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बुधवार, 18 मई 2011

मेघा रे मेघा...

गर्मी का प्रकोप जोरों पर है. तापमान 40-45 से ऊपर जा रहा है. यहाँ तक कि पहाड़ और समुद्र के किनारे बसे इलाके भी इसकी विभीषिका से जूझ रहे हैं. अंडमान में तो पहले अप्रैल से अक्तूबर तक घनघोर बारिश होती थी, पर सुनामी ने ऐसा कहर ढाया कि ऋतु-चक्र ही बदल गया. मई माह आधा बीतने वाला है, पर बमुश्किल 4-5 दिन बारिश हुई होगी. इसे पर्यावरण-प्रदूषण का प्रकोप कहें या पारिस्थितकीय असंतुलन। पर गर्मी की तपिश ने हर व्यक्ति को रूला कर रख दिया है. वरुण देवता तो मानो पृथ्वी से रूठे हुए हैं. मसूरी, शिमला, पचमढ़ी जैसी जिन जगहों को अनुकूल मौसम के लिए जाना जाता है, वहाँ भी गर्मी का प्रकोप दिखाई दे रहा है। पंखे छोडिये अब बिना ए. सी. के कम नहीं चलता.

ऐसे में रूठे बादलों को मनाने के लिए लोग तमाम परंपरागत नुस्खों को अपना रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि बरसात और देवताओं के राजा इंद्र इन तरकीबों से रीझ कर बादलों को भेज देते हैं और धरती हरियाली से लहलहा उठती है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो इन्द्र देवता ही बता पायेंगें. इनमें सबसे प्रचलित नुस्खा मेंढक-मेंढकी की शादी है। मानसून को रिझाने के लिए देश के तमाम हिस्सों में चुनरी ओढ़ाकर बाकायदा रीति-रिवाज से मेंढक-मेंढकी की शादी की जाती है। इनमें मांग भरने से लेकर तमाम रिवाज आम शादियों की तरह होते हैं। एक अन्य प्रचलित नुस्खा महिलाओं द्वारा खेत में हल खींचकर जुताई करना है। कुछ अंचलों में तो महिलाए अर्धरात्रि को अर्धनग्न होकर हल खींचकर जुताई करतीं हैं। बच्चों के लिए यह अवसर काले मेघा को रिझाने का भी होता है और शरारतें करने का भी। वे नंगे बदन जमीन पर लोटते हैं और प्रतीकात्मक रूप से उन पर पानी डालकर बादलों को बुलाया जाता है। एक अन्य मजेदार परम्परा में गधों की शादी द्वारा इन्द्र देवता को रिझाया जाता है। इस अनोखी शादी में इंद्र देव को खास तौर पर निमंत्रण भेजा जाता है। मकसद साफ है इंद्र देव आएंगे तो साथ मानसून भी ले आएंगे। गधे और गधी को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और शादी के लिए बाकायदा मंडप सजाया जाता है, शादी खूब धूम-धाम से होती है। बरसात के अभाव में मनुष्य असमय दम तोड़ सकता है, इस बात से इन्द्र देवता को रूबरू कराने के लिए जीवित व्यक्ति की शव-यात्रा तक निकाली जाती है। इसमें बरसात के लिए एक जिंदा व्यक्ति को आसमान की तरफ हाथ जोड़े हुए अर्थी में लिटा दिया जाता है। तमाम प्रक्रिया ‘दाह संस्कार‘ की होती है। ऐसा करके इंद्र को यह जताने का प्रयास किया जाता है कि धरती पर सूखे से यह हाल हो रहा है, अब तो कृपा करो।

इन परम्पराओं से परे कुछेक परम्पराएँ वैज्ञानिक मान्यताओं पर भी खरी उतरती हैं। ऐसा माना जाता है कि पेड़-पौधे बरसात लाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसी के तहत पेड़ों का लगन कराया जाता है। कर्नाटक के एक गाँव में इंद्र देवता को मनाने के लिए एक अनोखी परंपरा है। यहां नीम के पौधे को दुल्हन बनाया जाता है और अश्वत्था पेड़ को दूल्हा। पूरी हिंदू रीति रिवाज से शादी संपन्न की जाती है, जिसमें गाँव के सैकड़ों लोग हिस्सा हिस्सा लेते हैं. नीम के पेड़ को बाकायदा मंगलसूत्र भी पहनाया जाता है। लोगों का मानना है कि अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की शादी का आयोजन करने से झमाझम पानी बरसता है। इस सम्बन्ध में कई मान्यताएं भी हैं. मसलन, कहते हैं जब धूप भी हो और बारिस भी हो रही हो तो उस समय सियार का विवाह होता है. पर अब तो ऐसे दिन देखने को ऑंखें ही तरस गई हैं.


यह भी अजीब बात है कि, यह ईश्वरीय और कर्मकांडी आस्था भी तभी प्रबल होती है, जब आदमी पर मुसीबत पड़ती है. मनुष्य यह नहीं सोचता कि यदि बारिश नहीं हो रही तो इसका कारण वह स्वयं है और जरुरत उसके निवारण की है. जब तक मानव, प्रकृति से शादी (तदाद्मय) नहीं करेगा, बरसात के लिए तरसेगा ही. अब इसे परम्पराओं का प्रभाव कहें या मानवीय बेबसी, पर अंततः कुछ दिनों के लिए बारिश होती है लेकिन हर साल यह मनुष्य व जीव-जन्तुओं के साथ पेड़-पौधों को भी तरसाती हैं। बेहतर होता यदि हम मात्र एक महीने सोचने की बजाय साल भर विचार करते कि किस तरह हमने प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है, उसके आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया है, तो निश्चिततः बारिश समय से होती और हमें व्यर्थ में परेशान नहीं होना पड़ता। अभी भी वक्त है, यदि हम चेत सके तो इस पारिस्थिकीय-प्रकोप से बचा जा सकता है अन्यथा हर वर्ष इसी तरह इन्द्र देवता को मानते रहेंगें और इन्द्र देवता यूँ ही नखरे दिखाते रहेंगें !!

13 टिप्‍पणियां:

Maheshwari kaneri ने कहा…

हिन्दु परम्परा के अनुसार इन्द्र देवता को मनाने के विविध सुन्दर दृश्य का अवलोकन करवाया तथा साथ ही मानव को सचेत भी किया । सुन्दर प्रस्तुति के लिये ्धन्यवाद……

KK Yadav ने कहा…

...फिर भी इन्द्र देवता नहीं मान रहे हैं. रोचक पोस्ट..आभार.

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

वस्तुतः ढोंग-पाखण्ड पूर्ण कुरीतियों से कुछ नहीं होगा.जब तक लोग फिर से अपनी हवन पद्धति को नहीं अपना लेते ऐसे संकटों से झूजना ही होगा.हवन एक वैज्ञानिक-प्रक्रिया है जिसे लोग ठुकराते और टोटके -टोने को अपनाते हैं -वही मुसीबत की जद है.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

बहुत सार्थक और प्रेरणादायक लेख ....

हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीना चाहिए ....पर्यावरण सुरक्षा अति आवश्यक है

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति | धन्यवाद|

Urmi ने कहा…

सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार और प्रेरणादायक लेख! बधाई!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जिस दिन बरस जाये, उस दिन होने वाले कर्मकाण्ड मान्यता पा जाते हैं।

जीवन और जगत ने कहा…

पोस्‍ट पढ़कर व्‍याकुलता और बढ़ गई। यहॉं लखनऊ में भी भीषण गर्मी पड़ रही है। लेकिन पर्यावरण और ऋतु चक्र में होने वाली तमाम गड़बडि़यों के लिए हम ही जिम्‍मेदार हैं। दिनकर जी की कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं, ''रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चॉंद, आदमी भी क्‍या अनोखा जीव होता है। उलझने अपनी बनाकर आप ही फंसता, और‍ फिर बेचैन हो जगता न सोता है।''

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुन्दर प्रेरणादायक लेख!

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

jaandaar lekh....badhai

Unknown ने कहा…

आपने तो सही समय पर चेता दिया. काफी ज्ञानवर्धन भी हुआ..आभार.

Unknown ने कहा…

आपने तो सही समय पर चेता दिया. काफी ज्ञानवर्धन भी हुआ..आभार.

Udan Tashtari ने कहा…

आजकल यह ब्लॉग क्यूँ अपडॆट नहीं हो रहा है... :)