भारतीय परम्परा का आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की ख़ास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-
बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।
विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज़्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-
पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।
विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वंदिता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-
कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।
बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-
हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।
सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु न तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों न हो-
चन्दा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।
विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेक़रारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-
पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
.जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी-हरी पतियाँ।
ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ़ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ़ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फ़सल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को ख़ूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलायें समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत् गाये जाते हैं।
वाकई, कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा।
(क्रमश: अगली पोस्ट में .....)
(पतिदेव कृष्ण कुमार जी का यह आलेख सृजनगाथा पर भी पढ़ा जा सकता है)
22 टिप्पणियां:
पढकर आनंद आ गया.आपने जो कजरी के बोल लिखे है वो सारे कभी ना कभी सुने हुए है, लेकिन ये गाने मैंने नेट पर सर्च किया लेकिन नहीं मिला,यदि आपको मालूम हो तो लिंक दीजियेगा.
कजरी के बारे में कितनी सारी जानकारियां मिल गईं...काश ये सुनने को भी मिलतीं.
कजरी के बारे में कितनी सारी जानकारियां मिल गईं...काश ये सुनने को भी मिलतीं.
कजरी के बारे में पढ़ा था, पर इसकी खूबसूरती को आज महसूस किया..वाकई शोधपरक लेख. के.के.जी और आकांक्षा जी को हार्दिक बधाई.
बढ़िया जानकारी ...
अच्छी पोस्ट...
बढ़िया जानकारी !!!
आपकी सूक्ष्मदृष्टि को शत-शत नमन। कजरी जैसे उपेक्षित (किन्तु अमूल्य) विष्य पर इतनी संजीदगी से लिखने के लिये साधुवाद।
इस लेख का लिंक हिन्दी विकिपिडिया के 'कजरी' नामक लेख पर दे दिया हूँ।
लोक संस्कृति की जड़ : कजरी...पढ़ा ...बढ़िया लिखने के लिये के.के.यादव जी और आकांक्षा जी को हार्दिक बधाई.
वाह नयी से नयी जानकारीयां मिलती है, मेरे ख्याल मै कजरी तीज को ही कहते होंगे, क्यो कि हरियाणा मै भी तीज गाई ही नही खेली भी जाती है, झुले पडते है
बहुत उम्दा जानकारी..हमारी ददिहाल और ससुराल-गोरखपुर और मिर्जापुर का जिक्र न हो कजरी में-ये भला कैसे हो सकता है. :)
ऐसी उम्दा और ज्ञानवर्धक जानकारी ,,,
कल कृष्ण जी को पढ़ा और आज
यहाँ जानकारी हासिल करने का सौभाग्य हुआ ..
आभार .
कजरी पर इतनी अच्छी पोस्ट। साधुवाद आपको इस शोध पर।
लगता है कजरी के रंग सभी को भा रहे हैं...
लगता है समीर अंकल जी को भी कजरी अच्छी लगती है, तभी तो इतने खुश दिख रहे हैं...
अरे वाह कजरी पार्ट -टू भी आ गयी मजा आ गया फिर से एक बार पढकर
वाकई, कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा।
...Bahut sahi likha apne..badhai.
बहुत दिन बाद कजरी के बारे में सुनकर आत्मिक शांति महसूस हुई..नगरों में तो लोग तरस गए हैं इन बोलों को सुनने के लिए. बहुत बधाई.
आनंद आ गया पढ़कर..शोधपरक लेख.
कजरी के बोल अनमोल ....मन को झंकृत कर गई यह खूबसूरत पोस्ट..बधाई.
Lajvab post..badhai.
नागपंचमी पर्व पर आप सभी को शुभकामनायें !!
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