैं और न ही शेरो शायरी से. भगत सिंह को आज भी क्रांतिकारियों में श्रद्धा से देखा जाता है, पर उसी भगत सिंह को गाँधी जी ने कोई तवज्जो नहीं दी, आखिर क्यों ? क्या उन्हें यह डर था कि कहीं आजादी का श्रेय ये नौजवान न ले जाएँ. क्रांति का प्रकाश इच्छा शक्ति और समर्पण से फैलता है, मोमबत्तियां जलाकर नहीं. मोमबत्तियां तो हमने आरुषी के लिए भी जलाई थीं, मीडिया से लेकर फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट पर. पर आज भी आरुषी की आत्मा न्याय पाने के लिए भटक रही है.
ममता कालिया जी की अन्ना जी के आन्दोलन पर टिपण्णी गौरतलब है- ''मुझे यह आधी-अधूरी लड़ाई लग रही है और हम सभी कभी न कभी भ्रष्टाचार से जाने कब से लड़ रहे हैं." (दैनिक जागरण, 8 अप्रैल, 2011).
@ Smart Indian,
नेता/आइ.ए.ऐस/आइ.पी.ऐस के निकम्मे, भ्रष्ट और प्रशासनहीनतंत्र से त्रस्त है और परिवर्तन चाहती है। रिश्वत से लेकर आतंकवाद तक, देश की अधिकांश समस्याओं की जड में सत्ता पर काबिज़ यही निकम्मा/भ्रष्ट वर्ग है।
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कौन चुनता है इन नेताओं को. हम और आप. ये अधिकारी किसके घर के हैं-हमारे और आपके. ये आतंकवादी और नक्सली तो रोज आम जनता को भून रहे हैं, उन पर क्यों नहीं ऊँगली उठाते. दूसरों पर दोषारोपण कर हम अपनी कमियां नहीं छुपा सकते. अन्ना के साथ कड़ी किरण बेदी भी तो IPs रही हैं, फिर यदि ये आपके शब्दों में 'आइ.पी.ऐस के निकम्मे' हैं तो उन्हें अपने साथ लेकर क्यों आन्दोलन कर रहे हैं अन्ना हजारे !!
अन्ना साहब के जन लोकपाल से क्या होने जा रहा है इस देश में. मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार व्यक्ति को भी इस व्यवस्था ने पंगु बना दिया है. अन्य देशों में क्रांतियाँ संभव है क्योंकि वे यूनाइटेड हैं, पर भारत में तो जाति, धर्म , क्षेत्र की भावना इतनी प्रबल है कि ऐन वक़्त पर आपस में ही लड़ जायेंगें. इसी कमजोरी का लाभ उठाकर विदेशियों ने हम पर राज किया और आज भी यही हो रहा है. हर दल जाति-धर्म-बहुबल-धनबल के आधार पर चुनाव लड़ता है और हम उन्हें चुनकर संसद में भेजते हैं, फिर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार भागो. जब तक समाज से यह दोहरा चरित्र ख़त्म नहीं होगा, तब तक किसी सकारत्मक कदम की आशा हास्यास्पद है.
यही तो विडम्बना है -गाँधी, नेहरु, भगत सिंह पैदा हों, पर हमारे नहीं पडोसी के घर में. और हम उनकी हाँ में हाँ मिलकर अपनी क्रांति का कोटा पूरा कर लें.
वैचारिक पोषण मुहैया कराती हुई आपकी इस पोस्ट का ज़िक्र बंदे ने दो जगह किया है
आकांक्षा जी , यह पहली पोस्ट है जो इस विषय पर अलग नज़रिया दर्शा रही है
अन्ना हज़ारे का काम प्रशंसनीय है लेकिन हमें और भी ज़्यादा गहरी नज़र से देखना होगा Anna Hajare
लेख पढ़ी, आप के तर्क ने मुझे फिर से सोचने को मजबूर कर दिया .यह तो स्पष्ट है इस आन्दोलन से भारत की सोई हुई जनता तो जाग गई. उनके अन्दर की चिनगारी को जगाने के लिए किसी को तो आगे आना ही था .ये सच है कि जंग यही समाप्त नहीं होनी चाहिए .कल क्या होगा पता नहीं ? लेकिन आज हमें अधिक जागरुक रहने की जरुरत है अपने हक के लिए लडने में क्या बुराई है ?
आकांक्षा जी,
’भ्रष्टाचार का मुद्दा’ कोई छोटा मुददा नहीं हॆ.किसी भी बडे काम की सफलता के लिए-सामूहिक प्रयास करना पडता हॆ.योजनाबद्ध तरीके से आगे बढना पडता हॆ.सामूहिक प्रयास के लिए यह भी जरूरी हॆ कि एक कुशल नेतृत्व हो.यह एक सार्वभॊमिक सत्य हॆ कि हर घर में-भगतसिंह,चन्द्र्शेखर आजाद,गांधी या अन्ना हजारे जॆसे व्यक्तित्व पॆदा नहीं हो सकते.’भ्रष्टाचार के मुद्दे’ पर यदि अन्ना हजारे जॆसे लोगों ने जन-आन्दोलन खडा किया हॆ,तो हमें उनके इस प्रयास में अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग करना चाहिए.आपके इस लेख में कुछ निराशा का भाव दिखाई देता हॆ.इस तरह का लेख-आपकी कलम से पहली बार पढने को मिल रहा हॆ.श्री अजय कुमार झा,समार्ट इंडियन व श्री बलराम अग्रवाल जी की टिप्पणी व फिर अन्य मित्रों की टिप्पणियां पढने के उपरांत कृपया उक्त विषय पर एक बार पुन: चिंतन करें.
आकांक्षा जी! भारत में राजनैतिक सत्ता के गुलगुले जाति-धर्म के गुड़ से बनते हैं। यदि गुड़ खराब होगा तो उससे बना हर पकवान खराब होगा। गुड़ को शोधित किए बिना अच्छे पकवान की कल्पना करना व्यर्थ है।
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@ एक व्यक्ति ने एक व्यंग्यकार से प्रश्न किया गया कि भारत में भ्रष्टाचार का ग्राफ इतना ऊँचा क्यों है? उसका उत्तर था कि अधिकांश लोग चाह्ते हैं कि सरदार भगतसिंह यदि पुर्न जन्म लें तो पड़ोसी के घर में लें और माइकेल जैक्शन अथवा नटवर लाल उनके घर में। अगर कोई आफ़त आवे तो पड़ोसी के घर में आवे और उसका घर सुरक्षित रहे।
================ सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
यह क्रांति या आंदोलन की बात नहीं है, शायद यह निरीह होने का आक्रोश है..
Vastutah yeh janandolan nahi balki media movment jyada raha kyonki bheed photo khichane wali jyada thi jiska samajik sarokar na ke barabar tha.jo tathakathit budhdhijive ikattha bhi hue wah is tarah ke har manch pe dikh jate hain ( ya dikhaye jate hain...karan TRP)aur jo apne niji jivan mein in sab prajatantrik mulyon se koson door rahte hain. achchha hota ki is per bahas chhedi jati aur janta so kisi bhi neta, abhineta, prashashak aur vyapari se shayad kam bhrashta nahi hai ( kyonki pata to tab chalega jabki use mauka diya jay), ko is bahas mein bahut shiddat se shamil kiya jata.. kanoon to sabhi achchhe hain per burai use lagoo karne mein hi hoti hai..yadi ham aisa nahi karenge to parinam wahi hoga...DHAK KE TEEN PAAT
आन्दोलन चला तो तेजी से पर इसे कुछ लोगों ने हाइजैक कर लिया.
mujhe samajh nahin aata internet ke madhyam se apni abhivyakti dene wale logon ko shankit nigahon se kyo dekha ja raha hai. in users men se hi log annaji ke sath jantar mantar aur desh ke kone kone men bahar nikle. egypt ka sashakta udaharan abhi taja hi hai. esi shankalu baton ko men ise aur pratibadhhata lane ke liye kasauti par parakhne wala jatan man sakta hun.
A revolution may take place or not, one must raise voice if one feels all is not well. That is what Anna did. Awakening is a slow process and more so in a society carrying all the evils of a long servile past.
-Virendra Singh Godhara
अपनी सोच को सुधारों, बाकि अपने आप सुधर जायेगा.. आपके विचार से सबको PM होना चाहिए, क्यूँ पूरी सर्कार एक के पीछे चले.. अगर यही सोच है तो हमें लीडर-शिप के ऊपर लिखा पूरा मटेरिअल जला देना चाहिए. अन्ना एक जन नेता बन के उभर रहे है. किसी ज़माने मई गांधीजी जन ने बन गए थे. आपके कहने का अर्थ है की नेहरुजी और देश की लाखो लोगो की जो भावनाएं घंधिजी के पीछे थी, वो केवल भीड़ की अप्रबंधित सोच थी. शर्म आती है एसी सोच वाले लोगो के लिए
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