
कनाडा की तर्ज पर भारत में भी स्लट-वाक निकला. नाम दिया गया बेशर्मी मोर्चा. कनाडा में एक कांस्टेबल ने टिपण्णी की कि महिलाओं के कपड़े उनके प्रति हो रहे अपराध के कारण हैं और तूफान मच गया. फिर तो इसके प्रति दुनिया भर में प्रतिरोध उठा. फिर तो इसके प्रति दुनिया भर में प्रतिरोध उठा की आखिर महिलाओं के कपड़ों में बे-शर्मी देख रहे लोग अपनी आँखों की बेशर्मी से क्यों मुँह चुरा रहे हैं ? आखिर बार-बार ये बे-शर्म निगाहें महिलाओं को सेक्स-आब्जेक्ट के रूप में ही क्यों देखना चाहती हैं ? खैर दिल्ली में निकले बेशर्मी-मोर्चा ने इस ओर लोगों का ध्यान खींचा है, और इसकी सफलता-असफलता और प्रासंगिकता को लेकर सवाल-जवाब खड़े हो सकते हैं.
पर जहाँ तक भारत का सवाल है यहाँ महिलाओं के पहनावों और उसको लेकर कि जा रही टिप्पणियां नई नहीं हैं. लगभग हर लड़की को किसी-न-किसी रूप में इससे एक बार रु-ब-रु हुआ होना होगा. कभी परिवारजनों की टोका-टोकी तो कभी स्कूल में बंदिशें. अभी कुछ महीनों पूर्व जिलाधिकारी, लखनऊ ने राजधानी के छात्र-छात्राओं को स्कूल/कालेज यूनिफार्म में सार्वजनिक स्थानों यथा-सिनेमा घर, मॉल, पार्क, रेस्टोरेन्ट, होटलों में स्कूल/कालेज टाइम में स्कूली ड्रेस में जाने से प्रतिबन्धित कर दिया और यह भी कहा कि स्कूली ड्रेस में इन स्थानों पर पाये जाने पर छात्र-छात्राओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी। उनका कहना था कि छात्र छात्राएं स्कूल यूनिफार्म में स्कूल-कॉलेज छोड़कर घूमते पाए जाते हैं, जिससे अभद्रता छेड़खानी, अपराधी और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। यानी फिर से वही सवाल- ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड.
कभी जींस पर प्रतिबन्ध तो कभी मॉल व थियेटर में स्कूली ड्रेस में घूमने पर प्रतिबन्ध. दिलोदिमाग में ख्याल उठने लगता है कि क्या यह सब हमारी संस्कृति के विपरीत है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर है कि वह ऐसी चीजों से प्रभावित होने लगती है? फिर तालिबानी हुक्म और इनमें अंतर क्या ? पहले लोग कहेंगें कि स्कूली यूनिफ़ॉर्म में न जाओ, फिर कहेंगे कि जींस में न जाओ... क्या इन सब फतवों से लड़कियां ईव-टीजिंग की पीड़ा से निजात पा लेंगीं। एक बार तो कानपुर के कई नामी-गिरामी कालेजों ने सत्र प्रारम्भ होने से पहले ही छात्राओं को उनके ड्रेस कोड के बारे में बकायदा प्रास्पेक्टस में ही फरमान जारी कर दिया कि वे जींस और टाप पहन कर कालेज न आयें। इसके पीछे निहितार्थ यह है कि अक्सर लड़कियाँ तंग कपड़ों में कालेज आती हैं और नतीजन ईव-टीजिंग को बढ़ावा मिलता है। स्पष्ट है कि कालेजों में मारल पुलिसिंग की भूमिका निभाते हुए प्रबंधन ईव-टीजिंग का सारा दोष लड़कियों पर मढ़ देता है। और यही कम पुलिस और प्रशासन के लोग भी करते हैं. अतः यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि वे अपने को दरिंदों की निगाहों से बचाएं।
क्या अपने देश में राजधानियों और महानगरों की कानून-व्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी है कि लडकियाँ घरों में कैद हो जाएँ. लड़कियों के दिलोदिमाग में उनके पहनावे को लेकर इतनी दहशत भर दी जा रही है कि वे पलटकर पूछती हैं-’’ड्रेस कोड उनके लिए ही क्यों ?'' अभी ज्यादा दिन नहीं बीते होंगे जब मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में एक स्कूल शिक्षक ने ड्रेस की नाप लेने के बहाने बच्चियों के कपड़े उतरवा लिए थे. फिर भी सारा दोष लड़कियों पर ही क्यों ? यही नहीं तमाम काॅलेजों ने तो टाइट फिटिंग वाले सलवार सूट एवं अध्यापिकाओं को स्लीवलेस ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। शायद यहीं कहीं लड़कियों-महिलाओं को अहसास कराया जाता है कि वे अभी भी पितृसत्तात्मक समाज में रह रही हैं। देश में सत्ता शीर्ष पर भले ही एक महिला विराजमान हो, संसद की स्पीकर एक महिला हो, सरकार के नियंत्रण की चाबी एक महिला के हाथ में हो, लोकसभा में विपक्ष की नेता महिला हो, यहाँ तक कि तीन राज्यों में महिला मुख्यमंत्री है, पर इन सबसे बेपरवाह पितृसत्तात्मक समाज अपनी मानसिकता से नहीं उबर पाता।
सवाल अभी भी अपनी जगह है। क्या महिलाओं या लड़कियों का पहनावा ईव-टीजिंग का कारण हैं ? यदि ऐसा है तो माना जाना चाहिए कि पारंपरिक परिधानों से सुसज्जित महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है। ग्रामीण अंचलों में छेड़खानी व बलात्कार की घटनाएं तो किसी पहनावे के कारण नहीं होतीं बल्कि अक्सर इनके पीछे पुरुषवादी एवं जातिवादी मानसिकता छुपी होती है। बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार भला किसे नहीं याद होगा? रोज बाबाओं के किस्से सामने आ रहे हैं कि किस तरह वह लोगों को अपने जाल में फंसकर उनका शोषण कर रहे हैं. घरेलू महिला अधिनियम के लागू होने के बाद भी घरेलू हिंसा में कमी नहीं आई है. बात-बात पर महिलाओं के प्रति अपशब्द, पुरुषों द्वारा सामान्य संवाद में भी उनके अंगों की लानत-मलानत क्या सिर्फ कपड़ों से उपजती है ?
हाल ही में दिल्ली की एक संस्था ’साक्षी’ ने जब ऐसे प्रकरणों की तह में जाने के लिए बलात्कार के दर्ज मुकदमों के पिछले 40 वर्षों का रिकार्ड खंगाला तो पाया कि बलात्कार से शिकार हुई 70 प्रतिशत महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनीं थीं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रति 51वें मिनट में एक महिला यौन शोषण का शिकार, हर 54वें मिनट पर एक बलात्कार और हर 102वें मिनट पर एक दहेज हत्या होती है। देश में बलात्कार के मामले 2005 में 18,349 के मुकाबले बढ़कर 2009 में 22,000 हो गए। महिलाओं के उत्पीड़न के मामले भी इस अवधि में 34,000 से बढ़कर 39,000 हो गए जबकि दहेज हत्याओं के मामले 2005 में 6,000 के मुकाबले 2009 में 9,000 हो गए। यही नहीं विश्व में सर्वाधिक बाल वेश्यावृत्ति भी भारत में है, जहाँ 4 लाख में अधिकतर लड़कियाँ हैं। क्या इन सब अपराधों का कारण महिलाएं या उनका पहनावा हैं ??
स्पष्ट है कि मारल-पुलिसिंग के नाम पर नैतिकता का समस्त ठीकरा लड़कियों-महिलाओं के सिर पर थोप दिया जाता है। समाज उनकी मानसिकता को विचारों से नहीं कपड़ों से तौलता है। कई बार तो सुनने को भी मिलता है कि लड़कियां अपने पहनावे से ईव-टीजिंग को आमंत्रण देती हैं। मानों लड़कियां सेक्स आब्जेक्ट हों। क्या समाज के पहरुये अपनी अंतरात्मा से पूछकर बतायेंगे कि उनकी अपनी बहन-बेटियाँ जींस-टाप य स्कूली स्कर्ट में होती हैं तो उनका नजरिया क्या होता है और जींस-टाप य स्कूली स्कर्ट में चल रही अन्य लड़की को देखकर क्या सोचते हैं। यह नजरिया ही समाज की प्रगतिशीलता को निर्धारित करता है। जरूरत है कि समाज अपना नजरिया बदले न कि तालिबानी फरमानों द्वारा लड़कियों की चेतना को नियंत्रित करने का प्रयास करें। तभी एक स्वस्थ मानसिकता वाले स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है।
किसी भी सभ्य समाज में लड़कियों/महिलाओं के प्रति अपशब्द, बात-बात पर उनकी लानत-मलानत, उनको सेक्स आब्जेक्ट मानने की प्रवृत्ति, आपसी संवाद में भी महिलाओं को घसीटना और उनके साथ दुष्कर्म जैसे घटनाएँ न सिर्फ आपत्तिजनक हैं बल्कि अपराध है. जरुरत सच्चाई को स्वीकार कर उसका हल निकालने की है. मात्र शोशेबाजी से कोई हल नहीं निकलने वाला और न ही महिलाओं के कपड़ों को उनके प्रति बढ़ रहे अपराध का कारण माना जा सकता है. समाज और प्रशासन अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए कब तक महिलाओं पर प्रश्नचिन्ह लगता रहेगा ??